Rajasthan Board RBSE Class 11 Biology Chapter 4 जगत्: मोनेरा, प्रोटिस्टा तथा कवकें
RBSE Class 11 Biology Chapter 4 पाठ्यपुस्तक के प्रश्न
RBSE Class 11 Biology Chapter 4 वस्तुनिष्ठ प्रश्न
प्रश्न 1.
सर्वप्रथम जीवाणु की खोज की थी –
(अ) कोच
(ब) पाश्चर
(स) ल्यूवेनहॉक
(द) जेनर ने
प्रश्न 2.
म्यूकोपेप्टाइड लक्षण है –
(अ) जीवाणु
(ब) नीलहरित शैवाल
(स) हरित शैवाल
(द) यीस्ट का
प्रश्न 3.
बैंगन का लघुपर्णी रोग होता है –
(अ) शैवाल
(ब) वाइरस
(स) माइकोप्लाज्मा
(द) बैक्टीरिया
प्रश्न 4.
पादप जोकर कहा जाता है –
(अ) वाइरस
(ब) बेक्टिरिया
(स) कवके
(द) माइकोप्लाज्मा
प्रश्न 5.
माइकोप्लाज्मा की वृद्धि के लिए आवश्यक है –
(अ) वसा
(ब) स्टेरोल
(स) प्रोटीन
(द) कार्बोहाइड्रेट
उत्तरमाला:
1. (स), 2. (अ), 3. (स), 4. (द), 5. (ब)
RBSE Class 11 Biology Chapter 4 अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
जीवाणु विज्ञान का जनक किसे कहा जाता है ?
उत्तर:
एन्टोनी वान ल्यूवेनहॉक (Antony Von Leeuwenhoek) को जीवाणु विज्ञान का जनक कहते हैं।
प्रश्न 2.
शिम्बी (Leguminous) की मूल ग्रन्थियों में कौनसा जीवाणु पाया जाता है ?
उत्तर:
राइ जोबियम लेग्यूमिनो सेर म (Rhizobium leguminosarum) जीवाणु शिम्बी की मूल ग्रन्थियों में पाया जाता है।
प्रश्न 3.
ग्राम पोजिटिव जीवाणु क्या है ?
उत्तर:
वे जीवाणु जो ग्राम अभिरंजन (क्रिस्टल वायोलेट) से अभिरंजित कर देने तथा बाद में ऐल्कोहॉल से धोने पर भी अभिरंजित बने (बैंगनी रंग) रहते हैं, इन्हें ग्राम पोजेटिव जीवाणु कहते हैं।
प्रश्न 4.
ग्राम निगेटिव जीवाणु क्या है ?
उत्तर:
वे जीवाणु जो ग्राम अभिरंजन (क्रिस्टल वायोलेट) से। अभिरंजित कर देने तथा बाद में ऐल्कोहॉल से धोने पर अभिरंजन (बैंगनी रंग) छोड़ देते हैं, उन्हें ग्राम निगेटिव जीवाणु कहते हैं।
प्रश्न 5.
PPLO का पूरा नाम लिखिये।
उत्तर:
Pleuropneumonia like organism.
प्रश्न 6.
माइकोप्लाज्मा को बहुआकृतिक क्यों कहते हैं?
उत्तर:
माइकोप्लाज्मा में कोशिका भित्ति का अभाव होने के कारण इनकी आकृति अनिश्चित होती है। अतः ये बहुआकृतिक या बहुरूपी जीव होते हैं।
प्रश्न 7.
माइकोप्लाज्मा जनित दो पादप रोगों के नाम बताइये।
उत्तर:
- बैंगन का लघुपर्णी रोग (Little leaf disease of brinjal)।
- गन्ने का धारिया रोग (Stripe disease of sugarcane)।
प्रश्न 8.
माइकोप्लाज्मा जनित दो मानव रोग बताइये।
उत्तर:
- श्वसन नाल संक्र मण (Respiratory tract infection)।
- जननांग शोथ रोग (Inflammation of reproductive organs)।
प्रश्न 9.
कवकों का वर्गीकरण किसने दिया है ?
उत्तर:
ऐलेक्सोपोलस ने दिया है।
प्रश्न 10.
कवकों की कोशिका भित्ति का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
इनकी कोशिका भित्ति कवक सेल्यूलोज व काइटिन (Chitin) की बनी होती है।
RBSE Class 11 Biology Chapter 4 लघूत्तरात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
जीवाणुओं का वितरण बताइये।
उत्तर:
जीवाणु सर्वव्यापी है। ये भूमि, मृदा, वायु, जल, भोजन। व जन्तु आदि सभी में मिलते हैं। यहाँ तक कि मानव की आँत में भी ई.कोलाई नामक जीवाणु मिलते हैं। जीवाणु न्यूनतम (-190°C) से उच्चतम (78°C), तापमान में भी पाये जाते हैं। कुछ जीवाणु तो बर्फ व उबलते हुए जल में भी जीवित रहते हैं। ये हवा में हजारों फीट ऊँचाई तक व जमीन के नीचे लगभग 16 फीट की गहराई तक मिलते हैं। जीवाणु वर्षा जल, आसुत जल, कुएं के गहरे पानी तथा ज्वालामुखी की राख में नहीं मिलते हैं। इनकी उपलब्धता मल पदार्थों, फल, दूध, सब्जी आदि में अधिक होती है।
प्रश्न 2.
संपुटिका क्या है ? इसके कार्य समझाइये।
उत्तर:
प्रत्येक जीवाणु एक कोशिका भित्ति से ढका रहता है। यह कोशिका भित्ति कीटों में पाये जाने वाले बाह्य कंकाल के समान होती है। अधिकांश जीवाणुओं में कोशिका भित्ति के बाहर जैली के समान एक अतिरिक्त परत होती है इसे स्लाइम स्तर कहते हैं। कुछ जीवाणुओं में यह परत काफी मोटी होती है तब इसे कैप्सूल कहते हैं। इस स्लाइम स्तर में जटिल कार्बोहाइड्रेट्स, अमीनो अम्ल तथा गोंद पाये जाते हैं। जीवाणु की कोशिका भित्ति म्यूरेमिक अम्ल तथा डाइएमीनोपमेलिक अम्ल जैसे विशेष प्रकार के रासायनिक पदार्थों की बनी होती है। इन्हें पेप्टिडोग्लाइकेन कहते हैं।
कार्य (Function):
कैप्सूल जीवाणु को शुष्कन से बचाता है। यह जीवाणुओं की रोगजनक तीव्रता को बढ़ाता है तथा जीवाणु को कोशिका भक्षण (Phagocytosis) से बचाता है।
प्रश्न 3.
ग्राम नेगेटिव व ग्राम पोजिटिव में अन्तर बताइये।
उत्तर:
ग्राम नेगेटिव व ग्राम पोजिटिव जीवाणुओं में मुख्य अन्तर –
ग्राम +ve जीवाणु | ग्राम -ve जीवाणु |
1. कोशिका भित्ति एकस्तरीय, अधिक समांग (homogeneous) तथा दृढ़ होती है। | 1. कोशिका भित्ति बहुस्तरीय, कम समांगी व कम दृढ़ होती है। |
2. टीकोइक अम्ल उपस्थित | 2. अनुपस्थित |
3. मीजोसोम उपस्थित | 3. प्रायः अनुपस्थित |
4. कोशिका भित्ति में मुख्य रूप से पेप्टिडोग्लाइकन होता है। | 4. कम होता है। |
5. पेनिसिलिन के प्रति संवेदनशील होते हैं। | 5. पेनिसिलिन के प्रति अधिक प्रतिरोधी होते हैं। |
6. RNA तथा DNA का अनुपात 8 : 1 होता है। | 6. 1 : 1 होता है। |
7. स्ट्रेप्टोमाइसिन कम प्रभावी होता | 7. स्ट्रेप्टोमाइसिन का निरोधी (inhibitory) प्रभाव होता है। |
8. इनमें बहिः अविष (exotoxin) बनते हैं। | 8. इनमें अन्तराविष (endotoxin) बनते हैं। |
9. ग्राम अभिरंजन पर बैंगनी रंग धारण करते हैं। | 9. बैंगनी रंग छोड़ देते हैं। |
प्रश्न 4.
जीवाणु कोशिका का नामांकित चित्र बनाइए।
उत्तर:
प्रश्न 5.
माइकोप्लाज्मा की कोशिका की संरचना बताइये।
उत्तर:
माइकोप्लाज्मा की संरचना (Structure of Mycoplasma):
माइकोप्लाज्मा प्रोकेरियोटिक, एककोशिकीय सूक्ष्मजीव है। इसमें कोशिका भित्ति का अभाव होता है तथा बाहरी परत लाइपोप्रोटीनेसियसयुक्त (lipoproteinaceous), त्रिस्तरी (trilamellar), एकक झिल्ली (plasma membrane) की प्लाज्मा झिल्ली (plasma membrane) होती है। रासायनिक दृष्टिकोण से झिल्ली में लिपिड (फास्फोलिपिड) एवं कोलीस्टीरोल होते हैं। कोशिका भित्ति के अभाव फलस्वरूप ही माइकोप्लाज्मा पर एन्जाइम तथा पैनिसिलिन का प्रभाव नहीं होता है।
प्लाज्मा झिल्ली के अन्दर कोशिका द्रव्य भरा होता है जिसमें झिल्ली युक्त। कोशिकांगों, केन्द्रक झिल्ली तथा केन्द्रिका (nucleous) का अभाव होता है। इसमें कभी-कभी रिक्तिकायें (vacuoles) भी पाई जाती हैं तथा 70S के कणिकीय राइबोसोम (granular ribosome) पाये जाते हैं। माइकोप्लाज्मा के कोशिका द्रव्य में एक नग्न वृत्ताकार द्विकुण्डलित रेशेदार डी.एन.ए. (double helix fibrillar circular D.N.A.) होता है,
अनेक 70S के कणिकीय राइबोसोम, एकल कुंडलित आर.एन.ए. (single helix R.N.A.), वसा, घुलित प्रोटीन (soluble protein), एन्जाइम तथा अन्य उपापचयी पदार्थ पाये जाते हैं।
प्रश्न 6.
माइकोप्लाज्मा का संचरण किस प्रकार होता है ?
उत्तर:
- माइकोप्लाज्मा जनित पादप रोगों का संचरण एक विशेष प्रकार के कीट पातफुदक (leaf hopper) द्वारा ही होता है।
- पौधा रोपण या कलम बाँधने (grafting) से भी इसका संचरण होता है।
- अमरबेल (cuscuta) के द्वारा यह रोग एक पौधे से दूसरे पौधे में होता है।
प्रश्न 7
माइकोप्लाज्मा के सामान्य लक्षण लिखिये।
उत्तर:
माइकोप्लाज्मा के सामान्य लक्षण (General characters of Mycoplasma):
- माइकोप्लाज्मा सूक्ष्मतम (smallest) जीव होते हैं।
- माइकोप्लाज्मा एककोशिकीय, अचल (non-motile), प्रोकैरियोटिक (prokaryotic) तथा तले हुए अण्डे (fried egg) प्रकार की कॉलोनी (colony) जैसे प्रदर्शित होते हैं।
- ये गोलाभ या अण्डाकार समूह बनाते हैं तथा मिट्टी, वाहित मल (sewage), सड़े-गले पदार्थों व प्राणियों तथा पौधों में पाये जाते हैं।
- ये बहुआकृतिक या बहुरूपी (pleomorphic) जीव हैं, जो गोलाभ (spheroid), तन्तुल (filamentous), ताराकार (stellate) यो अनियमित पिण्ड के रूप में पाये जाते हैं। इसी कारण माइकोप्लाज्मा को जीव जगत के जोकर की उपमा दी गई है। वैसे इनकी आकृति संवर्धन माध्यम की प्रकृति पर निर्भर करती है। माइकोप्लाज्मा जैलीसेप्टीकम (M. gellisepticum) के कोशिका की आकृति कोका-कोला बोतल (Coca-Cola bottel) जैसी होती है।
- इन्हें कोशिका के अतिरिक्त स्वतंत्र माध्यम (Cell free media) अर्थात् अजैविक संवर्धन माध्यम में उगाया (संवर्धन = culture) जा सकता है। यदि संवर्धित माइकोप्लाज्मा को अचानक जल से तनु (dilute) में रख दें तो इनकी कोशिकायें फूलकर फट जाती हैं।
- माइ को प्लाज्मा परजीवी (parasitic) या मृतो पजीवी (saprophytic) होते हैं।
- इन्हें जीवाणुज फिल्टर (bacterial filter) से छानना असम्भव है (इनका आकार 100 से 500mm तक होता है)।
- इनमें कोशिका भित्ति (cell wall) का अभाव होता है और इसकी बाहरी परत त्रिस्तरीय (triple layered) लिपोप्रोटीन ant Tohoto fermont (unit membrane of lipoprotein) से बनी होती है।
- ये ग्राम अभिरंजन (gram stain) के प्रति अनुक्रिया प्रदर्शित नहीं करते हैं अतः माइकोप्लाज्मा ग्राम ऋणात्मक (gram negative) होते हैं।
- माइकोप्लाज्मा में दोनों प्रकार के न्यूक्लिक अम्ल (लगभग DNA = 4% तथा RNA = 8%) उपस्थित होते हैं।
- कोशिकाद्रव्य (Cytoplasm) में 70S प्रकार के राइबोसोम मिलते हैं।
- इनकी वृद्धि (growth) हेतु स्टीरोल की आवश्यकता होती है। इनमें लिपिड्स (lipids) कॉलेस्टरोल के रूप में रहते हैं।
- एन्जाइम के प्रति संवेदनशील नहीं होते तथा पैनिसिलिन (penicillin), वेनकोमाइसीन (vancomycin), सिफेलोरीडीन (cephaloridine) Fruif ufaalfaanit (antibiotics) at कोई प्रभाव नहीं होता है। इन पर टेट्रासाइक्लीन व क्लोरेम्फनिकोल जैसे प्रतिजैविक (antibiotics) का प्रभाव होता है, ये मुख्य रूप से उपापचयी क्रियाओं (metabolic processes) को प्रभावित करते हैं।
पूर्व में यह माना जाता था कि माइकोप्लाज्मा केवल प्राणियों में ही रोग उत्पन्न करते हैं परन्तु जापानी वैज्ञानिक डोय व इनके सहयोगियों (DOi et al, 1967) ने रोगी पौधों में भी बहुरूपी माइकोप्लाज्मा जैसे जीव (Mycoplasma like organism = MLO) बताये। माइकोप्लाज्मा के रोगाणु शीतोष्ण (temperate) व उष्णकटिबंधीय (tropical) क्षेत्रों में मिलते हैं परन्तु उष्ण क्षेत्रों की फसलों (कपास, धान, आलू, मक्का) में अधिक रोग उत्पन्न करते हैं।
माइकोप्लाज्मीय रोग से संक्रमित पौधों में ये रोगाणु अर्थात् माइकोप्लाज्मा, पादपों के फ्लोयम (phloem) तत्त्वों की मुख्य रूप से चालनी नलिकाओं (sieve tubes) व फ्लोयम मृदूतक (phloem parenchyma) में ही पाये जाते हैं। अध्ययन के आधार पर डोय (Doi) ने बताया कि अनुमानतः फ्लोयम का उच्च परासरणीय दाब (high osmotic pressure) व क्षारीय (alkaline PH) लक्षण माइकोप्लाज्मा की वृद्धि हेतु अनुकूल स्थितियाँ उत्पन्न करती हैं। माइकोप्लाज्मा कीट, जन्तुओं व मानव की लार ग्रन्थियों (Salivary glands) में रहते हैं। यही नहीं पुष्पों के मकर ग्रन्थियों (nectar glands), जीर्ण क्लोरोप्लास्ट (old chloroplast) में भी माइकोप्लाज्मा की उपस्थिति बताई गई है।
वर्गीकरण (Classification):
वर्ग – मोलीक्यूट्स
(Class) (Mollicutes)
गण – माइकोप्लाज्मेटेलीज
(Order) (Mycoplasmatales)
कुल – माइकोप्लाज्मेटेसी
(Family) (Mycoplasmatacae)
वंश – माइकोप्लाज्मा
(Genus) (Mycoplasma)
प्रश्न 8.
माइकोप्लाज्मा में जनन पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिये।
उत्तर:
प्रजनन (Reproduction):
माइकोप्लाज्मा में मोरोविट्ज एवं टॉरटिलोरी (Morowitz & Tourtebtte, 1962) के अनुसार लैंगिक व अलैंगिक जनन क्रियायें नहीं होती हैं वरन् इनमें प्रजनन की क्रिया विखण्डन (fragmentation), मुकुलन (budding), द्विविभाजन (binary fission) व तरुण प्रारम्भिक संरचनाओं (young elementary bodies) द्वारा होता है। जनन क्रिया में प्रारम्भिक संरचनायें अधिक महत्त्वपूर्ण हैं। जनन क्रिया के दौरान सर्वप्रथम माइकोप्लाज्मा कोशिका से छोटी गोलाकार रचनाओं की उत्पत्ति होती है, इन्हें प्राथमिक संरचनायें (Primary bodies) कहते हैं, जैसे-जैसे इनके आकार में वृद्धि होती जाती है तो इन्हें वृद्धि के अनुसार द्वितीयक व तृतीयक संरचनायें कहते हैं। जैसे ही यह संरचना परिपक्व होकर माइकोप्लाज्मा कोशिका से टूटकर पृथक् होती है तब उसे चतुर्थ संरचना कहते हैं और यही रचना माइकोप्लाज्मा की कोशिका में विकसित हो जाती है।
1. रोग संचरण (Disease transmission):
- माइकोप्लाज्मा जनित पादप रोगों का संचरण एक विशेष प्रकार के कीट पातफुदक (Leaf hopper) द्वारा ही होता है।
- पौधा रोपण या कलम बाँधने (grafting) से भी इसका संचरण होता है।
- अमरबेल (cusuta) के द्वारा यह रोग एक पौधे से दूसरे पौधे में होता है।
RBSE Class 11 Biology Chapter 4 निबन्धात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
जीवाणुओं के वर्गीकरण का संक्षिप्त विवरण दीजिये।
उत्तर:
बरजे (Berge’s) ने जीवाणुओं का वर्गीकरण, आकारिकी, कार्यिकी लक्षण, वृद्धि लक्षण, जैव-रासायनिक विशेषताएँ पोषण विशिष्टता तथा आनुवंशिक लक्षणों के आधार पर किया। उनके द्वारा जीवाणुओं को फाइलम, प्रोटोफाइटा में रखा गया, जिसके दो वर्ग गठित किये गये –
वर्ग 1:
शाइजोफाइसी (Schizophycce):
इसमें नील हरित शैवालों को सम्मिलित किया गया है।
वर्ग 2:
शाइजोमाइसिटीज (Schizomycetes):
इसमें जीवाणुओं को रखा गया है।
शाइजोमाइसिटीज को 10 गणों में विभेदित किया गया है जो निम्न प्रकार से है –
- गण I सूडोमोनेडेल्स (Pseudomonadales):
इस गण में कुछ प्रकाश संश्लेषी, रसायन संश्लेषी तथा अनेक परपोषी जीवाणु सम्मिलित किये गये हैं। ये वक्रित, सर्पिलाकार, छड़ाकार, ध्रुवीय कशाभिक एवं ग्राम निगेटिव होते हैं। जनन विखण्डन द्वारा होता है। इसमें 7 कुल हैं। - गण II क्ले माइ डोबेक्टिरियेल्स (Chlamydobacteriales):
ये जलीय जीवाणु हैं, जिसकी बाहरी त्वचा रोमों के द्वारा ढकी होती है। इसमें 3 कुल हैं। - गण III हाइपोमाइक्रोबियेल्स (Hypomicrobiales):
जीवाणुओं की आकृति गोल से नाशपाती के आकार की होती है। ये ग्राम निगेटिव, जल या कीचड़ में पाये जाते हैं। जनन मुकुलन द्वारा होता है। इसमें दो कुल हैं। - गण IV यूबैक्टीरियेल्स (Eubacteriales):
इसमें छड़ाकार या गोल गतिशील जीवाणु या अचल या परिपक्ष्माभि जीवाणु सम्मिलित किये गये हैं, जनन विखण्डन द्वारा होता है। इसमें 13 कुल हैं। - गण V एक्टिनोमाइसिटेल्स (Actinomycetales):
सदस्य तन्तुवत एवं शाखित होते हैं। जनन बीजाणुओं तथा ओइडिया बीजाणु द्वारा होता है। इसमें 4 कुल हैं। - गण VI केरियोफेनेलीस (Caryophanales):
जीवाणुओं में तन्तु जैसी बड़ी एवं खंडित कोशिकायें या संकोशिकी, नलिकोकार या पटयुक्त कोशिकाएँ होती हैं। जनन गोनिडिया द्वारा होता है। इसमें तीन कुल हैं। - गण VII बेगियाटोयेल्स (Beggiatoales):
जीवाणुओं में एकल कोशिकायें या सामूहिक तन्तुप्रारूपी संरचनायें होती हैं। ये अशूक (atrichous) होती हैं, इनमें जनन विखण्डन द्वारा होता है। इसमें चार कुल हैं। - गण VIII मिक्सोबेक्टीरियेल्स (Myxobacteriales):
ये म्यूसिलेजयुक्त, पतली लचकदार छड्नुमा, विसर्पो चलन वाले जीवाणु होते हैं। मिट्टी व गोबर में मिलते हैं। इनका जनन विखण्डन द्वारा होता है। इसमें 4 कुल हैं। - गण IX स्पाइरोकीटेल्स (Spirochaetales):
कोशिकायें पतली, लचीली एवं सर्पिलाकार होती हैं। सर्पिल गति होती हैं व अशूक (atrichous) होते हैं। जनन विखण्डन द्वारा होता है। इसमें 2 कुल हैं। - गण माइकोप्लाज्मेटेल्स (Mycoplasmatales):
कोशिकायें भंगुर (fragile), सूक्ष्म, छनने योग्य, बहुरूपी, अचल, ग्राम निगेटिव होती हैं। इसमें एक कुल है।
प्रश्न 2.
जीवाणुओं की संरचना एवं पोषण विधियों पर लेख लिखिये।
उत्तर:
जीवाणुओं की संरचना (Bacteria Cell Structure) :
जीवाणु अति सूक्ष्म होते हैं अतः इनका अध्ययन इलेक्ट्रॉन सूक्ष्मदर्शी की सहायता से एवं विभिन्न अभिरंजन विधियों का उपयोग कर किया जा सकता है। अध्ययन के आधार पर जीवाणु एक प्रोकैरियोट संरचना होती है। पादप कोशिकाओं के समान जीवाणु कोशिका में भी कोशिका भित्ति, प्लाज्मा झिल्ली एवं जीवद्रव्य होता है। इनके अतिरिक्त कुछ अन्य संरचनाएँ भी पाई जाती हैं, जैसे अवपंक पर्त या सम्पुटिका, कशाभिकाएँ, पाइलाई इत्यादि। कोशिकाद्रव्य में राइबोसोम, केन्द्रक पदार्थ, प्लाज्मिड एवं अन्य संग्रहीत पदार्थ पाये जाते हैं। जीवाणु कोशिका की प्रमुख संरचनाओं का विवरण निम्न प्रकार से है –
(अ) कोशिका भित्ति तथा कैप्सूल (Cell wall and Capsule):
प्रत्येक जीवाणु कोशिका एक कोशिका भित्ति से ढकी होती है, यह भित्ति विशेष प्रकार के रासायनिक पदार्थ जैसे म्यूरेमिक अम्ल तथा डाइएमीनोपिमेलिक अम्ल से बनी होती है, इन्हें पेप्टिडोग्लाइकेन (Peptidoglycan) भी कहते हैं। प्रायः जीवाणुओं में कोशिका भित्ति के बाहर जैली के समान एक अतिरिक्त श्लेष्मीय आवरण होता है जो श्यान प्रकृति (viscous) का होता है, इसे स्लाइम पर्त (slime layer) कहते हैं। इस पर्त में जटिल कार्बोहाइड्रेट्स, अमीनो अम्ल तथा गोंद पाये जाते हैं। कुछ जीवाणुओं में यह परत अधिक मोटी होती है तब इसे सम्पुटिका या कैप्सूल (Capsule) कहते हैं।
अवपंक पर्त की सहायता से जीवाणु विभिन्न आधारस्तरों से चिपक जाते हैं, यह प्रतिकूल परिस्थितियों के दौरान जीवाणु इससे पोषण प्राप्त करता है तथा यह अस्थाई शुष्कता से बचाती है।
(ब) जीवद्रव्य (Protoplasm):
कोशिका द्रव्य कोशिका झिल्ली से ढका होता है। जीवाणु कोशिका का जीवद्रव्य समांगी होता है तथा इसमें कोशिकाद्रव्य प्रवाह (Cytoplasmic streaning) अनुपस्थित होता है। कोशिकाद्रव्य में वसापिण्ड तथा ग्लाइकोजन कणिकाएँ बिखरी पड़ी होती हैं, रसधानियों का अभाव होता है तथा 70S प्रकार के राइबोसोम अकेले या स्वतंत्र रूप से अथवा पॉलीराइबोसोम श्रृंखला बनाकर कोशिकाद्रव्य में बिखरे हुए होते हैं। कोशिकाद्रव्य में झिल्लीयुक्त कोशिकांगों का अभाव होता है। जीवाणु की कुछ जातियों में एक विशेष प्रकार का पर्णहरित पाया जाता है जिसे जीवाण्विक पर्णहरित (Bacterio Chlorophyll) कहते हैं।
इसके द्वारा इन जीवाणुओं में प्रकाश संश्लेषण की क्रिया होती है। यह पर्णहरित पटलिकाओं (lamellae thylakoids) में पाया जाता है। जिन्हें वर्णकी लवक (Chromatophores) कहते हैं। जीवाणु कोशिका झिल्ली कहीं-कहीं पर अन्दर की ओर धंसी होती है जिससे अन्तर्वलन (infoldings) बनते हैं। इन संरचनाओं को मध्यकाय या मोजोसोम्स (Mesosomes) कहते हैं। यह माना जाता है कि मोजोसोम्स में उपस्थित एन्जाइम्स श्वसन से सम्बन्धित होते हैं।
जीवाणुओं में भी अन्य प्रोकैरियोटिक कोशिकाओं की जैसे केन्द्रक को अभाव होता है अर्थात् इनमें क्रोमेटिन पदार्थ, झिल्ली द्वारा घिरा न होकर कोशिका के बीच में उपस्थित होता है। इस प्रकार के क्रोमेटिन पदार्थ को केन्द्रकाभ (nucleoid) कहते हैं तथा केन्द्रक रचना को आद्य या आदिम केन्द्रक (primitive or incipient nucleus) कहते हैं। क्रोमेटिन पदार्थ वलयाकार (Circular), द्विरज्जुकी (double stranded) का बना होता है जो कि एक गुणसूत्र को दर्शाता है। प्रायः अनेक जीवाणु कोशिकाओं में गुणसूत्र के अतिरिक्त भी एक और DNA खण्ड पाया जाता है, जो छोटे वलय (ring) की आकृति में होता है। इसे प्लाज्मिड (Plasmid) कहते हैं।
(स) कशाभिकायें (Flagella):
कुछ बैक्टीरिया गतिशील होते हैं। यह कशाभिको की उपस्थिति के कारण होता है। कशाभिकाओं के वितरण के अनुसार बैक्टीरिया निम्नलिखित प्रकार के होते हैं –
- अकशाभी (Atrichous):
ऐसे बैक्टीरिया कशाभिकाओं की अनुपस्थिति के कारण अचल होते हैं, जैसे-पास्चुरेला, माइक्रोकोकस आदि। - एककशाभी (Monotrichous):
जब कोशिका के केवल एक सिरे पर एक कशाभिका पायी जाती है, जैसे-स्यूडोमोनास, थायोबैसिलस, विब्रिओ आदि। - गुच्छकशाभी (Lophotrichous):
जब कोशिका के केवल एक सिरे पर कशाभिकाओं का एक गुच्छा पाया जाता है, जैसेथायोस्पाइरिलम। - उभयकशाभी (Amphitrichous):
जब कोशिका के दोनों सिरों पर कशाभिकाओं का एक-एक गुच्छा पाया जाता है, जैसे-नाइट्रेसोमोनास (Nitrosomonas), स्पाइरिलम आदि।
- परिपक्ष्माभी (Peritrichous):
जब कोशिका के सभी स्थानों पर कशाभिकायें वितरित होती हैं, जैसे-इशरिकिआ, बेसीलस, टाइफस आदि।
प्रत्येक कशाभिका लगभग 120A मोटी (thick) तथा 4 से 5 µ लम्बी होती है। बैक्टीरिया की कशाभिकायें फ्लेजैलीन (flagellin) नाम के प्रोटीन की उप इकाइयों से बने केवल एक तन्तु (fibril) की बनी होती हैं। (यूकैरियोट कशाभिकाओं जैसे 9+2 संरचना नहीं होती)। तन्तु, उपइकाइयों के एक खोखले अक्ष के चारों ओर कुंडलित श्रृंखला में पाये जाते हैं। कशाभिकायें बैक्टीरिया को गतिशील रखती हैं।
कशाभिकाओं के अतिरिक्त, चल तथा अचल दोनों बैक्टीरिया की कोशिका में अनेक छोटे तथा कम लम्बे रोम (pilli) निकले हुए पाये जाते | हैं, इन्हें रोम या पाइलाई या फिम्ब्री कहते हैं। यह मुख्यतः ग्राम निगेटिव बैक्टीरिया में पाये जाते हैं। रोम अथवा फिम्ब्री, संयुग्मन के समय, एक कोशिका को दूसरी कोशिकाओं से चिपकाने के काम आते हैं। संयुग्मन में काम आने वाले रोमों को लिंगी रोम (sex pilli) कहा जाता है।
पोषण (Nutrition):
पोषण के आधार पर जीवाणुओं को निम्न दो श्रेणियों में बाँटा जा सकता है –
(अ) स्वपोषी जीवाणु तथा
(ब) परपोषित या विषमपोषी जीवाणु।
(अ) स्वपोषी जीवाणु (Autotrophic bacteria):
यद्यपि इस प्रकार का पोषण बहुत ही कम जीवाणुओं में पाया जाता है। फिर भी अनेक जीवाणुओं में रासायनिक क्रियाओं द्वारा प्राप्त ऊर्जा से भोज्य पदार्थों का निर्माण होता है। कुछ जीवाणुओं में तो उच्चवर्गीय पौधों के समान ही प्रकाश संश्लेषण पाया जाता है। अतः इन्हें प्रकाश संश्लेषी जीवाणु कहा जाता है। स्वपोषी जीवाणु भी दो प्रकार के होते हैं।
(क) प्रकाश संश्लेषी जीवाणु (Photosynthetic bacteria):
इस प्रकार के जीवाणुओं में जीवाणु क्लोरोफिल (bacterial chlorophyll) पाया जाता है। कुछ जीवाणुओं में तो इसके अतिरिक्त अन्य वर्णक बैक्टीरियोविरिडन (Bacterioviridin) या क्लोरोबियम क्लोरोफिल (Chlorobiuin chlorophyll) भी पाया जाता है। इस प्रकार के क्लोरोफिल में भी उच्च श्रेणी के पादपों में पाये जाने वाले क्लोरोफिल की जैसे मैग्नीशियम पाया जाता है। ये वर्णक लवकों के स्थान पर क्रोमेटोफोर्स (Chromatophores) में उपस्थित होते हैं। प्रकाश संश्लेषी जीवाणु हरे पौधों के समान कार्बनडाइऑक्साइड व H2O से कार्बोहाइड्रेट्स का निर्माण नहीं करते हैं। इन जीवाणुओं में प्रकाश संश्लेषण की क्रिया प्रायः गंधक यौगिकों की उपस्थिति में होती है। यहाँ हाइड्रोजन (H2) का स्रोत H2O के स्थान पर हाइड्रोजन सल्फाइड (H2S) होता है तथा प्रकाश संश्लेषण के सहउत्पाद में ऑक्सीजन के स्थान पर गंधक उत्पन्न होता है।
क्रोमेटेयिम (Chromatium), क्लोरोबियम (Chlorobium) तथा क्लोरोबेक्टिरियम (Chlorobacterium) आदि प्रकाश संश्लेषी जीवाणुओं के उदाहरण हैं।
(ख) रसायन संश्लेषी जीवाणु (Chemosynthetic bacteria):
इस प्रकार के जीवाणुओं में पर्णहरित अनुपस्थित होता है। व इस कारण ये सूर्य प्रकाश की ऊर्जा का उपयोग नहीं कर पाते। इस प्रकार के जीवाणु CO2 को कार्बोहाइड्रेट्स में परिवर्तित करने के लिए विभिन्न प्रकार की रासायनिक क्रियाओं से प्राप्त ऊर्जा का उपयोग करते हैं। अतः ऊर्जा प्राप्त करने के लिए कुछ पदार्थों का ऑक्सीकरण किया जाता है। गंधक व उसके यौगिक, अमोनिया, नाइट्राइट्स, लोहा, हाइड्रोजन, कार्बन मोनोऑक्साइड, मीथेन आदि का जीवाणुओं द्वारा ऑक्सीकरण किया जाता है। जिस पर यह जीवाणु क्रिया करते हैं उसी आधार पर इन जीवाणुओं को नाम दिया जाता है, जैसे-गंधक जीवाणु, लौह जीवाणु आदि।
1. गंधक जीवाणु (Sulpher bacteria):
गंधक जीवाणु जैसेथायोबेसीलस (Thiobacillus), बेगिएटोआ (Beggiatoa) व थायोथ्रिक्स (Thiothrix) आदि गंधक या गंधक यौगिकों का ऑक्सीकरण करके उनसे ऊर्जा प्राप्त करते हैं।
2H2S + O2 → 2S + 2H2O + 122.2 K.cal.
2S + 2H2O + 3O2 → 2H2SO4 + 248.4 K.cal.
2. लौह जीवाणु (Iron bacteria):
ये जीवाणु फेरस यौगिकों को फेरिक यौगिकों में ऑक्सीकृत कर इनसे ऊर्जा प्राप्त करते हैं, जैसे-लेप्टोथ्रिक्स (Leptothrix) तथा फैरोबेसीलस
(Ferrobacillus) आदि।
4FeCO3 + O2 + 6H2O → 4Fe(OH)3 + 4CO2 + 81 K.cal.
3. हाइड्रोजन जीवाणु (Hydrogen bacteria):
ये जीवाणु आण्विक हाइड्रोजन को जल में बदल देते हैं तथा इससे प्राप्त ऊर्जा का उपयोग रासायनिक संश्लेषण में करते हैं। उदाहरणबेसीलस पेन्टोट्रोफस (Bacillus pantotrophus) व हाइड्रोमोनास (Hydromonas) आदि।
2H2 + O2 → 2H2 O + 137 K.cal.
4. नाइट्रीकारी जीवाणु (Nitrifying bacteria):
इस प्रकार के जीवाणु नाइट्रोजन यौगिकों से ऊर्जा प्राप्त करते हैं तथा दो प्रकार के होते हैं –
- अमोनिया को नाइट्रेट्स में ऑक्सीकृत करने वाले, जैसे नाइट्रो सो मो नास (Nitrosomonas), नाइट्रोबेक्टर (Nitrobacter) तथा नाइट्रोकोकस (Nitrococcus) आदि।
- ये जीवाणु नाइट्राइट्स को नाइट्रेट्स में बदल देते हैं; जैसे नाइट्रोबेक्टर (Nitrobacter) तथा बैक्टोडर्मा (Bactodermma) आदि।
2NH3 + 3O2 → 2 HNO2 + 2H2O + 158 K.cal.
2HNO2 + O2 → 2HNO3 + 38 K.cal.
5. इनके अतिरिक्त कुछ जीवाणु रसायन कार्बनपोषी (Chemo organotrophs) होते हैं जो कार्बन व इसके यौगिकों का उपयोग ऊर्जा स्रोत के रूप में करते हैं, ये निम्न प्रकार के हैं –
- मीथेन जीवाणु (Methane bacteria):
ये जीवाणु मीथेन (CH4) गैस को CO2 व H2O में ऑक्सीकृत कर देते हैं, जैसेमीथेनोकोकस (Methanococcus), लेक्टोबेसीलस (Lactobacillus) व एसीटोबेक्टर (Acetobactor) आदि।
CH4 + 2O2 → CO2 + 2H2O + ऊर्जा। - कार्बन जीवाणु (Carbon bacteria):
ये जीवाणु CO को ऑक्सीकृत करके ऊर्जा प्राप्त करते हैं, जैसे-बेसीलस ओलीगोकार्बोफिलस (Bacillus oligocarbophilus)।
2CO + O2 → 2CO2 + ऊर्जा।
(ब) परपोषी जीवाणु (Heterotrophic bacteria):
अधिकांश जीवाणु परपोषी प्रवृत्ति के होते हैं, क्योंकि इनमें वर्णकों का अभाव होता है। ऐसे जीवाणु जटिल कार्बनिक यौगिकों को एन्जाइम की सहायता से घुलनशीलं बनाकर इनका अवशोषण करते हैं। ये निम्न तीन प्रकार के होते हैं –
1. मृतोपजीवी जीवाणु (Saprophytic bacteria):
ऐसे जीवाणु मृत जीवों के शरीर को सड़ाने व गलाने का कार्य करते हैं। ये जीवाणु मृत एवं सड़े-गले अपघटित कार्बनिक पदार्थों से पोषण प्राप्त करते हैं। सर्वप्रथम जीवाणु जटिल कार्बनिक पदार्थों को अपने एन्जाइम्स द्वारा घुलनशील यौगिकों में बदल देते हैं। व फिर आवश्यकतानुसार इनका अवशोषण करते हैं। इनके द्वारा प्रोटीन एवं कार्बोहाइड्रेट के अपघटन की प्रक्रिया को पूयन (putrification) एवं किण्वन (fermentation) कहते हैं। ये विकल्पी (facultative) व अविकल्पी परजीवी (obligate saprophyte) होते हैं। विकल्पी परजीवी को जब मृत कार्बनिक पदार्थ नहीं मिलते हैं तो वे सजीवों के ऊपर परजीवी बनकर पोषण प्राप्त करते हैं।
2. सहजीवी जीवाणु (Symbiotic bacteria):
इसका उपयुक्त उदाहरण-राइजोबियम (Rhizobium) है। ये जीवाणु लेग्यूमिनोसी कुल के पौधों की मूल ग्रंथियों (root nodules) में रहते हैं तथा वायुमण्डलीय नाइट्रोजन को नाइट्रेट में बदल देते हैं तथा इसका उपयोग पौधे करते हैं तथा जीवाणु पौधे से आवास व कार्बोहाइड्रेट पोषण पदार्थ प्राप्त करते हैं अर्थात् इसमें जीवाणु व पौधा दोनों लाभान्वित होते हैं।
3. परजीवी जीवाणु (Parasitic bacteria):
इस प्रकार के जीवाणु पौधों या जन्तुओं के शरीर पर या अन्दर रहते हैं व इन्हीं से अपना भोजन प्राप्त करते हैं व उनमें नाना प्रकार के रोग उत्पन्न कर देते हैं, जैसे जैन्थोमोनास (Xanthomonas), कोरिनीबैक्टीरियम (Corneabacterium) आदि।
प्रश्न 3.
जीवाणुओं में अलैंगिक जनन समझाइये।
उत्तर:
अलैंगिक जनन (Asexual Reproduction):
मुख्य रूप से अन्त:बीजाणुओं (endospores) के द्वारा होता है किन्तु कुछ जीवाणुओं में कोनिडियम, चलबीजाणु व पुटी (cyst) के द्वारा भी होता
1. अन्त:बीजाणुओं द्वारा (By endospores):
इस प्रकार के बीजाणु प्रतिकूल परिस्थितियों में बनते हैं। अन्त:बीजाणु क्लॉस्ट्रिडियम (Clostridiuni) व बेसिलस (Bacillus) वंश के सभी जीवाणुओं में पाये जाते हैं। कोशिका का जीवद्रव्य. सिकुड़कर केन्द्र में एकत्रित होकर गोल हो जाता है तथा जीवद्रव्य झिल्ली इसे घेरे रहती है। इस झिल्ली के बाहर वल्कुट (cortex) होता है जो कैल्सियम डाइ पीकोलिनिक अम्ल तथा पेप्टि डोग्लाइ कन (calcium dipicolinic acid and peptidoglycon) के मिश्रण से बना हुआ होता है। वल्कुट के बाहर मोटा बीजाणु चोल (spore coat) होता है। बीजाणु चोल की बाहरी भित्ति पतली व कोमल होती है, इसे बाह्य चोल (exosporium) कहते हैं।
वल्कुट में उपस्थित रसायनों के कारण ही अन्त:बीजाणु की भौतिक तथा रासायनिक कारकों के प्रति प्रतिरोध क्षमता बढ़ जाती है। इसी कारण अन्त:बीजाणुओं पर अत्यधिक कम ताप -269°C) व उबलते पानी तथा अधिक ताप (150-170°C) का प्रभाव नहीं होता है। यह हमारे लिए सौभाग्य की बात है कि परजीवी जीवाणुओं में केवल टिटेनस व एन्ट्रेक्स (Tetanus & Anthrax) रोग के जीवाणुओं के अतिरिक्त अन्य रोग के जीवाणुओं में अन्त:बीजाणु नहीं बनते अन्यथा रोगों पर नियंत्रण करना दुष्कर हो जाता। अन्त:बीजाणु के कोशिकाद्रव्य में DNA व राइबोसोम मिलते हैं।
एक जीवाणु की कोशिका से एक ही अन्त:बीजाणु बनता है और यह अन्त:बीजाणु प्रतिकूल परिस्थितियों तक सुप्त अवस्था में रहता है, अनुकूल परिस्थिति आने पर बीज चोल फटकर जीवद्रव्य एक बीजाणु के रूप में बाहर आता है। एक जीवाणु की कोशिका से एक ही अन्त:बीजाणु का निर्माण होने से इसे जनन कहना तो उपयुक्त नहीं है वरन् इस विधि से जीवाणु प्रतिकूल परिस्थितियों में अपनी रक्षा करते हैं अतः यह चिरकालिकता (perennation) की विधि है।
2. कोनिडिया के द्वारा (By conidia):
स्ट्रेप्टोमाइ सीज (Streptomyces) के तन्तुमय जीवाणुओं में तलाभिसारी क्रम (basipetal succession) में कोनिडिया एक श्रृंखला में व्यवस्थित रहते हैं। प्रत्येक कोनिडिया अंकुरित होकर नया जीवाणु बनाते हैं।
3. चलबीजाणुओं के द्वारा (By ZOOspore):
कभी-कभी जीवाणु कोशिका से चल बीजाणुओं का निर्माण होता है, जिनसे नये बीजाणु बनते हैं, जैसे-राइजोबियम (Rhizobium)।
4. पुटी (Cyst):
ऐजोटोबैक्टर (Azotobacter) में मोटी भित्ति के बीजाणु बनते हैं और भित्ति अधिक मोटी होने से इन्हें पुटी (Cyst) कहते हैं।
प्रश्न 4.
जीवाणुओं में जीन पुनर्योग विधियों का सचित्र वर्णन कीजिए।
उत्तर:
लेडरबर्ग व टेटम ने ई. कोलाई के K-12 प्रभेद पर कार्य कर बताया कि पुनर्योजन हेतु दो जीवाणु कोशिकाओं में शारीरिक सम्बन्ध आवश्यक है। संयुग्मन विधि का अध्ययन जेकॉब व वूलमान ने किया। एक जीवाणु से दूसरे जीवाणु में DNA का स्थानान्तरण संयुग्मन नलिका से होता है। इसमें दाता, नर व F+ कारक वाला तथा मादा ग्राही व F– कारक वाला होता है। F+ में जीवाणु DNA के अलावा F – factor होता है जबकि F– में इसका अभाव होता है। Ffactor वृत्ताकार DNA के रूप में होता है। नर जीवाणु में लैंगिक रोम (pilli) होते हैं जिससे यह ग्राही जीवाणु से चिपकता है।
दाता (F+) जीवाणु में F कारक के दो सूत्र पृथक् होकर एक सूत्र वहीं रहता है तथा दूसरा ग्राही जीवाणु में संयुग्मन के माध्यम से स्थानान्तरित हो जाता है। इस कारण अब दोनों जीवाणु में F – factor होता है अर्थात् F– जीवाणु F+ में बदल जाता है। K-12 प्रभेद में F – factor कभी-कभी मुख्य DNA से जुड़ा हुआ रहता है तब इसे HFr नर (high frequency male) कहते हैं। संयुग्मन के समय DNA के एक सूत्र का स्थानान्तरण जैविक DNA के रूप में होता है। संयुग्मन स्यूडोमोनास, वाइब्रियो व सालमोनेला में पाया जाता है।
प्रश्न 5.
माइकोप्लाज्मा की संरचना एवं जनन का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
माइकोप्लाज्मा की संरचना (Structure of Mycoplasma):
माइकोप्लाज्मा प्रोकेरियोटिक, एककोशिकीय सूक्ष्मजीव है। इसमें कोशिका भित्ति का अभाव होता है तथा बाहरी परत लाइपोप्रोटीनेसियसयुक्त (lipoproteinaceous), त्रिस्तरी (trilamellar), एकक झिल्ली (plasma membrane) की प्लाज्मा झिल्ली (plasma membrane) होती है। रासायनिक दृष्टिकोण से झिल्ली में लिपिड (फास्फोलिपिड) एवं कोलीस्टीरोल होते हैं। कोशिका भित्ति के अभाव फलस्वरूप ही माइकोप्लाज्मा पर एन्जाइम तथा पैनिसिलिन का प्रभाव नहीं होता है।
प्लाज्मा झिल्ली के अन्दर कोशिका द्रव्य भरा होता है जिसमें झिल्ली युक्त कोशिकांगों, केन्द्रक झिल्ली तथा केन्द्रिका (nucleous) का अभाव होता है। इसमें कभी-कभी रिक्तिकायें (vacuoles) भी पाई जाती हैं तथा 70S के कणिकीय राइबोसोम (granular ribosome) पाये जाते हैं। माइकोप्लाज्मा के कोशिका द्रव्य में एक नग्न वृत्ताकार द्विकुण्डलित रेशेदार डी.एन.ए. (double helix fibrillar circular D.N.A.) होता है,
अनेक 70S के कणिकीय राइबोसोम, एकल कुंडलित आर.एन.ए. (single helix R.N.A.), वसा, घुलित प्रोटीन (soluble protein), एन्जाइम तथा अन्य उपापचयी पदार्थ पाये जाते हैं।
प्रजनन (Reproduction):
माइकोप्लाज्मा में मोरोविट्ज एवं टॉरटिलोरी (Morowitz & Tourtebtte, 1962) के अनुसार लैंगिक व अलैंगिक जनन क्रियायें नहीं होती हैं वरन् इनमें प्रजनन की क्रिया विखण्डन (fragmentation), मुकुलन (budding), द्विविभाजन (binary fission) व तरुण प्रारम्भिक संरचनाओं (young elementary bodies) द्वारा होता है। जनन क्रिया में प्रारम्भिक संरचनायें अधिक महत्त्वपूर्ण हैं। जनन क्रिया के दौरान सर्वप्रथम माइकोप्लाज्मा कोशिका से छोटी गोलाकार रचनाओं की। उत्पत्ति होती है, इन्हें प्राथमिक संरचनायें (Primary bodies) कहते हैं, जैसे-जैसे इनके आकार में वृद्धि होती जाती है तो इन्हें वृद्धि के अनुसार द्वितीयक व तृतीयक संरचनायें कहते हैं। जैसे ही यह संरचना परिपक्व होकर माइकोप्लाज्मा कोशिका से टूटकर पृथक् होती है तब उसे चतुर्थ संरचना कहते हैं और यही रचना माइकोप्लाज्मा की कोशिका में विकसित हो जाती है।
1. रोग संचरण (Disease transmission):
- माइकोप्लाज्मा जनित पादप रोगों का संचरण एक विशेष प्रकार के कीट पातफुदक (Leaf hopper) द्वारा ही होता है।
- पौधा रोपण या कलम बाँधने (grafting) से भी इसका संचरण होता है।
- अमरबेल (cusuta) के द्वारा यह रोग एक पौधे से दूसरे पौधे में होता है।
प्रश्न 6.
माइकोप्लाज्मा की प्रकृति एवं लक्षणों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
माइकोप्लाज्मा के सामान्य लक्षण (General characters of Mycoplasma):
- माइकोप्लाज्मा सूक्ष्मतम (smallest) जीव होते हैं।
- माइकोप्लाज्मा एककोशिकीय, अचल (non-motile), प्रोकैरियोटिक (prokaryotic) तथा तले हुए अण्डे (fried egg) प्रकार की कॉलोनी (colony) जैसे प्रदर्शित होते हैं।
- ये गोलाभ या अण्डाकार समूह बनाते हैं तथा मिट्टी, वाहित मल (sewage), सड़े-गले पदार्थों व प्राणियों तथा पौधों में पाये जाते हैं। ये बहुआकृतिक या बहुरूपी (pleomorphic) जीव हैं, जो गोलाभ (spheroid), तन्तुल (filamentous), ताराकार (stellate) या अनियमित पिण्ड के रूप में पाये जाते हैं।
- इसी कारण माइकोप्लाज्मा को जीव जगत के जोकर की उपमा दी गई है। वैसे इनकी आकृति संवर्धन माध्यम की प्रकृति पर निर्भर करती है। माइकोप्लाज्मा जैलीसेप्टीकम (M. gellisepticum) के कोशिका की आकृति कोका-कोला बोतल (Coca-Cola bottel) जैसी होती है।
- इन्हें कोशिका के अतिरिक्त स्वतंत्र माध्यम (Cell free media) अर्थात् अजैविक संवर्धन माध्यम में उगाया (संवर्धन = culture) जा सकता है। यदि संवर्धित माइकोप्लाज्मा को अचानक जल से तनु (dilute) में रख दें तो इनकी कोशिकायें फूलकर फट जाती हैं। माइ को प्लाज्मा परजीवी (parasitic) या मृतो पजीवी (saprophytic) होते हैं।
- इन्हें जीवाणुज फिल्टर (bacterial filter) से छानना असम्भव है (इनका आकार 100 से 500mm तक होता है)।
- इनमें कोशिका भित्ति (cell wall) का अभाव होता है और इसकी बाहरी परत त्रिस्तरीय (triple layered) लिपोप्रोटीन की एकक झिल्ली (unit membrane of lipoprotein) से बनी होती है।
- ये ग्राम अभिरंजन (gram stain) के प्रति अनुक्रिया प्रदर्शित नहीं करते हैं अतः माइकोप्लाज्मा ग्राम ऋणात्मक (gram negative) होते हैं।
- माइकोप्लाज्मा में दोनों प्रकार के न्यूक्लिक अम्ल (लगभग DNA = 4% तथा RNA = 8%) उपस्थित होते हैं।
- कोशिकाद्रव्य (Cytoplasm) में 70S प्रकार के राइबोसोम मिलते हैं।
- इनकी वृद्धि (growth) हेतु स्टीरोल की आवश्यकता होती है। इनमें लिपिड्स (lipids) कॉलेस्टरोल के रूप में रहते हैं।
- एन्जाइम के प्रति संवेदनशील नहीं होते तथा पैनिसिलिन (penicillin), वेनकोमाइसीन (vancomycin), सिफेलोरीडीन (cephaloridine) इत्यादि प्रतिजैविकों (antibiotics) का कोई प्रभाव नहीं होता है।
- इन पर टेट्रासाइक्लीन व क्लोरेम्फनिकोल जैसे प्रतिजैविक (antibiotics) का प्रभाव होता है, ये मुख्य रूप से उपापचयी क्रियाओं (metabolic processes) को प्रभावित करते हैं।
पूर्व में यह माना जाता था कि माइकोप्लाज्मा केवल प्राणियों में ही रोग उत्पन्न करते हैं परन्तु जापानी वैज्ञानिक डोय व इनके सहयोगियों (DOi et al, 1967) ने रोगी पौधों में भी बहुरूपी माइकोप्लाज्मा जैसे जीव (Mycoplasma like organism = MLO) बताये। माइकोप्लाज्मा के रोगाणु शीतोष्ण (temperate) व उष्णकटिबंधीय (tropical) क्षेत्रों में मिलते हैं परन्तु उष्ण क्षेत्रों की फसलों (कपास, धान, आलू, मक्का) में अधिक रोग उत्पन्न करते हैं। माइकोप्लाज्मीय रोग से संक्रमित पौधों में ये रोगाणु अर्थात् माइकोप्लाज्मा, पादपों के फ्लोयम (phloem) तत्त्वों की। मुख्य रूप से चालनी नलिकाओं (sieve tubes) व फ्लोयम मृदूतक (phloem parenchyma) में ही पाये जाते हैं।
अध्ययन के आधार पर डोय (Doi) ने बताया कि अनुमानतः फ्लोयम का उच्च परासरणीय दाब (high osmotic pressure) व क्षारीय (alkaline PH) लक्षण माइकोप्लाज्मा की वृद्धि हेतु अनुकूल स्थितियाँ उत्पन्न करती हैं। माइकोप्लाज्मा कीट, जन्तुओं व मानव की लार ग्रन्थियों (Salivary glands) में रहते हैं। यही नहीं पुष्पों के मकर ग्रन्थियों (nectar glands), जीर्ण क्लोरोप्लास्ट (old chloroplast) में भी माइकोप्लाज्मा की उपस्थिति बताई गई है।
वर्गीकरण (Classification):
वर्ग – मोलीक्यूट्स
(Class) (Mollicutes)
गण – माइकोप्लाज्मेटेलीज
(Order) (Mycoplasmatales)
कुल – माइकोप्लाज्मेटेसी
(Family) (Mycoplasmatacae)
वंश – माइकोप्लाज्मा
(Genus) (Mycoplasma)
प्रश्न 7.
माइकोप्लाज्मा जनित रोगों पर लेख लिखिये।
उत्तर:
माइकोप्लाज्माजन्य प्रमुख रोग (Important disease caused by Mycoplasma):
1. पादप रोग (Plant diseases):
- गन्ने का धारिया रोग (Stripe disease of sugarcane)
- बैंगन का लघुपर्णी रोग (little leaf disease of brinjal)
- पपीते का गुच्छित शीर्ष रोग (Bunchy top disease of pappaya)
- कपास का हरीतिमागम रोग (Virescence disease of cotton)
- मक्का का बौना रोग (Stunt disease of maize)
- आलू का कुर्चीसम रोग (Witche’s broom disease of potato)
2. जन्तु रोग:
पशुओं का जननांग शोथ रोग (Inflammation of genitals)
- भेड़ बकरी का एगैलेक्टया (agalactia) रोग।
- मुर्गों में शिरा नाल शोथ (sinubitis) आदि।
3. मानव रोग (Human diseases):
अप्रारूपिक न्यूमोनिया (atypical pneumonia) एवं श्वसन तंत्र रोग
- श्वसन नाल संक्रमण (respiratory tract infection)
- मनुष्यों में बन्ध्यता (Infertility in Man)
- जननांग शोथ रोग (Inflammation of genitals)
प्रश्न 8.
ऐलेक्सोपॉलस द्वारा प्रस्तावित कवकों के वर्गीकरण की रूपरेखा प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर:
कवकों का वर्गीकरण (Classification of Fungi):
विभिन्न वैज्ञानिकों ने समय-समय पर कई वर्गीकरण पद्धतियाँ प्रस्तावित की हैं। परन्तु यहाँ ऐलेक्सोपोलस द्वारा प्रस्तुत वर्गीकरण का विस्तृत उल्लेख किया जा रहा है –
ऐलेक्सोपोलस (1962, 1968) ने सभी कवकों को माइकोटा डिवीजन (प्रभाग) में रखा है। इस डिवीजन को कोशिका भित्ति की उपस्थिति के आधार पर दो उप-डिवीजनों यथा मिक्सोमाइकोटिना तथा यूमाइकोटिना में विभाजित किया। मिक्सोमाइकोटिना उप-डिवीजन में श्लेष्म फफूदी (Slime molds) तथा यूमाइकोटिना उप-डिवीजन में अन्य सभी कवकों को सम्मिलित किया गया।
माइकोटा डिवीजन के उप-डिवीजनों की रूपरेखा निम्न प्रकार है –
डिवीजन माइकोटा:
थैलस सूक्ष्म, एककोशिक अथवा तंतुमय, केन्द्रक में सुस्पष्ट केन्द्रक कला, केन्द्रिक उपस्थित, कोशिका भित्ति काइटिन युक्त, जनन अलैंगिक व लैंगिक दोनों विधियों द्वारा होता है। इसे दो उपडिवीजनों में विभक्त किया गया है –
(अ) उप-डिवीजन मिक्सोमाइकोटिना:
पादपकाय नग्न जीवद्रव्य के रूप में जिसे प्लाज्मोडियम कहते हैं।
1. संवर्ग-मिक्सोमाइसिटिज-वर्षी प्रवस्था एकल बड़े बहुकेन्द्रकी नग्न जीवद्रव्य द्वारा निरूपित। जन-सूक्ष्म, बहुकेन्द्रकी, भित्ति युक्त बीजाणुओं द्वारा । उदाहरण-फाइसेरम।
(ब) उपडिवीजन-यूमाइकोटिना:
वर्धी प्रावस्था एककोशिक अथवा बहुकोशिक नृलीय कवकजाल द्वारा निरूपित। सुस्पष्ट कोशिका भित्ति। कवकसूत्र पटयुक्त या पटरहित, एक, द्वि या बहुकेन्द्रकी युक्त, जनन-लैंगिक व अलैंगिक दोनों विधियों द्वारा।
उपडिवीजन यूमाइकोटिना को निम्नलिखित आठ वर्गों तथा एक कृत्रिम वर्ग में विभक्त किया गया है
संवर्ग 1. काइटिूडियोमाइसिटीज:
पादप शरीर एककोशिक, पूर्णकायफलिक या सूत्रवत अंशकायफलिक। बीजाणु चल प्रकार के। उदाहरण-सिनकाइट्रियम्।।
संवर्ग 2. हाइपोकाइट्रिडियोमाइसिटिज:
इसमें जलीय कवकों को सम्मिलित किया गया। चलबीजाणु गतिशील, कशाभिका एकल, अग्रस्थ एवं कूर्चसम। उदाहरण-राइजिडियोमाइसिज।
संवर्ग 3. ऊमाइसिटिज:
इसमें परजीवी या मृतोपजीवी कवकों को सम्मिलित किया गया है। कवकजाल पटरहित, संकोशिकी कवकसूत्रों द्वारा निरूपित। चलबीजाणु द्विकशाभिकी। अग्रस्थ कूर्चसम एवं पश्च प्रतोद प्रकार की। .
उदाहरण-एल्बूगो।
संवर्ग 4. प्लाज्मोडियोफोरोमाइसिटिज:
इस वर्ग के कवक परजीवी हैं। कोशिका भित्ति का अभाव। इनका बहुकेन्द्रकी थैलस या काय परपोषी ऊतक में रहता है। चलबीजाणु द्विकशाभिकी, कशाभिकाएँ असमान एवं चाबुकनुमा। उदाहरण-प्लाज्मोडियोफोरा।।
संवर्ग 5. जाइगोमाइसिटिज:
इसमें प्रायः मृतजीवी या परजीवी कवक हैं। कवक जाल संकोशिकी, बीजाणु अचल, लैंगिक जनन समयुग्मी प्रकार का। उदाहरण-म्यूकर।
संवर्ग 6. ट्राइकोमाइसिटिज:
थैलस सरल अथवा शाखित व बहुकेन्द्रकी। ये कवक आर्थोपोडा समूह के जीवों की आहारनाल या उपत्वचा पर परजीवी के रूप में पाये जाते हैं। अलैंगिक जनन बीजाणु द्वारा। लैंगिक जनन युग्मकधानियों के संलयन द्वारा। उदाहरण-हार्येला।
संवर्ग 7. ऐस्कोमाइसिटिज:
अधिकांश सदस्य स्थलीय, कुछ जलीय, मृतजीवी या परजीवी। उदा.-पेनिसिलियम। कवक तंतु पटयुक्त। अलैंगिक जनन चलबीजाणुओं द्वारा लैंगिक जनन उपस्थित, एस्कस का निर्माण जिसमें अर्धसूत्री विभाजन के फलस्वरूप अन्तर्जात एस्कस बीजाणु बनते हैं। उदाहरण-न्यूरोस्पोरा।
संवर्ग 8. बेसिडियोमाइसिटिज:
कवक सूत्र पटयुक्त, एककेन्द्रकी या द्विकेन्द्रकी। लैंगिक जनन में बेसिडियम का निर्माण, अर्धसूत्री विभाजन के फलस्वरूप बहिर्जात बेसिडियो बीजाणुओं का निर्माण। इस वर्ग के सदस्य प्रायः मृतजीवी अथवा परजीवी कभी-कभी सहजीवी। उदाहरणपक्सीनिया, एगेरिकस।
कृत्रिम संवर्ग या फार्म क्लास:
ड्यूटेरोमाइसिटिज-अधिकांश सदस्य मृतजीवी या परजीवी। कवक तंतु पटयुक्त। जनन केवल अलैंगिक बीजाणुओं द्वारा लैंगिक जनन अनुपस्थित। उदाहरण-आल्टर्नेरिया।
प्रश्न 9.
कवकों के लाभदायक व हानिकारक प्रभावों का सोदाहरण वर्णन कीजिए।
उत्तर:
कवकों के लाभदायक व हानिकारक दोनों प्रकार के प्रभाव हैं
(अ) कवकों के लाभदायक प्रभाव (Useful effects of fungi):
1. भोजन के रूप में (In form of food):
यीस्ट (yeast) को मानव व पशुओं के लिए संपूरक खाद्य के रूप में उपयोग किया जाता है। खंभी, गुच्छी व कंद जैसी अनेक कवकों में प्रोटीन, लवण एवं कार्बोहाइड्रेट की प्रचुर मात्रा होती है, अतः इन्हें खाने के उपयोग में लिया जाता है। जैसे मॉर्केला ऐस्क्यूलेन्टा (Morchella eSCulenta), ऐगेरिकस बाइस्पोरा (Agaricus bispora), ऐ. केम्पेस्ट्रिस (A. campestris) आदि।
2. औद्योगिक महत्त्व (Industrial importance):
अनेक कवक जातियों का उपयोग एल्कोहॉल, एन्जाइम एवं कार्बोनिक अम्ल आदि प्राप्त करने के लिए किया जाता है। जैसे साइट्रोमाइसिज फेफेरिएनस, पेनिसिलियम ऑक्सेलिकम एवं एस्परजिलस ओराइजी से क्रमशः साइट्रिक अम्ल, ऑक्सेलिक अम्ल एवं लेक्टिक अम्ल प्राप्त किये जाते हैं।
3. औषधीय उपयोग (Medicinal use):
कवकों से अनेक प्रकार की प्रतिजैविक औषधियाँ प्राप्त की जाती हैं, जैसे पेनिसिलियम नोटेटम से पेनिसिलिन, ऐमरीसिलोप्सिस पुनेन्सिस से एन्टीएमीबीन एवं पेनिसिलियम फ्यूनीकुलोसस से हेलेन प्राप्त की जाती है। इनके अतिरिक्त भी अन्य कवकों से प्रतिजैविक
औषधियाँ प्राप्त होती हैं। गंभीर रोगों में उपयोग आने वाले एल्केलॉइड जैसे अर्गोटामिन, अर्गोटॉक्सिन इत्यादि कवक क्लेवीसेप्स परपुरिया के फलनकाय स्क्लेरोशियम से प्राप्त करते हैं। कवक म्यूकर ग्रसियो साइनस व राइजोपस स्टोलीनीफर से प्राप्त होने वाले स्टेरॉइड का उपयोग गठिया रोग तथा एलर्जी रोगों के उपचार में किया जाता है।
4. पादप हार्मोन (Plant hormones):
जिबरैलिन नामक पादप हार्मोन कवक जिबरेला फ्यूजीकोराई व फ्यूजेरियम मोनीलीफॉर्मी से प्राप्त किया जाता है।
(ब) कवकों के हानिकारक प्रभाव (Harmful effects of Fungi):
लाभदायक प्रभावों के साथ-साथ अनेक प्रकार की कवकें जीवों पर रोग उत्पन्न करती हैं।
1. पादप रोग (Plant diseases):
कवक पौधों पर विभिन्न प्रकार के रोग उत्पन्न कर फसल उत्पादन को प्रभावित करती हैं। कुछ प्रमुख पादप रोग निम्न प्रकार से
हैं –
कवक (Fungi) | पादप रोग (Plant Diseases) |
1. ऐल्बूगो केन्डिडा (Albugo candida) | 1. क्रुसीफैरी कुल के सदस्यों में श्वेत किट्ट (White rust) रोग |
2. स्क्लेरोस्पोरा ग्रेमीनिकोला (Sclerospora graminicola) | 2. बाजरे का हरित वाली रोग (Green – year disease) |
3. पक्सीनिया ग्रेमिनिस (Puccinia graminis) | 3. गेहूँ का काला किट्ट रोग (Black rust disease) |
4. अस्टिलैगो (Ustilago) | 4. निरावृत्त व आवृत्त कण्ड रोग (Loose and covered smut disease) |
5. सर्कोस्पोरा पर्सानेटा (Cercospora personata) | 5. मूंगफली का टिक्का रोग (Tikka disease of ground nut) |
6. कोलीटोट्राइकम फल्केटम (Colletotrichum fulcatum) | 6. गन्ने का लाल सड़न रोग (Red rot disease of sugar cane) |
पशुओं में कवक रोग (Fungal disease of animals):
कुछ कवक जातियाँ पशुओं में परजीवी के रूप में रहकर उनमें अनेक प्रकार के रोग उत्पन्न करती हैं। टाइनिया रुब्रम (Tinea rubrum) से ऐथीलीट फुट (athelete foot), ट्राइकोफॉइटान (Trichophyton) से दाद (ring worm), फेफड़ों के संक्रमण रोग ऐस्परजिलस फ्यूमिगेट्स (Aspergilltus funigates) तथा त्वचा व श्वास नली का संक्रमण रोग ‘केन्डिडियोसिस’ केन्डिडा ऐल्वीकेन्स (Candida albicans) के द्वारा होता है।
खाद्य पदार्थों का विनाश (Spoilage of foodstuffs):
1. म्यूकर, राइजोपस, ऐस्पर्जिलस, पेनिसिलियम, यीस्ट आदि अनेक कवक खाद्य पदार्थों को विघटित करते हैं। म्यूकर व राइजोपस की कुछ जातियाँ डबलरोटी व अचार पर देखी जा सकती हैं। म्यूकर, ओइडियम, लेक्टिस, पेनिसिलियम, क्लेडोस्पोरियम आदि कुछ कवक डेयरी उत्पादों को नष्ट करते हैं। इसके अतिरिक्त कुछ कवक इमारती लकड़ी, कागज व चमड़े की वस्तुओं को भी हानि पहुँचाती हैं। एमेनिटा कवक विभ्रमकारी होती हैं।
2. कुछ कवक विषाक्त (poisonous) होते हैं जिन्हें खाने से मृत्यु हो जाती है। लगभग 90% छत्रक समूह के मांसल कवक विषाक्त होते हैं। इन विषाक्त छत्रकों में एमानिटा (Amanita), रुसुला (Russula), बोलीटस (Boletus) आदि मुख्य हैं।
प्रश्न 10.
लाइकेनों पर टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
लाइकेन या शैक (Lichens):
शैवाल तथा कवक परस्पर मिलकर लाइकेन का निर्माण करते हैं। इसमें दोनों घटक एक-दूसरे को सहयोग करके जीवित रहते हैं। इस प्रकार के जीवन को सहजीवन (symbiosis) कहते हैं। कवक अपने अधस्तर (substratum) द्वारा वातावरण से जल एवं खनिज लवण अवशोषित करके शैवाल को उपलब्ध कराते हैं। शैवाल इन पदार्थों की सहायता से सूर्य के प्रकाश की उपस्थिति में प्रकाश-संश्लेषण की क्रिया द्वारा कार्बोहाइड्रेट्स का निर्माण करके कवक को देते हैं। अतः लाइकेन्स में सहजीविता का एक उत्तम उदाहरण मिलता है।
लाइकेन्स के शरीर का अधिकांश भाग का निर्माण कवक द्वारा होता है जिसे माइकोबायोन्ट (mycobiont) कहते हैं। कवक एस्कोमाइसिटीज या बैसिडियोमाइसिटीज वर्ग के सदस्य होते हैं। कवक जाल के बीच मिक्सोफाइसी या क्लोरोफाइसी वर्ग के सदस्यों में से कोई भी एक शैवाल हो सकता है जिसे फाइकोबायोन्ट (Phycobiont) कहते हैं।
लाइकेन किसी आधार के साथ अपनी निचली सतह से निकले। मूलिका या ‘राइजीन’ (Rhizines) की सहायता से चिपके रहते हैं। राइजीन एकल, शाखित या अशाखित समानान्तर रूप से व्यवस्थित अनेक कवक सूत्र होते हैं। लाइकेन के थैलस दो तलों पर पृष्ठ व अधर में विभेदित होता है। पृष्ठ तल गहरे भूरे या हल्के भूरे रंग का जबकि अधर तल काले रंग का होता है। लाइकेन थैलस (thallus) की आन्तरिक संरचना जटिल होती है। आन्तरिक रूप से थैलस ऊपरी वल्कुट, शैवाल क्षेत्र, मज्जा क्षेत्र एवं निचला वल्कुट आदि क्षेत्रों में विभेदित होता है।
लाइकेन में कायिक जनन, खण्डन एवं विशिष्ट संरचनाओं जैसे सोरिडिया व इसिडिया आदि द्वारा होता है। लाइकेन में लैंगिक जनन करना पूर्णतः कवकों पर निर्भर है। इसमें लाइकेन का सहयोगी कवक अगर ऐस्कोमाइसिटिज का सदस्य है तब लैंगिक जनन ऐस्को बीजाणुओं द्वारा होता है। इन बीजाणुओं का निर्माण ऐस्काई (Asci) में होता है। ऐस्काई फलनपिंडों में निहित होती है। जिन्हें ऐपोथिसियम कहते हैं। नर जननांग स्पोरोगोनियम एवं मादा जननांग कार्पोगोनियम कहलाते हैं।
लाइकेन के प्रकार (Types of Lichens):
बाह्य आकारिकी के आधार पर लाइकेनों को निम्नलिखित तीन वर्गों में बाँटा गया है –
1. पर्पटीमय लाइकेन (Crustose lichen)-इस प्रकार के लाइकेन का थैलस चपटा व कठोर होता है तथा रंग भूरा, लाल, घूसर, पीला या काला होता है। इसकी निचली सतह अधोस्तर पर पपड़ी की जैसे घनिष्ठ रूप से चिपकी रहती है। कुछ लाइकेन का थैलस पूर्णतः अथवा आंशिक रूप से वृक्षों की छालों में धंसा रहता है। इनमें फलनपिण्ड थैलस की ऊपरी सतह पर पाये जाते हैं। उदाहरण-ग्रैफिस (Graphis), लोकेनोरा (Locenera), लेसीडिया (Lacedia), राइजोकार्पोन (Rhizocarpon) व हीमोटोमा (Haemotoma) आदि।
2. पर्णिल लाइकेन (Foliose lichen)-ये थैलस चपटे, फैले हुए तथा पत्तियों की भाँति पालित व कटावदार होते हैं। पर्पटीमय लाइकेन की भाँति इनकी सम्पूर्ण निचली सतह आधार से चिपकी नहीं होती है। इनकी निचली सतह से मूलाभास सदृश तन्तुरूपी उद्वर्ध निकलते हैं जिन्हें राइजीन (Rhizines) कहते हैं। इनकी सहायता से थैलस अधोस्तर पर चिपका होता है। उदाहरण-पारमेलिया (Parmelia) व गायरोफोरा (Gynophora) आदि।
3. फलयुक्त अथवा क्षुपिल लाइकेन (Fruticose lichen)इनका थैलस सुविकसित, क्षुपिल (Shrub-like) बेलनाकार तथा शाखित होता है। इनकी चपटी, फीतानुमा अथवा बेलनाकार शाखाओं की ऊर्ध्व वृद्धि होती है अथवा वे वृक्षों के स्तम्भों से नीचे लटकी रहती हैं। इस प्रकार के लाइकेन अधोस्तर पर एक आधारी श्लेष्मक बिम्ब की सहायता से चिपकते हैं। उदाहरण-क्लैडोनिया (Cladonia) एवं अस्निया (Usnea) आदि।
लाइकेन का आर्थिक महत्व (Economic importance of Lichaera):
1. शैल अनुक्रमण (Lithosere) की प्रक्रिया में विभिन्न पर्पटीमय लाइकेन पुरोगामी वनस्पति (pioneer vegetation) के रूप में उत्पन्न होते हैं तथा ये अनुक्रमण (succession) की प्रक्रिया को प्रारम्भ करते हैं। उदाहरण-लेसीडिया (Lecidia) राइजोकार्पोन (Rhizocarpon) आदि लाइकेन शैल-अनुक्रमण की प्रक्रिया के पुरोगामी प्रजातियों का कार्य करती हैं।
2. लाइकेन वायु प्रदूषण के सूचक (air pollution indicator) होते हैं। SO2 की उपस्थिति को ये सहन नहीं कर सकते व अधिक SO2 की सान्द्रता में तो, इसकी मृत्यु हो जाती है।
3. भोजन एवं चारे के रूप में (Food and fodder):
प्राचीन काल से ही लाइकेन का उपयोग भोजन में किया जाता रहा है। उत्तर ध्रुवीय टुण्ड्रा तथा पूर्वी साइबेरिया प्रदेशों में लाइकेन वनस्पति आहार का मुख्य अंग है। लीकेनोरा, पारमेलिया, अम्बीलीकेरिया आदि कुछ लाइकेन विश्व के विभिन्न भागों। में भोजन के रूप में प्रयोग किये जाते हैं। दक्षिण भारत में पारमेलिया की जातियाँ जिन्हें शिलापुष्प कहते हैं, खायी जाती हैं।
लाइकेन में लाइकेनिन (lichenin) नामक कार्बोहाइड्रेट पाया जाता है। इसमें सत्य स्टार्च तथा सेलुलोस का अभाव होता है। यीस्ट (yeast) के आविष्कार से पूर्व मिस्र के निवासी एवर्निया का प्रयोग बेकिंग उद्योग (baking Industry) में करते थे। जापान में एण्डोकॉर्पोन सब्जी के रूप में पाया जाता है।
एस्पीसीलिया कैलकेरिया (Aspicillia calcared), लीकेनोरा, सैक्सीकोला आदि लाइकेन्स की कुछ जातियाँ अनेक कीटों, जैसे-घोंघा तथा इल्ली, दीमक द्वारा भोजन के रूप में प्रयोग की जाती हैं।
लाइकेनों को पानी में भिगोने से इनमें उपस्थित कड़वे यौगिक दूर हो जाते हैं तथा अकाल की परिस्थितियों में इनका उपयोग चारे के रूप में किया जाता है। लोबेरिया, एवर्निया, रैमालाइना पोषण की दृष्टि से चारे के लिए उपयोगी हैं। उत्तर ध्रुवीय टुण्ड्रा प्रदेश में बारहसिंघा (reindeer) का मुख्य भोजन क्लैडोनिया रैंजीफेरा (बारहसिंघा मांस) है। सूखे हुए लाइकेन घोड़ों व हंसों को खिलाये जाते हैं।
1. औषधि के रूप में:
लाइकेन पित्त, अतिसार, ज्वर, स्नार् विकास व चर्म रोगों में औषधि के रूप में प्रयोग किये जाते हैं। पारमेलिया पलेंटा अपच तथा सांप बिच्छू के विष के उपचार में विशेष रूप से लाभदायक होता है। क्लैडोनिया, सिटेरिया व पर्टसेरिया की जातियाँ म्यादी बुखार में तथा क्लैडोनिया काली खांसी में प्रयोग की जाती है। अस्निया की अनेक जातियों का प्रयोग रक्तस्राव (bleeding) रोकने में किया जाता है। अनेक आयुर्वेदिक औषधियों में लाइकेन एक मुख्य घटक है।
2. अभिरंजक के रूप में:
अनेक लाइकेन रंग उत्पन्न करते हैं। तथा प्राचीन काल से ही इनका प्रयोग लाल, नीला तथा बैंगनी रंग बनाने में किया जाता है। रॉसेला (Rocella) से ऑरसीन (orcein) नामक नीला रंग प्राप्त होता है जो आर्चिल (orchil) का शुद्धिकृत रूप है। इसका उपयोग ऊतकीय अध्यर्यनों में अभिरंजक (stain) के रूप में किया जाता है। दक्षिण भारत में इसे नारियल की जटा रंगने में भी प्रयोग किया जाता है। रोसेला टिंक्टोरिया (Rocella tinctoria) नामक लाइकेन निचोड़ से लिटमस का घोल प्राप्त होता है। इस घोल से लिटमस पेपर तैयार किया जाता है।
3. चर्मशोधन उद्योग में-सीटेरिया आइसलैण्डिका (Cetraria icelandica) तथा लोबेरिया को चर्म शोधन उद्योग में चर्म संस्कारक (tanning agent) के रूप में प्रयोग किया जाता है। इनके थैलस में लीकेनोरिक अम्ल तथा इरिथ्रन नामक पदार्थ पाये जाते हैं। इनकी अमोनिया से क्रिया कराने पर
ऑरसीन तथा कार्बोनिक अम्ल प्राप्त होते हैं।
4. किण्वन व आसवन:
रूस, साइबेरिया आदि अनेक देशों में क्लेडोनिया के किण्वन व आसवन से शराब बनाई जाती है। इनके अतिरिक्त लाइकेन हानिकारक भी होते हैं जैसे गर्मियों के समय में कुछ लाइकेन सूखकर ज्वलनशील हो जाते हैं तथा आसानी से आग पकड़ लेते हैं जिससे अनायास जंगल में आग लग जाती है। कुछ लाइकेन विषैली प्रवृत्ति की भी होती है, जिनके खाने से पशुओं की मृत्यु हो जाती है। नमी वाले क्षेत्रों में अनेक लाइकेन वहाँ के मकानों की खिड़कियाँ, दरवाजों की चौखट, सीमेन्ट की दीवार व संगमरमर के फर्श पर लग जाते हैं। इन लाइकेनों से स्रावित अम्लों से इन्हें हानि पहुँचती है।
RBSE Class 11 Biology Chapter 4 अन्य महत्त्वपूर्ण प्रश्न
RBSE Class 11 Biology Chapter 4 वस्तुनिष्ठ प्रश्न
प्रश्न 1.
जीवाणु में श्वसन क्रिया का स्थान है –
(अ) एपीसोम
(ब) राइबोसोम
(स) माइक्रोसोम
(द) मीसोसोम
प्रश्न 2.
मुर्गियों में होने वाले श्वसन रोग का कारक है –
(अ) वायरस
(ब) माइकोप्लाज्मा
(स) जीवाणु
(द) सायनोजीवाणु
प्रश्न 3.
अति प्राचीनतम जीवाणु है –
(अ) आर्किबैक्टिरिया
(ब) यूबैक्टिरिया
(स) सायनोबैक्टिरिया
(द) माइकोप्लाज्मा
प्रश्न 4.
माइकोप्लाज्मा में जनन की प्रमुख विधियाँ हैं –
(अ) अलैंगिकृ
(ब) लैंगिक
(स) जाइगोस्पोर
(द) द्विखण्डन तथा मुकलन
प्रश्न 5.
माइकोप्लाज्मा का अप्राकृतिक संवर्धन करने में किसकी अनिवार्यता होती है ?
(अ) पेनिसिलीन
(ब) मेनीटॉल
(स) स्टीरोल्स
(द) स्टार्च
प्रश्न 6.
जीवाणु के किस आनुवंशिक पुनर्योजन से विषाणु सम्बन्धित हैं –
(अ) ट्रान्सफारमेशन
(ब) ट्रान्सडक्सन
(स) कन्जुगेशन
(द) उपयुक्त में से कोई नहीं है
प्रश्न 7.
वलय रूप में DNA पाया जाता है –
(अ) जीवाणु में
(ब) कवक में
(स) उच्च पौधों में
(द) युग्लीना में
प्रश्न 8.
प्रोटिस्टा में पोषण की विधि है –
(अ) स्वपोषी
(ब) परजीवी
(स) मृतोपजीवी
(द) उपर्युक्त सभी
प्रश्न 9.
स्लाइम मोल्ड कवक किस वर्ग के अन्दर रखे गये हैं ?
(अ) मिक्सोफाइसी
(ब) मिक्सोमाइसिटीज
(स) ऐक्टिनोमाइसिटीज
(द) बैसिडियोमाइसिटीज
प्रश्न 10.
स्ट्रेप्टोमाइसिस ग्रीसस से कौनसा एन्टीबायोटिक बनता है –
(अ) स्ट्रेप्टोमाइसिन
(ब) टेरामाइसिन
(स) टेट्रासाइक्लिन
(द) पालीमिक्सिन
प्रश्न 11.
भूमि की उर्वर शक्ति किसकी उपस्थिति से बनती है ?
(अ) हरे शैवाल
(ब) भूरे शैवाल
(स) लाल शैवाल
(द) नीलहरित शैवाल
प्रश्न 12.
कौन से शैवाल प्रोटिस्टा में नहीं रखे जाते हैं –
(अ) लाल शैवाल
(ब) भूरे शैवाल
(स) हरे शैवाल
(द) नीले हरे शैवाल
उत्तरमाला:
1. (द), 2. (ब), 3. (अ), 4. (द), 5. (स), 6. (ब), 7. (अ), 8. (द). 9. (ब), 10. (अ), 11. (द), 12. (द)
RBSE Class 11 Biology Chapter 4 अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न.
प्रश्न 1.
जीवाणु की कोशिका भित्ति किसकी बनी होती है ?
उत्तर:
पेप्टीडोग्लाइकन से बनी होती है।
प्रश्न 2.
लैंगिक पुनर्योजन किस सूक्ष्मजीवी में होता है ?
उत्तर:
जीवाणुओं में।
प्रश्न 3.
लेग्यूमिनोसी कुल के पौधों की जड़ों में उपस्थित ग्रन्थिकाओं। में सहजीवन करने वाले जीवाणु का नाम बताइये।
उत्तर:
राइजोबियम लेग्यूमिनोसेरम।
प्रश्न 4.
साइट्रस केंकर रोग किस जीवाणु द्वारा होता है ?
उत्तर:
जैन्थोमोनास सिट्राई।
प्रश्न 5.
आर्किजीवाणुओं की कोशिका भित्ति में किसका अभाव होता है ?
उत्तर:
म्यूरामिक अम्ल व पेप्टाइडोग्लाइकेन।
प्रश्न 6.
भूमि उद्धार में मोनेरा जगत के किस पादप का मुख्य योगदान होता है ?
उत्तर:
जीवाणु तथा नीलहरित शैवाल।
प्रश्न 7.
उन जीवाणुओं के नाम बताओ जिनमें अन्त:बीजाणु बनते हैं।
उत्तर:
क्लॉस्ट्रीडियम और बैसिलस।
प्रश्न 8.
पाश्चर ने कौन सा सिद्धान्त तथा किस विधि को विकसित किया ?
उत्तर:
कीटाणु सिद्धान्त तथा पाश्चरीकरण।
प्रश्न 9.
मानव की आँत में कौनसा जीवाणु उपस्थित होता है ?
उत्तर:
इस्चेरिया कोलाई (E. coli)।
प्रश्न 10.
PPLO का विस्तार क्या है ?
उत्तर:
प्ल्यूरोनिमोनिया लाइक आरगेनिज्म (Pleuropneumonia like organism)।
प्रश्न 11.
प्रकाश संश्लेषी प्रोटिस्टा में किसे रखा गया है ?
उत्तर:
शैवालों को।
प्रश्न 12.
वर्ग प्रोटिस्टा की रचना किसने की थी ?
उत्तर:
ई.एच. हैकल ने।
प्रश्न 13.
प्रोटिस्टा में मुख्यतः जनन किस विधि से होता है ?
उत्तर:
प्रमुख रूप से अलैंगिक प्रकार का होता है जो द्विविभाजन के द्वारा होता है।
प्रश्न 14.
लाइकेन किसके संकेतक होते हैं ?
उत्तर:
SO2 प्रदूषण के।
प्रश्न 15.
खाने योग्य कवकों के उदाहरण बताइये।
उत्तर:
मॉर्केला एस्क्यूलेंटा, ऐगेरिकस बाईस्पोरा, ऐ. केम्पेस्ट्रिस।
प्रश्न 16.
रेण्डियर मॉस किसे कहते हैं ?
उत्तर:
क्लेडोनिया रेन्जिफेरीना (Cladonia rangiferina) को रेन्डीयर खाते हैं, इसलिये इसे रेण्डियर मॉस कहते हैं।
प्रश्न 17.
लाइकेन किसे कहते हैं ?
उत्तर:
शैवाल तथा कवक परस्पर मिलकर लाइकेन बनाते हैं। इसमें दोनों पादप एक-दूसरे को सहयोग करके जीवित रहते हैं। इस प्रकार के जीवन को सहजीवन कहते हैं।
RBSE Class 11 Biology Chapter 4 लघूत्तरात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
आर्किजीवाणु किस प्रकार के आवास में पाये जाते हैं ?
उत्तर:
आर्किजीवाणु ऐसे आवासों में रहते हैं, जहाँ पर अन्य जीव नहीं पनप सकते हैं। ये वाहित मल में, जानवरों के रुमन (Rumen) में, अत्यधिक लवणीय जल में, अत्यधिक तापमान (80°C) तथा अत्यधिक अम्लीयता (pH2) में पाये जाते हैं। ये हिमालय क्षेत्र में गर्म जल के गन्धकयुक्त झरनों में 100°C तापमान पर भी जीवित रहते हैं।
प्रश्न 2.
हेलोफिल्स के लक्षण लिखिए।
उत्तर:
आर्किजीवाणु जो अधिक लवणीय जल में पाये जाते हैं, उन्हें हेलोफिल्स कहते हैं। ये आर्किजीवाणु सौर ऊर्जा पर निर्भर रहते हैं। तथा सौर ऊर्जा को कार्बोहाइड्रेट्स में न बदलकर सीधे ही ATP अणुओं का निर्माण करते हैं, उदाहरण-हैलोबैक्टिरियम (Halobacterium)।
प्रश्न 3.
निम्न को कारण सहित समझाइए –
(i) अस्पतालों में उबले हुए उपकरणों का प्रयोग आवश्यक हैं ?
उत्तर:
उपकरणों को उबालने से जीवाणु इत्यादि समाप्त हो जाते हैं जिससे संक्रमण होने की सम्भावना नहीं रहती है।
(ii) लेग्यूमिनोसी कुल के पौधे जिस खेत में उगाये जाते हैं। उसकी उर्वरता बनी रहती है।
उत्तर:
लेग्यूमिनोसी कुल के पादपों की जड़ें ग्रन्थिकामय होती हैं। इन ग्रन्थियों में राइजोबियम लेग्यूमिनोसेरम नामक जीवाणु रहते हैं जो नाइट्रोजन स्थिरीकरण कर भूमि की उर्वरता को बढ़ाते हैं।
(iii) ताजा तथा बिना उबला हुआ दूध खट्टा होने की सम्भावना अधिक होती है।
उत्तर:
कुछ जीवाणु दूध में उपस्थित लेक्टोस शर्करा को लेक्टिक अम्ल में किण्वित करते हैं जिससे दूध खट्टा हो जाता है, जैसे –
स्ट्रेप्टोकोकस लैक्टिस, लेक्टोबैसिलस कैसिआई, ले. एसिडोफिल्स आदि। दूध को उबालने से ये जीवाणु समाप्त हो जाते हैं तथा दूध को खट्टा होने से बचाया जा सकता है।
(iv) शराब अधिक समय तक रखने पर खट्टी हो जाती है।
उत्तर:
शराब अधिक समय तक रखने पर जीवाणुओं का प्रकोप हो जाने से खट्टी हो जाती है।
(v) सड़ी-गली चीजों का सड़ते समय तापमान अधिक होता है।
उत्तर:
ये मृतोपजीवी जीवाणु होते हैं, कार्बनिक पदार्थों के ऑक्सीकरण व उपापचय क्रियाओं से ऊर्जा निकलने के कारण ताप बढ़ जाता है।
प्रश्न 4.
अन्तः बीजाणु की संरचना तथा लक्षण बताइए।
उत्तर:
1. अन्तःबीजाणुओं द्वारा (By endospores):
इस प्रकार के बीजाणु प्रतिकूल परिस्थितियों में बनते हैं। अन्त:बीजाणु क्लॉस्ट्रिडियम (Clostridium) व बेसिलस (Bacillus) वंश के सभी जीवाणुओं में पाये जाते हैं। कोशिका का जीवद्रव्य सिकुड़कर केन्द्र में एकत्रित होकर गोल हो जाता है तथा जीवद्रव्य झिल्ली इसे घेरे रहती है। इस झिल्ली के बाहर वल्कुट (cortex) होता है जो कैल्सियम डाइ पीकोलिनिक अम्ल तथा पेप्टि डोग्लाइकन (calcium dipicolinic acid and peptidoglycon) के मिश्रण से बना हुआ होता है। वल्कुट के बाहर मोटा बीजाणु चोल (spore coat) होता है। बीजाणु चोल की बाहरी भित्ति पतली व कोमल होती है, इसे बाह्य चोल (exosporium) कहते हैं।
वल्कुट में उपस्थित रसायनों के कारण ही अन्त:बीजाणु की भौतिक तथा रासायनिक कारकों के प्रति प्रतिरोध क्षमता बढ़ जाती है। इसी कारण अन्त:बीजाणुओं पर अत्यधिक कम ताप (-269°C) व उबलते पानी तथा अधिक ताप (150-170°C) का प्रभाव नहीं होता है। यह हमारे लिए सौभाग्य की बात है कि परजीवी जीवाणुओं में केवल टिटेनस व एन्ट्रेक्स (Tetanus & Anthrax) रोग के जीवाणुओं के अतिरिक्त अन्य रोग के जीवाणुओं में अन्त:बीजाणु नहीं बनते अन्यथा रोगों पर नियंत्रण करना दुष्कर हो जाता। अन्त:बीजाणु के कोशिकाद्रव्य में DNA व राइबोसोम मिलते हैं।
एक जीवाणु की कोशिका से एक ही अन्त:बीजाणु बनता है और यह अन्त:बीजाणु प्रतिकूल परिस्थितियों तक सुप्त अवस्था में रहता है, अनुकूल परिस्थिति आने पर बीज चोल फटकर जीवद्रव्य एक बीजाणु के रूप में बाहर आता है। एक जीवाणु की कोशिका से एक ही अन्त:बीजाणु का निर्माण होने से इसे जनन कहना तो उपयुक्त नहीं है वरन् इस विधि से जीवाणु प्रतिकूल परिस्थितियों में अपनी रक्षा करते हैं अतः यह चिरकालिकता (perennation) की विधि है।
2. कोनिडिया के द्वारा (By conidia):
स्ट्रेप्टोमाइसीज (Streptomyces) के तन्तुमय जीवाणुओं में तलाभिसारी क्रम (basipetal succession) में कोनिडिया एक श्रृंखला में व्यवस्थित रहते हैं। प्रत्येक कोनिडिया अंकुरित होकर नया जीवाणु बनाते हैं।
3. चलबीजाणुओं के द्वारा (By ZOOspore):
कभी-कभी जीवाणु कोशिका से चल बीजाणुओं का निर्माण होता है, जिनसे नये बीजाणु बनते हैं, जैसे-राइजोबियम (Rhizobium)।
4. पुटी (Cyst):
ऐजोटोबैक्टर (Azotobacter) में मोटी भित्ति के बीजाणु बनते हैं और भित्ति अधिक मोटी होने से इन्हें पुटी (Cyst) कहते हैं।
प्रश्न 5.
मल व्यवस्था में जीवाणुओं का क्या योगदान है ?
उत्तर:
कृत्रिम जलाशयों में मलमूत्र इत्यादि एकत्रित करके जीवाणु द्वारा उनका ऑक्सीकरण किया जाता है। इस क्रिया में निकलने वाली CO2 शैवाल उपयोग में ले लेते हैं और यह शैवाल ऑक्सीजन छोड़ते हैं। यह ऑक्सीजन मलमूत्र के ऑक्सीकरण में उपयोगी होती है।
प्रश्न 6.
चावल की खेती में खाद की आवश्यकता क्यों नहीं पड़ती है?
उत्तर:
नील हरी शैवाल अर्थात् सायनोजीवाणु की कुछ जातियाँ जिनमें नॉस्टॉक, एनेबीना तथा टोलीपोथ्रिक्स आदि वायुमण्डल की नाइट्रोजन का यौगिकीकरण करने में सक्षम होती हैं। ये शैवाल भूमि की उर्वरता में वृद्धि करती हैं। चावल की खेती में इनका योगदान सराहनीय है अतः इसी कारण खाद की आवश्यकता नहीं पड़ती है।
प्रश्न 7.
जल-ब्लूम (Water-bloom) किसे कहते हैं ?
उत्तर:
नील हरी शैवाल के अनेक सदस्य जलाशयों में अधिक मात्रा में उत्पन्न हो जाते हैं तथा जब इनकी मृत्यु हो जाती है तो जलाशयों के जल में ऑक्सीजन की कमी हो जाती है। इस कारण जल में एक विशेष तरह की बदबू भी आने लगती है एवं जल का रंग भी बदल जाता है। इस प्रकार के ऑक्सीजन रहित जल का उपयोग करने से मछलियाँ तथा अन्य जलीय जीवों की मृत्यु हो जाती है। इसे जल-ब्लूम कहते हैं। जो कि जीव-जन्तुओं के लिए हानिकारक है। माइक्रोसिस्टस, एनेबीना, ‘नॉस्टॉक तथा ओसिलेटोरिया इत्यादि जल-ब्लूम उत्पन्न करने वाली व्यापक नील-हरित शैवाल हैं।
प्रश्न 8.
ग्राम अभिरंजन पर टिप्पणी लिखिये।
उत्तर:
ग्राम पॉजिटिव एवं ग्राम निगेटिव जीवाणु (Gram Positive and Gram Negative Bacteria):
डेनमार्क के चिकित्सक, क्रिस्चियन ग्राम (Christian Gram, 1884) ने जीवाणुओं की अभिरंजन क्रिया का आविष्कार किया तथा इसे ग्राम अभिरंजन (Gram stain) कहा। ग्राम अभिरंजन के आधार पर सम्पूर्ण जीवाणुओं को दो श्रेणियों ग्राम पॉजिटिव तथा ग्राम निगेटिव में विभक्त कर दिया गया। अभिरंजन की विधि में क्रिस्टल वायलेट (Crystal violet) का इथाइल एल्कोहॉल (ethyl alcohol) में घोल बनाया जाता है।
स्लाइड पर जीवाणुओं को इस घोल से अभिरंजित करने के पश्चात् आयोडीन और पोटेशियम आयोडाइड युक्त जल में पुनः अभिरंजित करते हैं। इससे जीवाणु बैंगनी रंग के हो जाते हैं, फिर 90% इथाइल एल्कोहॉल से धो देते हैं। यदि धोने के पश्चात् भी बैंगनी रंग वैसा का वैसा ही रहे तो जीवाणु ग्राम पॉजिटिव (Gram positive) होते हैं। उदा. माइक्रोकोकस, स्ट्रेप्टोकोकस, लेप्टोबेसिलस, क्लोस्ट्राडियम आदि किन्तु यदि बैंगनी रंग न रहे तो ये ग्राम निगेटिव (Gram negative) जीवाणु होते हैं। उदा. राइजोबियम, सूडोमोनॉस, साल्मोनेला, विब्रियो आदि।
प्रश्न 9.
माइकोप्लाज्मा की विशिष्टता पर संक्षिप्त में टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
ये सूक्ष्मतम जीव होते हैं। इन्हें सूक्ष्मदर्शी द्वारा देखा जा सकता है। ये अचल तथा एककोशिकीय जीव होते हैं। इनमें कोशिका भित्ति का अभाव होने से इनकी आकृति बदलती रहती है। इसी कारण इन्हें पादप जगत का जोकर’ कहते हैं। ये मृतजीवी व परजीवी दोनों प्रकार के तथा इनका. कोशिका रहित माध्यम में संवर्धन कराया जा सकता है। इनकी कालोनी तले अंडे की भाँति होती है। इन्हें वृद्धि हेतु स्टीरोल की आवश्यकता होती है। ये पेनिसिलिन के प्रति प्रतिरोधी किन्तु टेट्रासाइक्लिन। व क्लोरेमफेनीकोल के प्रति तथा ताप व pH के प्रति संवेदी होते हैं। जीवाणु फिल्टर में आसानी से छन जाते हैं। इन्हें जीवाणुओं व विषाणुओं के मध्य योजक कड़ी के रूप में माना जाता है।
प्रश्न 10.
माइकोप्लाज्मा द्वारा उत्पन्न पाँच पादप रोग बताइए।
उत्तर:
- पपीते का गुच्छित चूड़ रोग (Bunchy top of papaya)
- बैंगन का लघुपर्णी रोग (Litle leaf of brinjal)
- गन्ने का धारीय रोग (Stripe disease of sugar-cane)
- टमाटर का वृहत् कलिका रोग (Big bud of tomato)
- लेग्यूम का कुर्चीसमरोग (Witch’s broom of legumes)
प्रश्न 11.
मोनेरा जगत की विशेषताओं पर संक्षिप्त विवरण लिखिए।
उत्तर:
व्हिटैकर (Whittaker) ने मोनेरा में सभी प्रोकैरियोटी जीव जैसे –
आद्य जीवाणु, यूबैक्टीरिया, सायनोबैक्टीरिया, माइकोप्लाज्मा आदि को सम्मिलित किया है, जिनके लक्षण निम्न प्रकार से हैं –
- ये प्रारूपिक एककोशिकीय जीव होते हैं जिनमें स्पष्ट केन्द्रक नहीं पाया जाता तथा केन्द्रक झिल्ली व केन्द्रिक अनुपस्थित होता है। फलस्वरूप आनुवंशिक पदार्थ कोशिकाद्रव्य में बिखरा पड़ा होता है। इसे केन्दाभ या आद्य केन्द्रक (Nucleoid or incipient nucleus) कहते हैं।
- इनकी कोशिका भित्ति दृढ़ होती है व पेप्टिडोग्लाइकेन से बनी होती है परन्तु आद्य जीवाणुओं की प्रोटीनयुक्त होती है।
- आनुवंशिक पदार्थ नग्न वृत्ताकार DNA होता है व केन्द्रक झिल्ली द्वारा ढका नहीं होता है।
- कोशिकाद्रव्य में केवल राइबोसोम व सरल प्रकाश संश्लेषी वर्णक क्रोमेटेफोर (Chromatophore) के रूप में होते हैं। राइबोसोम 70S प्रकार के होते हैं। इनमें हरितलवक, माइटोकॉण्ड्रिया, अन्त:प्रद्रव्यी जालिका, गॉल्जीकाय, सेन्ट्रोसोम्स आदि कोशिकांगों का अभाव होता है।
- श्वसन एन्जाइम कोशिका झिल्ली के अन्तर्वलन मध्यकाय (Mesosome) पर होते हैं।
- पोषण की दृष्टि से ये रसायन संश्लेषी, प्रकाश संश्लेषी स्वपोषी व परपोषी होते हैं।
- इनमें वास्तविक लैंगिक जनन अनुपस्थित होता है तथा आनुवंशिक पदार्थों की वंशागति के लिए संयुग्मन (Conjugation) लैंगिक जनन के विकल्प के रूप में होता है। अलैंगिक प्रजनन विखण्डन या मुकुलन द्वारा होता है।
- कोशिका विभाजन असूत्री विभाजन (Amitosis) द्वारा होता है।
जगत मोनेरा में आद्य जीवाणु, यूबैक्टीरिया, सायनोबैक्टीरिया व माइकोप्लाज्मा आदि को सम्मिलित किया गया है। इनमें से केवल जीवाणुओं का विस्तृत अध्ययन किया जायेगा।
प्रश्न 12.
नाइट्रोजन स्थिरीकरण पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
नील-हरित शैवालों में उपस्थित विशिष्ट प्रकार की कोशिकायें जिन्हें हिटरोसिस्ट कहते हैं, ये कोशिकाएँ N2 स्थिरीकरण की क्रिया करती हैं। राइजोबियम लैग्यूमिनोसेरम लेग्यूम कुल के पादपों की जड़ ग्रन्थियों में रहकर N2 स्थिरीकरण करते हैं। N2 चक्र में गलन-सड़न के जीवाणु व नाइट्रीकारी जीवाणु का योगदान होता है। प्रथम प्रकार के जीवाणु मृत प्रोटीनीय पदार्थों को अमीन अम्लों में बदलते हैं जिन्हें द्वितीय प्रकार के जीवाणु बेसीलस वल्गेरिस अमोनिया यौगिकों में परिवर्तित कर देते हैं। इस प्रक्रिया को अमोनीकरण कहते हैं। तृतीय श्रेणी के जीवाणु दो चरणों में अमोनिया यौगिकों को नाइट्रेट में बदल देते हैं –
प्रश्न 13.
जीवाणुओं के द्वारा दूध से बनाये जाने वाले पदार्थों के विषय में बताइए।
उत्तर:
पदार्थ (Products) | जीवाणु (Bacteria) |
1. योगहर्ट (Yoghurt) | 1. लैक्टोबैसिलस वल्गैरिकस तथा स्ट्रेप्टोकोकस थर्मोफिलस |
2. दही (Curds) | 2. स्टेप्टोकोकस लैक्टिस, लैक्टोबैसिलस तथा लैक्टोबैसिलस लैक्टिस |
3. पनीर (Cheese) | 3. स्ट्रेप्टोकोकस लैक्टिस |
4. मक्खन (Butter) | 4. स्ट्रेप्टोकोकस लैक्टिस |
5. मट्ठा या छाछ (Butter Milk) | 5. स्ट्रेप्टोकोकस क्रीमोरिस |
प्रश्न 14.
प्रोटिस्टा वर्ग के सामान्य लक्षण लिखिए।
उत्तर:
सामान्य लक्षण (General Characters)
- इसके अन्तर्गत सभी एककोशिक यूकैरियोटिक जीवों को रखा गया है।
- प्रायः जगत के सदस्य जलीय प्रवृत्ति के होते हैं।
- इनकी कोशिकाओं में स्पष्ट विकसित केन्द्रक होता है अर्थात् केन्द्रक झिल्ली के द्वारा ढका होता है। कोशिका के कोशिकाद्रव्य में दोहरी या एकल झिल्ली से परिबद्ध सभी कोशिकांग पाये जाते हैं।
- कुछ प्रोटिस्टा में कशाभ व पक्ष्माभ भी पाये जाते हैं।
- इनमें अलैंगिक व लैंगिक जनन पाया जाता है।
अभी तक इस जगत की सीमाओं का निर्धारण ठीक ढंग से नहीं हो पाया है। उदाहरणार्थ यदि एक जीववैज्ञानिक के लिए प्रकाश संश्लेषी प्रोटिस्टा है तो दूसरे के लिए यह पादप जगत भी हो सकता है।
‘प्रोटिस्टा’ का शाब्दिक अर्थ सर्वप्रथम (the very first) है। अधिकांश प्रोटिस्ट जलीय, एककोशिकीय तथा यूकैरियोटी होते हैं। इनकी कोशिकाओं में एक सुसंगठित केन्द्रक एवं अन्य झिल्लीबद्ध कोशिकांग पाए जाते हैं। कुछ प्रोटिस्ट प्रकाश-संश्लेषी होते हैं, जबकि कुछ परभक्षी या परजीवी तथा कुछ मृतोपजीवी होते हैं। कुछ प्रोटिस्टा में कशाभ (flagella) एवं पक्ष्माभ (cilia) भी पाए जाते हैं। कशाभिकाओं की बनावट में सूक्ष्मनलिकाएँ (microtubules) 9 + 2 क्रम में व्यवस्थित होती हैं।
इनमें अलैंगिक प्रजनन द्विखण्डन (binary fission) या बहुविखण्डन (multiple fission) द्वारा होता है। लैंगिक प्रजनन युग्मक संलयन (syngamy) अर्थात् दो केन्द्रकों के संलयन द्वारा होता है। प्रोटिस्टा के अन्तर्गत क्राइसोफाइट, डायनोफ्लैजिलेट, युग्लीनॉइड, अवपंक कवक एवं प्रोटोजोआ सभी को रखा गया है।
प्रश्न 15.
लाइकेन्स मुख्यतया कितने प्रकार के होते हैं ?
उत्तर:
लाइकेन्स के प्रकार(Types of Lichens):
बाह्य आकारिकी के आधार पर लाइकेनों को निम्नलिखित तीन वर्गों में बाँटा गया है –
1. पर्पटीमय लाइकेन (Crustose lichen):
इस प्रकार के लाइकेन का थैलस चपटा व कठोर होता है तथा रंग भूरा, लाल, घूसर, पीला या काला होता है। इसकी निचली सतह अधोस्तर पर पपड़ी की जैसे घनिष्ठ रूप से चिपकी रहती है। कुछ लाइकेन का थैलस पूर्णतः अथवा आंशिक रूप से वृक्षों की छालों में धंसा रहता है। इनमें फलनपिण्ड थैलस की ऊपरी सतह पर पाये जाते हैं। उदाहरण-ग्रैफिस (Graphis), लोके नोरा (Locenera), लेसीडिया (Lacedia), राइजोकार्पोन (Rhizocarpon) व हीमोटोमा (Haemotoma) आदि।
2. पर्णिल लाइकेन (Foliose lichen):
ये थैलस चपटे, फैले हुए तथा पत्तियों की भाँति पालित व कटावदार होते हैं। पर्पटीमय लाइकेन की भाँति इनकी सम्पूर्ण निचली सतह आधार से चिपकी नहीं होती है। इनकी निचली सतह से मूलाभास सदृश तन्तुरूपी उद्वर्ध निकलते हैं जिन्हें राइजीन (Rhizines) कहते हैं। इनकी सहायता से थैलस अधोस्तर पर चिपका होता है। उदाहरण-पारमेलिया (Parmelia) व गायरोफोरा (Gynophora) आदि।
3. फलयुक्त अथवा क्षुपिल लाइकेन (Fruticose lichen):
इनका थैलस सुविकसित, क्षुपिल (Shrub-like) बेलनाकार तथा शाखित होता है। इनकी चपटी, फीतानुमा अथवा बेलनाकार शाखाओं की ऊर्ध्व वृद्धि होती है अथवा वे वृक्षों के स्तम्भों से नीचे लटकी रहती हैं। इस प्रकार के लाइकेन अधोस्तर पर एक आधारी श्लेष्मक बिम्ब की सहायता से चिपकते हैं। उदाहरण-क्लैडोनिया (Cladonia) एवं अस्निया (Usnea) आदि।
प्रश्न 16.
कवकों के चार विशिष्ट लक्षण लिखिए।
उत्तर:
- ये पर्णहरित रहित, केन्द्रकयुक्त व बीजाणुधारण करने वाले पादप हैं।
- इनका पोषण मृतोपजीवी, परजीवी या सहजीवी प्रकार का होता हैं।
- पादप शरीर तन्तुमय शाखाओं अर्थात् कवक तन्तुओं का बना होता है। कवक तन्तुओं के जाल को कवक जाल या माइसीलियम (mycelium) कहते हैं।
- कोशिका भित्ति कवक सेल्यूलोस या काइटिन की बनी होती है।
- पादप शरीर में तन्तु पटहीन व बहुकेन्द्रकी या संकोशिकी होते हैं।
- संचित खाद्य पदार्थ ग्लाइकोजन के रूप में होता है।
प्रश्न 17.
स्लाइम मोल्ड की संरचना का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
अवपंक कवक (Slime mould fungus):
अवपंक कवक मृतपोषी प्रोटीस्टा हैं। ये स्थलीय या जलीय जीव हैं जो सामान्यतया सड़ी पत्तियों या शाखाओं या ह्यूमस युक्त भूमि पर परजीवी या मृतोपजीवी की भांति पाये जाते हैं। इनकी संरचना श्लेष्मीय नग्न प्रोटोप्लाज्म का पिण्ड होती है। प्रोटोप्लाज्म में अनेक नाभिक (nuclei) एवं रसधानियाँ (vacuoles) होती हैं। इसको प्लाज्मोडियम (plasmodium) कहते हैं। अधिकतर स्लाइम मोल्ड में पीले वर्णक वाले प्लाज्मोडियम होते हैं। अनुकूल परिस्थितियों में ये समूह (प्लाज्मोडियम) बनाते हैं, जो कई फीट तक की लम्बाई का हो सकता है। प्रतिकूल परिस्थितियों में ये बिखरकर सिरों पर बीजाणु युक्त फलनकाय बनाते हैं। इन बीजाणुओं का परिक्षेपण वायु के द्वारा होता है। उदा. डिक्टियोस्टीलियम।
RBSE Class 11 Biology Chapter 4 निबन्धात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
आकार के आधार पर जीवाणुओं के सचित्र प्रकार . बताइये।
उत्तर:
जीवाणुओं के प्रकार (Types of Bacteria):
इनके प्रकारों को आमाप व आकार आधार पर समझा जा सकता
(अ) आमाप (Size):
ये सूक्ष्म आमाप के होते हैं। सामान्यतया जीवाणु कोशिका का व्यास 0.2 – 1.5µm तथा लम्बाई 2 – 10µm होती है। सबसे छोटा जीवाणु युबेक्टिरियम (eubacterium), डायालिस्टर न्यूमोसिन्टिस (Dialister pneumosintes) होता है जबकि सबसे बड़ा जीवाणु बेगियोटोआ मिराबिलिस (Beggiatoa mirabilis) है। जिसका व्यास 16 से 45µm व लम्बाई 80µm या इससे अधिक होती है।
(ब) आकार (Shape):
जीवाणु निम्नलिखित आकारों के होते है –
(क) गोलाणु या कोकस जीवाणु (Sperical or Coccus bacteria):
इस प्रकार के जीवाणु गोलाकार या अण्डाकार होते हैं। प्रायः जीवाणु में यह सबसे छोटे होते हैं तथा इनमें कशाभिकाएँ अनुपस्थित होती हैं। ये निम्न प्रकार के होते हैं
- माइक्रोकोकाई (Micrococci): इस प्रकार के जीवाणु सरल एवं अकेले होते हैं, जैसे माइक्रोकोस एगीलिस (Micrococcus agilis) एवं मा. आरियस (M. aureus)।
- डिप्लोकोकाई (Diplococci): ये गोलाणु जोड़ी (pair) में रहते हैं, उदाहरण-डिप्लोकोकस निमोनी (Diplococcus pneumoniae)।
- टेट्राकोकस (Tetracoccus): ये गोलाणु चार-चार के समूहों में होते हैं, उदाहरण-माइक्रोकोकस टेट्राजिनस (Micrococcus tetragenus) एवं नाइसिरिया (Neisseria)।
- स्ट्रेप्टोकोकाई (Streptococci): यह गोलाणु एक-दूसरे से । जुड़कर लम्बी श्रृंखला या जंजीर सी बनाते हैं, उदाहरण स्ट्रेप्टोकोकस लेक्टिस (Streptococcus lactis)।
- स्टेफाइलोकोकाई (Staphylococci): गोलाणुओं की कोशिकायें झुण्ड या अंगूर के गुच्छे के समान रचना बनाती हैं, उदाहरण-स्टेफाझ्लोकोकस ऑरियस (Staphylococcus aureus)।
- सारसिनि (Sarcinae): इसमें 8 से 64 गोलाणु कोशिकायें घनाकार (cuboid) के रूप में व्यवस्थित होती हैं, उदाहरणसारसिनि ल्यूटिया (Sarcinae lutea)।
(ख) बेसिलस या छड़ाकार जीवाणु (Bacillus or Rod shaped bacteria):
इन जीवाणुओं की आकृति छड़ या दण्डाणु के समान होती है। इनके सिरे गोल, चपटे या नुकीले होते हैं। ये कशाभिकायुक्त (flagellated) या अकशाभिकीय (non-flagellated) होते हैं। ये निम्न प्रकार के होते हैं –
1. एकल दण्डाणु या मोनोबेसिलस (Monobacillus):
एक छड़ाकार जीवाणु कोशिका जो एकल रूप में पाये जाते हैं, उदाहरण-बेसिलस (Bacillus)।
2. डिप्लोबेसिलस (Diplobacillus):
जब दण्डाणु दो के समूह या युग्म (pair) के रूप में मिलते हैं, उदाहरण-डिप्लोबेसिलस निमोनी (Diplobacillus pneumoniae)।
3. स्ट्रेप्टोबेसिलस (Streptobacillus):
जब बेसीलस जीवाणु श्रृंखला (chain) में पाये जाते हैं, उदाहरण-बेसिलस ट्यूबरकुलोसिस (Bacillus tuberculosis)।
(ग) सर्पिलाकृत या कुंडलित जीवाणु (Spiral or helical bacteria):
इन जीवाणुओं की आकृति सर्पिल या कुंडलित होती है, इन्हें स्पाइरिलम (spirillum) भी कहा जाता है। ये प्रायः एकल कोशिकीय स्वतंत्र इकाइयों के रूप में पाये जाते हैं। ये कशाभिकायुक्त होते हैं। उदाहरण-स्पाइरिलम माइनस (Spirillum minus), स्पा. वोलूटेन्स (S.volutans)।
(घ) विज्रियो या कोमr (Vibrio or Coma):
ये जीवाणु कोमा या छोटी घुमावदार आकृति के होते हैं, इनके सिरे पर कशाभिका उपस्थित होती है, उदाहरण-विब्रियो कोलेरी
(Vibrio cholerae)।
(च) तन्तुमय (Filamentous):
ये जीवाणु मूलतः बेसिलस प्रकार के होते हैं, जो लम्बी श्रृंखला के रूप में वृद्धि करते हैं एवं नलिकाकार आवरण से ढके होते हैं। ये जीवाणु आवरण में ही विभक्त होते हैं, उदाहरण-लेप्टोथ्रिक्स (Leptothrix), क्लेडोथिक्स (Cladothrix) एवं बेगियाटोआ (Beggiatoa) आदि। इस प्रकार के जीवाणु प्रायः लौहयुक्त जल में पाये जाते हैं।
(छ) बहुरूपी जीवाणु (Pleomorphic):
कुछ जीवाणु बदलते हुए वातावरण के अनुसार अपनी आकृति व आमाप को परिवर्तित करते हैं, अतः इन अस्थाई परिवर्तनों के फलस्वरूप ये जीवाणु एक से अधिक प्रारूपों में पाये जाते हैं, उदाहरण-एसिटोबेक्टर (Acetobacter)।
प्रश्न 2.
जीवाणुओं में पोषण कितने प्रकार का होता है ? विस्तार से समझाइये।
उत्तर:
पोषण (Nutrition):
पोषण के आधार पर जीवाणुओं को निम्न दो श्रेणियों में बाँटा जा सकता है –
(अ) स्वपोषी जीवाणु तथा
(ब) परपोषित या विषमपोषी जीवाणु।
(अ) स्वपोषी जीवाणु (Autotrophic bacteria):
यद्यपि इस प्रकार का पोषण बहुत ही कम जीवाणुओं में पाया जाता है। फिर भी अनेक जीवाणुओं में रासायनिक क्रियाओं द्वारा प्राप्त ऊर्जा से भोज्य पदार्थों का निर्माण होता है। कुछ जीवाणुओं में तो उच्चवर्गीय पौधों के समान ही प्रकाश संश्लेषण पाया जाता है। अतः इन्हें प्रकाश संश्लेषी जीवाणु कहा जाता है। स्वपोषी जीवाणु भी दो प्रकार के होते हैं।
(क) प्रकाश संश्लेषी जीवाणु (Photosynthetic bacteria):
इस प्रकार के जीवाणुओं में जीवाणु क्लोरोफिल (bacterial chlorophyll) पाया जाता है। कुछ जीवाणुओं में तो इसके अतिरिक्त अन्य वर्णक बैक्टीरियोविरिडन (Bacterioviridin) या क्लोरोबियम क्लोरोफिल (Chlorobiuin chlorophyll) भी पाया जाता है। इस प्रकार के क्लोरोफिल में भी उच्च श्रेणी के पादपों में पाये जाने वाले क्लोरोफिल की जैसे मैग्नीशियम पाया जाता है। ये वर्णक लवकों के स्थान पर क्रोमेटोफोर्स (Chromatophores) में उपस्थित होते हैं। प्रकाश संश्लेषी जीवाणु हरे पौधों के समान कार्बनडाइऑक्साइड व H2O से कार्बोहाइड्रेट्स का निर्माण नहीं करते हैं। इन जीवाणुओं में प्रकाश संश्लेषण की क्रिया प्रायः गंधक यौगिकों की उपस्थिति में होती है। यहाँ हाइड्रोजन (H2) का स्रोत H2O के स्थान पर हाइड्रोजन सल्फाइड (H2S) होता है तथा प्रकाश संश्लेषण के सहउत्पाद में ऑक्सीजन के स्थान पर गंधक उत्पन्न होता है।
क्रोमेटेयिम (Chromatium), क्लोरोबियम (Chlorobium) तथा क्लोरोबेक्टिरियम (Chlorobacterium) आदि प्रकाश संश्लेषी जीवाणुओं के उदाहरण हैं।
(ख) रसायन संश्लेषी जीवाणु (Chemosynthetic bacteria):
इस प्रकार के जीवाणुओं में पर्णहरित अनुपस्थित होता है। व इस कारण ये सूर्य प्रकाश की ऊर्जा का उपयोग नहीं कर पाते। इस प्रकार के जीवाणु CO2 को कार्बोहाइड्रेट्स में परिवर्तित करने के लिए विभिन्न प्रकार की रासायनिक क्रियाओं से प्राप्त ऊर्जा का उपयोग करते हैं। अतः ऊर्जा प्राप्त करने के लिए कुछ पदार्थों का ऑक्सीकरण किया जाता है। गंधक व उसके यौगिक, अमोनिया, नाइट्राइट्स, लोहा, हाइड्रोजन, कार्बन मोनोऑक्साइड, मीथेन आदि का जीवाणुओं द्वारा ऑक्सीकरण किया जाता है। जिस पर यह जीवाणु क्रिया करते हैं उसी आधार पर इन जीवाणुओं को नाम दिया जाता है, जैसे-गंधक जीवाणु, लौह जीवाणु आदि।
1. गंधक जीवाणु (Sulpher bacteria):
गंधक जीवाणु जैसेथायोबेसीलस (Thiobacillus), बेगिएटोआ (Beggiatoa) व थायोथ्रिक्स (Thiothrix) आदि गंधक या गंधक यौगिकों का ऑक्सीकरण करके उनसे ऊर्जा प्राप्त करते हैं।
2H2S + O2 → 2S + 2H2O + 122.2 K.cal.
2S + 2H2O + 3O2 → 2H2SO4 + 248.4 K.cal.
2. लौह जीवाणु (Iron bacteria):
ये जीवाणु फेरस यौगिकों | को फेरिक यौगिकों में ऑक्सीकृत कर इनसे ऊर्जा प्राप्त करते हैं, जैसे-लेप्टोथ्रिक्स (Leptothrix) तथा फैरोबेसीलस
(Ferrobacillus) आदि।
4FeCO3 + O2 + 6H2O → 4Fe(OH)3 + 4CO2 + 81 K.cal.
3. हाइड्रोजन जीवाणु (Hydrogen bacteria):
ये जीवाणु आण्विक हाइड्रोजन को जल में बदल देते हैं तथा इससे प्राप्त ऊर्जा का उपयोग रासायनिक संश्लेषण में करते हैं। उदाहरणबेसीलस पेन्टोट्रोफस (Bacillus pantotrophus) व हाइड्रोमोनास (Hydromonas) आदि।
2H2 + O2 → 2H2O + 137 K.cal.
4. नाइट्रीकारी जीवाणु (Nitrifying bacteria):
इस प्रकार के जीवाणु नाइट्रोजन यौगिकों से ऊर्जा प्राप्त करते हैं तथा दो प्रकार के होते हैं –
- अमोनिया को नाइट्रेट्स में ऑक्सीकृत करने वाले, जैसे नाइट्रो सो मो नास (Nitrosomonas), नाइट्रोबेक्टर (Nitrobacter) तथा नाइट्रोकोकस (Nitrococcus) आदि।
- ये जीवाणु नाइट्राइट्स को नाइट्रेट्स में बदल देते हैं; जैसे नाइट्रोबेक्टर (Nitrobacter) तथा बैक्टोडर्मा (Bactodermma) आदि।
2NH3 + 3O2 → 2 HNO2 + 2H2O + 158 K.cal.
2HNO2 + O2 → 2HNO3 + 38 K.cal.
5. इनके अतिरिक्त कुछ जीवाणु रसायन कार्बनपोषी (Chemo organotrophs) होते हैं जो कार्बन व इसके यौगिकों का उपयोग ऊर्जा स्रोत के रूप में करते हैं, ये निम्न प्रकार के हैं –
- मीथेन जीवाणु (Methane bacteria):
ये जीवाणु मीथेन (CH4) गैस को CO2 व H2O में ऑक्सीकृत कर देते हैं, जैसेमीथेनोकोकस (Methanococcus), लेक्टोबेसीलस (Lactobacillus) व एसीटोबेक्टर (Acetobactor) आदि।
CH4 + 2O2 → CO2 + 2H2O + ऊर्जा। - कार्बन जीवाणु (Carbon bacteria):
ये जीवाणु CO को ऑक्सीकृत करके ऊर्जा प्राप्त करते हैं, जैसे-बेसीलस ओलीगोकार्बोफिलस (Bacillus oligocarbophilus)।
2CO + O2 → 2CO2 + ऊर्जा।
(ब) परपोषी जीवाणु (Heterotrophic bacteria):
अधिकांश जीवाणु परपोषी प्रवृत्ति के होते हैं, क्योंकि इनमें वर्णकों का अभाव होता है। ऐसे जीवाणु जटिल कार्बनिक यौगिकों को एन्जाइम की सहायता से घुलनशीलं बनाकर इनका अवशोषण करते हैं। ये निम्न तीन प्रकार के होते हैं –
1. मृतोपजीवी जीवाणु (Saprophytic bacteria):
ऐसे जीवाणु मृत जीवों के शरीर को सड़ाने व गलाने का कार्य करते हैं। ये जीवाणु मृत एवं सड़े-गले अपघटित कार्बनिक पदार्थों से पोषण प्राप्त करते हैं। सर्वप्रथम जीवाणु जटिल कार्बनिक पदार्थों को अपने एन्जाइम्स द्वारा घुलनशील यौगिकों में बदल देते हैं। व फिर आवश्यकतानुसार इनका अवशोषण करते हैं। इनके द्वारा प्रोटीन एवं कार्बोहाइड्रेट के अपघटन की प्रक्रिया को पूयन (putrification) एवं किण्वन (fermentation) कहते हैं। ये विकल्पी (facultative) व अविकल्पी परजीवी (obligate saprophyte) होते हैं। विकल्पी परजीवी को जब मृत कार्बनिक पदार्थ नहीं मिलते हैं तो वे सजीवों के ऊपर परजीवी बनकर पोषण प्राप्त करते हैं।
2. सहजीवी जीवाणु (Symbiotic bacteria):
इसका उपयुक्त उदाहरण-राइजोबियम (Rhizobium) है। ये जीवाणु लेग्यूमिनोसी कुल के पौधों की मूल ग्रंथियों (root nodules) में रहते हैं तथा वायुमण्डलीय नाइट्रोजन को नाइट्रेट में बदल देते हैं तथा इसका उपयोग पौधे करते हैं तथा जीवाणु पौधे से आवास व कार्बोहाइड्रेट पोषण पदार्थ प्राप्त करते हैं अर्थात् इसमें जीवाणु व पौधा दोनों लाभान्वित होते हैं। परजीवी जीवाणु (Parasitic bacteria)-इस प्रकार के जीवाणु पौधों या जन्तुओं के शरीर पर या अन्दर रहते हैं व इन्हीं से अपना भोजन प्राप्त करते हैं व उनमें नाना प्रकार के रोग उत्पन्न कर देते हैं, जैसे जैन्थोमोनास (Xanthomonas), कोरिनीबैक्टीरियम (Corneabacterium) आदि।
प्रश्न 3.
जीवाणुओं के आर्थिक महत्त्व पर लेख लिखिए।
उत्तर:
जीवाणुओं का आर्थिक महत्त्व (Economic Importance of Bacteria):
जीवाणु आर्थिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं तो उतने ही विनाशकारी हैं। ये प्राकृतिक अपमार्जक हैं क्योंकि प्रकृति में कार्बन व नाइट्रोजन चक्र को। बनाए रखने में अहम भूमिका निभाते हैं। ये प्राणियों व पादपों में भयंकर रोग उत्पन्न करते हैं तथा सिरका, तम्बाकू, डेयरी, चमड़ा आदि अनेक उद्योगों में महत्त्वपूर्ण योगदान देते हैं। जीवाणुओं का हमारे दैनिक जीवन। क्रियाओं में इतना महत्त्व है कि इनके बिना जीवन असम्भव प्रतीत होता है। आर्थिक महत्त्व की दृष्टि से इनके हानिकारक व लाभदायक दोनों प्रभावों का उल्लेख किया जा रहा है –
(अ) जीवाणुओं की हानिकारक गतिविधियाँ (Harmful activities of Bacteria) :
1. रोगजनक क्रियाएँ (Pathogenic activities):
जीवाणुओं की अनेक परजीवी जातियाँ जीवों में रोग उत्पन्न करती हैं। पौधों के कुछ प्रमुख जीवाण्विक रोग निम्न प्रकार से हैं –
जीवाणु जनित मुख्य पादप रोग:
जीवाणु | पादप रोग |
1. स्यूडोमोनास सोलेनेसिएरम | 1.आलू, खीरा व बैंगन में म्लानि (Wilt) |
2. इर्विनिया ऐराइडी | 2. मूली, टमाटर, गोभी में गलन (Rots) |
3. इर्विनिया एमाइलोविरा | 3. सेब, नाशपाती में अंगमारी (Blights) |
4. ऐग्रोबैक्टीरियम ट्यूमीफेसियन्स | 4. सेब व चुकन्दर में क्राउनगॉल (Crown gall) |
5. जैन्थोमोनास सिट्राई | 5. नींबू में सिट्स केन्कर |
पौधों में जीवाणुओं के संक्रमण से अनेक प्रकार के लक्षण उत्पन्न होते हैं। पिटिका (galls), अपूर्ण पुष्प एवं फल (imperfect flowers and fruits), शीर्षन (blight), कूच शीर्ष (brooming), केंकर (canker), yuf falkayu (leaf distortion), yuf fanit (leaf spot), वामनीभवन (dwarfing), विलगन (rot), म्लानि (wilting) आदि जीवाण्विक रोगों के सामान्य लक्षण हैं।
पौधों के अतिरिक्त जीवाणु मनुष्यों व पशुओं में अनेक रोग करते हैं। प्राणियों में परिसंचरण तंत्र (circulatory system) की उपस्थिति
के कारण जीवाणु सरलता से एक अंग से दूसरे अंग तक पहुँच जाते हैं। रोगजनक जीवाणु मनुष्यों के लगभग सभी तंत्रों को संक्रमित करते हैं। मनुष्यों के कुछ प्रमुख जीवाण्विक रोग निम्न प्रकार से हैं –
जीवाणुजनित मुख्य मानव रोग:
रोग (Disease) | रोगाणु (Pathogen) |
1. प्लेग (Plague) | 1. पास्चुरेला पेस्ट्रिस (Pasteurella pestris) |
2. तपेदिक (Tuberculosis) | 2. माइकोबैक्टीरियम ट्यूबरक्यूलोसिस (Mycobacterium tuberculosis) |
3. टाइफाइड (Typhoid) | 3. सैल्मोनेला टाइफी (Salmonella typhi) |
4. जठरान्त्र शोध (Gastro enteritis) | 4. एसरिकिआ कोली (Escherichia coli) |
5. हैजा (Cholera) | 5. विर्बियो (Vibrio cholerae) |
6. पेचिश (Dysentery) | 6. शाइजिला डाइसेन्ट्री (Shiegella dysentey) |
7. निमोनिया (Pneumonia) | 7. स्ट्रेप्टोकोकस निमोनीई (Streptoccus pneumoniae) |
8. डिप्थीरिया (Diptheria) | 8. को न बैक्टीरियम डिप्थीरी (Corynebacterium diptheriae) |
9. वात् ज्वर (Rheumatic fever) | 9. स्ट्रेप्टोकोकस (Streptococus) |
10. अतिसार (Dirrhoea) | 10. बैसीलस कोली (Bacillus coli) |
11. कोढ़ (Leprosy) | 11. माइ को बैक्टीरियम ले प्री (Mycobacterium leprae) |
12. पीलिया (Jaundice) | 12. लेप्टोस्पाइरा इक्टीरो-हीमोराहीजी (Leptospira ictero haemorrhaigea) |
2. भोजन विषाक्तता (Food poisoning):
भोजन विषाक्तता अनेक प्रकार के जीवाणुओं के कारण होती है। माइक्रोकोकस पायोजिन्स (Micrococcus pyogenes) नामक जीवाणु दूध उत्पादों, जैसे-क्रीम, पनीर व दूध तथा गोश्त उत्पादों की विषाक्तता करता है। अनेक सैनिक कैम्पों में सैल्मोनेला टाइफीम्यूरियम (Salmonella typhimurium) नामक जीवाणु भोजन विषाक्तता का कारण पाया जाता है। विषाक्त भोजन से अधिकांश मृत्यु बाटुलिज्म रोग (botulism) से होती है। यह रोग क्लॉस्ट्रिडियम बोट्यूलिनम (Clostridium botulinium) नामक जीवाणु द्वारा स्रावित बहि:अविष (exotoxin) के कारण होता है। इस रोग के मुख्य लक्षण जीभ का फूलना, द्वि-दृष्टि (double vision) तथा श्वसन अंगधात (respiratory paralysis) है।
3. जल प्रदूषण (Water pollution):
अनेक रोगजनक जीवाणुओं का प्रवर्धन केवल जल में होता है, जिसके कारण जल पीने योग्य (potable) नहीं रहता है। सैल्मोनेला टाइफी (Salmonella typhii), शाइजिला डाइसेन्ट्री (Shiegella dysentery) तथा विब्रियो कोलेरी (Vibrio cholerae) प्रमुख जल प्रदूषक (water polluting) जीवाणु हैं।
4. विनाइट्रीकरण (Denitrification):
बै सीलस डीनाइट्रीफिके न्स (Bacillus dcnitrificans), थायो बैसीलस डीनाइट्रीफिकेन्स (Thiobacillus denitrificans) आदि कुछ जीवाणु मिट्टी में उपस्थित नाइट्रेट का विनाइट्रीकरण करके उसे नाइट्राइट, अमोनिया तथा अंततः स्वतंत्र नाइट्रोजन में परिवर्तित कर देते हैं। चूंकि पौधे नाइट्रोजन को अधिकांशतः नाइट्रेट के रूप में ग्रहण करते हैं, अतः विनाइट्रीकारक जीवाणु मिट्टी की उर्वरता (soil fertility) को कम करते हैं।
प्रश्न 4.
निम्नलिखित पर टिप्पणी लिखिये –
(अ) क्राइसोफाइटा
(ब) यूग्लीकॉइड
(स) अवपंक कवक
उत्तर:
(अ) क्राइसोफाइट (Chrysophyte):
इसके अन्तर्गत डाइएटम (Diatom) तथा सुनहरे शैवाल (Desmid) आते हैं। ये स्वच्छ जल तथा लवणीय (समुद्री) पर्यावरण दोनों में पाये जाते हैं। ये बहुत ही सूक्ष्म होते हैं तथा जलधारा के साथ निश्चेष्ट रूप से बहते हैं। डीइएटम में कोशिका भित्ति साबुनदानी की जैसे दो अतिछादित कवच बनाती है। इन भित्तियों में सिलिका होती है। सिलिका के कारण भित्तियाँ कठोर होती हैं, इस कारण ये नष्ट नहीं होते हैं। मृत डाइएटम् जिन स्थानों पर मिलते हैं वहाँ कोशिका भित्ति के अवशेष बहुत बड़ी संख्या में छोड़ जाते हैं। अनेक वर्षों में जमा हुए इस अवशेष को ‘डाइएटमी मृदा’ (Diatomaceous soil) कहते हैं। यह मृदा कणमयी होती है, इस कारण इसका उपयोग पॉलिश करने, तेलों तथा सिरप के निस्पंदन में होता है।
विस्फोटक पदार्थों के निर्माण में नाइट्रोग्लिसरीन को अवशोषित करने के लिए भी इसका उपयोग होता है। इनमें अग्नि-प्रतिरोधी का गुण होता है, इस कारण इनका उपयोग उच्चतापीय भट्टियों को बनाने में किया जाता है। ये अम्ल प्रतिरोधी भी होते हैं अतः इनका उपयोग अम्लों के संग्रह व संवहन के लिए किया जाता है। ये रन्ध्रीय (porous) होते हैं, इस कारण इनका उपयोग छन्नकों (filters) के रूप में किया जाता है। चीनी परिष्करण में इनका उपयोग छन्नकों के रूप में किया जाता है। डाइएटम समुद्र के मुख्य उत्पादक (producer) होते हैं। खुरदरें व कठोर कण समान होने के कारण इनका उपयोग पालिश, तेलों, सिरप आदि को साफ करने के लिए उनके निस्पंदन (filtration) में होता है। उदा. नेवीकुला (Navicula) व पिन्नुलेरिया (Pinnularia)।
(ब) यूरलीनॉइड (Euglenoid):
ये एककोशीय कशाभिक प्रोटिस्ट होते हैं जो अधिकांशतः स्वच्छ जल व स्थिर जल में पाये जाते हैं। इनमें कोशिका भित्ति का अभाव होता है तथा सम्पूर्ण शरीर एक प्रत्यास्थ (elastic) प्रोटीनयुक्त पदार्थ झिल्ली द्वारा घिरा होता है, जिसे पेलिकल (pellicle) कहते हैं। कोशिका के अग्र भाग पर एक अन्तर्वलन (invagination) होता है, जिसमें दो कशाभ (flagella) होते हैं। कशाभिकाओं में एक छोटा तथा दूसरा लम्बा होता है। यूग्लीना कशाभिका की सहायता से तेजी से गति करता है।
कशाभिका के आधार के निकट एक प्रकाश-संवेदी दृक बिन्दु (photosensitive eye spot) होता है जो कि यूग्लीना को प्रकाश तीव्रता की ओर बढ़ने में सहायक होता है। एक संकुचनधानी (contractilevacuole) कोशिका में जल की मात्रा को नियन्त्रित करती है। क्लोरोप्लास्ट में Chl.a व b तथा जैन्थोफिल होता है। भोजन पैरामाइलोन स्टार्च के रूप में संचित होता है।
इन जीवधारियों में जन्तुओं व पौधों, दोनों के लक्षण प्रदर्शित होते हैं। प्रकाश की उपस्थिति में ये प्रकाश-संश्लेषण करते हैं, लेकिन अंधेरे में इनके क्लोरोप्लास्ट लुप्त हो जाते हैं तथा सूक्ष्म जीवों का शिकार कर परपोषी की भांति व्यवहार करते हैं। अलैंगिक प्रजनन लम्बवत् द्विविखण्डन (longitudinal binary fission) द्वारा होता है तथा लैंगिक प्रजनन के विषय में अब तक कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है। उदाहरणः यूग्लीना।
(स) अवपंक कवक (Slime mould fungus):
अवपंक कवक मृतपोषी प्रोटीस्टा हैं। ये स्थलीय या जलीय जीव हैं जो सामान्यतया सड़ी पत्तियों या शाखाओं या ह्यूमस युक्त भूमि पर परजीवी या मृतोपजीवी की भांति पाये जाते हैं। इनकी संरचना श्लेष्मीय नग्न प्रोटोप्लाज्म का पिण्ड होती है। प्रोटोप्लाज्म में अनेक नाभिक (nuclei) एवं रसधानियाँ (vacuoles) होती हैं। इसको प्लाज्मोडियम (plasmodium) कहते हैं।
अधिकतर स्लाइम मोल्ड में पीले वर्णक वाले प्लाज्मोडियम होते हैं। अनुकूल परिस्थितियों में ये समूह (प्लाज्मोडियम) बनाते हैं, जो कई फीट तक की लम्बाई का हो सकता है। प्रतिकूल परिस्थितियों में ये बिखरकर सिरों पर बीजाणु युक्त फलनकाय बनाते हैं। इन बीजाणुओं का परिक्षेपण वायु के द्वारा होता है। उदा. डिक्टियोस्टीलियम।
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