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RBSE Solutions for Class 11 Biology Chapter 41 पर्यावरणीय प्रदूषण

June 22, 2019 by Prasanna Leave a Comment

Rajasthan Board RBSE Class 11 Biology Chapter 41 पर्यावरणीय प्रदूषण

RBSE Class 11 Biology Chapter 41 पाठ्यपुस्तक के प्रश्न

RBSE Class 11 Biology Chapter 41 वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न 1.
महानगरों में वायु प्रदूषण का प्रमुख कारण है
(अ) घरेलू ईंधन
(ब) पेड़-पौधे
(स) बढ़ती आबादी
(द) मोटर वाहन

प्रश्न 2.
ध्वनि प्रदूषण मापा जाता है
(अ) Kg में
(ब) dB में
(स) टन ‘में
(द) आवृत्ति में।

प्रश्न 3.
सामान्य बातचीत में ध्वनि की तीव्रता क्या होती है?
(अ) 10-20dB
(ब) 30-60dB
(स) 70-90dB
(द) 120-150dB

RBSE Solutions for Class 11 Biology Chapter 41 पर्यावरणीय प्रदूषण

प्रश्न 4.
कौनसे प्रदूषक से अम्लीय वर्षा होती है?
(अ) पेस्टीसाइड
(ब) SO2 or NO2
(स) कार्बन कण
(द) डस्ट कण

उत्तर तालिका
1. (द)
2. (ब)
3. (ब)
4. (ब)

RBSE Class 11 Biology Chapter 41 अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
विश्व पर्यावरण दिवस कब होता है?
उत्तर-
प्रत्येक वर्ष के 5 जून को विश्व पर्यावरण दिवस मनाया जाता है।

प्रश्न 2.
ओजोन छिद्र से सर्वाधिक प्रभावित देश कौनसा है?
उत्तर-
अंटार्टिका- (आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैण्ड, चीली, अर्जेण्टाइन व द. अफ्रीका) ।

प्रश्न 3.
इटाई इटाई रोग का मुख्य लक्षण क्या है?
उत्तर-
केडमियम युक्त जल से होने वाले हड्डियों के रोग को आउच-आउच या इटाई-इटाई (Ouch-Ouch or Itai-Itai) कहते हैं

प्रश्न 4.
मोटर कारों से निकलने वाला मुख्य प्रदूषक क्या है?
उत्तर-
कार्बन मोनोऑक्साइड (CO), कार्बन डाईऑक्साइड, हाइड्रोकार्बन्स, नाइट्रोजन और गंधक।।

प्रश्न 5.
स्मोग (Smog) क्या है?
उत्तर-
स्मोग धुंध को कहते हैं। धुएं व कोहरे के संयोग से धुंध बनती है (Smoke + fog = Smog)

प्रश्न 6.
ताजमहल को किस प्रदूषक से डर है?
उत्तर-
सल्फ्यूरिक अम्ल (H2SO4) से, मथुरा तेलशोधक कारखाने से निकलने वाले धुआं में SO2 की अधिक मात्रा होती है। यह SO2 वर्षा के जल या नमी से मिलकर अम्ल बनाती है। इससे ताजमहल के संगमरमर के पत्थरों को क्षति पहुंचती है।

प्रश्न 7.
किस स्तर से ऊपर की ध्वनि को प्रदूषण मानते हैं?
उत्तर-
वायुमण्डल में 80 dB से अधिक ध्वनि को प्रदूषण मानते हैं

RBSE Solutions for Class 11 Biology Chapter 41 पर्यावरणीय प्रदूषण

प्रश्न 8.
मिनीमाटा (Minamata) रोग से शरीर का कौनसा तंत्र प्रभावित होता है?
उत्तर-
पारे के लवणयुक्त जल से यह रोग होता है। यह तंत्रिकाओं का रोग है। पीड़ित व्यक्ति के पैर, होठ व जीभ सुन्न हो जाते हैं। लकवा रोग होता है।

प्रश्न 9.
अपघटनीय प्रदूषक कौन से होते हैं?
उत्तर-
घरेलू अपशिष्ट अर्थात् वाहित मलमूत्र, अन्न, शाक व फलों के अंश, व्यर्थ कपड़ा, कागज, लकड़ी आदि।

प्रश्न 10.
अनअपघटनीय प्रदूषक कौन से होते हैं?
उत्तर-
DDT, BHC, प्लास्टिक, एल्यूमिनियम व लोहे के डिब्बे, शीशा, नाभिकीय अपशिष्ट, पारा, कैडमियम व आर्सेनिक के यौगिक आदि।

प्रश्न 11.
नाभिकीय प्रदूषक कौन से होते हैं?
उत्तर-
नाभिकीय ईंधन के जल जाने के बाद बचे हुए पदार्थ अर्थात् नाभिकीय कचरा ही नाभिकीय प्रदूषक है।

प्रश्न 12.
क्या प्राकृतिक स्रोत से भी नाभिकीय प्रदूषण हो सकता है ?
उत्तर-
जब स्रोत का उपयोग ईंधन के रूप में लेते हैं या नाभिकीय विघटन करते हैं तब ही नाभिकीय प्रदूषण होता है। वैसे अल्फा, बीटा, गामा विकिरण भी हानिप्रद प्रभाव उत्पन्न करती हैं। प्रायः प्राकृतिक स्रोत से कम प्रदूषण होता है।

प्रश्न 13.
नाभिकीय प्रदूषण को रोकने का एक मुख्य उपाय लिखिये।
उत्तर-
परमाणु विस्फोटों पर रोक, दुर्घटनाओं को रोकने के लिए सुरक्षा के उपाय तथा सघन वृक्षारोपण करना चाहिए।

RBSE Solutions for Class 11 Biology Chapter 41 पर्यावरणीय प्रदूषण

RBSE Class 11 Biology Chapter 41 लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
मृदा प्रदूषण को परिभाषित कीजिए।
उत्तर-
भूमि की ऊपरी सतह को मृदा कहते हैं। मृदा के भौतिक, रासायनिक तथा जैविक गुण होते हैं जिससे जीव-जन्तुओं के लिए पोषक तत्व उत्पन्न होते हैं। लेकिन जब इन गुणों (भौतिक, रासायनिक तथा जैविक) में ऐसा कोई परिवर्तन होता है जिसका दुष्प्रभाव मानव व अन्य जीवों पर पड़ता है, उसे मृदा प्रदूषण कहते हैं।

प्रश्न 2.
वायु प्रदूषण करने वाले मुख्य कारक कौन-कौन से हैं?
उत्तर-
वायु प्रदूषण के कारण निम्न प्रकार से हैं

  • गैसें (Gases) – घरों तथा कारखानों में ईंधन के जलने से उत्पन्न होने वाली गैसें मुख्यतया वायु को प्रदूषित करती हैं। ये गैसें CO, CO2, हाइड्रोकार्बन, नाइट्रोजन मोनो ऑक्साइड, (NO) नाइट्रोजन डाई ऑक्साइड, (NO2), H2S आदि हैं, जो कि वातावरण में मिल जाती हैं और वायु को प्रदूषित कर शरीर पर हानिकारक प्रभाव डालती हैं।
  • अन्य रसायन (Chemicals) – कुछ अन्य रासायन जो गैसीय अवस्था में नहीं होते हैं परन्तु विभिन्न स्रोतों (जैसे कोयला, तेल की भट्टियाँ, काँच बनाने वाले कारखाने, रिफायनरीज, स्टील प्लांट्स, मोटर वाहन, फर्टिलाइजर्स प्लांट, विद्युत उत्पन्न करने वाले प्लांट आदि) से निकलने वाले रसायन जैसे- आर्सेनिक, बैन्जीन, केडमियम, क्लोरीन, फ्लोराइड, फारमेल्डिहाइड, हाइड्रोजन फ्लोराइड, मैंगनीज, निकल, लैड आदि वायु प्रदूषण के मुख्य कारक हैं जो कि अत्यन्त घातक होते हैं।
  • कणिकीय पदार्थ (Particulate Matter) – ये कणिकीय पदार्थों जो कि वायु प्रदूषण के मुख्य कारक होते हैं, ठोस और द्रवीय अवस्था में हो सकते हैं। उड़ते हुए धुएं के कण, धूल के कण आदि शुद्ध वायु को प्रदूषित करते हैं।

प्रश्न 3.
जल प्रदूषण के मुख्य कारक कौन-कौन से हैं?
उत्तर-
जल प्रदूषण के मुख्य कारक निम्न प्रकार से हैं

  • मल जल एवं घरेलू कचरा (Sewage and domestic Waste) – शहरों की जनसंख्या व शहरीकरण तेजी से बढ़ रहा है। यहां का घरेलू कचरा तथा मल-जल सही स्थानों पर न डालकर सीधे नदियों, झीलों तथा जलाशयों में छोड़ दिये जाते हैं। इससे जल में ऑक्सीजन की मात्रा बहुत ही कम हो जाती है उसके फलस्वरूप जलाशय के जीवों की मृत्यु हो जाती है।
  • औद्योगिक कचरा (Industrial waste) – उद्योगों से मुख्यतः प्लास्टिक, रबर, पेपर, साबुन, रसायन आदि अधिक मात्रा में उत्सर्जित होकर जल में हानिकारक धातुओं की मात्रा को बढ़ा देती है। केडमियम व पारे की अधिक मात्रा से विभिन्न प्रकार के रोग उत्पन्न हो जाते हैं।
  • कीटनाशक (Pesticides) – कीटनाशकों का उपयोग फसलों को कीटों से बचाने के लिए लगातार बढ़ता जा रहा है। ये कीटनाशक मृदा में मिलकर वर्षा के पानी के साथ बहकर जलाशयों में आ जाते हैं। कीटनाशकों में उपस्थित रसायन इतने विषैले होते हैं कि पानी में इनकी अत्यधिक कम मात्रा भी स्वास्थ्य के लिए हानिकारक सिद्ध होती है।
  • रासायनिक उर्वरक (Chemical Fertilizers) – रासायनिक खादों का भी फसलों में अत्यधिक उपयोग हो रहा है। इन खादों में विभिन्न प्रकार के रसायन उपस्थित होते हैं ये तत्व प्राणियों पर हानिकारक प्रभाव डालते हैं।
  • तापीय प्रदूषण (Thermal Pollution) – उद्योगों द्वारा गर्म जल समुद्रों में छोड़ना, परमाणु विस्फोटों व अन्य कारणों से समुद्र के जल का तापक्रम काफी बढ़ जाता है, जो सागरीय जीवों, मछलियों, शैवालों व अन्य जीवों के लिए हानिकारक होता है।
  • तेल प्रदूषण (Oil Pollution) – महासागरों में बड़े टैंकरों से खनिज तेलों के रिसाव से जल सतह पर तेल की मोटी परत बन जाती है जिससे समुद्री जीवों की दम घुटने से मृत्यु हो जाती है।

प्रश्न 4.
ध्वनि प्रदूषण के मुख्य कारक लिखिये।
उत्तर-
ध्वनि प्रदूषण के मुख्य कारक निम्न प्रकार से हैं

  • कारखानों के द्वारा शोर
  • विमानों द्वारा शोर
  • मोटर वाहनों द्वारा शोर
  • लाउड-स्पीकरों तथा जैनरेटरों द्वारा शोर

RBSE Solutions for Class 11 Biology Chapter 41 पर्यावरणीय प्रदूषण

प्रश्न 5.
मृदा प्रदूषण के मुख्य कारक लिखिये।
उत्तर-
मृदा प्रदूषण के मुख्य कारक अग्र प्रकार से हैं

  • घरेलू कचरा (Domestic Waste) – घरेलू कचरे में मुख्यतः कांच, प्लास्टिक, रसोई घर से पैदा होने वाले पदार्थ, चीनी मिट्टी के बर्तन, पॉलीथिन, लोहा आदि होते हैं। ये सभी मृदा प्रदूषण करते हैं।
  • औद्योगिक कचरा (Industrial waste) – उद्योगपति अपनी फैक्ट्रियों या कारखानों से उत्पन्न होने वाले कचरे के निस्तारण के लिए कोई उपचार संयंत्र या ट्रीटमेंट प्लांट नहीं लगाते हैं और इसे यूं ही इधर-उधर फेंक देते हैं जिससे मृदा प्रदूषित होती जा रही है।
  • कृषि जनित कचरा (Agricultural Wastes) – कृषि जन्य कचरा मृदा प्रदूषण का मुख्य कारण है, क्योंकि हमारा देश कृषि प्रधान है तथा 60-70 प्रतिशत लोग कृषि का कार्य करते हैं। कृषि जन्य कचरा दो प्रकार का होता है

(क) जैव अपघटनीय-इसके अन्तर्गत सड़ी-गली वनस्पतियाँ आती हैं। ये ज्यादा खतरनाक नहीं होती हैं और इनका अपघटन आसानी से हो जाता है।
(ख) जैव अनअपघटनीय-इस प्रकार के कचरे में डी.डी.टी., बी.एच.सी., एल्ड्रिन, हेप्टाक्लोर, डाई-एल्ड्रिन कीटनाशक आते हैं। ये मिट्टी में दीर्घकाल तक बने रहते हैं और ये अत्यन्त घातक होते हैं।

  • प्लास्टिक से प्रदूषण (Plastic Wastes) – प्लास्टिक के द्वारा मृदा प्रदूषण एक गम्भीर रूप धारण करता जा रहा है। प्लास्टिक लम्बे समय तक अपघटित नहीं होता है और इसका उपयोग लगभग ज्यादातर उद्योगों में होता है। घरेलू सामान भी पॉलिथीन थैलियों में लाया जाता है। इन प्लास्टिक और पॉलिथीन थैलियों को यूं ही इधर-उधर फेंक दिया जाता है और इनका सही स्थान पर वैज्ञानिक तरीके से निस्तारण नहीं किया जाता है। यद्यपि पिछले कुछ वर्षों में लोगों में इसके प्रति कुछ जागरूकता आयी है।

प्रश्न 6.
ध्वनि प्रदूषण से होने वाले मुख्य दुष्प्रभाव क्या हैं?
उत्तर-
शोर प्रदूषण के बहुत दुष्प्रभाव हो रहे हैं जिनमें कुछ निम्न हैं –

  • मनुष्य की श्रवण शक्ति का कम हो जाना तथा अत्यधिक शोर प्रदूषण से मनुष्य पूर्णरूपेण बहरा भी हो सकता है।
  • मनुष्य के स्वभाव में चिड़चिड़ापन आ जाना।
  • छोटी आंत में गैस्ट्रिक अल्सर हो जाना व भूख कम लगना।
  • गर्भस्थ शिशुओं की अत्यधिक ध्वनि प्रदूषण से गर्भपात (Abortion) द्वारा मौत भी हो सकती है।
  • मनुष्य की कार्यकुशलता भी कम हो सकती है।
  • निद्रा न आना व रक्तचाप बढ़ जाना।

प्रश्न 7.
वायु प्रदूषण को किस प्रकार रोका जा सकता है?
उत्तर-
वायु प्रदूषण को रोकने के लिए निम्न उपाय हैं

  1. पुराने व जर्जर मोटर वाहनों पर कानून बनाकर रोक लगा देनी चाहिए।
  2. वाहनों में डीजल व पेट्रोल के स्थान पर संपीड़ित प्राकृतिक गैस (Compressed natural gas = CNG) का ईंधन के रूप में प्रयोग करना चाहिए।
  3. दो स्ट्रोक इंजन के स्थान पर चार स्ट्रोक इंजन वाले वाहनों को चलाना चाहिए तथा उनमें प्रतिलोमी उत्प्रेरकों (Catalytic inventors) लगे होने चाहिए।
  4. शहरों में जेनरेटर चलाने तथा नाभिकीय परीक्षणों पर रोक लगा देनी चाहिए।
  5. धुआं छोड़ने वाले उद्योगों में इस प्रकार की तकनीक का उपयोग हो जिससे कम प्रदूषण हो तथा वायु से कणिकीय प्रदूषकों को स्थिर विद्युत अवक्षेपित (Electrostatic precipitator) की सहायता से प्रभावी रूप से पृथक किया जा सकता है।

RBSE Solutions for Class 11 Biology Chapter 41 पर्यावरणीय प्रदूषण

प्रश्न 8.
जल प्रदूषण के मुख्य दुष्प्रभाव कौन से हैं?
उत्तर-
जल प्रदूषकों के दुष्प्रभाव (Harmful effects of water pollutants) –

  • जल में O2 की कमी होने से पादप व प्राणियों की मृत्यु हो जाती है।
  • अशुद्ध जल से टाइफॉइड, पेचिस, पीलिया व मलेरिया रोग उत्पन्न हो जाते हैं।
  • मानव मलमूत्र द्वारा संदूषित मिट्टी के संसर्ग में आने पर हुकवर्म (Hookworm) का संक्रमण हो सकता है।
  • प्रदूषित जल से नहाने पर अनेक प्रकार के त्वचा रोग तथा वाईल रोग (Weil’s disease), सिस्टोसोम का रोग हो सकता है।
  • DDT व BHC से संक्रमित जल को पीने से गर्भवती महिला का गर्भपात हो सकता है, गर्भस्थ शिशु में विकृतियाँ उत्पन्न हो सकती हैं। ये अविघटनीय प्रदूषके एक बार खाद्य श्रृंखला में प्रवेश करने के उपरान्त इसकी मात्र प्रत्येक आगामी स्तर में सघनता से बढ़ती जाती है। इस परिघटना को जैवआवर्धक (Bio magnification) कहते हैं।
  • औद्योगिक कचरे से प्रदूषित जल के कारण यकृत, गुर्दे व मस्तिष्क सम्बन्धी रोग हो सकते हैं।
    उपरोक्त वर्णित रोगों के अतिरिक्त प्रदूषित जल से मानव में अन्य रोग भी हो सकते हैं जैसे-
  • पारा या मर्करी मीनामाटा (Minamata) महामारी के लिए जिम्मेदार है, जिससे कई मृत्यु जापान तथा स्वीडन में हुई। यह घटना अत्यधिक मर्करी संदूषित मछलियों के उपयोग से हुई। इसके कारण व्यक्तियों में दृष्टि विक्षोभ, मंद प्रकाश (dysphasia), पैर, होठ व जीभ में सुन्नता, लकवी व मिर्गी रोग हो गए थे।
  • सीसा (Lead) युक्त जल से मांसपेशियाँ व केन्द्रीय नाड़ी तंत्र या CNS सिंड्रोम के रोग होते हैं।
  • फ्लोराइड युक्त जल से हड्डियों व दांतों के रोग होते हैं। पैर घुटने से बाहर की ओर मुड़ जाते हैं, इसे नोक नी सिन्ड्रोम (Knock Knee syndrome) कहते हैं ।
  • केडमियम युक्त जल से हड्डियों का रोग आउच-आउच (Ouch-Ouch or Itai-Itai) हो जाता है।
  • देश में प्रदूषण पर नियंत्रण रखने हेतु केन्द्रीय जन स्वास्थ्य इंजीनियरी अनुसंधान संस्थान (संक्षिप्त में सिफेरी=CEFERI) कार्यरत है।

प्रश्न 9.
प्रदूषण का नियंत्रण क्यों आवश्यक है?
उत्तर-
प्रदूषण से तात्पर्य है दूषित या मैला होना । मानव स्वभाव के अनुसार हम सदैव स्वच्छता को पसन्द करते हैं। वायुमण्डल से सभी सजीव श्वसन हेतु ऑक्सीजन लेते हैं, यह तभी सम्भव है जब वायुमण्डल स्वच्छ हो । प्रकृति के समस्त जीव वायुमण्डल, थलमण्डल व जलमण्डल का उपयोग करते हैं। मानव या सजीव के लिए जो भी अहितकारी है। वह स्वस्थ जीवन के लिए उपयुक्त नहीं है। अतः वायु, जल, मृदा सभी प्रदूषण रहित होनी चाहिए।

RBSE Solutions for Class 11 Biology Chapter 41 पर्यावरणीय प्रदूषण

प्रश्न 10.
मुख्य प्रदूषकों ( जल, वायु, ध्वनि) के सिर्फ रासायनिक नाम लिखिए।
उत्तर-
कार्बन मोनोऑक्साइड, कार्बन डाईऑक्साइड, सल्फर डाईऑक्साइड, सल्फ्यूरिक व नाइट्रिक अम्ल, ऐरोसोल, प्रकाश-रासायनिक धूम्र, कोहरा, क्लोरोफल्यूरो कार्बन (CFC) ओजोन, परॉक्जीएसिटिल नाइट्रेट (PAN), डाइक्लोरो डाइफिनाइल ट्राइक्लोरोइथेन (DDT) बॉरडेक्स मिक्सिचर, 24-D, 24,5-T इत्यादि।

प्रश्न 11.
क्या नाभिकीय प्रदूषण कई वर्षों तक रह सकता है, यदि हां तो क्यों?
उत्तर-
हां क्योंकि इनकी अर्ध आयु अधिक होती है अतः ये लम्बे समय तक बने रहते हैं।

RBSE Class 11 Biology Chapter 41 निबन्धात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
वायु प्रदूषण की परिभाषा, कारक एवं निवारण विस्तार से लिखिए।
उत्तर-
वायु प्रदूषण (Air pollution)-
वे हानिकारक पदार्थ व कारक जो वायु को प्रदूषित करते हैं तथा इससे प्राणियों, पौधों व मानव पर हानिकारक प्रभाव पड़ता है, उसे वायु प्रदूषण कहते हैं। मुख्यतः यह प्रदूषण वातावरण में विषैली गैसों के फैलने से होता है।

(अ) वायु प्रदूषण के स्रोत (Sources of air pollution)-
वायु प्रदूषण के कुछ स्रोत निम्न प्रकार से हैं

(i) मोटर वाहनों के द्वारा (Vehicular sources) – मोटर वाहनों की संख्या दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। वाहनों में पेट्रोल या डीजल ईंधन का उपयोग किया जाता है तथा दोनों के जलने पर एक ही प्रकार के प्रदूषक उत्पन्न होते हैं किन्तु इनकी मात्रा में अन्तर होता है। डीजल के जलने से निकलने वाला धुआँ काला होता हैं व इसमें बारीक कार्बन के कण (µ के आकार) होते हैं। ये चिड़चिड़ाहट व क्षोभ उत्पन्न करते हैं । डीजल से निकले धुएँ में कार्बन मोनोऑक्साइड (CO), कार्बन आईऑक्साइड (CO2), हाइड्रोकार्बन्स, नाइट्रोजन व गंधक के विभिन्न यौगिक होते हैं। ये वायु को प्रदूषित कर मानव स्वास्थ्य पर हानिकारक प्रभाव उत्पन्न करते हैं।

(ii) ईंधन के जलने से (Fuel combustion) – घरों व कारखानों में उपयोग होने वाले ईंधन से अनेक प्रकार की घातक गैसें। जैसे- CO, SO2, CO2 आदि निकलती हैं, ये गैसें वायु से मिलकर हानिकारक प्रभाव उत्पन्न करती हैं। तेल शोधक कारखानों (refineries) व ताप बिजली घरों में उपयोग किये जाने वाले ईंधन से तो निरन्तर धुआँ निकलता रहता है। इस धुएँ में भी SO2, CO2, H2S आदि गैसे होती हैं जो स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से अधिक हानिकारक होती हैं। जो कारखाने रसायन पर आधारित होते हैं, उनसे निकलने वाली वाष्प में हाइड्रोक्लोरिक अम्ल (HCL), क्लोरीन, नाइट्रोजन ऑक्साइड, तांबा, सीसा, आर्सेनिक, जिंक इत्यादि घातक तत्व होते हैं, जो मानव व प्राणियों पर हानिकारक प्रभाव उत्पन्न करते हैं।

(iii) परमाणु परीक्षणों द्वारा (Nuclear tests) – अमेरिका, जर्मनी, फ्रांस, रूस आदि द्वारा समय-समय पर परमाणु परीक्षण किये जाते रहते हैं। अभी कुछ समय पूर्व पाकिस्तान तथा भारत द्वारा भी परमाणु परीक्षण किये गये हैं। परीक्षणों के कारण वायुमण्डल में रेडियोधर्मी कणों की मात्रा बढ़ जाती है। ये कण सजीवों पर हानिकारक प्रभाव के साथ जीनों पर भी घातक प्रभाव डालते हैं। जीन विकृति के फलस्वरूप विशिष्ट प्रकार के रोग उत्पन्न हो जाते हैं। 1979 में संयुक्त राज्य अमेरिका में श्री माइल आईसलैंड (Three mile Island) नाभिकीय शक्ति संयंत्र रिसाव और 1986 में USSR में चेरनोबिल (Chernobyl) नाभिकीय संयंत्र का मेल्ट डाउन (meltdown) नाभिकीय संयंत्र । दुर्घटनाओं के उदाहरण हैं। इन दुर्घटनाओं से वायु प्रदूषण का खतरा उत्पन्न हो गया था।

(iv) बिजली के जेनरेटरों द्वारा (Power Generators) – शहरीकरण, उद्योग-धंधों तथा घरों में विद्युत की खपत निरन्तर बढ़ती जा रही है। मांग की तुलना में विद्युत का उत्पादन कम हो रहा है। अतः शहरों में विद्युत आपूर्ति के लिए घरेलू जेनरेटरों का उपयोग दिन प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है। इस कारण ध्वनि तथा वायु दोनों प्रकारे के प्रदूषण उत्पन्न हो रहे हैं। जेनरेटरों से निकले धुआँ से श्वांस क्रिया प्रभावित होती है तथा चिड़चिड़ापन की प्रवृत्ति भी बढ़ती है।

(ब) वायु प्रदूषण के मुख्य कारक (Main factors of air Pollution)-
मुख्यरूप से अधिक जनसंख्या वाले तथा औद्योगिक शहरों में वायु प्रदूषण पाया जाता है। वायु प्रदूषक दो प्रकार के होते हैं

(i) गैसीय प्रदूषक (Gaseous pollutants) – वायु में मिश्रित वे प्रदूषक जो सामान्य ताप तथा दबाव पर गैसीय अवस्था में रहते हैं, जैसे CO, CO2, SO2 क्लोरीन व हाइड्रोकार्बन इत्यादि।

(ii) कणिकीय प्रदूषक (Particulate pollutants) – वायु में मिश्रित ठोस या द्रव्यों के कण होते हैं जैसे धूम (Fumes), धुआँ (Smoke), ऐरोसोल (Aerosol) इत्यादि।

इन प्रदूषकों का मुख्य स्रोत स्वचालित वाहन, लकड़ी, कोयला तथा कारखानों से निकलने वाला धुआँ होता है। घरों तथा कारखानों में ईंधन के जलने से CO, CO2, हाइड्रोकार्बन, NO (नाइट्रोजन मोनो। ऑक्साइड, NO2 (नाइट्रोजन डाई ऑक्साइड), H2S आदि हैं जो वायु को प्रदूषित कर हानिकारक प्रभाव उत्पन्न करती है।

कुछ रसायन गैसीय अवस्था में नहीं होते परन्तु विभिन्न उद्योगों से निकलने वाले रसायन जैसे- आर्सेनिक, बैन्जीन, क्लोरीन, कैडमीयम, फ्लोराइड, फारमेल्डिहाइड, हाइड्रोजन फ्लोराइड, मैंगनीज, निकल, लैड आदि वायु प्रदूषण के मुख्य कारक हैं।

  • वाहनों में उपयोग लिए जाने वाले पेट्रोल में टेट्रामिथाइल लेड व टेट्राईथाइल लेड होता है जो कणिकीय प्रदूषकों के रूप में बाहर आते हैं।
  • हाइड्रोकार्बन के अपूर्ण ज्वलन (unburnt hydrocarbon) से बनने वाला 3, 4 बैन्जिपायरिन मुख्य प्रदूषक है जो फेफड़ों के केन्सर का कारण है।
  • ग्रीन हाउस प्रभाव उत्पन्न करने वाले मुख्य प्रदूषक CO2, CH4, Chlorofluoro carbons (CFCs) नाइट्रम ऑक्साइड (N2O) इत्यादि हैं।
  • पेट्रोरसायन (Petro-chemical) उद्योगों से निकलने वाले प्रदूषकों में CO, CO2, NH3 व गैसोलीन होते हैं।
  • कुहरा (fog), धूम कोहरा (smoke + fog = smog), कज्जल (soot), कुहासा (mist) इत्यादि वायु प्रदूषक हैं जो वायु प्रदूषकों का प्रकीर्णन या फैला करे प्रदूषकों की क्रियाओं को उत्प्रेरित करते हैं।
  • कणिकीय प्रदूषकों के अन्तर्गत धूल (dust), धुआँ (smoke), धूम (fumes)-विभिन्न क्रियाओं में वाष्प के संघनन के फलस्वरूप ठोस कण, धुन्ध (smog)-धुएँ व कोहरे के संयोग से धुन्ध बनती है (Smoke + Fog = Smog), तथा ऐरोसोल (Aerosols) होते हैं।
  • जब वायु में कणिकीय प्रदूषक निलिम्बित (suspended) होते हैं। तब ये ऐरोसोल (aerosol’s) का निर्माण करते

जेट विमानों व रेफ्रिजिरेटर से ऐरोसोल का विमोचन होता है। यह फ्ल्यूरोकार्बन यौगिक होता है जो हानिप्रद होता है ।

(स) वायु प्रदूषण के दुष्प्रभाव (Harmful effects of air pollution) –
वायु प्रदूषण के दुष्प्रभाव निम्न प्रकार से हैं –

  • वायु प्रदूषकों में मुख्य प्रदूषक कार्बन मोनो ऑक्साइड होती है। इस गैस से श्वांस लेने में कठिनाई, शिथिलता (lassitude) वे चक्कर (dizziness) आने लगते हैं। CO गैस श्लेष्मक झिल्ली को प्रभावित करती है तथा रक्त के हीमोग्लोबिन में घुलकर रुधिर की O2 वहन क्षमता को कम कर देती है जिससे अन्त में श्वासवरोध (asphyxiation) होने से मृत्यु हो जाती है।
  • वायुमण्डल में CO2 की मात्रा 0.03% ही होती है परन्तु कोयला व ईंधन तथा औद्योगिक क्षेत्रों में धुएँ के कारण CO2 की मात्रा बढ़ने पर यह प्रदूषक हो जाता है। पर्यावरण में CO2 की सामान्य मात्रा सूर्य किरणों को पृथ्वी पर पहुंचने देती है किन्तु अधिक मात्रा की अवस्था में यह गैस का एक मोटा आवरण बनाकर पृथ्वी से वापस लौटने वाली ऊष्मा को रोकती है। इस कारण पृथ्वी का तापमान या उस क्षेत्र का तापमान बढ़ने लगता है, इसे ही ग्रीन हाउस प्रभाव (green house effect)कहते हैं। पर्यावरण में पाये जाने वाले अन्य प्रदूषक (NO2, SO2, CFC) भी ग्रीन हाउस प्रभाव को बढ़ाने में सहायक होते हैं।
  • फ्ल्यु ओराइड (fluoride) की अधिक मात्रा के फलस्वरूप ऊतक क्षय (necrosis) होता है। इससे फ्ल्यु ओरोसिस रोग हो जाता है जिससे अतिसार (diarrhea), वजन में कमी आना तथा कुबड़ापन हो जाता है।
  • कोयला व अन्य ईंधनों में पाए जाने वाले सल्फर का ऑक्सीकरण होने से SO2, व SO3 का निर्माण होता है। जो वायुमण्डल के जल से संयोग कर सल्फ्यूरिक अम्ल (H2SO4) बनाते हैं तथा वर्षा के जल के साथ पृथ्वी पर अम्ल वर्षा (Acid rain) करते हैं।
  • सल्फ्यूरिक अम्ल से भवनों के पत्थर, रंग रोशन, लोह सामग्री इत्यादि संक्षारित (corrode) हो जाती है। मथुरा तेलशोधक कारखाने से निकलने वाला धुआं आगरा में स्थित ताजमहल के संगमरमर के पत्थरों को क्षति पहुंचा रहा है।
  • SO2 की प्रत्यक्ष दुष्प्रभाव सजीव कोशिकाओं के झिल्ली तन्त्र (membrane system) पर पड़ता है। SO2 प्रदूषक के प्रति जौ, गेहूँ, कपास व सेव (apple) इत्यादि संवेदनशील पौधे हैं।
  • लाइकेन तथा मॉसेज (Mosses) SO2 प्रदूषक के सूचक (indicator) हैं। इन पर SO2 को अतिशीघ्र प्रभाव होता हैं।
  • O3 की अधिकता के कारण मोतियाबिन्द (cataract), खांसी, नेत्रों में जलन, त्वचा कैंसर तथा DNA के खण्ड हो जाते हैं। पादपों में श्वसन व वाष्पोत्सर्जन की दर अधिक हो जाती है।
  • पराबैंगनी विकरणों (Ultraviolet rays) को वायुमण्डल में विद्यमान ओजोन परत पृथ्वी पर पहुंचने से रोकती है। किन्तु अनेक प्रदूषकों के कारण तथा विशिष्ट रूप से एयरकण्डीशनर, रेफ्रिजिरेटर वे वायुयानों में उपयोग किये जाने वाले ऐरोसोल क्लोरफल्यूरोकार्बन (CFC’s) निरन्तर ओजोन परत को कम करते हुये पतली परत में बदल रहे हैं। इस पतली परत को कृष्ण छिद्र (black hole) या ओजोन छिद्र (Ozone hole) कहते हैं। इन्हीं स्थलों से पराबैंगनी किरणें पृथ्वी पर पहुंचकर तापमान बढ़ा रही हैं।
  • इथाईलीन (ethylene) के प्रभाव से पत्तियाँ व कलियाँ समय से पूर्व गिर जाती हैं।
  • प्रदूषकों में नाइट्रोजन के ऑक्साइड का मुख्य प्रभाव आँख व नाक पर होता है।
  • धूम्र कुहरे (smog) में नाइट्रोजन के ऑक्साइड तथा हाइड्रोकार्बनिक यौगिक पराबैगनी किरणों (ultraviolet rays) के प्रभाव से ओजोन (O3) तथा कार्बनिक कण परॉक्जीएसिटिल नाइट्रेट (PAN) का निर्माण करते हैं। इसे प्रकाश-रासायनिक धूम्र कोहरा (Photo mechanical smog) कहते हैं। PAN की अधिकता से त्वचा, नेत्रों में जलन, नाक व गले में संक्रमण हो जाता है व पौधों की वृद्धि तथा विकास अवरुद्ध हो जाता है।
    RBSE Solutions for Class 11 Biology Chapter 41 पर्यावरणीय प्रदूषण img-1
  • PAN व O3 की अधिकता से फेफड़ों में पानी एकत्रित होना, फेफड़ों का केन्सर, फेफड़े फूलना (Pulmonary emphysema), श्वसन रोग व श्वसनी दमा (bronchial asthima) हो जाता है।
  • पर्यावरण अर्थात् वायुमण्डल में पाये जाने वाले पॉलिन्युक्लियर ऐरोमेटिक हाइड्रोकार्बन (poly nuclear aromatic hydrocarbons or PAH) मानव में कैन्सर उत्पन्न करता है।
  • PAN के कारण प्रकाश-संश्लेषण की हिल अभिक्रिया (Hill reaction) में जल के प्रकाश अपघटन (Photosynthesis of water) को अवरुद्ध करता है तथा प्रकाश तन्त्र ॥ (Photo system II) का संदमन (inhibition) करता है।
  • उद्योगों से विमोचित CFCS SO2 व NO2 भी ग्रीन हाउस प्रभाव को बढ़ाते हैं।
  • NEERI (National environmental engineering research institute) संस्थान, नागपुर अनुसार SO2 प्रदूषक से सर्वाधिक प्रभावित कलकत्ता महानगर है तथा इसके पश्चात क्रमशः बम्बई, दिल्ली, अहमदाबाद व कानपुर इत्यादि हैं।
  • 2-3 दिसम्बर, 1984 की मध्य रात्रि में भोपाल गैस त्रासदी (Bhopal gas tragedy) मिथाइल आइसो-सायनेट गैस के रिसाव के कारण दो हजार व्यक्तियों की मृत्यु हो गई थी।
  • जुलाई, 1970 में धूम्र कोहरे (smog) की अत्यधिक मात्रा के कारण टोक्यो न्यूयार्क, रोम व सिडनी में त्रासदी घटी। इस घटना के कारण उस क्षेत्र के व्यक्तियों में श्वसनी दमा (bronchial asthma) हो गया था।
  • 1946 में घटित टोक्यो-योकोहामा दमा (Tokyo yokohama asthma)-घटना भी धूम्र कोहरे के कारण हुई थी । जापान के योकोहामी के वायुमण्डल में उपस्थित धूम्र कोहरे से वहां रहने वाले अमेरिकन सिपाही व उनके परिवार वाले प्रभावित हुये थे।

(द) वायु प्रदूषण का नियंत्रण (Control of air pollution)-

  • पुराने व जर्जर हालात के वाहकों पर रोक लगा देनी चाहिये क्योंकि ये ज्यादा प्रदूषण उत्पन्न करते हैं।
  • वाहनों में प्रतिलोमी उत्प्रेरकों (catalytic inventors) का उपयोग होना चाहिये जिससे निकलने वाली धुआँ की मात्रा कम की जा सके।
  • वाहनों में संपीड़ित प्राकृतिक गैस (compressed Natural Gas = C.N.G.) का ईंधन के रूप में उपयोग किया जाए। दिल्ली में इसके प्रयोग से वायु प्रदूषण में अधिक कमी देखी गई है। अन्य वाहनों जैसे रेल, बस को विद्युत ऊर्जा से संचालित करने का प्रयास किया जाए।
  • सड़कों पर दो-स्ट्रोक इंजन के स्थान पर चार स्ट्रोक वाले इंजन युक्त वाहकों को चलाना चाहिये, क्योंकि ये कम प्रदूषण उत्पन्न करते हैं।
  • शहरों में जेनेरेटर्स के उपयोग की अनुमति नहीं दी जानी चाहिये।
  • नाभिकीय परीक्षणों पर प्रतिबन्ध लगा देना चाहिये।
  • कारखानों को सूचित कर कम प्रदूषण के लिये बाध्य करना व घरों में गैस चूल्हों के उपयोग का बढ़ावा देना चाहिये।
  • वायु में कणिकीय प्रदूषकों को स्थिर वैद्युत अवक्षेपित्र (electronic precipitate) की सहायता से प्रभावी रूप से पृथक किया जा सकता है।

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प्रश्न 2.
जल प्रदूषण के कारक, दुष्प्रभाव तथा नियंत्रण लिखिए।
उत्तर-
जल प्रदूषण (Water pollution)-
स्वच्छ जल ही जीवन का आधार है। जीवद्रव्य का अधिकांश भाग जल है। अनेक कारणों से जल में अनावश्यक अकार्बनिक, कार्बनिक वे जैविक तत्वों की उपस्थिति जल प्रदूषण कहलाता है। वर्तमान में सम्पूर्ण विश्व में पेयजल का संकट बढ़ता जा रहा है। शुद्ध पेयजल भौतिक रूप से स्वच्छ, शीतल, निर्मल, गंध व स्वाद रहित तथा pH मान 7-8.5 के बीच व मिश्रित अपदृव्यता की सीमा मानकों अनुसार होनी चाहिये।

(अ) जल प्रदूषण के स्रोत एवं प्रकार (Sources and types of water pollution) –
अधिकांश गांव, कस्बे, शहर व औद्योगिक नगर जल के स्रोतों के आस-पास में स्थित होते हैं। क्योंकि जल जीवन की मुख्य आवश्यकता है। घनी आबादी व उद्योगों के अपशिष्ट निरन्तर जल में प्रवाहित होने से प्रदूषण उत्पन्न होता जा रहा है। जल के मुख्यतः दो स्रोतभूमिगत तथा धरातलीय (तालाब, झील, नदी व समुद्र) हैं। जल में विभिन्न प्रकार के पदार्थ आसानी से घुल जाते हैं। अतः जब कोई भी बाहरी सामग्री जल में एकत्रित या घुल जाती है तो इससे जल के भौतिक व रासायनिक गुणों में परिवर्तन आ जाता है। इस प्रकार का प्रदूषित जल स्वास्थ्य के लिये हानिप्रद होता है। जल प्रदूषक के मुख्य स्रोत निम्न हैं
(i) घरेलू अपमार्जक (Household detergents),
(ii) वाहित मल व अन्य अपशिष्ट (Sewage and other wastes),
(iii) औद्योगिक अपशिष्ट (Industrial wastes),
(iv) कृषि अपशिष्ट व रासायनिक उर्वरक (Agriculture wastes and chemical fertilizers) तथा
(v) रेडियोधर्मी अपशिष्ट (Radioactive wastes)।

(i) घरेलू अपमार्जक (Household detergents)-

  • घरों में कपड़े धोने व बर्तन साफ करने के लिये विभिन्न प्रकार के साबुन, सर्फ, विम इत्यादि अपमार्जकों का उपयोग किया जाता है। ये अपमार्जक घरों से निकलकर नालों के द्वारा तालाब, नदियों में एकत्रित होकर प्रदूषण उत्पन्न करते हैं।
  • इन अपमार्जकों के द्वारा नाइट्रेट, फॉस्फेट, अमोनिया के यौगिक तथा ऐल्किल बेन्जीन सल्फोनेट (alkyl benzene sulphonate = ABS)जल में एकत्रित हो जाते हैं।
  • अकार्बनिक फॉस्फोरस तथा नाइट्रोजन की अधिक मात्रा से शैवालों की अधिक वृद्धि होने लगती है, इसे जल प्रस्फुटन (water bloom) कहते हैं।
  • शैवालों की मृत्यु उपरान्त अपघटन हेतु O2 की अधिक आवश्यकता होती है, उससे जल में O2 कम होने लगती है व जल में विद्यमान प्राणियों की मृत्यु होने लगती है।
  • निरन्तर इस प्रक्रिया से जलाशय में जल कम हो जाता है। परन्तु कार्बनिक पदार्थों की मात्रा अधिक होती जाती है। इसे सुपोषण (eutrophication) कहते हैं।

(ii) वाहित मल (Sewage)-

  • जनसंख्या में वृद्धि होने के कारण नगरों से निकलने वाले मल मूत्र, कूड़ा करकट व व्यर्थ सामग्री की अत्यधिक मात्रा विसर्जित होकर जल को प्रदूषित करती है।
  • वाहित मल में कार्बनिक पदार्थों की अधिक मात्रा होती है तथा इसमें अकार्बनिक फॉस्फोरस, अमोनिया, निलम्बित ठोस, फीनॉल, भारी धातुयें, सायनाइड व तेल आदि होते
  • वाहित मेल की अधिक मात्रा से अपघटकों या सूक्ष्मजीवों की आबादी अधिक हो जाती है व उनकी श्वसन क्रिया में जल में घुलित ऑक्सीजन समाप्त सी होने लगती है। किन्तु CO2 की मात्रा बढ़ जाती है।
  • O2 के अभाव से जल में रहने वाले प्राणी व पौधे मृत हो जाते हैं तथा जलाशय में दुर्गन्ध उत्पन्न हो जाती है। व संक्रामक रोग उत्पन्न होने की संभावना बढ़ जाती है।
  • जल प्रदूषक को मापने हेतु बायोकेमिकल ऑक्सीजन डिमाण्ड (BOD)की परीक्षा की जाती है। प्रदूषित जल की बी.ओ.डी. (BOD = Biochemical Oxygen demand) अधिक हो जाती है। BOD प्रदूषकों की मात्रा के साथ बढ़ती है। यह जीवाणुओं द्वारा अपघटन के लिये O2 की आवश्यक मात्रा होती है। पीने के स्वच्छ जल की BOD 1ppm से भी कम होती है।
  • जल प्रदूषण हेतु डेफ्निया (Daphnia) वे ट्राऊट (Trout) आदि मछलियां जल प्रदूषण के लिये संवेदनशील होती हैं।

(iii) औद्योगिक अपशिष्ट (Industrial wastes)-

  • विभिन्न प्रकार के उद्योगों जैसे उर्वरक, पेट्रो रसायन, तेल शोधन, कागज, रेशे, रबर, औषधि व प्लास्टिक इत्यादि के कारखाने से निकलने वाले अपशिष्ट पदार्थ जल में प्रवाहित कर जलाशयों को प्रदूषित करते हैं।
  • इन अपशिष्ट पदार्थों में धूल, कोयला, अम्ल, क्षार, (alkalies), सायनाइड, फीनोल, जिन्क, पारा, कापर, फेरस, लवण, तेल, कागज, रबर व गरम जल इत्यादि होते हैं।
  • क्लोरीन व कास्टिक सोड़ा के उद्योगों से जल में पारा (Mercury) आता है। जल के द्वारा पारा जन्तुओं में खाद्य श्रृंखला के द्वारा मानव तक पहुंच जाता है। जिससे तन्त्रिका तन्त्र (Nervous system) को अव्यवस्थित कर स्वास्थ्य हेतु घातक (lethal) होता है।
  • स्वचालित नौकाओं, स्टीमर के विरेचन में पारा व सीसा होता है जो जल में मिलकर अत्यधिक विषाक्त मिथाइल पारा बनाता है।

(iv) कृषि अपशिष्ट व रासायनिक उर्वरक (Agriculture wastes and chemical fertilizers )-

वर्तमान में फसल को हानि पहुंचाने वाले नाशक जीवों (pests)को नष्ट करने हे तु शाकनाशी (herbicides), खरपतवारनाशी (weedicides), कीटनाशी (insecticides), पीड़कनाशी (pesticides) तथा जीवनाशी (biocides) इत्यादि का प्रयोग बहुतायत रूप से किया जा रहा है। इसी के साथ फसल ऊपज को बढ़ाने के लिये रासायनिक उर्वरकों जैसे यूरिया, फॉस्फेट, पोटाश आदि का प्रयोग किया जाता है। ये सभी रसायन प्रदूषण की समस्या उत्पन्न कर रहे हैं।

  • पीड़कनाशी व कीटनाशी के रूप में उपयोग किये जाने वाले रसायन तीन प्रकार के होते हैं
    (क) अकार्बनिक लवण जैसे आर्सेनिक लवण,
    (ख) DDT, आर्गेनोक्लोरीन, आर्गेनोफॉस्फेट इत्यादि तथा,
    (ग) हार्मोन व जैविक नियन्त्रण वाले जैव रसायन।
  • इन सभी में से तीव्र प्रदूषक DDT (Dichloro diphenyl trichloroethanes) तथा पॉलिक्लोरिने टेड डाइफिनाइल (Polychlorinated diphenyle) हैं।
  • ये रसायन खाद्य श्रृंखला के माध्यम से मानव तक निरन्तर रूप से पहुंचते रहते हैं।
  • DDT व अन्य क्लोरीनयुक्त हाइड्रोकार्बन पीड़कनाशी अविघटनीय (non-degradable) यौगिक होते हैं। ये रसायन पौधों व जन्तुओं में एकत्रित होते रहते हैं तथा खाद्य श्रृंखला के साथ मानव में पहुंच जाते हैं । अतः ये रसायने जैविक आवर्धन (Biological magnification) प्रदर्शित करते हैं।
  • पीड़नाशक (DDT) जीवों की जनन कोशिकाओं में उत्परिवर्तन कर देते हैं वे पादपों में प्रकाश संश्लेषण की दर को कम करते हैं।
  • खरपतवारनाशी (Weedicides) 2,4-D, 2,4,5-T कोशिकाओं में अधिक विभाजन कर ट्यूमर (Tumor) बनाते हैं।

(ब) जल प्रदूषकों के दुष्प्रभाव (Harmful effects of water pollutants)-

  • जल में O2 की कमी होने से पादप व प्राणियों की मृत्यु हो जाती है।
  • अशुद्ध जल से टाइफॉइड, पेचिस, पीलिया व मलेरिया रोग उत्पन्न हो जाते हैं।
  • मानव मलमूत्र द्वारा संदूषित मिट्टी के संसर्ग में आने पर हुकवर्म (Hookworm) का संक्रमण हो सकता है।
  • प्रदूषित जल से नहाने पर अनेक प्रकार के त्वचा रोग तथा वाईल रोग (Weil’s disease), सिस्टोसोम का रोग हो। सकता है।
  • DDT व BHC से संक्रमित जल को पीने से गर्भवती महिला का गर्भपात हो सकता है, गर्भस्थ शिशु में विकृतियाँ उत्पन्न हो सकती हैं। ये अविघटनीय प्रदूषके एक बार खाद्य श्रृंखला में प्रवेश करने के उपरान्त इसकी मात्रा प्रत्येक आगामी स्तर में सघनता से बढ़ती जाती है। इस परिघटना को जैवआवर्धक (Bio magnification) कहते हैं।
  • औद्योगिक कचरे से प्रदूषित जल के कारण यकृत, गुर्दे व मस्तिष्कं सम्बन्धी रोग हो सकते हैं।

उपरोक्त वर्णित रोगों के अतिरिक्त प्रदूषित जल से मानव में अन्य रोग भी हो सकते हैं जैसे-

  • पारा या मर्करी मीनामाटा (Minamata) महामारी के लिए जिम्मेदार है, जिससे कई मृत्यु जापान तथा स्वीडन में हुई। यह घटना अत्यधिक मर्करी संदूषित मछलियों के उपयोग से हुई। इसके कारण व्यक्तियों में दृष्टि विक्षोभ, मंद प्रकाश (dysphasia), पैर, होठ वे जीभ में सुन्नता, लकवी व मिर्गी रोग हो गए थे।
  • सीसा (Lead) युक्त जल से मांसपेशियाँ व केन्द्रीय नाड़ी तंत्र या CNS सिंड्रोम के रोग होते हैं।
  • फ्लोराइड युक्त जल से हड्डियों व दांतों के रोग होते हैं। पैर घुटने से बाहर की ओर मुड़ जाते हैं, इसे नोक नी सिन्ड्रोम (Knock Knee syndrome) कहते हैं।
  • केडमियम युक्त जल से हड्डियों का रोग आउच-आउच (Ouch-Ouch or Itai-Itai) हो जाता है।
  • देश में प्रदूषण पर नियंत्रण रखने हेतु केन्द्रीय जन स्वास्थ्य इंजीनियरी अनुसंधान संस्थान (संक्षिप्त में सिफेरी=CEFERI) कार्यरत है।

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प्रश्न 3.
मृदा प्रदूषण के मुख्य कारक, दुष्प्रभाव तथा नियंत्रण को समझाइए।
उत्तर-
मृदा प्रदूषण तथा इसके स्रोत (Soil pollution and its Sources) –

  • वायु तथा जल प्रदूषण से ही मृदा का प्रदूषण होता है। समस्त प्रकार के अपशिष्ट या प्रदूषक जल के द्वारा मृदा को प्रदूषित करते हैं।
  • अम्लीय वर्षा का जल, उर्वरक, कीटनाशी, खरपतवारनाशी, कवकनाशी, पीड़कनाशी इत्यादि समस्त रसायन जल से बहकर मृदा में प्रवेश कर जाते हैं।
  • समस्त घरेलू व उद्योगों के अपशिष्ट पदार्थ तथा व्यर्थ सामग्री, खानों से निकले विभिन्न पदार्थ जैसे जस्ता, सीसा, कैडमियम, ताम्बा, आर्सेनिक इत्यादि मृदा को प्रदूषित कर देले हैं।
  • अनेक अविघटनकारी पदार्थ जैसे प्लास्टिक की सामग्री तथा न्यूक्लियर रियेक्टरों के अपशिष्ट व अनेक ठोस अपशिष्ट पदार्थ ।
  • कृषि जनित कचरा- इससे जैव अपघटनीय कचरा उत्पन्न होता है जो ज्यादा हानिकारक नहीं होता किन्तु अन्य जैव अनअपघटनीय जैसे DDT, BHC, एल्ड्रिन, हेप्टाक्लोर कीटनाशक अधिक हानिकारक हैं क्योंकि ये लम्बे समय तक मिट्टी में बने रहते हैं तथा वर्षा के जल के साथ खाद्य श्रृंखला में पहुंच जाते हैं।

(अ) मृदा प्रदूषण के दुष्प्रभाव (Effects of soil pollution)-

  • घरेलू मक्खी, कॉकरोच आदि से खाद्य सामग्री संदूषित होकर डायरिया, पेचिस, हैजा, पीलिया, मियादी बुखार हो जाता है।
  • मल जल के उपयोग से मृदा की उर्वरक क्षमता कम हो जाती है।
  • धूल के उड़ने से व इसे ग्रहण करने से एलर्जी (Allergy), दमा (Asthma), आंत्रशोथ (Enteritis), संधिशोथ (Arthritis), TB तथा त्वचा सम्बन्धी रोग हो जाते हैं।

(ब) मृदा प्रदूषण को नियंत्रण (Control of soil pollution)-

  • कचरे का समुचित निस्तारण करना चाहिए।
  • उद्योगों को लाइसेंस देने से पूर्व कचरा निस्तारण हेतु प्रमाण पत्र ले लेना चाहिए।
  • स्वच्छ शौचालयों का निर्माण करवाना चहिए।
  • कृषि में कीटनाशक रसायनों के स्थान पर जैविक नियंत्रण को प्रोत्साहन देना चाहिए।
  • स्कूलों व कॉलेजों में स्वच्छ पर्यावरण के विषय में जागरूकता उत्पन्न करनी चाहिए।

प्रश्न 4.
ध्वनि प्रदूषण के मुख्य कारक, दुष्प्रभाव तथा नियंत्रण का विस्तार से समझाइंए।
उत्तर-
ध्वनि या शोर प्रदूषण (Sound or noise pollution)-

  • अवांछित ध्वनि ही शोर है। शोर की तीव्रता को डेसीबल (decibals = db) में मापा जाता है। इस मापक इकाई को ग्रेहम बेल (Graham bell) ने दिया था। इसका मापन ध्वनि मापन यंत्र (Decibal meter) या लार्म बेरोमीटर से किया जाता है।
  • ध्वनि की आवृत्ति को हर्ट्ज (Hertz) कहते हैं। मानव में सुनने की क्षमता 20 से 20,000 हर्ट्ज होती है।
  • मनुष्य के कान 0 से 180 dB तक की ध्वनि तीव्रता के प्रति संवेदी होते हैं। 80 dB की ध्वनि मानव में बेचैनी व 100 dB के ऊपर पीड़ा उत्पन्न कर देती है। प्रायः
    प्रतिदिन सुनी जाने वाली ध्वनियों का मान निम्न प्रकार से है –
    केवल सुनाई देने योग्य 15 dB से कम
    शांत….. 30 dB
    सामान्य बातचीत… 60 dB
    राजमार्ग यातायात… 60-80 dB
    चिल्लाने की आवाज… 90 dB
    कारखाने में मशीनों से आवाज…. 110 dB
    असहनीय शोर (DJ आदि)…. 130 dB
    जेट प्लेन की ध्वनि… 150 dB
    राकेट इंजन की ध्वनि… 180 dB

(अ) ध्वनि प्रदूषण के स्रोत (Sources of noise pollution)-
ध्वनि प्रदूषण के स्रोत निम्न प्रकार से हैं

  • कारखानों द्वारा शोर – मशीनीकरण से उत्पादन अवश्य बढ़ रहा है किन्तु मशीनों से ध्वनि प्रदूषण भी बढ़ रही है और अप्रत्यक्ष रूप से हमारे स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। मशीनीकरण से 120 dB से भी अधिक का शोर होता है अतः उद्योगों के आस-पास रहने वाले व्यक्तियों की श्रवण शक्ति कम होने या खोने का डर बना रहता है।
  • विमानों द्वारा शोर – वायुयान 150 dB से भी अधिक का शोर उत्पन्न करते हैं। हवाई अड्डों के पास की इमारतों में दरारें आ जाती हैं व व्यक्तियों की श्रवण शक्ति प्रभावित होती है। जिससे उनमें चिड़चिड़ापन का लक्षण हो जाता है।
  • मोटर वाहनों द्वारा शोर – सड़कों पर दौड़ने वाले वाहनों की संख्या निरन्तर बढ़ती जा रही है। जो शोर प्रदूषण को बढ़ा रहे हैं। बड़े शहरों जैसे- दिल्ली, मुम्बई, चेन्नई, कोलकाता आदि में यह समस्या गंभीर है।
  • लाउड – स्पीकरों तथा जैनरेटरों द्वारा शोर-शहरों के विभिन्न कार्यक्रमों में लाउडस्पीकरों का प्रयोग अधिक होता है। धर्म अनुष्ठानों, शादी विवाह में डीजे का उपयोग, राजनीतिक कार्यक्रमों आदि में तो लम्बे समय तक शोर प्रदूषण होता है। शहरों में विद्युत आपूर्ति के लिए जैनरेटरों के उपयोग से भी शोर होता है।

(ब) शोर प्रदूषण के दुष्प्रभाव (Effects of noise pollution)-
शोर प्रदूषण से होने वाले दुष्प्रभाव निम्न प्रकार से हैं

  • 80 dB से अधिक की कोई भी ध्वनि एक प्रदूषक है।
  • 100 dB के शोर से विचलन तथा बेचैनी हो जाती है।  120 dB से अधिक का शोर सिर में वेदना उत्पन्न कर देता है। अधिक तेज चलने वाले सुपरसोनिक जैट अपने पीछे ध्वनि तरंगों को छोड़ता जाता है। इसे ‘ध्वनि धूम’ (Sonic boom) कहते हैं।
  • ध्वनि बूम जब भूमि सतह से टकराते हैं इससे इमारतों में धड़धड़ाहट पैदा हो जाती है, खिड़कियाँ हिल जाती हैं। तथा इमारतें कमजोर हो जाती है। गर्भपात हो जाता है।
  • अकस्मात होने वाली उच्च ध्वनि स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होती है। इससे श्रवण शक्ति नष्ट हो जाती है या मानव मूर्छित भी हो सकता है। वस्तुतः अधिक शोर मानसिक शांति को विक्षोभित करता है। मानव की कार्यकुशलता कम हो जाती है।
  • घनी आबादी वाले शहरों तथा औद्योगिक नगरों के शोर वाले पर्यावरण में रहने वाले व्यक्तियों को कम आयु में ही कम सुनाई देता है। इनमें मानसिक तनाव, हृदय गति अधिक, उच्च रक्त दाब, यकृत व मस्तिष्क रोग हो जाते
  • अधिक शोर के कारण नेत्र पुतलियाँ (pupils) प्रसारित हो जाती हैं। एच्छिक पेशियाँ संकुचित हो जाती हैं तथा त्वचा पीली पड़ जाती हैं।
  • शोर चिन्ता, बेचैनी व क्रुद्धता बढ़ाता है तथा स्वभाव में चिड़चिड़ापन हो जाता है। शोर से सुनने की क्षमता कम हो जाती है तथा सिर में। दर्द रहता है व निद्रा न आने का रोग हो जाता है।
  • निरन्तरे शोर से हृदय रोग, उच्च रक्त दाब व अल्सर हो जाता है तथा एड्रिनल हार्मोनों का अधिक स्राव होता है। भूख कम लगती है व छोटी आंत में गैस्ट्रिक अल्सर हो जाते हैं। अधिक एड्रीनेलिन (adermalin) स्राव होने से उत्तेजनशीलता, तनाव वे थकान तथा तंत्रिका पर प्रभाव होती है।

(स) शोर प्रदूषण का निवारण या नियंत्रण (Control of noise pollution) –

  • उद्योगों को शहर के बाहर स्थापित किया जाए, हवाई अड्डे भी बाहर बनाये जावें ।
  • सघन वृक्षारोपण से ध्वनि प्रदूषण कम किया जा सकता है।
  • लाउड स्पीकरों के उपयोग हेतु कम ध्वनि व निश्चित समय तक उपयोग या पाबन्दी लगाई जावे।।
  • शोर प्रदूषण के प्रति जन चेतना उत्पन्न की जानी चाहिए।

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प्रश्न 5.
सभी प्रकार के प्रदूषणों को नियंत्रित करने का एकीकृत समाधान क्या हो सकता है, विस्तार से समझाइये।
उत्तर-
वायु प्रदूषण (Air pollution)-
वे हानिकारक पदार्थ व कारक जो वायु को प्रदूषित करते हैं तथा इससे प्राणियों, पौधों व मानव पर हानिकारक प्रभाव पड़ता है, उसे वायु प्रदूषण कहते हैं। मुख्यतः यह प्रदूषण वातावरण में विषैली गैसों के फैलने से होता है।

(अ) वायु प्रदूषण के स्रोत (Sources of air pollution)-
वायु प्रदूषण के कुछ स्रोत निम्न प्रकार से हैं

(i) मोटर वाहनों के द्वारा (Vehicular sources) – मोटर वाहनों की संख्या दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। वाहनों में पेट्रोल या डीजल ईंधन का उपयोग किया जाता है तथा दोनों के जलने पर एक ही प्रकार के प्रदूषक उत्पन्न होते हैं किन्तु इनकी मात्रा में अन्तर होता है। डीजल के जलने से निकलने वाला धुआँ काला होता हैं व इसमें बारीक कार्बन के कण (µ के आकार) होते हैं। ये चिड़चिड़ाहट व क्षोभ उत्पन्न करते हैं । डीजल से निकले धुएँ में कार्बन मोनोऑक्साइड (CO), कार्बन आईऑक्साइड (CO2), हाइड्रोकार्बन्स, नाइट्रोजन व गंधक के विभिन्न यौगिक होते हैं। ये वायु को प्रदूषित कर मानव स्वास्थ्य पर हानिकारक प्रभाव उत्पन्न करते हैं।

(ii) ईंधन के जलने से (Fuel combustion) – घरों व कारखानों में उपयोग होने वाले ईंधन से अनेक प्रकार की घातक गैसें। जैसे- CO, SO2, CO2 आदि निकलती हैं, ये गैसें वायु से मिलकर हानिकारक प्रभाव उत्पन्न करती हैं। तेल शोधक कारखानों (refineries) व ताप बिजली घरों में उपयोग किये जाने वाले ईंधन से तो निरन्तर धुआँ निकलता रहता है। इस धुएँ में भी SO2, CO2, H2S आदि गैसे होती हैं जो स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से अधिक हानिकारक होती हैं। जो कारखाने रसायन पर आधारित होते हैं, उनसे निकलने वाली वाष्प में हाइड्रोक्लोरिक अम्ल (HCL), क्लोरीन, नाइट्रोजन ऑक्साइड, तांबा, सीसा, आर्सेनिक, जिंक इत्यादि घातक तत्व होते हैं, जो मानव व प्राणियों पर हानिकारक प्रभाव उत्पन्न करते हैं।

(iii) परमाणु परीक्षणों द्वारा (Nuclear tests) – अमेरिका, जर्मनी, फ्रांस, रूस आदि द्वारा समय-समय पर परमाणु परीक्षण किये जाते रहते हैं। अभी कुछ समय पूर्व पाकिस्तान तथा भारत द्वारा भी परमाणु परीक्षण किये गये हैं। परीक्षणों के कारण वायुमण्डल में रेडियोधर्मी कणों की मात्रा बढ़ जाती है। ये कण सजीवों पर हानिकारक प्रभाव के साथ जीनों पर भी घातक प्रभाव डालते हैं। जीन विकृति के फलस्वरूप विशिष्ट प्रकार के रोग उत्पन्न हो जाते हैं। 1979 में संयुक्त राज्य अमेरिका में श्री माइल आईसलैंड (Three mile Island) नाभिकीय शक्ति संयंत्र रिसाव और 1986 में USSR में चेरनोबिल (Chernobyl) नाभिकीय संयंत्र का मेल्ट डाउन (meltdown) नाभिकीय संयंत्र । दुर्घटनाओं के उदाहरण हैं। इन दुर्घटनाओं से वायु प्रदूषण का खतरा उत्पन्न हो गया था।

(iv) बिजली के जेनरेटरों द्वारा (Power Generators) – शहरीकरण, उद्योग-धंधों तथा घरों में विद्युत की खपत निरन्तर बढ़ती जा रही है। मांग की तुलना में विद्युत का उत्पादन कम हो रहा है। अतः शहरों में विद्युत आपूर्ति के लिए घरेलू जेनरेटरों का उपयोग दिन प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है। इस कारण ध्वनि तथा वायु दोनों प्रकारे के प्रदूषण उत्पन्न हो रहे हैं। जेनरेटरों से निकले धुआँ से श्वांस क्रिया प्रभावित होती है तथा चिड़चिड़ापन की प्रवृत्ति भी बढ़ती है।

(ब) वायु प्रदूषण के मुख्य कारक (Main factors of air Pollution)-
मुख्यरूप से अधिक जनसंख्या वाले तथा औद्योगिक शहरों में वायु प्रदूषण पाया जाता है। वायु प्रदूषक दो प्रकार के होते हैं

(i) गैसीय प्रदूषक (Gaseous pollutants) – वायु में मिश्रित वे प्रदूषक जो सामान्य ताप तथा दबाव पर गैसीय अवस्था में रहते हैं, जैसे CO, CO2, SO2 क्लोरीन व हाइड्रोकार्बन इत्यादि।

(ii) कणिकीय प्रदूषक (Particulate pollutants) – वायु में मिश्रित ठोस या द्रव्यों के कण होते हैं जैसे धूम (Fumes), धुआँ (Smoke), ऐरोसोल (Aerosol) इत्यादि।

इन प्रदूषकों का मुख्य स्रोत स्वचालित वाहन, लकड़ी, कोयला तथा कारखानों से निकलने वाला धुआँ होता है। घरों तथा कारखानों में ईंधन के जलने से CO, CO2, हाइड्रोकार्बन, NO (नाइट्रोजन मोनो। ऑक्साइड, NO2 (नाइट्रोजन डाई ऑक्साइड), H2S आदि हैं जो वायु को प्रदूषित कर हानिकारक प्रभाव उत्पन्न करती है।

कुछ रसायन गैसीय अवस्था में नहीं होते परन्तु विभिन्न उद्योगों से निकलने वाले रसायन जैसे- आर्सेनिक, बैन्जीन, क्लोरीन, कैडमीयम, फ्लोराइड, फारमेल्डिहाइड, हाइड्रोजन फ्लोराइड, मैंगनीज, निकल, लैड आदि वायु प्रदूषण के मुख्य कारक हैं।

  • वाहनों में उपयोग लिए जाने वाले पेट्रोल में टेट्रामिथाइल लेड व टेट्राईथाइल लेड होता है जो कणिकीय प्रदूषकों के रूप में बाहर आते हैं।
  • हाइड्रोकार्बन के अपूर्ण ज्वलन (unburnt hydrocarbon) से बनने वाला 3, 4 बैन्जिपायरिन मुख्य प्रदूषक है जो फेफड़ों के केन्सर का कारण है।
  • ग्रीन हाउस प्रभाव उत्पन्न करने वाले मुख्य प्रदूषक CO2, CH4, Chlorofluoro carbons (CFCs) नाइट्रम ऑक्साइड (N2O) इत्यादि हैं।
  • पेट्रोरसायन (Petro-chemical) उद्योगों से निकलने वाले प्रदूषकों में CO, CO2, NH3 व गैसोलीन होते हैं।
  • कुहरा (fog), धूम कोहरा (smoke + fog = smog), कज्जल (soot), कुहासा (mist) इत्यादि वायु प्रदूषक हैं जो वायु प्रदूषकों का प्रकीर्णन या फैला करे प्रदूषकों की क्रियाओं को उत्प्रेरित करते हैं।
  • कणिकीय प्रदूषकों के अन्तर्गत धूल (dust), धुआँ (smoke), धूम (fumes)-विभिन्न क्रियाओं में वाष्प के संघनन के फलस्वरूप ठोस कण, धुन्ध (smog)-धुएँ व कोहरे के संयोग से धुन्ध बनती है (Smoke + Fog = Smog), तथा ऐरोसोल (Aerosols) होते हैं।
  • जब वायु में कणिकीय प्रदूषक निलिम्बित (suspended) होते हैं। तब ये ऐरोसोल (aerosol’s) का निर्माण करते

जेट विमानों व रेफ्रिजिरेटर से ऐरोसोल का विमोचन होता है। यह फ्ल्यूरोकार्बन यौगिक होता है जो हानिप्रद होता है ।

(स) वायु प्रदूषण के दुष्प्रभाव (Harmful effects of air pollution) –
वायु प्रदूषण के दुष्प्रभाव निम्न प्रकार से हैं –

  • वायु प्रदूषकों में मुख्य प्रदूषक कार्बन मोनो ऑक्साइड होती है। इस गैस से श्वांस लेने में कठिनाई, शिथिलता (lassitude) वे चक्कर (dizziness) आने लगते हैं। CO गैस श्लेष्मक झिल्ली को प्रभावित करती है तथा रक्त के हीमोग्लोबिन में घुलकर रुधिर की O2 वहन क्षमता को कम कर देती है जिससे अन्त में श्वासवरोध (asphyxiation) होने से मृत्यु हो जाती है।
  • वायुमण्डल में CO2 की मात्रा 0.03% ही होती है परन्तु कोयला व ईंधन तथा औद्योगिक क्षेत्रों में धुएँ के कारण CO2 की मात्रा बढ़ने पर यह प्रदूषक हो जाता है। पर्यावरण में CO2 की सामान्य मात्रा सूर्य किरणों को पृथ्वी पर पहुंचने देती है किन्तु अधिक मात्रा की अवस्था में यह गैस का एक मोटा आवरण बनाकर पृथ्वी से वापस लौटने वाली ऊष्मा को रोकती है। इस कारण पृथ्वी का तापमान या उस क्षेत्र का तापमान बढ़ने लगता है, इसे ही ग्रीन हाउस प्रभाव (green house effect)कहते हैं। पर्यावरण में पाये जाने वाले अन्य प्रदूषक (NO2, SO2, CFC) भी ग्रीन हाउस प्रभाव को बढ़ाने में सहायक होते हैं।
  • फ्ल्यु ओराइड (fluoride) की अधिक मात्रा के फलस्वरूप ऊतक क्षय (necrosis) होता है। इससे फ्ल्यु ओरोसिस रोग हो जाता है जिससे अतिसार (diarrhea), वजन में कमी आना तथा कुबड़ापन हो जाता है।
  • कोयला व अन्य ईंधनों में पाए जाने वाले सल्फर का ऑक्सीकरण होने से SO2, व SO3 का निर्माण होता है। जो वायुमण्डल के जल से संयोग कर सल्फ्यूरिक अम्ल (H2SO4) बनाते हैं तथा वर्षा के जल के साथ पृथ्वी पर अम्ल वर्षा (Acid rain) करते हैं।
  • सल्फ्यूरिक अम्ल से भवनों के पत्थर, रंग रोशन, लोह सामग्री इत्यादि संक्षारित (corrode) हो जाती है। मथुरा तेलशोधक कारखाने से निकलने वाला धुआं आगरा में स्थित ताजमहल के संगमरमर के पत्थरों को क्षति पहुंचा रहा है।
  • SO2 की प्रत्यक्ष दुष्प्रभाव सजीव कोशिकाओं के झिल्ली तन्त्र (membrane system) पर पड़ता है। SO2 प्रदूषक के प्रति जौ, गेहूँ, कपास व सेव (apple) इत्यादि संवेदनशील पौधे हैं।
  • लाइकेन तथा मॉसेज (Mosses) SO2 प्रदूषक के सूचक (indicator) हैं। इन पर SO2 को अतिशीघ्र प्रभाव होता हैं।
  • O3 की अधिकता के कारण मोतियाबिन्द (cataract), खांसी, नेत्रों में जलन, त्वचा कैंसर तथा DNA के खण्ड हो जाते हैं। पादपों में श्वसन व वाष्पोत्सर्जन की दर अधिक हो जाती है।
  • पराबैंगनी विकरणों (Ultraviolet rays) को वायुमण्डल में विद्यमान ओजोन परत पृथ्वी पर पहुंचने से रोकती है। किन्तु अनेक प्रदूषकों के कारण तथा विशिष्ट रूप से एयरकण्डीशनर, रेफ्रिजिरेटर वे वायुयानों में उपयोग किये जाने वाले ऐरोसोल क्लोरफल्यूरोकार्बन (CFC’s) निरन्तर ओजोन परत को कम करते हुये पतली परत में बदल रहे हैं। इस पतली परत को कृष्ण छिद्र (black hole) या ओजोन छिद्र (Ozone hole) कहते हैं। इन्हीं स्थलों से पराबैंगनी किरणें पृथ्वी पर पहुंचकर तापमान बढ़ा रही हैं।
  • इथाईलीन (ethylene) के प्रभाव से पत्तियाँ व कलियाँ समय से पूर्व गिर जाती हैं।
  • प्रदूषकों में नाइट्रोजन के ऑक्साइड का मुख्य प्रभाव आँख व नाक पर होता है।
  • धूम्र कुहरे (smog) में नाइट्रोजन के ऑक्साइड तथा हाइड्रोकार्बनिक यौगिक पराबैगनी किरणों (ultraviolet rays) के प्रभाव से ओजोन (O3) तथा कार्बनिक कण परॉक्जीएसिटिल नाइट्रेट (PAN) का निर्माण करते हैं। इसे प्रकाश-रासायनिक धूम्र कोहरा (Photo mechanical smog) कहते हैं। PAN की अधिकता से त्वचा, नेत्रों में जलन, नाक व गले में संक्रमण हो जाता है व पौधों की वृद्धि तथा विकास अवरुद्ध हो जाता है।
    RBSE Solutions for Class 11 Biology Chapter 41 पर्यावरणीय प्रदूषण img-2
  • PAN व O3 की अधिकता से फेफड़ों में पानी एकत्रित होना, फेफड़ों का केन्सर, फेफड़े फूलना (Pulmonary emphysema), श्वसन रोग व श्वसनी दमा (bronchial asthima) हो जाता है।
  • पर्यावरण अर्थात् वायुमण्डल में पाये जाने वाले पॉलिन्युक्लियर ऐरोमेटिक हाइड्रोकार्बन (poly nuclear aromatic hydrocarbons or PAH) मानव में कैन्सर उत्पन्न करता है।
  • PAN के कारण प्रकाश-संश्लेषण की हिल अभिक्रिया (Hill reaction) में जल के प्रकाश अपघटन (Photosynthesis of water) को अवरुद्ध करता है तथा प्रकाश तन्त्र ॥ (Photo system II) का संदमन (inhibition) करता है।
  • उद्योगों से विमोचित CFCS SO2 व NO2 भी ग्रीन हाउस प्रभाव को बढ़ाते हैं।
  • NEERI (National environmental engineering research institute) संस्थान, नागपुर अनुसार SO2 प्रदूषक से सर्वाधिक प्रभावित कलकत्ता महानगर है तथा इसके पश्चात क्रमशः बम्बई, दिल्ली, अहमदाबाद व कानपुर इत्यादि हैं।
  • 2-3 दिसम्बर, 1984 की मध्य रात्रि में भोपाल गैस त्रासदी (Bhopal gas tragedy) मिथाइल आइसो-सायनेट गैस के रिसाव के कारण दो हजार व्यक्तियों की मृत्यु हो गई थी।
  • जुलाई, 1970 में धूम्र कोहरे (smog) की अत्यधिक मात्रा के कारण टोक्यो न्यूयार्क, रोम व सिडनी में त्रासदी घटी। इस घटना के कारण उस क्षेत्र के व्यक्तियों में श्वसनी दमा (bronchial asthma) हो गया था।
  • 1946 में घटित टोक्यो-योकोहामा दमा (Tokyo yokohama asthma)-घटना भी धूम्र कोहरे के कारण हुई थी । जापान के योकोहामी के वायुमण्डल में उपस्थित धूम्र कोहरे से वहां रहने वाले अमेरिकन सिपाही व उनके परिवार वाले प्रभावित हुये थे।

(द) वायु प्रदूषण का नियंत्रण (Control of air pollution)-

  • पुराने व जर्जर हालात के वाहकों पर रोक लगा देनी चाहिये क्योंकि ये ज्यादा प्रदूषण उत्पन्न करते हैं।
  • वाहनों में प्रतिलोमी उत्प्रेरकों (catalytic inventors) का उपयोग होना चाहिये जिससे निकलने वाली धुआँ की मात्रा कम की जा सके।
  • वाहनों में संपीड़ित प्राकृतिक गैस (compressed Natural Gas = C.N.G.) का ईंधन के रूप में उपयोग किया जाए। दिल्ली में इसके प्रयोग से वायु प्रदूषण में अधिक कमी देखी गई है। अन्य वाहनों जैसे रेल, बस को विद्युत ऊर्जा से संचालित करने का प्रयास किया जाए।
  • सड़कों पर दो-स्ट्रोक इंजन के स्थान पर चार स्ट्रोक वाले इंजन युक्त वाहकों को चलाना चाहिये, क्योंकि ये कम प्रदूषण उत्पन्न करते हैं।
  • शहरों में जेनेरेटर्स के उपयोग की अनुमति नहीं दी जानी चाहिये।
  • नाभिकीय परीक्षणों पर प्रतिबन्ध लगा देना चाहिये।
  • कारखानों को सूचित कर कम प्रदूषण के लिये बाध्य करना व घरों में गैस चूल्हों के उपयोग का बढ़ावा देना चाहिये।
  • वायु में कणिकीय प्रदूषकों को स्थिर वैद्युत अवक्षेपित्र (electronic precipitate) की सहायता से प्रभावी रूप से पृथक किया जा सकता है।

जल प्रदूषण (Water pollution)-
स्वच्छ जल ही जीवन का आधार है। जीवद्रव्य का अधिकांश भाग जल है। अनेक कारणों से जल में अनावश्यक अकार्बनिक, कार्बनिक वे जैविक तत्वों की उपस्थिति जल प्रदूषण कहलाता है। वर्तमान में सम्पूर्ण विश्व में पेयजल का संकट बढ़ता जा रहा है। शुद्ध पेयजल भौतिक रूप से स्वच्छ, शीतल, निर्मल, गंध व स्वाद रहित तथा pH मान 7-8.5 के बीच व मिश्रित अपदृव्यता की सीमा मानकों अनुसार होनी चाहिये।

(अ) जल प्रदूषण के स्रोत एवं प्रकार (Sources and types of water pollution) –
अधिकांश गांव, कस्बे, शहर व औद्योगिक नगर जल के स्रोतों के आस-पास में स्थित होते हैं। क्योंकि जल जीवन की मुख्य आवश्यकता है। घनी आबादी व उद्योगों के अपशिष्ट निरन्तर जल में प्रवाहित होने से प्रदूषण उत्पन्न होता जा रहा है। जल के मुख्यतः दो स्रोतभूमिगत तथा धरातलीय (तालाब, झील, नदी व समुद्र) हैं। जल में विभिन्न प्रकार के पदार्थ आसानी से घुल जाते हैं। अतः जब कोई भी बाहरी सामग्री जल में एकत्रित या घुल जाती है तो इससे जल के भौतिक व रासायनिक गुणों में परिवर्तन आ जाता है। इस प्रकार का प्रदूषित जल स्वास्थ्य के लिये हानिप्रद होता है। जल प्रदूषक के मुख्य स्रोत निम्न हैं
(i) घरेलू अपमार्जक (Household detergents),
(ii) वाहित मल व अन्य अपशिष्ट (Sewage and other wastes),
(iii) औद्योगिक अपशिष्ट (Industrial wastes),
(iv) कृषि अपशिष्ट व रासायनिक उर्वरक (Agriculture wastes and chemical fertilizers) तथा
(v) रेडियोधर्मी अपशिष्ट (Radioactive wastes)।

(i) घरेलू अपमार्जक (Household detergents)-

  • घरों में कपड़े धोने व बर्तन साफ करने के लिये विभिन्न प्रकार के साबुन, सर्फ, विम इत्यादि अपमार्जकों का उपयोग किया जाता है। ये अपमार्जक घरों से निकलकर नालों के द्वारा तालाब, नदियों में एकत्रित होकर प्रदूषण उत्पन्न करते हैं।
  • इन अपमार्जकों के द्वारा नाइट्रेट, फॉस्फेट, अमोनिया के यौगिक तथा ऐल्किल बेन्जीन सल्फोनेट (alkyl benzene sulphonate = ABS)जल में एकत्रित हो जाते हैं।
  • अकार्बनिक फॉस्फोरस तथा नाइट्रोजन की अधिक मात्रा से शैवालों की अधिक वृद्धि होने लगती है, इसे जल प्रस्फुटन (water bloom) कहते हैं।
  • शैवालों की मृत्यु उपरान्त अपघटन हेतु O2 की अधिक आवश्यकता होती है, उससे जल में O2 कम होने लगती है व जल में विद्यमान प्राणियों की मृत्यु होने लगती है।
  • निरन्तर इस प्रक्रिया से जलाशय में जल कम हो जाता है। परन्तु कार्बनिक पदार्थों की मात्रा अधिक होती जाती है। इसे सुपोषण (eutrophication) कहते हैं।

(ii) वाहित मल (Sewage)-

  • जनसंख्या में वृद्धि होने के कारण नगरों से निकलने वाले मल मूत्र, कूड़ा करकट व व्यर्थ सामग्री की अत्यधिक मात्रा विसर्जित होकर जल को प्रदूषित करती है।
  • वाहित मल में कार्बनिक पदार्थों की अधिक मात्रा होती है तथा इसमें अकार्बनिक फॉस्फोरस, अमोनिया, निलम्बित ठोस, फीनॉल, भारी धातुयें, सायनाइड व तेल आदि होते
  • वाहित मेल की अधिक मात्रा से अपघटकों या सूक्ष्मजीवों की आबादी अधिक हो जाती है व उनकी श्वसन क्रिया में जल में घुलित ऑक्सीजन समाप्त सी होने लगती है। किन्तु CO2 की मात्रा बढ़ जाती है।
  • O2 के अभाव से जल में रहने वाले प्राणी व पौधे मृत हो जाते हैं तथा जलाशय में दुर्गन्ध उत्पन्न हो जाती है। व संक्रामक रोग उत्पन्न होने की संभावना बढ़ जाती है।
  • जल प्रदूषक को मापने हेतु बायोकेमिकल ऑक्सीजन डिमाण्ड (BOD)की परीक्षा की जाती है। प्रदूषित जल की बी.ओ.डी. (BOD = Biochemical Oxygen demand) अधिक हो जाती है। BOD प्रदूषकों की मात्रा के साथ बढ़ती है। यह जीवाणुओं द्वारा अपघटन के लिये O2 की आवश्यक मात्रा होती है। पीने के स्वच्छ जल की BOD 1ppm से भी कम होती है।
  • जल प्रदूषण हेतु डेफ्निया (Daphnia) वे ट्राऊट (Trout) आदि मछलियां जल प्रदूषण के लिये संवेदनशील होती हैं।

(iii) औद्योगिक अपशिष्ट (Industrial wastes)-

  • विभिन्न प्रकार के उद्योगों जैसे उर्वरक, पेट्रो रसायन, तेल शोधन, कागज, रेशे, रबर, औषधि व प्लास्टिक इत्यादि के कारखाने से निकलने वाले अपशिष्ट पदार्थ जल में प्रवाहित कर जलाशयों को प्रदूषित करते हैं।
  • इन अपशिष्ट पदार्थों में धूल, कोयला, अम्ल, क्षार, (alkalies), सायनाइड, फीनोल, जिन्क, पारा, कापर, फेरस, लवण, तेल, कागज, रबर व गरम जल इत्यादि होते हैं।
  • क्लोरीन व कास्टिक सोड़ा के उद्योगों से जल में पारा (Mercury) आता है। जल के द्वारा पारा जन्तुओं में खाद्य श्रृंखला के द्वारा मानव तक पहुंच जाता है। जिससे तन्त्रिका तन्त्र (Nervous system) को अव्यवस्थित कर स्वास्थ्य हेतु घातक (lethal) होता है।
  • स्वचालित नौकाओं, स्टीमर के विरेचन में पारा व सीसा होता है जो जल में मिलकर अत्यधिक विषाक्त मिथाइल पारा बनाता है।

(iv) कृषि अपशिष्ट व रासायनिक उर्वरक (Agriculture wastes and chemical fertilizers )-

वर्तमान में फसल को हानि पहुंचाने वाले नाशक जीवों (pests)को नष्ट करने हे तु शाकनाशी (herbicides), खरपतवारनाशी (weedicides), कीटनाशी (insecticides), पीड़कनाशी (pesticides) तथा जीवनाशी (biocides) इत्यादि का प्रयोग बहुतायत रूप से किया जा रहा है। इसी के साथ फसल ऊपज को बढ़ाने के लिये रासायनिक उर्वरकों जैसे यूरिया, फॉस्फेट, पोटाश आदि का प्रयोग किया जाता है। ये सभी रसायन प्रदूषण की समस्या उत्पन्न कर रहे हैं।

  • पीड़कनाशी व कीटनाशी के रूप में उपयोग किये जाने वाले रसायन तीन प्रकार के होते हैं
    (क) अकार्बनिक लवण जैसे आर्सेनिक लवण,
    (ख) DDT, आर्गेनोक्लोरीन, आर्गेनोफॉस्फेट इत्यादि तथा,
    (ग) हार्मोन व जैविक नियन्त्रण वाले जैव रसायन।
  • इन सभी में से तीव्र प्रदूषक DDT (Dichloro diphenyl trichloroethanes) तथा पॉलिक्लोरिने टेड डाइफिनाइल (Polychlorinated diphenyle) हैं।
  • ये रसायन खाद्य श्रृंखला के माध्यम से मानव तक निरन्तर रूप से पहुंचते रहते हैं।
  • DDT व अन्य क्लोरीनयुक्त हाइड्रोकार्बन पीड़कनाशी अविघटनीय (non-degradable) यौगिक होते हैं। ये रसायन पौधों व जन्तुओं में एकत्रित होते रहते हैं तथा खाद्य श्रृंखला के साथ मानव में पहुंच जाते हैं । अतः ये रसायने जैविक आवर्धन (Biological magnification) प्रदर्शित करते हैं।
  • पीड़नाशक (DDT) जीवों की जनन कोशिकाओं में उत्परिवर्तन कर देते हैं वे पादपों में प्रकाश संश्लेषण की दर को कम करते हैं।
  • खरपतवारनाशी (Weedicides) 2,4-D, 2,4,5-T कोशिकाओं में अधिक विभाजन कर ट्यूमर (Tumor) बनाते हैं।

(ब) जल प्रदूषकों के दुष्प्रभाव (Harmful effects of water pollutants)-

  • जल में O2 की कमी होने से पादप व प्राणियों की मृत्यु हो जाती है।
  • अशुद्ध जल से टाइफॉइड, पेचिस, पीलिया व मलेरिया रोग उत्पन्न हो जाते हैं।
  • मानव मलमूत्र द्वारा संदूषित मिट्टी के संसर्ग में आने पर हुकवर्म (Hookworm) का संक्रमण हो सकता है।
  • प्रदूषित जल से नहाने पर अनेक प्रकार के त्वचा रोग तथा वाईल रोग (Weil’s disease), सिस्टोसोम का रोग हो। सकता है।
  • DDT व BHC से संक्रमित जल को पीने से गर्भवती महिला का गर्भपात हो सकता है, गर्भस्थ शिशु में विकृतियाँ उत्पन्न हो सकती हैं। ये अविघटनीय प्रदूषके एक बार खाद्य श्रृंखला में प्रवेश करने के उपरान्त इसकी मात्रा प्रत्येक आगामी स्तर में सघनता से बढ़ती जाती है। इस परिघटना को जैवआवर्धक (Bio magnification) कहते हैं।
  • औद्योगिक कचरे से प्रदूषित जल के कारण यकृत, गुर्दे व मस्तिष्कं सम्बन्धी रोग हो सकते हैं।

उपरोक्त वर्णित रोगों के अतिरिक्त प्रदूषित जल से मानव में अन्य रोग भी हो सकते हैं जैसे-

  • पारा या मर्करी मीनामाटा (Minamata) महामारी के लिए जिम्मेदार है, जिससे कई मृत्यु जापान तथा स्वीडन में हुई। यह घटना अत्यधिक मर्करी संदूषित मछलियों के उपयोग से हुई। इसके कारण व्यक्तियों में दृष्टि विक्षोभ, मंद प्रकाश (dysphasia), पैर, होठ वे जीभ में सुन्नता, लकवी व मिर्गी रोग हो गए थे।
  • सीसा (Lead) युक्त जल से मांसपेशियाँ व केन्द्रीय नाड़ी तंत्र या CNS सिंड्रोम के रोग होते हैं।
  • फ्लोराइड युक्त जल से हड्डियों व दांतों के रोग होते हैं। पैर घुटने से बाहर की ओर मुड़ जाते हैं, इसे नोक नी सिन्ड्रोम (Knock Knee syndrome) कहते हैं।
  • केडमियम युक्त जल से हड्डियों का रोग आउच-आउच (Ouch-Ouch or Itai-Itai) हो जाता है।
  • देश में प्रदूषण पर नियंत्रण रखने हेतु केन्द्रीय जन स्वास्थ्य इंजीनियरी अनुसंधान संस्थान (संक्षिप्त में सिफेरी=CEFERI) कार्यरत है।

ध्वनि या शोर प्रदूषण (Sound or noise pollution)-

  • अवांछित ध्वनि ही शोर है। शोर की तीव्रता को डेसीबल (decibals = db) में मापा जाता है। इस मापक इकाई को ग्रेहम बेल (Graham bell) ने दिया था। इसका मापन ध्वनि मापन यंत्र (Decibal meter) या लार्म बेरोमीटर से किया जाता है।
  • ध्वनि की आवृत्ति को हर्ट्ज (Hertz) कहते हैं। मानव में सुनने की क्षमता 20 से 20,000 हर्ट्ज होती है।
  • मनुष्य के कान 0 से 180 dB तक की ध्वनि तीव्रता के प्रति संवेदी होते हैं। 80 dB की ध्वनि मानव में बेचैनी व 100 dB के ऊपर पीड़ा उत्पन्न कर देती है। प्रायः
    प्रतिदिन सुनी जाने वाली ध्वनियों का मान निम्न प्रकार से है –
    केवल सुनाई देने योग्य 15 dB से कम
    शांत….. 30 dB
    सामान्य बातचीत… 60 dB
    राजमार्ग यातायात… 60-80 dB
    चिल्लाने की आवाज… 90 dB
    कारखाने में मशीनों से आवाज…. 110 dB
    असहनीय शोर (DJ आदि)…. 130 dB
    जेट प्लेन की ध्वनि… 150 dB
    राकेट इंजन की ध्वनि… 180 dB

(अ) ध्वनि प्रदूषण के स्रोत (Sources of noise pollution)-
ध्वनि प्रदूषण के स्रोत निम्न प्रकार से हैं

  • कारखानों द्वारा शोर – मशीनीकरण से उत्पादन अवश्य बढ़ रहा है किन्तु मशीनों से ध्वनि प्रदूषण भी बढ़ रही है और अप्रत्यक्ष रूप से हमारे स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। मशीनीकरण से 120 dB से भी अधिक का शोर होता है अतः उद्योगों के आस-पास रहने वाले व्यक्तियों की श्रवण शक्ति कम होने या खोने का डर बना रहता है।
  • विमानों द्वारा शोर – वायुयान 150 dB से भी अधिक का शोर उत्पन्न करते हैं। हवाई अड्डों के पास की इमारतों में दरारें आ जाती हैं व व्यक्तियों की श्रवण शक्ति प्रभावित होती है। जिससे उनमें चिड़चिड़ापन का लक्षण हो जाता है।
  • मोटर वाहनों द्वारा शोर – सड़कों पर दौड़ने वाले वाहनों की संख्या निरन्तर बढ़ती जा रही है। जो शोर प्रदूषण को बढ़ा रहे हैं। बड़े शहरों जैसे- दिल्ली, मुम्बई, चेन्नई, कोलकाता आदि में यह समस्या गंभीर है।
  • लाउड – स्पीकरों तथा जैनरेटरों द्वारा शोर-शहरों के विभिन्न कार्यक्रमों में लाउडस्पीकरों का प्रयोग अधिक होता है। धर्म अनुष्ठानों, शादी विवाह में डीजे का उपयोग, राजनीतिक कार्यक्रमों आदि में तो लम्बे समय तक शोर प्रदूषण होता है। शहरों में विद्युत आपूर्ति के लिए जैनरेटरों के उपयोग से भी शोर होता है।

(ब) शोर प्रदूषण के दुष्प्रभाव (Effects of noise pollution)-
शोर प्रदूषण से होने वाले दुष्प्रभाव निम्न प्रकार से हैं

  • 80 dB से अधिक की कोई भी ध्वनि एक प्रदूषक है।
  • 100 dB के शोर से विचलन तथा बेचैनी हो जाती है।  120 dB से अधिक का शोर सिर में वेदना उत्पन्न कर देता है। अधिक तेज चलने वाले सुपरसोनिक जैट अपने पीछे ध्वनि तरंगों को छोड़ता जाता है। इसे ‘ध्वनि धूम’ (Sonic boom) कहते हैं।
  • ध्वनि बूम जब भूमि सतह से टकराते हैं इससे इमारतों में धड़धड़ाहट पैदा हो जाती है, खिड़कियाँ हिल जाती हैं। तथा इमारतें कमजोर हो जाती है। गर्भपात हो जाता है।
  • अकस्मात होने वाली उच्च ध्वनि स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होती है। इससे श्रवण शक्ति नष्ट हो जाती है या मानव मूर्छित भी हो सकता है। वस्तुतः अधिक शोर मानसिक शांति को विक्षोभित करता है। मानव की कार्यकुशलता कम हो जाती है।
  • घनी आबादी वाले शहरों तथा औद्योगिक नगरों के शोर वाले पर्यावरण में रहने वाले व्यक्तियों को कम आयु में ही कम सुनाई देता है। इनमें मानसिक तनाव, हृदय गति अधिक, उच्च रक्त दाब, यकृत व मस्तिष्क रोग हो जाते
  • अधिक शोर के कारण नेत्र पुतलियाँ (pupils) प्रसारित हो जाती हैं। एच्छिक पेशियाँ संकुचित हो जाती हैं तथा त्वचा पीली पड़ जाती हैं।
  • शोर चिन्ता, बेचैनी व क्रुद्धता बढ़ाता है तथा स्वभाव में चिड़चिड़ापन हो जाता है। शोर से सुनने की क्षमता कम हो जाती है तथा सिर में। दर्द रहता है व निद्रा न आने का रोग हो जाता है।
  • निरन्तरे शोर से हृदय रोग, उच्च रक्त दाब व अल्सर हो जाता है तथा एड्रिनल हार्मोनों का अधिक स्राव होता है। भूख कम लगती है व छोटी आंत में गैस्ट्रिक अल्सर हो जाते हैं। अधिक एड्रीनेलिन (adermalin) स्राव होने से उत्तेजनशीलता, तनाव वे थकान तथा तंत्रिका पर प्रभाव होती है।

(स) शोर प्रदूषण का निवारण या नियंत्रण (Control of noise pollution) –

  • उद्योगों को शहर के बाहर स्थापित किया जाए, हवाई अड्डे भी बाहर बनाये जावें ।
  • सघन वृक्षारोपण से ध्वनि प्रदूषण कम किया जा सकता है।
  • लाउड स्पीकरों के उपयोग हेतु कम ध्वनि व निश्चित समय तक उपयोग या पाबन्दी लगाई जावे।।
  • शोर प्रदूषण के प्रति जन चेतना उत्पन्न की जानी चाहिए।

मृदा प्रदूषण तथा इसके स्रोत (Soil pollution and its Sources) –

  • वायु तथा जल प्रदूषण से ही मृदा का प्रदूषण होता है। समस्त प्रकार के अपशिष्ट या प्रदूषक जल के द्वारा मृदा को प्रदूषित करते हैं।
  • अम्लीय वर्षा का जल, उर्वरक, कीटनाशी, खरपतवारनाशी, कवकनाशी, पीड़कनाशी इत्यादि समस्त रसायन जल से बहकर मृदा में प्रवेश कर जाते हैं।
  • समस्त घरेलू व उद्योगों के अपशिष्ट पदार्थ तथा व्यर्थ सामग्री, खानों से निकले विभिन्न पदार्थ जैसे जस्ता, सीसा, कैडमियम, ताम्बा, आर्सेनिक इत्यादि मृदा को प्रदूषित कर देले हैं।
  • अनेक अविघटनकारी पदार्थ जैसे प्लास्टिक की सामग्री तथा न्यूक्लियर रियेक्टरों के अपशिष्ट व अनेक ठोस अपशिष्ट पदार्थ ।
  • कृषि जनित कचरा- इससे जैव अपघटनीय कचरा उत्पन्न होता है जो ज्यादा हानिकारक नहीं होता किन्तु अन्य जैव अनअपघटनीय जैसे DDT, BHC, एल्ड्रिन, हेप्टाक्लोर कीटनाशक अधिक हानिकारक हैं क्योंकि ये लम्बे समय तक मिट्टी में बने रहते हैं तथा वर्षा के जल के साथ खाद्य श्रृंखला में पहुंच जाते हैं।

(अ) मृदा प्रदूषण के दुष्प्रभाव (Effects of soil pollution)-

  • घरेलू मक्खी, कॉकरोच आदि से खाद्य सामग्री संदूषित होकर डायरिया, पेचिस, हैजा, पीलिया, मियादी बुखार हो जाता है।
  • मल जल के उपयोग से मृदा की उर्वरक क्षमता कम हो जाती है।
  • धूल के उड़ने से व इसे ग्रहण करने से एलर्जी (Allergy), दमा (Asthma), आंत्रशोथ (Enteritis), संधिशोथ (Arthritis), TB तथा त्वचा सम्बन्धी रोग हो जाते हैं।

(ब) मृदा प्रदूषण को नियंत्रण (Control of soil pollution)-

  • कचरे का समुचित निस्तारण करना चाहिए।
  • उद्योगों को लाइसेंस देने से पूर्व कचरा निस्तारण हेतु प्रमाण पत्र ले लेना चाहिए।
  • स्वच्छ शौचालयों का निर्माण करवाना चहिए।
  • कृषि में कीटनाशक रसायनों के स्थान पर जैविक नियंत्रण को प्रोत्साहन देना चाहिए।
  • स्कूलों व कॉलेजों में स्वच्छ पर्यावरण के विषय में जागरूकता उत्पन्न करनी चाहिए।

नाभिकीय प्रदूषण या रेडियोधर्मी अपशिष्ट (Nuclear pollution or Radiation wastes) –

  • नाभिक रियेक्टरों (Nuclear reactors) से निकलने वाले अपशिष्ट पदार्थ, जलाशयों व नदियों में विसर्जित कर दिये जाते हैं। वैसे इससे निकलने वाले विकिरण जल व वायु दोनों को ही प्रदूषित करते हैं तथा ये खाद्य श्रृंखला में प्रवेश कर सभी जीवों को प्रभावित करते हैं।
  • परमाणु भट्टियों में ईंधन के रूप में यूरेनियम तथा प्लूटोनियम का उपयोग होता है।
  • अमेरिका, जर्मनी, रूस परमाणु शक्ति संम्पन्न देश हैं। 1945 में अमेरिका ने जापान के नागासाकी तथा हिरोशिमा शहरों पर परमाणु बम गिरा कर विनाश कर दिया था। यद्यपि परमाणु ऊर्जा का उपयोग चिकित्सा, शोध, विद्युत निर्माण में किया जाता है परन्तु परमाणुघरों से सदैव दुर्घटनाओं की आशंका रहती है।

(अ) नाभिकीय प्रदूषण के दुष्प्रभाव (Harmful effects of nuclear pollution) –

  • अल्फा, वीय, गामा विकिरणों का कोशिकाओं पर हानिकारक प्रभाव होता है। इनके प्रभाव कायिक व आनुवांशिक हो सकते हैं।
  • विकिरण के प्रभाव से त्वचा को नष्ट होना, मोतियाबिन्द, यकृत, थायरॉयड व तिल्ली पर हानिकारक प्रभाव होता है तथा अनेक प्रकार के कैन्सर भी होते हैं।
  • सीसियम (Cesium) शरीर की पेशियों, स्ट्रॉन्शियम (Strontium) अस्थियों वे आयोडीन (iodine) थायरॉयड में एकत्रित होता जाता है। इससे केन्सर, जन्मजात शरीर विकृति तथा अस्वाभाविक अंग परिवर्धन, जीन उत्परिवर्तन होता है।
  • इन प्रदूषकों का प्रभाव लम्बे समय तक बना रहता है। इनका प्रभाव आने वाली पीढ़ियों तक चलता रहता है। यही नहीं वनस्पति भी इससे प्रभावित होती है।
  • न्यूक्लीयर रियेक्टर संयंत्र की अधिकतम सक्रिय आयु 30 वर्ष की होती है। इस पश्चात् न तो इन्हें नष्ट किया जा सकता तथा न ही इन्हें अन्यत्र स्थानान्तरित किया जा सकता है। इन अनुपयोगी रियेक्टरों से आने वाले अनेक वर्षों तक जल, वायु व मृदा में रेडियोऐक्टिविटी रिसती रहती है।
  • भारत में भाभा परमाणु अनुसंधान केन्द्र, ट्रॉम्बे में इस प्रदूषण को कम करने, रियेक्टरों में सावधानी रखने तथा रियेक्टरों के आस-पास के क्षेत्रों के जीवों में रेडियो सक्रियता को मॉनिटर करने का कार्य होता है।

(ब) नाभिकीय अपशिष्टों का निस्तारण (Disposal of nuclear Wastes) –
नाभिकीय अपशिष्टों के निस्तारण की एक गम्भीर समस्या है। किन्तु इनके विकिरणीय के प्रभाव को निम्न प्रकार से कम किया जा सकता है

  • परमाणु विस्फोटों पर पाबन्दी लगा देनी चाहिए किन्तु इस दिशा में सभी देशों को मिलकर यह कदम उठाना होगा। परमाणु विद्युत संयंत्रों से होने वाली दुर्घटना के सुरक्षा उपाय किये जाने चाहिए।
  • रेडियो सक्रिय पदार्थों का रिसाव एक निश्चित सीमा में ही हो व आपातकालीन स्थिति में जनता को उस स्थल से हटा देना चाहिए।
  • परमाणु विद्युत संयंत्र आबादी से दूर हो तथा वहां पर सघन वृक्षारोपण होना चाहिए।
  • यदि नाभिकीय अपशिष्टों का निस्तारण करना भी हो तो इस प्रकार के उपाय करने चाहिए जिससे पर्यावरण दूषित न हो।

RBSE Solutions for Class 11 Biology Chapter 41 पर्यावरणीय प्रदूषण

प्रश्न 6.
नाभिकीय प्रदूषण की परिभाषा, कारक तथा निवारण विस्तार से लिखिए।
उत्तर-
नाभिकीय प्रदूषण या रेडियोधर्मी अपशिष्ट (Nuclear pollution or Radiation wastes) –

  • नाभिक रियेक्टरों (Nuclear reactors) से निकलने वाले अपशिष्ट पदार्थ, जलाशयों व नदियों में विसर्जित कर दिये जाते हैं। वैसे इससे निकलने वाले विकिरण जल व वायु दोनों को ही प्रदूषित करते हैं तथा ये खाद्य श्रृंखला में प्रवेश कर सभी जीवों को प्रभावित करते हैं।
  • परमाणु भट्टियों में ईंधन के रूप में यूरेनियम तथा प्लूटोनियम का उपयोग होता है।
  • अमेरिका, जर्मनी, रूस परमाणु शक्ति संम्पन्न देश हैं। 1945 में अमेरिका ने जापान के नागासाकी तथा हिरोशिमा शहरों पर परमाणु बम गिरा कर विनाश कर दिया था। यद्यपि परमाणु ऊर्जा का उपयोग चिकित्सा, शोध, विद्युत निर्माण में किया जाता है परन्तु परमाणुघरों से सदैव दुर्घटनाओं की आशंका रहती है।

(अ) नाभिकीय प्रदूषण के दुष्प्रभाव (Harmful effects of nuclear pollution) –

  • अल्फा, वीय, गामा विकिरणों का कोशिकाओं पर हानिकारक प्रभाव होता है। इनके प्रभाव कायिक व आनुवांशिक हो सकते हैं।
  • विकिरण के प्रभाव से त्वचा को नष्ट होना, मोतियाबिन्द, यकृत, थायरॉयड व तिल्ली पर हानिकारक प्रभाव होता है तथा अनेक प्रकार के कैन्सर भी होते हैं।
  • सीसियम (Cesium) शरीर की पेशियों, स्ट्रॉन्शियम (Strontium) अस्थियों वे आयोडीन (iodine) थायरॉयड में एकत्रित होता जाता है। इससे केन्सर, जन्मजात शरीर विकृति तथा अस्वाभाविक अंग परिवर्धन, जीन उत्परिवर्तन होता है।
  • इन प्रदूषकों का प्रभाव लम्बे समय तक बना रहता है। इनका प्रभाव आने वाली पीढ़ियों तक चलता रहता है। यही नहीं वनस्पति भी इससे प्रभावित होती है।
  • न्यूक्लीयर रियेक्टर संयंत्र की अधिकतम सक्रिय आयु 30 वर्ष की होती है। इस पश्चात् न तो इन्हें नष्ट किया जा सकता तथा न ही इन्हें अन्यत्र स्थानान्तरित किया जा सकता है। इन अनुपयोगी रियेक्टरों से आने वाले अनेक वर्षों तक जल, वायु व मृदा में रेडियोऐक्टिविटी रिसती रहती है।
  • भारत में भाभा परमाणु अनुसंधान केन्द्र, ट्रॉम्बे में इस प्रदूषण को कम करने, रियेक्टरों में सावधानी रखने तथा रियेक्टरों के आस-पास के क्षेत्रों के जीवों में रेडियो सक्रियता को मॉनिटर करने का कार्य होता है।

(ब) नाभिकीय अपशिष्टों का निस्तारण (Disposal of nuclear Wastes) –
नाभिकीय अपशिष्टों के निस्तारण की एक गम्भीर समस्या है। किन्तु इनके विकिरणीय के प्रभाव को निम्न प्रकार से कम किया जा सकता है

  • परमाणु विस्फोटों पर पाबन्दी लगा देनी चाहिए किन्तु इस दिशा में सभी देशों को मिलकर यह कदम उठाना होगा। परमाणु विद्युत संयंत्रों से होने वाली दुर्घटना के सुरक्षा उपाय किये जाने चाहिए।
  • रेडियो सक्रिय पदार्थों का रिसाव एक निश्चित सीमा में ही हो व आपातकालीन स्थिति में जनता को उस स्थल से हटा देना चाहिए।
  • परमाणु विद्युत संयंत्र आबादी से दूर हो तथा वहां पर सघन वृक्षारोपण होना चाहिए।
  • यदि नाभिकीय अपशिष्टों का निस्तारण करना भी हो तो इस प्रकार के उपाय करने चाहिए जिससे पर्यावरण दूषित न हो।

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