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RBSE Solutions for Class 11 Hindi अपरा Chapter 18 यात्रा का रोमांस

July 11, 2019 by Safia Leave a Comment

Rajasthan Board RBSE Class 11 Hindi अपरा Chapter 18 यात्रा का रोमांस

RBSE Class 11 Hindi अपरा Chapter 18 पाठ्यपुस्तक के प्रश्नोत्तर

RBSE Class 11 Hindi अपरा Chapter 18 वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न 1.
डोक-बँगला कहाँ था ?
(क) सरासर-मारसर में
(ख) ग्लेशियर के बीच
(ग) झील के पास
(घ) लिद्दरवट में
उत्तर:
(घ) लिद्दरवट में

प्रश्न 2.
यायावर की दृष्टि कैसी होती है?
(क) तटस्थ
(ख) अस्थिर
(ग) घुमक्कड़
(घ) द्वं द्वपूर्ण
उत्तर:
(क) तटस्थ

RBSE Class 11 Hindi अपरा Chapter 18 अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
कौन यायावर नहीं है?
उत्तर:
अपनी मंजिल और रास्ते के बारे में सब कुछ तय करने के बाद यात्रा पर जाने वाला यायावर नहीं होता।

प्रश्न 2.
इस पाठ में लेखक किस ग्लेशियर की घटना बताता है?
उत्तर:
इस पाठ में लेखक कोल्हाई ग्लेशियर की घटना के बारे में बताता है।

प्रश्न 3.
लेखक जिस झील को देखने आता है, उसका नाम क्या है?
उत्तर:
लेखक जिस झील को देखने आता है, उसका नाम दूधसर झील है।

प्रश्न 4.
लेखक झील को देखने गया, वह कौन-सी रात थी?
उत्तर:
जब लेखक झील को देखने गया, तब अमावस्या की रात थी।

प्रश्न 5.
लेखक की अगली यात्रा में कहाँ पर जाने की योजना थी?
उत्तर:
लेखक की अगली यात्रा में सरासर-मारसर जाने की योजना थी।

RBSE Class 11 Hindi अपरा Chapter 18 लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
यायावर के जीवन का सबसे बड़ा संतोष या असंतोष किसमें है?
उत्तर:
यायावर निरन्तर यात्रा करते रहना चाहता है, उसकी पथ अपरिचित और मंजिल अनिश्चित होती है। उसको अनजाने पथ पर चलते रहने का मोह होता है, जो कभी नहीं मिटता। उसके जीवन का सबसे बड़ी सन्तोष अथवा असन्तोष इसमें है कि उसका रास्ता कभी समाप्त नहीं होता। वह किसी स्थान पर जाने के लिए निकलता है किन्तु वहाँ पहुँचने पर तुरन्त दूसरे स्थान की यात्रा उसे आकर्षित करती है।

प्रश्न 2.
यायावर का एकमात्र लक्ष्य क्या है?
उत्तर:
यायावर का एकमात्र लक्ष्य है। अपरिचित मार्ग से किसी पूर्व में अनिश्चित स्थान की निरन्तर यात्रा करना। चलते रहना ही यायावर के जीवन का एकमात्र लक्ष्य है। इसके लिए रास्ते का पहले से पता होना या उसका सुविधाजनक होना जरूरी नहीं है। उसे कहाँ जाना है, यह पता होना भी आवश्यक नहीं है। बस, चलना है और चलते जाना है। वह अपने मन की तरंगों के अनुसार चलता जाता है।

प्रश्न 3.
झील का पानी कैसा था?
उत्तर:
झील का पानी शांत था। उसका रंग नीला हरा था। वह स्वच्छ था और उजला था।

प्रश्न 4.
लेखक के मित्र रास्ते को गौर से देखकर क्यों चल रहे थे?
उत्तर:
लेखक के मित्र रास्ते को ध्यान से देखकर चल रहे थे। वह अपने साथियों से अलग होकर चल रहे थे। वह गौर से आसपास देख रहे थे जैसे उनको किसी चीज की तलाश हो। पूछने पर उन्होंने कहा-ऐसी जगहों पर कभी-कभी हीरे-जवाहरात पड़े हुए मिल जाते हैं अत: गौर से देखते हुए चलना चाहिए।

प्रश्न 5.
घोड़े वाला जल्दी उठकर ग्लेशियर की तरफ-क्यों गया?
उत्तर:
घोड़े वाला जल्दी उठकर ग्लेशियर की तरफ गया। वहाँ उसको पर्यटकों की तलाश थी। उसका व्यवसाय था पर्यटकों को घोड़े पर बैठाकर पहाड़ी प्रदेशों की यात्रा कराना। अतः नए पर्यटकों (ग्राहकों) की तलाश में वह ग्लेशियर की ओर गया था।

RBSE Class 11 Hindi अपरा Chapter 18 निबन्धात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
प्रस्तुत पाठ में लेखक ने यायावर वृत्ति की क्या विशेषताएँ बताई हैं?
उत्तर:
यायावर वृत्ति की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं –

  1. यायावर का रास्ता कभी समाप्त नहीं होता। वह चाहे जितना भटक ले परन्तु अनजान रास्ते उसे सुदा आकर्षित करते हैं।
  2. यायावर का न तो रास्ता पूर्व परिचित होता है और न उसकी मंजिल ही पूर्व निश्चित होती है। उसका मार्ग और लक्ष्य अनिश्चित होते हैं।
  3. यायावर के पैर निरन्तर गतिशील रहते हैं। वे कभी रुकना नहीं जानते।
  4. उसे अनिश्चित में आनन्द आता है और वह उसे आकर्षक लगती है। बँधे-बँधाए और निश्चित जीवनक्रम में उसकी रुचि नहीं होती।
  5. उसकी अस्थिरता उसकी एक सिद्धि है। गति का हर क्षण उसे रोमांचित करता है।
  6. यायावर की आँख हर चीज को यहाँ तक कि स्वयं को भी एक दृश्य के रूप में देखती है।
  7. यात्रा से यायावर को तटस्थ दृष्टि प्राप्त होती है, जो द्वन्द्वपूर्ण जीवन से प्राप्त नहीं हो सकती। वह आरोपित नैतिकता में न जीकर अपनी ही आन्तरिक नैतिकता के अनुसार जीता है।
  8. यायावर को पूरी धरती अपना घर लगती है। उसके सम्बन्धों का विस्तार अनन्त होता है।
  9. मार्ग के कष्ट यायावर को विचलित नहीं करते। वह उनके बीच से ही अपनी मंजिल तक का रास्ता बनाता है।
  10. यायावर का एकमात्र लक्ष्य मन को तरंगों के अनुसार चलते रहना है। जब आगे चलने का मन न हो तो वह रुक जाता है। जहाँ से गुजर जाए वही उसका रास्ता तथा जिस पेड़ के तने से टेक लगा ले वही उसकी मंजिल होती है।

प्रश्न 2.
झील देखकर लौटते हुए लेखक के साथ क्या-क्या घटित हुआ, विस्तार से बताए।
उत्तर:
दूधसर झील के तट पर लेखक मुग्धभाव से टहल रहा था। तभी वर्षा होने लगी तो याद आया कि जिस रास्ते वे आए थे उतना ही चलकर वापस भी जाना है। शाम हो रही थी, वर्षा भी परन्तु तुरन्त चलना जरूरी था। कुछ आगे जाने पर पता चला कि उस रास्ते से लौटना असंभव है, उस पर बहुत ज्यादा फिसलन हो गई थी, घोड़ेवाले को विश्वास था कि वह दूसरे रास्ते से उनको सुरक्षित पहुँचा देगा। कुछ आगे चले थे कि उस रास्ते की लकीर ही नहीं मिल रही थी। उन लोगों ने निश्चित किया कि जैसे भी हो नीचे उतर जाना चाहिए। जिस जगह लेखक और उसके साथी खड़े थे, वह लुढ़कते पत्थरों की पहाड़ी थी।

पैर आगे बढ़ाते हैं, पत्थर निकलकर आवाज के साथ नीचे गिरते थे। तीनों साथी अलग अलग रेंगते हुए नीचे उतर रहे थे। कोई पत्थर गिरता तो सब अपने स्थान पर स्तब्ध रह जाते। एक भी आवाज होने तक हिलते भी नहीं थे। अचानक सबसे नीचे वाला साथी पत्थर के साथ लुढ़कता हुआ नीचे एक समतल पर जाकर टिक गया। उसने वहाँ से बताया-कोई खतरा नहीं है, चले जाओ। पता चला कि वह समतल ग्लेशियर की बर्फ थी, भूमि नहीं। वह एकदम सपाट भी नहीं था।

उसमें बर्फ की ओटी नालियाँ बनी थीं। बीच-बीच में अनेक बर्फ की गुफाएँ थीं। डर था कि पैर फिसला तो उनके अनन्त में समा जाना होगा। ग्लेशियर को पार करने के बाद लिद्दरवट डाक बंगला का सफर घोड़ों पर शुरू हुआ। लिद्दरवट वहाँ से आठ मील दूर था। वे लोग चार मील ही चल पाए थे कि अंधेरा हो गया। आगे रास्ता ऐसा था कि उसको उस अंधेरे में घोड़ों पर बैठे हुए पार नहीं किया जा सकता था। अब घोड़े वाला तीनों घोड़ों को संभालकर आगे चल रहा था और लेखक अपने दोनों साथियों के साथ उसके पीछे।

रास्ते में कोई पगडंडी नहीं थी। पत्थरों पर उतरते-चढ़ते जाना था। एक ओर ग्लेशियर से बहकर आता दरिया था तो दूसरी ओर पहाड़ी। पहाड़ी से निकलकर अनेक झरने दरिया में मिलते थे। उनको घुटनों-घुटनों पानी में चलकर पार करना पड़ता था। अंधेरे में पैर फिसलने पर किसी गहरी खाई में गिरने का भय था। उनके पास एक छोटा टार्च था; जिसके सेल समाप्त हो गये थे। दियासलाई भी समाप्त हो गई थी; अब घना अंधेरा था, पानी था, पत्थर थे और कीचड़ थी। इनके बीच में होकर चलना पड़ रहा था। एक घोड़े की टांग टूट गई थी। घोड़े वाला उस लँगड़ाते घोड़े को थामकर चल रहा था।

वह आवाज देता जाता था- “होशियार साहब, होशियार ! चले आओ साहब, शाबाश।” कीचड़ में धप्प-धप्प करते, पत्थरों से छिलते, न अँधेरे का होश, न सर्दी का होश, न अपना होश। दरिया के पार हल्की रोशनी दिखाई दी। लिदंद्रवट दूर था फिर रोशनी कैसी ? आवाज लगाई मगर कोई उत्तर नहीं मिला। – ‘बारिश फिर शुरू हो गई थी। उसके साथ ही घोड़े वाले की आवाजें शाबांश साहब, शाबाश’ भी तेज हो गई थी। धीरे-धीरे रास्ता कटता गया फिर घोड़े की टापें लकड़ी के पुल पर सुनाई दीं। जान में जान आई। घोड़े वाले ने कहा-‘पहुँच गए, साहब! शाबाश” जब वे लोग थके-हारे डाक बंगले में पहुँचे तो वहाँ लोगों ने उनके जीवित बचने की आशा त्याग दी थी। वह अमावस की अंधेरी रात थी। हाथ तापकर और चाय पीकर वे सो गए।

RBSE Class 11 Hindi अपरा Chapter 18 अन्य महत्त्वपूर्ण प्रश्नोत्तर

RBSE Class 11 Hindi अपरा Chapter 18 वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न 1.
‘यात्रा का रोमांस’ की गद्यविधा कहलाती है –
(क) कहानी
(ख) निबन्ध
(ग) संस्मरण
(घ) यात्रावृत्तान्त
उत्तर:
(घ) यात्रावृत्तान्त

प्रश्न 2.
‘आषाढ़ का एक दिन’ है मोहन राकेश का प्रसिद्ध
(क) निबन्ध
(ख) उपन्यास
(ग) नाटक
(घ) रेखाचित्र
उत्तर:
(ग) नाटक

प्रश्न 3.
लेखक को ‘दूधसर’ झील के पार तैरकर जाते हुए दिखाई दिया
(क) मनुष्य
(ख) साँप
(ग) मेढ़क
(घ) हिममानव
उत्तर:
(ख) साँप

प्रश्न 4.
‘पहुँच गए साहब, शाबाश!’ कहा
(क) घोड़े वाले ने
(ख) डाक बंगले के चौकीदार ने
(ग) लेखक के साथी ने
(घ) पास के गाँव वाले ने
उत्तर:
(क) घोड़े वाले ने

प्रश्न 5.
यायावर के पैर होते हैं।
(क) स्थिर
(ख) अस्थिर
(ग) मजबूत
(घ) चंचल
उत्तर:
(ख) अस्थिर

RBSE Class 11 Hindi अपरा Chapter 18 अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
यायावर के जीवन में पगडंडियों के अतिरिक्त किसका आकर्षण होता है?
उत्तर:
यायावर के जीवन में पगडंडियों के अतिरिक्त अनिश्चित गंतव्य को आकर्षण होता है।

प्रश्न 2.
यायावर का मन क्या चाहता है?
उत्तर:
यायावर का मन चाहता है कि आगे-और आगे चलता रहा जाए, भले ही वह चलना धरती के घूमने की तरह हो

प्रश्न 3.
‘रास्ते की थकान और बाधाएँ ही तो यात्रा को यात्रा बनाती हैं’-कैसे?
उत्तर:
जिस यात्रा में बाधाएँ नहीं होती, थकान नहीं होती, सब कुछ पूर्व निश्चित, सुरक्षित और योजनाबद्ध होता है, उस यात्रा को यात्री नहीं कह सकते।

प्रश्न 4.
आरोपित नैतिकता किसे कहते हैं?
उत्तर:
नैतिकता के वे नियम जो समाज द्वारा बनाए जाते हैं और जिनको मानने के लिए लोगों को बाध्य किया जाता है, उनको आरोपित नैतिकता कहते हैं।

प्रश्न 5.
यायावर के सम्बन्धों का विस्तार कहाँ तक होता है?
उत्तर:
यायावर के सम्बन्ध पूरी पृथ्वी, आकाश और नक्षत्रों तक होता है।

प्रश्न 6.
यायावर कौन नहीं है?
उत्तर:
जिसकी मंजिल पहले से तय हो, वह यायावर नहीं होता।

प्रश्न 7.
पथ के साथ मैत्री होने का क्या आशय है?
उत्तर:
पथ के साथ मैत्री होने का आशय यह है कि पथ के सुख-दु:ख पथ के साथ बाँटे जायें। तभी पथ उसके सुख-दुख बाँट सकेगा।

प्रश्न 8.
दूधसर झील के तट पर पहुँचकर लेखक कैसा अनुभव करता है?
उत्तर:
दूधसर झील के तट पर पहुँचकर लेखक अनुभव कैरता है कि वह सृष्टि के निर्माण का पहला क्षण है और झील के तट पर पहुँचने वाला वह सृष्टि का पहला आदमी है।

प्रश्न 9.
रास्ते पर अधिक फिसलन होने के कारण क्या डर लगता है?
उत्तर:
रास्ते पर ज्यादा फिसलन होने के कारण डर लगता है कि पैर उल्टा-सीधा पड़ा तो लुढ़ककर खाई में गिर जायेंगे।

प्रश्न 10.
घोड़े वाले को किस बात का विश्वास है?
उत्तर:
घोड़े वाले को विश्वास है कि वह दूसरे रास्ते से लेखक को सुरक्षित डाकबंगला पहुँचा देगा।

प्रश्न 11.
ग्लेशियर की ठोस बर्फ पर चलने में क्या खतरा है?
उत्तर:
ग्लेशियर पर ठोस बर्फ की चट्टानें हैं। उनके नीचे बर्फ की गहरी गुफाएँ हैं। पैर फिसलने पर उनमें गिरने का खतरा है।

प्रश्न 12.
लिद्दरवट के लिए घोड़ों पर चढ़कर सफर करना क्यों रोकना पड़ा?
उत्तर:
अंधेरा हो जाने के कारण घोड़ों पर चढ़कर सफर करना खतरों से खाली नहीं था।

प्रश्न 13.
डाक बँगला पहुँचने पर लेखक को क्या पता चला?
उत्तर:
डाक बँगला पहुँचने पर लेखक को पता चला कि वह अमावसं की रात थी। लोगों ने उनके जीवित वापस आने की आशा छोड़ दी थी।

प्रश्न 14.
लेखक और साथी डाक बँगला पहँचे तो उनकी दशा कैसी थी?
उत्तर:
लेखक और साथी डाक बँगला पहुँचे तो उनकी दशा अच्छी नहीं थी। वे बहुत थके हुए थे।

RBSE Class 11 Hindi अपरा Chapter 18 लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
यायावर के मन से किसका मोह कभी नहीं जाता ?
उत्तर:
यायावर का रास्ता कभी समाप्त नहीं होता। वह रास्तों पर चाहे जितना भटक ले किन्तु नई अनजान पगडंडियों का मोह उसके मन से कभी नहीं जाता। वह नए रास्तों पर चलने के लिए संदा लालायित रहता है।

प्रश्न 2.
यायावर प्रत्येक क्षण किस कारण रोमांचित होता है?
उत्तर:
यायावर को अनिश्चित गंतव्य प्रिय होता है। अनिश्चित की संभावना प्रत्येक क्षण उसको पुलकित करती है। बँधे हुए जीवन में सम्पूर्ण निश्चितता का भाव होता है किन्तु वह यायावर को आकर्षित नहीं करता ।

प्रश्न 3.
यायावर की मनोवृत्ति के बारे में लेखक ने क्या बताया है?
उत्तर:
यायावर की मनोवृत्ति उसे एक स्थान पर रुकने नहीं देती। वह जहाँ होता है वहाँ से अन्यत्र चलने को विवश करती है। उसे । हर नया रास्ता अच्छा लगता है। रात में अपने डेरे पर पुराने रास्ते से लौटने में उलझन होती है।

प्रश्न 4.
यात्रा की थकान और बाधाएँ यायावर को कैसी लगती हैं?
उत्तर:
यात्रा की थकान और बाधाएँ यायावर को अच्छी लगती हैं। यदि वे न हों तो यात्रा नीरस हो जाती है। उनके कारण ही यात्रा यात्रा लगती है, अन्यथां तो वह घर का ही एक चलता-फिरता संस्करण होती है।

प्रश्न 5.
यायावर स्वयं को दृश्य रूप में देखता है तो उसकी क्या प्रतिक्रिया हो सकती है?
उत्तर:
यायांवर प्रकृति की चीजों की तरह स्वयं को भी दृश्य रूप में देखता है। तब वह वितृष्णा से अस्थिर हो सकता है। वह सहानुभूति से द्रवित भी हो सकता है। वह अपने ऊपर ठहाका लगाकर हँस भी सकता है।

प्रश्न 6.
यात्रा से यायावर को कैसी दृष्टि प्राप्त होती है? उसका क्या परिणाम होता है?
उत्तर:
यात्रा से यायावर को तटस्थ दृष्टि प्राप्त होती है। इस कारण वह जीवन के परिचित वातावरण से हटकर तथा निजी परिस्थितियों के दबाव से मुक्त होकर, कुंठारहित मन के साथ, नए वातावरण और नए व्यक्तियों के साथ अधिक स्वस्थ और स्वाभाविक सम्बन्ध स्थापित कर सकता है।

प्रश्न 7.
यायावर मंजिल के बारे में कुछ नहीं जानता, क्यों?
उत्तर:
जिसकी मंजिल पहले से निश्चित हो उसको यायावर नहीं कहते । यायावर अपने मन की तरंगों के अनुसार चलता है। जहाँ से गुजरे वही उसका रास्ता तथा रात होने पर जहाँ टिक जाये वही उसकी मंजिल होती है।

प्रश्न 8.
लेखक दूधसर झील पर किस प्रकार पहुँचा ?
उत्तर:
लेखक अपने साथियों के साथ बिना पगडंडी वाली पहाड़ी पर चढ़ने लगता । पहाड़ी की चोटी पर एक समतल था। इस तरह उसने अनेक चोटियाँ पार र्की। उसके बाद भी दूर की एक चोटी पर वह झील थी।प्यास के मारे उसका बुरा हाल था। बहुत प्रयत्न करके उस चोटी पर पहुँचा, जिसके दूसरी तरफ नीचे झील थी।

प्रश्न 9.
झील पर पहुँचकर लेखक को कैसा लगा ?
उत्तर:
लेखक पहाड़ी से सरककर झील के किनारे पहुँचा और इस तरह टहलने लगा जैसे कि वह सृष्टि का पहला आदमी हो तथा वह सृष्टि का पहला क्षण है।

प्रश्न 10.
झील के तट से लेखक पहाड़ी की चोटी पर कैसे आया ?
उत्तर:
बूंदें पड़ने लगीं तो ऊपर से लोगों ने लेखक को पुकारा। आवाज सुनकर पत्थरों के सहारे वह ऊपर पहुँचा। वर्षा तेज हो गई। वे लोग एक दूसरे के साथ सिमटकर एक चट्टान की ओट में बैठे रहे। एक दूसरे के शरीर की गर्मी और मुँह की भाप अच्छी लग रही थी। वे सोच रहे थे कि लौटते वक्त रास्ता मिल पायेगा या नहीं।

प्रश्न 11.
झील से लौटकर चलते समय लेखक के सामने क्या कठिनाई आई ?
उत्तर:
शाम हो रही थी। लौटना जरूरी था परन्तु वर्षा बन्द नहीं हो रही थी। कुछ दूर चलने पर पता चला कि जिस रास्ते आए थे उस पर बहुत फिसलन हो गई थी। एक कदम चलना भी कठिन था। पाँव फिसलने पर खाई में गिरने का डर था। उस रास्ते पर आगे बढ़ना एकदम असंभव हो गया था।

प्रश्न 12.
दूसरे रास्ते में क्या कठिनाई थी?
उत्तर:
दूसरा रास्ता जिसे पहाड़ी पर से था उसके पत्थर चलने पर टूटकर गिरते थे। मूंक-फेंककर कदम रखते थे। हाथों के सहारे छ:-छ: इंच सरक रहे थे। कोई पत्थर गिरता तो स्तब्ध रह जाते। उनका एक साथी पत्थरों के साथ लुढ़ककर नीचे ग्लेशियर की समतल बर्फ पर जा टिका। तब सभी किसी तरह उतरकर वहाँ पहुँचे।

प्रश्न 13.
ग्लेशियर पर समतल बर्फ कैसी थी?
उत्तर:
बर्फ समतल तो थी किन्तु उसमें पानी के बहने की छोटी-छोटी नालियाँ भी थीं। थोड़ी-थोड़ी दूर पर गहरी बर्फ की गुफाएँ र्थी, जो प्रकाश पड़ने पर चमकने लगती थीं। पैर डगमगाने पर उनमें गिरकर विलीन होने का खतरा था। यह मार्ग एक-डेढ़ मील लम्बा था।

प्रश्न 14.
ग्लेशियर से आगे का मार्ग घोड़ों पर बैठकर पार करना क्यों संभव नहीं था?
उत्तर:
ग्लेशियर से लद्दरवट आठ मील था। चार मील चलने पर अंधेरा हो गया था। वर्षा हो रही थी। मार्ग के एक तरफ ग्लेशियर से आती नदी थी और दूसरी ओर पहाड़ी थी। अंधेरे में उस रास्ते को घोड़ों पर चढ़कर पार नहीं किया जा सकता था। टार्च और माचिस समाप्त हो चुकी थीं।

प्रश्न 15.
लेखक लिद्दरवट कैसे पहुँचा?
उत्तर:
लेखक और उसके दोनों साथी पैदल चल रहे थे। आगे घोड़ों को थामे घोड़े वाला चलकर रास्ता दिखा रहा था। वह’चले आओ साहब शाबाश’ आदि कहकर उनको धैर्य बँधा रहा था। वे पत्थरों पर पैर रखकर घुटनों तक पानी में होकर चल रहे थे। इस तरह बड़ी कठिनाई के साथ वे लिद्दरवट पहुँचे।

प्रश्न 16.
दूसरे दिन आगे की यात्रा की योजना बनाते हुए लेखक को देखकर घुमक्कड़ की किस वृत्ति का पता चलता है?
उत्तर:
घुमक्कड़ नए रास्तों और अज्ञात मंजिलों की ओर लगातार जाना चाहता है। पिछली रात की भयानक दुर्घटनाः अब . रोमांचक यात्रा में बदल गई है। अब नया लक्ष्य और नया मार्ग उसके सामने है। वह उस पर आगे बढ़ने का इच्छुक है।

RBSE Class 11 Hindi अपरा Chapter 18 निबन्धात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
“यात्रा यायावर को जो तटस्थ दृष्टि देती है, वह रोज के द्वंद्वपूर्ण जीवन में रहकर प्राप्त नहीं होती।” कथन पर विचारपूर्ण टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
यात्रा से यायावर को तटस्थ दृष्टि प्राप्त होती है। ऐसी दृष्टि जीवन के संघर्षों में पड़कर प्राप्त नहीं हो सकती। इससे मनुष्य जीवन के निकट वातावरण से दूर हो जाता है तथा निजी परिस्थितियों के दबाव से मुक्त रह पाता है। उसका मन कुंठाग्रस्त नहीं रहता। वह नए वातावरण, नई परिस्थितियों के साथ नए लोगों से अधिक स्वस्थ और स्वाभाविक सम्बन्ध बना पाता है। ऐसी दशा में वह अपनी आंतरिक प्रकृति के अनुसार जीवन बिता सकता है। वह अधिक उन्मुक्त भाव से स्वयं को नए अनुभवों के बीच खुला छोड़ सकता है। इस खुलेपन में उसके नैतिकता के मानदण्ड बदल जाते हैं।

वह अपनी आन्तरिक नैतिकता के अनुसार जीने लगता है। उसके ऊपर समाज की बाहरी नैतिकता का दबाव नहीं रहता। इस प्रकार जिया गया थोड़ा जीवन भी साधारण रूप में जिए गए वर्षों के लम्बे जीवन की तुलना में अधिक सार्थक लगता है। एक आदिम आवेश उसके सम्बन्धों का आधार बन जाता है। इस कारण वह बच्चे के कोमल गाल की तरह पेड़ों के पत्तों को भी सहलाता है। अपने पालतू पशु की तरह पत्थरों को थपथपाता है। आशय यह है कि वह प्रकृति के साथ एकाकार हो जाता है।

उसके सम्बन्ध असीम और विस्तृत हो जाते हैं। पूरी धरती उसको अपना घर लगती है। आकाश के नक्षत्र अपने पड़ोसी प्रतीत होते है। उनसे परिचय बढ़ाने का उसका मन होता है। रात में किसी पेड़ के सहारे खड़ा होकर वह आकाश के तारों की झिलमिलाहट देखता है। उसमें कोई संकेत पाकर मुस्करा उठता है। यह भी संभव है कि आगे चलते हुए वह उन नक्षत्रों से हाथ हिलाकर विदाई माँग ले।

प्रश्न 2.
यायावर किसको कहते हैं? कौन यायावर नहीं हो सकता?
उत्तर:
अपने मन की तरंगों के अनुसार लगातार चलते रहने वाला यायावर होता है। वह जहाँ से गुजरे वही उसका रास्ता होता है। जहाँ थककर पेड़ के तने से टेक लगा ले वही उसकी मंजिल होती है। न उसका मार्ग पूर्व निश्चित होता है और न मंजिल भी पहले से तय होती है। दिनभर में कितना रास्ता चलना है, वह पहले से नहीं सोचता। जब चलने को मन नहीं करता तो वह रुक जाता है। उसको रात बिताने के लिए पहले से चिन्ता नहीं करनी पड़ती। रात उतरने पर ही वह सोचता है कि रात कहाँ और कैसे बीतेगी।

जो पहले से सब बातें तय कर ले, उसको मानना होता है कि पथ पर उसका विश्वास नहीं है। वह पथ का मित्र नहीं है। पथ के सुख-दु:ख उसके अपने नहीं हैं। जिसकी मित्रता पथ के साथ नहीं होती, वह यायावर नहीं हो सकता। पूर्व में ही मार्ग और मंजिल तय करके चलने वाले को यायावर नहीं कहते। यायावर एक अनिश्चित पथ से अनिश्चित लक्ष्य के लिए निकल पड़ता है। वह पथ के कष्टों और कठिनाइयों से विचलित नहीं होता। मार्ग के दलदल और टेढ़ी-मेढ़ी पगडंडियों से वह घबड़ाता नहीं। इन संकटपूर्ण रास्तों से चलकर वह प्रकृति के सौन्दर्य से परिपूर्ण झीलें, घटाओं, वन रचतियों, पर्वत चोटियों आदि के दर्शन करता है। ये उसके मन को आल्हाद से भर देते हैं। वह मार्ग के कष्टों को भुला देता है।

प्रश्न 3.
ग्लेशियर से दूधसर झील तक लेखक ने यात्रा किस प्रकार की? .
उत्तर:
बीहड़ और ऊबड़-खाबड़ रास्ता पार करके लेखक तीन लोगों के साथ कोल्हाई ग्लेशियर पहुँचा। वहाँ पहुँचकर पता चला कि पास की पहाड़ी के पास एक झील है, नाम है दूधसर। उसने अपने साथियों के साथ बिना पगडंडी वाली उस पहाड़ी पर चढ़ना शुरू कर दिया। पहाड़ी की चोटी पर पहुँचने पर उनको एक समतल स्थान मिला। उसके पीछे एक चोटी और थी। इसी प्रकार अनेक चोटियाँ उनको पार करनी पड़ीं। तब भी जिस चोटी पर दूधसर झील थी, वह अभी दूर थी। और ऊपर थी लेखक को तेज प्यास लगी थी। वह डंठल चूसने लगा। पहाड़ी पर हरी घास थी। ऊपर चढ़ते समय बार-बार पैर फिसल जाते थे। ऐसा लग रहा था कि आगे ऊपर चढ़ना संभव नहीं होगा, पहाड़ी की करवट ने रास्ता खोल दिया। अन्त में वे उस चोटी पर पहुँच गए।

चोटी के दूसरी ओर नीचे झील दिखाई दे रही थी। यह दूधसर झील थी। उसका पानी हरा-नीला, शान्त और उज्ज्वल था। झील को देखकर लेखक भूल गया कि उनकों उतना ही रास्ता तय करके वापस भी जाना है। लेखक पत्थरों के सहारे लुढ़कता हुआ झील के किनारे जा पहुँचा। वहाँ वह उसके किनारे टहलने लगा। उसको लग रहा था कि वह झील के किनारे पहुँचा सृष्टि का पहला पुरुष है तथा वह सृष्टि के निर्माण का पहला क्षण है। कुछ शब्द बोलकर उसने अपने बोल सकने की क्षमता का स्वयं को विश्वास दिलाया तभी आकाश में घटा उठी और बूंदें गिरने लगीं। ऊपर से लोगों ने आवाज दीं तो वह पत्थरों का सहारा लेकर पहाड़ी के ऊपर जा पहुँचा।

प्रश्न.4.
ग्लेशियर से लिद्दरवट तक की वापसी की यात्रा में लेखक को किन कठिनाइयों का सामना करना पड़ा? .
उत्तर:
ग्लेशियर की एक-डेढ़ मील की दूरी बर्फ पर चलकर पार करने के बाद वे लिद्दरवट के लिए चले। वहाँ रात में रुकने के लिए तथा सर्दी से बचने के लिए उनके पास कोई इंतजाम नहीं था। शाम हो रही थी, चलना जरूरी था। वे तीन घोड़ों पर सवार होकर चले मगर चार मील चलने पर ही अंधेरा हो गया। यहाँ से अभी चार मील का रास्ता और शेष था। अंधेरे में घोड़ों पर चढ़कर यात्रा करना संभव नहीं था। एक टार्च थी उसके सेल चुक गए थे। दियासलाइयाँ भी समाप्त हो गई थीं।

पैरों में एक कदम चलने की भी ताकत नहीं थी। मगर चलना था। आगे घोड़े वाला घोड़ों को संभालकर चल रहा था और पीछे तीनों पर्यटक थे। मार्ग के एक ओर पहाड़ी थी और दूसरी ओर ग्लेशियर से बहकर जाने वाली नदी थी। वर्षा भी हो रही थी। पहाड़ी से निकलकर अनेक झरने रास्ते को पार कर नदी में मिलते थे। वहाँ पत्थरों पर पैर रखकर और घुटने-घुटने पानी में चलकर रास्ता पार करना पड़ता था। वर्षा के कारण सर्दी थी, अंधेरा था, पानी था, कीचड़ थी और पत्थर भी थे।

इन सबके बीच चार आदमी भी थे। घोड़े वाला आवाज देकर उनका उत्साह बढ़ा रहा था-‘चले आओ साहब, शाबाश’ आदि कहकर वह उनको आगे कदम बढ़ाने को प्रोत्साहित कर रहा था। नदी के पार दूर एक रोशनी दिखाई दी। उन्होंने आवाज दी मगर कोई उत्तर नहीं मिला। बारिश तेज हो गई। घोड़े वालों की आवाजें भी तेज हो गईं। इस तरह एक-एक कदम सरककर रास्ता पार हो रहा था। वे पत्थर और पानी-कीचड़ से होकर धप्प-धप्प करते आगे बढ़ रहे थे। तभी लकड़ी के पुल पर घोड़े की टापों की आवाज सुनकर घोड़ेवाले ने कहा-‘पहुँच गए साहब, पहुँच गए, शाबाश’। लेखक और उसके साथी लिद्दरवट के डाक बँगले में पहुँच चुके थे।

यात्रा का रोमांस लेखिक-परिचय

जीवन-परिचय-

मदन मोहन, गुगलानी अथवा मदन मोहन का साहित्यिक नाम मोहन राकेश है। आपका जन्म पंजाब के अमृतसर नगर में सन् 1925 ई. को हुआ था। आपके पिता करमचंद गुगलानी वकील थे। लाहौर के औरिएण्टल कॉलेज से शास्त्री परीक्षा उत्तीर्ण करने के पश्चात् आपने संस्कृत में एम.ए. तथा बाद में हिन्दी से भी एम.ए. परीक्षा पास की। आप मुम्बई, शिमला, जालंधर तथा दिल्ली विश्वविद्यालय में प्राध्यापक रहे। आपने शिक्षक पद त्याग कर स्वतंत्र लेखक के रूप में ही कार्य करना उचित समझा। राकेश सामाजिक रूढ़ियों के विरोधी थे। आपने एकाधिक विवाह किए। आर्थिक संकटों से जीवनभर जूझना पड़ा। सन् 1972 ई. में आपका असामयिक निधन हो गया। साहित्यिक परिचय-मोहन राकेश को हिन्दी में नवीन पीढ़ी के नाटककार के रूप में स्मरण किया गया है। आप नई कहानी तथा यात्रा-वृत्तांत के भी सफल लेखक हैं। स्वतंत्रता के बाद की बदली हुई परिस्थितियों और वातावरण का चित्रण मोहन राकेश के साहित्य में हुआ है। आप सन् 1962-63 में हिन्दी की कहानी की पत्रिका ‘सारिका’ के सम्पादक रहे।

कृतियाँ-मोहन राकेश की प्रमुख कृतियाँ निम्नलिखित हैं- नाटक-अषाढ़ का एक दिन, लहरों के राजहंस, आधे-अधूरे, अंडों के छिलके, दूध के दाँत, अन्य एकांकी तथा बीज नाटक। कहानी संग्रह- क्वार्टर, वारिस, पहचान इत्यादि। उपन्यास-अँधेरे बन्द कमरे, काँपता हुआ दरिया, नीली रोशनी की बाँहें, न आने वाला कल और अन्तराल। यात्रा-वृत्त-आखिरी चट्टान तक। अनुवाद-‘मृच्छकटिक’ तथा ‘अभिज्ञानशाकुन्तलम्’ का हिन्दी में अनुवाद।

पाठ-सार

यायावर के जीवन का सबसे बड़ा संतोष या असंतोष यही होता है कि उसकी यात्रा कभी समाप्त नहीं होती। वह कितना भी भटक ले परन्तु अनुजाने पथों पर चलना उसे सदैव आकर्षित करता है। अनिश्चित गंतव्य का आकर्षण प्रबल होता है। अनिश्चित की संभावना में जो रोमांच होता है, वह निश्चित जीवन की निश्चिंतता से प्राप्त नहीं होता। घुमक्कड़ की एक जगह से दूसरी जगह जाने की वृत्ति को किस नाम से पुकारा जाय? वाण्डरलस्ट? यायावर के मन में निरन्तर चलते रहने की इच्छा होती है। कुछ है जिसे न पाकर असंतुष्ट रहता है। इसे कुछ को शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता। उसका क्षणिक साक्षात्कार से उसकी चेतना सिहर उठती है॥

यात्रा की थकान और बाधाएँ भी यायावर को सुख देती हैं। इनके बिना यात्रा यात्रा ही नहीं है। यायावर की खोज, उसकी अस्थिरता, अपने आप में एक सिद्धि है। यायावर की प्रत्येक वस्तु, यहाँ तक कि स्वयं को भी एक दृश्य की तरह देखता है। मार्ग के प्राकृतिक दृश्य-पट पर उसके कदमों की छाप होती है। अपने दृश्य-रूप पर वह वितृष्णा-सहानुभूति और कभी तीव्र हास्य से भर सकता है। यायावर की तटस्थ दृष्टि द्वन्द्वपूर्ण जीवन में रहकर प्राप्त नहीं हो सकती। जीवन के निकट वातावरण से हटकर नई परिस्थितियों और नए लोगों के दबाव से मुक्त होकर उसके मन में कुंठा नहीं रहती। ऐसे में व्यक्ति अपनी आन्तरिक प्रकृति से अनुकूल होकर खुलेपन में जी सकता है।

वह आरोपित नैतिकता से मुक्त होकर अपनी आन्तरिक नैतिकता के अनुसार जीता है। इस प्रकार जीने का थोड़ा समय भी साधारण रूप से जिए लम्बे समय से अधिक सार्थक होता है। पेड़ के पत्ते, मोड़ पर जमा पत्थर, पहाड़ी जंगल में उड़ते कीड़ों की आवाजें, खच्चरों की घण्टियाँ उसके जीवन का अंग बन जाती हैं। पूरी धरती उसका घर बन जाती है। आकाश के नक्षत्र उसके पड़ोसी हो जाते हैं, रात में उनकी झिलमिलाहट उसको आकर्षित करती है, मानो उससे कुछ कहना चाहती है। इसे देखकर वह मुस्कराता है और चलते समय विदा लेने के लिए उनकी ओर हाथ हिला देता है। यायावर की मंजिल पहले से तय नहीं होती। उसका एकमात्र लक्ष्य मन की तरंगों के अनुसार चलना होता है।

अनिश्चित रास्ते पर चलते रहकर आगे चलने का मन न होने पर रुकना और रात होने पर सोचना कि रात कहाँ बीतेगी-यही उसका जीवन है। वह पथ का मित्र होता है। पथ के सुख-दु:ख से वह घबड़ाता नहीं। दलदल के पास झील का चमकता पानी, अधखुले कमल, आकाश में घिरी घटा, पंक्तिबद्ध खड़े बेंत के नाटे पेड़-सब उसे आकर्षित करेंगे। नीचे नदी की हरी घास कई-कई गाँवों को आलिंगन करती दिखाई देगी। अपने सूखे होंठ और कष्टों से छिले शरीर के साथ वह इनसे आनंदित होगा।

उनके चारों ओर कच्ची बर्फ होगी, उस पर जंगली जानवरों के पैरों के निशान बने होंगे। कोहर, इतना घना होगा कि दो गज से आगे रास्ता नहीं दिखाई देगा। वह उस कोहरे को चीरकर और जंगली जानवरों के पैरों के निशानों पर होकर दरिया की घाटी की ओर उतर जायेगा। परन्तु कई बार पथ उसको अभिनेता मानकर उसके अभिनय पर व्यंग्य करता है और हँसता है।

लेखक बीहड़ का रास्ता पार कर तीन साथियों के साथ कोल्हाई ग्लेशियर के पास लिदद्रवट के डाक बंगले में पहुँचा है। वहाँ पता चलता है कि पहाड़ी के ऊपर एक सुन्दर झील है-दूधसर। वह साथियों के साथ बिना पगडंडी वाली पहाड़ी पर चढ़ने लगता है। पहाड़ी की चोटी पर पहुँचकर समतल मिलता है, उससे आगे अनेक चोटियों के बहुत ऊपर वाली चोटी पर दूधसर है। लेखक को बहुत तेज प्यास लगती है। वह साथी घोड़े वाले के लिए डंठल चूसता है। हरी घास वाली पहाड़ी पर पैर फिसलते हैं। आखिर उस चोटी पर पहुँचता है, वहाँ से झील को हरा-नीला, उजला, खामोश पानी दिखाई देता है। वह पत्थरों पर सरकता हुआ झील के किनारे पहुँच जाता है।

वहाँ पहुँचकर उसे लगता है कि वह सृष्टि का पहला मनुष्य है। वह कुछ बोलकर देखता है कि वह बोल सकता है या नहीं। तभी बूंदें गिरने लगती हैं और ऊपर से उसके साथी उसे पुकारते हैं। पत्थरों का सहारा लेकर वह ऊपर चढ़ता है। पहाड़ी के दूसरी तरफ सूखी बर्फ वाला ग्लेशियर है। बूंदें तेज हो जाती हैं। उनसे बचने के लिए सब लोग एक चट्टान की ओर सिमटकर बैठते हैं। एक दूसरे के शरीर की गर्मी और मुँह की भाप अच्छी लगती है। सभी सोच रहे हैं कि लौटते वक्त रास्ता मिलेगा या नहीं, पर कोई कुछ नहीं बोलता।

शाम होने वाली है अतः जल्दी लौटना जरूरी है। कुछ दूर चलने पर पता चलता है कि जिस रास्ते से आए थे उस पर बहुत फिसलन हो गई है। तब घोड़ेवाले के मार्गदर्शन में वे दूसरे रास्ते से चलते हैं मगर कुछ आगे उस रास्ते की लकीर नहीं मिलती। जैसे भी हो सीधे नीचे उतरना जरूरी है। ज़हाँ वे खड़े हैं वह पहाड़ी लुढ़कने वाले पत्थरों की है। एक पैर रखते ही दस पत्थर सरक जाते हैं। एक दूसरे को सावधान करते हुए सभी नीचे उतर रहे हैं हाथों से टटोलकर छः-छ: इंच नीचे। बीच में वर्षा और घटा। उनके प्राण और चेतना रीढ़ के नीचे सिमट आए हैं। सबसे आगे वाला सबसे अधिक खतरा महसूस करता है। आगे सीधी ढलान है। सबके दिल धड़क रहे हैं।

अचानक नीचे का पत्थर फिसलता है और सबसे नीचे वाला आदमी लुढ़कता हुआ नीचे समतल पर टिक जाता है। वह लोगों को पुकारकर कहता है-आजा आ। सभी लुढ़कते-रेंगते नीचे पहुँचते हैं। पता चलता है कि वह समतल जमीन नहीं ग्लेशियर की ठोस बर्फ है। मगर वह सीधी-समतल नहीं है। बरफ पर यहाँ-वहाँ नालियाँ बनी हैं। आसपास बरफ की चट्टानें हैं। उनके बीच बर्फ की गुफाएँ हैं। पैर फिसलन का अर्थ है-उस की गहराई में खो जाना। एक डेढ़ मील बरफ पर चलकर वे मिट्टी की जमीन पर आते हैं। पैर थक चुके हैं। रात उतर रही है और रात भर ग्लेशियर के पास रुका नहीं जा सकता।

यहाँ से लिद्दरवट का डाक बँगला आठ मील दूर है। घोड़ों पर सफर शुरू होता है। चार मील चलने के बाद ही अँधेरा हो जाता है। पास जो छोटी टार्च है। उसका सेल चुक जाता है। माचिस भी समाप्त हो जाती है। उस अँधेरे में घोड़ों पर बैठकर नीचे उतरना है। घोड़े वाला तीनों घोड़ों को सँभालकर आगे-आगे चल रहा है। एक तरफ ग्लेशियर से बहकर आता दरिया है, दूसरी तरफ पहाड़ी। अनेक झरने बहकर दरिया में मिलते हैं। पत्थरों पर पैर रखकर घुटने-घुटने पानी में उनको पार करना होता है। अँधेरा, पानी, कीचड़, पत्थर। एक घोड़े की टाँग टूट जाती है। घोड़े वाली उस लंगड़े घोड़े की लगाम थामकर आवाज देता चलता है-‘होशियार साहब होशियार। चले आओ साहब, शाबाश।’ सर्दी है, अँधेरा है और अपना होश नहीं। एक रोशनी देखकर आवाज देते हैं परन्तु उत्तर नहीं मिलता। बर्फ तेज होने लगती है। ‘शाबाश, साहब, शाबाश की आवाजें तेज होने लगती हैं। पत्थर, नाले, चट्टाने पार होती जाती हैं। जब घोड़ों की टापें लकड़ी के पुल पर सुनाई देती हैं तो जान में जान आती है। थके-हारे वे लिद्दरवट के डाक बंगले में पहुँच जाते हैं।

वहाँ पता चलता है कि वह अमावस की रात थी और डाक बंगले के लोगों ने उनके जीवित लौटने की आशा छोड़ दी थी। आग : हाथ तपाकर, चाय पीकर वे सो जाते हैं, सबेरे देर से उठते हैं और सरासर, मारसर की यात्रा पर जाने के बारे में सोचते हैं।

यायावर के लिए रात की घटना रोमांचक थी। अब नई पगडंडी उसके सामने है। कोई उससे पूछे-तू इतनी जोखिम उठाकर भी फिर से जोखिम भरे रास्ते पर क्यों चलना चाहता है, तो वह मुस्करा भर देगा। जिस दिन वह इसका उत्तर जान लेगा, उस दिन वह यायावर नहीं रहेगा।

शब्दार्थ-(पृष्ठ सं, 108)यायावर = घुमक्कड़। पगडंडी = पैदल चलने का रास्ता। गन्तव्य = जाने का स्थान। पुलक = रोमांच॥

(पृष्ठ सं. 109)
वाण्डर लस्ट = भटकने की लालसा। अस्थिर = चंचल। अस्फुट = अस्पष्ट। आल्हाद = प्रसन्नता। उन्माद = पागलपन। साक्षात्कार = भेट। चेतना = ज्ञानशक्ति। सिहर उठना = रोमांचित होना। अन्तर = मन। शोला = आग की लपट। संकरी = पतली। तांबई = तांबे के रंग का। द्रवित होना = पिघलना। कुंठा = गाँठ। मानदण्ड = नाप तोल; स्तर। आरोपित = थोपा गया।

(पृष्ठ सं. 110)-
नक्षत्र = तारे। खामोशी = शक्ति। झिलमिलाहट = रोशनी। तरंग = लहर। दरिया= नदी।

(पृष्ठसं. 111)
समतल = सपाट। ग्लेशियर = बर्फ का पर्वत। स्याह = काला। जबड़ा= दाँतों का समूह, मुँह। ओट = पीछे। स्तब्ध = गतिहीन।

(पृष्ठ सं. 112)
गौर से = ध्यानपूर्वक। चुकना = समाप्त होना। दियासलाई = माचिस। चट्टान = बड़ा पत्थर।

(पृष्ठ सं. 113)
टापें = घोड़े के खुर। बत्ती = रोशनी, दीपक। अन्तर्गत = अन्दर। जोखिम = संकट। बाज आना = बचना, रुकना।

महत्त्वपूर्ण गद्यांशों की सप्रसंग व्याख्याएँ

1. यायावर के जीवन का सबसे बड़ा सन्तोष या असन्तोष इसमें है कि उनका रास्ता कभी समाप्त नहीं होता। वह चाहे जितना भटक ले, नई अनजान पगडंडियों का मोह उसके दिल से कभी नहीं जाता। उत्तरी ध्रुव पर जाकर ये पगडण्डियाँ दक्षिणी ध्रुव की ओर जाती प्रतीत होती हैं और दक्षिणी ध्रुव पर जाकर भूमध्य-रेखा की ओर। और हर पगडंडी के झयें-बायें से जो छोटी पगडंडियाँ निकल जाती हैं, वे अलग। हर पगडण्डी का अपना आकर्षण होता है, यायावर कहाँ तक पैरों को रोके? और पगडंडियों के अतिरिक्त अनिश्चित गन्तव्य का भी तो आकर्षण रहता है। अनिश्चित की सम्भावना का हर क्षण जो पुलक देता है, वह बँधे जीवन को सम्पूर्ण निश्चिंतता कहाँ दे पाती है?

(पृष्ठसं. 108)
सन्दर्भ एवं प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘अपरा’ में संकलित ‘यात्रा का रोमांस’ शीर्षक यात्रावृत्तांत से लिया गया है। इसके रचयिता मोहन राकेश हैं।

मोहन राकेश ने घुमक्कड़ की मनोदशा का वर्णन किया है। घुमक्कड़ की पहचान यही है कि वह अनिश्चित और पूर्व अनिर्धारित लक्ष्य की ओर जाने की लालसा से भरा होता है।

व्याख्या-लेखक कहते हैं कि घुमक्कड़ निरन्तर भ्रमणशील रहता है। उसके रास्ते को कभी अन्त नहीं होता। रास्ते पर लगातार चलते रहना ही उसको संतोष अथवा असंतोष प्रदान करता है। वह इधर-उधर चाहे कितना ही घूम चुका हो परन्तु अनजान और नए-नए रास्ते उसे हमेशा आकर्षित करते हैं। वह उत्तरी ध्रुव की यात्रा पूरी कर लेता है तो दक्षिणी ध्रुव का रास्ता उसे बुलाता है और दक्षिणी ध्रुव पहुँचकर भूमध्य रेखा की ओर जाने की इच्छा उसको होती है। इस रास्तों के अतिरिक्त प्रत्येक रास्ते से दायें-बायें छोटे-छोटे रास्ते और भी निकलते हैं जिन पर वह चलना चाहता है। प्रत्येक मार्ग उसे अलग से आकर्षित करता है, घुमक्कड़ के पैर उन पर चलना चाहते हैं। वह उनको कहाँ तक रोके? इन मार्गों के अलावा अनिश्चित स्थान भी उसे अपनी ओर बुलाते हैं। कोई स्थान या वस्तु अनिश्चित है, उसको पाने की संभावना का हर क्षण रोमांच से भरा होता है। जो रोमांच अनिश्चित को पाने के प्रयास में है। वह एक पूर्व निश्चित बँधी-बँधाई जिन्दगी से प्राप्त नहीं हो सकता।

विशेष-
(i) लेखक ने जीवन में अनिश्चित लक्ष्य के आकर्षण की प्रबलता का उल्लेख किया है।
(ii) पर्यटक का पूर्व अनिश्चित पथ पर चलना आकर्षित करता है।
(iii) भाषा सरल और प्रवाहमयी है।
(iv) शैली विचार-विवेचनात्मक है।

2. यायावर जानता है, पर वह उसे नाम क्या दे? वह जानता है कि कुछ है जिसे न पाकर मन में असंतोष घिरा रहता है और जिसकी एक अस्फुट-सी झलक भी मन में आह्लाद और कभी-कभी उन्माद जगा देती है। ‘सौन्दर्य’ या कोई भी एक शब्द उसे ठीक से व्यक्त नहीं कर सकता। वह अस्पष्ट ‘कुछ’ यायावर के रास्ते में जहाँ-तहाँ बिखरा रहता है। यायावर उसे देखता ही नहीं, छूता भी है–और कई जगह सुनता और सँधता भी है। उसके, क्षणिक-से साक्षात्कार से ही चेतना सिहर उठती है और यदि साक्षात्कार गहरा हो, तो अन्तर में एक शोला-सा भड़क उठता है।

(पृष्ठ सं 109) –
सन्दर्भ एवं प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘अपरा’ में संकलित ‘यात्रा का रोमांस’ शीर्षक यात्रावृत्तांत से लिया गया है। इसके रचयिता मोहन राकेश हैं।

यायावर की मनोवृत्ति उसे निरन्तर नए और अनजान गंतव्य की ओर जाने को प्रेरित करती है। इस वृत्ति को कहने को वान्डर लस्ट कहा जा सकता है किन्तु वाण्डर लस्ट के पीछे जो वृत्ति है उसे क्या कहा जाय? यायावर के अस्थिर पैर क्या हूँढ़ना चाहते हैं?

व्याख्या-लेखक कहता है कि घुमक्कड़ यह तो जानता है कि उसके पैर निरन्तर अपरिचित पथ और लक्ष्य पर चलना चाहते हैं। वह यह नहीं जानता कि अपनी इस मनोवृत्ति को किस नाम से पुकारे? उसको पता है कि कोई ऐसी चीज है जिसको पाए बिना उसके मन को संतोष नहीं होता। उसकी एक अस्पष्ट-सी झलक उसके मन को प्रसन्नता से भर देती है और उसमें उन्मत्तता पैदा कर देती है। उसे भाव को सौन्दर्य अथवा एक शब्द से व्यक्त नहीं किया जा सकता। वह अस्पष्ट कुछ घुमक्कड़ व्यक्ति के मार्ग में जगह-जगह बिखरा पड़ा रहता है। घुमक्कड़ उसको देखता है, छूता भी है और कई जगह सुनता और पूँघता भी है। उसके साथ थोड़ी देर की भेंट से उसकी चेतना रोमांचित हो उठती है। यदि इस भेंट में गम्भीरता होती है तो घुमक्कड़ के मन में आग की लपट-सी उठने लगती है।

विशेष-
(i) लेखक ने घुमक्कड़ की निरन्तर अपरिचित पथ पर होकर अज्ञात गंतव्य की ओर जाने की मनोवृत्ति के बारे में बताया है।
(ii) भाषा सरल और विषयानुकूल है।
(iii) शैली विचारात्मक है।

3. यात्रा यायावर को जो तटस्थ दृष्टि देती है, वह रोज के द्वंद्वपूर्ण जीवन में रहकर प्राप्त नहीं होती। अपने जीवन के निकट वातावरण से हटकर, निजी परिस्थितियों के दबाव से मुक्त होकर, मन में कोई कुंठा नहीं रहती। नए वातावरण, नई परिस्थितियों और नए व्यक्तियों के साथ अधिक स्वस्थ और स्वाभाविक संबंध स्थापित हो सकता है। ऐसे में व्यक्ति अपनी आन्तरिक प्रकृति के अधिक अनुकूल होकर जी सकता है,-अधिक उन्मुक्त भाव से अपने को नए अनुभवों के बीच खुला छोड़ सकता है। उस खुलेपन से उसके नैतिकता के मानदण्ड बदल जाते हैं-वह एक आरोपित नैतिकता में न जीकर अपनी आन्तरिक नैतिकता के अनुसार जीने लगता है।

(पृष्ठसं.109)
सन्दर्भ एवं प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘अपरा’ में संकलित ‘यात्रा का रोमांस’ शीर्षक यात्रावृत्तांत से लिया गया है। इसके रचयिता मोहन राकेश हैं। रास्ता चलते यायावर की आँखें हर चीज को दृश्य रूप में देखती हैं। अपने को भी वह इसी दृश्य का एक अंग मानता है। वह प्रत्येक वस्तु को तटस्थ दृष्टि से देखता है। व्याख्या-लेखक कहता है.कि घुमक्कड़ को यात्रा के कारण संतुलित दृष्टि प्राप्त हो जाती है। दृष्टि का यह संतुलन प्रतिदिन के संघर्षपूर्ण जीवन में रहकर प्राप्त नहीं हो सकता। जीवन के निकट जो सामान्य वातावरण है उससे दूर होकर तथा निजी परिस्थितियों से बचकर मन में पूर्वाग्रह की गाँठ नहीं रहती। तब नए वातावरण में, नवीन स्थितियों में, नए लोगों के साथ अधिक स्वस्थ और स्वाभाविक सम्बन्ध बनते हैं। इस बदली स्थिति में मनुष्य अपने मन की प्रकृति के अनुकूल होकर जीवन व्यतीत कर सकता है। नए अनुभवों के बीच वह मुक्त भाव से अपने को खुला छोड़ सकता है। इसे खुले वातावरण से मन की नैतिकता की माप बदल जाती है। उसको समाज द्वारा बाहर आरोपित नैतिकता से मुक्ति मिल जाती है। वह अपने मन द्वारा स्वीकृत नैतिकता के अनुसार अपना जीवन बिताने लगता है।

विशेष-
(i) भाषा सरलं, विषयानुकूल और प्रवाहपूर्ण है। तत्सम शब्दों का प्रयोग है।
(ii) शैली विवेचनात्मक है।
(iii) यायावर को यात्रा से जो तटस्थ दृष्टि प्राप्त होती है, उसी का वर्णन किया गया है।

4. जिसकी मंजिल पहले से तय हो, वह यायावर नहीं है। यायावर का एकमात्र लक्ष्य है। अपने मन की तरंगों के अनुसार चलते चलना। वह जहाँ से गुजर जाए, वही उसका रास्ता है, और जहाँ पेड़ के तने से टेक लगा ले, वही उसकी मंजिल है। दिन-भर में उसे कितना रास्ता तय करना है, यह वह पहले से क्यों सोचे ? रात कहाँ बीतेगी, इसकी चिन्ता क्यों करे? जहाँ जाकर आगे चलने को मन हो, वहीं उसे रुक जाना है और रात उतर आने पर सोचना है कि रात कहाँ और कैसे बीत सकती है। जो पहले से सब कुछ तय करके चले, उसे मानना होगा कि उसे पथ पर विश्वास नहीं है। उसकी पथ के साथ मैत्री कैसे होगी? और जिसकी पथ के साथ मैत्री नहीं, वह यायावर कैसा ? गाना गा ?

(पलसं 110)
सन्दर्भ एवं प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘अपरा’ में संकलित ‘यात्रा का रोमांस’ शीर्षक यात्रावृत्तांत से लिया गया है। इसके रचयिता मोहन राकेश हैं। मनोविज्ञान का चित्रण करते हुए बताया है कि उसका लक्ष्य पूर्व निश्चित नहीं होता। उसके पैर नए-नए रास्तों से होकर किसी अज्ञात लक्ष्य की ओर जाने के लिए मचलते हैं।

व्याख्या-लेखकं कहता है कि घुमक्कड़ वह होता है जिसका गंतव्य पहले से निश्चित नहीं होता, जिस यात्री की मंजिल पूर्व निश्चित हो तो उसको घुमक्कड़ नहीं कहते। घुमक्कड़ अपने मन में उठने वाली इच्छाओं की लहरों के साथ चलता है। वह जिस मार्ग पर चले वही उसका मार्ग और जिस पेड़ के नीचे रुक जाए, वही उसका लक्ष्य होता है। वह पहले से नहीं सोचता कि दिनभर में उसे कितनी दूर तक जाना है। वह रात कहाँ बीतेगी, यह नहीं सोचता। जब उसकी इच्छा आगे यात्रा करने की न हो, वह वहीं रुक जाता है और रात होने पर सोचता है कि रात कहाँ और किस तरह बिताये। सब कुछ पहले से सोंचकर और तय करके चलने वाले को अपने मार्ग पर भरोसा नहीं होता। जिसको अपने मार्ग पर विश्वास नहीं होता वह मार्ग का मित्र नहीं होता, जिसकी मार्ग के साथ मित्रता नहीं होगी तो उसको घुमक्कड़ भी नहीं कहेंगे।

विशेष-
(i) भाषा सरल, प्रवाहपूर्ण तथा वय॑विषय के अनुकूल है।
(ii) शैली विचार-विवेचनात्मक है।
(iii) यायावर अर्थात् घुमक्कड़ को परिभाषित किया गया है।

5. आखिर हम लोग उस चोटी पर पहुँच जाते हैं जहाँ से झील दूसरी तरफ नीचे नजर आती है। झील का हरा-नीला पानी इतना खामोश और उजला है कि हमें भूल जाता है कि जितना रास्ता चलकर आए हैं, अब उतना ही रास्ता चलकर लौटकर भी जाना है। मैं पत्थरों से लुढ़कता हुआ नीचे झील के किनारे पहुँच जाता हूँ। एक पतला साँप झील के पानी में लकीर खींचता हुआ दूसरे किनारे की तरफ तैर जाता है। मैं झील के किनारे इस तरह टहलता हूँ जैसे वह सृष्टि के निर्माण का पहला क्षण हो-और मैं स्वयं सृष्टि का पहला आदमी, जिसकी आँखें पहली बार उसी क्षण कुछ भी देख सकने के लिए खुली हों। मैं कुछ शब्द बोलकर जैसे पहली बार अपने को अपनी बोल सकने की सामर्थ्य का विश्वास दिलाता हूँ।

(पृष्ठसं. 111)
सन्दर्भ एवं प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘अपरा’ में संकलित ‘यात्रा का रोमांस’ शीर्षक यात्रावृत्तांत से लिया गया। है। इसके रचयिता मोहन राकेश हैं।

लेखक लिद्दरवट के डाक बंगले से ‘दूधसर’ नामक झील देखने चला। अनेक पर्वत चोटियों के पार बहुत ऊपर यह झील स्थित थी। व्याख्या-लेखक कहता है कि अन्त में वह और उसके साथी पर्वत चोटी पर चढ़ने में कामयाब हुए। उसके चोटी के दूसरी ओर नीचे वह झील दिखाई दे रही थी। झील का पानी हरे-नीले रंग का था। वह अत्यन्त साफ और शान्त था। उसको देखकर लेखक विभोर हो उठा। उसे यह ध्यान ही नहीं रहा कि जिस रास्ते से वे आए हैं उसी से लौटकर भी जाना है। लेखक पत्थरों पर फिसलता-लुढ़कता नीचे झील के किनारे पहुँच गया। एक पतला साँप झील के पानी में लकीर बनाता हुए उसके दूसरे किनारे तक तैर कर चला गया। लेखक झील के किनारे टहलने लगा। उसको ऐस लगा जैसे कि सृष्टि का निर्माण अभी-अभी हुआ है और वह सृष्टि का पहला आदमी है। उसकी आँखें पहली बार उसी समय उस सुन्दर दृश्य को देखने को खुली हैं। वह कुछ बोलता है जैसे कि पहली बार अपने बोलने की शक्ति का विश्वास अपने आप को दिला रहा हो।

विशेष-
(i) भाषा विषयानुकूल, सरल तथा प्रवाहपूर्ण है।
(ii) शैली वर्णनात्मक है।
(ii) दूधसर झील के तट पर लेखक के पहुँचने तथा उसको होने वाले अनुभव का चित्रण हुआ है।

6. अब हम चार व्यक्ति नहीं चार बिन्दु हैं-एक-दूसरे से अलग-जो पत्थरों पर धीरे-धीरे नीचे को सरक रहे हैं। हर आदमी दूसरे को सावधान कर रहा है-“आराम से ……………………………. आराम से।” कहीं से एक भी पत्थर फिसलता है तो हम चारों अपनी-अपनी जगह स्तब्ध हो रहते हैं। तब तक जरा भी आवाज सुनाई देती है, हम अपनी जगह से नहीं हिलते। फिर एक नए सिरे से कोई कहता है, “आराम से ……………………………..” और हम हाथों से टटोल-टटोलकर छह-छह इंच नीचे को सरकने लगते हैं।

(पृष्ठसं. 111,112)
सन्दर्भ एवं प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘अपरा’ में संकलित ‘यात्रा का रोमांस’ शीर्षक यात्रावृत्तांत से लिया गया है। इसके रचयिता मोहन राकेश हैं।

‘दूधसर’ झीन की यात्रा करने के पश्चात् लेखक अपने साथियों के साथ लिद्दरवट डॉक-बंगले की ओर चले। मार्ग में वर्षा होने के कारण फिसलन हो गई थी और जिस रास्ते वे लोग आये थे उस रास्ते से लौटना संभव नहीं था। घोड़े वाले को विश्वास था कि वह दूसरे रास्ते से उनको सुरक्षित पहुँचा देगा परन्तु नए रास्ते पर कुछ दूर चलने के बाद ही उसकी लकीर भी नहीं मिल रही थी।

व्याख्या-लेखक कहता है कि वह जिस पहाड़ी पर से उतर रहे थे, उसके पत्थर लुढ़कने वाले थे। ऐसा लग रहा था कि उनको साथ लेकर पूरी पहाड़ी नीचे लुढ़क जायेगी। उस पहाड़ी से नीचे उतरने वाले चार लोग व्यक्ति नहीं थे। वे केवल चार बिन्दु थे, वे एक दूसरे से अलगं धीरे-धीरे पत्थरों पर नीचे सरक रहे थे। प्रत्येक आदमी दूसरे को सावधान करने के लिए पुकार रहा था-आराम से-आराम से! कहीं से एक भी पत्थर सरकता था कि वे चारों अपने-अपने स्थानों पर स्पंदनहीन और गतिहीन हो जाते थे। वे अपने स्थानों पर उस समय तक शांत और स्थिर बने रहते थे जब तक कि कोई भी आवाज सुनाई देती थी। पत्थरों के लुढ़कने की आवाज बन्द होने पर कोई कहता-आराम से। और सरकने लगते थे।

विशेष-
(i) ‘दूधसर’ झील से लौटने का वर्णन है।
(ii) लेखक और उसके साथी हाथों के सहारे बड़ी सावधानी के साथ पथरीली पहाड़ी से नीचे उतर रहे थे।
(iii) भाषा:विषयानुरूप, प्रवाहपूर्ण तथा सरल है॥
(iv) शैली वर्णनात्मक तथा सजीव है।

7. एक तरफ ग्लेशियर से बहकर आता दरिया है, दूसरी तरफ पहाड़ी जिससे कई-कई झरने बहकर दरिया की तरफ आते हैं। जगह-जगह पत्थरों पर पैर रख-रखकर या घुटने-घुटने पानी में जाकर उन झरनों को पार करना होता है। जो छोटी-सी टार्च हमारे पास है, उसका सैल भी थोड़ी देर में चुक जाता है। दियासलाइयाँ भी खत्म हो जाती हैं। अब अंधेरा है, पानी है, पत्थर है, कीचड़ है और हम लोग हैं। एक जगह चट्टान से नीचे उछलते हुए एक घोड़े की टाँग टूट जाती है। घोड़े वाला, लँगड़ाते घोड़े की लगाम थाम लेता है और आजाव देता जाता है, “होशियार साहब, होशियार! चले आओ साहब, शाबाश!” और कहीं पत्थरों से छिलते तथा कहीं कीचड़ में धप्प-धप्प करते हम लोग चले चलते हैं। अब हमें अँधरे का होश नहीं है। सर्दी का होश नहीं है। अपना भी होश नहीं है। होश है तो इतना कि लिद्दरवट अभी दूर है और हमें जैसे-तैसे चलते जाना है।

(पृष्ठसं. 112,113)
सन्दर्भ एवं प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘अपरा’ में संकलित ‘यात्रा का रोमांस’ शीर्षक यात्रावृत्तांत से लिया गया है। इसके रचयिता मोहन राकेश हैं।
सरकते पत्थरों वाली पहाड़ी से उतरकर लेखक ने ग्लेशियर को पार किया और उसके पश्चात् उनका सफर घोड़ों पर शुरू हुआ। अभी वे चार मील ही चले होंगे कि अँधेरा हो गया। उस अँधरे में घोड़े वाला तीन घोड़ों तथा उन पर सवार लोगों को संभालकर आगे-आगे चल रहा था।

व्याख्या-लेखक कहता है कि ग्लेशियर से आगे का रास्ता अँधेरा और खतरनाक था। रास्ते के एक तरफ पहाड़ी थी तथा दूसरी तरफ ग्लेशियर से बहकर आने वाली नदी थी। पहाड़ी से गिरने वाले झरने रास्ते को पारकर नदी में मिलते थे। संख्या में वे अनेक थे। पत्थरों पर पैर रखकर तथा घुटने-घुटने पानी में इन झरनों को पार करना होता था, लेखक के पास एक छोटी टार्च थी। उसका सैल समाप्त हो चुका था। माचिस भी समाप्त हो गई थी। अब अंधेरा, कीचड़, पानी और पत्थरों के बीच लेखक अपने साथियों के साथ फंसा था। एक स्थान पर एक चट्टान से नीचे उछलते घोड़े की टाँग टूट गई थी। घोड़ेवाले ने उसको सँभाला और लेखक के साथियों को सावधान करते हुए चलने लगा। वह कह रहा था-होशियार साहब, होशियार। चले आओ साहब शाबास तब कहीं पत्थरों की रगड़ खाते, कहीं कीचड़ में सुनकर उसमें पैरों से धप्प-धप्प करते वे लोग चल रहे थे। उनको न अँधेरे का ख्याल था, न सर्दी का होश था। यहाँ तक कि अपना भी होश नहीं था। उनके ध्यान में एक ही बात थी कि लिदवट दूर था और उनको निरन्तर चलते रहना था।

विशेष-
(i) ग्लेशियर से आगे की कठिन यात्रा का सजीव चित्रण है।
(ii) मार्ग कठिनाइयों और अंधेरे से भरा था तथा डाक-बंगले तक का सफर जोखिम से भरा था।
(iii) भाषा सरल और प्रवाहपूर्ण है।
(iv) शैली वर्णनात्मक है। यक है।

8. अब यायावर फिर दर्शक है। जो गुजर चुका है, वह उसके लिए दृश्य है-उस दृश्य के अंतर्गत अपना-आप भी। कल रात तक जो एक दुर्घटना थी, वह अब उसके लिए एक रोमांचक घटना है। अब नई पगडंडी उसके सामने है। उससे पूछा जाए कि कमबख्त, तू इतनी जोखिम उठाकर भी जोखिम के रास्ते पर चलने से बाज क्यों नहीं आता, तो वह सिर्फ मुस्करा देगा, क्योंकि जिस दिन वह जान लेगा, उस दिन वह यायावर नहीं रहेगा।

(पृष्ठसं. 113)
सन्दर्भ एवं प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘अपरा’ में संकलित यात्रा का रोमांस’ शीर्षक यात्रावृत्तांते से लिया गया है। इसके रचयिता मोहन राकेश हैं।

रात की संकटपूर्ण यात्रा के बाद लेखक प्रात: देर से सोकर उठ पाया। वह अपने साथियों से पूछने लगा कि सरासर मारसर की यात्रा के लिए अभी चलना चाहिए या कुछ दिन बाद। व्याख्या-लेखक कहता है कि ‘दूधसर’ झील से लिद्दरवट डाक-बंगले तक की कठिनाइयों भरी यात्रा के पश्चात् लेखक अर्थात् घुमक्कड़ की स्थिति फिर एक दर्शक जैसी हो जाती है। जो घटनाएँ बीत चुकी हैं वे उसके लिए एक दृश्य हैं। उस दृश्य के अन्दर वह स्वयं भी एक दृश्य ही है। पिछली रात तक जिसको वह दुर्घटना मान रहा था, अब वह एक रोमांचक घटना बन चुकी है। उससे डरकर वह आगे की यात्रा नहीं रोकेगा। एक नया सँकरा रास्ता उसको बुला रहा है वह जायेगा। यदि कोई उससे पूछे कि इतनी जोखिम उठाने के बाद फिर से जोखिम भरे सफर पर जाने में क्या बुद्धिमानी है? वह इससे विरत क्यों नहीं होता। तो वह जान जायेगा कि उसे जोखिम से बचना चाहिए, उस दिन के बाद वह घुमक्कड़ नहीं रहेगा।

विशेष-
(i) जोखिमपूर्ण मार्गों पर चलना और यात्रा में जोखिम उठाना घुमक्कड़ को अच्छा लगता है। इसे बचने की बात सोचने वाला घुमक्कड़ी नहीं कर सकता।
(ii) भाषा सरल, विषयानुकूल और प्रवाहपूर्ण है।
(iii) शैली वर्णनात्मक और संवादात्मक है।

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