Rajasthan Board RBSE Class 11 Hindi अपरा Chapter 20 धरा और पर्यावरण
RBSE Class 11 Hindi अपरा Chapter 20 पाठ्यपुस्तक के प्रश्नोत्तर
RBSE Class 11 Hindi अपरा Chapter 20 वस्तुनिष्ठ प्रश्न
प्रश्न 1.
पर्यावरण के प्रति अमेरिकी दृष्टि क्या है?
(क) भोगवादी
(ख) संतुलित उपभोग
(ग) पृथ्वी माता के समान है
(घ) प्रकृति चेतन है।
उत्तर:
(क) भोगवादी
प्रश्न 2.
जी-सेवन’ में किस प्रकार के राष्ट्र हैं –
(क) प्रगतिशील
(ख) पिछड़े।
(ग) विकासशील
(घ) विकसित
उत्तर:
(घ) विकसित
RBSE Class 11 Hindi अपरा Chapter 20 अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
भारत में पृथ्वी को क्या माना गया है?
उत्तर:
भारत में पृथ्वी को माता माना गया है।
प्रश्न 2.
दुनिया के कितने प्रतिशत संसाधनों का उपयोग अमेरिका करता है?
उत्तर:
अमेरिका दुनिया के 40 प्रतिशत संसाधनों का उपयोग करता है।
प्रश्न 3.
भूमि बंजर क्यों होती है?
उत्तर:
अधिक गहराई तक जोतने तथा रासायनिक खादों के प्रयोग से भूमि बंजर होती है।
प्रश्न 4.
किस वैज्ञानिक ने प्राकृतिक पदार्थों को भी सजीव माना है ?
उत्तर:
जगदीश चन्द्र वसु ने प्राकृतिक पदार्थों को भी सजीव माना है।
प्रश्न 5.
केंचुए क्या काम करते हैं?
उत्तर:
केंचुए जमीन को पोली करके उसको उर्वरा बनाते हैं।
RBSE Class 11 Hindi अपरा Chapter 20 लघूत्तरात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
भारतीय समाज में प्रकृति के प्रति आस्था के कुछ उदाहरण बताइए।
उत्तर:
भारतीय समाज में प्रकृति के प्रति आस्था है। कुछ उदाहरण ये हैं-गंगा आदि नदियों तथा तुलसी को माता मानना, पीपल की पूजा करना, चिड़ियों तथा चींटियों को भोजन देना, पेड़-पौधों की सुरक्षा तथा पोषण करना इत्यादि।
प्रश्न 2.
अमेरिका में भूमि बंजर क्यों होती जा रही है?
उत्तर:
अमेरिका में खेती मशीनों से होती है, जिससे गहराई तक भूमि को खोदा जाता है। इससे जमीन को उपजाऊ बनाने वाले केंचुए मर जाते हैं। रासायनिक खादों का अन्धाधुन्ध प्रयोग भी अमेरिका की भूमि को बंजर बना रहा है।
प्रश्न 3.
प्राकृतिक संसाधनों के प्रति पश्चिमी देशों की क्या अवधारणा है?
उत्तर:
पश्चिमी देश मानते हैं कि प्राकृतिक संसाधन मानव उपभोग के लिए हैं। वे निर्जीव हैं तथा उनका किसी भी हद तक शोषण किया जा सकता है।
प्रश्न 4.
खेती में रासायनिक द्रव्यों के उपयोग से क्या हानियाँ हैं ?
उत्तर:
खेती में रासायनिक द्रव्यों का प्रयोग भूमि की उर्वरा शक्ति को घटाता है। रासायनिक खादों के प्रयोग से उपज की मात्रा बढ़ जाती है और वस्तु आकार में बड़ी हो जाती है। परन्तु उसमें निहित पोषक तत्व कमजोर हो जाते हैं।
प्रश्न 5.
भारत की मिट्टी में उर्वरा शक्ति बढ़ने को क्या कारण है?
उत्तर:
भारत में जमीन हल से जोती जाती है। जिससे छ: इंच गहरी खुदाई होती है। इससे केंचुए जमीन के भीतर चले जाते हैं और उसको पोली कर देते हैं। भारतीय खाद भी हानिकारक नहीं होती। उससे जमीन की उर्वराशक्ति बनी रहती है।
RBSE Class 11 Hindi अपरा Chapter 20 निबन्धात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
विश्व में प्राकृतिक संसाधनों के घटने के मुख्य कारणों पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
विश्व में प्राकृतिक संसाधनों के घटने के लिए निम्नलिखित कारण जिम्मेदार हैं
- पश्चिमी देश प्रकृति को निर्जीव तथा मनुष्य के असीमित उपयोग की वस्तु मानते हैं। वे प्राकृतिक संसाधनों को अमर्यादित दोहन करते हैं। प्रकृति की वस्तुओं की एक सीमा है। उसको दुरुपयोग तथा सीमा से अधिक उपयोग प्राकृतिक संसाधनों में कमी लाता है।
- पश्चिमी देशों में उत्पादन के लिए उद्योगों में विशाल मशीनों का प्रयोग होता है। उनको कच्चा माल भी भारी मात्रा में चाहिए। इस कारण वनों, नदियों तथा अन्य प्राकृतिक साधनों का असीमित और अनियंत्रित दोहन होता है।
- प्राकृतिक पदार्थों के उत्पादन की एक सीमा होती है तथा उसमें आवश्यक समय लगता है। जब उद्योगों को कच्चे माल की जरूरत होती है तो वह प्रकृति द्वारा उत्पन्न चीजों से बहुत अधिक होता है।
- पश्चिमी देशों में खेती भी एक उद्योग है। वहाँ बड़ी मशीनों तथा रासायनिक द्रव्यों की सहायता से खेती की जाती है। इससे भूमि की उर्वरा शक्ति घट जाती है। ट्रेक्टरों से जुताई के कारण केंचुए मर जाते हैं। धीरे-धीरे उपज घटती जाती है।
प्रश्न 2.
प्राकृतिक संसाधनों के अत्यधिक दोहन से होने वाली हानियाँ बताइए।
उत्तर:
प्राकृतिक संसाधन एक सीमा के अन्तर्गत ही प्राप्त होते हैं। उनका अत्यधिक दोहन हानिकारक होता है। प्राकृतिक संसाधनों के अत्यधिक दोहन से उनकी संख्या घट जाती है। उद्योगों को कच्चे माल की जरूरत पूरी नहीं हो पाती। नदियों में जल तथा वनों में वृक्षों तथा उनसे प्राप्त वस्तुएँ कम हो जाती हैं। प्राकृतिक संसाधनों में कमी आना स्वाभाविक है। आवश्यकता के अनुसार जल, वन्य उत्पादन आदि प्राप्त नहीं होते हैं। जल तथा वायु प्रदूषण बढ़ जाता है।
वृक्षों के कटने से प्राणवायु की भी कमी हो जाती है। भूमि बंजर होने से कृषि उपज घटती है। तथा उद्योगों में भी उत्पादन कम होने लगता है। लोगों का, स्वास्थ्य खराब हो जाता है तथा उनको अनेक गम्भीर रोग कैंसर इत्यादि घेर लेते हैं। मनुष्य को जीवन प्रकृति के अनुकूल नहीं रहता तथा वह बनावटी और अप्राकृतिक हो जाता है। पर्यावरण प्रदूषण की विकट समस्या उत्पन्न हो जाती है। इससे मानव जीवन ही संकट में पड़ जाता है।
प्रश्न 3.
प्रकृति के प्रति भारतीय चिन्तनधारा पर एक टिप्पणी लिखिए। ..
उत्तर:
भारत में पृथ्वी को माता माना जाता है। पृथ्वी ही नहीं नदियों को माता के समान सम्मान दिया जाता है। भारत गंगा को माता कहते हैं, तुलसी को भी माता कहते हैं। वृक्षों को पूजनीय मानते हैं। पीपल की पूजा की जाती है। पेड़-पौधों को सजीव प्राणी मानते हैं। प्रकृति की प्रत्येक वस्तु तथा जीव-जन्तु का ध्यान रखा जाता है। भारत में चिड़ियों और कबूतरों को दाना चुगाते हैं। भारतीय मानते हैं कि प्रकृति सजीव है। वे उसकी सुरक्षा तथा सम्मान का ध्यान रखते हैं।
प्रकृति से उत्पन्न तथा सम्बन्धित प्रत्येक जीव तथा वस्तु संसार में निष्प्रयोजन नहीं है। इस प्रयोजन को जानना तथा सम्पूर्ण विश्व की रचना में उसका स्थान तथा महत्व पहचानना तथा उसको बनाये रखना प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य है। तभी प्रकृति के साथ सामंजस्य बना रह सकता है। इसको भारतीय विचार के अनुसार धर्म कहा जाता है। प्राचीनकाल से ही भारत में प्रकृति से मिलकर चलने की अवधारणा रही है। प्रकृति के नियमों के अनुरूप ही विकास पथ निश्चित किया जाता है, तभी पर्यावरण संकट से भी रक्षा रहती है। भारत में प्रकृति के विपरीत चलना उचित नहीं माना जाता। इस कारणं प्रकृति तथा उससे जुड़ी वस्तुओं के प्रति पूज्य भाव भारत के लोगों में है तथा वे प्रकृति को माता मानते हैं।
RBSE Class 11 Hindi अपरा Chapter 20 अन्य महत्त्वपूर्ण प्रश्नोत्तर
RBSE Class 11 Hindi अपरा Chapter 20 वस्तुनिष्ठ प्रश्न
प्रश्न 1.
भारतीय मन नदियों के प्रति भावना रखता है –
(क) माता
(ख) पिता
(ग) भोग्या
(घ) दासी
उत्तर:
(क) माता
प्रश्न 2.
प्राचीनकाल से भारत में अवधारणा है –
(क) प्रकृति के शोषण की
(ख) प्रकृति से मेलजोल की
(ग) प्रकृति को निर्जीव मानने की
(घ) प्रकृति को उपभोग की वस्तु मानने की
उत्तर:
(ख) प्रकृति से मेलजोल की
प्रश्न 3.
‘जी सेवन’ देशों की जनसंख्या है, विश्व की जनसंख्या की
(क) 18 प्रतिशत
(ख) 15 प्रतिशत
(ग) 11 प्रतिशत
(घ) 10 प्रतिशत।
उत्तर:
(ग) 11 प्रतिशत
प्रश्न 4.
‘पेड़ पौधों में जीवन है-यह खोज करने वाले वैज्ञानिक हैं
(क) न्यूटन
(ख) डार्विन
(ग) जगदीश चन्द्र वसु
(घ) आइंस्टाइन।
उत्तर:
(ग) जगदीश चन्द्र वसु
प्रश्न 5.
हमारे देश में वनभूमि है।
(क) 11 प्रतिशत
(ख) 12 प्रतिशत
(ग) 20 प्रतिशत
(घ) 18 प्रतिशत
उत्तर:
(क) 11 प्रतिशत
RBSE Class 11 Hindi अपरा Chapter 20 अतिलघूत्तरात्मकः प्रश्न
प्रश्न 1.
‘माता भूमि पुत्रोऽहम् पृथिव्या’ का क्या अर्थ है?
उत्तर:
इसका अर्थ है कि पृथ्वी माता है और मैं उसका पुत्र हूँ।
प्रश्न 2.
कबूतरों और चिड़ियों को दाना चुगाने और चींटियों को आटा देने के पीछे क्या भव है?
उत्तर:
भाव यह है कि ये भी जीव हैं तथा संसार में इनके जीवन की आवश्यकता, महत्व तथा उद्देश्य हैं।
प्रश्न 3.
भारत में प्रकृति के साथ किस प्रकार के व्यवहार की शिक्षा दी गई है?
उत्तर:
भारत में सिखाया जाता है कि प्रकृति सजीव है तथा उसके साथ सामंजस्यपूर्ण व्यवहार करना चाहिए।
प्रश्न 4.
धरती को माता क्यों कहा जाता है?
उत्तर:
धरती धारण करती है अतः वह माता कहलाती हैं।
प्रश्न 5.
मनुष्य का अस्तित्व किस पर निर्भर है?
उत्तर:
मनुष्य का अस्तित्व पृथ्वी तथा प्रकृति पर निर्भर है।
प्रश्न 6.
प्रकृति पर संकट आने का क्या आशय है?
उत्तर:
पर्यावरण प्रदूषित होना, ऋतुचक्र बदलना, भूमण्डल पर तापमान बढ़ना आदि प्रकृति पर संकट आने के चिह्न हैं।
प्रश्न 7.
प्रकृति पर आए संकट के लिए कौन उत्तरदायी हैं ?
उत्तर:
प्रकृति पर आए संकट के लिए अमेरिका, जी सेवेन देश तथा अन्य विकसित देश जिम्मेदार हैं।
प्रश्न 8.
अमेरिका की आबादी विश्व की आबादी में कितने प्रतिशत है तथा वह कितने संसाधनों का इस्तेमाल करता है?
उत्तर:
अमेरिका की आबादी विश्व की आबादी की 5’प्रतिशत है और वह संसार के कुल संसाधनों का 40 प्रतिशत प्रयोग करता है।
प्रश्न 9.
पर्यावरण प्रदूषण के लिए विकसित देश किनको दोषी ठहराते हैं तथा क्यों?
उत्तर:
पर्यावरण प्रदूषण का दोष विकसित देश विकासशील देशों पर लगाते हैं क्योंकि वे उनके संसाधनों पर कब्जा करना चाहते हैं।
प्रश्न 10.
प्रकृति के बारे में पश्चिम की दृष्टि कैसी है ?
उत्तर:
पश्चिम की दृष्टि उपभोक्तावादी है। प्रकृति उनके लिए उपयोग की वस्तु है।
प्रश्न 11.
अगले 50 सालों में अमेरिका मरुस्थल क्यों हों जायेगा? .
उत्तर:
अमेरिका में खेती में रासायनिक खादों का प्रयोग होता है। यह अगर जारी रहा तो आगामी 50 सालों में अमेरिका मरुस्थल में बदल जायेगा।
प्रश्न 12.
पश्चिम की विकास की अवधारणा वैया है?
उत्तर:
पश्चिम की विकास की अवधारणा में खनिजों और तेल का दोहन, जंगलों की कटाई, विशाल उद्योगों की स्थापना, मशीनों का प्रयोग और खेती में रासायनिक खाद का प्रयोग आदि बातें शामिल हैं।
प्रश्न 13.
रासायनिक द्रव्यों के प्रयोग के क्या दुष्परिणाम हो रहे हैं?
उत्तर:
रासायनिक द्रव्यों के प्रयोग के कारण लोगे का स्वास्थ्य बिगड़ रहा है। उनके शरीर में अनके प्रकार के नए रोग कैंसर आदि उत्पन्न हो रहे हैं।
प्रश्न 14.
केंचुओं का कृषि भूमि में क्या महत्व है ?
उत्तर:
केंचुए पृथ्वी को पोलीं करते हैं जिससे उसमें प्राणवायु का प्रवेश सरलता से हो जाता है। इस प्रकार भूमि की उर्वरा शक्ति बढ़ती है।
प्रश्न 15.
स्वतंत्रता के समय भारत में कितने भू-भाग में जंगल थे?
उत्तर:
स्वतंत्रता के समय भारत के 22 प्रतिशत भू-भाग में जंगल थे।
प्रश्न 16.
फ्रांसिस बेकन के प्रकृति के बारे में क्या विचार थे?
उत्तर:
फ्रांसिस बेकन का मानना था कि प्रकृति की सभी वस्तुएँ जड़ हैं। उनका उपयोग मनुष्य के लिए होना चाहिए।
प्रश्न 17.
प्रकृति के भण्डार का असीमित उपभोग क्यों संभव नहीं है?
उत्तर:
प्रकृति का भण्डार सीमित है। असीमित उपभोग से वह शीघ्र ही समाप्त हो जायेगा।
प्रश्न 18.
प्रकृति से खिलवाड़ करने के क्या दो दुष्परिणाम दिखाई देने लगे हैं?
उत्तर:
प्रकृति से खिलवाड़ करने के दुष्परिणाम ये हैं –
- धरती को वायुमण्डल गरम हो रहा है।
- प्राणवायु कम हो रही है।
प्रश्न 19.
‘तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा’ का क्या अर्थ है?
उत्तर:
इसका अर्थ यह है कि त्यागपूर्वक भोग करो अर्थात् उपभोग्य वस्तु का कुछ भाग दूसरों के हित में त्याग कर ही उसका भोग करना चाहिए।
प्रश्न 20.
विकास के लिए विश्व के सामने कौन-सा मार्गदर्शक सिद्धान्त रखा जाना चाहिए ?
उत्तर:
प्रकृति के साथ सामंजस्य रखते हुए विकास करना ठीक है, प्रकृति को क्षति पहुँचाकर नहीं। यह भारतीय सिद्धान्त विश्व के सामने रखा जाना चाहिए।
RBSE Class 11 Hindi अपरा Chapter 20 लघूत्तरात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
‘जब हम अपनी रक्षा की बात करते हैं तो इन सबकी रक्षा होनी चाहिए।’ इस कथन का आशय स्पष्ट करिये।
उत्तर:
मनुष्य को इस पृथ्वी से तथा उस पर उगी हुई वनस्पतियों और पशु-पक्षियों से पोषण प्राप्त होता है। मनुष्य जब अपनी रक्षा की बात करता है तो उसके साथ ही इनकी रक्षा भी होनी चाहिए। यदि ये नष्ट हो जायेंगी तो मनुष्य को पोषण किससे प्राप्त होगा?
प्रश्न 2.
पश्चिम की उपभोगवादी दृष्टि क्या है?
उत्तर:
पश्चिम उपभोग में विश्वास करता है। उसकी दृष्टि में प्रकृति निर्जीव है। अत: अपने उपभोग के लिए उसका शोषण करना अनुचित नहीं है। प्रकृति की प्रत्येक वस्तु मनुष्य को सुख देने के लिए है अत: उसका उपयोग करना बुरा नहीं है।
प्रश्न 3.
पश्चिम की अवधारणा का क्या दुष्परिणाम दिखाई दे रहा है?
उत्तर:
आज प्रकृति के संसाधनों का अमर्यादित दोहन हो रहा है। खनिज पदार्थ, तेल आदि असीमित मात्रा में निकाले जा रहे हैं। जंगल काटे जा रहे हैं। उनकी भूमि और उत्पादन का उपयोग बड़े कारखानों में हो रहा है। विशाल मशीनें बन रही हैं। बड़े भूभाग पर मशीनों तथा रासायनिक खाद की मदद से खेती हो रही है। यह पश्चिम की अवधारणा का ही दुष्परिणाम है।
प्रश्न 4.
‘हम भी बड़े उत्साह से उसी ओर बढ़ रहे हैं’-कौन किस ओर बढ़ रहा है?
उत्तर:
विकासशील देश, जिनमें भारत भी एक है, विकास की दिशा में बढ़ रहे हैं। विकास का सिद्धान्त वही है जो पश्चिमी देशों में मान्य है। प्रकृति के अमर्यादित दोहन तथा संसाधनों के असीमित उपभोग द्वारा विकास करने की ओर विकासशील देश भी बढ़ रहे हैं।
प्रश्न 5.
सायनिक खाद के प्रयोग से क्या लाभ तथा हानि हैं?
उत्तर:
संवनिक खाद के प्रयोग से खेत में पैदा होने वाली वस्तु आकार में बड़ी हो जाती है तथा पैदावार की मात्रा बढ़ जाती है परन्तु उसकी पोषण क्षमता कम हो जाती है। इन वस्तुओं के प्रयोग से शरीर में अनेक प्रकार के नए-नए कैंसर जैसे मारक रोग उत्पन्न हो जाते हैं।
प्रश्न 6.
विकास की अवधारणा को जंगलों पर क्या प्रभाव हुआ है?
उत्तर:
विकास के लिए जो उद्योग लगाये जाते हैं, उनके लिए भूमि जंगलों को काट कर प्राप्त की जाती है। कच्चा माल भी जंगलों से ही मिलता है। अमेरिका तथा योरोप के देशों में जंगल पूरी तरह नष्ट हो गए हैं। भारत में स्वतंत्रता के समय 22 प्रतिशत वन थे जो अब घट कर 11 प्रतिशत रह गए हैं।
प्रश्न 7.
पेड़-पौधों के नष्ट होने का क्या परिणाम हो गया?
उत्तर:
पेड़-पौधों के नष्ट होने का परिणाम यह होगा कि पृथ्वी के वायुमण्डल का ताप बढ़ जायेगा। इससे ऋतुचक्र बिगड़ जायेगा। प्राणवायु कम हो जायेगी। इतना ही नहीं भूकम्प और बाढ़ों से भीषण विनाश होगा अथवा और भी भयंकर परिणाम हो सकता है।
प्रश्न 8.
पश्चिम के वैज्ञानिकों का प्रकृति के सम्बन्ध में क्या मत है?
उत्तर:
फ्रांसिस बेकन प्रकृति को जड़ मानता था। उसके अनुसार प्रकृति की सभी वस्तुओं का उपयोग मनुष्य के लिए होना चाहिए। देकार्ते भी प्रकृति को जड़ मानकर मशीन के पुर्जे के समान उसका टुकड़ों-टुकड़ों में विचार करने को कहता था। न्यूटन तक यही विचार चलता रहा।
प्रश्न 9.
आइंस्टाइन का प्रकृति के बारे में क्या मानना था?
उत्तर:
वैज्ञानिक आइंस्टाइन ने भारतीय दर्शन का अध्ययन किया था। अत: उसका मत पूर्ववर्ती वैज्ञानिकों से अलग था। वह सारी पृथ्वी को जड़ नहीं मानते थे। उनके अनुसार मनुष्य सम्पूर्ण ब्रह्मांड की एक अंश है। उन्होंने समग्रता से विचार करने की बात कही। सूक्ष्म परमाणु विकास मूलत: भारतीय अवधारणा है और आइंस्टाइन पर भारतीय दर्शन का प्रभाव है।
प्रश्न 10.
प्रकृति के भण्डार से मनुष्य को कितना ग्रहण करना चाहिए? भारतीय चिन्तन इस बारे में क्या कहता है?
उत्तर:
प्रकृति को भण्डार असीमित है और उसका असीमित उपभोग हो सकता है, यह विचार पाश्चात्य है। भारतीय चिन्तन कहता है कि प्रकृति का भण्डार असीमित नहीं है, सीमित है। उससे अपनी वास्तविक आवश्यकता की पूर्ति के लिए ही लेना चाहिए। अवास्तविक आवश्यकताओं की पूर्ति करेंगे तो प्रकृति का शोषण होगा।
प्रश्न 11.
हम विकास की दिशा में किस प्रकार आगे बढ़ सकते हैं?
उत्तर:
हम भारत की प्राचीन दृष्टि को अपनाकर विकास की दिशा में सफलतापूर्वक आगे बढ़ सकते हैं। प्रकृति को माता मानकर उसका दूध पीना ही ठीक है। हमें प्रकृति के साधनों का उपयोग संयमपूर्वक करना चाहिए। विकास के लिए पश्चिम की प्रकृति के शोषण की सोच ठीक नहीं है।
प्रश्न 12.
भारत संसार को विकास का कौन-सा पथ दिखा सकता है?
उत्तर:
संसार के सभी देश विकास करना चाहते हैं। भारत उनको अपना दृष्टिकोण समझा सकता है। वह उनको बता सकता है। कि प्रकृति को क्षति पहुँचाये बिना उसके संसाधनों का संयमित उपभोग करना विकास का सही मार्ग है।
RBSE Class 11 Hindi अपरा Chapter 20 निबन्धात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
“भारतीय मन प्रकृति को और नदियों को भी मातृस्वरूप में ही दर्शन करता है।” उपर्युक्त कथन का आशय प्रकट कीजिए।
उत्तर:
भारतीय दर्शन के अनुसार मनुष्य का धरती के साथ माता और पुत्र का सम्बन्ध है। यह सम्बन्ध केवल धरती के साथ ही नहीं है, उससे जुड़ी हुई सभी चीजों से भी है। भारत में नदियों को माता कहते हैं। गंगा को माता कहा जाता है। तुलसी को भी माता कहते हैं। माता कहने के पीछे पवित्रता और सम्मान की भावना होती है। इसी के कारण पीपल के पेड़ की पूजा होती है, यह पूजा प्रकृति के प्रति पूज्यभाव उत्पन्य करने के लिए की जाती है। भारत में लोगों को दूध पिलाया जाता है। चिड़ियों और कबूतरों को दाना चुगाया जाता है।चटियों को आटा डाला जाता है।
इसके पीछे भाव यह है कि सभी जीवों के जीवन का इस संसार में कोई न कोई प्रयोजन है। पेड़-पौधे तथा सभी जीव-जन्तु प्रकृति के ही अंग हैं। संसार की रचना केवल मनुष्य से पूरी नहीं हो सकती। भारतीय मन कहता है कि प्रत्येक प्राणी के अस्तित्व को जानना चाहिए तथा उसके संसार में होने के प्रयोजन को भी समझाना चाहिए। विश्व की रचना में उसका क्या स्थान है, इसको पहचानना तथा उसको बनाए रखना जरूरी है। प्रकृति के साथ सामंजस्य की स्थापना तभी हो सकती है। इसी को भारत में धर्म कहते हैं। उसको पहचान कर उसके नियमों को जानकर और उसके अनुसार ही हमें अपनी रचना और विकास करना होगा। तभी प्रकृति के साथ हमारा समन्वय हो सकेगा। इस प्रकार जो विकास होगा, वह स्थायी होगा तथा उससे प्रकृति को भी किसी प्रकार की क्षति नहीं पहुँचेगी।
प्रश्न 2.
विश्व में पर्यावरण संकट के लिए उत्तरदायी कौन है?
उत्तर:
पृथ्वी और प्रकृति पर मानव जाति का अस्तित्व निर्भर है। आज वह संकट में है। पृथ्वी के वायुमण्डल का तापमान बढ़ रहा है, इससे ऋतुचक्र भी प्रभावित हो रहा हैं। पृथ्वी के प्रदूषित पर्यावरण के लिए उत्तरदायी कौन है? कम से कम भारत को तो इसके लिए उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता। इसका उत्तरदायित्व विकसित देशों का है। अपने विकास के लिए उन्होंने ही प्रकृति का अनावश्यक दोहन किया है। अमेरिका पर्यावरण प्रदूषण पर बहुत शोर मचाता है। वह तथा अन्य विकासशील देशों को जिम्मेदार ठहराते हैं। संसार के कुल प्रदूषण का 14 प्रतिशत अमेरिका में है। अमेरिका दुनिया की जनसंख्या का 5 प्रतिशत है, लेकिन वह विश्व के 40 प्रतिशत संसाधनों का उपयोग करता है।
सात बड़े समृद्ध देश जो ‘जी सेवेन’ कहलाते हैं, अपनी दुनिया की 11 प्रतिशत जनसंख्या के साथ 70 प्रतिशत संसाधनों का प्रयोग कर रहे हैं। ये सभी देश विकसित हैं तथा सर्वाधिक प्रदूषण फैलाने वाले हैं। विकासशील देशों पर पर्यावरण प्रदूषित करने का आरोप उनकी एक चाल है। उनके संसाधन समाप्त हो चुके हैं। अब अपने उद्योगों को चलाने के लिए उनको कच्चे माल की जरूरत है। यह जरूरत एशिया तथा अफ्रीका से पूरी हो सकती है। अतः उनके संसाधनों को हड़पने के विचार से ये देश ऐसा भ्रम फैला रहे हैं।’गेट’ व ‘विश्व-व्यापार संगठन’ आदि व्यवस्थायें इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए लाई गई
प्रश्न 3.
दीनदयाल शोध संस्थान की ओर से गोंडा में चल रहे प्रयोगों को देखकर जापानी वैज्ञानिकों ने क्या कहा ?
उत्तर:
कुंछ दिन पूर्व जापान से कुछ वैज्ञानिक भारत आये थे उन्होंने दीनदयाल शोध संस्थान की ओर से गोंडा में चल रहे विभिन्न प्रयोगों को देखा था। वहाँ उन्होंने भारतीय खेती का भी अध्ययन किया था। भारत में खेती हजारों वर्ष से हो रही है। फिर भी यहाँ की भूमि की उर्वरा शक्ति बनी हुई है। उनको अपने अध्ययन से पता चला कि भारत की खेती करने की पद्धति ही इसके पीछे कारण है। भारत में किसान हल से भूमि जोतते हैं तो करीब 6 इंच ही धरती खोदते हैं। इससे केंचुए जो भूमि की उर्वरा शक्ति को बढ़ाते हैं, नीचे चले जाते हैं और जमीन को पोली करते रहते हैं। इससे भूमि की उर्वरा शक्ति और बढ़ जाती है।
पश्चिमी देशों में मशीनों से खेती होती है। मशीनें जमीन को चार फुट तक खोद डालती हैं। इससे सभी केंचुए मर जाते हैं। धरती की उर्वरा शक्ति निरन्तर घटती जाती है। उर्वरा शक्ति बढ़ाने के लिए रासायनिक खाद दी जाती है। इसकी मात्रा निरन्तर बढ़ती है। इसके विपरीत भारत की हरी खाद भी गोबर की खाद भूमि को उर्वरा बनाती है, उसे कोई हानि नहीं पहुँचाती। यह कम लागत की होती है तथा उसका प्रभाव स्थायी होता है।
प्रश्न 4.
जंगलों को कटने से रोकना जरूरी क्यों बताया गया है?
उत्तर:
विश्वभर में जंगलों का विनाश हो रहा है। जंगल कटते जा रहे हैं। अमेरिका और पश्चिमी देशों में तो जंगल समाप्त ही हो गए हैं। किसी शब्द के संतुलित विकास के लिए 33 प्रतिशत भूभाग पर जंगल होने चाहिए। अमेरिका आदि देशों की दृष्टि अब एशिया तथा अफ्रीका पर है। स्वतंत्रता के समय भारत में 22 प्रतिशत जंगल थे। आँकड़ों के अनुसार अब ये 11 प्रतिशत ही रह गए हैं। कुछ लोगों का मानना है कि केवल 6 प्रतिशत ही बचे हैं। यदि वनों का विनाश इसी प्रकार होता रहा तो संसार के सामने अनेक गम्भीर समस्यायें आयेंगी। पर्यावरण प्रदूषण बढ़ेगा। धरती का तापमान बढ़ेगी। ऋतुचक्र गड़बड़ायेगा।
ग्लेशियरों के पिघलने से समुद्र का जलस्तर बढ़ेगा और अनेक तटवर्ती स्थान जलमग्न हो जायेंगे। उद्योगों के लिए कच्चा माल नहीं मिलेगा। वर्षा भी प्रभावित होगी। इतना ही नहीं प्रकृति अपना रौद्र रूप भी प्रगट करेगी। भयानक बाढ़े आयेंगी और भूकम्प भी आयेंगे। हो सकता है कि प्रकृति अपना और भी भीषण स्वरूप दिखाए। अत: जंगलों की अनियंत्रित कटाई तुरन्त रोकी जानी चाहिए तथा नए वृक्ष रोपे जाने चाहिए, उनका संरक्षण भी होना चाहिए।
धरा और पर्यावरण
लेखक-परिचय
जीवन-परिचय-कुप. सी. सुदर्शन का जन्म दक्षिण भारत में हुआ था। आपने मध्य प्रदेश के जबलपुर विश्वविद्यालय से शिक्षा ग्रहण की तथा विज्ञान प्रौद्योगिकी में डिग्री प्राप्त की। साहित्यिक परिचय-सुदर्शन जी बहुभाषाविद्, विलक्षण प्रतिभाशाली, मौलिक चिन्तक, ओजस्वी वक्ता तथा पत्रकार हैं। आप अहिन्दी भाषी होते हुए भी हिन्दी के श्रेष्ठ निबन्धकार हैं। जटिल और कठिन विषय को सरल, सुबोध भाषा-शैली में प्रस्तुत करने में आप सिद्धहस्त हैं। विश्व की मौलिक समस्याओं का आपको ज्ञान है। भारतीय संस्कृति और मौलिक विचारों को भी आपको गहरा ज्ञान है। कृतियाँ-आपने हिन्दी में अनेक मौलिक निबन्धों की रचना की है।
पाठ का सार
‘माता भूमि पुत्रोऽहम् पृथिव्या’ (पृथ्वी माता है, मैं इसका पुत्र हूँ) इस विचार से हम प्रकृति और नदियों में अपनी माता के दर्शन करते हैं। गंगा और तुलसी को माता मानते हैं। अश्वत्थ की पूजा करते हैं। चिड़ियों को दाना और चींटियों को आटा डालते हैं। इस सृष्टि में प्रत्येक पेड़, जीव-जन्तु का एक प्रयोजन है। अतः भारत में प्रकृति को माता माना जाता है। धरती और प्रकृति हमारा पालन करती है। मनुष्य की रक्षा इन सबकी रक्षा पर निर्भर है। आज पृथ्वी और प्रकृति संकटग्रस्त हैं।
पर्यावरण का यह संकट भारत की देन नहीं है। संसार का कुल 14 प्रतिशत प्रदूषण अमेरिका के कारण है। अपनी पाँच प्रतिशत जनसंख्या के साथ वह दुनिया के 40 प्रतिशत संसाधनों का प्रयोग करता है।‘जी सेवेन’ के योरोपीय देश 70 प्रतिशत संसाधन प्रयोग करके 11 प्रतिशत प्रदूषण फैलाते हैं। इनका आरोप है कि विकासशील देश प्रदूषण फैलाते हैं, गलत है। विकासशील देशों के पास संसाधन हैं, जबकि उनके समाप्त हो चुके हैं। ये आरोप उनके संसाधनों के हड़पने के उद्देश्य से लगाए जाते हैं। पश्चिमी उपभोक्तावादी संस्कृति प्रकृति का अमर्यादित.उपभोग करके उसे क्षति पहुँचा रही है। उनकी दृष्टि में प्रकृति निर्जीव है तथा मनुष्य के उपयोग की वस्तु है।
खनिजों का दोहन, जंगलों की कटाई, विशाल मशीनों वाले उद्योग, रासायनिक खादों वाली खेती आदि पश्चिम के उपभोक्तावाद की देन हैं। रासायनिक तथा मशीनी खेती के कारण अमेरिका की भूमि बंजर हो चुकी है। अगले 50 वर्षों में वह मरुस्थल हो जायेगा। रासायनिक खादों से पैदावार बढ़ती है परन्तु फसल के पोषण का गुण घट जाता है। वह अनेक भीषण कैंसर जैसे रोगों का कारण बनता है। दुर्भाग्य से भारत भी इसी दिशा में बढ़ रहा है। जापान से भारत आए वैज्ञानिकों ने पाया कि भारत की कृषि प्रणाली अधिक उपयोगी है। वह स्थायी लाभ देने वाली, कम लागत की तथा टिकाऊ है। उसके कारण भारत की भूमि की उर्वराशक्ति बनी हुई है। अमेरिका तथा योरोपीय देशों के जंगले नष्ट हो चुके हैं। अब उनकी निगाह एशिया और अफ्रीका पर है। किसी राष्ट्र के विकास के लिए 33 प्रतिशत जंगल आवश्यक हैं।
स्वतंत्रता के समय हमारे देश में 22 प्रतिशत वन थे। अब ये 11 प्रतिशत शेष रह गए हैं। कुछ मानते हैं कि 6 प्रतिशत ही हैं। जगंलों की सुरक्षा जरूरी है। उनके नष्ट होने से प्रकृति का संतुलन बिगड़ता है। प्राणवायु कम होती है तथा वायुमण्डल में ताप बढ़ता है, भूकम्प-बाढ़ आदि प्रकोप होते हैं। अत: वनों का संरक्षण आवश्यक है। फ्रांसिस बेकन से न्यूटन तक के पश्चिमी विचारक प्रकृति को निर्जीव और मानव को उपयोग की वस्तु मानते रहे हैं। आइंस्टाइन की इस सोच में कुछ सुधार हुआ है।
यह सोचना गलत है कि प्रकृति का भण्डार असीमित है और उसका सीमाहीन प्रयोग किया जा सकता है। भारतीय विचारधारा के अनुसार उसकी भी एक सीमा है। प्रकृति मानव की वास्तविक आवश्यकताओं को तो पूरा कर सकती है परन्तु अवास्तविक आवश्यकताओं की पूर्ति में सक्षम नहीं है। प्रकृति की सुरक्षा, संख्या और उसका सहयोग ही विकास का सच्चा पथ है। भारत के पास इस सम्बन्ध में एक दृष्टि है, जिसे वह विश्व को दे सकता है। यह दृष्टि’ तेन त्यक्तेन भुञ्जीथाः’ अर्थात् त्यागपूर्वक भोग करने की है। विज्ञान भी आज इस दृष्टि का समर्थन कर रहा है। इसी के आधार पर विश्व के विकास का मार्ग तय होना चाहिए।
शब्दार्थ-
(पृष्ठ सं. 120) मातृ = माता। अश्वत्थ = पीपल। अस्तित्व = जीवन। प्रयोजन = उद्देश्य। समन्वय = सामंजस्य, मेलजोल। आयोजित करना = योजना बनाना। सुसंगत = उचित। अवधारणा = विचारधारा।
(पृष्ठ सं. 121)
धरा = पृथ्वी। पोषण = पालना। पर्यावरण = वातावरण। सम्पदा = सम्पत्ति। अमर्यादित = नियंत्रणहीन। शोषण = सोखना, विनाश। संसाधन = उपकरण, वस्तुएँ। हस्तगत करना = प्राप्त करना। उपलब्ध = प्राप्त। उपभोगवादी = प्रयोग करने, इस्तेमाल करने की। दृष्टि = निगाह, विचारधारा। जड़ = निर्जीव। आत्मतत्व = आत्मा। अस्तित्व’= होना, स्थिति। सर्वं खल्वमिदंत ब्रह्म = यह समस्त संसार ब्रह्म है। दैत्याकार = विशाल। अवधारणा = विश्वास, विचार। बंजर = अनुपजाऊ। मरुस्थल = रेगिस्तान। क्षमता = सामर्थ्य। द्रव्य = पदार्थ॥
(पृष्ठ सं. 122)
उर्वरा शक्ति = उपजाऊपन। पोली = खोखली। दुष्चक्र = हानिकारक ढंग। पद्धति = प्रणाली। टिकाऊ = स्थायी। आँकड़े = गणना। अतिक्रमण = सीमा से बाहर जाना। प्राणवायु = आक्सीजन। विभीषिका = भयानक घटनाएँ। अतिचार = अनुचित आचरण। कोख = गर्भ। समग्रता = पूर्ण रूप में। जड़ = निर्जीव। ब्रह्माण्ड = सम्पूर्ण तारामण्डल, सृष्टि। चिन्तन = विचार।
(पृष्ठसं. 123)
भंडार = संग्रह। साधन = उपाय। भुञ्जीथाः = उपभोग करो। अपनाना = स्वीकार करना, ग्रहण करना। संयमित = नियंत्रित। दायित्व = जिम्मेदारी। प्रतिबद्ध = अटल, दृढ़।
महत्त्वपूर्ण गद्यांशों की सप्रसंग व्याख्याएँ
1. माता भूमि पुत्रोऽहम् पृथिव्या’ केवल पृथ्वी के संबंध में ही नहीं अपितु भारतीय मन, प्रकृति को और नदियों को भी मातृस्वरूप में ही दर्शन करता है। गंगा को हम माता कहते हैं, तुलसी को हमने माता माना, अश्वत्थ वृक्ष की हमने पूजा की और इन सबके माध्यम से समाज के मन में प्रकृति के प्रति पूज्य भाव उत्पन्न किया। हम तो लोगों को दूध पिलाते हैं, कबूतरों, चिड़ियों को दाना चुगाते हैं, हम तो चींटियों तक को आटा डालते हैं क्योंकि इन सबके अस्तित्व का कोई प्रयोजन है। इस विश्व के प्रत्येक पेड़-पौधे, जीव-जन्तु का अपना एक प्रयोजन है। इस प्रयोजन को जानकर सारे विश्व.की रचना में उसका क्या स्थान है, इसको पहचानकर उसको बनाए रखें तभी समन्वय ठीक से बैठेगा। इसी को हमारे यहाँ धर्म कहा है।
(पृष्ठ सं. 120)
सन्दर्भ एवं प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक अपरा में संकलित’ धरा और पर्यावरण’ शीर्षक निबन्ध से लिया गया है। इसके रचयिता कुप.सी. सुदर्शन हैं। ” भारत में पृथ्वी तथा प्रकृति को जड़े अर्थात् निर्जीव नहीं माना जाता। उसके साथ भारतीयों का सम्बन्ध माता और संतान के समान होता है।
व्याख्या-लेखक भारतीय चिन्तन के बारे में बता रहे हैं। भारतीय दर्शन में पृथ्वी को माता तथा मनुष्य को उसका पुत्रं माना जाता है। पृथ्वी के बारे में ही नहीं, भारतीय प्रकृति और नदियों को भी माता के रूप में देखते हैं। वे गंगा को माता कहते हैं। तुलसी को माँ मानते हैं। पीपल के पेड़ की पूजा करते हैं। इन सबके द्वारा वे समाज में लोगों के मन में प्रकृति के प्रति पूजा और सम्मान की भावना पैदा करते हैं। वे लोगों को दूध पिलाते हैं, चिड़ियों-कबूतरों को दाना चुगाते हैं तथा चींटियों को आटा डालते हैं। इसका कारण यह है कि वे भारतीय संस्कृति में इन सबके जीवन का कोई न कोई उद्देश्य है। इस संसार में जितने पेड़-पौधे हैं और जीव-जन्तु हैं, सबका जन्म किसी उद्देश्य के अन्तर्गत ही हुआ है। इस उद्देश्य के बारे में जाननी तथा समस्त संसार की रचना में उनके स्थान की पहचान करना और उनके अस्तित्व की रक्षा करना आवश्यक है। संसार में सामंजस्य की स्थापना तभी हो सकती है। अत: भारत में इसको धर्म अर्थात् पवित्र कर्तव्य माना गया है।
विशेष-
(i) भारतीय विचारधारा में प्रत्येक जीव का महत्व स्वीकार किया गया है। उसकी रक्षा को धर्म कहा गया है।
(ii) भाषा सरल, संस्कृतनिष्ठ तथा प्रवाहपूर्ण है।
(iii) शैली विवेचनात्मक-विचारधारा है॥
(iv) माताभूमि पुत्रोऽहम् पृथिव्या’ जैसी सूक्तियों का सफल प्रयोग हुआ है।
2. पश्चिम की उपभोगवादी दृष्टि में से प्रकृति के इस अमर्यादित उपभोग का विचार-विकास हुआ है। धरा या प्रकृति उनके लिए पूज्य नहीं अपितु उपभोग की वस्तु है, उनका अस्तित्व ही मनुष्य को सुख देने के लिए है, उनमें कोई जीवन नहीं।अतः उनका जितना अधिकतम शोषण किया जा सकता है, करो। अपने महान वैज्ञानिक जगदीश चन्द्र बसु की खोज से पूर्व तक वे सब पेड़-पौधों को जड़ मानते थे। बसु की खोज को भी उन्होंने आसानी से स्वीकार नहीं किया था। (पृष्ठ सं. 121) सन्दर्भ एवं प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक अपरा में संकलित “धरां और पर्यावरण’ शीर्षक निबन्ध से लिया गया है। इसके रचयिता कुप.सी. सुदर्शन हैं।
लेखक ने प्रकृति के बारे में पाश्चात्य दृष्टिकोण का उल्लेख किया है तथा बताया है कि वे प्रकृति को निर्जीव तथा मनुष्य के उपभोग की वस्तु मानते हैं।
व्याख्या-लेखक कहता है कि पाश्चात्य संसार के प्रकृति के प्रति दृष्टिकोण ने प्रकृति का भारी अहित किया है। उनकी दृष्टि में प्रकृति पूजनीय नहीं है। वह केवल मनुष्य के उपभोगै की वस्तु है। पृथ्वी को भी वे अपने उपभोग का वस्तु ही मानते हैं। ये हैं ही इसलिए कि उनसे मनुष्य को सुख प्राप्त हो। वे निर्जीव हैं। अत: उनका अधिक से-अधिक जितना भी शोषण किया जा सके, करना चाहिए। इसमें कुछ भी अनुचित नहीं है। पाश्चात्य दृष्टिकोण में प्रकृति उपभोग के लिए बनी है। उनके इसे उपभोगवादी विचार से ही प्रकृति के नियंत्रण विहीन उपभोग का विकास हुआ है। भारतीय वैज्ञानिक जगदीश चन्द्र वसु ने खोज की थी कि पेड़-पौधों में भी जीवन होता है। इस खोज से पूर्व तो पश्चिम के लोगों के लिए वे निर्जीव पदार्थ थे। वसु की खोज को भी उन्होंने सरलता के साथ स्वीकार नहीं किया था।
विशेष-
(i) प्रकृति, पेड़-पौधे आदि निर्जीव हैं तथा वे मानव के उपभोग के लिए ही बने हैं। उनका अनियंत्रित शोषण करना अनुचित नहीं है। यह दृष्टिकोण पश्चिम का है।
(ii) इस दृष्टिकोण ने प्रकृति के साथ मानव का भी अहित किया है।
(iii) भाषा सरल, संस्कृतनिष्ठ तथा विषयानुकूल है।
(iv) शैली सजीव और वर्णनात्मक है।
3. जंगल कटते जा रहे हैं। अमेरिका और पश्चिम के देश तो अपने जंगलों को खा गए हैं। अब उनकी दृष्टि एशिया-अफ्रीका पर है। राष्ट्र के सन्तुलित विकास के लिए 33 प्रतिशत जंगल आवश्यक हैं। स्वतंत्रता के समय हमारे देश में 22 प्रतिशत जंगल थे। आँकड़ों के अनुसार अब ये 11 प्रतिशत शेष रह गए हैं और कुछ लोगों का मानना है कि केवल 6 प्रतिशत ही बचे हैं। हम यदि वन देवता को ही समाप्त कर देंगे तो कौन देव हमारी रक्षा करेगा। क्या हमें वनों के दोहन का अमर्यादित उपयोग तुरंत नहीं रोकना चाहिए?
(पृष्ठ सं. 122)
सन्दर्भ एवं प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक अपरा में संकलित “धरा और पर्यावरण’ शीर्षक निबन्ध से लिया गया है। इसके रचयिता कुप.सी. सुदर्शन हैं।
लेखक ने पर्यावरण संकट के लिए पाश्चात्य दृष्टिकोण को दोषी माना है। पर्यावरण प्रदूषण पश्चिम द्वारा प्रकृति के अविचारपूर्ण और अमर्यादित शोषण का परिणाम है। यद्यपि वे इसके लिए भारत जैसे विकासशील देशों को दोषी ठहराते हैं।
व्याख्या-लेखक कहते हैं कि पश्चिमी देशों ने प्रकृति के साथ अनाचार किया है। जंगल काटे जा रहे हैं। अमेरिका तथा पश्चिमी देशों में जंगलों को पूर्ण विनाश किया जा चुका है। अब जंगलों से मिलने वाले कच्चे माल के लिए वे अफ्रीका और एशिया की ओर लालच भरी दृष्टि से देख रहे हैं। किसी भी राष्ट्र को अपना विकास संतुलित ढंग से करना है तो उसको 33 प्रतिशत वन अपने यहाँ रखने चाहिए। स्वतंत्रता के समय भारत में 22 प्रतिशत भूभाग पर बने थे। धीरे-धीरे यह प्रतिशत घटकर 11 प्रतिशत हो गया है। कुछ लोगों का कहना है कि भारत में 6 प्रतिशत वन ही शेष बचे हैं। वन देवता हैं। यदि हम उनको नष्ट कर देंगे तो कौन-सा देवता हमारी रक्षा करेगा। अतः आवश्यकता इस बात की है कि हम वनों के इस अनियंत्रित विनाश को शीघ्र रोक दें।
विशेष-
(1) भाषा सरल तथा प्रवाहपूर्ण है।
(2) शैली विचारात्मक तथा वर्णनात्मक है।
(3) लेखक ने मानवता की रक्षार्थ वनों के संरक्षण के प्रति सतर्क किया है।
4. हम मानकर चलते हैं कि प्रकृति का भण्डार असीमित है और असीमित भण्डार से हम असीमित उपभोग कर सकते हैं। किन्तु भारतीय चिन्तन हमसे कहता है कि प्रकृति का भंडार असीमित नहीं है, उसका भंडार सीमित है। मनुष्य की वास्तविक आवश्यकताओं के लिए तो प्रकृति के पास साधन हैं किन्तु अगर हम अवास्तविक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उसका शोषण करेंगे तो हम प्रकृति को नष्ट करेंगे। सीमित साधनों में असीमित उपयोग नहीं हो सकता।
(पृष्ठ सं. 122,123)
सन्दर्भ एवं प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक अपरा में संकलित ‘ धरा और पर्यावरण’ शीर्षक निबन्ध से लिया गया है। इसके रचयिती कुप.सी. सुदर्शन हैं।
लेखक ने बताया है कि लोगों को भ्रम है कि धरती पर उनके उपभोग के लिए वस्तुएँ असीमित मात्रा में हैं। अत: वे प्रकृति का अमर्यादित दोहन करते हैं। इससे वे प्रकृति के साथ ही अपने लिए भी संकट को आमंत्रित करते हैं। व्याख्या-लेखक कहते हैं कि यह मानना कि प्रकृति के भण्डार में हमारे उपभोग के लिए असीमित पदार्थ हैं, एक भ्रम ही है। हम इस अपार प्राकृतिक भण्डार को अनन्त समय तक उपभोग की वस्तुएँ पा सकते हैं-यह भी एक भूल ही है। प्रकृति का भण्डार असीमित नहीं है। उसकी भी एक सीमा है। भारतीय विचारधारा के अनुसार उसकी भी सीमा है तथा वह सीमा रहित नहीं है। प्रकृति के पास इतने पदार्थ तो हैं कि उनसे मनुष्य की आवश्यक और वास्तविक जरूरतें पूरी हो जायें किन्तु उससे मनुष्य अपनी वास्तविक जरूरतों को पूरा नहीं कर सकता। यदि उनकी पूर्ति के लिए वह प्रकृति पर अत्याचार करेगा तो प्रकृति नष्ट हो जायेगी। साधन सीमित हैं, उनसे असीमित आवश्यकताएँ पूरी नहीं की जा सकतीं।
विशेष-
(1) भाषा सरल, प्रवाहपूर्ण तथा विषयानुरूप है।
(2) शैली विवेचनात्मक है।
(3) प्रकृति की सीमाओं के बारे में बताया गया है।
(4) प्रकृति के असीमित दोहन से हो वाले दुष्परिणाम के प्रति सावधान किया गया है।
5. हमें अपनी प्राचीन दृष्टि अपनाते हुए नया विकास पथ अपनाना होगा। पश्चिम प्रकृति के शोषण में विश्वास करता है। हम प्रकृति को माता मान उसके दूध पर पलने वाले हैं। हमारा उपभोग संयमित है। हमारे वर्तमान के लिए भी यही विकास पथ श्रेष्ठ है और यही शेष संसार को नष्ट होने के मार्ग से बचाने वाली मार्गदर्शक विकास पथ हो सकता है। हमारे ऊपर बहुत बड़ा दायित्व है क्योंकि हमारे पास एक जीवन दृष्टि है। हमारी इस दृष्टि और तत्वज्ञान का समर्थन आज का विज्ञान भी करने लगा है। उसके आधार पर एक नए विकास पथ की संरचना के लिए हम प्रतिबद्ध हों।
(पृष्ठ सं. 123)
सदर्भ एवं प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक अपरा में संकलित’ धरा और पर्यावरण’ शीर्षक निबन्ध से लिया गया है। इसके रचयिता कुप.सी. सुदर्शन हैं।
लेखक ने बताया है कि पाश्चात्य देशों में प्रकृति के संसाधनों का दोहन करके पर्यावरण के लिए संकट खड़ा कर दिया है। ऋतुचक्र के बदलने तथा तापमान बढ़ने से मानव के लिए खतरा पैदा हो गया। इससे बचने के लिए भारतीय संस्कृति की प्रकृति से सामंजस्य स्थापित करने वाली विचारधारा को अपनाना होगा।
व्याख्या-लेखक कहता है कि विकास के लिए नया रास्ता अपनाना होगा। यह रास्ता है-प्राचीन भारतीय संस्कृति द्वारा सुझाया गया प्रकृति से मेल तथा सामंजस्य का रास्ता। पश्चिमी देश प्रकृति का शोषण करना उचित मानते हैं। भारत के लोग प्रकृति को माता मानते हैं और माँ के दूध के साथ उसकी देन का उपयोग करते हैं। यह उपयोग एक सीमा तक ही होता है। वर्तमान में विकास आवश्यक है किन्तु उसके लिए पश्चिमी प्रकृति को नष्ट करने की नीति नहीं, भारत का प्रकृति से सामंजस्य बनाने वाली नीति ही ठीक है। इसी नीति को अपनाकर संसार विनाश से बच सकता है। भारतीयों का दृष्टिकोण नवीन तथा जीवनदायी है। अतः विश्व को बचाने की उनकी गम्भीर जिम्मेदारी है। भारत के इस दृष्टिकोण तथा तत्वज्ञान का समर्थन अब विज्ञान भी करने लगा है। उसके आधार पर अब भारत के लोग विकास का नया मार्ग बनाने के लिए कृतसंकल्प हैं। यही उनका कर्तव्य है॥
विशेष-
(1) भाषा सरल, विषयानुकूल तथा प्रवाहपूर्ण है। भाषा में तत्सम शब्दों का बाहुल्य है।
(2) शैली विचारात्मक है।
(3) पर्यावरण संकट पश्चिम की गलत नीति का परिणाम है।
(4) भारतीय दृष्टि को स्वीकार करके इस संकट से बचा जा सकता है।
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