Rajasthan Board RBSE Class 11 Hindi रचना संक्षिप्तीकरण
संक्षिप्तीकरण
संक्षिप्तीकरण-संक्षिप्तीकरण उस प्रक्रिया को कहते हैं जिसमें किसी लेख, भाषण, विवरण आदि के मूलाशय को सुरक्षित रहने हेतु अप्रासंगिक तथ्यों का परिहार कर सुनियोजित ढंग से अन्तर्निहित उद्देश्य मात्र को प्रस्तुत किया जाता है। अतः संक्षेप में कहा जा सकता है कि मूल भावों की रक्षा करते हुए अपनी भाषा में तथ्य अथवा कथ्य का प्रकटीकरण ही संक्षेपण है। उदाहरण के लिए यदि कोई अनुच्छेद आपको संक्षेपण के लिए दिया गया है तो आपको उसका मूल कथ्य एक-तिहाई रूप में लिख देना चाहिए।
अवतरण-1
निर्देश-अधोलिखित गद्यांश का उसके एक-तिहाई (1/3) शब्दों में संक्षेपण कीजिए।
बेरोजगारी की समस्या समाज में आज अत्यन्त भयंकर एवं गम्भीर बन गयी है। देश का शिक्षित एवं बेरोजगार युवक अपने आक्रोश की अभिव्यक्ति हड़ताले करने, बसें जलाने एवं राष्ट्रीय सम्पत्ति को क्षति पहुँचाने में कर रहा है वहीं कई बार कुण्ठित हो आत्महत्या जैसा भयंकर कुकृत्य कर बैठता है। कहते हैं ‘खाली दिमाग शैतान का घर” कहावत को हमारे युवक चरितार्थ कर रहे हैं। सच भी है मरता क्या नहीं करता, आवश्यकता सब पापों की जड़ है। अतः चोरी, डकैती, तस्करी, अपहरण तथा आतंकवादी गतिविधियों में वह सक्रिय हो रहा है।
उत्तर:
संक्षेपण-बेरोजगारी की गम्भीर समस्या से व्यथित शिक्षित बेरोजगार युवक हड़ताल, तोड़-फोड़ आदि कर रहे हैं, कई बार आत्महत्या तक कर बैठते हैं। वस्तुतः आवश्यकता सब पापों की जड़ है, इसी से वे असामाजिक गतिविधियों में सक्रिय हो रहे हैं।
अवतरण-2
स्वराज्य एक अति व्यापक अवधारणा है। इसका आदर्श रामराज्य तथा लक्ष्य सर्वोदय है। सत्य तथा अहिंसा इसकी प्राप्ति के साधन हैं तथा धर्म व नैतिकता इसकी बुनियाद हैं। स्वराज्य की यह अवधारणा राज्य की पराधीनता से मुक्ति पाने से भले ही आरम्भ हो, किन्तु इसको साध्य आत्मा की स्वतन्त्रता को प्राप्त करता है। इसकी प्राप्ति के पश्चात् सर्वत्र शान्ति होगी। प्रतिस्पर्धा नहीं, सहयोग होगा।
उत्तर:
संक्षेपण-स्वराज्य की अवधारणा का आदर्श रामराज्य, लक्ष्य सर्वोदय, साधन सत्य व अहिंसा, बुनियाद धर्म व नैतिकता और साध्य आत्मा की स्वतन्त्रता है। इससे सर्वत्र शान्ति एवं सहयोग मिलेगा।
अवतरण-3
हमारे मन की थकावट और ताजगी के लिए हमारी मानसिक स्थिति सबसे अधिक जिम्मेदार है। निराशा हमारा सबसे बड़ा शत्रु है। शारीरिक योग्यता का नाश करने वाला इससे बढ़कर दूसरा कोई नहीं। इसको जहरीला असर इतना भीषण होता है। कि महीनों में लगातार परिश्रम की थकावट भी उसका मुकाबला नहीं कर सकती। इसके प्रतिकूल शान्त निद्रा से जो ताजगी मिलती है उससे सभी इन्द्रियों में स्फूर्ति पैदा होती है। प्रत्येक बुद्धिमान् शारीरिक योग्यता प्राप्त करना चाहता है। चाहे वह जीवन की किसी अवस्था में क्यों न हो, चाहे वह वाणिज्य-व्यापार में लगा हुआ हो, पुस्तक लिखता हो, कारीगर हो, समाजसेवा में दत्तचित्त हो, प्रत्येक अवस्था में वह सदा अधिक काम करते रहने और आगे बढ़ने को आतुर रहता है।
उत्तर:
संक्षेपण-निराशा मनुष्य की शारीरिक योग्यता को नष्ट करती है। इसका असर अधिक भीषण होता है। ताजगी एवं इन्द्रियों में स्फूर्ति आने से निराशा समाप्त हो जाती है। प्रत्येक कार्य में संलग्न बुद्धिमान् व्यक्ति हर हालत में और हर काम में शारीरिक योग्यता चाहता है। इसके लिए स्वस्थ मानसिक स्थिति आवश्यक है।
अवतरण-4
सत्संग के बिना मनुष्य अपनी वासनाओं के दुःखों से किसी प्रकार बच नहीं सकता। वासनाएँ भी जब भगवान् के सुन्दर यश का वर्णन सुनती हैं, सत्पुरुषों के दर्शन करती हैं, तो वे भी धन्य हो जाती हैं और उनके स्वरूप बदल जाते हैं, फिर वे शुद्ध संकल्प बनकर उठने लगती हैं। वासनाएँ यदि लोहे के समान हैं, तो प्रभु-स्मरण : या सत्संग पारसमणि है। बस, स्पर्श करते ही वे स्वर्ण हो जाती हैं। बड़े दुष्ट स्वभाव वाले केवल सत्संग से संत बन गये। महान् दुःखियों का दुःख सत्संग में कुछ समय ही में जाता रहा तथा घोर अन्यायी राजा सत्पुरुषों के साथ से दयावान् बन गये।
उत्तर:
संक्षेपण-सत्संग के बिना वासनाओं से मुक्ति सम्भव नहीं। भगवान के सुयश वर्णन तथा सत्पुरुष-दर्शन से वासनाएँ शुद्ध संकल्प में बदल जाती हैं। प्रभुस्मरण एवं सत्संग रूपी पारसमणि से दुष्ट व्यक्ति भी स्वर्णिम एवं सद्गुणमय बन जाता है, इससे अन्यायी राजा भी दयालु बन जाता है।
अवतरण-5
संसार में वे लोग बड़े अभागे होते हैं जो अपने देश या मातृभूमि को प्यार नहीं करते। स्वदेश प्रेम से शून्य मनुष्य जीता हुआ भी मरे के समान है। वह पृथ्वी का भार है। ऐसे व्यक्तियों से पृथ्वी कलंकित होती है। जिस पानी में मछली उत्पन्न होती है, मरते दम तक उसका साथ नहीं छोड़ती है। वह पानी से वियुक्त होने पर प्राण दे देती है, तो क्या मनुष्य जिसे अपना देश, अपनी भाषा एवं अपने देश की संस्कृति से प्यार
नहीं है, साधारण जानवर से भी गया-बीता नहीं है? जिस देश में हमने जन्म लिया है, उसके प्रति भक्ति होना, उसकी सेवा करना हमारा प्रथम कर्तव्य है।
उत्तर:
संक्षेपण-अपनी मातृभूमि से प्यार न रखने वाले लोग अभागे और जीते-जी मृत माने जाते हैं। मछली पानी से अलग नहीं हो सकती, तो क्या मनुष्य अपने देश व संस्कृति से अलग रह सकता है? ऐसा मनुष्य पशुओं से भी हीन है। मातृभूमि की सेवा करना हमारी प्रथम कर्तव्य है।
अवतरण-6
किसी देश की उन्नति एवं अवनति उस देश के साहित्य पर अवलम्बित है। चाहे वह देश को उन्नति की चरम सीमा पर पहुँचा दें और चाहे तो अवनति के गर्त में गिरा दे। ‘जहाँ न पहुँचे रवि, वहाँ पहुँचे कवि।’ साहित्य निर्जीव जाति में प्राणप्रतिष्ठा करता है और निराशपूर्ण हृदय में आशा का संचार करता है। वही राजनीति को। प्रेरणा देता है और राजनीतिज्ञों का पथ-प्रदर्शन करता है। वही अतीत के गौरव-गीत गाता है और साथ ही भविष्य की स्वर्णिम कल्पना करता है। वही सोई हुई जाति को जगाता है और उत्साह का संचार करता है।
उत्तर:
संक्षेपण-किसी देश की उन्नति एवं अवनति उसके साहित्य पर अवलम्बित है। साहित्य निराशा में आशा एवं नवीन प्रेरणा का संचार करता है। वह अतीत के साथ भविष्य का निर्माता है तथा जन-जागृति और उत्साह का संचार करता है।
अवतरण-7
संस्कार में समाए गुण जब आचरण में उतरते हैं तो उनकी सुवास से सारा समाज महक उठता है। इस प्रकार एक व्यक्ति अपने आचरण द्वारा पूरी एक संस्कारी पीढ़ी का उद्भव करता है। संस्कार के समक्ष समाज सदैव नमन की मुद्रा में झुका है। और उसके इस विनीत भाव ने व्यक्ति को महानता के परम लक्ष्य तक पहुँचाया है।
उत्तर:
संक्षेपण-संस्कार में समाविष्ट गुणों के आचरण से समस्त समाज एवं युवा पीढ़ी को निर्माण होता है। संस्कार के समक्ष विनीत समाज व व्यक्ति को सर्वोच्च लक्ष्य की प्राप्ति होती है।
अवतरण-8
इस काल्पनिक दुनिया का निर्माता एवं नियामक स्वयं बालक ही होता है। वह अपनी स्वप्निल सृष्टि की रचना करता है। वह अपनी रंगीली रचना में सारे दिन तन्मयता के साथ जुटा रहता है। कल्पना की तूलिका से सुन्दर से सुन्दर रंग भरकर बढ़िया से बढ़िया चित्र उपस्थित करता है। कभी कलक्टर का अभिनय करता है तो कभी पुलिस कप्तान का। कभी अश्वारोही की नकल करता है तो कभी ड्राइवर की। कभी दुकानदार बन जाता है तो कभी बाराती। कभी दूल्हा बन जाता है तो कभी दुलहिन। आप उसे कोई यन्त्र दे दीजिए, वह उसके कल-पुर्ज खोलने का प्रयास करेगा।
उत्तर:
संक्षेपण-बालक सारे दिन अपने काल्पनिक संसार की रंगीली रचना करने में निमग्न रहता है। वह अपनी कल्पना से विविध व्यक्तियों की रचना कर अश्वारोही, कलक्टर, ड्राइवर, दूल्हा, बाराती आदि की नकल करता है। कलपुर्जी को खोलने से वह सृजनशीलता व्यक्त करता है।
अवतरण-9
सदाचार का शिष्टाचार से घनिष्ठ सम्बन्ध है। सदाचार सौजन्य की पूँजी है। सदाचार के बिना मनुष्य का जीवन निराधार होता है और शिष्टाचार के बिना सदाचारी पुरुष भी जीवन के माधुर्य से वंचित रह जाता है। प्राचीन देशों में शिष्टाचार को उच्च स्थान दिया गया है। चीन में प्राचीन काल से शिष्टाचार के बड़ी उच्चकोटि के नियम रहे हैं और उन्हीं के अनुसार बर्ताव होता रहा है। हमारे देश में भी सदैव पारस्परिक व्यवहार में स्नेह और सद्भाव की झलक दिखती रही है। दूसरे की भावनाओं का ध्यान रखना और यथासम्भव ऐसी बात न करना जिससे दूसरे को ठेस पहुँचे, यह नियम हमारे समाज में सदा व्यापक रहा है।
उत्तर:
संक्षेपण-सदाचार और शिष्टाचार अन्योन्याश्रित हैं। जीवन में सदाचार से सार्थकता और शिष्टाचार से माधुर्य आता है। प्राचीन काल में शिष्टाचार के उच्चकोटि के नियम रहे हैं। आज भी परस्पर स्नेह, सद्भाव आदि में वे नियम समाज द्वारा मान्य हैं।
अवतरण-10
“मैं तो मन के विकारों को जीतना सारे संसार को शस्त्र-युद्ध करके जीतने से भी कठिन समझता हूँ। भारत में आने के बाद भी मैंने अपने में छिपे विकारों को देखा है, देखकर शर्मिंदा हुआ हैं, लेकिन हिम्मत नहीं हारी है। सत्य के प्रयोग करते हुए मैंने सुख का अनुभव किया है, आज भी उसका अनुभव कर रहा हूँ। लेकिन मैं जानता हूँ कि अभी मुझे बीहड़ रास्ता तय करना है। इसके लिए मुझे शून्यवत् बनना पड़ेगा। जब तक मनुष्य स्वतः अपने आप को सबसे छोय नहीं मानता है, तब तक मुक्ति उससे दूर रहती है। अहिंसा नम्रता की पराकाष्ठा है, उसकी हद है और यह अनुभवसिद्ध बात है कि इस तरह की नम्रता के बिना मुक्ति कभी नहीं मिल सकती।”
उत्तर:
संक्षेपण-मनोविकारों को जीतना कठिन होता है। अपने मनोविकारों को संयमित करने में मैंने हिम्मत नहीं हारी। सत्यानुभव सुखकारी होता है। अहंकार से मुक्ति दूर भागती है। अहिंसा नम्रता की पराकाष्ठा है, जिसके बिना मुक्ति नहीं मिल सकती।।
अवतरण-11
“देश की उन्नति का बहुत बड़ा दायित्व सच्चे देश-भक्तों पर निर्भर करता है। देश का गौरव सच्चे देश-भक्त ही होते हैं। उसी देश का अभ्युत्थान हो सकता है, जहाँ के निवासियों में देश-प्रेम कूट-कूट कर भरा हो, जिनकी शिरा-शिरा, धमनीधमनी में देश-प्रेम से सिक्त रक्त प्रवाहित हो रहा हो। जिस देश में ऐसे स्त्री-पुरुष को आधिक्य होता है, उसकी अवनति स्वप्न में भी नहीं हो सकती, जिस देश में जितने ही देश-भक्त सच्चे नागरिक होंगे, वह देश उतना ही समृद्धि के शिखर पर चढ़ सकता है। भारत की स्वतन्त्रता के पीछे कौनसी शक्ति काम कर रही है? क्या अंग्रेजों ने प्रसन्न होकर स्वतन्त्रता दान कर दी थी? कदापि नहीं। वास्तव में इस स्वतन्त्रता के पीछे भी बलिदान हो जाने वाले सहस्रों देश-भक्तों की शक्ति छिपी थी। उनके रक्त की लहरें परतन्त्रता की चट्टान से बार-बार टकरा रही थीं, जिससे वह एक दिन चूरचूर हो गई।”
उत्तर:
संक्षेपण-देश की उन्नति देश-भक्तों पर निर्भर करती है। देश-भक्तों के उत्साह, त्याग एवं बलिदान से ही देश की उन्नति होती है। देश-भक्त ही सच्चे नागरिक होते हैं और उनसे ही देश समृद्धि होता है। भारत की स्वतन्त्रता के पीछे देश-भक्तों की बलिदान हो जाने की अटूट शक्ति निहित थी, जिससे घबराकर अंग्रेज चले गये और हमें स्वतन्त्रता प्राप्त हुई।
अवतरण-12
“युवा-पीढ़ी की कुण्ठा तब तक दूर नहीं की जा सकती, जब तक युवकों की आशाओं तथा उनको पूर्ण करने के लिए किये गये त्याग में पूर्ण सामंजस्य नहीं होगी; जब तक समाज युवकों को उचित पंथ-प्रदर्शन देकर उनकी बढ़ती विशाल शक्ति को सन्तुष्ट करने में सफल नहीं होगा, युवकों की मूलभूत आवश्यकताएँ पूरी नहीं कर सकेगी, अर्थात् मानसिक, शारीरिक, आध्यात्मिक भूख को शान्त नहीं कर सकेगा तथा जब तक समाज अपने आज के कृष्ण-कलेवर को श्वेत न कर लेगा। अर्थात् जब तक समाज अपने दोषों को दूर न कर लेगा जिनके कारण सामाजिक वातावरण दूषित हुआ है और दूषित युवकों को उत्पन्न कर रहा है। अतः जब तक समाज के प्रतिनिधि लोग अपनी जिम्मेदारी नहीं निभायेंगे और युवकों को भुलावे में रखकर स्वार्थ-सिद्धि हेतु पथ-प्रदर्शन करते रहेंगे, तब तक योग्य युवक तैयार नहीं किये जा सकते, न उन्हें वास्तविक सफलता ही मिल सकती है और न ही उनकी कुण्ठा दूर की जा सकती है।”
उत्तर:
संक्षेपण-युवा-पीढ़ी की कुण्ठा को दूर करने हेतु उनकी आशाओं एवं उनके त्याग में सामंजस्य रखकर समाज द्वारा पथ-प्रदर्शन आवश्यक है। युवकों की मानसिक, शारीरिक एवं आध्यात्मिक भूख को शान्त करके जब तक समाज अपने दोषों का निवारण नहीं करेगा और जब तक समाज के प्रतिनिधि अपने दायित्व का निर्वाह नहीं करेंगे, तब तक योग्य युवक तैयार नहीं होंगे और युवा-पीढ़ी की कुण्ठा भी दूर नहीं होगी।
अवतरण-13
यदि पशुबल का ही नाम बल है, तो निश्चय ही नारी में पुरुष की अपेक्षा कम पशुत्व है। लेकिन अगर बल का अर्थ नैतिक बल है, तो उस बल में वह पुरुष की अपेक्षा इतनी अधिक महान् है कि जिसका कोई नाप नहीं हो सकता। यदि अहिंसा मानव-जाति का धर्म है, तो अब मानव-जाति के भविष्य की निर्मात्री नारी बनने वाली है। मानव के हृदय पर नारी से बढ़कर प्रभाव और किसका है? यह तो पुरुष ने नारी की आत्मा को कुचल रखा है। यदि उसने भी पुरुष की भोग-लालसा के सामने अपने-आप को समर्पित कर दिया होता, तो सोई हुई शक्ति के इस अथाह भण्डार के दर्शन का अवसर संसार को मिल जाता। अब भी उसके चमत्कारपूर्ण वैभव का दर्शन हो सकेगा, जब नारी को संसार में पुरुष के ही समान अवसर मिलने लगेगा और पुरुष तथा नारी दोनों मिलकर परस्पर सहयोग करते हुए आगे बढ़ेंगे।
उत्तर:
संक्षेपण-पशुबल की दृष्टि से नारी में पुरुष की अपेक्षा कम पशुत्व है। और नैतिक बल की दृष्टि से वह अत्यधिक महान् है। अहिंसा को मानव-जाति का धर्म मानने पर नारी उसकी भविष्य-निर्मात्री है, फिर भी पुरुष नारी का महत्त्व नहीं समझता है। नारी पुरुष की भोग-लालसा के लिए समर्पित होती है, पर वह शक्ति का भण्डार है। संसार में पुरुष के समान ही नारी को समानता के अवसर मिलने पर चमत्कारपूर्ण वैभव के दर्शन हो सकते हैं।
अवतरण-14
ऋषि कवि ने कहा कि जहाँ नारियों की पूजा होती है, वहाँ देवता निवास करते हैं। कविवर जयशंकर प्रसाद ने ‘नारी तुम केवल श्रद्धा हो!’ कहकर उसे देवतुल्य श्रद्धा का पात्र माना है, किन्तु नारी की दयनीय दशा का चित्र राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने ‘आँखों में पानी भरे’ अबला की कहानी कहकर खींचा है। उस त्याग की देवी को हमारे समाज ने क्या दिया है? कहाँ है समानता का अधिकार और परिवार में सम्मानपूर्ण स्थान? नारी कन्या रूप में पिता के, पत्नी रूप में पति के और माता रूप में पुत्र के अधीन ही रहती है। इस अधीनता से मुक्ति का उपाय नारी-शिक्षा है, शिक्षित नारी ही जागृत-पुरुष की समानधर्मा और प्रतिष्ठित हो सकती है।
प्रश्न-
(क) उपर्युक्त गद्यांश का उचित शीर्षक दीजिए।
(ख) गहरे काले वाक्यांश की व्याख्या कीजिए।
(ग) गद्यावतरण का संक्षेपण कीजिए।
उत्तर:
(क) शीर्षक-नारी की सामाजिक प्रतिष्ठा।
(ख) जब शिक्षित नारी अपने अधिकारों के प्रति सजग रहेगी, वह अपने सम्मान की रक्षा कर सकेगी और पुरुष की अधीनता में उस तरह दबी नहीं रहेगी तो वह जीवन-जागृति से युक्त पुरुष के समान अधिकार, कर्तव्य एवं सम्मान और प्रतिष्ठा प्राप्त करने वाली हो सकती है।
(ग) प्राचीन ऋषियों ने तथा कविवर प्रसाद ने नारी को श्रद्धा का पात्र एवं गौरवपूर्ण बताया है, परन्तु श्री मैथिलीशरण गुप्त ने नारी को करुणा और त्याग की देवी बतलाकर उसकी दयनीय दशा प्रकट की है। हमारे समाज में नारी को समानता का अधिकार नहीं है, वह किसी भी अवस्था में स्वाधीन नहीं रहने दी जाती है। शिक्षित नारी ही स्वावलम्बी एवं सम्मानित हो सकती है।
अवतरण-15
मानवीय व्यक्तित्व को पूर्णता प्रदान करने का कार्य शिक्षा द्वारा ही सम्पन्न होता है। सृष्टि के आरम्भ से लेकर आज तक मानव ने जो प्रगति की है, उसका सर्वाधिक श्रेय मनुष्य की ज्ञान-चेतना को ही दिया जाता है। बिना शिक्षा के मनुष्य का जीवन पशु-तुल्य ही रहता है। शिक्षा ही अज्ञानरूपी अन्धकार से मुक्ति दिलाकर ज्ञान का दिव्य आलोक प्रदान करती है।
प्रश्न-
(क) उपर्युक्त गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
(ख) गहरे काले वाक्यांश की व्याख्या कीजिए।
(ग) उपर्युक्त अवतरण का सार लिखिए।
उत्तर:
(क) शीर्षक-शिक्षा को महत्त्व।।
(ख) शिक्षा प्राप्त कर व्यक्ति की चेतना का प्रसार होता है और उसका ज्ञान बढ़ जाता है, जिससे वह प्रत्यक्ष तथा परोक्ष का, वर्तमान तथा भविष्य का साक्षात्। अनुभव करने लगता है। शिक्षा से प्राप्त ज्ञान से व्यक्ति का जीवन-मार्ग आलोकित होता है, इसलिए उसे दिव्य आलोक कहा गया है।
(ग) मानवीय व्यक्तित्व का निर्माण और उसकी ज्ञान-चेतना का प्रसार शिक्षा द्वारा ही होता है। शिक्षा के बिना मनुष्य पशु-तुल्य हीं रहता है, अतः शिक्षा मानव को अज्ञान से मुक्त कर दिव्य आलोक प्रदान करती है।
अवतरण-16
मौनरूपी व्याख्यान की महिमा इतनी प्रभावशाली होती है कि उसके सामने क्या मातृभाषा, क्या अन्य देश की भाषा, सबकी सब तुच्छ प्रतीत होती हैं। अन्य कोई भाषा दिव्य नहीं, केवल आचार की मौन भाषा ईश्वरीय है। विचार करके देखो, मौन व्याख्यान किस तरह आपके हृदय की नाड़ी में सुन्दरता पिरो देता है। वह व्याख्यान ही क्या, जिसने हृदय की धुन को तथा मन के लक्ष्य को न बदल दिया। चन्द्रमा की मन्द-मन्द हँसी का, तारागण के कटाक्षपूर्ण मौन व्याख्यान का प्रभाव किसी कवि के दिल में घुसकर देखो, कमल और नरगिस में नयन देखने वालों से पूछो कि मौन व्याख्यान की प्रभुता कितनी दिव्य है?
प्रश्न-
(क) उपर्युक्त अवतरण का सार लिखिए।
(ख) गहरे काले वाक्यांश की व्याख्या कीजिए।
(ग) उपर्युक्त गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
उत्तर:
(क) किसी के आचरण का कोई व्याख्यान उतना प्रभाव नहीं डालता, जितना स्थायी प्रभाव चुपचाप किये गये आचरण को देखकर हम पर पड़ता है। उसके द्वारा हृदय में आचरण की सुन्दरता के संस्कार उसी प्रकार भर जाते हैं, जिस प्रकार चन्द्र-नक्षत्रों की किरणें हमें सौन्दर्य से भर देती हैं।
(ख) अन्य भाषाएँ मनुष्य द्वारा अपनी अभिव्यक्ति के लिए विकसित की गई हैं। इसमें शब्दार्थ की प्रधानता रहती है, जबकि आचार की मौन भाषा व्यक्ति को जन्म से ईश्वर द्वारा प्रदत्त है।
(ग) शीर्षक-आचरण की भाषा।
अवतरण-17
स्वतन्त्रता का मर्म समता है। विषमता से स्वतन्त्रता भंग हो जाती है। बाह्यरूपों की समता चाहे सम्भव न हो, किन्तु आन्तरिक भाव की समता स्वतन्त्रता का आधार है। सभ्यता और संस्कृति के वृक्ष और लताएँ भी समता के मार्ग में ही शोभित होती हैं। समता का मूल तत्त्व यही है कि बाह्य विषमता होते हुए मनुष्य की दृष्टि में सब समान हैं। मनुष्यता के भावों का सम्बन्ध बाह्य विषमताओं से संकुचित नहीं होता। मनुष्यता की दृष्टि से कोई भी मनुष्य दूसरे मनुष्य से श्रेष्ठ नहीं है। मानवीय और नैतिक गुणों का उत्कर्ष भी इस मानवीय समता को खण्डित नहीं कर सकता। नवीनता, सक्रियता, स्वतन्त्रता आदि के अतिरिक्त समता मानवीय उल्लास का मूल स्रोत है।
प्रश्न
(क) उपर्युक्त गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
(ख) गहरे काले वाक्य की व्याख्या कीजिए।
(ग) उपर्युक्त अवतरण का सारांश लिखिए।
उत्तर:
(क) शीर्षक-मानवीय समता अथवा समता का महत्त्व।
(ख) सभ्यता और संस्कृति भौतिक तथा मानसिक समता स्थापित होने पर ही सम्मानजनक होती है।
(ग) स्वतन्त्रता का प्रसार समता से होता है। सभ्यता और संस्कृति का सम्मान भी समता से ही सम्भव है। बाहरी विषमताओं को इसमें उतना महत्त्व नहीं है, आन्तरिक समता ही मानवीय एवं भौतिक गुणों का विकास करती है और इससे ही मानवीय गुणों का उद्भव होता है।
अवतरण-18
भारत की संस्कृति, सभ्यता, धर्म, दर्शन और सौन्दर्य पर विदेशी सदैव मुग्ध रहे हैं, पर आज भारत का न भौतिक समृद्धि में और न ज्ञान के क्षेत्र में कोई महत्त्वपूर्ण स्थान है। जिनके आँगन में मानवता खेली, जहाँ उसने संस्कार प्राप्त किया, जहाँ प्रथम ज्ञानोदय हुआ, जहाँ का प्रकाश पाकर विश्व प्रकाशित हुआ, उसी देश के हम नंगे, निरक्षरे, भूखे और परमुखापेक्षी अधिवासी हैं। हमने अपने पूर्वजों को, पूर्वजों के गौरव को हास्यास्पद बनाया, हमने एक महती सम्पदा प्राप्त करके भी उसे नष्ट कर दिया-उसका उपयोग न किया। हमने दुनिया में अपनी और अपने देश की उपेक्षा देखी और सुनी। क्या देश को हम पर अभिमान होगा? इस विशाल देश की गौरवमय परम्परा का अभिमान करने का अधिकार भी आज हमसे छिन गया है, क्योंकि हम स्वयं अपने देश को, अपने देश की गरिमा को और गौरवपूर्ण गाथाओं को जानते ही नहीं हैं। हमारे चरित्र से अपने चरित्र का अब कौन निर्माण करेगा—पृथ्वी के सब मानवों की बात अब स्वप्नवत् है।
प्रश्न-
(क) गद्यांश को उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
(ख) गहरे काले वाक्य की व्याख्या कीजिए।
(ग) इस अवतरण का संक्षेपण कीजिए।
उत्तर:
(क) शीर्षक-भारत का अतीत और वर्तमान।
(ख) सभ्यता, संस्कृति, ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में हमने अपने पूर्वजों से जो कुछ प्राप्त किया था, उसे हमने गॅवा दिया है तथा हम अपने परम्परागत गौरव का उपयोग नहीं कर सके हैं।
(ग) भारतीय संस्कृति, सभ्यता, दर्शन आदि पर विदेशी आकृष्ट रहे हैं। हमारे पूर्वजों द्वारा प्राप्त गौरव को आज हम भूल गये हैं। इस कारण अब भारतीयों में हीन भावना आने लगी है। अब हम विश्व को चरित्र निर्माण की शिक्षा नहीं दे सकते। प्राचीन गौरव को प्राप्त करने की हमारी कल्पना स्वप्नवत् है।
अवतरण-19
वीरों के बनाने के कारखाने कायम नहीं हो सकते। वे तो देवदारु के दरख्तों की तरह जीवन के अरण्य में खुद-ब-खुद पैदा होते हैं और बिना किसी के पानी दिये, बिना किसी के दूध पिलाये, बिना किसी के हाथ लगाये तैयार होते हैं। दुनिया के मैदान में अचानक ही सामने वे आकर खड़े हो जाते हैं। उनका सारा जीवन भीतर ही भीतर होता है। बाहर तो जवाहरात की खानों की ऊपरी जमीन की तरह कुछ भी दृष्टि में नहीं आता। वीर की जिन्दगी मुश्किल से कभी-कभी बाहर नजर आती है। नहीं तो उसका स्वभाव छिपे रहने का है। वह लाल गुदड़ियों के भीतर छिपा रहता है। कन्दराओं में, गङ्घरों में, छोटी-छोटी झोंपड़ियों में बड़े-बड़े वीर महात्मा छिपे रहते हैं।
प्रश्न–
(क) गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
(ख) गहरे काले वाक्य की व्याख्या कीजिए।
(ग) अवतरण का सारांश लिखिए।
उत्तर:
(क) शीर्षक-वीरों का स्वभाव।
(ख) वीर पुरुष दिखावा नहीं करते हैं, वे तो आत्मबल के द्वारा अपना परिचय देते हैं, उनका जीवन आन्तरिक शक्ति से निर्मित होता है।
(ग) वीर किसी के द्वारा बनाये नहीं जाते, अपितु उनका उद्भव स्वयं होता है। वे बिना किसी सहायता के स्वयं सामने खड़े होते हैं। वीरों का जीवन-निर्माण। आन्तरिक क्रिया से स्वतः होता है, उनमें बाहरी दिखावा जरा भी नहीं होता है। इस कारण छोटी-छोटी झोंपड़ियों में भी वीर सपूत जन्म लेते हैं।
अवतरण-20
आज हमारे सामने वर्तमान युग की एक ऐसी उलझनभरी, दुस्साध्य और भयानक समस्या उपस्थित है, जिससे बचा नहीं जा सकता। प्रश्न यह है कि क्या हम। सदा के लिए युद्ध बन्द करने की घोषणा कर सकते हैं, या इसके विपरीत हम मनुष्य जाति को समूल नष्ट करना चाहते हैं। यदि हम सदैव के लिए युद्ध से विमुख हो जाते हैं तो हम एक ऐसे समाज का निर्माण कर सकते हैं, जिससे ज्ञान और विज्ञान की सतत प्रगति हो सकती है। क्या इस स्वर्गीय आनन्द के बदले विनाशक मृत्यु को हम इसलिए चाहते हैं, क्योंकि हम अपने झगड़े समाप्त नहीं कर सकते? हम आपसे मनुष्य होने के नाते मनुष्यता के नाम पर यह प्रार्थना करते हैं कि आप सब-कुछ। भूलकर केवल अपनी मानवता को याद रखें। यदि आप यह कर सकते हैं तो निश्चय ही नये और महान् भविष्य के लिए रास्ता खुला है, किन्तु यदि आपको यह मंजूर नहीं है तो आपके सामने मानव-मात्र की मृत्यु का संकट उपस्थित है।
प्रश्न-
(क) उक्तं गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
(ख) गहरे काले छपे वाक्य की व्याख्या कीजिए।
(ग) उक्त अवतरण का संक्षेपण कीजिए।
उत्तर:
(क) शीर्षक-युद्ध की विभीषिका।
(ख) युद्ध की विभीषिका से मुक्त होकर वर्तमान मानव ऐसे समाज का निर्माण कर सकता है, जिससे मानव-जगत् में ज्ञान-विज्ञान की उन्नति और जीवन का चहुँमुखी विकास हो सके।
(ग) वर्तमान युग में युद्ध की विभीषिका से मनुष्य जाति के समूल विनाश की आशंका बढ़ गई है। यदि मानव सदा के लिए युद्ध से विमुख हो जाये, तो धरती पर ज्ञान-विज्ञान, सुख-शान्ति का प्रसार हो सकता है और मानवता की रक्षा के साथ सुन्दर भविष्य का निर्माण हो सकता है। मानव मात्र के कल्याणार्थ यह आवश्यक भी है।
अवतरण-21
समाज में एक ओर जीवन की स्थिरता है, और दूसरी ओर परिवर्तनशीलता। समाज जब तक दृढ़तापूर्वक किसी नियम का पालन नहीं करेगा, तब तक उसकी उन्नति नहीं होगी। इसलिए अधिकांश लोगों का विचार कर समाज की एक मर्यादा बना दी जाती है। समाज के सभी व्यक्तियों को उ मर्यादा का पालन करना पड़ता है। चाहे किसी व्यक्ति को कष्ट ही क्यों न हो, किन्तु वह समाज की मर्यादा का उल्लंघन नहीं करेगा। यदि वह ऐसा करेगा, तो समाज द्वारा निन्दनीय होगा। अधिक की भलाई का विचार कर हमें उसके लिए एक की भलाई की चिन्ता छोड़नी ही पड़ती है। परन्तु कुछ समय बाद अवस्था विशेष में परिवर्तन होने के कारण समाज में दोष उत्पन्न हो जाते हैं। तब उन दोषों को दूर करने के लिए समाज की मर्यादा भंग करनी पड़ती है और एक नयी मर्यादा बनानी पड़ती है। जो लोग समाज को नये पथ। का दर्शन कराते हैं, उन्हें कष्ट सहना पड़ता है। सभी तरह के कष्टों को सहकर वे समाज के कल्याण के लिए अपने कार्यों में दृढ़तापूर्वक लगे रहते हैं। अन्त में सत्यनिष्ठा के कारण वे समाज के सुधारक कहे जाते हैं।
प्रश्न-
(क) उक्त अवतरण का उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
(ख) अवतरण का सारांश लिखिए।
उत्तर:
(क) शीर्षक-समाज सेवा की भावना।।
(ख) सामाजिक उन्नति एवं सुव्यवस्था के लिए जो मर्यादा बनाई जाती है, उसका सभी को पालन करना पड़ता है। उस मर्यादा-पालन में व्यक्तिहित की अपेक्षा समाज-हित का अधिक ध्यान रखा जाता है। परन्तु जब कभी समाज में किसी कारण दोष आ जाते हैं तो फिर नयी मर्यादा बनानी पड़ती है। इस कार्य में कष्ट सहकर भी जो लोग संलग्न रहते हैं, वे समाज-सुधारक कहलाते हैं।
अवतरण-22
हमारे यहाँ शिक्षा तो वास्तव में ज्ञान के सम्प्रेषण की विधि है। विधि का अर्थ है–सिखलाना। लेकिन हम सिखलायेंगे क्या? इसके लिए हमारे यहाँ शब्द है– विद्या। विद्या को शिक्षा के माध्यम से प्रेषणीय करते हैं। विद्या वह ज्ञातव्य विषय है; जो हम आप तक पहुँचाना चाहते हैं। हमारे यहाँ मनीषियों ने इस विद्या को अर्थकरी और परमार्थकरी दो भागों में बाँटा है। अर्थकरी वह विद्या है जो समाज में आपको उपयोगी बनाती है, जो आपको जीवन की आजीविका की सुविधाएँ देती है और परमार्थकरी विद्या वह विद्या है जिससे आप समष्टि से जुड़ते हैं। उसमें मानवीय मूल्य है, जिससे आपका हृदय बनता है, आपकी बुद्धि बनती है, आप उदार बनते हैं, स्नेहशील बनते हैं, सद्भाव एवं सम्पन्नता से पूर्ण मानव बनते हैं, जिससे आपकी बुद्धि और हृदय को परिष्कार होता है।
प्रश्न-
(क) उक्त अवतरण का उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
(ख) इस गद्यांश का उचित संक्षेपण कीजिए।
उत्तर:
(क) शीर्षक-विद्या का महत्त्व।
(ख) शिक्षा का अर्थ है–विद्या को सम्प्रेषणीय बनाना। विद्या के दो भाग हैं—एक अर्थकरी और दूसरा परमार्थकरी। अर्थकरी विद्या आजीविका की सुविधाएँ देती हैं जिससे व्यक्ति का समाज में महत्त्व बढ़ता है। परमार्थकारी विद्या से मानव में मानवीय भावों का उदय होता है, ह सहृदय, बुद्धिशील एवं सद्भाव से परिपूर्ण मानव बनता है।
अवतरण-23
भारतीय साहित्य की विशेषता इतनी प्रमुख और मौलिक है कि केवल इसी के बल पर संसार के अन्य साहित्यों के सामने वह अपनी मौलिकता की पताका फहरा सकता है। जिस प्रकार भारत के धार्मिक क्षेत्र में ज्ञान और भक्ति का समन्वय प्रसिद्ध है और वर्ण एवं आश्रम चतुष्टय की व्यवस्था द्वारा जिस प्रकार देश में सामाजिक समन्वय का सफल प्रयास हुआ है, उसी प्रकार साहित्य तथा अन्य कलाओं में भी भारतीय संस्कृति समन्वय की ओर उन्मुख रही है।
साहित्यिक समनव्य से हमारा तात्पर्य साहित्य में प्रदर्शित सुख-दुःख, उत्थान-पतन, हर्ष-विषाद आदि विरोधी तथा विपरीत भावों के समीकरण एवं अलौकिक आनन्द में विलीन होने से है। साहित्य के किसी अंग को लेकर देखिए, सर्वत्र यहाँ समन्वय दिखाई देगा। भारतीय नाटकों में भी सुख-दु:ख के प्रबल घात-प्रतिघात दिखाये गये हैं, पर उन सबका अवसान आनन्द में ही होता है। इसका प्रधान कारण यह है कि भारतवासियों का ध्येय सदा से जीवन को आदर्श स्वरूप उपस्थित कर उसका उत्कर्ष बढ़ाने तथा उसकी उन्नति की ओर अग्रसर होने का रहा है।
प्रश्न-
(क) उक्त गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
(ख) गहरे काले छपे वाक्य की व्याख्या कीजिए।
(ग) अवतरण का सारांश लिखिए।
उत्तर:
(क) शीर्षक- भारतीय साहित्य की प्रमुख विशेषता।।
(ख) भारतीय साहित्य के सभी अंगों में, नाटक, काव्य, गीत, उपन्यास आदि सभी में समन्वय की भावना अनेक रूपों में दिखाई देती है।
(ग) समन्वय की प्रवृत्ति भारतीय साहित्य की प्रमुख एवं मौलिक विशेषता है। यह समन्वय यहाँ के धर्म, दर्शन व समाज में पाया जाता है। साहित्य में समन्वय का अर्थ प्रेम-घृणा, हर्ष-विषाद आदि विरोधी भावों के मेल से होता है और उसका अन्त आनन्दमय होता है। भारतीय नाटक इसके प्रमाण हैं। जीवन के प्रति हमारा दृष्टिकोण भी यही रहा है कि हम संघर्षों के बीच उन्नति करते हुए आगे बढ़े।
अवतरण-24
साहित्य में बड़ी तेजी से परिवर्तन हो रहा है। हमारा युवा साहित्यकार यह विश्वास करने लगा है कि अब तक के साहित्यकार जिस मार्ग पर चलते रहे, वह मार्ग अपने चरम गन्तव्य तक पहुँच गया है। अब अगर उसी पर बने रहना है तो धीरे-धीरे पीछे लौटना होगा या फिर दौड़कर एक बार आगे से पीछे-और एक बार पीछे से आगे की ओर जाने की कसरत करनी होगी। इस क्रिया से दौड़ने वालों की फुर्ती, ताकत और हिम्मत की तारीफ की जा सकती है और इतना निश्चित है कि उससे आगे बढ़ने की आशा नहीं की जा सकती। आगे बढ़ना हो तो इस सड़क के अन्तिम किनारे से मुड़ जाना होगा। सब लोग इस रास्ते को नहीं देख पाते, क्योंकि वह अच्छी तरह से बना नहीं है, काँटे और कंकड़ की ढेरी में से एक अस्पष्ट पगडंडी उस रास्ते की ओर इशारा कर रही है। लहूलुहान हो जाने का खतरा भी बहुत है, पर अगर मनुष्य जाति को वर्तमान दुर्गति |’ से बचाना है, तो इस मार्ग पर चलने के सिवाय और कोई उपाय नहीं है।
प्रश्न-
(क) उक्त अवतरण का उचित शीर्षक दीजिए।
(ख) अवतरण का संक्षेपण कीजिए।
उत्तर:
(क) शीर्षक-साहित्य की गतिशीलता।।
(ख) वैज्ञानिक प्रगति के साथ-साथ साहित्य में भी तेजी से प्रगति हो रही है।
परन्तु आज साहित्य अपनी प्रगति की चरम सीमा पर पहुँच चुका है, ऐसा सोचना युवा साहित्यकारों की भूल है। साहित्य की वृद्धि करने के लिए इसमें आगे-पीछे देखना पड़ेगा। साहित्य का मार्ग कंटकाकीर्ण है, इंस मार्ग पर पहले पगडंडी बनाकर चलते हुए ही हम अपने साहित्य की प्रगति कर सकते हैं। मानव जाति को वर्तमान दुर्गति से बचाने का उपाय भी साहित्य की गतिशीलता ही है।
अवतरण-25
अनेक राजनीतिक आँधियों के थपेड़े खाने पर भी सदियों से भारतवर्ष अखण्ड देश रहा है। इस अखण्डता या एकता की नींव इतनी गहरी है कि पर्वो पर हम प्रायः भूल जाते हैं कि हम मद्रास के हैं या उड़ीसा के। माघ मेले के अवसर पर प्रयाग में संगम में नहाते समय या काशी में ग्रहण के अवसर पर गंगाजी में नहाते वक्त समूचे भारत की जनता की लहरों पर लहरें गंगाजी की जलधारा की ओर अग्रसर होती हैं। और स्नान तथा तीर्थकर्म से अपने को पवित्र मानती हैं। इनकी भक्तिधारा आज भी सारे भारत को स्नेह-रज्जु में बाँधे हुए है जो अटूट है, अभेद्य है और अमिट है।
प्रश्न-
(क) उक्त अवतरण का उचित शीर्षक दीजिए।
(ख) गहरे काले छपे वाक्य की व्याख्या कीजिए।
(ग) अवतरण का सारांश लिखिए।
उत्तर:
(क) शीर्षक-भारत की अखण्डता अथवा राष्ट्रीय एकता।
(ख) भारतीय तीर्थों में विभिन्न पर्वो के अवसर पर विभिन्न जातियों एवं प्रान्तों के लोगों में भक्ति-भावना की जो समानता दिखाई देती है, उससे भारतीय एकता को प्रबल सहारा मिलता है।
(ग) राजनीतिक विघटनों में भी भारत सदा अखण्ड रहा है। इसकी एकता के दर्शन विभिन्न पर्यों में मेलों में हो जाते हैं। माघ मेले में प्रयाग में या ग्रहण पर काशी में भारतीय जनता की एकता भक्ति-धारा के रूप में दिखाई देती है। यह भक्ति-धारा अटूट, अभेद्य और अमिट स्नेह-रज्जु की तरह भारत में एकता को मजबूत रखती है।
अवतरण-26
भारत के अधिकांश रहने वालों की एक खास आदत है कि पेट का थोड़ा-सा इन्तजाम हो जाने पर वे फिर आमदनी बढ़ाने की कोशिश नहीं करते। उनका जीवन बहुत ही सरल और सादा होता है। वे अपने कष्टों को बहुत कुछ सह लेते हैं। इन सबकी वजह से उनका रहन-सहन का दर्जा भी बहुत नीचा होता है। वे आधा पेट खाकर दिन बिताते हैं।
आप पूछ सकते हैं कि क्या भारत में भोजन की कमी है? यह ऐसा सवाल है, जिस पर भिन्न-भिन्न लोगों के विचार एक-से नहीं हैं। कुछ सज्जन कहते हैं कि पिछले सालों में जिस दर से भारत में जनसंख्या बढ़ी है, उस दर से खाने की वस्तुओं में वृद्धि नहीं हुई है। माल्थस, एक अंग्रेज अर्थशास्त्री का कथन है कि जनसंख्या भोजन की चीजों से कहीं अधिक तेजी से बढ़ती है, उसके विचारों पर बहुत कुछ कहा जा चुका है, तिस पर भी ये विचार अभी तक आदर की दृष्टि से नहीं। देखे जाते हैं। यह स्पष्ट है कि भारत में जनसंख्या की बहुत ज्यादा वृद्धि हुई है और यहाँ जनसंख्या के एक भाग को एक वक्त भी पेटभर भोजन नहीं मिलता।
प्रश्न-
(क) उक्त गद्यांश का उचित शीर्षक दीजिए।
(ख) गहरे काले छंचे वाक्यं की व्याख्या कीजिए।
(ग) अवतरण का संक्षेपण कीजिए।
उत्तर:
(क) शीर्षक-जनसंख्या वृद्धि एवं खाद्य समस्या।।
(ख) खाद्य-उत्पादन बढ़ाने में कुछ समय लगता है, परन्तु माल्थस नामक अंग्रेज अर्थशास्त्री के अनुसार जनसंख्या की वृद्धि उससे भी अधिक गति से होती है। यही खाद्य-समस्या का मूल कारण है।
(ग) अधिकांश भारतीय आजीविका की सामान्य व्यवस्था होने पर सन्तुष्ट रहते हैं। वे सरल एवं कष्ट-सहिष्णु होते हैं और आधा पेट भोजन खाकर अपना निम्न स्तर का जीवन बिताते हैं। वर्तमान में भारत में जनसंख्या की तीव्रतम वृद्धि हुई है। अंग्रेज अर्थशास्त्री माल्थस के कथनानुसार जनसंख्या की तीव्रतम वृद्धि के साथ खाद्य. वस्तुओं की वृद्धि नहीं होने से भारत में निम्न वर्ग के लोगों को एक वक्त भी भरपेट भोजन नहीं मिल पाता है।
अवतरण-27
नारी त्याग और तपस्या की अद्भुत विभूति है। इन्हीं दोनों तत्त्वों के समन्वय से हमारी भारतीय नारी का स्वरूप संगठित हुआ है। नारी जीवन का मूल मन्त्र हैत्याग। और इस मन्त्र को सिद्ध करने की क्षमता उसे प्रदान की है तपस्या ने। हम ठीक-ठीक नहीं कह सकते हैं कि उसके जीवन के किस अंश में इन महनीय तत्त्वों के विलास का दर्शन हमें नहीं मिलता, परन्तु यदि हम उसके पूर्व जीवन को ‘तपस्या का काल तथा उत्तर जीवन को ‘त्याग’ का काल मानें तो कथमपि अनुचित न होगा। नारी के तीन रूप हमें दिखाई पड़ते हैं–कन्या रूप, भार्या रूप तथा मातृ रूप। कौमार काल नारी जीवन की साधनावस्था है और उत्तर काल उस जीवन की सिद्धावस्था है। हमारी संस्कृति के उपासक संस्कृत कवियों ने नारी की तीन अवस्थाओं का चित्रण बड़ी सुन्दरता के साथ किया है।
प्रश्न-
(क) उक्त अवतरण का उपयुक्त शीर्ष दीजिए।
(ख) गहरे काले छपे वाक्य की व्याख्या कीजिए।
(ग) इस अवतरण का संक्षेपण कीजिए।
उत्तर:
(क) शीर्षक-भारतीय नारी जीवन।।
(ख) त्याग और तपस्यो इन दोनों तत्त्वों के समन्वय से भारतीय नारी के व्यक्तित्व, जीवन-चरित्र तथा आस्था का निर्माण होता है।
(ग) भारतीय नारी का स्वरूपं त्याग और तपस्या में संगठित हुआ है। उसे . त्याग की क्षमता तपस्या भावना ने प्रदान की है। भारतीय नारी के जीवन के पूर्व-काल को ‘तपस्या और उत्तर काल को ‘त्याग’ का काल कहना उचित है। नारी के तीन रूप हैं-कन्या रूप, पत्नी रूप और माता रूप। पूर्वावस्था उसकी साधनावस्था तथा। उत्तरावस्था सिद्धावस्था है। संस्कृत के कवियों ने नारी की तीनों अवस्थाओं का सुन्दर चित्रण किया है।
युद्ध और राष्ट्रीयता एक ही तस्वीर के दो पहलू हैं। राष्ट्रों के बीच जब तनाव आ जाता है तब उससे युद्ध उत्पन्न होते हैं और युद्ध प्रारम्भ होने के बाद राष्ट्रीयता की शक्ति में भी वृद्धि हो जाती है। युद्ध और राष्ट्रीयता दोनों के दोनों राजनीति हैं। जब एक देश किसी दूसरे देश पर अधिकार जमाता है, तब गुलाम देश के लोगों में शासन के विरुद्ध घृणा का ज्वार उमड़ता है। घृणा से इस ज्वार में राष्ट्रीयता उत्पन्न होती है। राष्ट्रीयता लगभग पशु-धर्म है। भैंस अपने खूटे पर किसी दूसरी भैंस को नहीं आने देना चाहती।
यही भाव विकसित और परिमार्जित होकर मनुष्यों के बीच राष्ट्रीयता कहलाता है। जैसे राष्ट्रीयता राजनीति का एक रूप है, उसी प्रकार युद्ध भी राजनीति है। राजनीति जब सफेद लिबास में होती है, हम उसे शान्ति कहते हैं। जब उसके कपड़े लहू से लाल हो जाते हैं, वह युद्ध कहलाती है। युद्धों से दु:खी होकर मनुष्य अब उनका उन्मूलन चाहता है और इसलिए वह राष्ट्रीयता का विरोध भी करने लगा है। परन्तु जब तक राष्ट्रीयता है, दुनिया देशों में बँटी रहेगी और युद्ध होते रहेंगे।
प्रश्न
(क) उक्त गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
(ख) अवतरण का संक्षेपण कीजिए।
उत्तर:
(क) शीर्षक-युद्ध और राष्ट्रीयता।
(ख) युद्ध और राष्ट्रीयता राजनीति के दो रूप हैं। किसी राष्ट्र पर आक्रमण होने पर उनमें राष्ट्रीयता की भावना प्रखर हो जाती है। राष्ट्रीयता के कारण शासकदेश से गुलाम-देश घृणा करने लगता है। इस कारण राष्ट्रीयता पशु-धर्म माना जाता है, जो कि मानव समाज में परिमार्जित रूप में रहता है। राजनीति के सफेद लिबास में राष्ट्रीयता का रूप शान्तिमय रहता है, परन्तु उसकी अत्यन्त उग्रता से युद्ध को जन्म मिलता है। कट्टर राष्ट्रीयता के कारण विश्व के देश लड़ते रहे हैं और लड़ते रहेंगे।
अवतरण-29
ईश्वर भी सहायक और सानुकूल उन्हीं का होता है जो अपनी सहायता अपनेआप कर सकते हैं। अपने-आप अपनी सहायता करने की वासना आदमी में सच्ची तरक्की की बुनियाद है। अनेक सुप्रसिद्ध पुरुषों की जीवनी इसका उदाहरण तो है। ही, वरन् प्रत्येक जाति के लोगों में बल और ओज तथा गौरव और महत्त्व के आने का आत्मनिर्भरता सच्चा द्वार है। बहुधा देखने में आता है कि किसी काम के करने में बाहरी सहायता इतना लाभ नहीं पहुँचा सकती, जितनी आत्मनिर्भरता।
समाज के सम्बन्ध में भी देखिए तो बहुत तरह के संशोधन सरकारी कानूनों के द्वारा वैसे नहीं हो सकते, जैसे समाज के एक-एक मनुष्य का अपना संशोधन अपने आप अलग-अलग करने से हो सकते हैं। कड़े से कड़ा समाज आलसी को परिश्रमी, अपव्ययी या फिजूलखर्च को किफायतसार या परिमित व्ययशील, शराबी को परहेजगार, क्रोधी को शान्त या सहनशील, सूम को उदार, लोभी को सन्तोषी, मूर्ख को विद्वान्, दर्पान्ध को नम्र, दुराचारी को सदाचारी, कदर्य को उन्नतमना, दरिद्र भिखारी को ओढ्य, भीरु डरपोक को धुरीण, झूठे गपोड़िये को सच्चा, चोर को साह, व्यभिचारी को एक पत्नी व्रतधारी इत्यादि नहीं बना सकता, किन्तु ये बातें हम अपने ही प्रयत्न और चेष्टा से अपने में ला सकते हैं। …
प्रश्न-
(क) उक्त गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक दीजिए।’
(ख) गहरे काले छपे वाक्य को आशय बताइये।
(ग) अवतरण का सारांश लिखिए।
उत्तर:
(क) शीर्षक-आत्मनिर्भरता का महत्त्व।
(ख) जब व्यक्ति अपने आप उन्नति के लिए प्रयत्न कर कष्टों को सहन करता है और स्वावलम्बी बनने की चेष्टा करता है, तब उसकी उन्नति स्वतः होने लगती है।
(ग) आत्मनिर्भरता से मानसिक शान्ति प्राप्त होती है। वही आत्मिक शान्ति मनुष्य को उन्नति के पथ पर अग्रसर करती है। सरकार, कानून या समाज भी व्यक्ति के दोषों को दूर नहीं कर सकता, किन्तु आत्मनिर्भरता से यह सम्भव है।
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