Rajasthan Board RBSE Class 11 History Chapter 1 विश्व की प्रमुख सभ्यताएँ
RBSE Class 11 History Chapter 1 पाठ्यपुस्तक के प्रश्नोत्तर
RBSE Class 12 History Chapter 1 अति लघूत्तरात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
‘कुल चिन्ह’ किसे कहते हैं?
उत्तर:
नवपाषाण काल में अपने अस्तित्व की अलग पहचान हेतु परिवारों का कोई समूह यदि किसी पौधे अथवा पशु की आकृति को अपनी जाति या समूह का चिन्ह मान लेता था तो उसे उस समूह का कुल चिन्ह कहा जाता था।
प्रश्न 2.
‘स्फिग्स’ किसे कहते हैं?
उत्तर:
मिश्र में खूफू (गिजा) के पिरामिड के सामने स्थिते पत्थर की एक विशालकाय नृसिंह की मूर्ति को स्फिग्स कहा जाता है।
प्रश्न 3.
‘ममी’ क्या है?
उत्तर:
मिश्र की सभ्यता में पिरामिड में विशेष मसाले का लेप करके सुरक्षित रखे जाने वाले शवों को ममी कहा जाता था।
प्रश्न 4.
‘बेबीलोन सभ्यता’ के प्रमुख देवी – देवताओं के नाम लिखिए।
उत्तर:
बेबीलोन सभ्यता के प्रमुख देवी – देवता हैं- अन् (आकाश), शमस (सूर्य), बेल (पृथ्वी), सिन (चन्द्रमा), निनगंल (चन्द्रमा की पत्नी), ईश्वर और मारदूक।
प्रश्न 5.
प्राचीन चीन के मुख्य धर्म कौन – से हैं?
उत्तर:
प्राचीन चीन के मुख्य धर्म – ताओ धर्म और कन्फ्यूशियस धर्म थे।
प्रश्न 6.
राजस्थान में सिन्धु – सरस्वती सभ्यता का कौन सा पुरास्थल है?
उत्तर:
कालीबंगा।
प्रश्न 7.
सिंधु – सरस्वती लिपि की विशेषता लिखिए।
उत्तर:
यह लिपि दाहिनी ओर से बायीं ओर लिखी जाती थी।
प्रश्न 8.
लिरिक किसे कहते हैं?
उत्तर:
छोटी यूनानी कविताओं को लिरिक कहते थे।
प्रश्न 9.
ओलंपिक खेल कहाँ एवं क्यों होते थे?
उत्तर:
यूनान में जियस देवता के सम्मान में ओलंपिक नामक खेल – उत्सव प्रति चौथे वर्ष मनाया जाता था।
प्रश्न 10.
रोम व्यापार की चौकी भारत में कहाँ स्थित थी?
उत्तर:
भारत में मद्रास के समीप एरिकमेडु में रोम व्यापार की चौकी स्थापित थी।
RBSE Class 12 History Chapter 1 लघूत्तरात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
नवपाषाण युग की प्रमुख विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर:
नवपाषाण युग की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
- नव पाषाण युग में मानव द्वारा कृषि और पशुपालन की शुरुआत की गई।
- लोगों ने मिट्टी के घरों एवं लकड़ी के खम्भों तथा घासफूस के छप्पर से बने मकानों में रहना प्रारम्भ कर दिया।
- संगठित सामाजिक जीवन का विकास हुआ।
- इस काल में पशुओं को उपयोग मुख्यतः दूध और मांस प्राप्त करने के लिए होता था।
- इस युग में पत्थर के औजार चिकने बनाए जाते थे।
- नवपाषाण काल में मानव ने सूई, काँटेदार बर्थी एवं गुलेल जैसे औजार हड्डी एवं सींगों से बनाना प्रारम्भ कर दिया।
- मिट्टी के बर्तनों का आविष्कार हुआ।
- सूत कातने एवं कपड़े बुनने की कला का प्रारम्भ हुआ।
- मृत व्यक्तियों को हथियार, मिट्टी के बर्तन एवं खाने – पीने की वस्तुओं के साथ दफनाया जाता था।
- इस काल में मानव ने पहिए का आविष्कार किया।
प्रश्न 2.
प्राचीन मिश्र की सभ्यता में स्त्रियों की दशा का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
प्राचीन मिश्र की सभ्यता में स्त्रियों की दशा अच्छी थी। उन्हें पर्याप्त सम्मान प्राप्त था। वैवाहिक सम्बन्धों में केन्या की राय को महत्व दिया जाता था। विवाह के पश्चात् पत्नी को परिवार के प्रत्येक मामले में पति के समान महत्व दिया जाता था। पारिवारिक सम्पत्ति के वितरण में भी उन्हें प्रभुसत्ता दी जाती थी।
पिता की मृत्यु के पश्चात् उसकी सम्पत्ति की उत्तराधिकारी उसकी सबसे बड़ी पुत्री होती थी। समाज में भी स्त्रियों को पर्याप्त स्वतंत्रता प्राप्त थी। वे व्यापार करने के साथ-साथ सार्वजनिक भोजों में भी भाग लेती थीं। वे भ्रमण पर भी जाती थीं। हेपसेपसूत एवं क्लीया पेट्रा नामक रानियों द्वारा मिश्र में शासन संचालन के भी उदाहरण देखने को मिले हैं।
प्रश्न 3.
बेबीलोन सभ्यता की विश्व को प्रमुख देन क्या है?
उत्तर:
वर्तमान ईरान की दजला और फराते नदियों के मध्य स्थित भू-भाग पर स्थित बेबीलोन की सभ्यता ने विश्वसभ्यता और संस्कृति के निर्माण में निम्नलिखित प्रकार से महत्वपूर्ण योगदान प्रदान किया है।
- राजनीति के क्षेत्र में राजत्व में ‘देवत्व’ की भावना का विकास एवं शासन संचालन में मंत्रियों को अलग – अलग दायित्व सौंपने की प्रथा इसी सभ्यता की देन है।
- सर्वप्रथम बेबीलोन में ही कानून की संहिता (हम्मूराबी की विधि संहिता) का निर्माण हुआ।
- सम्पूर्ण विश्व में सर्वप्रथम बेबीलोन ने ही सामाजिक क्षेत्र में तीनों वर्गों उच्च, मध्यम एवं दास वर्ग को कानूनी मान्यता दी तथा कानून के द्वारा स्त्रियों की रक्षा की।
- आर्थिक क्षेत्र में भी बेबीलोन की सभ्यता ने महत्वपूर्ण अवधारणाओं का सूत्रपात किया, जिसमें भूमि का हिसाब रखना, राजस्व वसूली का हिसाब, सरकार की ओर से किसानों का कर माफ करना, मुआवजा देना तथा फसल का समर्थन मूल्य निर्धारित करना आदि प्रमुख हैं।
- घण्टे का 60 मिनटों में तथा मिनट का 60 सेकण्डों में विभाजन, जो आज समस्त विश्व में प्रचलित है। यह मापदण्ड बेबीलोन की ही देन है।
प्रश्न 4.
प्राचीन चीन की सभ्यता में लोक सेवा आयोग के क्या कार्य थे?
उत्तर:
चीन में हान वंश के शासकों ने शासन संचालन हेतु प्रशासनिक अधिकारियों के चयन के लिए एक लोक सेवा आयोग का गठन किया। यह लोक सेवा आयोग प्रतियोगी परीक्षा आयोजित कर श्रेष्ठ प्रशासनिक अधिकारियों को चयन करता था। इस प्रतियोगी परीक्षा में तर्कशास्त्र, आचार, न्याय, दर्शन, स्वास्थ्य, काव्य आदि विषयों से सम्बन्धित प्रश्न पूछे जाते थे। विश्व में यह अपनी तरह का पहला प्रयास था।
प्रश्न 5.
प्राचीन चीन की सभ्यता के प्रमुख आविष्कारों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
प्राचीन चीन की सभ्यता के प्रमुख आविष्कार निम्नलिखित हैं
- कागज का आविष्कार – चीन में पहली शती ई. में कागज का आविष्कार हुआ। इससे लेखन कला में क्रांतिकारी परिवर्तन आया।
- पनचक्की एवं जलघड़ी का आविष्कार – जलघड़ी के आविष्कार से चीनियों ने ऋतुओं का रहस्य जान कर आने वाली बाढ़ों से निपटने का प्रयत्न किया।
- भूकम्पलेखी यंत्र का आविष्कार – चीन के लोगों ने भूकम्प विज्ञान का विकास कर भूकम्पलेखी यंत्र का आविष्कार किया। इस यंत्र के माध्यम से वे भूकम्प के उद्भव स्थान की जानकारी प्राप्त कर लेते थे।
- पतंग का आविष्कार – चीन के लोगों ने पतंग का आविष्कार किया।
- छतरियों का आविष्कार – चीनी निवासियों ने छतरियों का भी आविष्कार किया।
प्रश्न 6.
सिंधु – सरस्वती सभ्यता की जल निकास प्रणाली का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
भारत में विकसित हुई सिन्धु-सरस्वती सभ्यता की एक प्रमुख विशेषता उसकी जल निकास व्यवस्था थी। यह सभ्यता नगरीय स्वच्छता का श्रेष्ठतम प्रतीक है। यहाँ जल निकास हेतु व्यवस्थित प्रणाली थी। प्रत्येक घर के किनारे वर्षा एवं घर के गंदे पानी की निकासी हेतु नालियाँ थीं। घरों की ऊपरी मंजिलों का गंदा पानी ईंटों की बनी पाइपनुमा नाली से नीचे गिरता था। प्रत्येक घर की नाली गली की प्रमुख नालियों से होकर मुख्य सड़क की नालियों में गिरती थी।
सड़क की नालियाँ सड़कों के दोनों ओर बनाई जाती थीं। नालियाँ मिट्टी के गारे, चूने, ईंट एवं जिप्सम आदि वस्तुओं से बनाई जाती थीं। नालियों को ईंटों और पत्थरों से ढका जाता था। सफाई के पश्चात् इनको पुनः ढक दिया जाता था। नालियों का पानी आगे एक बड़ी नाली में गिरता था, जो पानी को शहर के बाहर ले जाती थीं।
प्रश्न 7.
एथेंस में सोलन के प्रमुख सुधारों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
एथेंस यूनान का एक प्रमुख नगर राज्य था। एथेंस में सातवीं शती ई. पू. में राजतंत्र के स्थान पर धनिक वर्ग के अल्पतंत्र की स्थापना हुई। एथेंस में कुलीन वर्ग एवं दास वर्ग के अतिरिक्त कुछ स्वतंत्र नागरिक भी थे जो डेमोस कहलाते थे। इसमें किसान, मजदूर, कारीगर एवं व्यापारी सम्मिलित थे। ये लोग अल्पतन्त्री शासन के विरुद्ध थे।
इनके संघर्ष के परिणामस्वरूप 594 ई. पू. में सोलन को नया मजिस्ट्रेट नियुक्त किया गया। सोलन ने कई महत्वपूर्ण सुधार किए। उसने गिरवी प्रथा को समाप्त कर दिया और एथेंस के समस्त नागरिकों को दास प्रथा से मुक्त कर दिया। उसने यह भी नियम बनाया कि भविष्य में एथेंस का कोई भी निवासी ऋण न चुका सकने के कारण दास नहीं बनाया जाएगा। सोलन द्वारा किए गए सुधारों से निर्धन एवं मध्यम दोनों वर्गों को लाभ हुआ।
प्रश्न 8.
स्पार्टा के निवासियों की रुचियों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
स्पार्टा यूनान का एक प्रमुख नगर राज्य था। अपनी विशिष्ट भौगोलिक स्थिति के कारण यह यूनान के अन्य राज्यों से भिन्न था। पर्वत श्रेणियाँ इसे अन्य यूनानी राज्यों से अलग करती थीं। यहाँ के निवासियों की रुचि सैन्य वाद एवं युद्धों में थी। यहाँ सात वर्ष की अवस्था से ही बालकों से कठिन सैन्याभ्यास कराया जाता था, जिससे कि स्पार्टा राज्य को साहसी एवं योद्धा सैनिक मिल सके।
यहाँ के निवासियों का अधिकांश कार्य दास करते थे, जिससे कि वे अन्य कार्यों की चिन्ता से मुक्त रहकर अपना सम्पूर्ण समय युद्ध एवं शासन में लगाएँ। यहाँ के निवासियों की रुचि सैन्यवाद एवं युद्धों में रहने के कारण यहाँ सैनिक शासन स्थापित हुआ।
प्रश्न 9.
रोमन सभ्यता में दासों की भूमिका का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
रोमन सभ्यता का विकास मुख्य रूप से इटली में हुआ। रोमन समाज का चौथा वर्ग दास वर्ग था जो जमीदारों, धनी व्यापारियों, साहूकारों, स्वतंत्र किसानों एवं शहरों के निवासियों के समस्त कार्यों को करता था। यहाँ के दासों का जीवन बहुत दयनीय था। उनसे दिनभर कार्य कराया जाता था तथा उसके पश्चात् उन्हें कोठरियों में बंद कर दिया जाता था।
कुछ दासों का जीवन स्तर अच्छी स्थिति में भी था तथा कुछ दास अपने स्वामी से भी अधिक शिक्षित एवं विश्व की प्रमुख सभ्यताएँ विद्वान थे। लेकिन ऐसे दासों की संख्या बहुत सीमित थी। इसप्रकार दासों ने रोमन सभ्यता के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया।
प्रश्न 10.
जूलियस सीजर के प्रमुख कार्यों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
जूलियस सीजर रोम का शासक था। यह बहुमुखी प्रतिभा – सम्पन्न व्यक्ति था। यह सैनिक, प्रशासक, विधायक, राजनीतिज्ञ और साहित्यकार आदि समस्त दृष्टियों में महान था। उसके द्वारा संशोधित जूलियनी पंचांग वर्तमान समय में भी प्रासंगिक है।
वह जनता के लिए ‘रोटी और खेल तमाशों’ पर धन व्यय करके एवं वोटों के लिए पैसा देकर जनता में बहुत अधिक लोकप्रिय हो गया। उसने अपनी निजी सेना का संगठन किया और आठ वर्षों तक निरन्तर संघर्ष कर गॉलजाति को पराजित कर सम्पूर्ण जर्मनी व इंग्लैण्ड आदि देशों पर अधिकार कर लिया।
उसने रोम में अपने विरोधियों का दमन कर शांति एवं व्यवस्था स्थापित की। उसने सूबों में लगान एवं अन्य करों में कमी की तथा राजस्व वसूली की ठेकेदारी प्रथा को समाप्त कर यह कार्य राजकीय संस्थाओं को सौंपा। इस प्रकार जूलियस सीजर ने अपने अल्प समय के शासन काल में रोम में अनेक महत्वपूर्ण कार्य किये।
RBSE Class 12 History Chapter 1 निबन्धात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
प्राचीन मिस्र के राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक एवं धार्मिक जीवन की विवेचना कीजिए।
उत्तर:
मिस्र अफ्रीका महाद्वीप के उत्तर – पश्चिम में स्थित नील नदी द्वारा सिंचित एक देश है। मिस्र की सभ्यता का विकास नील नदी की घाटी में हुआ था। मिस्र की सभ्यता बहुत प्राचीन है। प्राचीन मिस्र के राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक एवं धार्मिक जीवन की विवेचना निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत प्रस्तुत हैं
(1) प्राचीन मिस्र का राजनैतिक जीवन:
प्राचीन मिस्र के छोटे – छोटे लगभग चालीस राज्यों को एक करने का श्रेय मिनीज नामक शासक को जाता है। मिनीज ने 3400 ई. पू. में मिस्र का राजनैतिक ढाँचा खड़ा किया था। मिश्री शासन व्यवस्था पूर्णतः धर्मतांत्रिक थी। मिस्र के शासक ‘फराहों’ कहलाते थे। प्रजा पर इनकी सत्ता निरंकुश थी।
राजा ‘फराहो’ को प्रशासनिक कार्यों में परामर्श देने के लिए एक ‘सरू’ नामक परिषद् होती थी। प्रशासनिक सुविधा हेतु मिस्र लगभग 40 प्रान्तों में विभाजित था। प्रान्त को ‘नोम’ कहा जाता था। मिस्री साम्राज्य के बड़े शहरों पर शासन फराहों द्वारा नियुक्त अलग-अलग अधिकारी करते थे। गुप्तचर प्रणाली फराहों को दिन-प्रतिदिन की सूचनाएँ भिजवाती थी।
(2) सामाजिक जीवन:
मिस्री समाज मुख्य रूप से तीन प्रमुख वर्गों में विभाजित था। उच्च वर्ग में राजवंश, सामन्त, पुजारी व धर्माधिकारी लोग सम्मिलित थे। मध्यम वर्ग में व्यापारी, लिपिक, शिल्पी, बुद्धिजीवी, कारीगर तथा कुछ स्वतन्त्र किसान तथा निम्न वर्ग में कृषक एवं दास थे।
कृषक, मजदूर एवं दासों का कोई स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं था। कृषकों को अपनी आय का अधिकांश भाग करों के रूप में देना पड़ता था। मजदूरों से क्रूरता के साथ बेगार ली जाती थी। दासों के प्रति पशुवत व्यवहार होता था। यहाँ के समाज की इकाई परिवार था। परिवार में माता – पिता, भाई – बहिन, पुत्र – पुत्री आदि संयुक्त रूप से रहते थे। स्त्रियों को पर्याप्त सम्मान प्राप्त था।
मिस्री सभ्यता के उच्च वर्ग व निम्न वर्ग के लोगों के रहन – सहन में बहुत अधिक अन्तर था। यहाँ के लोग भोजन में गेहूँ, जौ, चावल, तिलहन एवं विभिन्न प्रकार की सब्जियों का प्रयोग करते थे। माँस एवं मदिरा का भी प्रचलन था।
(3) आर्थिक जीवन:
मिस्र के आर्थिक जीवन का आधार कृषि वर्ग था। यहाँ गेहूँ, जौ, मटर, सरसों, अंजीर, जैतून, फ्लेक्स, खजूर, सन, अंगूर व अन्य फलों की खेती की जाती थी। मिस्र को प्राचीन विश्व की अन्न का भण्डार कहा जाता था क्योंकि यहाँ वर्ष में तीन बार फसलें बोयी जाती थीं। लकड़ी का हल बैलों द्वारा खिंचवाया जाता था।
सिंचाई व्यवस्था का आधार नील नदी थी। उसमें आयी बाढ़ के जल को संचित करने एवं खेतों तक पहुँचाने के लिए तालाबों एवं नहरों का जाल बिछा हुआ था। कृषि के साथ – साथ पशुपालन भी यहाँ के लोगों की आजीविका का एक अन्य प्रमुख साधन था। मिस्र में आवागमन तथा यातायात का प्रमुख साधन नील नदी थी।
सूडान, मेसोपोटामिया, अरब व भारत से मिस्र के व्यापारिक सम्बन्ध थे। यहाँ के लोग वस्तु विनिमय द्वारा व्यापार करते थे। मिस्र खाद्यान्नों, बर्तनों, कांच की वस्तुओं, कागज, फर्नीचर आदि का निर्यात करता था तथा विभिन्न प्रकार की धातुओं, लकड़ी, रंग, मसालों, चन्दन व श्रृंगार सामग्री का आयात करता था।
(4) धार्मिक जीवन:
प्राचीन मिस्र के लोगों के जीवन में धर्म का बहुत अधिक महत्व था। मिस्र के लोगों के धार्मिक जीवन में बहुदेववाद, देवताओं का मानवीकरण, मन्दिर एवं मूर्तियाँ, पुरोहितों का धार्मिक कर्मकाण्ड, भेंट – पूजा, बलि, जादू – टोना, अंधविश्वास, प्राकृतिक शक्तियों की पूजा, पेड़ – पौधों और पशु – पक्षियों की पूजा, आत्मा के अमरत्व में विश्वास, पुनर्जन्म, कर्मवाद की भावना एवं विधिवत मृतक संस्कार आदि का महत्वपूर्ण स्थान था। मिस्रवासियों के प्रमुख देवता एमन – रे (सूर्य), ओसिरिस (सूर्य का पुत्र), सिन (चन्द्रमा) एवं ओसरिम (नीलनदी) थे।
उनके देवता प्राकृतिक व्यक्तियों के प्रतीक थे। मिस्रवासियों का विश्वास था कि मृत्यु के पश्चात् या शव में आत्मा निवास करती है। अत: वे शव पर एक विशेष प्रकार के मसाले का लेप करते थे। इससे सैकड़ों वर्षों तक शव सड़ता नहीं था। शवों की सुरक्षा के लिए समाधियाँ बनायी जाती थीं। जिन्हें लोग पिरामिड कहते थे। पिरामिड में रखे शवों को ‘ममी’ कहा जाता था।
प्रश्न 2.
प्राचीन चीन की सभ्यता में लाओत्से एवं कन्फ्यूशियस के विचारों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
लाओत्से के विचार:
प्रसिद्ध चीनी दार्शनिक लाओत्से का जन्म चीन के होनान प्रान्त के एक निर्धन परिवार में 604 ई. पू. में हुआ था। इनका मूल नाम ‘ली’ था। इन्होंने लाओत्से अर्थात् प्राचीन आचार्य की उपाधि ग्रहण की। इन्होंने ‘ताओ-ते-चिंग’ नामक पुस्तक में अपने विचारों को समाहित किया। इनकी विचारधारा ‘ताओवाद’ कहलाती है। लाओत्से के विचार व शिक्षाएँ निम्नलिखित हैं-
- भौतिकवाद की शिक्षा दुर्जन व्यक्तियों की संख्या में वृद्धि करती है। भौतिक ज्ञान कोई गुण नहीं है। मानव को प्रकृतिवादी बनकर सादा व सरल जीवन व्यतीत करना चाहिए।
- ग्रामीण कुटीर उद्योगों के विकास से ही सामाजिक स्वतन्त्रता सम्भव है।
- न्यूनतम राजकीय नियन्त्रण से ही राज्य उन्नति कर सकता है। शक्ति से अहंकार में वृद्धि होती है जो पतन की ओर ले जाती है।
- हमें अपने शत्रु के साथ भी मित्रवत् व्यवहार करना चाहिए। हानि के बदले दया, कठोरता के बदले कोमलता एवं बुराई के बदले अच्छाई का व्यवहार किया जाना चाहिए।
- राजा के लिए युद्ध करना अनावश्यक है। युद्ध में निर्दोष व्यक्ति मारे जाते हैं। शान्ति का जीवन ही उचित मार्ग है।
- शान्ति ही विकास का ताओ अर्थात् मार्ग है।
कन्फ्यूशियस के विचार:
प्रसिद्ध दार्शनिक कन्फ्यूशियस का जन्म चीन के लू प्रान्त के एक उच्च वर्गीय परिवार में 551 ई. पू. में हुआ था। इन्होंने एक शिक्षक के रूप में अपने जीवन का आरम्भ किया। इन्होंने कई पुस्तकें लिखी जिनमें, ई-चिन (दर्शन की पुस्तक), शी-चिंग (चीनी काव्य ग्रंथ) ली – चिंग (सदाचार का ग्रंथ) शू-चिंग (इतिहास का प्रलेख) एवं छुन – छिऊ – चिंग (बसंत व शरद ऋतुओं का वर्णन) प्रमुख हैं।
कन्फ्यूशियस के विचार व शिक्षाएँ निम्नलिखित हैं
- शिक्षा चरित्र – निर्माण का प्रमुख साधन है। विद्यालयों में इतिहास, धर्म एवं शिष्टाचार के अतिरिक्त कुछ नहीं पढ़ाना चाहिए। उच्च शिक्षण संस्थाओं में साहित्य, काव्य और विज्ञान पढ़ाया जाना चाहिए।
- समाज में शिक्षक का पर्याप्त आदर होना चाहिए।
- माता – पिता का सम्मान करना चाहिए।
- सभी लोगों के प्रति नम्रतापूर्ण व्यवहार, गुरु का आदर, कर्तव्य – पालन एवं मित्र के साथ सद्व्यवहार करना चाहिए। असत्य बातों, क्रोध, ईर्ष्या एवं निन्दा का त्याग करना चाहिए।
- राजा को देवता के समान माना जाना चाहिए। अत्याचारी राजा को जनता द्वारा विद्रोह करके हटा देना चाहिए। राजा के अधिकारी व कर्मचारी दयावान, धैर्यवान, निष्पक्ष, न्यायप्रिय एवं निर्भय हों तथा शक्ति का दुरुपयोग न करें।
- जनता ईमानदारी के साथ राज्य के कानूनों का पालन करे।
- अन्य व्यक्तियों के लिए जीने वाला व्यक्ति ही सच्चा मानव है।
- सदाचारी, कर्तव्य परायण एवं स्वार्थरहित मनुष्य बनने के लिए व्यक्ति में दया, ज्ञान, सत्यता, न्याय एवं सेवा का गुण आवश्यक है।
प्रश्न 3.
सिन्धु – सरस्वती सभ्यता की प्रमुख विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
सिन्धु – सरस्वती सभ्यता की प्रमुख विशेषताएँ – सिन्धु – सरस्वती सभ्यता की प्रमुख विशेषताएँ / लक्षण निम्नलिखित हैं-
(1) नगर नियोजन:
सुनियोजित नगरों का निर्माण सिन्धु-सरस्वती सभ्यता की एक प्रमुख विशेषता है। सिन्धुसरस्वती सभ्यता कालीन नगरों से प्राप्त अवशेषों से यह जानकारी मिलती है कि यहाँ के लोग योजना बनाकर अपने नगरों एवं नगरों में निर्मित किए जाने वाले भवनों व आवासों का निर्माण करते थे। नगर नियोजन की प्रमुख विशेषता इस प्रकार हैं।
(i) नगर की आवास योजना:
सिन्धु – सरस्वती सभ्यता के नगरों की सुव्यवस्थित सड़क प्रणाली के फलस्वरूप स्वतः ही नगरों की आवास योजना में एक व्यवस्था उत्पन्न हो गयी तथा नगर कई खण्डों व मोहल्लों में विभक्त होकर सुनियोजित स्वरूप में उभर गए थे। भवन विभिन्न आकार प्रकार के होते थे। सामान्यतः घर पर्याप्त बड़े थे और प्रत्येक घर के बीच में खुला आँगन रखा जाता था और आँगन के चारों ओर कमरे बनाए जाते थे। घरों के निर्माण में पक्की ईंटों का उपयोग होता था।
(ii) व्यवस्थित सड़कें व गलियाँ:
सिंधु – सरस्वती सभ्यता के नगरों की सड़कें एवं सम्पर्क मार्ग तथा गलियाँ एक सुनिश्चित योजना के अनुसार निर्मित थीं। नगरों की सड़कें सीधी एवं एक – दूसरे को समकोण पर काटती हुई दिखती थीं। इस सभ्यता में सड़कें काफी चौड़ी होती थीं। इनकी चौड़ाई 9 फीट से 34 फीट तक मिलती है। सड़कों के किनारों पर स्थान – स्थान पर कूड़ा-कचरा डालने के लिए कूड़ेदान रखे रहते थे।
(iii) जल निकास प्रणाली:
सिंधु – सरस्वती सभ्यता कालीन नगरों के प्रत्येक घर के किनारे वर्षा एवं र से गंदे पानी की निकासी हेतु नालियाँ थीं। प्रत्येक घर की नाली गली की प्रमुख नालियों से होकर मुख्य सड़क की नालियों में गिरती थी। पक्की ईटों से निर्मित नालियाँ अधिकांशतया ढकी हुई होती थीं।
(iv) नगरों की सफाई एवं स्वच्छता का प्रबन्ध:
सिंधु – सरस्वती सभ्यता नगरीय स्वच्छता का श्रेष्ठतम प्रतीक है। यहाँ नगर एवं नगरों के मकानों में स्वच्छता और सफाई की समुचित व्यवस्था देखने को मिलती है। दिन प्रतिदिन का कूड़ा-कचरा डालने के लिए सड़कों पर जगह – जगह कूड़ा – पात्र रखे जाते थे।
(v) विशेष निर्मितियाँ:
सिंधु – सरस्वती सभ्यता कालीन नगरों की खुदाई से विभिन्न प्रकार की निर्मितियाँ, भवन एवं इमारतों के भग्नावशेष मिले हैं। इनमें नगर की गढ़ी वाले भाग़ में रक्षा प्राचीर, धातु पिघलाने के स्थान, भट्टियाँ, यज्ञ वेदियाँ, विशाल स्नानागार, डाकयार्ड एवं विशाल अन्नागार प्रमुख हैं। ये अवशेष सभ्यता की उन्नत अवस्था व वैज्ञानिकता के प्रमाण है।
(2) सामाजिक जीवन:
सिन्धु-सरस्वती सभ्यता कालीन समाज कई वर्गों में विभक्त था। यहाँ सुनार, कुम्भकार, दस्तकार, बढ़ई, जुलाहे, ईंटें तथा मनके बनाने वाले पेशेवर लोग थे। गढ़ी वाले भाग में सभ्य लोग एवं निचले नगर में सामान्य लोग रहते थे। पुरोहितों, अधिकारियों एवं राज्य कर्मचारियों का एक विशिष्ट वर्ग था। यहाँ के समाज की प्रमुख इकाई परिवार था। इस सभ्यता में पृथक् – पृथक् परिवारों के रहने की योजना दिखाई देती है इस सभ्यता काल में समाज और परिवार में स्त्रियों को सम्मानजनक स्थान प्राप्त था।
(3) आर्थिक जीवन:
कालीबंगा में जुते हुए खेत के अवशेष मिले हैं। इससे प्रतीत होता है कि सिंधु – सरस्वती सभ्यता के लोग खेती करते थे। ये लोग गेहूँ, जौ, चावल, तिल, फल, मटर, राई, कपास आदि की खेती करते थे। गाय, बैल, भैंस, भेड़ पाले जाने वाले प्रमुख पशु थे। पशुओं में गौवंश का महत्व अधिक था।
यहाँ के निवासी ताँबे व काँसे के बर्तन व औजार बनाने के साथ – साथ मिट्टी के बर्तन व मटके बनाने की कला में निपुण थे। मनकों का निर्माण एक विकसित उद्योग था। इस सभ्यता में आन्तरिक व विदेशी व्यापार उन्नत अवस्था में था। यहाँ के लोगों के मेसोपोटामिया से व्यापारिक सम्बन्ध होने के प्रमाण मिले हैं। इस सभ्यता में व्यापार के लिए वस्तु विनिमय प्रणाली प्रचलित थी।
(4) धार्मिक जीवन:
सिंधु – सरस्वती सभ्यता काल के लोग प्रमुख रूप से प्राकृतिक शक्तियों के उपासक थे एवं पृथ्वी, पीपल, नीम, जल, सूर्य, अग्निं आदि को दैवीय शक्ति मानकर उनकी उपासना करते थे। मूर्तियों व ताबीजों के विश्लेषण के आधार पर यह स्पष्ट होता है कि यहाँ बलि प्रथा व जादू – टोना आदि अंधविश्वास भी प्रचलित थे।
लोथल, बनावली व राखीगढ़ी से प्राप्त अग्नि वेदिकाओं से पता लगता है कि वहाँ यज्ञों व अग्नि – पूजा का प्रचलन रहा होगा। मूर्तियों की उपासना के लिए धूप जलायी ज़ाती थी। मातृदेवी व शिव की उपासना के साथ – साथ पशु – पूजा, वृक्ष – पूजा एवं नाग – पूजा के भी प्रमाण मिले हैं। मृतक संस्कार शव को गाड़कर या दाहकर्म करके किया जाता था।
(5) राजनीतिक व्यवस्था:
सिंधु – सरस्वती सभ्यता की राजनीतिक व्यवस्था के विषय में हमें कोई स्पष्ट जानकारी प्राप्त नहीं हो सकी है। व्हीलर एवं पिगट नामक विद्वानों का मत है कि इस सभ्यता में मेसोपोटामिया की भाँति पुरोहितों का शासन था। कुछ विद्वान यहाँ व्यापारी वर्ग का शासन मानते हैं।
(6) कला:
सिंधु – सरस्वती सभ्यता के लोगों ने कला के क्षेत्र में बहुत अधिक उन्नति की थी। उत्खनन से प्राप्त मुहरों व बर्तनों पर आकर्षक चित्रकारी देखने को मिलती है। मिट्टी से बने मृदभाण्ड, मृणमूर्तियाँ, मुहर चित्र, आभूषण बनाना आदि इनके उत्कृष्ट कला – प्रेम के उदाहरण हैं।
(7) र्लिा:
सिंधु – सरस्वती सभ्यता के लोगों ने लिपि का भी आविष्कार किया था। यहाँ की लिपि भाव – चित्रात्मक थी। इस लिपि में चिह्नों की संख्या बहुत अधिक थी। ऐसा प्रतीत होता है कि यह लिपि दाईं से बाईं ओर लिखी जाती थी। इस लिपि को आज तक ठीक ढंग से पढ़ा नहीं जा सका है।
प्रश्न 4.
प्राचीन यूनान के साहित्य, दर्शन, कला एवं ज्ञान – विज्ञान के क्षेत्र में हुई प्रगति की विवेचना कीजिए।
उत्तर:
प्राचीन यूनान में साहित्य, दर्शन, कला, एवं ज्ञान विज्ञान के क्षेत्र में हुई प्रगति – यूनानी सभ्यता के दौरान साहित्य, दर्शन, कला एवं ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रगति हुई जिसका वर्णन अग्रलिखित है।
(1) साहित्य के क्षेत्र में हुई प्रगति:
प्राचीन यूनाने में साहित्य के क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रगति हुई। यूनानियों ने सम्पूर्ण विश्व को कई महाकाव्य, काव्य, नाटक एवं इतिहास प्रदान किए हैं। महाकवि होमर द्वारा लिखित इलियड व ओडिसी की गणना विश्व के श्रेष्ठ महाकाव्यों में होती है। यूनान में दुखांत एवं सुखांत दोनों प्रकार के नाटक लिखे जाते थे।
एशिलस यूनानी दुखांत नाटकों के संस्थापक थे। इन्होंने प्रोमिथियस बाउण्ड नामक नाटक लिखा। यूनान के सुखान्त नाटकों में ‘एरिस्टोफेनीज’ सर्वश्रेष्ठ था। यूनानियों ने ही सर्वप्रथम इतिहास की पुस्तकें लिखीं। हेरोडोटस को इतिहास का जनक कहा जाता है। इन्होंने यूनान वे ईरान के युद्धों का इतिहास लिखने के लिए बहुत अधिक भ्रमण किया।
(2) दर्शन के क्षेत्र में हुई प्रगति:
प्राचीन यूनान में अनेक दर्शनों का विकास हुआ। यूनान के सबसे प्रसिद्ध दार्शनिक सुकरात, प्लेटो एवं अरस्तू थे। यूनान में कई दार्शनिक विचारधाराओं का प्रतिपादन हुआ। एक विचारधारा के प्रतिपादकों ने भौतिक जगत के स्वरूप के विषय में प्रचलित पौराणिक कथाओं व इनके विषय में तर्कसंगत विचार प्रकट किए।
दूसरी विचारधारा के प्रतिपादकों का विश्वास था कि समस्त वस्तुएँ परमाणुओं से निर्मित हुई हैं तथा इन परमाणुओं की भिन्नता के कारण विश्व में भिन्न – भिन्न प्रकार के जीव पाए जाते हैं। तीसरी विचारधारा के प्रतिपादक, जो सोफिस्ट (बुद्धिमान) कहलाते थे। उनका मत था कि विश्व में कोई परम सत्य नहीं है। प्रत्येक वस्तु का मापदण्ड मनुष्य है।
(3) कला के क्षेत्र में हुई प्रगति:
प्राचीन यूनान में कला के क्षेत्र में बहुत अधिक प्रगति हुई। यूनानी वास्तुकला एवं मूर्तिकला के श्रेष्ठ उदाहरण उनके ‘मन्दिरों में देखने को मिलते हैं। एथीना का मन्दिर पार्थेनन यूनानी वास्तुकला का एक उत्तम उदाहरण है। यूनान के निवासियों ने मानव सौन्दर्य को पत्थरों में उभारा। प्राचीन यूनान के दो प्रसिद्ध शिल्पी माइरन एवं फिडियस थे। माइरन द्वारा बनाई गई प्रसिद्ध मूर्ति डिस्कस फेंकने वाले की मूर्ति है। फिडियस ने हर्माज की मूर्ति बनाई जिसमें उसे शिशु डायोनीसस को लिए हुए दिखाया गया है।
(4) ज्ञान – विज्ञान के क्षेत्र में हुई प्रगति;
प्राचीन यूनान में ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में बहुत अधिक प्रगति हुई। हिपोक्रेटीज ने आधुनिक चिकित्सा शास्त्र की नींव रखी। सिकन्दर की विजयों के उपरान्त विज्ञान के क्षेत्र में बहुत अधिक प्रगति हुई। एरिस्टार्कस ने बताया कि पृथ्वी तथा अन्य ग्रह सूर्य की परिक्रमा करते हैं। एरिस्टोस्थनीज नामक विद्वान ने पृथ्वी की परिधि की लगभग ठीक गणना की। उसने विश्व का उपयुक्त मानचित्र बनाया। सिकन्दरिया नगर चिकित्सा शास्त्र के अध्ययन का प्रमुख केन्द्र था।
प्रश्न 5.
आगस्टस के शासनकाल को रोम के इतिहास का स्वर्ण युग क्यों कहा जाता है? विवेचना कीजिए।
उत्तर:
आगस्टस का शासनकाल:
रोमन साम्राज्य की स्थापना में आगस्टस की भूमिका अत्यन्त महत्वपूर्ण थी। वास्तविक रूप से देखा जाए तो उसके शासनकाल से ही साम्राज्यवादी रोम का इतिहास प्रारम्भ होता है। आगस्टस ने 31 ई. पू. से 14 ई. पू. तक रोम पर शासन किया। इस काल में पूर्ण शान्ति रही। आगस्टस ने साम्राज्य विस्तार के स्थान पर साम्राज्य को संगठित एवं सुदृढ़ बनाने बनाने पर बल दिया।
उसने यातायात के मार्गों को उन्नत बनाया तथा रोम को सभी प्रमुख मार्गों से जोड़कर यूरोप का केन्द्र बना दिया। उसने कला, साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान दिया तथा सामाजिक एवं धार्मिक जीवन में फैली हुई बुराइयों को दूर करने का प्रयास किया। आगस्टस रोमन साम्राज्य में शान्ति स्थापना एवं समृद्धि के लिए जूलियस सीजर के कार्यक्रम को पूर्ण करना चाहता था।
उसने अपनी सैनिक शक्ति का उपयोग साम्राज्य विस्तार के लिए न करके साम्राज्य की सुरक्षा के लिए किया। उसने नागरिकों को सभी आवश्यक अधिकार एवं सुविधाएँ प्रदान कीं। उसने उपद्रवी राजनीतिक दलों एवं उनकी संस्थाओं को बन्द करवा दिया। आगस्टस ने सभा में व्याप्त भ्रष्टाचार का समापन कर विरोधी और जिद्दी सदस्यों को हटा दिया।
तथा उसने प्रान्तीय शासन व्यवस्था की ओर भी भरपूर ध्यान दिया। उसने प्रान्तों में ईमानदार सूबेदार नियुक्त कर व्यवस्था में आवश्यक सुधार किए। वह रोमन जाति की शुद्धता व रक्त-रक्षा का प्रबल समर्थक था। आगस्टस के शासनकाल में रोमन साम्राज्य में जो शान्ति व्यवस्था रही, संस्कृति के विभिन्न क्षेत्रों में जो उन्नति हुई, उसके आधार पर उसके शासन काल को रोमन इतिहास का स्वर्ण युग कहा जाता है।
RBSE Class 12 History Chapter 1 अन्य महत्त्वपूर्ण प्रश्नोत्तर
RBSE Class 12 History Chapter 1 वस्तुनिष्ठ प्रश्न
प्रश्न 1.
विश्व में प्रमुख सभ्यताओं का उद्गम स्थल हैं।
(अ) सामुद्रिक मैदान
(ब) मरुस्थलीय क्षेत्र
(स) नदी घाटियाँ
(द) उपर्युक्त सभी।
उत्तर:
(स) नदी घाटियाँ
प्रश्न 2.
सभी वस्तुओं में एक प्रकार का रेडियोधर्मी कार्बन होता है, जिसे कहते हैं।
(अ) कार्बन-12
(ब) कार्बन-14
(स) कोयला
(द) पारा।
उत्तर:
(ब) कार्बन-14
प्रश्न 3.
निम्न में से किस काल के मानव ने कृषि के साथ – साथ पशुपालन की भी शुरुआत की?
(अ) पाषाण काल
(ब) मध्य पाषाण काल
(स) नव पाषाण काल
(द) उपर्युक्त सभी।
उत्तर:
(स) नव पाषाण काल
प्रश्न 4.
विश्व की जीवन रेखा किस नदी को कहा जाता है?
(अ) सरस्वती नदी
(ब) सिन्धु नदी
(स) दजला नदी
(द) नील नदी।
उत्तर:
(द) नील नदी।
प्रश्न 5.
विश्व में किस नदी के किनारे मिस्र की सभ्यता का उद्भव हुआ?
(अ) नील नदी
(ब) सिन्धु नदी
(स) ह्वांग – हो नदी
(द) दजला – फरात नदी।
उत्तर:
(अ) नील नदी
प्रश्न 6.
निम्न में से किस विद्वान ने कहा कि मिस्र नील नदी का वरदान है?
(अ) इरेटोस्थनीज
(ब) अरस्तू
(स) हेरोडोटस
(द) प्लेटो।
उत्तर:
(स) हेरोडोटस
प्रश्न 7.
प्राचीन मिस्र का समाज कितने वर्गों में विभक्त था?
(अ) दो
(ब) तीन
(स) पाँच
(द) आठ।
उत्तर:
(ब) तीन
प्रश्न 8.
मिस्री सभ्यता में निम्न में से किस फल को अधिक प्रयोग किया जाता था?
(अ) आम
(ब) केला
(स) अँगूर
(द) खजूर।
उत्तर:
(द) खजूर।
प्रश्न 9.
दक्षिणी मिस्र में सूर्य की उपासना किस नाम से होती थी?
(अ) होरूस
(ब) ओसिरिस
(स) एमन रे
(द) एमन।
उत्तर:
(अ) होरूस
प्रश्न 10.
निम्न में से किस सभ्यता में परलोकवाद को बहुत महत्व प्राप्त था?
(अ) चीन की सभ्यता
(ब) यूनान की सभ्यता
(स) बेबीलोन की सभ्यता
(द) मिस्र की सभ्यता।
उत्तर:
(द) मिस्र की सभ्यता।
प्रश्न 11.
मिस्र में आवागमन और यातायात का प्रमुख माध्यम थी?
(अ) नील नदी
(ब) दजला नदी
(स) इरावती नदी
(द) ह्वांगहो नदी।
उत्तर:
(अ) नील नदी
प्रश्न 12.
निम्न में से किस प्राचीन राज्य की सैन्य शक्ति अत्यन्त दुर्बल थी?
(अ) चीन
(ब) रोमन
(स) मिस्र
(द) यूनान।
उत्तर:
(स) मिस्र
प्रश्न 13.
मिस्र की प्राचीन लिपि ‘हाइरोग्लाफिक’ में कितने चिन्ह थे?
(अ) 24
(ब) 15
(स) 27
(द) 120.
उत्तर:
(अ) 24
प्रश्न 14.
प्राचीन काल में दजला और फरात नादियों के मध्य स्थित भू-भाग को किस नाम से जाना जाता था?
(अ) मेसोपोटामिया
(ब) इराक
(स) यूनान
(द) मिस्र।
उत्तर:
(अ) मेसोपोटामिया
प्रश्न 15.
बेबोलियन समाज में उच्च वर्ग के लोग कहलाते थे?
(अ) मस्केनम
(ब) अरदू
(स) अवीलम
(द) उपर्युक्त सभी।
उत्तर:
(स) अवीलम
प्रश्न 16.
निम्न में किस प्राचीन सभ्यता के लोगों ने सुमेरियन कीलाक्षर लिपि को अपनाया था?
(अ) सिंधु – सरस्वती सभ्यता
(ब) रोम की सभ्यता
(स) चीन की सभ्यता
(द) बेबीलोनिया की सभ्यता।
उत्तर:
(द) बेबीलोनिया की सभ्यता।
प्रश्न 17.
सबसे प्राचीन चीनी राजवंश है।
(अ) हान वंश
(ब) शांग वंश
(स) चिन वंश
(द) चाऊ वंश।
उत्तर:
(ब) शांग वंश
प्रश्न 18.
निम्न में से किस सभ्यता में राजत्व में देवत्व की भावना प्रचलित थी?
(अ) चीन की सभ्यता
(ब) बेबीलोन की सभ्यता
(स) यूनान की सभ्यता
(द) उपर्युक्त सभी।
उत्तर:
(अ) चीन की सभ्यता
प्रश्न 19.
कुनाई चीह नामक चित्रकार का सम्बन्ध किस चीनी राजवंश से था?
(अ) हान वंश
(ब) शांग वंश
(स) चाऊ वंश
(द) चिन वंश।
उत्तर:
(अ) हान वंश
प्रश्न 20.
निम्न में से किस प्राचीन सभ्यता में प्रत्येक परिवार पूर्वजों की पूजा करता था?
(अ) सिन्धु – सरस्वती सभ्यता
(ब) चीन की सभ्यता
(स) यूनान की सभ्यता
(द) रोम की सभ्यता।
उत्तर:
(ब) चीन की सभ्यता
प्रश्न 21.
निम्न में से कौन – सा आविष्कार प्राचीन चीन में हुआ था।
(अ) पनचक्की
(ब) जल घड़ी।
(स) भूकम्प लेखी यंत्र
(द) उपर्युक्त सभी।
उत्तर:
(द) उपर्युक्त सभी।
प्रश्न 22.
निम्न में से कौन – सी सभ्यता नगरीय स्वच्छता का श्रेष्ठतम प्रतीक है?
(अ) सिन्धु – सरस्वती सभ्यता
(ब) यूनान की सभ्यता
(स) रोम की सभ्यता
(द) उपर्युक्त सभी।
उत्तर:
(अ) सिन्धु – सरस्वती सभ्यता
प्रश्न 23.
निम्न में से किस सभ्यता में कपास की खेती का विश्व को पहला उदाहरण मिला है?
(अ) चीन की सभ्यता
(ब) रोम की सभ्यता
(स) सिन्धु – सरस्वती सभ्यता
(द) यूनान की सभ्यता।
उत्तर:
(स) सिन्धु – सरस्वती सभ्यता
प्रश्न 24.
सिन्धु – सरस्वती सभ्यता के उत्खनन से सर्वाधिक संख्या में प्राप्त वस्तु है।
(अ) मिट्टी की मूर्तियाँ
(ब) मुहरें
(स) मनके
(द) चाकू।
उत्तर:
(अ) मिट्टी की मूर्तियाँ
प्रश्न 25.
यूनान की सभ्यता में विजय की देवी थी।
(अ) एथीना
(ब) ओसीदत
(स) जियसा
(द) इनमें से कोई नहीं।
उत्तर:
(अ) एथीना
प्रश्न 26.
निम्न में से किस यूनानी शासक ने राजा पोरस को हराया था?
(अ) सिकन्दर
(ब) फिलिप
(स) टाल्मी
(द) इनमें से कोई नहीं।
उत्तर:
(अ) सिकन्दर
प्रश्न 27.
यूनान के दार्शनिक थे।
(अ) प्लेटो
(ब) अरस्तू
(स) सुकरात
(द) उपर्युक्त सभी।
उत्तर:
(द) उपर्युक्त सभी।
प्रश्न 28.
रोम की सभ्यता का मुख्य केन्द्र था।
(अ) इटली
(ब) स्पेन
(स) फ्रांस
(द) इंग्लैण्ड।
उत्तर:
(अ) इटली
प्रश्न 29.
निम्न में से किस रोमन शासक ने जुलियनी पंचांग का निर्माण किया?
(अ) जूलियस सीजर
(ब) आम्टेवियन
(स) आगस्टस सीजर
(द) पाम्पी।
उत्तर:
(अ) जूलियस सीजर
प्रश्न 30.
निम्न में से किस रोमन शासक के शासन काल को स्वर्ण युग कहा जाता है?
(अ) पाम्पी
(ब) कांसटेन्टाइन
(स) आगस्टस सीजरे
(द) टिबेरियस।
उत्तर:
(स) आगस्टस सीजरे
सुमेलन सम्बन्धी प्रश्न
1. मिलान कीजिए।
उत्तर:
1. (छ)
2. (ज)
3. (झ)
4. (ज)
5. (क)
6. (ख)
7. (ग)
8. (घ)
9. (ङ)
10. (च)।
2. मिलान कीजिए।
उत्तर:
1. (घ)
2. (ङ)
3. (च)
4. (ग)
5. (क)
6. (ख)
7. (अ)
8. (झ)
9. (ज)
10. (छ)।
RBSE Class 12 History Chapter 1 अति लघूत्तरात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
सभ्यता शब्द का शाब्दिक अर्थ क्या है?
उत्तर:
सभा शब्द से सभ्यता शब्द का उदय हुआ है। सभ्यता का शाब्दिक अर्थ उन मानव व्यवहारों का ज्ञान अथवा अनुभव के उन नियमों से है जिनमें बँधकर मानव, समाज में सामूहिक जीवन का आचरण करता है।
प्रश्न 2.
हमारी पृथ्वी की आयु कितनी है?
उत्तर:
एक अरब पिच्चासी करोड़ वर्ष।
प्रश्न 3.
हिम युग किसे कहा जाता है?
उत्तर:
आदि मानव का विकास काल 500000 ई. पू. से 5000 ई. पू. तक माना जाता है। इस युग को हिम युग कहते हैं।
प्रश्न 4.
प्राक् इतिहास अथवा प्रागैतिहासिक काल से क्यो आशय है?
उत्तर:
वह सुदुर अतीत, जब मानव घटनाओं को कोई लिखित विवरण नहीं रखता था, प्राक् इतिहास अथवा प्रागैतिहासिक काल कहलाता है।
प्रश्न 5.
मध्य पाषाण काल से क्या आशय है?
उत्तर:
आज से लगभग 10000 वर्ष पूर्व मानव तीव्र गति से विकास करने लगा था। उस समय उसने अनेक प्रकार के उन्नत औजार बनाने प्रारम्भ कर दिए थे। इस काल को मध्य पाषाण काल कहा जाता है।
प्रश्न 6.
संस्कृति से क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
संस्कृति से तात्पर्य रहने का ढंग, व्यवहार, जीविका अर्जित करना, नया ज्ञान ढूँढ़ना तथा कला व साहित्य में अपने विचार व्यक्त करने से है।
प्रश्न 7.
पुरातत्वविद् किसे कहते हैं?
उत्तर:
प्राचीनकाल के हमारे पूर्वजों के दैनिक जीवन एवं उनके व्यवसायों पर प्रकाश डालने के लिए टीले व खण्डहरों के रूप में पुराने स्थानों की खुदाई को जिन विद्वानों ने एक विज्ञान का रूप दिया है, उन्हें पुरातत्वविद् कहते हैं।
प्रश्न 8.
तिथि निर्धारण की कार्बन-14 पद्धति क्या है?
उत्तर:
किसी वस्तु में निहित कार्बन-14 का पता लगाकर यह पता लगाने की विधि कि अमुक वस्तु लगभग कितने वर्ष पुरानी है, तिथि – निर्धारण की कार्बन-14 पद्धति कहलाती है।
प्रश्न 9.
पाषाण युग के औजारों को उनकी प्रकृति के आधार पर कितने भागों में विभक्त किया गया है?
उत्तर:
तीन भागों में विभक्त किया गया है-
- कुठार
- गंडासे
- रूखानी या शल्कर औजार।
प्रश्न 10.
पाषाण काल में मानव का सबसे उपयोगी हथियार कौन – सा था?
उत्तर:
धनुष।
प्रश्न 11.
मध्ये पाषाण युग में छोटे औजारों को किस नाम से जाना जाता था?
उत्तर:
लघुअश्म।
प्रश्न 12.
मध्य पाषाण युग में मानव बर्फ पर भ्रमण करने के लिए किस प्रकार की गाड़ी का उपयोग करता था?
उत्तर:
बिना पहिए की स्लेज गाड़ी का।
प्रश्न 13.
धन्वाकार उपजाऊ प्रदेश किसे कहते हैं?
उत्तर:
विश्व में सर्वप्रथम कृषि कार्य थाईलैण्ड, अरब एवं ईरान के मरुस्थल की सीमाओं से सटी घाटियों में प्रारम्भ हुआ जहाँ पानी की कमी नहीं थी, ऐसे प्रदेशों को धन्वाकार उपजाऊ प्रदेश कहा गया।
प्रश्न 14.
मिश्रित कृषि किसे कहा जाता था?
उत्तर:
जब नवपाषाण कालीन मानव ने कृषि के साथ – साथ पशुपालन की भी शुरुआत की, तो इस क्रिया को मिश्रित कृषि कहा गया।
प्रश्न 15.
नवपाषाण काल का महत्वपूर्ण औजार क्या था?
उत्तर:
पत्थर की चिकनी कुल्हाड़ी।
प्रश्न 16.
मिट्टी के बर्तनों का आविष्कार किस काल में हुआ?
उत्तर:
नवपाषाण काल में।
प्रश्न 17.
मातृदेवी किसे कहा जाता है?
उत्तर:
नवपाषाण काल की बस्तियों में मिट्टी की बनी स्त्रियों की छोटी – छोटी मूर्तियाँ मिली हैं जिन्हें मातृदेवी कहा जाता है।
प्रश्न 18.
मानव ने सर्वप्रथम पहिए का प्रयोग किस कार्य में किया था?
उत्तर:
मिट्टी के बर्तन बनाने में।
प्रश्न 19.
सर्वप्रथम मानव ने किस धातु को ढूंढ निकाला था?
उत्तर:
ताँबा.।
प्रश्न 20.
विश्व की जीवन रेखा किस नदी को कहा जाता है?
उत्तर:
नील नदी को।
प्रश्न 21.
नील नदी का वरदान किस देश को कहा जाता है?
उत्तर:
मिस्र देश को।
प्रश्न 22.
प्राचीन काल में मिस्र के एकीकरण का श्रेय किस राजा को है?
उत्तर:
मिनीज नामक राजा को।
प्रश्न 23.
फराहो कौन थे?
उत्तर:
मिस्र में राजाओं को फराहो कहा जाता था।
प्रश्न 24.
मिस्र की सभ्यता कौन सी नदी की घाटी में स्थित थी?
उत्तर:
नील नदी।
प्रश्न 25.
पिरामिडों में रखे शवों को क्या कहा जाता था?
उत्तर:
ममी।
प्रश्न 26.
मिस्री समाज के आर्थिक जीवन का आधार कौन – सा वर्ग था?
उत्तर:
कृषि वर्ग।
प्रश्न 27.
मिस्र में शासक को प्रशासनिक कार्यों में सलाह देने के लिए कौन – सी परिषद का गठन किया जाता था?
उत्तर:
सरु नामक परिषद का।
प्रश्न 28.
मिस्र का कौन – सा पिरामिड सर्वाधिक प्रसिद्ध है?
उत्तर:
खूफू द्वारा गीजा में बनाया गया पिरामिड।
प्रश्न 29.
मिस्र की कौन – सी रानी चित्रकला में निपुण थी?
उत्तर:
रानी हेपसेपसूत।
प्रश्न 30.
मिस्र की प्राचीन चित्राक्षर लिपि का नाम बताइए।
उत्तर:
हाइंरोग्लाफिक लिपि।
प्रश्न 31.
किस फ्रांसीसी विद्वान ने मिस्र की लिपि के समस्त अक्षरों को पढ़ने में सफलता प्राप्त की?
उत्तर:
शैम्पोल्यी ने।
प्रश्न 32.
प्राचीन बेबीलोन में एमोराइट वंश का छठा शासक कौन था?
उत्तर:
हम्मूराबी।
प्रश्न 33.
किस शासक को बेबिलोनियन साम्राज्य का निर्माता कहा जाता है?
उत्तर:
हम्मूराबी को।
प्रश्न 34.
बेबीलोनिया की सबसे महत्वपूर्ण देन क्या है?
उत्तर:
हम्मूराबी द्वारा निर्मित विधि – संहिता।
प्रश्न 35.
हम्मूराबी की विधि संहिता की भाषा कौन – सी थी?
उत्तर:
सेमेटिक भाषा।
प्रश्न 36.
हम्मूराबी का दण्ड विषयक सिद्धान्त क्या था?
उत्तर:
“जैसे को तैसा और खून का बदला खून।”
प्रश्न 37.
बेबीलोनिया समाज कितने वर्गों में विभक्त था?
उत्तर:
तीन वर्गों में-
- अवीलम्
- मस्केनम
- अरदू।
प्रश्न 38.
बेबीलोन की सभ्यता में दास वर्ग को किस नाम से जाना जाता था?
उत्तर:
अरदू।
प्रश्न 39.
बेबिलोनियन समाज की राष्ट्रीय आय का प्रमुख स्रोत क्या था?
उत्तर:
कृषि।
प्रश्न 40.
जिग्गुरात क्या थे?
उत्तर:
बेबिलोनियन सभ्यता में कला के विशिष्ट नमूने कुछ भवन थे जिन्हें जिग्गुरात कहा जाता था। इन्हें देवता का स्थान माना जाता था।
प्रश्न 41.
विश्व का प्रथम महाकाव्य कौन – सा था?
उत्तर:
गिलगमेश।
प्रश्न 42.
बेबिलोनिया के निवासियों की सर्वाधिक रुचि किस क्षेत्र में थी?
उत्तर:
ज्योतिष के क्षेत्र में।
प्रश्न 43.
प्राचीन चीन की सभ्यता कौन – सी नदी घाटी में स्थित थी?
उत्तर:
ह्वांगहो नदी घाटी में।
प्रश्न 44.
ह्वांगहो नदी को पीत नदी क्यों कहा जाता है?
उत्तर:
अत्यधिक मिट्टी होने के कारण ह्वांगहो नदी को पीत नदी कहा जाता है।
प्रश्न 45.
चीनी प्रांतों को किस नाम से जाना जाता था?
उत्तर:
चींनी प्रांतों को सेंगे नाम से जाना जाता था।
प्रश्न 46.
किस प्राचीन सभ्यता में प्रशासनिक अधिकारियों के चयन हेतु लोक सेवा आयोग होता था?
उत्तर:
चीन की सभ्यता में।
प्रश्न 47.
चीनी कलाकार किस धातु की वस्तुएँ बनाने में दक्ष थे?
उत्तर:
कांस्य की वस्तुएँ बनाने में।
प्रश्न 48.
चीन में विद्वानों के वर्ग को किस नाम से जाना जाता था?
उत्तर:
मन्दारिन।
प्रश्न 49.
चीनी सभ्यता के प्रमुख देवी – देवताओं के नाम लिखिए।
उत्तर:
- आकाश (यंग)
- पृथ्वी (यिंग)।
प्रश्न 50.
चीन के किन्हीं 4 दार्शनिकों के नाम लिखिए।
उत्तर:
- कन्फ्यूशियस
- लाओत्से
- मोत्सू
- मैन्शियस।
प्रश्न 51.
कन्फ्यूशियस का जन्म कब व कहाँ हुआ?
उत्तर:
कन्फ्यूशियस का जन्म चीन के ‘लू’ प्रांत के एक उच्चवर्गीय परिवार में 551 ई. पू. में हुआ था।
प्रश्न 52.
कन्फ्यूशियस की किन्हीं दो पुस्तकों के नाम लिखिए।
उत्तर:
- ई-चिन
- शी-चिंग।
प्रश्न 53.
लाओत्से का जन्म कब व कहाँ हुआ?
उत्तर:
लाओत्से का जन्म चीन के होनान प्रान्त के एक निर्धन परिवार में 604 ई. पू. में हुआ था।
प्रश्न 54.
ताओवाद क्या है?
उत्तर:
चीन के प्रसिद्ध दार्शनिक लाओत्से की विचारधारा ताओवाद कहलाती है।
प्रश्न 55.
हड़प्पा की खोज कब व किसने की?
उत्तर:
1921 में दयाराम साहनी ने।
प्रश्न 56.
मोहनजोदड़ो की खोज किसने की?
उत्तर:
राखलदास बनर्जी ने।
प्रश्न 57.
जम्मू – कश्मीर में सिन्धु – सरस्वती सभ्यता का कौन – सा पुरास्थल है?
उत्तर:
माण्डा।
प्रश्न 58.
सिन्धु – सरस्वती सभ्यता के दो प्रमुख केन्द्रों के नाम लिखिए।
उत्तर:
- हड़प्पा
- मोहनजोदड़ो
प्रश्न 59.
विशाल स्नानागार के प्राचीनतम साक्ष्य कहाँ से मिले हैं?
उत्तर:
मोहनजोदड़ो से।
प्रश्न 60.
सिन्धु – सरस्वती सभ्यता के किस पुरास्थल से डॉकयार्ड की प्राप्ति हुई?
उत्तर:
लोथल (गुजरात)।
प्रश्न 61.
जोते गए खेत के प्राचीनतम साक्ष्य कहाँ से मिले हैं?
उत्तर:
कालीबंगा (राजस्थान) से।
प्रश्न 62.
अग्निकुंड एवं अग्नि वेदिकाओं के प्राचीनतम साक्ष्य किस सिन्धु – सरस्वती सभ्यता कालीन पुरास्थल से प्राप्त हुए हैं?
उत्तर:
राखीगढ़ी से।
प्रश्न 63.
किस सभ्यता में योग एवं योग साधना की परम्परा के अस्तित्व के संकेत मिले हैं?
उत्तर:
सिन्धु – सरस्वती सभ्यता में।
प्रश्न 64.
यूनांन की सभ्यता के प्रमुख देवी – देवताओं के नाम लिखिए?
उत्तर:
- जियस (आकाश का देवता)
- ओसीदन (समुद्र का देवता)
- अपोलो (सूर्य देवता)
- एथीना (विजय की देवी)।
प्रश्न 65.
यूनान की सभ्यता के प्रमुख नगर राज्य कौन – कौन से थे?
उत्तर:
एथेंस व स्पार्टा।
प्रश्न 66.
डेमोस से क्या आशय है?
उत्तर:
यूनानी नगर राज्य एथेंस में कुलीन वर्ग एवं दास वर्ग के अतिरिक्त कुछ स्वतन्त्र नागरिक भी थे, जिन्हें डेमोस कहा जाता था।
प्रश्न 67.
मैराथन का युद्ध कब व किसके मध्य लड़ा गया?
उत्तर:
मैराथन का युद्ध 490 ई. पू. में एथेंस एवं ईरानी साम्राज्य के मध्य लड़ा गया, जिसमें एथेंस की विजय हुई।
प्रश्न 68.
पेलोपोनीशियन युद्ध कब व किसके मध्य हुआ?
उत्तर:
431 ई. पू. से 404 ई. पू. तक एथेंस व स्पार्टा के मध्य पेलोपोनीशियन युद्ध हुआ।
प्रश्न 69.
भूगोल के किस यूनानी विद्वान ने पृथ्वी की परिधि की गणना की?
उत्तर:
ऐरिस्टोथीनीज ने।
प्रश्न 70.
यूनानी दुखांत नाटक प्रोमिथियस बाउण्ड के लेखक कौन थे?
उत्तर:
एशिलस।
प्रश्न 71.
यूनान के सर्वश्रेष्ठ सुखांत नाटक का नाम बताइए?
उत्तर:
एरिस्टोफेनीज।
प्रश्न 72.
यूनान के कौन – कौन से महाकाव्यों की गणना संसार के श्रेष्ठ महाकाव्यों में होती है?
उत्तर:
इलियड और ओडिसी की।
प्रश्न 73.
विश्व प्रसिद्ध ग्रन्थ इलियड व ओडिसी के रचनाकार कौन थे?
उत्तर:
होमर।
प्रश्न 74.
प्लेटो द्वारा लिखित पुस्तक का नाम बताइए?
उत्तर:
रिपब्लिक।
प्रश्न 75.
रोम नगर की स्थापना कब व कहाँ हुई?
उत्तर:
रोम नगर की स्थापना 1000 ई. पू. ताइबर नदी के दक्षिण में लैटियम नामक जिले में हुई।
प्रश्न 76.
प्यूनिक युद्ध कब व किसके मध्य लड़े गए?
उत्तर:
प्यूनिक युद्ध कार्थेज एवं रोमवासियों के मध्य 264 ई. पू. से 146 ई. पू. के मध्य लड़े गए।
प्रश्न 77.
रोमन सम्राट जूलियस सीजर की कब व किसने हत्या की?
उत्तर:
पॉम्पी के अनुयायियों – केसियस एवं ब्रूटस ने 15 मार्च 44 ई. पू. को जूलियस सीजर की हत्या की।
प्रश्न 78.
रोमन साम्राज्य की स्थापना में किस शासक की भूमिका अत्यधिक महत्वपूर्ण रही थी?
उत्तर:
आगस्टस सीजर की।
प्रश्न 79.
रोम का सबसे प्रसिद्ध इतिहासकार कौन था?
उत्तर:
टैसिटस।
RBSE Class 12 History Chapter 1 लघूत्तरात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
पाषाण कालीन कला को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
पाषाण काल में मानव गुफाओं की दीवारों पर रेखाएँ खींचकर चित्र बनाता था। कुछ गुफाओं की दीवारों और भीतरी छतों पर बहुरंगी चित्र मिले हैं। जो ‘चित्र वीथियों’ के समान दिखाई देते हैं। इन चित्रों में भागता हुआ जंगली साँड़, घोड़े, रीछ, बाहरसिंघे, पुराकालीन हाथी के झुण्ड, शिकार आदि के दृश्य प्रमुख हैं।
भारत में अनेक स्थानों से पहाड़ियों की चट्टानों में बने निवास स्थानों के भी अनेक चित्र मिले हैं। इस काल का मानव हाथी दाँत एवं हड्डियों पर मानव और पशुओं की आकृति बनाता था। वह अपनी व्यक्तिगत सामग्री एवं औजारों पर भी नक्काशी करता था। वह अपने शरीर को हाथी दाँत, हड्डियों, पत्थरों और सीपियों से बने हार, कर्णफूल और दस्तबंद आदि से सजाता था।
प्रश्न 2.
नवपाषाण युग में बस्तियों का विकास किस प्रकार हुआ? बताइए।
उत्तर:
नवपाषाण युग में जब मानव ने कृषि करना प्रारम्भ किया तो उसकी जानकारी में आया कि केवल बीज बोना ही पर्याप्त नहीं है बल्कि बढ़ते हुए पौधे की देखभाल करनी भी आवश्यक है। अतः मानव ने मिट्टी के घरों तथा लकड़ी के खम्भों एवं घास – फूस के छप्पर बनाकर उनमें रहना प्रारम्भ कर दिया। इन घरों का निर्माण मानव ने अपने खेतों के समीप ही किया। बाद में ये बस्तियाँ विकसित होकर गाँव बनीं और तत्पश्चात नगरों का रूप ले लिया।
प्रश्न 3.
मिस्र की प्राचीन सभ्यता में नील नदी का क्या योगदान है?
उत्तर:
मिस्र की प्राचीन सभ्यता का विकास नील नदी की घाटी में हुआ था। मिस्र एक अफ्रीकी देश है। यहाँ नाम मात्र की वर्षा होती है। वर्षा ऋतु में नील नदी अपने दोनों किनारों को बाढ़ के पानी से भर देती है और अपने साथ लाई गई उपजाऊ मिट्टी जमा करती है। इस प्रकार वह यहाँ के लोगों की खनिज, घास व हरियाली के द्वारा अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति करती है। नील नदी के अभाव में यह देश एक रेगिस्तान बन जाता।
प्रश्न 4.
राजनीतिक घटनाक्रम के आधार पर मिस्र को कितने कालों में विभाजित किया जा सकता है? बताइए।
उत्तर:
प्राचीन काल में मिस्र में लगभग 40 छोटे – छोटे राज्य थे। इनके मध्य निरन्तर संघर्ष चलता रहता था। 3400 ई. पू. में मिनीज नामक राजा ने इन राज्यों को एकीकृत किया। राजनीतिक घटनाक्रम के आधार पर मिस्र को तीन कालों में बाँटा जा सकता है-
- प्राचीन राज्य अथवा पिरामिडों का युग (3400 ई. पू. से 2160 ई. पू.)
- मध्यकालीन राज्य अथवा सामंती युग (2160 ई. पू. से 1580 ई. पू.)
- नवीन राज्य अथवा साम्राज्यों का युग (1180 ई. पू. से 650 ई. पू.)
प्रश्न 5.
प्राचीन मिस्र के लोगों के धार्मिक जीवन का वर्णन कीजिए?
उत्तर:
प्राचीन मिस्र के लोगों के जीवन में धर्म का बहुत अधिक महत्व था। मिस्र के लोगों के धार्मिक जीवन में बहुदेववाद, देवताओं का मानवीकरण, मन्दिर एवं मूर्तियाँ, पुरोहितों का धार्मिक कर्मकाण्ड, भेंट – पूजा व बलि, जादू – टोना, अन्ध – विश्वास, प्राकृतिक शक्तियों की पूजा, पेड़ – पौधों एवं पशुपक्षियों की पूजा, आत्मा के अमरत्व में विश्वास, पुनर्जन्म, कर्मकाण्ड की भावना एवं विधिवत मृतक संस्कार आदि का महत्वपूर्ण स्थान था।
मिस्रवासियों के प्रमुख देवता एमन-रे (सूर्य), ओसिरिस (सूर्य का पुत्र), सिन (चन्द्रमा) एवं ओसरिम (नील नदी) थे। उनके देवता प्राकृतिक शक्तियों के प्रतीक थे। मिस्रवासियों का विश्वास था कि मृत्यु के उपरांत शव में आत्मा निवास करती है। अत: वे शव पर एक विशेष प्रकार के मसाले का लेप करते थे। इससे सैकड़ों वर्षों तक शव सड़ता नहीं था। शवों की सुरक्षा के लिए समाधियाँ बनाई जाती थीं जिन्हें लोग पिरामिड कहते थे। पिरामिड में रखे शवों को ममी कहा जाता था।
प्रश्न 6.
मिस्र की सभ्यता की न्याय व्यवस्था को स्पष्ट कीजिए?
उत्तर:
मिस्र की सभ्यता में सैनिक अधिकारियों के समान न्यायाधीशों का भी अलग वर्ग नहीं था। प्रायः गैर-सैनिक अधिकारी ही न्यायाधीशों के कर्तव्यों को पूर्ण करते थे। कुछ मामलों में मिस्र के शासक फराहो को भी अपील की जा सकती थी। मिस्र की सभ्यता में दण्डविधान बहुत कठोर था। यहाँ अंग-भंग, देश निर्वासन, शारीरिक यातनाओं के साथ-साथ गुरुतर अपराधों के लिए मृत्यु दण्ड तक का प्रावधान था।
प्रश्न 7.
मिस्री वास्तुकला को स्पष्ट कीजिए?
उत्तर:
मिस्र की सभ्यता में वास्तुकला का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण पिरामिडों के रूप में मिलता है। पिरामिड त्रिभुजाकार होते थे। भीतर से अलग – अलग कमरों में विभक्त होते थे जिनमें मानव उपयोग की सभी आवश्यक एवं आरामदायक सामग्री रखी जाती थी। एक कक्ष में मसालों के लेप से युक्त ताबूत में बन्द फराहो का मृतक शरीर (ममी) रखा जाता था। पिरामिडों में खूफू द्वारा गीजा में बनाया गया पिरामिड सर्वाधिक प्रसिद्ध है। इस पिरामिड में पाषाण खण्ड इस प्रकार जोड़े गए हैं कि इनके बीच सुई भी नहीं घुसाई जा सकती है।
पिरामिडों के अतिरिक्त मिस्र में पत्थरों से विशाल मन्दिरों का निर्माण कराया गया। कारनाक का मन्दिर अपनी विशालता एवं कलात्मक सौन्दर्य के लिए प्रसिद्ध है। इसी प्रकार आबू सिम्बेल एवं लक्सोर का मन्दिर भी कलात्मक सौन्दर्य के लिए प्रसिद्ध है। मन्दिरों के अतिरिक्त एक प्रकार के भवन (ओबेलिस्क) एवं पहाड़ी मकबरे भी मिस्री कला के उत्कृष्ट नमूने हैं।
प्रश्न 8.
मिस्र की सभ्यता की आधुनिक विश्व को देन का उल्लेख कीजिए?
उत्तर:
मिस्र की सभ्यता का विश्व के इतिहास में अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान है। मिस्र में सिंचाई की उत्कृष्ट व्यवस्था, विशाल पिरामिडों और मन्दिरों का निर्माण, कागज, ग्लास, मृदभाण्ड आदि बनाने में मिस्रवासियों को निपुणता प्राप्त थी। मिस्र ने ही अंन्य देशों से बहुत पहले संयुक्त राज्य स्थापित करने एवं इसके आधार स्वरूप राजनीतिक दर्शन एवं कानूनों का विकास करने में सफलता प्राप्त की थी।
मिस्रवासी दर्शन, लेखन, साहित्य, गणित, विज्ञान, कला आदि के क्षेत्र में अपना महत्वपूर्ण स्थान रखते थे। कला के क्षेत्र में विशाल भवनों का निर्माण इनकी समस्त विश्व को एक महत्वपूर्ण देन है।
प्रश्न 9.
प्राचीन बेबीलोन में हम्मूराबी के काल में शासन व्यवस्था का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
प्राचीन बेबीलोन में हम्मुराबी एमोराइट वंश का छठा शासक था। इसके शासन काल में राजा की शक्ति में बहुत अधिक वृद्धि हुई, जिससे निरंकुशता व स्वेच्छाचारिता बढ़ने लगी। राजा को प्रशासनिक कार्यों में सहायता देने के लिए एक मंत्रिपरिषद होती थी। शासन को कई विभागों में बाँटा गया था तथा उन विभागों का दायित्व अलग – अलग मंत्रियों का होता था।
मंत्रियों की नियुक्ति एवं उन्हें हटाने का एकमात्र अधिकार राजा को होता था। शासन में सुविधा के लिए सम्पूर्ण साम्राज्य को कई प्रान्तों में बाँटा गया था, जिनकी शासन व्यवस्था का अधिकार सामंतों को सौंपा गया था। ये सामंत राजा के प्रति उत्तरदायी होते थे।
प्रश्न 10.
हम्मूराबी कौन था?
उत्तर:
हम्मूराबी एमोराइट वंश का छठा शासक था। उसने लगभग बयालीस वर्षों (2123 – 2081 ई.पू.) तक शासन किया। हम्मूराबी एक महान् विजेता तथा बेबिलोनियन साम्राज्य का निर्माता था। वह एक विजेता होने के साथ – साथ एक योग्य शासक तथा कानून वेत्ता भी था। उसकी बहुमुखी प्रतिभा का परिचय हमें उसकी विधि – संहिता में मिलता है। वह एक परिश्रमी, अनुशासनप्रिय एवं न्यायप्रिय शासक था। उसका अधिकांश समय प्रजा की भलाई के लिए व्यतीत होता था। उसने व्यापार-वाणिज्य तथा उद्योग – धन्धों के विकास की तरफ विशेष ध्यान दिया।
प्रश्न 11.
हम्मूराबी की विधि संहिता के बारे में आप क्या जानते हैं?
उत्तर:
हम्मूराबी, प्राचीन बेबीलोन का एमोराइट वंश का छठा शासक था। इसने अपनी प्रजा के लिए एक विधि संहिता बनाई जो इस समय उपलब्ध सबसे प्राचीन विधि संहिता है। हम्मूराबी ने इसे एक 8 फुट ऊँचे एक पाषाण स्तम्भ पर 3600 पंक्तियों में उत्कीर्ण करवाया तथा इसे बेबीलोन में मर्दुक के मंदिर-ए-सागिल में स्थापित करवाया।
हम्मूराबी का दण्ड विषयक सिद्धान्त यह था कि “जैसे को तैसा और खून का बदला खून।” इस संहिता की भाषा सेमेटिक है। इसमें कुल 285 धाराएँ हैं जो वैज्ञानिक ढंग से व्यक्तिगत सम्पत्ति, व्यापार, वाणिज्य, परिवार, अपराध एवं श्रम के अध्यायों में विभाजित हैं। इस संहिता के कानून पूर्णत: धर्म निरपेक्ष हैं।
प्रश्न 12.
बेबीलोनियन सभ्यता के सामाजिक संगठन को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
बेबीलोनियन सभ्यता का समाज तीन वर्गों में विभाजित था। ये वर्ग थे-
(i) उच्च वर्ग
(ii) मध्यम वर्ग
(iii) निम्न वर्ग।
(i) उच्च वर्ग – इस वर्ग के सदस्य अवलम्’ कहलाते थे। इस वर्ग में उच्च पदाधिकारी, मंत्री, जमींदार एवं व्यापारी आदि सम्मिलित थे। यह वर्ग सुख – सुविधाओं से सम्पन्न रहता था।
(ii) मध्यम वर्ग – बेबीलोन समाज में इस वर्ग के सदस्य ‘मस्केनम’ कहलाते थे। इस वर्ग में व्यापारी, शिल्पी, बुद्धिजीवी, राज्य कर्मचारी, कृषक एवं मजदूर आदि सम्मिलित थे। ये भी उच्च वर्ग के लोगों की तरह ही स्वतन्त्र थे।
(iii) निम्न वर्ग – यह वर्ग दासों का था जिन्हें ‘अरदू’ कहा जाता था। दासों को अपने स्वामी की सम्पत्ति समझा जाता था। इन्हें विशेष प्रकार के कपड़े पहनने पड़ते थे। इनको दागने की प्रथा का भी प्रचलन था।
प्रश्न 13.
प्राचीन बेबीलोन की सभ्यता में स्त्रियों की दशा का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
प्राचीन बेबीलोन की सभ्यता में स्त्रियों की दशा अच्छी थी। उन्हें समाज में सम्मानजनक स्थान प्राप्त था तथा बहुत अधिक स्वतंत्रता प्राप्त थी। विवाह से पूर्व एक अनुबंध पत्र लिखा जाता था। तलाक, पुनर्विवाह आदि के विषय में स्त्रियों की परिस्थिति को देखकर निर्णय लिया जाता था।
तलाक होने की दशा में स्त्रियों को जीवन – निर्वाह माँगने का अधिकार प्राप्त था। स्त्रियों को व्यापार करने एवं राजकीय सेवा में जाने की भी अनुमति थी। स्त्रियों को स्वतन्त्रता के साथ – साथ कई प्रकार के नियंत्रणों में भी रहना पड़ता था। उन्हें पुरुषों के अधीन रखा जाता था। व्यभिचारिणी स्त्री को मृत्युदण्ड दिए जाने का भी प्रावधान था।
प्रश्न 14.
ज्ञान – विज्ञान के क्षेत्र में बेबीलोन की सभ्यता की क्या देन है?
उत्तर:
ज्ञान – विज्ञान के क्षेत्र में बेबीलोन की सभ्यता के लोगों की उपलब्धियाँ महत्वपूर्ण थीं। इन उपलब्धियों को निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत समझा जा सकता है
- गणित के क्षेत्र में बेबीलोन के लोगों की गणना दशमलव एवं षट् दाशमिक प्रणाली पर आधारित थी।
- यहाँ के लोगों की सर्वाधिक रुचि ज्योतिष में थी। बृहस्पति को मर्दुक, बुध को नेबू, मंगल को नेर्गल एवं शुक्र को ये लोग ईश्वर मानते थे।
- उन्होंने सूर्योदय, सूर्यास्त तथा चन्द्रोदय व चन्द्रास्त का ठीक – ठीक समय मालूम कर लिया था तथा दिन और रात के समय का हिसाब लगाकर पूरे दिन को 24 घण्टों में बाँटा था।
- साठ सेकेण्ड का मिनट और साठ मिनट के एक घण्टे का विभाजन उन्होंने ही सर्वप्रथम किया था। उन्होंने वर्ष को 12 महीनों में विभाजित किया था। उनका वर्ष 354 दिन का होता था।
- बेबीलोन के लोगों ने प्रथम बार प्रान्तों व नगरों के मानचित्र बनाए। कालान्तर में ये व्यवस्थाएँ विश्व के अन्य भागों में भी फैली।
प्रश्न 15.
चीन की सभ्यता के सामाजिक जीवन का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
उत्तर:
चीन का प्राचीन समाज अनेक वर्गों में बँटा हुआ था। शासक वर्ग के नीचे पाँच प्रमुख वर्ग थे-
- बुद्धिजीवी
- व्यापारी
- कारीगर
- किसान
- दास।
चीन में व्यक्ति शिक्षा के द्वारा उच्च स्थिति प्राप्त कर सकता था। भारत की तरह ही प्राचीन चीन में साहित्यकारों एवं बुद्धिजीवियों को बहुत आदर प्राप्त था। प्राचीन चीन में सैनिकों की स्थिति निम्न थी। किसानों और मजदूरों की दशा दयनीय थी। दासों का क्रय-विक्रय होता था। चीन में विद्वानों का एक अलग वर्ग था जिसे मन्दारिन कहा जाता था। इस वर्ग के लोगों का समाज में बहुत सम्मान था।
इस वर्ग में सम्मिलित होने के लिए नवयुवकों को कठिन परीक्षाएँ उत्तीर्ण करनी पड़ती थीं। चीनी सभ्यता में संयुक्त परिवार की प्रथा थी। परिवार का मुखिया वयोवृद्ध व्यक्ति होता था। परिवार में सामूहिक उत्तरदायित्व की भावना होती थी। समाज में स्त्रियों को कोई गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त नहीं था। पर्दा प्रथा व तलाक प्रथा भी प्रचलित थी। विवाह में दहेज भी दिया जाता था।
प्रश्न 16.
चीनी सभ्यता के धार्मिक जीवन का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
चीनी लोग प्रकृति के उपासक थे। वे सूर्य, आकाश, पृथ्वी, वायु, वर्षा, पर्वत, वनस्पति आदि की पूजा करते थे। वे अस्त्र – शस्त्र, चूल्हा एवं पूर्वजों की भी पूजा करते थे। चीनी धर्म प्राचीन भारतीय सभ्यता के ही समान था। चीनी लोग जादू – टोना बलि, आदि में भी विश्वास करते थे। कालान्तर में चीनवासियों की धार्मिक विचारधारा कन्फ्यूशियस के सुधारवादी एकेश्वरवाद एवं लाओत्से के ताओवाद तथा बुद्ध धर्म से प्रभावित हुई। यहाँ नववर्ष का उत्सव दो सप्ताह तक चलता था। बसन्त ऋतु का उत्सव भी मनाया जाता था।
प्रश्न 17.
कन्फ्यूशियस की कोई दो शिक्षाओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
कन्फ्यूशियस की शिक्षायें
- विद्यालयों में इतिहास, धर्म और शिष्टाचार के अतिरिक्त कुछ नहीं पढ़ाना चाहिए। शिक्षा, चरित्र निर्माण की प्रमुख साधन है। उच्च शिक्षण संस्थाओं में साहित्य, काव्य और विज्ञान पढ़ाना चाहिए। समाज में शिक्षक का समुचित आदर होना चाहिए।
- माता – पिता ही प्रमुख तीर्थ हैं। उनका सम्मान होना चाहिए। सभी के प्रति विनम्र व्यवहार, गुरू का आदर, कर्तव्य पालन और मित्र के प्रति सद्व्यवहार करना चाहिए। असत्य भाषण, क्रोध, ईष्र्या, निन्दा का त्याग करना चाहिए।
प्रश्न 18.
लाओत्से की प्रमुख शिक्षाओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
लाओत्से की प्रमुख शिक्षाएँ-
- भौतिकवाद की शिक्षा दुर्जन व्यक्तियों की वृद्धि करती है। भौतिक ज्ञान कोई गुण नहीं है। मनुष्य को प्रकृतिवादी होना चाहिए। प्रकृति प्रदत्त सरल एवं सादा जीवन यापन करना चाहिए।
- राज्य की उन्नति के लिए न्यूनतम शासकीय नियन्त्रण होना चाहिए। शक्ति से अहंकार में वृद्धि होती है जो पतने की ओर ले जाती है।
- ग्रामीण कुटीर उद्योगों से ही सामाजिक स्वतन्त्रता सम्भव है।
- शत्रु के साथ भी मित्रवत व्यवहार करना चाहिए। हानि के बदले दया, कठोरता के बदले कोमलता और बुराई के बदले अच्छाई का व्यवहार करना चाहिए।
- शान्ति ही विकास का ताओ (मार्ग) है।
प्रश्न 19.
सिन्धु – सरस्वती सभ्यता में नगरीय जीवन का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
सिन्धु – सरस्वती सभ्यता विश्व की प्राचीनतम सभ्यताओं में से एक थी। उत्खनन से प्राप्त अवशेषों के आधार पर इस सभ्यता को नगरीय सभ्यता कहा गया है। यहाँ की खुदाई में चौड़ी सड़कें, पक्की ईंटों से बने मकान, नालियाँ, सामूहिक स्नान हेतु विशाल स्नानागार, सुनियोजित आवास, गलियाँ, कुँओं आदि का पता चला है। प्रत्येक नगर के पश्चिम में ईंटों से बने एक चबूतरे पर गढ़ी या दुर्ग का भाग है और इसके पूर्व में अपेक्षाकृत नीचे धरातल पर नगर भाग है जो सामान्य जनता द्वारा निवासित होता था।
गढ़ी वाला भाग सम्भवतः शासकों अथवा पुरोहितों का निवास होता था। यह सभ्यता नगरीय स्वच्छता का श्रेष्ठतम प्रतीक है। इस सभ्यता जैसी जल निकास प्रणाली विश्व में अन्यत्र कहीं नहीं प्राप्त होती है। तथ्यों के आधार पर कहा जा सकता है कि यहाँ का नगरीय जीवन काफी श्रेष्ठं था।
प्रश्न 20.
सिन्धु – सरस्वती सभ्यता के सामाजिक जीवन का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
सिन्धु – सरस्वती सभ्यता कालीन समाज कई वर्गों में विभक्त था। यहाँ सुनार, कुम्भकार, बढ़ई, दस्तकार, जुलाहे, ईंटें तथा मनके बनाने वाले पेशेवर लोग थे। दुर्ग/गढ़ी वाले भाग में विशिष्ट लोग एवं निचले नगर में सामान्य लोग रहते थे। पुरोहितों, अधिकारियों एवं राज्य कर्मचारियों का एक विशिष्ट वर्ग था। यहाँ के समाज की प्रमुख इकाई परिवार था।
इस सभ्यता में पृथक् – पृथक् परिवारों के रहने की योजना भी दिखाई देती है। इस सभ्यता काल में समाज एवं परिवार में स्त्रियों को सम्मानजनक स्थिति प्राप्त थी। पर्दा प्रथा प्रचलित नहीं थी। स्त्रियाँ आभूषण पहनती थीं। ये लोग सूती वस्त्र पहनते थे। इन्हें अस्त्र – शस्त्र को ज्ञान था। मनोरंजन के साधनों में संगीत, नृत्य, शिकार व द्यूतक्रीड़ा प्रमुख थे। इस सभ्यता के लोग गेहूँ, जौ, चावल, दूध, माँस, फल आदि का भोजन में उपयोग करते थे।
प्रश्न 21.
सिंधु – सरस्वती सभ्यता के आर्थिक जीवन को संक्षेप में समझाइए।
उत्तर:
सिन्धु – सरस्वती सभ्यता के आर्थिक जीवन में कृषि, पशुपालन, व्यापार एवं वाणिज्य को प्रमुख स्थान प्राप्त था। कालीबंगा में जुते हुए खेत के अवशेष मिले हैं। इससे यह प्रतीत होता है कि सिन्धु – सरस्वती सभ्यता के लोग खेती करते थे। ये लोग गेहूँ, जौ, चावल, तिल, फल, मटर, राई, कपास आदि की खेती करते थे। गाय, बैल, भैंस, भेड़ आदि प्रमुख पालतू पशु थे। पशुओं में गौ वंश का महत्व अधिक था। यहाँ के निवासी ताँबे व काँसे के बर्तन व औजार बनाने के साथ – साथ मिट्टी के बर्तन व मटके बनाने की कला में निपुण थे।
मनकों का निर्माण एक विकसित उद्योग था। चन्हुदड़ों वे लोथल में मनका बनाने की कर्मशाला तथा लोथल व तालाकोट से सीप उद्योग के प्रमाण मिले हैं। इस सभ्यता में आतंरिक व विदेशी व्यापार उन्नत अवस्था में था। यहाँ के लोगों के प्राचीन बेबीलोन की सभ्यता से व्यापारिक सम्बंध होने के प्रमाण मिले हैं। इस सभ्यता में व्यापार के लिए वस्तु विनिमय प्रणाली प्रचलित थी।
प्रश्न 22.
सिन्धु – सरस्वती सभ्यता कालीन धार्मिक जीवन का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
सिन्धु – सरस्वती सभ्यता काल के लोग प्रमुख रूप से प्राकृतिक शक्तियों के उपासक थे एवं पृथ्वी, पीपल, वायु, जल, सूर्य, अग्नि आदि को दैवीय शक्ति मानकर उनकी उपासना करते थे। मातृदेवी एवं पशुपति शिव की उपासना के साथ – साथ, पशु – पूजा, वृक्ष – पूजा एवं नाग – पूजा का भी प्रचलन था। लोथल, बणावली, राखीगढ़ी कालीबंगा आदि से प्राप्त अग्नि वेदिकाओं से पता लगता है कि यहाँ यज्ञों व अग्नि पूजा का प्रचलन रहा होगा।
मूर्तियों, मुद्राओं एवं ताबीजों के विश्लेषण के आधार पर यह स्पष्ट होता है कि बलि प्रथा तथा जादू – टोना आदि अंधविश्वास भी प्रचलित थे। विद्वानों के अनुसार सिन्धु सरस्वती सभ्यता में योग एवं साधना की परम्परा के संकेत भी मिलते हैं। इस सभ्यता में मृतक संस्कार शव को गाड़कर अथवा दाहकर्म करके किया जाता था।
प्रश्न 23.
सिन्धु – सरस्वती सभ्यता का विस्तार कहाँ – कहाँ तक था?
उत्तर:
वर्तमान में इस सभ्यता के पुरास्थल हमें पाकिस्तान में सिन्ध, पंजाब एवं बलूचिस्तान प्रान्तों से तथा भारत में जम्मू – कश्मीर, पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, राजस्थान, गुजरात तथा महाराष्ट्र प्रान्तों से मिले हैं। इनकी सूची निम्नलिखित है- बलूचिस्तान (पाकिस्तान)-सुत्कागेण्डोर, सुत्काकोह, बालाकोट, पंजाब (पाकिस्तान)- हड़प्पा, जलीलपुर, रहमान ढेरी, सराय खोला, गनेरीवाल, सिन्ध (पाकिस्तान)- मोहनजोदड़ो, चन्हुदड़ो, कोटदीजी, जुदीरजोदड़ो, पंजाब (भारत)- रोपण, कोटला, निहंगखान, संघोल, हरियाणा (भारत)- बणावली, मीताथल, राखीगढ़ी, जम्मू-कश्मीर (भारत)माण्डा (जम्मू), राजस्थान (भारत)- कालीबंगा, उत्तर प्रदेश (भारत)- आलमगीरपुर (मेरठ), हुलास (सहारनपुर), गुजरात (भारत)- रंगपुर, लोथल, प्रभासपाटन, रोजदी, देशलपुर, सुरकोटडा, मालवण, भगतराव, धौलावीरा तथा महाराष्ट्र (भारत)- दैमाबाद (अहमदनगर)।
प्रश्न 24.
मोहनजोदड़ो के विशाल स्नानागार पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
यह मोहनजोदड़ो में स्थित सिन्धु सरस्वती सभ्यता का महत्त्वपूर्ण स्थान है। यह स्नानागार 39 फीट लम्बा, 23 फीट चौड़ा और 8 फीट गहरा है। इस कुण्ड में जाने के लिए दक्षिण और उत्तर की ओर सीढ़ियाँ बनी हुई हैं। इसमें ईंटों की चिनाई बड़ी सावधानी एवं कुशलता के साथ की गयी है।
स्नानकुण्ड के फर्श को ढाल दक्षिण – पश्चिम की ओर है। स्नानागार के दक्षिण – पश्चिमी कोने में ही एक महत्त्वपूर्ण नाली थी जिसके द्वारा पानी निकास की व्यवस्था थी। इस स्नानागार का उपयोग धार्मिक उत्सवों तथा समारोहों पर होता था।
प्रश्न 25.
सिन्धु – सरस्वती सभ्यता की लिपि पर संक्षिप्त प्रकाश डालिए।
उत्तर:
सिन्धु – सरस्वती सभ्यता की लिपि अभी भी विद्वानों के लिए एक अबूझ रहस्य है। अभी तक इस लिपि को पढ़ने के बारे में सौ से अधिक दावे प्रस्तुत किए जा चुके हैं, लेकिन उन सभी की विश्वसनीयता संदिग्ध है। सिन्धु सभ्यता के 2500 से भी अधिक अभिलेख उपलब्ध हैं। सबसे लम्बे अभिलेख में सत्रह अक्षर हैं वे प्रायः मुहरों पर मिलते हैं। अभी तक सिन्धु लिपि में लगभग 419 चित्रों की पहचान की जा चुकी है। कालीबंगा के एक अभिलेख के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला गया कि यह लिपि दाहिनी ओर से बाँयी ओर लिखी जाती थी।
प्रश्न 26.
सिन्धु – सरस्वती सभ्यता कालीन संस्कृति के कौन – कौन से तत्व आज भी हमारी संस्कृति में दिखाई देते-
उत्तर:
सिन्धु – सरस्वती सभ्यता भले ही नष्ट हो गई हो लेकिन इस संस्कृति के अनेक तत्वों का अविरल तंरग प्रवाह हमारी संस्कृति में आज भी दिखाई देता है। इस बात को हम निर्दिष्ट बिन्दुओं के अन्तर्गत समझ सकते हैं।
- सिन्धु – सरस्वती सभ्यता कालीन स्थापत्य कला आज आधुनिक भारत के कई भवनों में दिखाई देती है।
- वहाँ के नगर नियोजन से प्रेरित कई नगरे आज भी भारत में विद्यमान हैं।
- कृषि एवं पशुपालन के क्षेत्र में इस सभ्यता के निवासियों ने अनेक नवीन प्रयोग किए जो बाद में भारतीय अर्थव्यवस्था के अंग बन गए।
- इस सभ्यता के निवासियों का आभूषण प्रेम एवं श्रृंगार के प्रति जागरूकता हमारे सामाजिक जीवन में आज भी दिखाई देती है।
- शिव, शक्ति एवं प्रकृति की पूजा सिन्धु – सरस्वती सभ्यता की ही देन है।
- आज हमारे देश में योग को महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है जो इसी सभ्यता की देन है।
इस प्रकार कहा जा सकता है कि सिन्धु – सरस्वती सभ्यता के विभिन्न तत्व आज भी हमारी संस्कृति में दिखाई देते हैं।
प्रश्न 27.
यूनानी दर्शन का संक्षेप में उल्लेख कीजिए?
उत्तर:
प्राचीन यूनान में अनेक दर्शनों का विकास हुआ। यूनान के सबसे प्रसिद्ध दार्शनिक सुकरात, प्लेटो और अरस्तू थे। सुकरात का मत था कि ज्ञान एवं सही आचरण सुख का मार्ग प्रशस्त करता है। प्लेटो ने आदर्श समाज की कल्पना की। अरस्तू मध्यम मार्ग में विश्वास करता था। यूनान में नई दार्शनिक विचारधाराओं का प्रतिपादन हुआ, जिनको हम निम्न प्रकार से समझ सकते हैं-
- एक विचारधारा के प्रतिपादकों ने भौतिक जगत के स्वरूप के विषय में प्रचलित पौराणिक कथाओं व इनके विषय में तर्कसंगत विचार प्रकट किया।
- दूसरी विचारधारा के प्रतिपादक यह मानते थे कि समस्त वस्तुएँ परमाणुओं से निर्मित हुई हैं।
- (3) तीसरी विचारधारा के प्रतिपादक जो ‘सोफिस्ट’ कहलाते थे, उनका मत था कि विश्व में कोई परम सत्य नहीं है। प्रत्येक वस्तु का मापदण्ड अतुल्य है।
- (4) इनके अतिरिक्त यूनान में दो अन्य दार्शनिक विचारधाराएँ भी प्रचलित थीं-
(क) स्टोइक विचारधारा मानती थी कि मनुष्य को अपने भाग्य से संतुष्ट रहना चाहिए।
(ख) एपिक्यूरियन विचारधारा के दार्शनिक मानते थे कि मनुष्य के लिए। सबसे बड़ी भलाई सुख है।
प्रश्न 28.
सुकरात कौन था?
उत्तर:
सुकरात यूनान का सबसे महान् दार्शनिक था। वह एथेंस का निवासी था। युद्धों में होने वाली हिंसा ने उसे दार्शनिक बना दिया। सुकरात ने सत्य को जानने के लिए तर्क पर बल दिया। उसका कहना था कि सत्य को जानने के लिए चिन्तन करके विश्लेषण करना चाहिए। उसका विश्वास था कि ज्ञान सही आचरण और सुख का रास्ता दिखाता है।
अज्ञानता से कई बुराइयाँ उत्पन्न होती हैं। उन्होंने एथेंस में प्रचलित विश्वासों की कटु आलोचना की, अतः उन्हें युवकों को पथ भ्रष्ट करने तथा नये देवताओं का प्रतिपादन करने के जुर्म में मृत्युदण्ड दिया गया। जिसके अन्तर्गत उन्हें विषपान करने के लिए विवश किया गया।
प्रश्न 29.
रोमन सम्राट कॉन्सटेन्टाइन पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
कॉन्सटेन्टाइन एक सदाचारी, संयमी, विवेकशील, कार्यकुशल एवं उदार विचारों का व्यक्ति था। उसने रोमन साम्राज्य के लिए एक विशाल राजधानी का निर्माण करवाया, जिसका नाम अपने नाम पर कॉन्सटेंटिनोपल (कुस्तुनतुनिया) रखा। उसने ईसाइयों के दो मुख्य साम्राज्यों को मिलाकर धार्मिक एकता स्थापित करने का प्रयास किया, परन्तु उसमें उसे विशेष सफलता प्राप्त नहीं हुई।
उसने ईसाइयों को गिरिजाघर बनाने एवं उसमें पूजा करने का अधिकार दे दिया, वह अपने आपको ईश्वर का प्रतिनिधि मानता था तथा अपनी शान – शौकत पर अनावश्यक रूप से धन व्यय करता था। इससे राजकोष रिक्त हो गया। कॉन्सटेन्टाइन के शासनकाल में हूण लोग रोमन साम्राज्य की पूर्व – यूरोपियन सीमाओं पर छा गए। 337 ई. में कॉन्सटेन्टाइन की मृत्यु हो गई।
प्रश्न 30.
रोम के निवासियों का जीवन एवं उनकी संस्कृति का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
रोम की सभ्यता का मुख्य केन्द्र इटली था। रोम के आरम्भिक निवासी अधिकतर कृषि करते, गाय – बैल व भेड़ पालते तथा अपने वस्त्र सन और ऊन से स्वयं बनाते थे। ये लोग मिट्टी या लकड़ी के बर्तन प्रयोग करते थे। रोम का प्रत्येक परिवार चूल्हे की देवी – ‘वेस्ता’ की पूजा करता था। रोम के समाज में स्त्रियों का आदर किया जाता था। रोम का समाज चार वर्गों में विभक्त था-
- अभिजात वर्ग
- धनी व्यापारी एवं साहूकार
- छोटे स्वतन्त्र किसान एवं शहरों के निवासी
- दास वर्ग।
उच्च वर्ग के व्यक्ति एवं धनी व्यापारी महलों में रहते थे। दासों का जीवन दयनीय था। नगरों में रथों की दौड़ एवं तलवारबाजी की प्रतियोगिताएँ होती थीं।
प्रश्न 31.
रोम साम्राज्य के शासक आगस्टस का मूल्यांकन कीजिए।
उत्तर:
रोम साम्राज्य की स्थापना में आगस्टस की भूमिका अत्यधिक महत्त्वपूर्ण रही थी। वास्तव में उसके शासनकाल से ही साम्राज्यवादी रोम का इतिहास प्रारम्भ होता है। उसने साम्राज्य – विस्तार के स्थान पर साम्राज्य को संगठित एवं सुदृढ़ बनाने की तरफ विशेष ध्यान दिया। उसने यातायात के मार्गों को उन्नत बनाकर तथा रोम को सभी प्रमुख मार्गों से जोड़कर रोम को यूरोप का केन्द्र बना दिया।
शिक्षा, साहित्य एवं कला को प्रोत्साहन दिया। सामाजिक एवं धार्मिक जीवन में व्याप्त बुराइयों को दूर करने के अथक प्रयत्न किए गये। वह गर्व के साथ कहा करता था कि जब उसे रोम मिला तब वह ईंटों का नगर था और जब उसने रोम को छोड़ा तब वह संगमरमर का बन चुका था। अतः इसमें कोई सन्देह नहीं है कि वह मेधावी, व्यवहार कुशल और कार्यक्षम शासक था।
RBSE Class 12 History Chapter 1 निबन्धात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
पाषाणकालीन औजार, सामुदायिक जीवन एवं कला पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
पाषाण कालीन औजार – आदिमानव के जीवन में पत्थर के औजारों का अत्यधिक महत्व रहा है। यदि यह कहा जाय कि पत्थर के औजारों के बिना आदिमानव का जीवन सम्भव ही नहीं था तो कोई अतिशयोक्ति न होगी। जंगली जानवरों से अपनी सुरक्षा एवं क्षुधापूर्ति हेतु उनका शिकार इन पत्थर के औजारों के कारण ही सम्भव हो पाया। वस्तुतः आदिमानव के सांस्कृतिक विकास की प्रक्रिया का आरम्भ ही उस समय हुआ जब पत्थर का औजार बनाने का कौशल विकसित हुआ।
पाषाणकालीन औजारों पर यदि हम सूक्ष्म दृष्टि से विचार करें तो ये औजार मुख्यतया तीन भागों में मिलते हैं-
(i) कुठार
(ii) गंडासे एवं
(iii) रूखानी या शल्कर (छीलने वाले) औजार।
(i) कुठार – इसका उपयोग किसी वस्तु को काटने अथवा कुचलने में किया जाता था। इसका निर्माण पत्थर के टुकड़े से कठोर मध्य भाग से पपड़ी उतार कर किया जाता था।
(ii) गंडासे – इनका उपयोग संभवत: मांस को काटने के लिए किया जाता था। ये भारी प्रस्तर खण्ड में एक तरफ तेज नोक बनाकर तैयार किए जाते थे।
(iii) रूखानी या शल्कर – ये औजार उक्त दोनों औजारों की तुलना में छोटे एवं पतले होते थे। किन्तु किनारे अधिक पैने होते थे।
पाषाणकालीन औजारों के सम्बन्ध में महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि ये औजार यूरोप, अफ्रीका तथा एशिया के अनेक स्थानों पर मिले हैं। इससे पत्थर के औजारों के सार्वभौम उपयोगिता का पता चलता है।
सामुदायिक जीवन:
पाषाणकाल में सामुदायिक जीवन का प्रारम्भ उत्तर- पाषाण काल के अन्तर्गत प्रारम्भ हुआ। इस समय खाद्य सामग्री एकत्रित करने का कार्य आदि मानव सहयोग की क्रिया द्वारा करता था। परिस्थितियों का सामना करते – करते उसे यह आभास हो गया था कि जब तक वह दूसरों से मिल – जुलकर नहीं रहेगा, जीवित नहीं रह सकता। स्वयं की सुरक्षा के लिए आपस में मिल जुलकर रहना उसके लिए नितांत आवश्यक हो गया था।
यही स्थिति सामुदायिक जीवन का आधार बनी। तत्कालीन परिस्थितियों में सामुदायिक जीवन उद्भव अवस्था में था। ऐसी दशा में यह बहुत अस्त – व्यस्त था। समुदाय का आकार क्षेत्र विशेष में उपलब्ध फलों की मात्रा एवं शिकार किए जाने वाले जानवरों की संख्या पर निर्भर करता था। समुदाय एक ही स्थान पर बहुत दिनों तक बसे हुए नहीं रह पाते थे, ऋतुओं के बदलने पर उन्हे पशुओं के साथ अपना स्थान बदलना पड़ता था।
उत्तर पाषाणकालीन सामुदायिक जीवन में पुरुषों और स्त्रियों का जीवन समान था। इस समय सामाजिक असमानता का जन्म नहीं हुआ था। नवपाषाण काल में सामुदायिक जीवन की दृष्टि से स्थिति और उन्नत हुई। इस काल में कृषि करने का ज्ञान हो जाने के कारण सामुदायिक श्रम विभाजन अस्तित्व में आया।
कला:
पाषाण कालीन कला भी अपनी उद्भव अवस्था में थी। इस काल में मानव ने निवास स्थान की गुफाओं की दीवारों पर रेखाओं को खींचकर चित्र बनाया। कुछ गुफाओं की भीतरी छतों और दीवारों पर बहुरंगी चित्र भी मिले हैं। इन बहुरंगी चित्रों में भागते हुए जंगली साँड, घोड़े, रीछ, बारहसिंघों आदि तथा शिकार के अत्यन्त सुन्दर चित्र दिखायी पड़ते हैं।
पाषाण कालीन मानवे की कला का उद्देश्य क्या था? यह तो पूर्णतया स्पष्ट नहीं है किन्तु कला के द्वारा उनमें सौन्दर्य बोध विकसित हुआ, यह बात पूरी तरह स्पष्ट है। पाषाणकालीन मानव ने अपनी निजी वस्तुओं को सजाने के साथ – साथ औजारों पर भी नक्काशी की है। अनेक स्थानों पर मिले पहाड़ियों में बने चित्र इस बात के प्रमाण हैं। मध्य प्रदेश में स्थित भीमवेटका के चित्र पाषाण युग के ही माने जाते हैं।
प्रश्न 2.
नवे पाषाण काल में हुए मानवीय विकास का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
1. नवपाषाण काल में मानवीय विकास:
आदि मानव के जीवन में नवपाषाण काल में हुआ मानवीय विकास मील का पत्थर सिद्ध हुआ। वस्तुत: नवपाषाण काल आदिमानव के जीवन के उत्तरोत्तर विकास का काल था। इस काल में जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं के क्षेत्र में क्रान्तिकारी परिवर्तन हुए जिन्हें हम निम्नलिखित तरह से समझ सकते हैं
2. बस्तियों का विकास:
मानवीय विकास की मूल संकल्पना सामुदायिक जीवन में छिपी होती है। सामुदायिक जीवन से बस्तियों का उद्भव एवं विकास हुआ है। आदि मानव ने जब कृषि प्रारम्भ की तो उसे यह समझते देर न लगी कि कृषि के लिए केवल बीजारोपण ही अवश्यक नही था बल्कि बढ़ते हुए पौधों की देखभाल के लिए पौधों के पास रहना भी नितान्त आवश्यक था। प्रारम्भिक अवस्था में ऐसी ही स्थिति में बस्तियों का विकास हुआ। बाद में ये बस्तियाँ विकसित होकर गाँव बन गईं। इस तरह व्यवस्थित एवं संगठित जीवन का प्रारम्भ हुआ जो मानवीय विकास की दिशा में अत्यन्त महत्वपूर्ण कदम था।
3. मिश्रित कृषि का विकास:
नवपाषाण काल में मानवीय विकास का एक महत्वपूर्ण पक्ष यह भी था कि इस काल में मिश्रित कृषि का विकास हुआ। मिश्रित कृषि का तात्पर्य यह है कि इस समय मानव अनाज उगाने के साथ-साथ पशुपालन भी करने लगा। पशुओं का उपयोग दूध प्राप्त करने के अलावा माल ढोने के लिए भी होने लगा।
इससे अनावश्यक हिंसा से छुटकारा मिला जो मानवीय विकास की दृष्टि से एक महत्वपूर्ण कदम था। मिश्रित कृषि के कारण नवपाषाण कालीन मानव की खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित हुई जिसके कारण जनसंख्या में वृद्धि हुई। ऐसी स्थिति में गाँव बड़े होते गए और उनमें से कुछ नगर बन गए। इस तरह मानवीय विकास की प्रक्रिया तीव्र होती चली गई।
4. सामुदायिक जीवन में सुधार:
बस्तियों एवं मिश्रित कृषि के विकास के कारण नवपाषाण कालीन मानव के सामुदायिक जीवन में सुधार हुआ। इस सुधार के फलस्वरूप “श्रम विभाजन” अस्तित्व में आया। अब जमीन, मकान, बर्तन, आभूषण अलग-अलग परिवारों की सम्पत्ति थे। नवपाषाण काल का यह सामुदायिक जीवन उत्तर – पाषाण युग के उस सामुदायिक जीवन का परिष्कृत रूप था जिसमें मनुष्य का मुख्य व्यवसाय शिकार करना एवं फल इकट्ठा करना था।
5. विभिन्न कलाओं का विकास:
मानवीय विकास में कलाओं का बहुत महत्वपूर्ण स्थान है। नवपाषाण काल में पत्थर के औजार, मिट्टी के बर्तनों का आविष्कार, पहिए का आविष्कार एवं कातने तथा बुनने की कला की शुरुआत के कारण मानव को महत्वपूर्ण उपलब्धि हासिल हुई। इनके विकास के कारण मनुष्य का जीवन उन्नत होने के साथ-साथ प्रगतिशील भी हुआ।
परिष्कृत पत्थर के औजारों के कारण जहाँ मानव द्वारा किया जाने वाला कृषि कार्य सहज एवं सरल हुआ वहीं मिट्टी के बर्तनों के अस्तित्व में आने के कारण वस्तुओं का संग्रह आसान हुआ। कातने एवं बुनने की कला का विकास मानव बुद्धि की महान सफलता थी, जिससे तन ढकने का सुनिश्चित तरीका विकसित हुआ।
पहिए का आविष्कार नवपाषाण काल के मानवीय विकास में तकनीकी क्रान्ति का आगाज था। वस्तुतः यह प्रारम्भिक यातायात का बीजारोपण था। पहिए वाली गाड़ी के द्वारा सामान को एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाना आसान हो गया इससे सामुदायिक जीवन को बल मिला और नयी जीवन पद्धति की शुरुआत हुई।
6. धार्मिक विश्वास:
धार्मिक विश्वास मानवीय विकास का एक अमूर्त पक्ष है। नवपाषाण काल में मनुष्यों का विश्वास था कि सूर्य चन्द्रमा, तारे और प्रकृति की अन्य शक्तियाँ असाधारण सामर्थ्य रखती हैं। इनकी पूजा करके इनको प्रसन्न करने की कोशिश की जाती थी।
ऐसा वर्तमान समय में भी रहा है। उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है कि नवपाषाण काल में हुआ मानवीय विकास आदि मानव के उत्तरोत्तर विकास का परिष्कृत स्वरूप एवं संक्रमण काल था।
प्रश्न 3.
मिस्र की शासन-व्यवस्था का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
1. मिस्र की शासन – व्यवस्था:
मिस्र की शासन – व्यवस्था का वर्णन निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत किया जा सकता है।
2. केन्द्रीय शासन – फरोहा:
मिस्र का राजा ‘फरोहा’ कहलाता था। वह साम्राज्य का सर्वोच्च अधिकारी था। वह सर्वोच्च सेनापति, सर्वोच्च न्यायाधीश तथा कानूनों का निर्माता था। वह पूर्णत: निरंकुश तथा स्वेच्छाचारी शासक था। राज्य की सर्वोच्च शक्ति उसके हाथों में केन्द्रित थी। वह सूर्य देवता ‘रे’ का प्रतिनिधि माना जाता था।
सेनापतियों, न्यायाधीशों, राजदूतों, प्रान्तपतियों एवं अन्य उच्च पदाधिकारियों की नियुक्ति ‘फरोहा’ के द्वारा ही की जाती थी। केन्द्रीय शासक का पूर्ण उत्तरदायित्व उस पर ही रहता था। मिस्री शासन व्यवस्था पूर्णतः धर्मतान्त्रिक (थियोक्रेटिक) थी। मिस्री नरेश सूर्यदेव ‘रे’ के प्रतिनिधि होने के कारण खुद देवता माने जाते थे। मृत्यु के बाद उनकी पूजा उनके पिरामिड के सामने बने मन्दिर में होती थी।
3. सरू:
प्रशासनिक कार्यों में सलाह के लिए ‘सरू’ नामक एक परिषद् होती थी। किन्तु उसकी सलाह मानना ‘फरोहा’ के लिए अनिवार्य नहीं था। प्रशासन के कार्यों के लिए एक प्रधानमन्त्री तथा अन्य कर्मचारी भी होते थे।
4. प्रान्तीय व्यवस्था:
प्रशासनिक सुविधा के लिए मिस्र लगभग चालीस प्रान्तों में विभाजित था। प्रान्त को ‘नोम’ प्रान्तीय अधिकारी को ‘नोमेन’ अथवा ‘नोगार्क’ कहते थे। इसकी नियुक्ति ‘फरोहा’ करता था। प्रान्तीय सूबेदार लगान वसूली, शान्ति व्यवस्था एवं न्याय का कार्य करता था। प्रायः प्रमुख सामन्त ही इस पद पर नियुक्त होते थे।
5. नगरीय व्यवस्था:
साम्राज्य के बड़े नगरों को शासन ‘फरोहा’ द्वारा नियुक्त अलग अधिकारी करते थे वे सीधे ‘फरोहा’ के प्रति उत्तरदायी होते थे।
6. गुप्तचर व्यवस्था:
साम्राज्य के भिन्न – भिन्न भागों में गुप्तचर नियुक्त किए जाते थे। ये गुप्तचर वेश बदलकर विभिन्न स्थानों पर घूमते रहते थे तथा राजा को विभिन्न प्रकार की सूचनाएं पहुँचाते थे। साम्राज्य के भिन्न – भिन्न भागों में घटने वाली घटनाओं से भी गुप्तचर राजा को अवगत कराते रहते थे।
7. न्याय – व्यवस्था:
सैनिक पदाधिकारियों के समान मिस्र में न्यायाधीशों का भी अलग वर्ग नहीं था। प्रायः सिविल (गैर सैनिक) पदाधिकारी ही न्यायाधीशों के कर्तव्यों को पूरा करते थे। कुछ मामलों में ‘फराहो’ को भी अपील की जा सकती थी।
शेष मामलों में उच्च अधिकारी ही न्याय व्यवस्था का संचालन करते थे। मिस्री समाज में दण्ड विधान काफी कठोर था। अंग – भंग, देश – निर्वासन, शारीरिक यातनाएँ और गुरुतर अपराधों के लिए मृत्यु – दण्ड.का प्रावधान था।
प्रश्न 4.
प्राचीन मिस्र की लिपि एवं साहित्य का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
प्राचीन मिश्र की सभ्यता में हुई लिपि व साहित्य की प्रगति का वर्णन अग्र प्रकार है
1. मिस्री लिपि:
प्राचीन मिश्रियों को लेखनकला के ज्ञान की आवश्यकता कई कारणों से पड़ी। उनके मृतक – संस्कार में ऐसे अनेक मन्त्रों का प्रयोग किया जाता था जिनका भविष्य के लिए परिरक्षण केवल लिपि द्वारा ही सम्भव था। आर्थिक तथा प्रशासनिक दृष्टि से भी उन्हें लिपि की आवश्यकता पड़ी।
2. हाइरोग्लाफिक लिपि:
मिस्र की प्राचीन चित्राक्षर लिपि ‘हाइरोग्लाफिक’ कही जाती थी। हाइरोग्लाफिक यूनानी शब्द है- जिसका अर्थ है- ‘पवित्र लिपि’। इसमें चौबीस चिन्ह थे जिनमें से प्रत्येक, एक व्यंजन अक्षर का प्रतीक था। इस लिपि में स्वर नहीं थे। बाद में मिस्र निवासियों ने विचारों के लिए संकेतों का प्रयोग करना आरम्भ कर दिया।
इस प्रकार चिन्हों की संख्या बढ़कर पाँच सौ हो गयी तथा लेखन का विकास एक कला के रूप में हो गया। लिपिकों का समाज के रूप में प्रमुख स्थान था। वे पेपिरस नाम के पेड़ के पत्तों पर सरकडे की कलम से लिखते थे। दीर्घकाल तक परिश्रम के बाद शैम्पोल्यो (1790 – 1832) नामक फ्रांसीसी विद्वान मिश्र की लिपि के सारे अक्षरों को पढ़ने में समर्थ हो गया।
मिस्री साहित्य
मिस्रवासियों ने साहित्य के क्षेत्र में भी पर्याप्त उन्नति की। उनका अधिकांश साहित्य धार्मिक था जिसमें उन्होंने देवताओं तथा फरोहाओं की प्रशंसा की। मृतकों की पुस्तक में मिस्र के फरोहा के महान कार्यों का वर्णन है। ‘पिरामिड टेक्स्टस’ में मृतक संस्कार से सम्बन्धित मन्त्र, पूजा – भक्ति और प्रार्थनाओं का उल्लेख मिलता है।
प्रश्न 5.
कला के विकास में मिश्र की सभ्यता के योगदान का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
1. कला के विकास में मिश्र की सभ्यता का योगदान:
कला के क्षेत्र में मिश्र की सभ्यता के योगदान को हम निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत समझ सकते हैं-
2. वास्तुकला:
वास्तुकला के क्षेत्र में मिश्रवासियों ने ‘पिरामिडों’ के द्वारा योगदान किया। इन लोगों ने पिरामिडों की रचना अपने राज्य एवं उसके प्रतीक फराहो की गौरव गाथा प्रकट करने के लिए की थी। मिश्र के पिरामिडों में खूफू द्वारा गीजा में निर्मित पिरामिड सबसे अधिक प्रसिद्ध है। इतिहासकार हेरोडोटस के अनुसार इस पिरामिड को लगभग एक लाख कारीगरों ने बीस साल में बनाया था।
मिश्र के मन्दिर भी वास्तुकला के क्षेत्र में अपना महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। कारनाक का मन्दिर अपनी विशालता एवं कलात्मक सौन्दर्य के लिए प्रसिद्ध है। लक्सोर का मन्दिर भी अपने कलात्मक सौन्दर्य के लिए विश्वविख्यात है। वास्तुकला के क्षेत्र में ओबेलिस्क तथा चट्टानी मकबरों का महत्वपूर्ण स्थान है। ओबेलिस्क नीचे से चौड़े और ऊपर की ओर नुकीले भवन थे जो अपनी निर्माण शैली के लिए प्रसिद्ध हैं।
3. मूर्तिकला:
फरोहाओं और पशुओं की मूर्तियों को बनाकर मिश्री हस्त शिल्पियों ने भव्य मूर्तिकला का विकास किया। यहाँ थटमोज तृतीय और रमेसिस द्वितीय की कठोर पाषाण निर्मित मूर्तियाँ गगन चुम्बी प्रतीत होती हैं। अमेन होतप तृतीय के समय के शेरों की मूर्तियाँ एव सिम्बेल के मन्दिर में उदित होते सूर्य की मूर्ति मूर्तिकला के क्षेत्र में अपना विशिष्ट स्थान रखती हैं।
4. चित्रकला:
मिश्र के कलाकार अपने रिलीफ – चित्रों को विभिन्न प्रकार के रंगों से रंगते थे। मिश्र की चित्रकला के नमूने पिरामिडों, मन्दिरों तथा भवनों के अन्दर की दीवारों पर विविध प्रकार के रंगों से बने चित्रों के रूप में मिलते हैं। मिश्र के चित्रकारों की कला में प्रकृतिक सौन्दर्य की अधिकता है। मिश्र की रानी हेपसेपसूत चित्रकला विधा में पारंगत थीं।
5. धातुकला:
प्राचीन मिश्र ने धातुकला के क्षेत्र में अत्यधिक उन्नति की थी। धातुकारों द्वारा सोने, चाँदी, ताँबा, काँसा आदि की मूर्तियाँ तथा मुकुट, सिंहासन, आभूषण एवं बर्तन आदि बनाए जाते थे। मिश्र में ‘पेपी प्रथम’ की काष्ठ के ऊपर ताम्रपत्र चढ़ाकर बनाई गई मूर्ति विश्व में प्रसिद्ध है। तूतेन खामेन की समाधि से सोने की बनी बहुत सी वस्तुएँ मिली हैं। जो उस समय के धातुकला के उन्नत अवस्था में होने का प्रतीक हैं।
6. लेखन कला:
मिश्र की लेखन कला ‘हाइरोग्लाफिक लिपि’ से विकसित हुई। इस लिपि में 24 चिह्न थे। आगे चलकर ये चिह्न और बढ़े और इनकी संख्या बढ़कर 500 हो गई। इस लिपि को पेपिरस नाम के पेड़ के पत्तों पर सरकंडे की कलम से लिखा जाता था
उपरोक्त समस्त विवरणों से स्पष्ट है कि मिस्रवासियों का कला बोध बहुत अच्छा था। विशाल भवनों का निर्माण आधुनिक विश्व को मिस्रवासियों की महत्वपूर्ण देन है। मिश्र के पिरामिड आज भी संसार के सात आश्चर्यों में से एक गिने जाते हैं। वर्तमान मानव सभ्यता कला के क्षेत्र में अपने विकास के लिए मिश्र की सभ्यता की आभारी रहेगी।
प्रश्न 6.
प्राचीन मिश्र की ज्ञान – विज्ञान के क्षेत्र में प्रगति का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
मिस्रवासियों ने आधुनिक विज्ञान की भूमिका तैयार करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने गणित, ज्योतिष एवं खगोल के क्षेत्र में काफी प्रगति कर ली थी।
(i) गणित:
अभीष्ट संख्या लिखने के लिए एक से नौ तक के चिन्ह को बार – बार दोहराया जाता था। दस तथा उसकी गुणन संख्याओं के लिए भिन्न – भिन्न चिन्ह थे। उदाहरण के लिए 1,10,100 के लिए अलग – अलग संकेत थे। उन्हें जोड़ बाकी (घटाना) और भाग की क्रिया की भी जानकारी थी। परन्तु वे गुणा से अपरिचित थे।
(ii) ज्योतिष और पंचांग:
सौर – पंचांग का आविष्कार मिस्रवासियों की महत्वपूर्ण देन था। उनका वर्ष 365 दिन का तथा बारह महीने और महीने में तीस दिन होते थे। उन्हें खगोल शास्त्र की अच्छी जानकारी थी। उन्होंने ग्रहों और नक्षत्रों का रहस्य समझ लिया था और ग्रहों की स्थिति का सही अनुमान लगाकर आकाश का मानचित्र भी बना लिया था। मिस्र के ज्योतिषी नक्षत्रों का अध्ययन करते थे तथा भविष्यवाणियाँ करते थे।
(iii) रसायन विज्ञान:
मिस्रवासियों ने रसायन शास्त्र के क्षेत्र में भी पर्याप्त उन्नति की। वे मृतक शरीर (ममी) को विशेष प्रकार के रसायनों की सहायता से हजारों वर्षों तक सुरक्षित रखे हुए हैं। इससे ज्ञात होता है कि रसायन शास्त्र के क्षेत्र में उन्होंने अत्यधिक उन्नति कर ली थी।
(iv) चिकित्साशास्त्र:
मिस्रवासियों ने चिकित्साशास्त्र के क्षेत्र में भी पर्याप्त उन्नति की। उन्हें मानव शरीर की रचना का ज्ञान था। उनको शरीर की विभिन्न बीमारियों का ज्ञान था। मिस्र के चिकित्सकों ने हृदय, मस्तिष्क, नाड़ी, गुर्दे आदि की कार्य – प्रणाली का अध्ययन किया था। वे नाड़ी देखना तथा तापक्रम नापना जानते थे।
प्रश्न 7.
प्राचीन बेबीलोन की सभ्यता की प्रमुख विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
प्राचीन बेबीलोन की सभ्यता की प्रमुख विशेषताएँ: प्राचीन बेबीलोन की सभ्यता की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
(1) हम्मूराबी की विधि संहिता:
बेबीलोन सभ्यता की सबसे महत्वपूर्ण देन हम्मूराबी की विधि संहिता है। बेबीलोन के सम्राट हम्मूराबी ने अपनी प्रजा के लिए एक विधि संहिता का निर्माण करवाया जो इस समय उपलब्ध सबसे प्राचीन विधि संहिता है। सेमेटिक भाषा में लिखित इस विधि संहिता में कुल 285 धाराएँ हैं। हम्मुराबी का दण्ड विषयक सिद्धान्त यह था “जैसे को तैसा और खून का बदला खून”।
(2) सामाजिक व्यवस्था:
बेबीलोनिया का समाज तीन प्रमुख वर्गों में विभक्त था। उच्च वर्ग के सदस्य ‘अवीलम’ कहलाते थे। इसके अन्तर्गत – उच्च पदाधिकारी, मंत्री, जमींदार एवं व्यापारी आदि आते थे। मध्यम वर्ग के सदस्य ‘मस्केनम’ कहलाते थे। इस वर्ग में राजा व्यापारी, शिल्पी, बुद्धिजीवी, कर्मचारी, किसान एवं श्रमिक सम्मिलित थे। तीसरा वर्ग दासों का था जिन्हें ‘अरदू’ कहा जाता था। इन्हें अपने मालिक की सम्पत्ति समझा जाता था। बेबीलोनिया में पितृसत्तात्मक परिवार थे। परिवार की सम्पत्ति पर पुत्र-पुत्रियों का समान अधिकार था।
(3) आर्थिक जीवन:
बेबीलोन की सभ्यता के लोगों का मुख्य व्यवसाय कृषि था। यहाँ के किसान भूमि की जुताई हलों से करते थे। नदियों के पानी से खेतों की सिंचाई करते थे। यहाँ बड़ी संख्या में पशु भी पाले जाते थे जिनमें गाय, बैल, भैंस, भेड़, बकरी, सुअर, गधे एवं खच्चर आदि प्रमुख पशु थे। यह एक व्यावसायिक सभ्यता थी।
यहाँ सूत कातना, कपड़े बनाना, मिट्टी के बर्तन एवं मूर्तियाँ बनाना, धातुओं के अस्त्र – शस्त्र, आभूषण, लकड़ी की वस्तुएँ बनाना आदि उद्योग प्रचलित थे। यहाँ के लोग विलासिता की वस्तुएँ, इमारती लकड़ी, सीसा, ताँबा, सोना, चाँदी, काँसा आदि का आयात करते थे तथा अस्त्र-शस्त्र, धातु, औजार, खाद्यान्न, आभूषण तथा मूर्तियों का निर्यात करते थे।
(4) धार्मिक जीवन:
बेबीलोन के लोग अनेक देवताओं में विश्वास करते थे। उनके प्रमुख देवी – देवता अन (आकाश) शमस (सूर्य), सिन (चन्द्रमा), बेल (पृथ्वी), निनगंल (चन्द्रमा की पत्नी) आदि थे। इनके प्रत्येक नगर का अपना संरक्षक देवता होता था उसे जिग्गुरात कहते थे। बेबीलोनिया में मन्दिर व मूर्तियाँ भी थीं। लोग इनकी पूजा करते थे। यहाँ के लोग अन्धविश्वासी भी थे। वे जादू – टोना, भूत – प्रेत तथा भविष्यवाणियों में विश्वास करते थे।
(5) ज्ञान – विज्ञान:
ज्ञान – विज्ञान के क्षेत्र में बेबीलोन के लोगों की उपलब्धियाँ महत्वपूर्ण थीं। खगोल विज्ञान के क्षेत्र में उन्होंने काफी उन्नति कर ली थी। उन्होंने सूर्योदय, सूर्यास्त तथा चन्द्रोदय, चन्द्रास्त का ठीक समय मालूम कर लिया था। उन्होंने दिन व रात्रि के समय का हिसाब लगाकर पूरे दिन को 24 घण्टों में बाँटा था। साठ सेकेण्ड का मिनट एवं साठ मिनट के एक घण्टे का विभाजन सबसे पहले इन्होंने ही किया। इनकी गणना दशमलव तथा षट् दाशमिक प्रणाली पर आधारित थी। ये ज्योतिष में भी रुचि रखते थे।
(6) कला:
बेबीलोन की सभ्यता कला के क्षेत्र में अपनी समकालीन सभ्यताओं से बहुत पीछे थी। यहाँ पाषाणों का अभाव था। यहाँ कच्ची ईंटों से मकान बनाये जाते थे। छतों, दरवाजों व खिड़कियों में लकड़ी का प्रयोग होता था। बेबीलोनियन कला के विशिष्ट नमूने जिग्गुरात नामक भवन थे। इनकी मूर्तियाँ पशु और मानव की मिश्रित आकृति की होती थीं जो कलात्मकता के स्थान पर विशालता के लिए अधिक प्रसिद्ध थीं। राजभवनों एवं मन्दिरों में ही चित्र अंकित किए जाते थे। यहाँ के लोग संगीत प्रेमी भी थे।
(7) लिपि एवं साहित्य:
बेबीलोन के लोगों ने सुमेरियन कीलाक्षर लिपि को अपनाया था। इस लिपि में वस्तुओं का ज्ञान प्राप्त करने के लिए चिह्नों, संकेतों, चित्र-लेखों एवं चित्रों का प्रयोग किया जाता था। साहित्य के क्षेत्र में विश्व के प्रथम महाकाव्य ‘गिलगमेश’ की रचना बेबीलोन के लोगों ने ही की थी।
प्रश्न 8.
हम्मूराबी का जीवन परिचय देते हुए उसकी शासन व्यवस्था तथा न्याय एवं दण्ड व्यवस्था का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
1. हम्मूराबी का जीवन – परिचय:
एमोराइट वंश का छठा शासक हम्मूराबी था। वह अपने युग का महान् विजेता था। उसने लगभग बयालीस वर्षों (2123 – 2081 ई.पू.) तक शासन किया। हम्मूराबी एक महान् विजेता तथा बेबिलोनियन साम्राज्य का निर्माता था। वह एक विजेता ही नहीं अपितु एक योग्य शासक तथा कानूनवेत्ता भी था। उसकी बहुमुखी प्रतिभा का परिचय हमें उसकी विधि – संहिता से मिलता है।
वह एक परिश्रमी, अनुशासनप्रिय एवं न्यायप्रिय शासक था। उसका अधिकांश समय प्रजा की भलाई के लिए व्यतीत होता था। उसने व्यापार – वाणिज्य तथा उद्योग-धन्धों के विकास की तरफ विशेष ध्यान दिया और इस सम्बन्ध में नये – नये नियम बनाये। पशु पालन में अभिरुचि तो उसका स्वाभाविक गुण था। अत: उसने इस कार्य में भी रुचि ली।
2. शासन – व्यवस्था:
हम्मूराबी के काल में राजा की शक्ति में काफी वृद्धि हुई तथा उसकी निरंकुशता तथा स्वेच्छाचारिता बढ़ने लगी लेकिन राजा क्रूर व अन्यायी नहीं थे। राज्य की सहायता के लिए मन्त्रिपरिषद् होती थी। शासन को कई विभागों में बाँटा गया तथा उन विभागों का दायित्व पृथक् – पृथक् मन्त्रियों का होता था।
मन्त्रियों की नियुक्ति तथा पदच्युति का अधिकार सम्राट को होता था। सम्पूर्ण साम्राज्य को शासन में सुविधा के लिए कई प्रान्तों में बाँटा गया था। प्रान्तों की शासन – व्यवस्था सामन्तों को सौंपी जाती थी जो सीधे राजा के प्रति उत्तरदायी थे।
3. न्याय एवं दण्ड व्यवस्था:
हम्मूराबी ने कानूनों को नवीन परिस्थितियों के अनुकूल बनाने के लिए एक नयी विधि-संहिता बनायी। राजकीय न्यायालयों में न्यायाधीशों को स्वयं सम्राट नियुक्त करते थे तथा इन न्यायाधीशों को मनमानी करने से रोकने के लिए नगर में कुछ वयोवृद्ध व्यक्ति उनके साथ बैठाये जाते थे। निचले न्यायालयों के निर्णय के विरुद्ध उच्च न्यायालय में अपील करने की व्यवस्था भी शुरू की गयी।
अन्तिम अपील राजा के पास की जा सकती थी। दण्ड व्यवस्था की संहिता में ‘जैसे को तैसा’ सिद्धान्त का प्रावधान था। अपराधी की जाँच – पड़ताल के बाद सजा दी जाती थी। झूठी गवाही देने वालों को सख्त सजा दी जाती थी। अधिकांश अपराधों का निर्णय जल – परीक्षा अथवा पवित्र शपथ से किया जाता था।
प्रश्न 9.
हम्मबूराबी की विधि संहिता क्या है? इसकी प्रमुख विशेषताएँ बताइए।
उत्तर:
हम्मूराबी की विधि – संहिता
बेबिलोनिया की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण देन उसकी विधि – संहिता है। हम्मूराबी ने उस समय में प्रचलित नियमों का संग्रह करवाया तथा उन्हें सुविधाजनक बनाते हुए उसमें परिवर्तन करके एक विधान – संहिता का निर्माण किया। इसको उसने आठ फीट ऊँचे एक पाषाण स्तम्भ पर छत्तीस सौ पंक्तियों में उत्कीर्ण करवाया, जिसे बेबिलोन में मर्दुक के मन्दिर ‘ए-सागिल’ में स्थापित किया गया। बाद में इसे एलम का शासक सूसा उठा ले गया।
इस स्तम्भ की खोज फ्रांसीसी विद्वान एन.डी. मार्गन ने की थी। हम्मूराबी की संहिता की भाषा सुमेरियन न होकर सेमेटिक है। इसमें कुल 285 धाराएं हैं जो वैज्ञानिक ढंग से व्यक्तिगत सम्पत्ति, व्यापार और वाणिज्य, परिवार, अपराध और श्रम के अध्यायों में विभाजित है। इस संहिता की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसके कानून पूर्णतः धर्म निरपेक्ष है।
हम्मूराबी की विधि – संहिता की प्रमुख विशेषताएँ: हम्मूराबी की विधि – संहिता की निम्नलिखित विशेषताएँ थीं-
- हम्मूराबी की विधि – संहिता में लगभग 285 धाराएं हैं जो निजी सम्पत्ति, जायदाद, व्यापार और वाणिज्य व्यवहार, पारिवारिक जीवन, श्रम एवं मजदूरी, क्षतिपूर्ति आदि शीर्षकों के अन्तर्गत कई अध्यायों में विभक्त हैं।
- ये कानून प्रतिशोध की भावना पर आधारित थे। “जैसे को तैसा” का सिद्धान्त प्रचलित था।
- इस विधि – संहिता में उत्तरदायित्व की स्पष्ट व्याख्या की गयी थी।
- इस विधि – संहिता में बहुत कठोर दण्डों की व्यवस्था की गयी थी। अनेक अपराधों के लिए मृत्यु-दण्ड की व्यवस्था की गयी थी।
- स्त्रियों को कुछ स्वतन्त्र अधिकार भी दिए गये थे। विवाह और तलाक सम्बन्धी कानूनों में काफी सुधार किए गये
- इस विधि – संहिता में गोद लेने की प्रथा के सम्बन्ध में भी कानून बनाये गये थे।
- दण्ड निर्धारण के समय वादी और प्रतिवादी की सामाजिक प्रतिष्ठा का ध्यान रखा जाता था। एक ही प्रकार का अपराध करने पर निम्न वर्ग, मध्यम वर्ग तथा उच्च वर्ग के लोगों के लिए अलग – अलग दण्ड निश्चित किए गये थे।
- इस विधि – संहिता में दासों के अधिकारों के विषय में विस्तृत नियम बनाये गये थे।
प्रश्न 10.
बेबिलोनिया की सभ्यता के सामाजिक जीवन का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
बेबिलोनियन सभ्यता का सामाजि जीवन सामाजिक संगठन: बेबिलोनियन समाज तीन वर्गों में विभाजित था। ये प्रमुख वर्ग निम्नलिखित थे-
- उच्च वर्ग – इसके सदस्य ‘अवलीम्’ कहलाते थे। उच्च पदाधिकारी मन्त्री, जमींदार और व्यापारी आदि इस वर्ग में सम्मिलित थे। यह वर्ग सुख-सुविधा से सम्पन्न था।
- मध्यम वर्ग – मध्यम वर्ग के सदस्य को मस्केनम कहा जाता था। ये उच्च वर्ग की तरह स्वतन्त्र थे। इस वर्ग में व्यापारी, शिल्पी, बुद्धिजीवी, राज्य के कर्मचारी, किसान और मजदूर भी सम्मिलित थे। यह समूह दासों से कुछ ऊपर की स्थिति में था।
- निम्न वर्ग – इस वर्ग को ‘वरदू’ कहा जाता था। ये अपने स्वामी की सम्पत्ति समझे जाते थे। इन्हें दागने की प्रथा थी तथा उन्हें विशेष प्रकार की पोशाक पहननी पड़ती थी। लेकिन फिर भी उन्हें कानून का थोड़ा संरक्षण प्राप्त था।
पारिवारिक जीवन:
बेबिलोनिया का पारिवारिक जीवन पितृसत्तात्मक था। समाज में परिवार के सदस्यों का पारस्परिक जीवन कानून द्वारा अनुशासित रहता था। परिवार में माता-पिता को लगभग समान अधिकार प्राप्त थे। पिता परिवार का मुखिया होता था और परिवार के सभी सदस्यों पर उसकी कठोर नियंत्रण रहता था। परिवार की सम्पत्ति पर लड़के-लड़कियों का समान अधिकार माना जाता था।
स्त्रिर्यों की स्थिति:
बेबिलोनियन समाज में स्त्रियों की स्थिति सम्मानजनक थी और उन्हें काफी स्वतन्त्रता प्राप्त थी। उनके पारिवारिक तथा अन्य अधिकार अनुमोदित थे। विवाह को कानूनी रूप देना आवश्यक माना जाता था। विवाह से पूर्व एक अनुबन्ध-पत्र लिखा जाता था। तलाक, पुनर्विवाह आदि के सम्बन्ध में स्त्रियों की परिस्थिति को देखकर निर्णय लिया जाता था।
तलाक की अवस्था में सभी को जीवन निर्वाह भत्ता मांगने का अधिकार था। स्त्रियों को व्यापार करने तथा राजकीय सेवा में जाने की भी अनुमति थी। साथ ही साथ स्त्रियों पर नियंत्रण भी पर्याप्त था। उन्हें पुरुषों के अधीन रहना पड़ता था। पुरुष एक से अधिक स्त्रियाँ रख सकता था। व्यभिचारिणी स्त्री को प्राणदण्ड दिया जाता था।
खान – पान, रहन – सहन:
बेबिलोनियन लोगों का मुख्य भोजन अन्न, फल, दूध, माँस तथा मछली थी। खजूर की ताड़ी को शराब की भाँति पिया जाता था। पुरुष कमर के नीचे लम्बा वस्त्र पहनते थे। स्त्रियाँ ऊपर के अंगों को भी ढकती थी। कुलीन लोग जरी का काम किए हुए वस्त्र पहनते थे। पुरुष सिर पर बाल रखते थे तथा दाढ़ी भी रखी जाती थी।
स्त्रियाँ भी कई प्रकार के केशविन्यास करती थी। स्त्रियों को आभूषण अधिक पसन्द थे। लोगों का मनोरंजन संगीत तथा नृत्य से होता । था। लोग मशक, बाँसुरी, तुरही, वीणा, ढोल, खंजरी आदि वाद्य यन्त्रों का प्रयोग करते थे।
प्रश्न 11.
बेबिलोनिया की सभ्यता के लोगों के आर्थिक जीवन का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
बेबिलोनिया की सभ्यता में आर्थिक जीवन
1. कृषि:
बेबिलोन के लोगों की आजीविका का मुख्य स्रोत कृषि-कार्य ही था। यहाँ की भूमि बहुत उर्वर थी। हेरोडोटस के अनुसार प्राचीन विश्व में बेबिलोनिया से बढ़कर उपजाऊ प्रदेश अन्य नहीं था। कृषि – कार्य हल तथा बैल से किया जाता था। खेतों को बाढ़ से बचाने के लिए बाँधों का निर्माण किया जाता था। पूरानी नहरों की मरम्मत तथा नई नहरों का निर्माण भी कराया जाता था।
जहाँ पर नहरों की सतह खेतों की सतह से नीची होती थी वहाँ पानी ऊपर चढ़ाने के लिए ‘सिंचाई – कल’ का उपयोग होता था। यहाँ के निवासी खाद्यान्नों के अतिरिक्त खजूर, जैतून तथा अंगूर की पैदावार को महत्त्व देते थे। भूमि अधिकांशतः राजा, मन्दिर, सामन्तों तथा धनी व्यापारियों एवं सामूहिक रूप से कबीलों के अधिकार में थी। भूमि को उपज के लिए पट्टे पर दिया जाता था।
किसानों को कुल पैदावार का 1/3 से 1/2 भाग राज्य को कर के रूप में देना होता था। हम्मूराबी ने जमीन बेचने के कठोर नियम बनवाये। उसने नयी भूमि पर खेती करने के लिए लोगों को प्रोत्साहित किया। कृषि को नुकसान पहुँचाने वालों को दण्ड का प्रावधान था। अकाल तथा प्राकृतिक नुकसान होने पर कर माफ कर दिया जाता था। कृषि को प्रोत्साहन देने के लिए राज्य मुआवजा भी देता था।
2. पशुपालन:
बेबिलोनिया वासियों की राष्ट्रीय आय का दूसरा प्रमुख स्रोत पशुपालन था। बड़ी संख्या में पशु पाले जाते थे तथा पशुओं पर कर लगाया जाता था। गाय, बैल, भैंस, भेड़, बकरी, सुअर, गधे, खच्चर आदि अधिक पाले जाते थे। शासक तथा सम्राट भी बड़ी संख्या में पशुपालन करते थे। राजकीय पशुओं की देखभाल के लिए जिलों तथा शहरों में शाही चरवाहे नियुक्त किए जाते थे। बेईमान कृषकों तथा चरवाहों को विधि – संहिता के अनुसार कठोर दण्ड दिया जाता था।
3. उद्योग – धन्धे:
बेबिलोनियनों को अपने पशुओं से उद्योग-धन्धों के लिए काफी मात्रा में ऊन, खाल और चमड़ा इत्यादि प्राप्त हो जाते थे। इसके अतिरिक्त सूत कातना, कपड़े बनाना, मिट्टी के बर्तन एवं मूर्तियाँ बनाना, धातुओं के अस्त्र – शस्त्र, आभूषण, लकड़ी की वस्तुएँ बनाना आदि उद्योग प्रचलित थे।
4. व्यापार, वाणिज्य:
बेबिलोनियन लोग अधिकांशतः विलासिता की वस्तुएं, इमारती लकड़ी, सीसा, काँसा, ताँबा, सोना, चाँदी का आयात करते थे। खाद्यान्न, अस्त्र-शस्त्र, धातु औजार, आभूषण, मूर्तियों का निर्यात किया जाता था। व्यापारिक सम्बन्ध दूरस्थ सिन्धु प्रदेश (भारत) तथा निकटवर्ती एलम के साथ बहुत प्राचीन काल से चलते आ रहे थे। विदेशी व्यापार का कार्य – व्यापारिक काफिलों द्वारा होता था।
माल ढोने का कार्य ऊँटों तथा गधों द्वारा करवाया जाता था। जहाँ जल यातायात की सुविधा उपलब्ध थी, वहाँ नौकाओं का उपयोग किया जाता था। बेबिलोन में अभी तक मुद्रा – प्रणाली का जन्म नहीं हुआ था। व्यापारिक सौदे लेखबद्ध किए जाते थे। बिल, रसीद आदि का प्रचलन भी शुरू हो गया था। समाज में व्यापारिक संघों का विकास भी हो चुका था।
प्रश्न 12.
बेबिलोनिया की सभ्यता में लोगों के धार्मिक जीवन पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
बेबिलोनिया की सभ्यता में धार्मिक जीवन
1. देवी – देवता:
बेबिलोनिया के निवासी अनेक देवताओं में विश्वास करते थे। उनके प्रमुख देवी-देवता-अन् (आकाश), शमस (सूर्य), सिन (चन्द्रमा), बेल (पृथ्वी), निनगंल (चन्द्रमा की पत्नी) आदि थे। नये देवताओं में ईश्वर और मारदुक प्रमुख थे। खेतों तथा नदियों के देवता पृथक् थे। देवी पूजा भी एचलित थी। ईस्तर उनकी प्रमुख देवी थी। प्रारम्भ में वे सृष्टि – निर्मात्री के रूप में पूजी गई लेकिन बाद में वे प्रेम की देवी मानी गयी। तामूज को वनस्पति का देवता माना जाता था। मारदुक पहले कृषि का देवता था लेकिन बाद में उन्हें तूफान का देवता माना जाने लगा।
2. पुरोहित (पुजारी):
बेबिलोनिया में मन्दिर तथा मूर्तियाँ थीं। लोग उनकी पूजा करते थे तथा तरह – तरह का चढ़ावा चढ़ाया करते थे। देवताओं की पूजा पुरोहित या पुजारी लोग करते थे। पुजारी लोग समाज के उच्च वर्ग में थे। ये लोग सादा जीवन न जीकर सुख-भोग का जीवन जीते थे। मन्दिरों में देवदासियों की भरमार थी। फलतः उन्हें व्यभिचारी बना दिया था।
3. जादू – टोने तथा भविष्यवाणी में विश्वास:
बेबिलोनिया के लोग भूत – प्रेत जादू – टोना आदि में विश्वास करते थे। बेबिलोनिया के लोग अन्ध – विश्वासी भी थे। वे भविष्यवाणियों में भी विश्वास करते थे। पुजारी लोग ग्रह – नक्षत्रों का अध्ययन कर भविष्यवाणियाँ करते थे। वे लोग मृत्यु के बाद जीवन में विश्वास रखते थे इसलिए वे कब्रों में शव के भोजन और दैनिक जीवन की अन्य वस्तुएँ भी रखते थे। लोग मृतकों को दफनाने के अतिरिक्त अग्नि संस्कार भी करते थे।
प्रश्न 13.
बेबिलोनिया सभ्यता में कला के विकास पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
बेबिलोनिया सभ्यता में कला का विकास
1. वास्तु कला:
बेबिलोनियन समाज कला के क्षेत्र में अपनी तत्कालीन सभ्यताओं से काफी पीछे था। क्योंकि यहाँ पाषाणों का अभाव था। अतः यहाँ कच्ची ईंटों के मकान बनाये जाते थे जो पचास-साठ वर्षों में धराशायी हो जाते थे। हम्मुराबी द्वारा निर्मित भवन अब तक पूर्णतया नष्ट हो चुके हैं। राजभवनों में फिर भी पक्की ईंटों का प्रयोग किया जाता था। छतों, दरवाजों, खिड़कियों में लकड़ी का प्रयोग किया जाता था। अमीरों के घरों में सजावट के लिए रंगीन टाइल्स का प्रयोग किया जाता था।
बेबिलोनियन कला के विशिष्ट नमूने ‘जिग्गुरात’ नामक भवन थे। बेबिलोन के जिग्गुरात में कई तल्ले होते थे जो ऊपर की ओर छोटे होते जाते थे। जिग्गुरातों की कल्पना देव-स्थान के रूप में की गयी थी। जिग्गुरातों को विविध रंगों से रंगकर सुन्दर बनाया जाता था। जिग्गुरातों की कल्पना सुमेरियन वासियों की देन है। जिग्गुरात कई मंजिल के होते थे।
2. मूर्तिकला:
बेबिलोनियंन कलाकार मानव सौन्दर्य को मूर्त रूप देने के लिए विशेष सफलता प्राप्त नहीं कर सके। उनकी मूर्तियों में सौन्दर्य तथा अभिव्यक्ति का अभाव था। उनकी मूर्तियाँ कलात्मकता के स्थान पर विशालता के लिए अधिक प्रसिद्ध हैं। उनकी मूर्तियाँ पशु और मनुष्य की मिश्रित आकृति की होती थीं, धातु की मूर्तियों के कुछ नमूने अवश्य आकर्षक लगते हैं।
3. चित्रकला:
बेबिलोनिया के कलाकार अपनी चित्रकला को विकास पूर्ण रूप से नहीं कर सके थे। राजभवनों तथा मन्दिरों में ही चित्र अंकित किए जाते थे। चित्रों के मुख्य विषय जंगली पशु – पक्षी थे। संगीत एवं नृत्य बेबिलोनियन संगीत प्रेमी थे। बड़े भोजों में संगीत गोष्ठियों का आयोजन होता था। मन्दिरों में देवदासियाँ नृत्य तथा गायन किया करती थीं। कई प्रकार के वाद्य – यन्त्रों का भी प्रयोग किया जाता था।
प्रश्न 14.
बेबिलोनियन सभ्यता की लिपि एवं साहित्य पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
1. बेबिलोनियन लिपि:
बेबिलोनिया के लोगों ने सुमेरियन कीलाक्षर लिपि को ही अपनाया था। इस लिपि में वस्तुओं का ज्ञान करने के लिए चित्र लेखों, चिन्हों, संकेतों और चित्रों का प्रयोग किया जाता था। जब यह बात निश्चित हो गयी कि अमुक चिन्ह या चित्र से अमुक वस्तु का बोध होता है तो वस्तुओं के बारे में पहचानना सरल हो गया। मगर जब विचारों को व्यक्त करने की बात आती थी तो चित्र – लिपि से काम नहीं चलता था।
उनकी लिपि में लगभग तीन सौ शब्द खण्ड के रूप में संकेत – चिन्ह थे जिन्हें याद करना कठिन था। सुन्दर लेखन कला को बहुत सम्मान दिया जाता था। वे लोग मिट्टी की तख्तियों पर लिखते थे। यहाँ के लोग सेमेटिक भाषा बोलते थे। शिक्षा का कार्य धर्माधिकारी करते थे।
2. बेबिलोनियन साहित्य:
साहित्य के क्षेत्र में बेबिलोनिया की देन महत्वपूर्ण मानी जाती है। उन्होंने विश्व की प्रथम श्रेणी के महाकाव्य की रचना की। इसका नाम है ‘गिलगमेश’। इसकी कथावस्तु बहुत रोचक है। गिलगमेश एरेक राज्य के प्रथम राजवंश का पाँचवा शासक था। बेबिलोनियन लोगों ने उसके साहसपूर्ण कार्यों की गाथाओं को एक सूत्र में पिरोकर एक नया रूप दिया।
यह महाकाव्य बारह अध्यायों में विभाजित है, जो बारह महीनों के प्रतीक हैं। सम्पूर्ण महाकाव्य में मानव जीवन के संघर्षों का सजीव वर्णन किया गया है। महाकाव्य के अतिरिक्त धार्मिक तथा नीति साहित्य की रचना भी हुई। धार्मिक साहित्य के मुख्य विषय थेदेवी – देवताओं की प्रार्थना तथा स्तुति का वर्णन।
प्रश्न 15.
बेबिलोनियन सभ्यता में ज्ञान-विज्ञान की प्रगति पर टिप्पणी कीजिए।
उत्तर:
1.बेबिलोनियन ज्ञान – विज्ञान:
बेबिलोनिया वासियों ने ज्ञान – विज्ञान के क्षेत्र में भी उन्नति की। इनका वर्णन निम्नलिखित है-
2. गणित:
व्यापारी होने के कारण बेबिलोनियन लोग कला से भी अधिक व्यावहारिक ज्ञान में रुचि रखते थे। उनकी गणना दशमलव तथा षट्दाशमिक प्रणाली पर आधारित थी। उनके अंकों में केवल तीन अंक चिन्ह प्रयुक्त होते थे। एक चिन्ह एक के लिए था जिससे एक से नौ तक की संख्या लिखी जाती थी। जैसे–चार लिखने के लिए एक को चार बार लिखी जाता था। दूसरा चिन्ह दस के लिए था जिससे 10, 20, 30 लिखा जाता था। तीसरा चिन्ह 60 के लिए था जिसमें 60, 120, 180, 240 लिखा जाता था।
3. ज्योतिष:
बेबिलोनिया के लोगों की सर्वाधिक रुचि ज्योतिष में थी। वे बृहस्पति को मर्दुक, बुध को नेबू, मंगल को नेगल, सोम को सिन, सूर्य को शमस शनि को निनिष तथा शुक्र को ईश्वर मानते थे। परन्तु ग्रहों अथवा देवताओं की गतिविधि का रहस्य जानना आसान नहीं था। यह विद्या केवल पुजारियों के पास थीं। वे इससे अच्छी कमाई करते थे।
4. खगोल विद्या:
खगोल के क्षेत्र में बेबिलोन के लोगों ने आश्चर्यजनक प्रगति की थी। वे दिन तथा रात की अवधि का हिसाब लगा सकते थे। वे सूर्योदय एवं सूर्यास्त का ठीक – ठीक समय बता सकते थे। उन्होंने वर्ष को बारह महीनों में विभाजित किया था। उनके छ: महीने 30 – 30 दिन के तथा शेष छ: महीने 29 – 29 दिन के होते थे। इस प्रकार उनका वर्ष 354 दिन का होता था।
चौथे – पाँचवें वर्ष सूर्य तथा चन्द्र का मेल बैठाने के लिए एक अतिरिक्त माह जोड़ दिया जाता था। घड़ी का चक्र बारह घण्टों का होता था। घण्टे का साठ मिनटों में तथा मिनट का साठ सेकण्डों में विभाजन था जो आजकल समस्त विश्व में प्रचलित है, निश्चित रूप से यह बेबिलोन की देन है।
5. मानचित्र कला:
बेबिलोनिया के लोगों ने पहली बार प्रान्तों तथा नगरों के मानचित्र बनाये, बेबिलोन से प्राप्त 1600 ई. पू. के एक अभिलेख में एक वर्ग इंच में शात-अजल्ला प्रान्त का मानचित्र मिला है।
6. चिकित्सा शास्त्र:
हम्मूराबी के समय तक चिकित्सक एक विशिष्ट वर्ग के रूप में अस्तित्व में आ गए थे। सर्जरी भी अस्तित्व में आ चुकी थी। लेकिन लोगों के अन्ध – विश्वासी होने के कारण लोगों का ओझा तथा भूत-प्रेतों में अधिक विश्वास था।
प्रश्न 16.
प्राचीन चीन के राजनीतिक इतिहास का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
प्राचीन चीन का राजनीतिक इतिहास प्राचीन चीन के राजनीतिक इतिहास को हम निम्नलिखित चार वंशों में विभक्त कर समझ सकते हैं-
(क) शांग वंश:
यह सबसे पुराना चीनी वंश है जिसने चीन पर 1766 ई. पू. से 1122 ई. पू. तक शासन किया पुरातात्विक प्रमाणों से यह बात स्पष्ट होती है कि शांग वंश के सदस्यों ने उच्च संस्कृति का विकास कर लिया था। ऐसा आभास होता है कि शांग वंश के लोग विकास की दृष्टि से पड़ोसियों से पिछड़े हुए थे। शांग वंश के राजाओं का प्रमुख कार्य पड़ोसी वंशों से अपने प्रजा की रक्षा करना था। इस वंश के अट्ठाइस शासक हुए। कालान्तर में पड़ोसी चारू वंश ने शांग वंश को हरा दिया।
(ख) चाऊ वंश:
इस वंश के शासकों ने चीन पर 1122 से 225 ई. पू. तक शासन किया। यह काल चीन के इतिहास का स्वर्ण युग कहलाता है। इस वंश के शासन काल में ही चीन में लाओत्से एवं कन्फ्यूशियस जैसे विचारक हुए। इस वंश के काल में ऐसे अनेक कार्य अस्तित्व में आए, जिनके कारण यह वंश इतिहास में अमर हो गया; जैसेभूमि सुधार, बैंकिंग पद्धति का विकास, सिक्कों का प्रचलन, कागज-छपाई, बारूद का आविष्कार और ज्ञान-विज्ञान में वृद्धि आदि।
(ग) चिन वंश:
चीन की प्रगति एवं समृद्धि इस वंश के राज्य काल में ही प्रारम्भ हुई। इस वंश के शासन काल में हर दिशा में सड़कों का निर्माण कराया गया ताकि सेना को आवश्यकता पड़ने पर शीघ्रतापूर्वक कहीं भी भेजा जा सके। इस वंश के शासकों द्वारा हूण आक्रमणकारियों को रोकने के लिए विशाल चीन की दीवार का निर्माण करवाया गया। यह दीवार अपनी विशालता एवं कलात्मकता के कारण विश्व के सात आश्चर्यों में से एक आश्चर्य मानी जाती है। इस वंश का शासक हुआंग टी एक कुशल प्रशासक एवं महान विजेता था।
(घ) हान वंश:
चीन में हान वंश के शासकों ने शासन व्यवस्था को सृदृढ़ बनाने के साथ-साथ सामन्त प्रथा का अन्त भी किया। विश्व में पहली बार प्रशासनिक सेवाओं में नियुक्ति के लिए प्रतियोगी परीक्षाओं का आयोजन इसी वंश के शासकों की देन है। चीन एवं यूरोप के बीच व्यापारिक सम्बन्धों को बढ़ावा देने के लिए व्यापारिक मार्ग-‘रेशम मार्ग’ इसी वंश के शासकों के समय में निर्मित हुआ।
प्राचीन चीन का समृद्ध राजनीतिक इतिहास इन्हीं चार राजवंशों के इर्द – गिर्द घूमता है। हान वंश के अन्त के पश्चात चीन में अराजकता की स्थिति उत्पन्न हो गई। यद्यपि 618 ई. में काओत्से ने तांग वंश की स्थापना की एवं 690 ई. में शुंग वंश के चाओ कुआंग चिंग ने नए राजवंश की नीव डाली।
प्रश्न 17.
प्राचीन चीन की सभ्यता की प्रमुख विशेषताओं / लक्षणों का वर्णन कीजिए?
उत्तर:
प्राचीन चीन की सभ्यता की प्रमुख विशेषताएँ / लक्षण: प्राचीन चीन की सभ्यता की प्रमुख विशेषताएँ / लक्षण निम्नलिखित हैं-
(1) शासन व्यवस्था:
प्राचीन चीन में राजत्व में देवत्व की भावना प्रचलित थी। यहाँ राजा को ईश्वर का पुत्र एवं प्रतिनिधि समझा जाता था। राजा की सहायता एवं सलाह के लिए एक प्रधानमंत्री एवं चार मंत्रियों की एक महापरिषद् होती थी, जिसका अध्यक्ष राजकुमार होता था। चीनी साम्राज्य अनेक भागों में विभाजित था। चीन में प्रशासनिक अधिकारियों के चयन के लिए एक लोकसेवा आयोग होता था। जो प्रतियोगी परीक्षाएँ आयोजित कर उपयुक्त उम्मीदवारों का चयन करता था।
(2) सामाजिक जीवन:
चीन का प्राचीन समाज मन्दारिन, कृषक, कारीगर, व्यापारी, बुद्धिजीवी, दास एवं सैनिक वर्ग में विभाजित था। चीन में व्यक्ति शिक्षा के द्वारा ही उच्च स्थिति को प्राप्त कर सकता था। चीनी सभ्यता में संयुक्त परिवार की प्रथा प्रचलित थी।
(3) आर्थिक जीवन:
चीनी लोगों का मुख्य व्यवसाय कृषि था। प्रमुख फसलों में बाजरा, गेहूँ, चावल, सोयाबीन, चाय, साग-सब्जियाँ एवं फल सम्मिलित थे। नहरों द्वारा सिंचाई होती थी। भेड़, सूअर, गाय, कुत्ते आदि पालतू पशु थे। यहाँ के लोग कागज बनाते थे। यहाँ के लोग सोना, चाँदी, हाथी-दाँत, अफीम, सूत आदि का आयात करते थे तथा लोहे की वस्तुएँ, रेशम, मिट्टी के बर्तन एवं अन्य दस्तकारी, की वस्तुओं का निर्यात करते थे।
(4) धार्मिक जीवन:
प्राचीन चीन के लोग प्रकृति के उपासक थे। वे सूर्य, आकाश, पृथ्वी एवं वर्षा की पूजा करते थे। चीन में राजा को ईश्वर का पुत्र माना जाता था। वे जादू-टोना, बलि आदि में भी विश्वास करते थे। कालान्तर में चीनवासियों की धार्मिक विचारधारा कन्फ्यूशियस के सुधारवादी एकेश्वरवाद एवं लाओत्से के ‘ताओवाद’ एवं बुद्ध धर्म से प्रभावित हुई।
(5) भाषा एवं साहित्य:
प्राचीन चीन के शासकों ने लिपि का मानवीकरण कर 3300 चिह्न स्वीकार किए। चीनी लिपि पूरे देश में एक थी लेकिन बोलियों में बहुत अन्तर था। चीनी लिपि ने सम्पूर्ण देश में एकता स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया। चीनी लिपि व भाषा के विकास एवं कागज के आविष्कार के पश्चात चीन में उच्च कोटि के साहित्य की रचना हुई।
(6) ज्ञान – विज्ञान:
प्राचीन चीन में ज्ञान – विज्ञान के क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रगति हुई। कागज, छापाखाना, स्याही, बारूद, रेशम, कुतुबनुमा, जलघड़ी, पनचक्की, भूकम्पलेखी यंत्र एवं पतंग का आविष्कार सर्वप्रथम चीन में ही हुआ था। गणित के क्षेत्र में चीनी लोग दशमलव का प्रयोग जानते थे, परन्तु उन्हें शून्य का ज्ञान नहीं था। यहाँ भूकम्प विज्ञान का भी विकास हुआ।
(7) कला:
चीन की दीवार प्राचीन चीनी स्थापत्य कला का विश्व प्रसिद्ध नमूना है। प्राचीन चीन के नगरों में महल व पैगोडा (बौद्ध मन्दिर) बनाए गए। चीन में चित्रकला सुलेख का भाग समझी जाती थी। यहाँ के चित्रकार मानवाकृति के स्थान पर प्राकृतिक दृश्यों के चित्र बनाना अधिक पसन्द करते थे। यहाँ का प्रसिद्ध चित्रकार ‘कुनाईचीह’ था।
प्रश्न 18.
प्राचीन चीनी सभ्यता की शासन व्यवस्था पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
प्राचीन चीनी सभ्यता की शासन – व्यवस्था
(i) सम्राट:
चीन में ‘राजत्व में देवत्व’ की भावना प्रचलित थी। राजा ईश्वर का पुत्र व प्रतिनिधि समझा जाता था। वह धर्म, शासन, न्याय, कानून का सर्वोच्च अधिकारी था। वह सभी प्रकार के प्रशासनिक अधिकारियों की नियुक्ति करता था। हालांकि राजा सर्वोच्च था, परन्तु वह देश की परम्परा तथा प्रजा की भावनाओं के अनुरूप ही कार्य करता था। इसके अतिरिक्त ‘सेन्सर’ नामक अधिकारी होता था, जो प्रशासनिक देखभाल करने वाली परिषद् का अध्यक्ष होता था।
(ii) मंत्रिमण्ड:
सम्राट की सहायता तथा सलाह के लिए एक प्रधानमन्त्री तथा चार मन्त्रियों की एक महा – परिषद् होती थी जिसका अध्यक्ष राजकुमार होता था। इसके अतिरिक्त छः सदस्यों वाली एक अन्य समिति होती थी जो अपेक्षाकृत कम शक्तिशाली होती थी। ये सभी प्रकार के कार्य यथा-शिक्षा, लोकसेवा, धर्म, न्याय, संचार, वित्त, त्यौहार, युद्ध, रक्षा, दण्ड, सार्वजनिक निर्माण आदि अलग – अलग विभाग सम्भालते थे।
(iii) प्रान्तीय शासन:
चीन का साम्राज्ये अनेक भागों में बँटा हुआ था सभी प्रान्तों की सीमा समान नहीं थी। प्रान्त में सर्वोच्च अधिकारी राजपुत्र या शक्तिशाली सामन्त होते थे जिनकी नियुक्ति सम्राट करता था। इन अधिकारियों का मुख्य कार्य राज्य में सुरक्षा, राजस्व वसूली, न्याय, पत्र-व्यवहार का कार्य आदि थे। चीनी प्रान्तों को ‘सेंग’ कहा जाता था।
(iv) स्थानीय व्यवस्था:
‘ग्राम’ स्थानीय निकायों की सबसे छोटी इकाई थे। गाँव के परिवारों के मुखिया ग्राम के मुखिया को चुनते थे जो शासन के प्रति उत्तरदायी था। गाँवों के समूह को ‘हीन’ कहते थे। प्रत्येक ‘हीन’ के अन्तर्गत एक न्यायाधिकारी तथा एक राजस्व अधिकारी होता था। उससे बड़ी इकाई ‘फू’ थी जिसमें दो या तीन ‘हीन’ थे। दो-तीन ‘हीन’ मिलकर ‘टाउ’ तथा दो-तीन ‘टाउ’ मिलकर ‘सँग’ (प्रान्त) का निर्माण करते थे।
(v) लोक सेवा आयोग:
चीन में प्रशासनिक अधिकारियों के चयन के लिए एक लोक सेवा आयोग होता था। जो प्रतियोगी परीक्षाएँ आयोजित करवाता था। इस पद्धति का सूत्रपात ‘हान वंश’ के शासकों ने किया था। इस परीक्षा में तर्कशास्त्र, दर्शन, आचार, न्याय, स्वास्थ्य, काव्य आदि विषयों पर प्रश्न पूछे जाते थे। यह पद्धति चीन की एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि थी। योग्यता के आधार पर कोई भी व्यक्ति इस परीक्षा में उत्तीर्ण होकर राजकीय पद प्राप्त कर सकता था।
प्रश्न 19.
प्राचीन चीन की सभ्यता के सामाजिक जीवन पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
प्राचीन चीन की सभ्यता का सामाजिक जीवन
(i) सामाजिक वर्गीकरण:
प्राचीन काल में चीन का समाज अनेक वर्गों में बँटा हुआ था। जन्म पर आधारित कोई वर्ग-विभाजन नहीं था। व्यक्ति का महत्व और स्तर उसके कर्म पर आधारित था। चीन में सम्राट तथा राज्यों के स्वामियों का वर्ग सबसे उच्च समझा जाता था। शासक वर्ग के नीचे पाँच मुख्य वर्ग थे। ये बुद्धिजीवी, व्यापारी, कारीगर, किसान और दासों का वर्ग था।
चीन के तत्कालीन समाज में योद्धाओं की स्थिति नीची थी। शिल्पी तथा व्यापारियों की स्थिति मध्यम वर्ग के जैसी थी। किसानों और मजदूरों की स्थिति दयनीय थी। इन्हें बेगार भी करनी पड़ती थी। दासों का क्रय – विक्रय होता था। लेकिन उनके साथ दुर्व्यवहार नहीं होता था।
चीन में विद्वानों का एक अलग वर्ग था जिसे ‘मन्दारिन’ कहा जाता था। इस वर्ग के लोगों का काफी सम्मान था। इस वर्ग में नियुक्ति के लिए योग्य नवयुवकों को सार्वजनिक सेवा के लिए साहित्यिक विषय पढ़कर कठिन परीक्षाएँ उत्तीर्ण करनी पड़ती थी। इस प्रकार एक विद्वान ही मन्दारिन वर्ग में प्रवेश पा सकता था।
(ii) परिवार:
चीनी समाज के परिवार में वृद्ध स्त्री तथा पुरूष का प्रमुख स्थान था। परिवार से पृथक होना असामाजिक समझा जाता था। परिवार पितृ सत्तात्मक थे परन्तु माताओं को भी उच्च दर्जा प्राप्त था।
परिवार में बड़ों का आदर आवश्यक था। परिवार में सामूहिक उत्तर दायित्व की भावना थी। चीनियों का अपने पूर्वजों और उनके समय से चले आ रहे सिद्धान्तों में अटूट विश्वास था।
(iii) स्त्रियों की स्थिति:
प्राचीन काल में चीन में स्त्रियों की स्थिति काफी सम्मानजनक थी। लेकिन बाद में स्त्रियों की स्थिति कमजोर होती गयी। पर्दा – प्रथा भी व्यापक रूप से प्रचलित थी फिर भी परिवार के भीतर उन्हें सम्मान दिया जाता था। चीनी समाज में स्त्रियाँ दो वर्गों में विभाजित थीं। एक कुलीन तथा दूसरा सामान्य वर्ग।
कुलीन वर्ग की स्त्रियों को उचित शिक्षा, संगीत, नृत्य तथा शासन में भागीदारी मिलती थी तथा सामान्य स्त्रियों को खेतों का काम करना पड़ता था। विवाह माता – पिता की इच्छा के अनुकूल होते थे। वयस्क होने के पहले ही विवाह सम्बन्ध तय हो जाते थे। दहेज भी दिया जाता था।
(iv) खान – पान, रहन – सहन:
चीन में खान – पान तथा रहन – सहने भी वर्गों के आधार पर बंटा हुआ था। सुखसुविधा सम्पन्न लोग सुख – सुविधा के साथ भव्य भवनों में निवास करते थे। अच्छा भोजन करते थे। इसके विपरीत साधारण लोग मिट्टी के घास – फूस के बने मकानों में रहते थे। उनका भोजन भी सामान्य स्तर का होता था। उनकी वेश भूषा साधारण होती थी। चीनी लोगों के जीवन में त्योहार, मेलों तथा पर्यों का विशेष महत्व था।
प्रश्न 20.
प्राचीन चीन की सभ्यता के आर्थिक जीवन का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
प्राचीन चीन की सभ्यता का आर्थिक जीवन
(i) कृषि:
चीनियों के आर्थिक जीवन का मुख्य आधार कृषि थी। चीनी लोग काफी पूजा-पाठ के बाद फसलें बोते थे क्योंकि उन्हें हमेशा अनावृष्टि व बाढ़ का डर रहता था जिससे कृषि को भारी क्षति पहुँचती थी। मुख्य फसलों में बाजरा, गेहूँ, चावल, चाय, साग – सब्जियाँ तथा फल थे। सोयाबीन की खेती भी लोकप्रिय थी। शहतूत के पत्तों पर रेशम के कीड़े पाले जाते थे। खोदने वाले खुरपे का स्थान हल ने ले लिया था और बाढ़ों को नियंत्रित करने और सिंचाई की।
व्यवस्था सुधारने के लिए प्रत्यत्न किए गये। बाढ़ के बाद आई मिट्टी को हटाना नहरे खोदना भी सरकार के ही कार्य थे। सरकार के प्रयासों, उपजाऊ भूमि तथा सिंचाई की उत्तम व्यवस्था के परिणाम स्वरूप चीनी किसान एक साल में दो-तीन फसलें पैदा कर लेते थे। चीनी लोग पशुपालन का भी कार्य करते थे। पालतू जानवरों में गाय, बैल, भैंस, बकरी, भेड़, कुत्ते, सुअर, हिरण आदि मुख्य थे।
(ii) उद्योग व व्यापार:
चीनी लोग मुख्य रूप से सूत कातना, कपड़े बुनना, मिट्टी के बर्तन एवं मूर्तियाँ बनाना, धातुओं के अस्त्र-शस्त्र, आभूषण मूर्तियाँ तथा खिलौने बनाना एवं रेशम के कपड़े के लिए प्रसिद्ध थे। सर्वप्रथम रेशम के आविष्कार का श्रेय भी चीन को ही दिया जाता है। मृद्भाण्ड बनाने का काम भी विकसित होकर चीन की एक विशिष्ट कला बन गयी। वज्रमणि को उत्कीर्ण करना भी चीनियों की विशिष्टता थी। चीनी लोग वज्रमणि को संगीत पत्थर कहते थे।
क्योंकि जब इनको ठीक प्रकार से गढ़ लिया जाता था तथा इन पर चोट लगाई जाती थी तो इसमें से संगीत जैसा मधुर स्वर निकलता था।कागज बनाना भी चीन का एक अन्य प्रसिद्ध उद्योग था। कागज का आविष्कार भी चीन ने ही किया था। वे लोग चिथड़े, वृक्ष की छाल, पटुआ तथा रेशम के छोटे – छोटे टुकड़ों से कागज बनाते थे। चीनी लोग दर्पण बनाने में भी दक्ष थे। काँसे के दर्पणों में रेखा गणितीय आकृतियाँ बनाई जाती थी जो दर्पण कला की उत्तम कृतियाँ हैं।
चीनी नगर – व्यापार के केन्द्र थे। व्यापार जल तथा थल दोनों मार्गों से होता था। चीन की दीवार को पार करके दो मुख्य सड़को का निर्माण पश्चिमी देशों से व्यापार के लिए किया गया। चीनी लोगों का पूर्वी द्वीप समृ लंका, भारत, फारस, रोम, मध्य एशिया, तथा मंगोलिया के साथ व्यापार होता था। चीनी लोग लोहे की वस्तुएँ, रेशम मिट्टी व बर्तन तथा अन्य दस्तकारी वस्तुएँ, निर्यात करते थे तथा सोना-चाँदी और हाथी-दाँत, अफीम, सूत आदि आयात करते थे। प्रारम्भ में, व्यापारिक लेन-देन वस्तु विनिमय पर आधारित था परन्तु बाद में सिक्कों का प्रयोग हो गया था।
प्रश्न 21.
प्राचीन चीनी सभ्यता में हुई कला की प्रगति पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
प्राचीन चीनी सभ्यता में कला
(i) स्थापत्य कला:
प्राचीन चीन के नगरों में महल तथा पैगोड़ा (बौद्ध मन्दिर) बनाए गए। चीन की विशाल दीवार प्राचीन चीन के निर्माण कौशल का अद्भुत नमूना है। इस दीवार की विशालता पर वाल्तेयर ने कहा था कि “इसकी विशालता के आगे मिस्र के अद्भुत पिरामिड चीटियों के घर लगते हैं।” यह दीवार इतनी चौड़ी है कि इस पर गाड़ी चलाई जा सकती है। हर दो सौ मीटर के बाद इस दीवार में योद्धाओं के लिए मीनारें बनाई गयी हैं जिससे वे पहरा दे सकें। इसके अतिरिक्त नगरों की बसावट तथा मकानों की वास्तुकला भी उल्लेखनीय है।
(ii) चित्रकला:
चीन में चित्रकला सुलेख का भाग समझी जाती थी। चीनी चित्रकार मानवाकृति के स्थान पर प्राकृतिक दृश्यों के चित्र बनाना अधिक पसन्द करते थे। उनके चित्रों में दार्शनिक भावना और निजी अनुभूति की प्रधानता होती थी। मिट्टी धातु और लकड़ी पर विविध प्रकार की नक्काशी और चित्र बनाकर उन्हें सजाने का शौक था। हान वंश में चित्रकला काफी उन्नत थी। उस काल का एक शृंगार-दान तथा ढक्कन मिला है जिस पर एक पक्षी का चित्र अंकित है। यह चित्रकला का उत्कृष्ट नमूना है। हान वंश का प्रसिद्ध चित्रकार ‘कुनाई चीह’ था।
(iii) मूर्तिकला:
चीन में मूर्तियों के माध्यम से मानव सौन्दर्य का प्रदर्शन नैतिकता के विपरीत समझा जाता था। बौद्धधर्म के प्रसार से पहले तक यहाँ केवल पशुओं की ही मूर्तियाँ मिलती हैं। बौद्धों के प्रसार के बाद बौद्ध सन्तों की मूर्तियाँ भी बनने लगी। पीकिंग के निकट एक मन्दिर में महात्मा बुद्ध की शयनावस्था की एक मूर्ति है, जिसे मूर्तिकला का एक उत्कृष्ट नमूना कहा जा सकता है।
चीनी कलाकार कांस्य की वस्तुएँ बनाने में विशेष रूप से प्रवीण थे। उस समय के कटोरे, प्याले, तश्तरियाँ विविध प्रकार के पशुओं की आकृतियाँ प्रचुर मात्रा में मिलती हैं। इन वस्तुओं पर जड़ाई तथा अलंकरण का काम भी काफी अच्छे से किया जाता था।
प्रश्न 22.
प्राचीन चीनी सभ्यता में निम्नलिखित के विकास का वर्णन कीजिए-
(क) भाषा तथा साहित्य
(ख) विज्ञान तथा तकनीक।
उत्तर:
(क) भाषा तथा साहित्य:
चीनी शासकों ने लिपि का मानकीकरण किया। उन्होंने 3300 चिन्ह स्वीकार किए तथा राजनीतिक संगठन होने के बाद देश के प्रत्येक भाग में एक लिपि प्रसिद्ध हो गयी। चीनी लिपि पूरे देश में एक थी लेकिन बोलियों में बहुत अन्तरे था। चीनी लिपि ने पूरे चीन में एकता लाने में काफी योगदान दिया। जापान, कोरिया, वियतनाम की लिपियाँ भी चीन की लिपि से प्रभावित हुई।
पहली शती ई. में कागज का आविष्कार हुआ और इससे लेखन कला में क्रान्तिकारी परिवर्तन हुआ। चीनी लिपि तथा भाषा के विकास और कागज के आविष्कार होने पर चीन में उच्चकोटि के साहित्य की रचना हुई और उसे भविष्य के लिए सुरक्षित रखना, सम्भव हो गया। प्राचीन साहित्य के अतिरिक्त चीनी दार्शनिकों ने जनसाधारण की भाषा में गद्य के रूप में अपने विचार व्यक्त किए।
यहाँ इतिहास लिखने की प्रथा का प्रचलन प्राचीन काल से ही था। कहा जाता है कि कन्फ्यूशियस ने इतिवृत्त लिखे जिसमें ‘लू’ राज्य का 722 से 481 ई. पू. तक का इतिहास है। चीन में राजवंश का इतिहास लिखने की प्रथा बहुत बलवती हो गयी। इस समय 26 राज वंशों के इतिहास उपलब्ध हैं। इस प्रकार का सबसे पहला इतिहास ‘स्सु-मा-च्येन ने लिखा था। उनको चीन के प्रथम इतिहासकार के रूप में आदर दिया जाता है।
(ख) वि ने और तकनीक:
चीन बारुद, कुतबनुमा, रेशम, कागज, छापेखाने के लिए विश्व प्रसिद्ध है। पनचक्की तथा जलघड़ी का आविष्कार भी चीनियों ने ही किया था। इंजीनियरिंग के क्षेत्र में उन्होंने नहरें बनाई जो सौ-सौ मील से भी लम्बी थी। उन्होंने तारों तथा नक्षत्रों के समूहों की सूचियाँ बनाई जिससे वे ग्रहणों की तिथियाँ निर्धारित कर सकते थे। जलघड़ी के आविष्कार से चीनियाँ ने ऋतुओं का ज्ञान प्राप्त कर बाढ़ों से निपटने का प्रयास किया।
गणित में चीनी लोग दशमलव का प्रयोग जानते थे परन्तु उन्हें शून्य को ज्ञान नहीं था। चीनियों ने भूकम्प विज्ञान का भी विकास किया। उन्होंने भूकम्प-लेखी यन्त्र का आविष्कार कर लिया था। इस यन्त्र द्वारा वे भूकम्प के प्रारम्भ स्थान का पता लगा लेते थे। पतंग का आविष्कार भी चीन की ही देन है। पतंग के अतिरिक्त छतरियों का आविष्कार भी चीन ने ही किया।
प्रश्न 23.
सिन्धु – सरस्वती सभ्यता के नगर नियोजन की प्रमुख विशेषताओं की व्याख्या कीजिए?
उत्तर:
सिन्धु – सरस्वती सभ्यता के नगर नियोजन की विशेषताएँ: सिन्धु – सरस्वती सभ्यता के नगर नियोजन की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
(1) व्यवस्थित सड़कें व गलियाँ:
सिन्धु – सरस्वती सभ्यता के नगरों की सड़कें एवं सम्पर्क मार्ग व गलियाँ सुनियोजित योजना के अनुसार निर्मित थीं। नगरों की सड़कें सीधी एवं एक – दूसरे को समकोण पर काटती हुई दिखती हैं, जिससे सम्पूर्ण नगर वर्गाकार या आयताकार खण्डों में विभक्त हो जाता है। इन सड़कों की चौड़ाई 9 से 34 फीट तक मिलती है।
सड़कों के किनारों पर स्थान – स्थान पर कूड़ा – कचरा डालने के लिए कूड़ादान रखे रहते थे। गलियाँ 1 से 2.2 मीटर तक चौड़ी थीं। ये गलियाँ सीधी होती थीं। मोहनजोदड़ों की प्रत्येक गली में एक सार्वजनिक कुआँ मिलता है। कालीबंगा में गलियों और सड़कों को एक आनुपातिक ढंग से निर्मित किया गया था।
(2) व्यवस्थित आवासीय भवन:
आधुनिक गृह – स्थापत्य कला के अनुसार सिन्धु-सरस्वती सभ्यता के वास्तुशिल्पी आवासीय नियोजन में सुव्यवस्थित गृह स्थापत्य कला का पूरा ध्यान रखते थे। आवास निश्चित योजना के अनुसार ही बनाए जाते थे। प्रत्येक मकान में एक स्नानागार, आँगन और आँगन के चारों ओर कमरे हुआ करते थे। शौचालय, रसोईघर, दरवाजे, खिड़कियाँ, पानी की निकासी हेतु नालियों आदि की भी समुचित व्यवस्था थी।
(3) नियोजित जल निकास प्रणाली:
सिन्धु – सरस्वती सभ्यता में जल निकास की व्यवस्था उत्तम थी। प्रत्येक घर में गंदे पानी के निकास के लिए नालियाँ थीं। घरों की नालियाँ सड़कों की नालियों से मिलती थीं। सड़क की नालियाँ सड़क के दोनों ओर बनाई जाती थीं। नालियाँ मिट्टी के गारे, चूने और जिप्सम आदि पदार्थों से बनाई जाती थीं। नालियों को ईंटों व पत्थरों से ढका जाता था। सफाई के समय इनको हटाकर पुनः ढक दिया जाता था। नालियों का पानी आगे एक नदी की तली में गिरता था, जो पानी को शहर से बाहर ले जाती थी।
(4) विशाल सार्वजनिक भवन:
सिन्धु – सरस्वती सभ्यता में अनेक विशाल भवन मिले हैं; जैसे- मोहनजोदडों का विशाल स्नानागार, हड़प्पा का दुर्ग, सभा – भवन, हड़प्पा का अनाज भण्डार आदि। सबसे अधिक आकर्षक मोहनजोदड़ों का विशाल स्नानागार है। यह स्नानागार 39 फीट लम्बा, 23 फीट चौड़ा एवं 8 फीट गहरा है। इस कुण्ड में जाने के लिए दक्षिण और उत्तर दिशा की ओर सीढ़ियाँ बनी हुई हैं। इस कुण्ड में जल निकास की भी व्यवस्था थी।
इस स्नानागार का उपयोग धार्मिक उत्सवों एवं समारोहों पर होता था। हड़प्पा के गढ़ी वाले क्षेत्र में एक विशाल अन्नागार के अवशेष प्राप्त हुए हैं। हड़प्पा के अतिरिक्त हमें मोहनजोदड़ो एवं राखीगढ़ी से भी अन्नागारों के अवशेष प्राप्त हुए हैं। हड़प्पा की बस्तियों में नगर की सुरक्षा हेतु दुर्ग होते थे तथा दुर्ग के अन्दर ही बड़े – बड़े सार्वजनिक भवन होते थे।
प्रश्न 24.
सिंधु – सरस्वती सभ्यता के सामाजिक जीवन पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
सिंधु – सरस्वती सभ्यता में सामाजिक जीवन
(i) सामाजिक वर्गीकरण:
समाज में कई वर्ग थे। यहाँ सोनार, कुम्भकार, बढ़ई, दस्तकार, जुलाहे, ईंटे तथा मनके बनाने वाले पेशेवर लोग थे। कुछ विद्वानों के अनुसार उस काल में पुरोहितों तथा अधिकारियों व कर्मचारियों का एक विशिष्ट वर्ग रहा होगा। सम्पन्नता की दृष्टि से गढ़ी वाले क्षेत्र के लोग सम्पन्न रहे होंगे तथा निचले नगर में सामान्य लोग रहते होंगे।
(ii) परिवार तथा स्त्रियों की स्थिति:
खुदाई में मिले भवनों से स्पष्ट होता है कि सिन्धु-सरस्वती सभ्यता काल में पृथक-पृथक परिवारों के रहने की योजना थी। अतः इस काल में एकल परिवार योजना रही होगी। इस सभ्यता में भारी संख्या में नारियों की मूर्तियाँ मिली हैं। सम्भवतः यहाँ नारियों की पूजा होती थी। क्रीट तथा अन्य भूमध्य सागरीय सभ्यताओं में मातृसत्तात्मक समाज पाया जाता था। अतः इससे यह अनुमान किया जा सकता है कि सिन्धु – सरस्वती सभ्यता में भी मातृसत्तात्मक परिवारों का प्रचलन रहा होगा। ऐसी स्थिति में स्त्रियों का समाज में महत्त्वपूर्ण स्थान रहा होगा।
(iii) खान – पान:
सिन्धु – सरस्वती सभ्यता के वासी अपने भोजन में गेहूँ, जौ, चावल, दूध, फल, माँस आदि का सेवन करते थे। फलों में वे अनार, नारियल, नीबू, खरबूजा, तरबूज आदि से परिचित थे। पशु-पक्षियों की कटी-फटी हड्डियों के मिलने से उनके माँसाहार का पता चलता है। भेड़, बकरी, सुअर, मुर्गा, बतख, कछुआ आदि का माँस खाया जाता था। अनाज तथा मसाले पीसने के लिए सिल-बट्टे का प्रयोग किया जाता था।
(iii) रहन – सहन:
स्त्रियाँ की मृणमूर्तियों से उनकी वेशभूषा की जानकारी मिलती है। इन मूर्तियों में उनके शरीर का ऊपरी भाग वस्त्रहीन है तथा कमर के नीचे घाघरे जैसा एक वस्त्र पहना हुआ है। कुछ मूर्तियों में स्त्रियों को सिर से ऊपर एक विशेष प्रकार के पंखे की आकृति का परिधान पहने हुए दिखाया गया है। पुरुषों की अधिकांश आकृतियाँ बिना वस्त्रों के हैं। हालांकि पुरूष कमर पर एक वस्त्र बाँधते थे। कुछ स्थानों पर पुरुषों को शाल ओढ़े हुए दिखाया गया है।
(iv) आमोद – प्रमोद:
पुरुषों के कुछ लोग दाढ़ी-मूंछ रखते थे तथा हजामत करते थे। स्त्रियाँ अपने केशों का विशेष ध्यान रखती थीं। बालों को संवारने के लिए कंघियों का और मुख की छवि देखने के लिए दर्पण का प्रयोग किया जाता था। खुदाई में काँसे में बने हुए दर्पण एवं हाथीदाँत की कंघियाँ मिली हैं। स्त्री, पुरुष दोनों ही आभूषण पहनते थे। मुख्यरूप से मस्तका भूषण, कण्ठहार, कुण्डल, अंगूठियाँ, चूड़ियाँ कटिबन्ध, पाजेब आदि पहने जाते थे।
सिन्धु – सरस्वती सभ्यता के क्षेत्र की खुदाई में मिट्टी के कई खिलौने मिले हैं। नर्तकी की प्राप्त मूर्ति से नृत्य, संगीत का पता लगता है कुछ मुहरों पर सारंगी और वीणा का भी अंकन है।
प्रश्न 25.
सिंधु – सरस्वती सभ्यता में कृषि तथा पशुपालन के विषय में आप क्या जानते हैं?
उत्तर:
(i) कृषि:
सिन्धु – सरस्वती सभ्यता के पर्याप्त जनसंख्या वाले महानगरों का उदय अत्यन्त उपजाऊ प्रदेश की। पृष्ठभूमि में ही सम्भव था। अधिकांश नगर सुनिश्चित सिंचाई की सुविधा से युक्त उपजाऊ नदी के तटों पर स्थित थे। जलवायु की अनुकूलता, भूमि की उर्वरता एवं सिंचाई की सुविधाओं के अनुरूप विभिन्न स्थलों पर फसलें उगायी जाती थीं।
गेहूं के उत्पादन के पर्याप्त प्रमाण मिले हैं। हड़प्पा और मोहनजोदड़ो से जौ के भी प्रमाण मिले हैं। ऐसा जान पड़ता है कि गेहूँ और जो इस सभ्यता के मुख्य खाद्यान्न थे। इसके अतिरिक्त यहाँ के लोग खजूर, सरसों, तिल, मटर तथा राई. और चावल से भी परिचित थे। कपास की खेती भी होती थी और वस्त्र – निर्माण एक महत्त्वपूर्ण व्यवसाय रहा होगा।
सिन्धु – सरस्वती सभ्यता में ही कपास की खेती का विश्व को पहला उदाहरण मिला है। सिन्धु क्षेत्र में उपज होने के कारण यूनानियों ने कपास के लिए ‘सिण्डन’ शब्द का प्रयोग किया है। यहाँ की उर्वरता का मुख्य कारण सिन्धु तथा सरस्वती नदियों में आने वाली बाढ़ थी जो कि काफी जलोढ़ मिट्टी मैदानों में छोड़ देती थी। सम्भवतः खेतों को जोतने के लिए हलों का प्रयोग होता था। कालीबंगा में जुते हुए खेत का प्रमाण मिला है।
(ii) पशुपालन:
गाय, बैल, भैंस, भेड़ पाले जाने वाले प्रमुख पशु थे। बकरी तथा सुअर भी पाले जाते थे। कुत्ते, बिल्ली तथा अन्य पशु भी पाले जाते थे। हाथी और ऊँट की हड्डियाँ बहुत कम मिली है, लेकिन मुहरों पर इनका अंकन विपुल है। सिन्धु सभ्यता के निवासी घोड़े से भी परिचित थे। लोथल से घोड़े की तीन मृणमूर्तियाँ तथा एक घोड़े का जबड़ा मिला है।
प्रश्न 26.
सिंधु – सरस्वती सभ्यता में निम्नलिखित के विकास पर प्रकाश डालिए।
(क) उद्योग तथा शिल्प
(ख) व्यापार एवं वाणिज्य।
उत्तर:
(क) उद्योग तथा शिल्प:
सिन्धु सभ्यता काँस्ययुगीन सभ्यता है। ताँबे के साथ टिने को मिलाकर काँसा बनाया जाता था। ताम्र और काँस्य के सुन्दर बर्तन हड़प्पा कालीन धातु कला के श्रेष्ठ उदाहरण हैं। ताँबे से निर्मित औजारों में उस्तरे, छेनी, हथौड़ी, कुल्हाड़ीं, चाकू, तलवार आदि मिली हैं। काँस्य की वस्तुओं के उदाहरण में नर्तकी की मूर्ति मुख्य है। सिन्धु सभ्यता में सोने तथा चाँदी का भी प्रयोग होता था तथा यहाँ के लोग मिट्टी के बर्तन बनाने की कला में भी प्रवीण थे।
मनकों का निर्माण एक विकसित उद्योग था। चन्हुदड़ो तथा लोथल में मनका बनाने वालों की पूरी कर्मशाला मिली है। मेनके सोने-चाँदी, सेलखड़ी, सीप तथा मिट्टी से बनाये जाते थे। लोथल तथा बालाकोट से विकसित सीप उद्योग के प्रमाण मिले हैं। सूत की कताई और सूती वस्त्रों की बुनाई के धन्धे भी अत्यन्त विकसित रहे होंगे।
(ख) व्यापार एवं वाणिज्य:
सिन्धु – सरस्वती सभ्यता में आन्तरिक तथा विदेशी व्यापार अत्यन्त विकसित अवस्था में था। उद्योग – धन्धों के लिए कच्चा माल राजस्थान, गुजरात, सिन्ध, दक्षिण भारत, अफगानिस्तान, ईरान तथा मेसोपोटामिया से मँगाया जाता था। राजस्थान से ताँबा तथा मैसूर से सोना आता था। यहाँ के लोगों के मेसोपोटामिया से व्यापारिक सम्बन्ध होने के स्पष्ट प्रमाण मिले हैं। मेसोपोटामिया से सिन्धु-सरस्वती सभ्यता की कई दर्जन मुहरें मिली हैं।
प्रश्न 27.
सिंधु – सरस्वती सभ्यता में धार्मिक जीवन के बारे में बताइए।
उत्तर:
सिंधु – सरस्वती सभ्यता में धार्मिक जीवन के बारे में निम्नलिखित बिन्दु उल्लेखनीय हैं-
(i) मातृदेवी की उपासना:
हड़प्पा, मोहनजोदड़ो एवं चन्हुदड़ों से विपुल मात्रा में बनी हुई नारी-मूर्तियाँ मिली हैं, जिन्हें पूजा के लिए निर्मित मातृदेवी की मूर्तियाँ माना गया है। भारत में देवी – पूजा या शक्ति पूजा की प्राचीनता का प्रारम्भिक बिन्दु सिन्धु-सरस्वती सभ्यता में देखा जा सकता है। सिन्धु – सरस्वती सभ्यता से प्राप्त मुहरों के कुछ चित्रों से भी मातृदेवी की उपासना के संकेत मिले हैं। राखीगढ़ी से हमें बहुत से अग्निकुण्ड एवं अग्नि वेदिकाएँ मिली हैं। इन क्षेत्रों में धार्मिक यज्ञों या अग्नि पूजा का प्रचलन रहा होगा।
(ii) पुरुष देवता (शिव) की उपासना:
जॉन मार्शल ने मोहनजोदड़ों की एक मुहर पर अंकित देवता को ऐतिहासिक काल के पशुपति शिव का प्राक् रूप माना है। इस मुहर में देवता को त्रिमुख एवं पद्मासन मुद्रा में बैठे हुए दिखाया गया हैं। दृष्टि नासिका के अग्रभाग पर केन्द्रित लगती है। इसके चारों ओर एक हाथी, एक चीता, एक भैंसा तथा एक गैंड़ा एवं आसन के नीचे हिरण अंकित है। इस अंकन में शिव के तीन रूपं देखे जा सकते हैं। जो निम्न है-
- शिव का त्रिमुख रूप
- पशुपति रूप
- योगेश्वर रूप।
(iii) अग्नि वेदिकाएँ:
कालीबंगा, लोथल, बणावली एवं राखीगढ़ी के उत्खनन से हमें अनेक अग्निवेदिकाएँ मिली हैं। कुछ स्थलों पर उनके साथ ऐसे प्रमाण भी मिले हैं। जिनसे उनके धार्मिक प्रयोजनों के लिए प्रयुक्त होने की सम्भावना प्रतीत होती है। बणावली एवं राखीगढ़ी से वृत्ताकार अग्नि वेदिकाएं मिली है, जिन्हें अर्द्धवृत्ताकार ढाँचे के मन्दिर या घेरे में संयोजित किया गया है।
(iv) पशु पूजा, वृक्षपूजा एवं नाग पूजा:
कई मुहरों पर एक श्रृंग वृषभ (एक सींग वाले बैल) का अंकन मिलता है, जिसके सामने सम्भवतः धूपदण्ड रखा हुआ है। अनेक छोटी – छोटी मुहरों पर वृक्षों के चित्रांकन से वृक्षपूजा का आभास होता है। कई छोटी मुहरों पर एक वृक्ष के चारों ओर छोटी दीवार या वेदिका बनी मिलती है जो उनकी पवित्रता तथा पूजा – विषय होने की द्योतक हैं। कुछ मुहरों पर स्वास्तिक, चक्र एवं क्रॉस जैसे मंगल चिन्हों का भी अंकन काफी संख्या में मिला है। सिन्धु – सरस्वती सभ्यता के अवशेवों से जल की पवित्रता एवं धार्मिक स्नान की परम्परा के संकेत भी मिलते है।
(v) योग एवं साधना की परम्परा:
सिन्धु सभ्यता में योग एवं साधना की परम्परा का संकेत भी मिलता है। इसके दो साक्ष्य है-
- पशुपति मुहर में पद्मासन मुद्रा में बैठे योगेश्वर शिव का अंकन
- मोहनजोदड़ों से प्राप्त योगी की मूर्ति जिसकी दृष्टि नासाग्र पर टिकी है।
(vi) मृतक – संस्कार एवं पुनर्जन्म में विश्वास:
मार्शल के अनुसार इस सभ्यता के लोग तीन प्रकार से शवों का उत्सर्ग करते थे-
- पूर्ण समाधिकरण – इसके अन्तर्गत सम्पूर्ण शव को पृथ्वी के नीचे गोड़ दिया जाता था।
- आंशिक समाधिकरण – इसके अन्तर्गत पशु – पक्षियों के खाने के पश्चात् शव के बचे हुए भाग गाड़े जाते थे।
- दाहकर्म – इसमें शव जला दिया जाता था और कभी – कभी भस्म गाड़ दी जाती थी। शव के साथ कभी – कभी विविध आभूषण, अस्त्र – शस्त्र, पात्रादि भी रखे मिलते हैं। इससे प्रतीत होता है कि वे पुनर्जन्म में भी विश्वास रखते थे।
प्रश्न 28.
प्राचीन यूनानी सभ्यता में नगर राज्यों के उदय पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
1. प्राचीन यूनानी सभ्यता में नगर राज्यों का उदय:
प्राचीन यूनानी सभ्यता में नगर राज्यों का उदय होना तब प्रारम्भ हुआ जब 800 ई. पू. के लगभग कुछ यूनानी ग्रामों के समूहों ने मिलकर नगर राज्यों का रूप ले लिया। यूनान के नगर राज्य में सबसे ऊँचे स्थान पर एक्रोपालिस या गढ़ बनाया जाता था ताकि नगर सुरक्षित रहे। नगर राज्यों के उदय के क्रम में पूरे यूनान और समीप के स्पार्टा, एथेंस, मकदूनिया, कोरिंथ और थीब्स आदि द्वीपों में अनेक नगर स्थापित हुए।
नगर राज्यों में पहले राजा शासन करते थे। कालान्तर में जमींदारों ने राजतन्त्र को समाप्त कर दिया। यूनान की मुख्य भूमि पर दो प्रमुख नगर राज्य स्पार्टा और एथेन्स थे। जनसंख्या और व्यापार के साथ धीरे – धीरे नगरों में मध्यम वर्ग का विकास हुआ। जमींदारों की शक्ति को कम करने के लिए मध्यम एवं निर्धन वर्ग आपस में मिल गये।
जमींदारों एवं इनके बीच संघर्ष से तानाशाहों का उदय हुआ। इन्हें यूनानी लोग “टायरेंट” कहते थे। कालान्तर में तानाशाही भी समाप्त हो गई और धनिकों द्वारा संचालित अल्पतन्त्र अस्तित्व में आया। यूनान की मुख्य भूमि पर अवस्थित दो नगर राज्यों की विशेषताओं को हम निम्नलिखित तरह से समझ सकते हैं।
2. स्पार्टा का राज्य:
यह राज्य यूनान के अन्य राज्यों से भिन्न था। इसका कारण यहाँ की भौगोलिक स्थिति थी। पर्वत श्रेणियों के कारण यह राज्य अन्य राज्यों से अलग स्थित था। इस राज्य के निवासियों की रूचि सैन्यवाद तथा यद्धों में थी। यही कारण था कि यहाँ सात वर्ष की अवस्था से ही बालकों को कठिन सैन्य प्रशिक्षण दिया जाता था।
3. एथेन्स को राज्य:
यूनान की मुख्य भूमि पर स्थित एथेन्स राज्य के पास बड़े अच्छे बन्दरगाह और बहुमूल्य खनिज पदार्थ थे। एथेन्स के व्यापारियों ने व्यापार में बहुत उन्नति की। इसके परिणामस्वरूप यहाँ नागरिक सभ्यता का विकास हुआ। स्पार्टा के विपरीत यहाँ सैन्यवाद का विकास नहीं हुआ।
उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है कि प्राचीन यूनानी सभ्यता में नगर राज्यों का उदय निवासियों के सम्मुख विद्यमान समस्याओं के समाधान हेतु खोजे गए हल का परिणाम था। यही कारण था कि जहाँ स्पार्टा राज्य में सैन्यतन्त्र विकसित हुआ वहीं एथेन्स में व्यापार तन्त्र। सुरक्षा की दृष्टि से भी दोनों राज्यों की स्थिति भिन्न थी।
जहाँ स्पार्टा के निवासी अपनी बैरक से बिना हथियार के बाहर नहीं निकलते थे वहीं एथेन्स में स्वतन्त्र नागरिक निवास कर रहे थे। निष्कर्ष रूप में हम कह सकते हैं कि यूनानी सभ्यता के नगर राज्य आधुनिक मानव सभ्यता के लिए नीव की ईंट’ थे।
प्रश्न 29.
यूनानी सभ्यता में धनिक अल्प तन्त्र की स्थापना एवं सोलन के सुधारों पर टिप्पणी कीजिए।
उत्तर:
1. धनिक अल्प तन्त्र की स्थापना:
सातवीं शती ई. पू. में राजतन्त्र के स्थान पर धनिकों के अल्पतन्त्र की स्थापना हुई जिससे भूमि किसानों के हाथों से धनिकों के हाथों में चली गयी। बहुत से किसानों ने पहले भूमि को धरोहर के रूप में रखा फिर परिवार के सदस्यों को भी धरोहर के रूप में रख दिया।
अन्ततः वे सभी दास बन गये। एथेन्स में कुलीन वर्ग और दास के अतिरिक्त कुछ स्वतन्त्र नागरिक भी थे ये डेमोस कहलाते थे। इसमें किसान, मजदूर, कारीगर और व्यापारी थे, ये लोग अल्पतन्त्रीय शासन से असन्तुष्ट थे। इनके संघर्ष के फलस्वरूप सोलन का आविर्भाव हुआ।
2. सोलन के सुधार:
594 ई. पू. में सोलन को एथेंस का नया मजिस्ट्रेट नियुक्त किया गया सोलन ने गिरवी प्रथा को समाप्त कर दिया और एथेंस के सभी नागरिकों को दसा-प्रथा से मुक्त कर दिया तथा यह नियम भी बनाया कि भविष्य में एथेन्स का कोई भी निवासी ऋण न चुका सकने के कारण दास नहीं बनाया जाएगा। उसके सुधारों से निर्धन और मध्यम दोनों वर्गों को लाभ हुआ।
न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों का चुनाव भी नागरिकों के हाथों में आ गया। 469 से 429 ई. पू. में पेरिक्लीज के नेतृत्व में एथेन्स का लोकतन्त्र उन्नति की चरम सीमा पर पहुँच गया। यहाँ आधुनिक मन्त्रिमण्डल के समान शासन चलता था। एथेन्स के लोकतन्त्र में नागरिकों को राजनीतिक अधिकार और स्वतन्त्रता प्राप्त थी। पेरिक्लीज के समय में कुल जनसंख्या का थोड़ा सा भाग ही नागरिक वर्ग के अन्तर्गत आता था।
प्रश्न 30.
मैराथन एवं पेलोपोनीशियन युद्ध पर संक्षिप्त टिप्पणी कीजिए।
उत्तर:
(i) मैराथन का युद्ध:
पाचवीं शती ई. पू. में एथेन्स के लोकतन्त्र को दो युद्धों में फंसना पड़ा जिसके कारण उसकी महानता समाप्त हो गयी। एथेंस को पहला युद्ध शक्तिशाली ईरानी साम्राज्य तथा उसके सम्राट दारा के विरुद्ध लड़ना पड़ा। दारा ने पहले ही सिन्धु नदी से लेकर एशिया माइनर तक के प्रदेशों पर अधिकार कर लिया था और अब उसने इजियन सागर को पार करके विजय हेतु यूनान पर आक्रमण किया।
उसकी बड़ी सेना एक जहाजी बेड़े की सहायता से एथेन्स के निकट मैराथन नामक स्थान पर जा उतरी। यूनान के इतिहास में पहली बार सारे राज्यों ने मिलकर एक शत्रु के विरुद्ध युद्ध किया। यूनानी सेनाएँ संख्या में बहुत कम थी फिर भी 490 ई. पू. में मैराथन के युद्ध में वे इतनी वीरता से लड़े कि ईरानी सेनाओं को पीछे खदेड़ दिया।
(ii) पेलोपोनीशियन युद्ध:
एथेन्स और स्पार्टा के बीच 431 ई. पू. से 404 ई. पू. तक पेलोपोनीशियन युद्ध हुआ। इस युद्ध के कारण एथेन्स का पतन हो गया। ईरानी युद्धों के समय एथेन्स ने अन्य यूनानी राज्यों से मिलकर एक संघ बनाया था। उस युद्ध के बाद एथेंस ने अपनी स्वार्थपूर्ति के लिए इस संघ की सहायता से अपनी नौसेना की शक्ति बहुत बढ़ा ली थी।
इससे स्पार्टा के निवासी भयभीत हो गये। सदा से ही स्पार्टा तथा एथेन्स के बीच गर्मा-गर्मी चलती थी। इस युद्ध में कुछ राज्यों ने एथेन्स तथा कुछ ने स्पार्टा का साथ दिया। इस युद्ध में एथेन्स की पराजय हुई। इसी के साथ इस राज्य में लोकतन्त्र की समाप्ति हो गई।
प्रश्न 31.
रोम की सभ्यता की प्रमुख विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
रोम की सभ्यता की प्रमुख विशेषताएँ: रोम की सभ्यता की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
(1) सामाजिक जीवन:
रोम की सभ्यता में रोमन समाज दो वर्गों में विभाजित था-
- पैट्रिशियन
- प्लीबियन।
उच्च वर्ग को पैट्रिशियन कहा जाता था। इस वर्ग में धनी लोग एवं जमींदार सम्मिलित थे। इस वर्ग के हाथ में रोम सीनेट की पूरी शक्तियाँ सन्निहित थीं। प्लीबियन वर्ग में श्रमिक, छोटे किसान, कारीगर, छोटे व्यापारी एवं योद्धा सम्मिलित थे। एक अन्य वर्ग दासों का था जो समस्त काम करते थे। दासों का जीवन अत्यन्त दयनीय था। रोम में स्त्रियों का सम्मान होता था।
(2) कानूनों की संहिता:
रोम की सभ्यता में 459 ई. में कानूनों की एक संहिता का निर्माण किया गया। इन कानूनों को लकड़ी की तख्तियों पर लिखा गया था। ये बारह तख्तियों के कानून कहलाते थे। इनसे अधिकांश रोम वासियों को अपने कानूनी अधिकारों की जानकारी हो गई तथा राजकीय कर्मचारियों के लिए कानूनों का उल्लंघन करना कठिन हो गया। कालान्तर में रोम के कानून का विकास तीन शाखाओं में हुआ-
- दीवानी कानून
- जनसाधारण का कानून
- प्राकृतिक कानून।
(3) आर्थिक जीवन:
रोम की सभ्यता में लोग कृषि करते थे। कृषि में विभिन्न प्रकार की फसलों को बोते थे। नहरों से सिंचाई करते थे। कृषि के अतिरिक्त यहाँ पशुपालन का भी प्रचलन था। गाय व बैल मुख्य रूप से पाले जाते थे। यहाँ के लोग अपने कपड़े सन और ऊन से बनाते थे और मिट्टी व लकड़ी के बर्तन प्रयोग करते थे।
(4) धार्मिक जीवन:
रोम में प्रत्येक परिवार चूल्हे की देवी वेस्ता की पूजा करता था क्योंकि उन लोगों का विश्वास था कि वह घर की रक्षा करती हैं। यूनान के निवासियों के समान रोम के निवासी भी देवी-देवताओं की पूजा करते थे। उनके अनुसार जुपिटर उनकी फसलों के लिए वर्षा करता था, माई युद्ध में उनकी सहायता करता था, जूनो उनकी स्त्रियों की रक्षा करता था एवं मर्करी उनके संदेश ले जाता था।
(5) भाषा, दर्शन एवं साहित्य:
रोमन सभ्यता के लोगों ने अपनी वर्णमाला का विकास किया तथा लैटिन भाषा को अपनाया। लैटिन भाषा पश्चिमी यूरोप के समस्त शिक्षित व्यक्तियों की भाषा बन गई। रोम निवासियों ने यूनानी दर्शन को ग्रहण किया। रोम की सभ्यता में साहित्य का भी विकास हुआ। यहाँ कविता के क्षेत्र में बहुत उन्नति हुई। होरेश की कविता में एपिक्यूरियन व स्टोइक विचारधारा का सम्मिलित दार्शनिक रूप मिलता है। वर्जील नामक कवि ने ईनीड नामक रचना लिखी।
(6) कला:
रोम की सभ्यता में कला के क्षेत्र में पर्याप्त उन्नति हुई। रोम के निवासी कुशल निर्माता थे। उन्होंने वास्तु कला में डाट व गुम्बद बनाकर दो महत्वपूर्ण सुधार किए। डाट नगर के द्वारों, पुलों, बड़े भवनों व विजय स्मारकों को बनाने के काम में आती थी। गुम्बद औंधे कटोरे के समान भवन की छत होती थी। यहाँ की सभ्यता में मूर्तिकला का भी पर्याप्त विकास हुआ। रोम के निवासियों ने भित्ति चित्रों को बनाने की कला का भी विकास किया।
(7) ज्ञान – विज्ञान:
लोक सेवाओं में रोम की सभ्यता में ही सर्वप्रथम निर्धन रोगियों को मुफ्त औषधि देने का प्रबन्ध हुआ। इन्होंने पंचांग का निर्माण किया, जो आज भी अल्प परिवर्तन के साथ समस्त देशों में चल रहा है।
प्रश्न 32.
रोमन सभ्यता की भाषा, दर्शन एवं साहित्य पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
रोमन सभ्यता में भाषा, दर्शन एवं साहित्य में हुई प्रगति का विवरण अग्र प्रकार है-
(i) भाषा:
रोम के निवासियों ने यूनानियों से जो वर्णमाला सीखी थी उसके आधार पर उन्होंने अपनी वर्णमाला का विकास किया और लैटिन भाषा पश्चिमी यूरोप के सभी शिक्षित व्यक्तियों की भाषा बन गयी। विज्ञान में अब भी लैटिन . भाषा के बहुत से शब्द प्रयोग में लाए जाते हैं। कई यूरोपीय भाषाएँ-फ्राँसीसी, स्पैनिश, इतालवी का आधार लैटिन ही
(ii) दर्शन:
रोम निवासियों ने यूनानी दर्शन को भी ग्रहण किया। एपीक्यूरियन और स्टोइक दर्शन रोम में बहुत लोकप्रिय थे। ‘ल्यूक्रीटियस’ जिसने ‘ऑन दि नेचर ऑफ थिंग्स’ (वस्तुओं के स्वरूप पर) नाम की कविता लिखी। वह आत्मा के अस्तित्व में विश्वास नहीं रखता था, किन्तु शान्ति और पवित्र हृदय का समर्थक था, भोग – विलास का नहीं। सिसरो एक प्रसिद्ध वक्ता था। वह स्टोइक दर्शन के अनुयायियों की भाँति चित्त की शान्ति को सर्वश्रेष्ठ भलाई समझता था।
उसकी सबसे बड़ी देन राजनीतिक तथा प्राकृतिक नियम की उसकी संकल्पना थी। सिसरो के अनुसार प्राकृतिक नियम वह कानून था जिसको तर्क द्वारा ज्ञात किया जा सके और जिसके द्वारा सभी मनुष्यों के प्राकृतिक अधिकारों की रक्षा की जा सके। सीनेट में दिए गये उसके भाषण की अच्छी शैली का आज भी अनुकरण होता है। मार्कस ऑरीलियस भी स्टोइक दर्शन को मानने वाला था उसने ‘मेडिटेशन’ नाम की पुस्तक लिखी थी।
उसने जीवन किस प्रकार बिताना चाहिए उस पर अपने विचार इस पुस्तक में व्यक्त किए। उसका मत था कि जीवन का उद्देश्य सुख नहीं अपितु चित्त की स्थिरता है। वह उन सब बातों पर आचरण करता था जिसका वह उपदेश देता था। यद्यपि उसकी शक्तियाँ अपार थी फिर भी वह कभी भोग – विलास का जीवन नहीं बिताता था। स्टोइक दर्शन को मानने वाला एक अन्य विद्वान ‘सेनेका’ था।
(iii) साहित्य:
रोम की सभ्यता में साहित्य का भी विकास हुआ और कविता के क्षेत्र में पर्याप्त उन्नति हुई। ‘होरेश’ की कविता में ‘एपीक्यूरियन’ और ‘स्टोइक’ ‘विचारधारा’ का समन्वित रूप मिलता है। वर्जिल भी एक महान् कवि था। उसकी ‘ईनीड’ नाम की रचना बहुत प्रसिद्ध है। ईनीड में ट्रॉय के इनीस नामक पौराणिक वीर नायक के देश – विदेश में घूमने और उसके साहसपूर्ण कार्यों का वर्णन है। रोम का सबसे प्रसिद्ध इतिहासकार ‘टैसिटस’ था। उसने अपनी प्रसिद्ध पुस्तकों ‘एनल्स और ‘हिस्ट्रीज’ में अपने समय की अराजकता और भ्रष्टाचार का वर्णन किया है।
प्रश्न 33.
रोमन सभ्यता की कला एवं विज्ञान की उन्नति के बारे में आप क्या जानते हैं?
उत्तर:
रोमन सभ्यता की कला के क्षेत्र में उन्नति-
(i) वास्तुकला:
रोम के निवासी कुशल निर्माता थे। उन्होंने सबसे पहले कांक्रीट का प्रयोग आरम्भ किया और वे ईटों तथा पत्थरों के टुकड़ों को मजबूती से जोड़ सकते थे। उन्होंने वास्तुकला में डाट और गुम्बद बनाकर दो महत्त्वपूर्ण सुधार किए। रोम में भवनों की दो – तीन मंजिलें होती थी और इनमें डाटें गोल होती थी।
ये डाट नगर के द्वारों, पुलों, बड़े भवनों और विजय स्मारकों के बनाने के काम में लायी जाती थी। डाटों का प्रयोग कोलोजियम बनाने में भी किया जाता था। गुम्बद, औंधे कटोरे के समान भवन की छत होती थी। इस प्रकार का गुम्बद रोम के प्रसिद्ध मन्दिर ‘पेनपियन’ में देखा जा सकता है।
(ii) अभियांत्रिकी कला:
रोम की अभियांत्रिकी (इंजीनियरिंग) कला के श्रेष्ठ उदाहरण उसकी जल – व्यवस्था, स्नानागार और सड़कें हैं। रोम तथा अन्य नगरों के निवासियों को पानी देने के लिए पानी के पाईप लगाए जाते थे। इन पाइपों में से कुछ तो सत्तर किलोमीटर तक लम्बे थे।
(iii) मूर्तिकला:
रोम निवासियों ने यूनानियों की मूर्तियों के अनुरूप अपनी मूर्तिकला का विकास किया किन्तु उनमें एक अन्तर भी था। यूनानी लोग अपने आदर्शों को व्यक्त करने के लिए मूर्तियाँ बनाते थे, किन्तु रोम के निवासी इस कला का उपयोग मनुष्य को यथावत् मूर्त करने के लिए करते थे। रोम के निवासियों ने भित्ति चित्रों को बनाने की कला का भी विकास किया जिसके द्वारा पूरी की पूरी दीवार चित्रित की जाती थी।
रोमन सभ्यता की विज्ञान के क्षेत्र में उन्नति:
लोक सेवाओं में रोम ने पहल की। उन्होंने ही सबसे पहले निर्धन रोगियों को मुफ्त औषधि देने का प्रबन्ध किया। रोम वासियों की दूसरी देन थी, उनका पंचांग (कैलेण्डर) जो थोड़े परिवर्तित रूप में आज समस्त देशों में चलाया जाता है। किन्तु पंचांग में उनकी मौलिक देन कुछ नहीं थी क्योंकि आधार भूत सिद्धान्तों का प्रतिपादन भारत, चीन और मिस्र पहले ही कर चुके थे।
प्रश्न 34.
रोमनिवासियों की विश्व को कानून और सरकार के क्षेत्र में क्या देन हैं? बताइये।
उत्तर:
कानून और सरकार के क्षेत्र में रोमनिवासियों की विश्व को देन – संसार को रोम की सबसे बड़ी देन कानून और सरकार है। रोम में इसका प्रारम्भ तख्तियों के कानूनों से हुआ। कालान्तर में रोम के कानून का विकास तीन शाखाओं में हुआ।
- दीवानी कानून – इसका प्रयोग रोम के नागरिकों के मुकदमों में किया जाता था।
- जनसाधारण का कानून – इसका प्रयोग साम्राज्य की समस्त जनता के साथ किया जाता था।
- प्राकृतिक कानून – इसका सम्बन्ध अधिकतर न्याय तथा कानून के दर्शन से था।
अनेक देश अपने – अपने देशों की कानून-प्रणाली का विकास करने के लिए रोम के विचारों के ऋणी हैं।
रोम के शासक अधिकतर अपने कानून और शासन – प्रणाली के कारण ही अपने इतने बड़े विस्तृत साम्राज्य में केन्द्र शासित सुव्यवस्था स्थापित कर सके जबकि यूनानी ऐसा करने में समर्थ नहीं हो सके। इन कानूनों के कारण ही यात्रा और व्यापार को प्रोत्साहन मिला। भारत और चीन तक व्यापारिक वस्तुओं का विनिमय होने लगा। दक्षिण भारत में मद्रास के निकट एरिकमेडु नामक स्थान रोम के व्यापार की चौकी थी।
साम्राज्य के सभी भागों को जोड़ने वाली रोम की सड़कों की व्यवस्था इतनी अच्छी थी कि यह अंग्रेजी कहावत चल पड़ी कि सभी सड़कें रोम को जाती हैं।’ रोम के निवासियों ने ही गणतन्त्र की भावना का विकास किया था। लेकिन यहाँ के शासक विजित जनता को दास बना लेते थे जिससे वहाँ वास्तविक लोकतन्त्र का विकास नहीं हो पाया।
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