Rajasthan Board RBSE Class 12 Biology Chapter 27 मानव के संवेदी अंग, ज्ञानेन्द्रियाँ
RBSE Class 12 Biology Chapter 27 पाठ्य पुस्तक के प्रश्न एवं उत्तर
RBSE Class 12 Biology Chapter 27 बहुविकल्पीय प्रश्न
प्रश्न 1.
कर्ण अस्थि मैलियस का आकार होता है-
(अ) हथौड़े के जैसा
(ब) घोड़े की नाल जैसा
(स) अण्डाकार
(द) उपर्युक्त में से कोई नहीं।
उत्तर:
(अ) हथौड़े के जैसा
प्रश्न 2.
दृष्टि शंकु का कार्य है-
(अ) स्रवण, सन्तुलन
(ब) अंधकार में दृष्टि ज्ञान
(स) एक नेत्र दृष्टि ज्ञान
(द) तेज प्रकाश में दृष्टि ज्ञान एवं रंगों का विभेदन।
उत्तर:
(द) तेज प्रकाश में दृष्टि ज्ञान एवं रंगों का विभेदन।
प्रश्न 3.
निकट दृष्ष्टि दोष में व्यक्ति-
(अ) पास की वस्तुओं को आसानी से नहीं देख पाता है।
(ब) दूर की वस्तुओं को आसानी से नहीं देख पाता है।
(स) एक नेत्री दृष्टि नहीं बना पाता है।
(द) उपर्युक्त में से कोई नहीं।
उत्तर:
(ब) दूर की वस्तुओं को आसानी से नहीं देख पाता है।
प्रश्न 4.
अन्तः कर्ण में सन्तुलन स्थापित करने वाला भाग है-
(अ) इनकस
(ब) सेकुलस
(स) सेकुलस, युट्रीकुलस, अर्धवृत्ताकार नलिकाएँ
(द) कॉटी के अंगे।
उत्तर:
(स) सेकुलस, युट्रीकुलस, अर्धवृत्ताकार नलिकाएँ
RBSE Class 12 Biology Chapter 27 अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
मध्य कर्ण में उपस्थित अस्थियों के नाम लिखिए।
उत्तर:
मध्य कर्ण मैलियस, इनकस एवं स्टेपीज अस्थियों से बना होता है।
प्रश्न 2.
टेक्टोरियल कला कहाँ पायी जाती है?
उत्तर:
टेक्टोरियल कला कॉक्लियर नलिका की पाश्र्वभित्ति से एक महीन जैली रूपी संरचना कॉर्टी के अंग पर झुकी हुई पायी जाती हैं।
प्रश्न 3.
नेत्र में पाये जाने जाने वाले शलाका एवं शंकु कोशिका तंतु के कार्य बताइये।
उत्तर:
नेत्र में पाये जाने वाली शलाकाएँ जन्तु को मंद प्रकाश में देखने में सहायता करती हैं एवं शंकु कोशिका तंतु जन्तुओं को विभिन्न रंगों को पृथक-पृथक पहचानने का कार्य करते हैं। इसी के साथ शंकु कोशिका तंतु तीव्र प्रकाश में देखने में भी सहायक होते हैं।
प्रश्न 4.
शरीर संतुलन की क्रिया कर्ण की कौन-सी रचना द्वारा सम्पन्न की जाती है?
उत्तर:
शरीर संतुलन की क्रिया आन्तरिक कर्ण में स्थित भाग अथवा अंग प्रघाण (Vestibule) रचना द्वारा सम्पन्न की जाती हैं।
RBSE Class 12 Biology Chapter 27 लघूत्तरात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
कर्ण में यूस्टेचियन नली की क्या भूमिका होती हैं?
उत्तर:
कर्ण गुहा ग्रसनी से एक संकरी नली जिसे फेरिंगों टिम्पेनिक नली या यूस्टेचियन नलिकां कहते हैं, से जुड़ी रहती है। यह कर्ण में कर्ण पटल झिल्ली के दोनों ओर समान दाब बनाए रखने की भूमिका निभाती है।
प्रश्न 2.
रेटिना के क्रमशः उन स्थलों के नाम बताइये जहाँ सबसे अच्छा दिखाई देता है और जहाँ कुछ भी दिखाई नहीं देता है?
उत्तर:
रेटिना का पीत बिन्दु (Yellow spot) वह स्थल है, जहाँ सामान्य आँख से सबसे अच्छा दिखाई देता है। रेटिना में पीत बिन्दु के ठीक नीचे अंध बिन्दु (Blind spot) होता है। यह वह स्थल है, जहाँ कुछ भी दिखाई नहीं देता है।
प्रश्न 3.
हमारे नेत्रों में पायी जाने वाली पेशियों के नाम बताइये।
उत्तर:
हमारे नेत्रों में छः प्रकार की कंकाल पेशियाँ होती हैं। जिनके नाम इस प्रकार से हैं-
- बाह्य ऋजु पेशियाँ (External rectus muscles)
- अन्तः ऋजु पेशियाँ (Internal rectus muscles)
- उत्तर ऋजु पेशियाँ (Superior rectus muscles)
- अधो ऋजु पेशियाँ (Inferior rectus muscles)
- उत्तर तिरछी पेशियाँ (Superior oblique muscles)
- अधो तिरछी पेशियाँ (Inferior oblique muscles)
प्रश्न 4.
मायोपिया (निकट दृष्टि दोष) क्या होता हैं?
उत्तर:
निकट दृष्टि दोष या मायोपिया यह नेत्रों का वह रोग है। जिसमें व्यक्ति कम दूरी की वस्तुओं को तो साफ-साफ देख लेता है, मगर दूर की वस्तुयों को ठीक से नहीं देख पाता है। ऐसा दूर की वस्तुओं के प्रतिबिम्ब का दृष्टिपटल (Retina) के आगे बनने के कारण होता है।
प्रश्न 5.
वर्णान्धता (Colour Blindness) क्या होती है?
उत्तर:
वर्णान्धता—यह एक प्रकार का आनुवांशिक रोग होता है। यह रोग आँखों में शंकु कोशिकाओं की कमी से होता है। इस रोग में रोगी व्यक्ति लाल व हरे रंग में अन्तर नहीं कर पाता है।
RBSE Class 12 Biology Chapter 27 लघूत्तरात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
आँखों के विभिन्न रोगों के बारे में विस्तार से बताइये।
उत्तर:
मानव में नेत्र एक अभिन्न अंग है, जिसका उसके जीवन पर विशेष प्रभाव पड़ता है परन्तु आँख में विभिन्न प्रकार के रोग भी हो जाते हैं, जिसका वर्णन इस प्रकार से है-
1. निकट दृष्टि दोष (Myopia) यह एक ऐसी बीमारी होती है। जिसमें व्यक्ति कम दूरी की वस्तुओं को तो साफ-साफ देख लेता है, परन्तु दूर की वस्तुओं को ठीक प्रकार से नहीं देख पाता है। दूर की वस्तुओं का प्रतिबिम्ब दृष्टिपटल (Retina) के आगे बनता है। इस रोग को उपयुक्त क्षमता के अवतल लैंस द्वारा ठीक किया जा सकता है।
2. दूर दृष्टि दोष (Hypermetropia)—इसमें रोगी को दूर की वस्तुएँ तो साफ-साफ दिखाई पड़ती हैं, परन्तु वह नजदीक की वस्तुओं को नहीं देख सकता है। ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि इसमें निकट की वस्तुओं का प्रतिबिम्ब दृष्टिपटल के पीछे की ओर बनता है। इसके सुधार के लिए। उपयुक्त क्षमता के उत्तल लैंस को इस्तेमाल किया जाता है।
3. मोतियाबिंद (Cataract)—इस रोग का कारण आयु बढ़ने के साथ-साथ नेत्र का लैंस सफेद अपारदर्शी से जाना है। इस प्रकार के लेंस को शल्य-क्रिया द्वारा निकाल दिया जाता है। इसके स्थान पर अंतः नेत्री लैंस या चश्मा का उपयोग किया जाता है।
4. दृष्टिवैश्क्य (Astigmatism)—इस रोग में कार्निया की आकृति असामान्य हो जाती है। इसके उपचार में बेलनाकार लैंस का प्रयोग किया जाता है।
5. कंजंक्टीवाइटिस (Conjunctivitis)–जब व्यक्ति की आँख की कंजंक्टीवा में सूजन आ जाती है, तो उसकी आँख आने लगती है, जिसे ‘आँख का आना’ रोग भी कहा जाता है। यह सूक्ष्मजीवों (Bacteria) के संक्रमण के द्वारा होता है।
6. वर्णान्धता (Colourblindness)—यह आनुवंशिक रोग होता है, जो कि नेत्र में शंकु कोशिकाओं की कमी के द्वारा उत्पन्न होता है। ऐसे व्यक्ति लाल व हरे रंग में भी अन्तर नहीं कर पाते हैं।
प्रश्न 2.
श्रवण की क्रिया का विस्तृत वर्णन कीजिए।
उत्तर:
कर्ण (कान) मुख्यत: दो प्रकार के संवेदी कार्य करता है- पहला सुनने अर्थात् श्रवण का व दूसरा शरीर का संतुलन बनाये रखने का श्रवण की क्रिया में कर्ण पल्लव ही एक ऐसी रचना है जो स्तन्धारियों में पायी जाती है। यह फाइब्रोइलास्टिक उपास्थि से बने होते हैं। कर्ण पल्लव ध्वनि तरंगों को एकत्रित करता है जहाँ से यह कर्ण कुहर में प्रवेश करती है और कर्ण पटल झिल्ली में कम्पन्न उत्पन्न करती है। इसी के साथ ही ये कम्पन्न यहाँ से मेलियस, इन्कस, स्टेपीज तथा फेनेक्ट्रा ओवेसिस द्वारा अंतः कर्ण में पहुँचते हैं। से वे कम्पन होते हैं जो कर्णावर्त (कॉक्लिया) के भीतर के तरल को गति प्रदान कर देते हैं। इस तरल की गति (स्पंदन) को कॉर्टी अंग पकड़ लेते हैं जहाँ से इन्हें तन्त्रिका आवेगों के रूप में कॉक्लिया-तंत्रिकाओं में पहुँचा दिया जाता है। इस प्रकार से ये तंत्रिकाएँ इन सभी आवेगों को मस्तिष्क तक पहुँचाने का प्रमुख कार्य कर देती है। इस प्रकार से कर्ण द्वारा श्रवण की क्रिया का कार्य पूर्ण हो जाता है।
प्रश्न 3.
संवेदी अंगों के प्रकार तथा उनका वर्णन कीजिए।
उत्तर:
मनुष्य में संवेदी अंग निम्न पाँच प्रकार के होते हैं-
1. आँख,
2. कान,
3. त्वचा,
4. नाक,
5. जीभ ।
इन सभी का वर्णन निम्नलिखित है-
1. आँख (Eye)—यह दर्शनेन्द्रियाँ नेत्र हैं जो कि संख्या में एक जोड़ी होते हैं। ये संवेदी अंग के रूप में संवेदनाओं को ग्रहण कर दृष्टि ज्ञान करवाते हैं। आँख की आकृति करीब-करीब गोलाकार होती है। यह एक खोखली गेंद की तरह होती है, जिसमें अनेक संरचनाएँ होती हैं। इसकी आन्तरिक रचना में यह स्कलेरा (श्वेतपटल), कोरॉइड (रक्त पटल) और रेटिना (दृष्टि पटल) इन तीन परतों से बनी होती है।
2. कान (कर्ण) (Ear)-कर्ण की रचना में तीन मुख्य भाग, बाह्य कर्ण, मध्य कर्ण तथा अंत: कर्ण होते हैं। बाह्य कर्ण पुनः दो भागों पहला कर्ण पल्लव (Pinna or Auricle) एवं दूसरा बाह्य कर्ण कुहर (External auditory meatus) भागों से मिलकर बना होता है। स्तनधारियों में मध्य कर्ण टिम्पेनिक बुल्ला में बंद रहता है जो कि टिम्पेनिक गुहा कहलाती है। कर्ण में घन या मेलियस (Malleus), स्थूल या इन्कस (Incus) व रकाब यो स्टेपीज (Stapes) ये तीन कर्ण अस्थिकाएँ होती हैं। आन्तरिक कर्ण में कर्णावर्त (Cochlea) तथा प्रघाण (Vestibule) दो मुख्य भाग होते हैं जो कि टेम्पोरल अस्थि की गुहा में स्थित होता हैं जिसे अस्थि गहन (Bony labyrinth) कहते हैं। ये दोनों संरचनाएँ मिलकर के कला गहन (Membranous labyrinth) बनाती हैं।
3. त्वचा (स्पर्श) (Skin)–त्वचा अत्यन्त महत्वपूर्ण संवेदांग होता हैं, जिसमें अलग-अलग प्रकार की तंत्रिकाओं के अंतिम छोर उपस्थित होते हैं। जब हमारी त्वचा से कोई अन्य वस्तु अथवा पदार्थ टकाराती है या स्पर्श करती है, तो इन्हीं तंत्रिकाओं के द्वारा विभिन्न प्रकार के स्पर्श का बोध होता है। इनमें से कुछ तंत्रिकाएँ ऐसी होती हैं, जिनका कि संबंध स्पर्श (हल्का-सा स्पर्श) से होता है। इसके अतिरिक्त कुछ तंत्रिकाएँ ऐसी होती है जो कि गहरे दाब से, ठंड से, ताप से तथा पीड़ा इत्यादि होने से संवेदना को ग्रहण कर लेती हैं अर्थात् उनका बोध कर देती हैं।
4. नाक (Nose) (गंध के संवेदांग)-नाक वह महत्वपूर्ण संवेदांग है जो कि गंध का बोध कराता है। चाहे वह गंध किसी भी प्रकार की क्यों न हो। यह एक प्रकार का रासायनिक संवेद होता है जो कि उस सम्पर्क में आने वाले रासायनिक पदार्थ की प्रकृति पर निर्भर करता है। प्रत्येक प्रकार की गंध का पता नाक की संवेदी ऐपीथीलियम पर रसायन के सम्पर्क में आने से चल जाता है। जब उस रसायन के अणु हवा द्वारा साँस के साथ भीतर आते हैं तो वे नाक की संवेदी ऐपीथीलियम को उद्दीपित कर देते हैं जिससे गंध का बोध हो जाता है।
5. जिह्वा (जीभ) (स्वाद का संवेदांग)—स्वाद का संवेदांग जीभ स्वाद का बोध कराती है, यह भी एक रासायनिक संवेद होता है। जब भी कोई पदार्थ जीभ के सम्पर्क में आता है तो संवेदी स्वाद कलिकाओं द्वारा जो कि जीभ पर पायी जाती हैं, द्वारा बोध हो जाता है, कि पदार्थ का स्वाद क्या है। यह सम्पर्क में आने वाले रासायनिक पदार्थ की प्रकृति पर निर्भर करता है।
प्रश्न 4.
अंतःकर्ण की संरचना को समझाइये।
उत्तर:
अंत:कर्ण की संरचना–अंत:कर्ण टेम्पोरल अस्थि की गुहा में होता है, जो कि अस्थि गहन (Bony labyrinth) कहलाता है। यह दो भागों से बना होता है-
(i) कर्णावर्त (Cochlea)–कर्ण को जब उसकी आन्तरिक संरचना के अन्तर्गत देखते हैं तो कर्णावर्त एक लम्बी, कुंडलित संरचना के रूप में स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ता है। इसमें शंख की कुंडली से मिलते-जुलते चक्र होते हैं जिनकी संख्या ढाई चक्र की होती है। इसकी भीतरी गुहा झिल्लियों द्वारा अलग होकर तीन समांतर नालों में विभाजित होती है। जिनमें अंतः लसीका (Endolymph) भरा होता है। नाल के मध्य में कॉर्टी रोम अंग उपस्थित होते हैं, जिनके एक सिरे पर संवेदी रोम होते हैं।
(ii) प्रघाण (Vestibule)-यह शरीर का सन्तुलन बनाये रखने का कार्य करता है। इसमें तीन अर्धवृत्ताकार नाले (Semicircular canal) पायी जाती हैं जिनका कि एक भाग कॉक्लिया के साथ जुड़ा होता है, एक दृति (युट्रिकुलस) से एवं अन्य एक गोणिका (सैकुलस) में विभेदित होता है। यह नालें चौड़ी होकर के तुम्बिका (Ampulla) बनाती हैं, जिनमें संवेदी कोशिकाएँ होती हैं। इनसे तंत्रिका तन्तु निकलकर व एक साथ मिलकर श्रवण तंत्रिका का निर्माण करते हैं।
अतः ये दोनों संरचनाएँ मिलकर कला गहन (Membranous labyrinth) बनाती हैं। कॉक्लिया, सेकूलस में डक्टस रीयूनीएन्स छोटी नलिका द्वारा जुड़ी रहती है। यह तीन भागों में बँटी होती है, जिन्हें स्केली कहते हैं। पहली स्केला वेस्टीबुली, दूसरी स्केला मीडिया तथा तीसरी स्केला टिम्पेनी। अब कॉक्लिया के अन्तिम सिरे पर स्केला वेस्टीबुली एवं स्केला टिम्पेनी की गुहायें आपस में हैलीकोट्रोमा द्वारा जुड़ी रहती हैं। कॉर्टी के अंग के संवेदी रोम टेक्टोरियल कला के सम्पर्क में रहते हैं।
प्रश्न 5.
स्वाद एवं घ्राण अंगों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
स्वाद अंग (जिव्हा-Tongue)-स्वाद अंग जिसे स्वाद की ज्ञानेन्द्रियाँ भी कहते हैं, मनुष्य में स्वाद की जानकारी उपलब्ध कराने का कार्य करती हैं। स्वाद की ज्ञानेन्द्रिया हमारी जिव्हा पर स्वाद कलिकाओं के रूप में पायी जाती है। स्वाद का बोध कराना, यह एक प्रकार का रासायनिक संवेद होता है और यह सम्पर्क में आने वाले रासायनिक पदार्थ की प्रकृति पर निर्भर करता है। भोज्य पदार्थ के मुख में लेने के बाद पदार्थ के सम्पर्क में आने पर उसके स्वाद का पता चलता है।
भ्राण अंग (नाक-Nose)–अन्य संवेदी अंगों की तरह ही घ्राण अंग अर्थात् नाक (Nose) के जरिए मानव शरीर बाह्य पर्यावरण से विभिन्न प्रकार की गंध का अनुभव कर पता लगाता है। यह मनुष्य में पाँच ज्ञानेन्द्रियों में से एक है, जिसे गन्ध की ज्ञानेन्द्रियाँ कहते हैं, क्योंकि यह विभिन्न प्रकार की गंध की जानकारी उपलब्ध कराती है। यह जानकारी सँघकर प्राप्त की जाती है। इस प्रकार से नाक के द्वारा गंध का बोध होना एक प्रकार का रासायनिक संवेद होता है और यह सम्पर्क में आने वाले रासायनिक पदार्थ की प्रकृति पर निर्भर करता है। विभिन्न प्रकार की गंध का पता नाक की संवेदी एथीलियम पर रसायन के सम्पर्क में आने से चल जाता है। जब ये रसायन के अणु हवा द्वारा साँस के साथ भीतर आते हैं तो नाक की संवेदी एपिथीलियम को उद्दीपित कर देती हैं, जिससे कि उस गंध का बोध हो जाता है।
प्रश्न 6.
आँख की संरचना का सचित्र वर्णन कीजिए।
उत्तर:
आँख की बाह्य संरचना लगभग गोलाकार होती है। यह सामने की तरफ से थोड़ा उभार लिए हुए और अस्थिल कोटर के भीतर मुक्त रूप से घूम सकती है। यह एक खोखली गेंद की तरह होती है जिसके अन्दर अनेक संरचनाएँ होती हैं।
नेत्र की आंतरिक रचना में तीन पर्त हैं-
(i) श्वेत पटल या स्कलेरा (Sclera)-यह सबसे बाहरी, कड़ी, सफेद, दो भागों से मिलकर बनी होती है जो कि सामने की ओर कार्निया से जुड़ी होती है। मजबूत तंतुमय संयोजी ऊतक इसके 4/5 भाग का निर्माण करते हैं।
(ii) कोरॉइड (Choroid)—यह बीच की योजी ऊतक से बनी पर्त | होती है जो कि रुधिर वाहिनियों की उपस्थिति दर्शाती है। इसमें नीली,
गहरी भूरी अथवा काले रंग की कणिकाएँ होती हैं।
(iii) दृष्टिपटल (Retina)—यह सबसे भीतरी, शलाकाओं तथा शंकु से निर्मित पर्त होती है। शलाकाओं में दृष्टि, रंजक वर्णक रोडोप्सिन पाया जाता है तथा शंकुओं में आयडोप्सिन पाया जाता है। पीत बिन्दु (Yellow spot)—यह दृष्टि अक्ष पर स्थित होता है। इसमें संवेदी कोशिकाएँ और उनमें भी विशेषकर शंकु कोशिकाएँ सर्वाधिक संख्या में पायी जाती हैं। यह भाग पीला दिखाई देता है। इसकी मध्यवर्ती गर्त को फोविया सेन्टरेलिस (Fovea centralis) कहते हैं। इसमें उपस्थित शंकु कोशिकाएँ नेत्र के सबसे अधिक संवेदी भाग का निर्माण करती हैं।
अंध बिन्दु (Blind spot)-यह पीत बिन्दु के ठीक नीचे का स्थान होता है। इसमें रेटिना की समस्त संवेदी कोशिकाओं से आने वाली दृक-तंत्रिकाएँ (Optic nerve) का निर्माण करती हैं।
नेत्र के भाग-
(a) तरल कक्ष
(b) लेंस (Lens)
(c) परितारिका (Iris)
यह नेत्र के प्रमुख भाग होते हैं जो कि आन्तरिक रूप से लेंस द्वारा एक-दूसरे से अलग-अलग होते हैं।
(a) तरल कक्ष—इसमें जलीय तरल (नेत्रोद, Aqueous humour) भरा होता है तथा इसके पिछले भाग में गाढ़ा काँचाभ पदार्थ (Vitreous humour, vitro = काँच) भरा होता है।
(b) लेंस (Lens)-यह परितारिका (Iris) के पीछे, आकृति में उभयोत्तल और अर्धठोस होता है। इसके ऊतक मुलायम जिलेटिन के बने होते हैं।
(c) परितारिका (Iris)-इसकी उपस्थिति लैंस के सामने एक पर्दे के रूप में होती है। इसी के कारण नेत्र को काला, भूरा अथवा नीला रंग कहा जा सकता है। इसमें वर्तुल तथा अरीय दो प्रकार की पेशियाँ होती हैं जो कि क्रमशः पुतली को सँकरा बनाने तथा पुतली को फैलाने के लिये होती हैं। नेत्र की संरचना में छः प्रकार की कंकाल पेशियाँ होती हैं। इनमें से चार ऋजु एवं दो तिरछी पेशियाँ होती हैं। यह नेत्र को दायें-बायें व ऊपर-नीचे चलायमान करती हैं। मनुष्य के नेत्र के भीतरी कोण पर एक अवशेषी निकटेटिंग झिल्ली को प्लीका सेमील्यूनेरिस कहते हैं।
- मीबोमियन ग्रंथियाँ
- माल ग्रन्थियाँ
- लेक्राइमल ग्रन्थियाँ या अश्रुग्रंथियाँ। ये तीन प्रकार की ग्रन्थियाँ नेत्र में पायी जाती हैं।
Leave a Reply