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Rajasthan Board RBSE Class 12 Hindi अपठित गद्यांश
गद्य एवं पद्य को वह अंश जो कभी नहीं पढ़ा गया हो, अपठित’ कहलाता है। दूसरे शब्दों में ऐसा उदाहण जो पाठ्यक्रम में निर्धारित पुस्तकों से ने लेकर किसी अन्य पुस्तक से लिया गया हो, अपठित अंश माना जाता है।
RBSE Class 12 Hindi अपठित गद्यांश अपठित गद्यांश
अपठित साहित्यिक गद्यांश के अंतर्गत गद्य-खंड को पढ़कर उससे संबंधित उत्तर देने होते हैं। ये प्रश्नोत्तर गद्यावतरण के शीर्षक, विषय-वस्तु के बोध एवं भाषिक बिन्दुओं को केन्द्र में रखकर पूछे जाते हैं। इस हेतु विद्यार्थियों को निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना चाहिए –
- सर्वप्रथम गद्य-खण्ड को कम से कम तीन बार ध्यानपूर्वक पढ़ लेना चाहिये समझ न आने पर घबरायें या परेशान न हों, आत्म-विश्वास एवं धैर्य के साथ पुनः पढ़े।
- गद्यांश में प्रयुक्त कठिन शब्दों को अलग लिखकर उनका अर्थ समझने का प्रयास करें यदि अर्थ समझ में नहीं आ रहा हो तो वाक्य के आधार पर अर्थ एवं भाव निकाला जा सकता है।
- गद्यांश को एकाग्रता से पढ़ने के बाद उसके मूल-भाव को समझना चाहिये।
- तत्पश्चात् नीचे दिये गये प्रश्नों को पढ़े एवं प्रश्नों को ध्यान में रखते हुए गद्यांश को पुनः एक बार पढ़ें । जिन प्रश्नों के उत्तर मिल जायें उन्हें रेखांकित करते जायें।
- जिन प्रश्नों के उत्तर नहीं मिल पाये हों, उन पर ध्यान केन्द्रित कर अवतरण को फिर से पूर्ण एकाग्रचित्त होकर पढ़ें, उत्तर अवश्य मिल जायेंगे क्योंकि सभी प्रश्नों के उत्तर गद्यांश के अन्तर्गत ही होते हैं।
- प्रश्नों के उत्तर लिखते समय सरल एवं मौलिक भाषा का ही प्रयोग करें, न कि गद्यांश को उतारें।
- गद्य-खण्ड में प्रयुक्त उद्धरण-चिह्न (inverted comma) का प्रयोग अपने उत्तरों में नहीं करना चाहिये।
- गद्यांश का शीर्षक अत्यन्त छोटा, सार्थक एवं मूल-भाव पर केन्द्रित होना चाहिये।
- यदि गद्यांश में रेखांकित शब्दों के अर्थ अथवा उनकी व्याख्या पूछी जाये तो प्रसंग के अनुसार ही उनका अर्थ एवं व्याख्या करनी चाहिये। अपनी ओर से शब्दों तथा उदाहरणों का प्रयोग नहीं करना चाहिये।
[नोट – विद्यार्थियों के मार्गदर्शन हेतु नीचे कुछ अपठित गद्यांश (हल सहित) दिए जा रहे हैं। प्रत्येक प्रश्न के लिए उत्तर-सीमा 30 शब्द है।]
RBSE Class 12 Hindi अपठित गद्यांश प्रश्नोत्तर सहित अपठित गद्यांश
प्रश्न
नीचे दिए गए गद्यांश को सावधानीपूर्वक पढ़िए तथा पूछे गए प्रश्नों के उत्तर लिखिए –
(1) देश की सर्वांगीण उन्नति एवं विकास के लिए देशवासियों में स्वदेश प्रेम का होना परमावश्यक है। जिस देश के नागरिकों में देशहित एवं राष्ट्र कल्याण की भावना रहती है, वह देश उन्नतिशील होता है। देशप्रेम के पूत भाव से मण्डित व्यक्ति देशवासियों की हित साधना में, देशोद्धारे में तथा राष्ट्रीय प्रगति में अपना जीवन तक न्यौछावर कर देता है। हम अपने देश के इतिहास पर दृष्टिपात करें, तो ऐसे देशभक्तों की लम्बी परम्परा मिलती है, जिन्होंने अपना सर्वस्व समर्पण करके स्वदेश-प्रेम का अद्भुत परिचय दिया है। महाराणा प्रताप, वीर शिवाजी, सरदार भगत सिंह, महारानी लक्ष्मीबाई, लोकमान्य तिलक, महात्मा गाँधी आदि सहस्त्रों देशभक्तों के नाम इस दृष्टि से लिए जाते हैं। हमें अपने देश के इतिहास से देशप्रेम की एक गौरवपूर्ण परम्परा मिलती है और इससे हम देश हितार्थ सर्वस्व न्यौछावर करने की प्रेरणा प्राप्त करते हैं।
प्रश्न 1.
(क) लेखक के अनुसार कौन-सा देश उन्नतिशील होता है?
(ख) ‘हमें अपने देश के इतिहास से देशप्रेम की एक गौरवपूर्ण परम्परा मिलती है और इससे हम देशहितार्थ सर्वस्व न्यौछावर करने की प्रेरणा प्राप्त करते हैं।’ यह किस प्रकार का वाक्य है, बताते हुए परिभाषा भी लिखें। (ग) “स्वदेश’ शब्द में मूल शब्द व उपसर्ग बताइए।
(घ) अपठित गद्यांश का उचित शीर्षक दीजिए।
उत्तर:
(क) लेखक के अनुसार जिस देश के नागरिकों में देशहित एवं राष्ट्रकल्याण की भावना रहती है, वह देश उन्नतिशील होता है।
(ख) यह संयुक्त वाक्य है। जिसमें एक से अधिक उपवाक्य किसी संयोजक शब्द से जुड़े हों और प्रत्येक उपवाक्य अपना पूर्ण अर्थ रखते हों, वह संयुक्त वाक्य है।
(ग) मूल शब्द-देश। उपसर्ग-स्व।
(घ) स्वदेश-प्रेम।
(2) भारतवर्ष सदा कानून को धर्म के रूप में देखता आ रहा है। आज एकाएक कानून और धर्म में अंतर कर दिया गया है। धर्म को धोखा नहीं दिया जा सकता, कानून को दिया जा सकता है। यही कारण है कि जो लोग धर्मभीरु हैं, वे कानून की त्रुटियों से लाभ उठाने में संकोच नहीं करते। इस बात के पर्याप्त प्रमाण खोजे जा सकते हैं कि समाज के ऊपरी वर्ग में चाहे जो भी होता रहा हो, भीतर-भीतर भारतवर्ष अब भी यह अनुभव कर रहा है कि धर्म, कानून से बड़ी चीज है। अब भी सेवा, ईमानदारी, सच्चाई और आध्यात्मिकता के मूल्य बने हुए हैं। वे दब अवश्य गए हैं, लेकिन नष्ट नहीं हुए। आज भी वह मनुष्य से प्रेम करता है, महिलाओं का सम्मान करता है, झूठ और चोरी को गलत समझता है, दूसरों को पीड़ा पहुँचाने को पाप समझता है। हर आदमी अपने व्यक्तिगत जीवन में इस बात का अनुभव करता है।
प्रश्न 2.
(क) प्रस्तुत गद्यांश का उचित शीर्षक लिखिए।
(ख) कानून को धर्म के रूप में देखने का क्या आशय है?
(ग) भारतवर्ष के लोग धर्म की किन बातों को आज भी मानते हैं?
(घ) “सम्मान’ शब्द से पूर्व जुड़े ‘सम’ उपसर्ग के स्थान पर एक अन्य ऐसा उपसर्ग जोड़िए कि विलोम शब्द बन जाय।
उत्तर:
(क) गद्यांश का उचित शीर्षक-‘धर्म और कानून।
(ख) भारत में धर्म को महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। धार्मिक निषेधों का उल्लंघन नहीं होता था। ऐसा करने से लोग डरते थे। कानून को भी धर्म के समान ही मानकर उसका पालन करना जरूरी समझा जाता था। धर्मभीरु लोग कानून की कमी का लाभ नहीं उठाते थे।
(ग) भारतवर्ष के लोग आज भी धर्म की अनेक बातों को मानते हैं। समाज में ईमानदारी, सच्चाई और आध्यात्मिकता को उच्च स्थान प्राप्त है। मनुष्यों से प्रेम करना, महिलाओं का आदर करना, झूठ बोलने से बचना, चोरी न करना तथा दूसरों को न सताना आदि धार्मिक सदुपदेशों को लोग आज भी मानते हैं।
(घ) “सम्मान शब्द से पूर्व ‘सम्’ उपसर्ग लगा है। इसको हटाकर उसके स्थान पर ‘अप’ उपसर्ग जोड़ने से ‘अपमान’ शब्द बनता है, जो सम्मान का विलोम शब्द है।
(3) यदि मनुष्य और पशु के बीच कोई अंतर है तो केवल इतना कि मनुष्य के भीतर विवेक है और पशु विवेकहीन है। इसी विवेक के कारण मनुष्य को यह बोध रहता है कि क्या अच्छा है और क्या बुरा। इसी विवेक के कारण मनुष्य यह समझ पाता है कि केवल खाने-पीने और सोने में ही जीवन का अर्थ और इति नहीं। केवल अपना पेट भरने से ही जगत के सभी कार्य संपन्न नहीं हो जाते और यदि मनुष्य का जन्म मिला है तो केवल इसी चीज का हिसाब रखने के लिए नहीं कि इस जगत ने उसे क्या दिया है और न ही यह सोचने के लिए कि यदि इस जगत ने उसे कुछ नहीं दिया तो वह इस संसार के भले के लिए कार्य क्यों करे। मानवता का बोध कराने वाले इस गुण ‘विवेक’ की । जननी का नाम ‘शिक्षा’ है। शिक्षा जिससे अनेक रूप समय के परिवर्तन के साथ इस जगत में बदलते रहते हैं, वह जहाँ कहीं भी विद्यमान रही है सदैव अपना कार्य करती रही है। यह शिक्षा ही है जिसकी धुरी पर यह संसार चलायमान हैं। विवेक से लेकर विज्ञान और ज्ञान की जन्मदात्री शिक्षा ही तो है। शिक्षा हमारे भीतर विद्यमान वह तत्त्व है जिसके बल पर हम बात करते हैं, कार्य करते हैं, अपने मित्रों और शत्रुओं की सूची तैयार करते हैं, उलझनों को सुलझनों में बदलते हैं। असल में सीखने और सिखाने की प्रक्रिया को ही शिक्षा कहते हैं। शिक्षा उन तथ्यों को तथा उन तरीकों का ज्ञान कराती है जिन्हें हमारे पूर्वजों ने खोजा था- सभ्य तथा सुखी जीवन बिताने के लिए, और आज यदि हम सुखी जीवन बिताना चाहते हैं तो हमें उन तरीकों को सीखना होगा, उन तथ्यों को जानना होगा जिन्हें जानने के लिए हमारे पूर्वजों ने निरंतर सदियों तक शोध किया है। जो केवल शिक्षा के द्वारा ही संभव है।
प्रश्न 3.
(क) प्रस्तुत गद्यांश का उचित शीर्षक लिखिए।
(ख) मनुष्य और पशु में क्या अन्तर है ?
(ग) शिक्षा से क्या आशय है? इसके क्या लाभ हैं?
(घ) ‘विज्ञान’ शब्द में मूल शब्द व उपसर्ग बताइये।
उत्तर:
(क) गद्यांश का उचित शीर्षक है-‘शिक्षा और विवेक’।
(ख) मनुष्य विवेकशील प्राणी है। विवेक के कारण वह उचित और अनुचित में अन्तर करके उचित को अपनाने तथा अनुचित को त्यागने में समर्थ होता है। पशु में विवेक नहीं होता और वह उचित-अनुचित का विचार नहीं कर सकता।
(ग) सीखने और सिखाने की प्रक्रिया को शिक्षा कहते हैं। शिक्षा मनुष्य में विवेक उत्पन्न करती है। शिक्षा ज्ञान-विज्ञान की जन्मदात्री है। शिक्षा ही मनुष्य को सद्व्यवहार सिखाती है। शत्रु-मित्र की पहचान कराती है, समस्याओं को हल बताती है तथा पूर्वजों की उपलब्धियों और शोध के बारे में बताती है।
(घ) मूल शब्द-ज्ञान और उपसर्ग-वि।
(4) दु:ख के वर्ग में जो स्थान भय का है, वही स्थान आनन्द-वर्ग में उत्साह का है। भय में हम प्रस्तुत कठिन स्थिति के नियम से विशेष रूप में दुखी और कभी-कभी उस स्थिति से अपने को दूर रखने के लिए प्रयत्नवान् भी होते हैं । उत्साह में हम आने वाली कठिन स्थिति के भीतर साहस के अवसर के निश्चय द्वारा प्रस्तुत कर्म-सुख की उमंग से अवश्य प्रयत्नवान् होते हैं। उत्साह में कष्ट या हानि सहन करने की दृढ़ता के साथ-साथ कर्म में प्रवृत्त होने के आनन्द का योग रहता है । साहसपूर्ण आनन्द की उमंग का नाम उत्साह है । कर्म-सौंदर्य के उपासक ही सच्चे उत्साही कहलाते हैं।
जिन कर्मों में किसी प्रकार का कष्ट या हानि सहने का साहस अपेक्षित होता है, उन सबके प्रति उत्कण्ठापूर्ण आनन्द उत्साह के अन्तर्गत लिया जाता है । कष्ट या हानि के भेद के अनुसार उत्साह के भी भेद हो जाते हैं । साहित्य-मीमांसकों ने इसी दृष्टि से युद्ध-वीर, दान-वीर, दया-वीर इत्यादि भेद किए हैं। इनमें सबसे प्राचीन और प्रधान युद्ध वीरता है, जिसमें आघात, पीड़ा या मृत्यु की परवाह नहीं रहती । इस प्रकार की वीरता का प्रयोजन अत्यन्त प्राचीन काल से होता चला आ रहा है, जिसमें साहस और प्रयत्न दोनों चरम उत्कर्ष पर। पहुँचते हैं। साहस में ही उत्साह का स्वरूप स्फुरित नहीं होता। उसके साथ आनन्दपूर्ण प्रयत्न या उसकी उत्कण्ठा का योग चाहिए । बिना बेहोश हुए भारी फोड़ा चिराने को तैयार होना साहस कहा जाएगा, पर उत्साह नहीं। इसी प्रकार चुपचाप बिना हाथ-पैर हिलाये, घोर प्रहार सहने के लिए तैयार रहना साहस और कठिन प्रहार सहकर भी जगह से ना हटना धीरता कही जायेगी । ऐसे साहस और धीरता को उत्साह के अन्तर्गत तभी ले सकते हैं, जबकि साहसी या धीर उस काम को आनन्द के साथ करता चला जायेगा जिसके कारण उसे इतने प्रहार सहने पड़ते हैं । सारांश यह है कि आनन्दपूर्ण प्रयत्न या उसकी उत्कण्ठा में ही उत्साह का दर्शन होता है, केवल कष्ट सहने में या निश्चेष्ट साहस में नहीं । धृति और साहस दोनों का उत्साह के बीच संचरण होता है
प्रश्न 4.
(क) प्रस्तुत गद्यांश का उचित शीर्षक लिखिए।
(ख) उत्साह क्या है तथा उत्साही किसको कहते हैं?
(ग) साहस और धीरता को उत्साह के अन्तर्गत किस दशा में लिया जा सकता है ?
(घ) ‘अपेक्षित’ का विलोम शब्द लिखिए तथा उसका अपने वाक्य में प्रयोग कीजिए।
उत्तर:
(क) गद्यांश का उचित शीर्षकउत्साह’।।
(ख) उत्साह साहसपूर्ण आनन्द की उमंग को कहते हैं। उत्साह में कष्टों को दृढ़तापूर्वक सहन करना तथा कर्म में लगने के आनन्द-दोनों ही पाए जाते हैं। कष्ट सहन करते हुए कार्य में लगे रहकर आनन्द का अनुभव करने वाले को उत्साही कहते हैं।
(ग) साहस और धीरता को उत्साह के अन्तर्गत तभी लिया जा सकता है जब कोई साहसी और धैर्यवान पुरुष किसी ऐसे काम को प्रसन्नता और आनन्द के साथ करता रहे जिसके कारण उसे बहुत कष्ट उठाने पड़े हों।
(घ) विलोम शब्द –उपेक्षित। प्रयोग – उपेक्षित और तिरस्कृत जीवन से मृत्यु अच्छी है।
(5) महानगरों में भीड़ होती है, समाज या लोग नहीं बसते । भीड़ उसे कहते हैं जहाँ लोगों का जमघट होता है। लोग तो होते हैं लेकिन उनकी छाती में हृदय नहीं होता; सिर होते हैं, लेकिन उनमें बुद्धि या विचार नहीं होता। हाथ होते हैं, लेकिन उन हाथों में पत्थर होते हैं, विध्वंस के लिए वे हाथ निर्माण के लिए नहीं होते। यह भीड़ एक अंधी गली से दूसरी गली की ओर जाता है, क्योंकि भीड़ में होने वाले लोगों का आपस में कोई रिश्ता नहीं होता। वे एक-दूसरे के कुछ भी नहीं लगते। सारे अनजान लोग इकट्ठा होकर विध्वंस करने में एक-दूसरे का साथ देते हैं, क्योंकि जिन इमारतों, बसों या रेलों में ये तोड़-फोड़ के काम करते हैं, वे उनकी नहीं होतीं और न ही उनमें सफर करने वाले उनके अपने होते हैं। महानगरों में लोग एक ही बिल्डिंग में पड़ोसी के तौर पर रहते हैं, लेकिन यह पड़ोस भी संबंधरहित होता है। पुराने जमाने में दही जमाने के लिए जामन माँगने पड़ोस में लोग जाते थे, अब हर फ्लैट में फ्रिज है, इसलिए जामन माँगने जाने की भी जरूरत नहीं रही। सारा पड़ोस, सारे संबंध इस फ्रिज में ‘फ्रीज’ रहते हैं।
प्रश्न 5.
(क) प्रस्तुत गद्यांश का उचित शीर्षक लिखिए।
(ख) ‘महानगरों में भीड़ होती है, समाज या लोग नहीं बसते’-इस वाक्य का आशय क्या है?
(ग) सारे संबंध इस फ्रिज में फ्रीज’ रहते हैं-ऐसा क्यों कहा जाता है ?
(घ) “निर्माण’ शब्द का विलोम लिखिए।
उत्तर:
(क) गद्यांश का उचित शीर्षक-‘महानगरों में असामाजिक संस्कृति।”
(ख) महानगरों में विशाल संख्या में लोग निवास करते हैं। उनमें पारस्परिक सामाजिक संबंध नहीं होते हैं। वे एक दूसरे को जानते नहीं, आपस में मिलते-जुलते भी नहीं हैं। पास रहने पर भी वे एक दूसरे के पड़ोसी नहीं होते।
(ग) फ्रिज खाद्य पदार्थों को ठंडा रखने के लिए प्रयोग होने वाला एक यंत्र है। आधुनिक समाज में परस्पर संबंधों में गर्माहट नहीं रही है। लोग एक ही बिल्डिंग में रहते हैं परन्तु पड़ोसी से उनके सम्बन्ध ही नहीं होते वे एक-दूसरे को जानते तक नहीं हैं।
(घ) ‘निर्माण’ का विलोम विध्वंस’ है।
(6) भोजन का असली स्वाद उसी को मिलता है जो कुछ दिन बिना खाए भी रह सकता है। ‘जीवन का भोग त्याग के साथ करो।’ यह केवल परमार्थ का ही उपदेश नहीं है, क्योंकि संयम से भोग करने पर जीवन में जो आनंद प्राप्त होता है, वह निरा भोगी बनकर भोगने से नहीं मिलता है। अकबर ने तेरह साल की उम्र में अपने बाप के दुश्मन को परास्त कर दिया था जिसका कारण था अकबर का जन्म रेगिस्तान में होना और उसके पिता के पास एक कस्तूरी को छोड़कर और कोई दौलत नहीं थी। महाभारत के अधिकांश वीर कौरवों के पक्ष में थे, मगर जीत पांडवों की हुई, क्योंकि उन्होंने लाक्षागृह की मुसीबत झेली थी। उन्होंने वनवास के जोखिम को पार किया था। श्री विंस्टन चर्चिल ने कहा है कि जिंदगी की सबसे बड़ी सिफत हिम्मत है। आदमी के और सारे गुण उसके हिम्मती होने से ही पैदा होते हैं।
प्रश्न 6.
(क) प्रस्तुत गद्यांश का उचित शीर्षक लिखिए।
(ख) भोजन का असली स्वाद किसको मिलता है?
(ग) जीवन का भोग त्याग के साथ करो’–आशय स्पष्ट कीजिए।
(घ) वनवास’ पद का विग्रह कर समास का नामोल्लेख कीजिए।
उत्तर:
(क) गद्यांश का उचित शीर्षक-‘साहस और संघर्षपूर्ण जीवन।’
(ख) भोजन का असली स्वाद उस व्यक्ति को मिलता है जो कुछ दिन भूखा रह सकता है। जिसका पेट भरा है वह भोजन का आनन्द ले ही नहीं सकता, न उसका लाभ ही उठा सकता है।
(ग) जीवन में भोग से सुख तभी मिल सकता है जब मनुष्य त्याग के मार्ग पर चले। संसार जो कुछ है वह सब केवल एक ही मनुष्य के लिए नहीं है, दूसरों को भी उसकी आवश्यकता है तथा उस पर उनका भी अधिकार है, यह सोचकर उनके लिए त्याग करने से ही उपभोग का आनन्द प्राप्त होता है।
(घ) वनवास-वन में वास-तत्पुरुष समास।
(7) शहादत और मौन-मूक! जिस शहादत को शोहरत मिली, जिस बलिदान को प्रसिद्धि प्राप्त हुई, वह इमारत का कंगूरा है- मंदिर का कलश है। हाँ, शहादत और मौन मूक! समाज की आधारशिला यही होती है। ईसा की शहादत ने ईसाई धर्म को अमर बना दिया, आप कह लीजिए। किंतु मेरी समझ से ईसाई धर्म को अमर बनाया उन लोगों ने, जिन्होंने उस धर्म के प्रचार में अपने को अनाम उत्सर्ग कर दिया। उनमें से कितने जिंदा जलाए गए, कितने सूली पर चढ़ाए गए, कितने वन-वन की खाक छानते जंगली जानवरों के शिकार हुए, कितने उससे भी भयानक भूख-प्यास के शिकार हुए। उनके नाम शायद ही कहीं लिखे गए हों-उनकी चर्चा शायद ही कहीं होती हो किंतु ईसाई धर्म उन्हीं के पुण्य-प्रताप से फल-फूल रहा है, वे नींव की ईंट थे, गिरजाघर के कलश उन्हीं की शहादत से चमकते हैं। आज हमारा देश आजाद हुआ सिर्फ उनके बलिदानों के कारण नहीं, जिन्होंने इतिहास में स्थान पा लिया है। हम जिसे देख नहीं सकें, वह सत्य नहीं है, यह है मूक धारणा ! ढूँढ़ने से ही सत्य मिलता है। हमारा काम है, धर्म है, ऐसी नींव की ईंटों की ओर ध्यान देना । सदियों के बाद नए समाज की सृष्टि की ओर हमने पहला कदम बढ़ाया है।
प्रश्न 7.
(क) प्रस्तुत गद्यांश का उचित शीर्षक लिखिए।
(ख) समाज की आधारशिला किसको कहा गया है?
(ग) अपने को अनाम उत्सर्ग कर देने का क्या तात्पर्य है?
(घ) निम्न विदेशी शब्दों के अर्थ बताइये-शहादत, शोहरत।
उत्तर:
(क) गद्यांश का उचित शीर्षक-नींव की ईंट’।
(ख) शान्तभाव से प्रचार की भावना से मुक्त रहकर देश तथा समाज के लिए किए गए आत्मबलिदान को समाज की आधारशिला कहा गया है।
(ग) सच्चा त्यागी प्रचार नहीं चाहता। जो स्वदेश, स्वधर्म और अपने समाज के हितार्थ चुपचाप त्याग करता है, लोग उसका नाम भी नहीं जानते, ऐसे व्यक्ति को त्याग ‘अनाम उत्सर्ग’ कहा जाता है।
(घ) शब्दार्थ-शहादत = बलिदान। शोहरत = प्रसिद्धि।
(8) अहिंसा और कायरता कभी साथ नहीं चलतीं । मैं पूरी तरह शस्त्र-सज्जित मनुष्य के हृदय से कायर होने की कल्पना कर सकता हूँ । हथियार रखना कायरता नहीं तो डर का होना तो प्रकट करता ही है, परन्तु सच्ची अहिंसा शुद्ध निर्भयता के बिना असम्भव है।
क्या मुझ में बहादुरों की वह अहिंसा है ? केवल मेरी मृत्यु ही इसे बताएगी । अगर कोई मेरी हत्या करे और मैं मुँह से हत्यारे के लिए प्रार्थना करते हुए तथा ईश्वर का नाम जपते हुए और हृदय-मन्दिर में उसकी जीती-जागती उपस्थिति का भान रखते हुए मरूं तो ही कहा जाएगा कि मुझ में बहादुरों की अहिंसा थी । मेरी सारी शक्तियों के क्षीण हो जाने से अपंग बनकर मैं एक हारे हुए आदमी के रूप में नहीं मरना चाहता। किसी हत्यारे की गोली भले मेरे जीवन का अन्त कर दे, मैं उसका स्वागत करूंगा । लेकिन सबसे ज्यादा तो मैं अन्तिम श्वास तक अपना कर्तव्य पालन करते हुए ही.मरना पसन्द करूंगा।
मुझे शहीद होने की तमन्ना नहीं है। लेकिन अगर धर्म की रक्षा का उच्चतम कर्तव्य-पालन करते हुए मुझे शहादत मिल जाए तो मैं उसका पात्र माना जाऊँगा । भूतकाल में मेरे प्राण लेने के लिए मुझ पर अनेक बार आक्रमण किए गए हैं; परन्तु आज तक भगवान ने मेरी रक्षा की है और प्राण लेने का प्रयत्न करने वाले अपने किए पर पछताए हैं। लेकिन अगर कोई आदमी यह मानकर मुझ पर गोली चलाए कि वह एक दुष्ट का खात्मा कर रहा है, तो वह एक सच्चे गांधी की हत्या नहीं करेगा, बल्कि उस गांधी की करेगा जो उसे दुष्ट दिखाई दिया था।
प्रश्न 8.
(क) इस गद्यांश को उचित शीर्षक लिखिए।
(ख) महात्मा गांधी सच्ची अहिंसा के लिए मनुष्य में किस गुण का होना आवश्यक मानते हैं ? इस प्रकार की अहिंसा को उन्होंने क्या नाम दिया है ?
(ग) गांधीजी को किस प्रकार मरना पसन्द था ?
(घ) शस्त्र-सज्जित का विग्रह करके समास का नाम लिखिए
उत्तर:
(क) गद्यांश का उचित शीर्षक-‘सच्चे अहिंसावादी गांधी जी।
(ख) महात्मा गाँधी मानते हैं कि सच्ची अहिंसा के लिए मनुष्य में निर्भीकता का होना आवश्यक है। इस प्रकार की अहिंसा को उन्होंने बहादुरों की अहिंसा का नाम दिया है। शस्त्रधारी मनुष्य के मन में कायरता या भीरुता हो सकती है किन्तु सच्चा अहिंसक व्यक्ति सदा निर्भय होता है।
(ग) गाँधीजी को अपना कर्तव्य-पालन करते हुए मरना पसन्द था। वह अपनी शक्ति क्षीण होने से अपंग बनकर एक हारे हुए आदमी की तरह मरना नहीं चाहते थे । वह अपने हत्यारे को क्षमा करके, ईश्वर की मूर्ति अपने मन में धारण कर तथा ईश्वर का नाम लेते हुए मरना चाहते थे।
(घ) शस्त्र-सज्जित-विग्रह-शस्त्र से सज्जित। समास का नाम – तत्पुरुष।
(9) वर्तमान समाज में नैतिक मूल्यों का विघटन चहुँओर दिखाई दे रहा है। विलास और भौतिकता के मद में भ्रांत लोग बेतहाशा धनोपार्जन की अंधी दौड़ में शामिल हो गए हैं। आज का मानव स्वार्थपरता में इस तरह आकंठ डूब चुका है कि उसे उचित-अनुचित, नीति-अनीति का भान नहीं हो रहा है। व्यक्ति विशेष की निजी स्वार्थपूर्ति से समाज का कितना अहित हो रहा है, इसका शायद किसी को आभास नहीं है। आज के अभिभावक भी धनोपार्जन एवम् भौतिकता के साधन जुटाने में इतने लीन हैं कि उनके वात्सल्य का स्रोत ही उनके लाड़लों के लिए सूख गया है। उनकी इस उदासीनता ने मासूम दिलों को गहरे तक चीर दिया है। आज का बालक अपने एकाकीपन की भरपाई या तो घर में दूरदर्शन केबिल से प्रसारित अश्लील फूहड़ कार्यक्रमों से करता है अथवा कुसंगति में पड़कर जीवन का नाश करता है। समाज के इस संक्राति-काल में छात्र किन जीवन मूल्यों को सीख पाएगा, यह कहना नितान्त कठिन है।
जब-जब समाज पथभ्रष्ट हुआ है, तब-तब युग सर्जक की भूमिका का निर्वाह शिक्षकों ने बखूबी किया है। आज की दशा में भी जीवन मूल्यों की रक्षा का गुरुतर दायित्व शिक्षक पर ही आ जाता है। वर्तमान स्थिति में जीवन मूल्यों के संस्थापन का भार शिक्षकों के ऊपर है, क्योंकि आज का परिवार बालक के लिए सद्गुणों की पाठशाला जैसी संस्था नहीं रह गया है जहाँ से बालक एक संतुलित व्यक्तित्व की शिक्षा पा सके। शिक्षक विद्यालय परिसर में छात्र के लिए आदर्श होता है।
प्रश्न 9.
(क) प्रस्तुत गद्यांश के लिए उचित शीर्षक लिखिए।
(ख) आज के समाज में बालकों के सामने क्या समस्या है तथा इसका कारण क्या है?
(ग) आज परिवार को बालक के लिए पहली पाठशाला क्यों नहीं माना जा सकता?
(घ) निम्न शब्दों में मूल शब्द तथा प्रत्यय बताइये
(i) नैतिक (ii) भौतिकता।
उत्तर:
(क) गद्यांश का उचित शीर्षक-‘सामाजिक संक्रमण और शिक्षक का दायित्व ।’
(ख) आज समाज में बच्चों के सामने एकाकीपन की समस्या है क्योंकि उनके माता-पिता अपना पूरा समय धन कमाने में लगा देते हैं। बच्चों के साथ स्नेहपूर्ण व्यवहार करने के लिए उनके पास समय ही नहीं बचता।
(ग) बालक पहला पाठ परिवार में ही पढ़ता है। मानवीय सद्गुण तथा सद्व्यवहार की शिक्षा उसे परिवार से ही प्राप्त होती है। इस कारण परिवार को बालक को पहली पाठशाला कहा जाता है किन्तु आज परिवार का विघटन हो चुका है। बच्चों के माता-पिता के पास भी परिवार में बच्चों के साथ रहने का समय नहीं है। अत: परिवार को बच्चों की पहली पाठशाला कहना उचित नहीं है।
(घ) मूलशब्द – प्रत्यय – शब्द
नीति – इक नैतिक
भौतिक – ता – भौतिकता
(10) आइये देखें, जीवन क्या है? जीवन केवल जीना, खाना, सोना और मर जाना नहीं है । यह तो पशुओं का जीवन है । मानव-जीवन में भी ये सभी प्रवृत्तियाँ होती हैं, क्योंकि वह भी तो पशु है । पर इनके उपरान्त कुछ और भी होता है । उसमें कुछ ऐसी मनोवृत्तियाँ होती हैं, जो प्रकृति के साथ हमारे मेल में बाधक होती हैं, कुछ ऐसी होती हैं, जो इस मेल में सहायक बन जाती हैं । जिन प्रवृत्तियों में प्रकृति के साथ हमारा सामंजस्य बढ़ता है, वह वांछनीय होती हैं, जिनसे सामंजस्य में बाधा उत्पन्न होती हैं, वे दूषित हैं । अहंकार, क्रोध या द्वेष हमारे मन की बाधक प्रवृत्तियाँ हैं । यदि हम इनको बेरोक-टोक चलने दें, तो नि:संदेह वह हमें नाश और पतन की ओर ले जायेंगी, इसलिए हमें उनकी लगाम रोकनी पड़ती है, उन पर संयम रखना पड़ता है, जिससे वे अपनी सीमा से बाहर न जा सकें । हम उन पर जितना कठोर संयम रख सकते हैं, उतना ही मंगलमय हमारा जीवन हो जाता है।
किन्तु नटखट लड़कों से डाँटकर कहना-तुम बड़े बदमाश हो, हम तुम्हारे कान पकड़कर उखाड़ लेंगे-अक्सर व्यर्थ ही होता है, बल्कि उस प्रवृत्ति को और हठ की ओर ले जाकर पुष्ट कर देता है। जरूरत यह होती है कि बालक में जो सद्वृत्तियाँ हैं, उन्हें ऐसा उत्तेजित किया जाय कि दूषित वृत्तियाँ स्वाभाविक रूप में शान्त हो जायें। इसी प्रकार मनुष्य को भी आत्मविकास के लिए संयम की आवश्यकता होती है। साहित्य ही मनोविकारों के रहस्य खोलकर सद्वृत्तियों को जगाता है। सत्य को रसों द्वारा हम जितनी आसानी से प्राप्त कर सकते हैं, ज्ञान और विवेक द्वारा नहीं कर सकते, उसी भाँति जैसे दुलार-पुचकारकर बच्चों को जितनी सफलता से वश में किया जा सकता है, डाँट-फटकार से सम्भव नहीं। कौन नहीं जानता कि प्रेम से कठोर-से-कठोर प्रकृति को नरम किया जा सकता है। साहित्य मस्तिष्क की वस्तु नहीं, हृदय की वस्तु है। जहाँ ज्ञान और उपदेश असफल होता है, वहाँ साहित्य बाजी ले जाता है।
प्रश्न 10.
(क) प्रस्तुत गद्यांश का उचित शीर्षक लिखिए।
(ख) मनुष्य की वे कौन-सी प्रवृत्तियाँ हैं जिन पर संयम रखना आवश्यक है तथा क्यों ?
(ग) सद्वृत्तियों को जगाने में साहित्य का क्या योगदान है ?
(घ) ‘बाजी मारना’ मुहावरे का अर्थ लिखकर उसका स्व-रचित वाक्य में प्रयोग कीजिए।
उत्तर:
(क) गद्यांश का उचित शीर्षक-‘सद्वृत्तियों का प्रेरक साहित्य।’
(ख) अहंकार, क्रोध तथा द्वेष इत्यादि कुछ मानवीय दुष्प्रवृत्तियाँ हैं। इन पर नियन्त्रण या संयम रखना आवश्यक है। ये प्रकृति के साथ मनुष्य के सामंजस्य में बाधा डालती हैं। इनको बिना नियन्त्रण के चलने देने से मनुष्य को जीवन पतन और विनाश के गर्त में गिर जाता है।
(ग) साहित्य मनोविकारों के रहस्य खोलकर सद्वृत्तियों को जगाता है। जब सद्वृत्तियाँ जाग उठती हैं तो दुष्प्रवृत्तियाँ स्वत: ही प्रभावहीन हो जाती हैं। दुष्प्रवृत्तियों को बलपूर्वक दबाने से वे कुछ समय तक तो निष्क्रिय रहती हैं किन्तु बाद में पुन: दूने वेग से क्रियाशील हो जाती हैं। अतः सद्वृत्तियों को प्रबल बनाकर ही बुरी वृत्तियों को रोका जा सकता है। इसमें साहित्य बहुत अधिक उपयोगी है।
(घ) ‘बाजी मारना’ का अर्थ है- विजयी होना।
वाक्य प्रयोग-दौड़ में अनेक प्रतियोगी भाग ले रहे थे परन्तु रमेश बाजी मार ले गया।
(11) अपने इतिहास के अधिकांश कालों में भारत एक सांस्कृतिक इकाई होते हुए भी पारस्परिक युद्धों से जर्जर होता रहा। यहाँ के शासक अपने शासन-कौशल में धूर्त एवं असावधान थे। समय-समय पर यहाँ दुर्भिक्ष, बाढ़ तथा प्लेग के प्रकोप होते रहे, जिसमें सहस्रों व्यक्तियों की मृत्यु हुई।
जन्मजात असमानता धर्मसंगत मानी गई, जिसके फलस्वरूप नीच कुल के व्यक्तियों का जीवन अभिशाप बन गया। इन सबके होते हुए भी हमारा विचार है कि पुरातन संसार के किसी भी भाग में मनुष्य के मनुष्य से तथा मनुष्य के राज्य से ऐसे सुंदर एवं मानवीय । संबंध नहीं रहे हैं। किसी भी अन्य प्राचीन सभ्यता में गुलामों की संख्या इतनी कम नहीं रही जितनी भारत में और न ही अर्थशास्त्र के समान किसी प्राचीन न्याय ग्रंथ ने मानवीय अधिकारों की इतनी सुरक्षा की। मनु के समान किसी अन्य प्राचीन स्मृतिकार ने युद्ध में न्याय के ऐसे उच्चादर्शों की घोषणा भी नहीं की। हिन्दूकालीन भारत के युद्धों के इतिहास में कोई भी ऐसी कहानी नहीं है जिसमें नगर के नगर तलवार के घाट उतारे गए हों अथवा शान्तिप्रिय नागरिकों का सामूहिक वध किया गया हो। असीरिया के बादशाहों की भयंकर क्रूरता जिसमें वे अपने बंदियों की खालें खिंचवा लेते थे, प्राचीन भारत में पूर्णत: अप्राप्य है। नि:सन्देह कहीं-कहीं क्रूरता एवं कठोरतापूर्ण व्यवहार था, परंतु अन्य प्रारंभिक संस्कृतियों की अपेक्षा यह नगण्य था। हमारे लिए प्राचीन भारतीय सभ्यता की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण विशेषता उसकी मानवीयता है।
प्रश्न 11.
(क) प्रस्तुत गद्यांश का उचित शीर्षक लिखिए।
(ख) इतिहास के अधिकांश काल में भारत के कमजोर बने रहने का क्या कारण है?
(ग) प्राचीन भारतीय सभ्यता को सर्वाधिक मानवीय कैसे कहा जा सकता है?
(घ) “तलवार के घाट उतारना’ मुहावरे का अर्थ लिखकर उसका अपने वाक्य में प्रयोग कीजिए।
उत्तर:
(क) गद्यांश का उचित शीर्षक-‘प्राचीन भारतीय सभ्यता और मानवीयता’।
(ख) इतिहास के अधिकांश कालों में भारत कमजोर बना रहा है। इसका कारण यह है कि यहाँ के शासक शासन में अकुशल और लापरवाह थे। वे आपस में छोटी-छोटी बातों पर लड़ते रहते थे। इस कारण प्रजा बाढ़, अकाल और महामारियों से त्रस्त रहती थी।
(ग) प्राचीन भारतीय सभ्यता अपने समय की अन्य सभ्यताओं की तुलना में सबसे ज्यादा मानवीय थी। ‘अर्थशास्त्र’ तथा ‘मनुस्मृति’ जैसे न्याय ग्रन्थों में मानवीय अधिकारों की सुरक्षा का प्रयास हुआ है। विदेशी शासकों द्वारा शान्तिप्रिय नागरिकों के सामूहिक वध तथा अमानवीय दमन जैसे उदाहरण भारत के इतिहास में नहीं मिलते।
(घ) तलवार के घाट उतारना-हत्या करना। वाक्य प्रयोग-शिवाजी एक वीर शासक थे। उन्होंने अपने अनेक शत्रुओं को तलवार के घाट उतारा था।
(12) निर्लिप्त रहकर दूसरों का गला काटने वालों से लिप्त रहकर दूसरों की भलाई करने वाले कहीं अच्छे हैं- क्षात्रधर्म एकान्तिक नहीं है, उसका सम्बन्ध लोकरक्षा से है । अत: वह जनता के सम्पूर्ण जीवन को स्पर्श करने वाला है । ‘कोई राजा होगा तो अपने घर का होगा’. ……. इससे बढ़कर झूठ बात शायद ही कोई और मिले । झूठे खिताबों के द्वारा यह कभी सच नहीं की जा सकती । क्षात्र जीवन के व्यापकत्व के कारण ही हमारे मुख्य अवतार–राम और कृष्ण- क्षत्रिय हैं । कर्म-सौन्दर्य की योजना जितने रूपों में क्षात्र जीवन में सम्भव है, उतने रूपों में और किसी जीवन में नहीं । शक्ति के साथ क्षमा, वैभव के साथ विनय, पराक्रम के साथ रूप-माधुर्य, तेज के साथ कोमलता, सुखभोग के साथ परदु:ख कातरता, प्रताप के साथ कठिन धर्म-पथ का अवलम्बन इत्यादि कर्म-सौन्दर्य के इतने अधिक प्रकार के उत्कर्ष-योग और कहाँ घट सकते हैं ? इस व्यापार युग में, इस वणिग्धर्म-प्रधान युग में, क्षात्रधर्म की चर्चा करना शायद गई बात का रोना समझा जाय पर आधुनिक व्यापार की अन्यान्य रक्षा भी शास्त्रों द्वारा ही की जाती है । क्षात्रधर्म का उपयोग कहीं नहीं गया है- केवल धर्म के साथ उसका असहयोग हो गया है।
प्रश्न 12.
(क) प्रस्तुत गद्यांश का उचित शीर्षक दीजिए।
(ख) क्षात्रधर्म क्या है ? उसमें कर्म सौन्दर्य कितने रूपों में दिखाई देता है ?
(ग) ‘वणिग्धर्म’ किसको कहा गया है तथा क्यों ?
(घ) व्यापकता’ शब्द में कौन-सा प्रत्यय है? इस प्रत्यय से बना एक अन्य शब्द लिखिए।
उत्तर:
(क) गद्यांश को उचित शीर्षक-‘क्षत्रिय धर्म और लोकरक्षा’।
(ख) क्षत्रिय का कर्तव्य ही क्षात्रधर्म है। सज्जनों की रक्षा और दुष्टों का दमन क्षत्रिय के प्रमुख कर्तव्य हैं। शक्ति के साथ क्षमा, वैभव के साथ विनय, पराक्रम के साथ सुन्दर रूप, तेज के साथ कोमलता, सुखभोग के साथ दु:खियों से सहानुभूति, प्रताप के साथ धर्म पथ का अवलम्बन आदि कर्म सौन्दर्य के रूप क्षात्रधर्म में दिखाई देते हैं।
(ग) व्यापारी के काम को वणिग्धर्म कहा गया है। इसमें धनोपार्जन मुख्य है। आज लोगों का ध्यान मानवीयता के स्थान पर धन कमाने में लगा हुआ है।
(घ) ‘व्यापकत्व’ में ‘तत्व’ प्रत्यय है। ‘त्व’ प्रत्यय से निर्मित अन्य शब्द-पुरुषत्व है।
(13) बदलते सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक परिवेश में मानव स्वाभाविकता से कटकर कृत्रिमता और आडम्बरों की भीड़ में खोता जा रहा है। वास्तविकता को छिपाकर सुसभ्यता और सुसंस्कृति के नाम पर झूठे दिखावों और ढोंगों को पालता जा रहा है। जटिल परिवेश में लोकजीवन की सरस अभिव्यक्ति को ढूंढ़ पाना असंभव नहीं, तो दुष्कर मात्र बन गया है। महानगरों में रहने पर आदमी अपने को अकेला, छोटा, खोया हुआ, रुग्ण, असहाय और अपरिचित महसूस कर रहा है। ‘‘जितना बड़ा नगर उतना ही असहाय-पराश्रित, सोने-जगने, बैठने-उठने, आने-जाने, हँसने-रोने, हर स्थिति में एक मशीनी व्यवस्था द्वारा संचालित। यह नागरिक जीवन का अभिशाप है।” सर्वत्र मनुष्य स्वच्छन्द होता जा रहा है। मानवीय व्यवहार में अकल्पनीय परिवर्तन हुआ है। जिनसे आदर्श की अपेक्षा करें वे ही आपत्तिजनक आचरण करते नजर आ रहे हैं। संयुक्त परिवार आधुनिकता की बलि चढ़ गया तो उत्तर आधुनिकता ने एकल परिवार पर प्रश्नचिह्न लगा दिया है। मूल्यों के ह्रास का ग्राफ गिरता जा रहा है। उपभोक्तावाद ने सामाजिक मूल्य का चोला ग्रहण किया है। भ्रष्टाचार ही शिष्टाचार बन गया है। भौतिकता अब प्रतिष्ठा की बात बन गई है। उच्चवर्ग का एक तबका दोगला व्यवहार कर रहा है। वह मंच पर हमारे अतीत के गौरव का गान करता है और आचरण में अमरीकी संस्कृति का आचरण करता है। एक तबका तो पूर्णत: पाश्चात्य संस्कृति का दास बन गया है । इस वर्ग ने ‘भारत’ में अपने लिए ‘इंडिया’ का निर्माण किया है।
प्रश्न 13.
(क) गद्यांश का उचित शीर्षक दीजिए।
(ख) आज मानव-समाज में लोकजीवन की सरस अभिव्यक्ति को ढूंढना कठिन क्यों हो गया है?
(ग) बदलते परिवेश का परिवार नामक संस्था पर क्या प्रभाव पड़ा है?
(घ) विलोम शब्द लिखिए-(i) संयुक्त, (ii) अतीत, (iii) उच्च, (iv) पाश्चात्य।
उत्तर:
(क) गद्यांश की उचित शीर्षक – ‘भारतीय सभ्यता पर पश्चिम का दुष्प्रभाव’।
(ख) लोगों के सीधे-सच्चे आचरण में सरसता व्यक्त होती है। आज सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक परिवेश बदल गया है। मनुष्य वास्तविकता को छिपाकर झूठा दिखावा कर रहा है। इसे बनावटी व्यवहार में मधुरता और सरसता का भारी अभाव हो गया है।
(ग) बदलते परिवेश से परिवार नामक संस्था भी प्रभावित हुई है। आधुनिकता के प्रभाव से संयुक्त परिवार तो मिट ही गए हैं। अब तो एकल परिवार का अस्तित्व भी खतरे में है।
(घ) विलोम शब्द – (i) संयुक्त-एकल, (ii) अतीत-वर्तमान, (iii) उच्च-निम्न, (iv) पाश्चात्य-पौर्वात्य।
(14) कर्तव्य-पालन और सत्यता में बड़ा घनिष्ठ सम्बन्ध है। जो मनुष्य अपना कर्तव्य-पालन करता है, वह अपने कामों और वचनों में सत्यता का बर्ताव भी रखता है। वह ठीक समय पर उचित रीति से अच्छे कामों को करता है । सत्यता ही एक ऐसी वस्तु है, जिससे इस संसार में मनुष्य अपने कार्यों में सफलता पा सकता है, क्योंकि संसार में कोई कार्य झूठ बोलने से नहीं चल सकता। यदि किसी के घर सब लोग झूठ बोलने लगे तो उस घर में कोई कार्य न हो सकेगा और सब लोग बड़ा दु:ख भोगेंगे । इसलिए हम लोगों को अपने कार्यों में झूठ का बर्ताव नहीं करना चाहिए। अतएव सत्यता को सबसे ऊँचा स्थान देना उचित है। संसार में जितने पाप हैं, झूठ उन सबों से बुरा है । झूठे की उत्पत्ति पाप, कुटिलता और कायरता के कारण होती है। बहुत-से लोग सच्चाई का इतना थोड़ा ध्यान रखते हैं कि अपने सेवकों को स्वयं झूठ बोलना सिखाते हैं। पर उनको इस बात पर आश्चर्य करना और क्रुद्ध न होना चाहिए, जब उनके नौकर भी उनसे अपने लिए झूठ बोलें।
बहुत-से लोग नीति और आवश्यकता के बहाने झूठ की रक्षा करते हैं। वे कहते हैं कि इस समय इस बात को प्रकाशित न करना और दूसरी बात को बनाकर कहना, नीति के अनुसार समयानुकूल और परम आवश्यक है। फिर बहुत-से लोग किसी बात को ‘सत्य-सत्य’ कहते हैं कि जिससे सुनने वाला यह समझे कि यह बात सत्य नहीं, वरन् इसका जो उल्टा है वही सत्य होगा। इस प्रकार से बातों का कहना झूठ बोलने के पाप से किसी प्रकार कम नहीं है।
संसार में बहुत-से ऐसे भी नीच और कुत्सिते लोग होते हैं, जो झूठ बोलने में अपनी चतुराई समझते हैं और सत्य को छिपाकर धोखा देने या झूठ बोलकर अपने को बचा लेने में अपना परम गौरव मानते हैं । ऐसे लोग ही समाज को नष्ट करके दु:ख और सन्ताप के फैलाने के मुख्य कारण होते हैं । इस प्रकार झूठ बोलना स्पष्ट न बोलने से अधिक निन्दित और कुत्सित कर्म है।
प्रश्न 14.
(क) प्रस्तुत गद्यांश का उचित शीर्षक लिखिए।
(ख) कर्तव्य-पालन करने वाले मनुष्य का मृत्यु के प्रति कैसा दृष्टिकोण होता है?
(ग) नीति और आवश्यकता के बहाने झूठ की रक्षा कैसे की जाती है?
(घ) ‘समयानुकूल’ शब्द में सन्धि-विच्छेद कीजिए और संधि का नाम लिखिए।
उत्तर:
(क) गद्यांश का उचित शीर्षक-‘जीवन में सत्य का महत्त्व’।
(ख) कर्तव्य-पालन करने वाले मनुष्य अपने जीवन तथा कार्यों में सत्य का व्यवहार करते हैं। कोई भी कार्य सत्य के बिना ठीक तरह नहीं हो सकता। कर्तव्य पालन और सत्यता में गहरा सम्बन्ध है। वे सत्य पर चलकर ही अपना कर्तव्य सफलतापूर्वक निभाते हैं।
(ग) कुछ लोग झूठ बोलते हैं तो कहते हैं कि इस समय झूठ बोलना नीति के अनुसार है अथवा इस समय झूठ बोलने की आवश्यकता है। इस प्रकार के झूठ बोलने को सही ठहराते हैं।
(घ) शब्द-समयानुकूल। सन्धि-विच्छेद = समय+अनुकूल। सन्धि का नाम-दीर्घ (स्वर) सन्धि।
(15) मानव जीवन का सर्वतोन्मुखी विकास ही शिक्षा का उद्देश्य है। मनुष्य के व्यक्तित्व में अनेक प्रकार की शक्तियाँ अन्तर्निहित रहती हैं, शिक्षा इन्हीं शक्तियों का उद्घाटन करती है। मानवीय व्यक्तित्व को पूर्णता प्रदान करने का कार्य शिक्षा द्वारा ही सम्पन्न होता है। सृष्टि के प्रारम्भ से लेकर आज तक मानव ने जो प्रगति की है, उसका सर्वाधिक श्रेय मनुष्य की ज्ञान-चेतना को ही दिया जा सकता है। मनुष्य में ज्ञान-चेतना का उदय शिक्षा द्वारा ही होता है। बिना शिक्षा के मनुष्य का जीवन पशु-तुल्य होता है। शिक्षा ही अज्ञानरूपी अंधकार से मुक्ति दिलाकर ज्ञान का दिव्य आलोक प्रदान करती है।
प्रश्न 15.
(क) शिक्षा का उद्देश्य किसे बताया गया है और क्यों?
(ख) “विद्या मनुष्य को अज्ञान के बन्धन से मुक्त करती है।’ यह किस प्रकार का वाक्य है? प्रकार बताते हुए परिभाषा भी लिखें।
(ग) “मानवीय’ शब्द में मूल शब्द व प्रत्यय बताइए।
(घ) अपठित गद्यांश का उचित शीर्षक लिखिए।
उत्तर:
(क) मनुष्य के जीवन को हर प्रकार से विकसित करना ही शिक्षा का उद्देश्य बताया गया है। मनुष्य के व्यक्तित्व में छिपी शक्तियों को शिक्षा उद्घाटित करती है और उसे विकास के योग्य बनाती है।
(ख) यह एक साधारण वाक्य है। जिस वाक्य में केवल एक क्रिया और एक ही कर्ता होता है, उसे साधारण वाक्य कहते हैं।
(ग) ‘मानवीय’ शब्द में मूल शब्द ‘मानव’ है। इसमें ‘ईय’ प्रत्यय जोड़कर मानवीय शब्द बना है।
(घ) गद्यांश का उचित शीर्षक ‘शिक्षा का महत्व’ हो सकता है।
(16) धर्म का वास्तविक गुण तब प्रकट होता है जब हम जीवन का सत्य जानने के लिए और इस दुनिया की दया और क्षमा योग्य वस्तुओं में वृद्धि के लिए निरन्तर खोज करते हैं और सतत् अनुसन्धान करते हैं। अनुसन्धान या खोज की लगन और उन उद्देश्यों का विस्तार जिन्हें हम प्रेम अर्पण करते हैं-ये वास्तविक रूप में आध्यात्मिक मनुष्य के दो पक्ष होते हैं। हमें सत्य की खोज तब तक करते रहना चाहिए जब तक करते रहना चाहिए जब तक हम उसे पा न लें और उससे हमारा साक्षात्कार न हो। जो कुछ भी हो, मनुष्य में वही तत्त्व मौजूद हैं, अत: वह हमारे प्यार और हमारी सद्भावना का अधिकारी है। समाज और सारी सभ्यता केवल इस बात का प्रयास है कि मनुष्य आपस में सद्भाव के साथ रह सकें। हम इस प्रयास को तब तक बनाए रखते हैं। जब तक सारी दुनिया हमारा अपना परिवार न बन जाए।
प्रश्न 16.
(क) धर्म का वास्तविक गुण कब प्रकट होता है ?
(ख) आध्यात्मिक मनुष्य के दो पक्ष कौन-से हैं ?
(ग) हर मनुष्य में कौन-सा तत्त्व मौजूद है ?
(घ) मनुष्यों को आपस में सद्भाव का प्रयास कब तक करते रहना चाहिए ?।
उत्तर:
(क) धर्म का वास्तविक गुण उस समय प्रकट होता है जब हम जीवन का सत्य जानने के लिए तथा इस संसार की दया और क्षमा योग्य वस्तुओं की वृद्धि करने के लिए निरन्तर खोज करते हैं। निरन्तर अनुसंधान में लगे रहकर ही हम धर्म के वास्तविक गुण को जान पाते हैं।
(ख) आध्यात्मिक मनुष्य के निम्नलिखित दो पक्ष होते हैं –
(i) अनुसंधान अथवा खोज करने की लगन होना।
(ii) उन उद्देश्यों का विस्तार जिनके प्रति हमारे मन में गहरा प्रेम होता है।
(ग) प्रत्येक मनुष्य में सत्य को पाने की लालसा अथवा सत्य के साथ साक्षात्कर की इच्छा रहती है।
(घ) सभी मनुष्यों को आपस में सद्भाव के साथ रहने का प्रयासे उस समय तक करते रहना चाहिए जब तक कि सारी दुनिया उसका परिवार न बन जाय। आशय यह है कि मन में विश्व-बंधुत्व’ और ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ का भाव पैदा न हो तब तक हमको सबके साथ सद्भाव रखने का अभ्यास करना चाहिए।
(17) गाँधीजी के अनुसार शिक्षा, शरीर, मस्तिष्क और आत्मा का विकास करने का माध्यम है। वे बुनियादी शिक्षा के पक्षधर थे। उनके अनुसार प्रत्येक बच्चे को अपनी मातृभाषा की नि:शुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा मिलनी चाहिए, जो उसके आस-पास की जिन्दगी पर आधारित हो; हस्तकला एवं काम के जरिए दी जाए; रोजगार दिलाने के लिए बच्चे को आत्मनिर्भर बनाए तथा नैतिक एवं आध्यात्मिक मूल्यों का विकास करने वाली हो । गाँधीजी के उक्त विचारों से स्पष्ट है कि वे व्यक्ति और समाज के सम्पूर्ण जीवन पर अपनी मौलिक दृष्टि रखते थे तथा उन्होंने अपने जीवन में सामाजिक एवं राजनीतिक आंदोलनों में भाग लेकर भारतीय समाज एवं राजनीति में इन मूल्यों को स्थापित करने की कोशिश की। गाँधीजी की सारी सोच भारतीय परम्परा की सोच है तथा उनके दिखाए मार्ग को अपनाकर प्रत्येक व्यक्ति और सम्पूर्ण राष्ट्र वास्तविक स्वतंत्रता, सामाजिक सद्भाव एवं सामुदायिक विकास को प्राप्त कर सकता है। भारतीय समाज जब-जब भटकेगा तब-तब गाँधीजी उसका मार्गदर्शन करने में सक्षम रहेंगे।
प्रश्न 17.
(क) गाँधीजी के अनुसार प्रत्येक बच्चे को किस प्रकार की शिक्षा दी जानी चाहिए ?
(ख) ‘गाँधीजी के उक्त विचारों से स्पष्ट है कि वे व्यक्ति और समाज के सम्पूर्ण जीवन पर अपनी मौलिक दृष्टि रखते थे’–यह किस प्रकार का वाक्य है, बताते हुए परिभाषा भी लिखें।
(ग) “सामाजिक’ शब्द के मूल शब्द तथा प्रत्यय बताइए।
(घ) उपर्युक्त गद्यांश की उचित शीर्षक लिखिए।
उत्तर:
(क) गाँधीजी के अनुसार प्रत्येक बच्चे को अपनी मातृभाषा की नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा दी जानी चाहिए। यह शिक्षा ऐसी होनी चाहिए जो उसका शारीरिक, मानसिक और आत्मिक विकास कर सके तथा उसको भावी जीवन में रोजगार दिलाकर आत्मनिर्भर बनाने तथा नैतिकता और आध्यात्मिकता का ज्ञान करा सके।
(ख) ‘गाँधीजी के ….. रखते थे’-मिश्रित वाक्य है। जिस वाक्य में एक प्रधान उपवाक्य होता है तथा अन्य उपवाक्य उसके आश्रित होते हैं उसे मिश्रित वाक्य कहते हैं।
(ग) ‘सामाजिक’ शब्द मूल शब्द ‘समाज’ में ‘इक’ प्रत्यय जोड़ने से बना है।
(घ) गद्यांश का उचित शीर्षक-‘गाँधीजी और बुनियादी शिक्षा’।
(18) देश की सर्वागीण उन्नति एवं विकास के लिए देशवासियों में स्वदेश-प्रेम का होना परमावश्यक है। जिस देश के नागरिकों में देशहित एवं राष्ट्र कल्याण की भावना रहती है, वह देश उन्नतिशील होता है। देशप्रेम के पूत भाव से मण्डित व्यक्ति देशवासियों की हित साधना में, देशोद्धार में तथा राष्ट्रीय प्रगति में अपना जीवन तक न्योछावर कर देता है। हम अपने देश के इतिहास पर दृष्टिपात करें, तो ऐसे देशभक्तों की लम्बी परम्परा मिलती है, जिन्होंने अपना सर्वस्व समर्पण करके स्वदेश-प्रेम का अद्भुत परिचय दिया है। महाराणा प्रताप, वीर शिवाजी, सरदार भगत सिंह, महारानी लक्ष्मीबाई, लोकमान्य तिलक, महात्मा गाँधी आदि सहस्रों देश-भक्तों के नाम इस दृष्टि से लिए जाते हैं। हमें अपने देश के इतिहास से देशप्रेम की एक गौरवपूर्ण परम्परा मिलती है और इससे हम देश-हितार्थ सर्वस्व न्योछावर करने की प्रेरणा प्राप्त करते हैं।
प्रश्न 18.
(अ) उपर्युक्त गद्यांश का उचित शीर्षक दीजिए।
(ब) लेखक के अनुसार कौन-सा देश उन्नतिशील होता है?
(स) ‘हमें अपने देश के इतिहास से देशप्रेम की एक गौरवपूर्ण परम्परा मिलती है और इससे हम देशहितार्थ सर्वस्व न्योछावर करने की प्रेरणा प्राप्त करते हैं।’ यह किस प्रकार का वाक्य है, बताते हुए परिभाषा भी लिखें।
(द) ‘स्वदेश’ शब्द में मूल शब्द व उपसर्ग बताइए।
उत्तर:
(अ) गद्यांश का उचित शीर्षक…… नागरिक और देशप्रेम।’
(ब) जिस देश के नागरिक अपने देश के हित तथा राष्ट्र की भलाई की चिन्ता करते हैं, वही देश उन्नतिशील होता है।
(स) ‘हमें देश के इतिहास….. प्राप्त करते हैं’-यह संयुक्त वाक्य है। परिभाषा-जिस वाक्य में दो प्रधान उपवाक्य होते हैं तथा वे किसी योजक (जैसे, और, तथा, किन्तु इत्यादि) से जुड़े होते हैं, उसको संयुक्त वाक्य कहते हैं।
(द) ‘स्वदेश’ शब्द में ‘देश’ मूल शब्द है तथा इससे पूर्व ‘स्व’ उपसर्ग जुड़ा है।
(19) भिखारी की भाँति गिड़गिड़ाना प्रेम की भाषा नहीं है। यहाँ तक कि मुक्ति के लिए भगवान की उपासना करना भी अधम उपासना में गिना जाता है। प्रेम कोई पुरस्कार नहीं चाहता। प्रेम में आतुरता नहीं होती। प्रेम सर्वथा प्रेम के लिए ही होता है। भक्त इसलिए प्रेम करता है कि बिना प्रेम किए वह रह ही नहीं सकता। जब हम किसी प्राकृतिक दृश्य को देखकर उस पर मुग्ध हो जाते हैं तो उस दृश्य से हम किसी फल की याचना नहीं करते और न वह दृश्य ही हमसे कुछ चाहता है; तो भी वह दृश्य हमें बड़ा आनन्द देता है। वह हमारे मन को पुलकित और शान्त कर देता है और हमें साधारण सांसारिकता से ऊपर उठाकर एक स्वर्गीय आनन्द से सराबोर कर देता है। इसलिए प्रेम के बदले कुछ माँगना प्रेम का अपमान करना है। प्रेम करना नंगी तलवार की धार पर चलने जैसा है क्योंकि स्वार्थ के लिए, दिखाने के लिए तो सभी प्रेम करते हैं, उसे निभाते नहीं। वे पाना चाहते हैं, देना नहीं । वे वस्तुत: प्रेम शब्द को कलंकित करते हैं।
प्रश्न 19.
(क) मुक्ति के लिए भगवान की उपासना करना कैसी उपासना है तथा क्यों?
(ख) प्रेम करना नंगी तलवार की धार पर चलने के समान क्यों है?
(ग) उपर्युक्त गद्यांश के लिए एक उचित शीर्षक लिखिए।
(घ) “वे वस्तुतः प्रेम शब्द को कलंकित करते हैं’ -रेखांकित शब्द को संज्ञा में बदलकर अपने वाक्य में प्रयोग कीजिए।
उत्तर:
(क) मुक्ति के लिए भगवान की उपासना करना अधम उपासना है, क्योंकि इस उपासना में उपासक का स्वार्थ निहित है और वह बदले में पुरस्कार चाहता है। सच्चा प्रेम नि:स्वार्थ होता है तथा बदले में कुछ नहीं चाहता।
(ख) प्रेम में त्याग भाव का होना आवश्यक है। उसमें प्रेम करने वाले को अपना सब कुछ दूसरे के हित में समर्पित करना होता है। सच्चा प्रेम अपनी नहीं दूसरे की भलाई चाहता है अपना सुख छोड़कर दूसरे का सुख चाहना अत्यन्त कठिन काम है। अत: प्रेम करना नंगी तलवार की धार पर चलने के समान है।
(ग) गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक-‘सच्चा प्रेम।’
(घ) “कलंकित’ शब्द से बनने वाली संज्ञा है–कलंक। वाक्य प्रयोग-स्वार्थ की भावना से सच्चे प्रेम को कलंक लग जाता है।
(20) स्वास्थ्य सभी जीवधारियों के आनन्दमय जीवन की कुंजी है; क्योंकि स्वास्थ्य के बिना जीवधारियों की समस्त क्रियाएँ प्रक्रियाएँ रुक जाती हैं, शिथिल हो जाती हैं। जीवन को जल भी इसीलिए कहा जाता है। जिस प्रकार रुका जल सड़ जाता है, दुर्गन्धयुक्त हो जाता है, ठीक इसी प्रकार शिथिल और कर्महीन जीवन से स्वास्थ्य खो जाता है। स्वास्थ्य और खेल-कूद का परस्पर गहरा सम्बन्ध है। पशु-पक्षी हों या मनुष्य, जो खेलता-कूदता नहीं, वह उत्फुल्ल और प्रसन्न रह ही नहीं सकता। जब हम खेलते हैं तो हम में नया प्राणावेग, नई स्फूर्ति। और नई चेतना आ जाती है। हम देखते हैं कि हवा के झोंके एक-दूसरे का पीछा करते हुए दूर-दूर तक दौड़ते हैं, वृक्षों की शाखाओं को हिला-हिलाकर अठखेलियाँ करते हैं। आकाश में उड़ते पक्षी तरह-तरह की क्रीड़ाएँ करते हैं। हमें भी जीवन-जगत् से प्रेरणा लेते हुए खुले मन से खेल-कूद में भाग लेना चाहिए।
प्रश्न 20.
(क) जीवन को जल क्यों कहा गया है?
(ख) स्वस्थ जीवन के लिए खेलकूद क्यों आवश्यक है?
(ग) इस गद्यांश का एक उचित शीर्षक लिखिए।
(घ) प्रश्नवाचक वाक्य में रूपान्तरित कीजिए-स्वास्थ्य सभी जीवधारियों के आनन्दमय जीवन की कुंजी है।
उत्तर:
(क) जल को जीवन इसलिये कहा गया है, क्योंकि जैसे प्रवाह रुकने पर जल सड़ जाता है, वैसे ही अकर्मण्य जीवन भी मनुष्य को अस्वस्थ बना देता है। स्वास्थ्य नष्ट होने पर मनुष्य की सभी क्रियाएँ रुक जाती हैं और वह जीवन का आनन्द नहीं ले पाता है।
(ख) स्वस्थ जीवन के लिए खेलकूद आवश्यक है। पशु-पक्षी या मनुष्य जो खेलता-कूदता नहीं, वह प्रसन्न नहीं रह सकता। खेलने से मनुष्य में नई चेतना, नई स्फूर्ति तथा नये प्राणावेग आते हैं। प्रकृति में सभी प्राणी खेलकूद में भाग लेते हैं।
(ग) गद्यांश का उचित शीर्षक-‘जीवन की कुंजी-स्वास्थ्य’!
(घ) प्रश्नवाचक वाक्य-जीवधारियों के आनंदमय जीवन की कुंजी क्या है?
(21) जिन्दगी को ठीक से जीना हमेशा ही जोखिम झेलना है और जो आदमी सकुशल जीने के लिए जोखिम का हर जगह एक घेरा डालता है, वह अंतत: अपने ही घेरों के बीच कैद हो जाता है और जिन्दगी का कोई मजा उसे नहीं मिल पाता; क्योंकि जोखिम से बचने की कोशिश में, असल में उसने जिन्दगी को ही आने से रोक रखा है। जिन्दगी से अन्त में हम उतना ही पाते हैं जितनी कि उसमें पूँजी लगाते हैं। यह पूँजी लगाना जिन्दगी के संकटों का सामना करना है, उसके उस पन्ने को उलटकर पढ़ना है जिसके सभी अक्षर फूलों से नहीं, कुछ अंगारों से भी लिखे गए हैं। जिन्दगी का भेद कुछ उसे ही मालूम है जो यह जानकर चलता है कि जिन्दगी कभी न खत्म होने वाली चीज है।
अरे ! ओ जीवन के साधको! अगर किनारे की मरी हुई सीपियों से ही तुम्हें सन्तोष हो जाए तो समुद्र के अन्तराल में छिपे हुए मौक्तिक-कोष को कौन बाहर लाएगा ? कामना का अंचल छोटा मत करो, जिन्दगी के फल को दोनों हाथों से दबाकर निचोड़ो, रस की निर्झरी तुम्हारे बहाए भी बह सकती है।
प्रश्न 21.
(क) जिन्दगी को ठीक से जीने का क्या उपाय है?
(ख) आशय स्पष्ट कीजिए-‘जिन्दगी से अन्त में हम उतना ही पाते हैं जितनी कि उसमें पूँजी लगाते हैं।’
(ग) “कभी न खत्म होने वाली (चीज)’ के अर्थ को प्रकट करने के लिए एक शब्द लिखिए।
(घ) उपर्युक्त गद्यांश के लिए एक उचित शीर्षक लिखिए।
उत्तर:
(क) जिन्दगी को ठीक से जीना जीवन का सच्चा सुख प्राप्त करना है। इसका उपाय जीवन में जोखिम उठाना है। जीवन में आने वाले संकटों का साहस के साथ सामना करके ही जीवन का सुख प्राप्त किया जा सकता है।
(ख) ‘जिन्दगी से अन्त में हम उतना ही पाते हैं जितनी कि उसमें पूँजी लगाते हैं।’ इस वाक्य का आशय यह है कि अपने जीवन में अच्छा या बुरा जैसा कर्म करते हैं, आलस्य में समय नष्ट करते हैं या कठोर परिश्रम करते हैं, वैसा ही फल अपने जीवन में हम पाते हैं। व्यापारी अपने व्यापार में जितनी अधिक पूँजी लगाता है, उतना ही अधिक लाभ वह कमाता है। हमारे कार्य ही जीवन के व्यापार की पूँजी हैं।
(ग) ‘कभी न खत्म होने वाली (चीज)’ के लिए एक शब्द है-अनन्त।
(घ) गद्यांश का उचित शीर्षक-‘जोखिम भरी जिन्दगी’।
(22) बौद्ध-युग अनेकदृष्टियों से आज के आधुनिकता-आन्दोलन के समान था। ब्राह्मणों की श्रेष्ठता के विरुद्ध बुद्ध ने विद्रोह का प्रचार किया था, जाति-प्रथा के बुद्ध विरोधी थे और मनुष्य को वे जन्मना नहीं, कर्मणा श्रेष्ठ या अधम मानते थे। नारियों को भिक्षुणी होने का अधिकार देकर उन्होंने यह बताया था कि मोक्ष केवल पुरुषों के ही निमित्त नहीं है, उसकी अधिकारिणी नारियाँ भी हो सकती हैं। बुद्ध की ये सारी बातें भारत को याद रही हैं और बुद्ध के समय से बराबर इस देश में ऐसे लोग उत्पन्न होते रहे हैं, जो जाति-प्रथा के विरोधी थे, जो मनुष्य को जन्मना नहीं, कर्मणा श्रेष्ठ या अधम समझते थे, किन्तु बुद्ध में आधुनिकता से बेमेल बात यह थी कि वे निवृत्तिवादी थे, गृहस्थी के कर्म से वे भिक्षु-धर्म को श्रेष्ठ समझते थे। उनकी प्रेरणा से देश के हजारों-लाखों युवक, जो उत्पादन बढ़ाकर समाज का भरण-पोषण करने के लायक थे, संन्यासी हो गए। संन्यास की संस्था समाज-विरोधिनी संस्था है।
प्रश्न 22.
(क) बौद्ध-युग किन बातों में आधुनिकता आन्दोलन के समान था?
(ख) संन्यास को समाज विरोधी कहने का क्या कारण है?
(ग) इस गद्यांश का एक उचित शीर्षक लिखिए।
(घ) “श्रेष्ठता’ तथा आधुनिकता’ में कौन-सा प्रत्यय जुड़ा है? इसे हटाकर बनने वाले शब्द व्याकरण की दृष्टि से कैसे शब्द हैं?
उत्तर :
(क) बौद्ध युग निम्नलिखित बातों में आधुनिकता आन्दोलन के समान है, क्योंकि-
- वह ब्राह्मणों की श्रेष्ठता के विरुद्ध है।
- बौद्ध युग में जाति-प्रथा की मान्यता नहीं है।
- मनुष्य को जन्म से नहीं कर्म से श्रेष्ठ या अधम माना जाता है।
- स्त्रियों को भी पुरुषों के समान माना गया है। उनको भी मुक्ति के लिए भिक्षुणी होने का अधिकार है।
(ख) संन्यास को समाज-विरोधी संस्था कहा गया है, क्योंकि हजारों-लाखों युवक जो श्रम करके समाजोपयोगी तथा हितकर कार्य कर सकते हैं, खेतों तथा कारखानों में उत्पादन बढ़ाकर लोगों का भरण-पोषण कर सकते हैं, वे संन्यासी बनकर समाज के लिए अनुपयोगी तथा भारस्वरूप हो जाते हैं। संन्यास से व्यक्ति का हित हो सकता है परन्तु समाज का कोई हित नहीं होता।
(ग) उचित शीर्षक-‘बौद्ध-धर्म और आधुनिकतावाद।
(घ) ‘श्रेष्ठता’ तथा ‘आधुनिकता’ में तल् (ता) प्रत्यय जुड़ा है। इसको हटाने पर क्रमश:’ श्रेष्ठ’ तथा ‘आधुनिक’ शब्द बनते हैं। ये दोनों शब्द व्याकरण की दृष्टि से विशेषण हैं।
(23) आजकल विचारकों का ध्यान इस सवाल की ओर बार-बार जाता है कि आज से सौ–पचास वर्ष बाद भारत का रूप क्या होने वाली है? क्या वह ऐसा भारत होगा, जिसे विवेकानन्द और गाँधी पहचान सकेंगे अथवा बदलकर वह पूरा-का-पूरा अमेरिका और यूरोप बने जाएगा? पिछले सौ-डेढ़ सौ वर्षों से भारत आधुनिकता की ओर बढ़ता जा रहा है? लेकिन समझा यह जाता है कि भारत अब भी आधुनिक देश नहीं है। वह मध्यकालीनता से आच्छन्न है। स्वतन्त्रता के बाद से आधुनिकता का प्रश्न अत्यन्त प्रखर हो रहा है, क्योंकि चिन्तक यह मानते हैं कि हमने अगर आधुनिकता का वरण शीघ्रता के साथ नहीं किया, तो हमारा भविष्य अंधकारपूर्ण हो जाएगा। अतएव यह प्रश्न विचारणीय है कि आधुनिक बनने पर भारत का कौन-सा रूप बचने वाला है और कौन मिट जाने वाला है।
नैतिकता, सौन्दर्य-बोध और अध्यात्म के समान आधुनिकता का कोई शाश्वत मूल्य नहीं है। सच पूछिए तो वह मूल्य है ही नहीं, वह केवल समय-सापेक्ष धर्म है। नवीन युग समय-समय पर आते ही रहते हैं और जैसे आज के नए जमाने पर आज के लोगों को गर्व है, उसी तरह हर जमाने के लोग अपने जमाने पर गर्व करते रहे हैं। संसार का कोई भी समाज किसी भी समय इतना स्वाभाविक नहीं रहा कि हर आदमी को पसन्द हो और कोई समाज ऐसा भी नहीं बना है जिसके बाद का काल उसका आलोचक न रहा हो।
प्रश्न 23.
(क) आजकल विचारकों का ध्यान किस ओर बार-बार जाता है?
(ख) आधुनिकता के सम्बन्ध में लेखक का क्या मत है?
(ग) उपर्युक्त गद्यांश का एक उचित शीर्षक लिखिए।
(घ) “विचारणीय’ में कौन-सा प्रत्यय जुड़ा है? इस प्रत्यय से दो नये शब्द बनाइए।
उत्तर:
(क) आजकल विचारकों का ध्यान बार-बार इस सवाल की ओर जाता है कि सौ-पचास सालों बाद भारत का रूप कैसा होने वाला है? क्या उसका रूप ऐसा होगा कि उसे गाँधी और विवेकानन्द पहचान सकेंगे अथवा वह बदलकर पूरी तरह यूरोप या अमेरिका बन जायेगा?
(ख) लेखक का मत है कि आधुनिकता का नैतिकता, सौन्दर्य-बोध तथा अध्यात्म की भाँति कोई शाश्वत मूल्य नहीं है। सच में तो आधुनिकता का कोई मूल्य ही नहीं है। वह तो एक समय-सापेक्ष धर्म है। प्रत्येक युग अपने समय में आधुनिक होता है तथा उस समय के कुछ लोग उस पर गर्व करते हैं तथा कुछ उससे असन्तुष्ट होते हैं और उसकी आलोचना करते हैं।
(ग) उचित शीर्षक-‘ भारत और आधुनिकता बोधे।
(घ) विचारणीय’ शब्द में ‘अनीयर्’ (अनीय) प्रत्यय जुड़ा है। इस प्रत्यय से निर्मित अन्य दो शब्द हैं-‘पठनीय’ तथा ‘कथनीय’।
(24) सांस्कृतिक दृष्टि से देखें तो सम्पूर्ण देश में एक अद्भुत समानता दिखाई पड़ती है। सारे देश में विभिन्न देवी-देवताओं के मन्दिर हैं। इन सबमें प्राय: एक-सी पूजा पद्धति चलती है। सभी धार्मिक लोगों में व्रत-त्योहारों को मनाने की एक-सी प्रवृत्ति है। वेद, रामायण और महाभारत आदि ग्रन्थों पर धार्मिक अनुष्ठान कर्म आया तो उसके भी अनुसरण पर सारे देश में विपुल साहित्य की रचना की गई। जब इस्लाम धर्म आया तो उसके भी अनुयायी सारे देश में फैल गए। इसी प्रकार ईसाई धर्मावलम्बी सम्पूर्ण देश में पाये जाते हैं। इससे सारा देश वस्तुत: एक ही सूत्र में बँधा हुआ है। भारतीय संस्कृति में ढले प्रत्येक व्यक्ति को अपनी पहचान है। इस पहचान के कारण इस देश के लोग एक-दूसरे से अपना भिन्न अस्तित्व रखते हैं। विभिन्न प्रकार के रहन-सहन तथा पहनावे के होने पर भी सारा देश वस्तुत: एक ही है। यह सांस्कृतिक एकता ही वस्तुत: इस देश की वह शक्ति है जिससे इतना बड़ा देश एक सूत्र में बँधा हुआ है। विविधता में एकता की इस विशेषता पर सभी भारतीय गर्व करते हैं तथा इस पर संसार दंगे है।
प्रश्न 24.
(क) भारत में सांस्कृतिक एकता किस रूप में दिखाई देती है?
(ख) भारत की किस विशेषता पर भारतीये गर्व करते हैं?
(ग) उपर्युक्त गद्यांश का उचित शीर्षक दीजिए।
(घ) ‘धर्मावलम्बी’ शब्द का क्या अर्थ है? ‘अवलम्बी’ शब्द जोड़कर एक अन्य शब्द बनाइए।
उत्तर:
(क) भारत में सांस्कृतिक एकता अनेक रूपों में दिखाई देती है। सारे देश में हिन्दू, सिख, ईसाई तथा मुस्लिम लोग मिलकर रहते हैं। एक-दूसरे के त्योहारों में भाग लेते हैं। सभी के उपासना स्थल सारे देश में विद्यमान हैं।
(ख) विविधता में एकता भारत की ऐसी विशेषता है, जिस पर हर भारतीय गर्व कर सकता है। संसार के अन्य देश भारत की इस विशेषता को देखकर चकित हो जाते हैं।
(ग) गद्यांश का उचित शीर्षक-विविधता में एकता हो सकता है।
(घ) धर्मावलम्बी शब्द का अर्थ है-किसी धर्म को मानने वाला।’ अवलम्बी’ शब्द जोड़कर बना अन्य शब्द है-स्वावलम्बी।
(25) कुछ लोगों को अपने चारों ओर बुराइयाँ देखने की आदत होती है। उन्हें हर अधिकारी भ्रष्ट, हर नेता बिका हुआ और हर आदमी चोर दिखाई पड़ता है। लोगों की ऐसी मन:स्थिति बनाने में मीडिया का भी हाथ है। माना कि बुराइयों को उजागर करना मीडिया की दायित्व है, पर उसे सनसनीखेज बनाकर 24 × 7 चैनलों में बार-बार प्रसारित कर उनकी चाहे दर्शक-संख्या (TRP) बढ़ती हो, आम आदमी इससे अधिक शंकालु हो जाता है और यह सामान्यीकरण कर डालता है कि सभी ऐसे हैं। आज भी सत्य और ईमानदारी का अस्तित्व है। ऐसे अधिकारी हैं जो अपने सिद्धान्तों को रोजी-रोटी से बड़ा मानते हैं। ऐसे नेता भी हैं जो अपने हित की अपेक्षा जनहित को महत्त्व देते हैं। वे मीडिया-प्रचार के आकांक्षी नहीं हैं। उन्हें कोई इनाम या प्रशंसा के सर्टीफिकेट नहीं चाहिए, क्योंकि उन्हें लगता है कि वे कोई विशेष बात नहीं कर रहे हैं बस कर्तव्यपालन कर रहे हैं। ऐसे कर्तव्यनिष्ठ नागरिकों से समाज बहुत कुछ सीखता है। आज विश्व में भारतीय बेईमानी या भ्रष्टाचार के लिए कम, अपनी निष्ठा, लगन और बुद्धि-पराक्रम के लिए अधिक जाने जाते हैं। विश्व में अग्रणी माने जाने वाले देश का राष्ट्रपति बार-बार कहता सुना जाता है कि हम भारतीयों-जैसे क्यों नहीं बन सकते और हम हैं कि अपने को ही कोसने पर तुले हैं। यदि यह सच है कि नागरिकों के चरित्र से समाज और देश का चरित्र बनता है, तो क्यों न हम अपनी मौन को सकारात्मक और चरित्र को बेदाग बनाए रखने की आदत डालें।
प्रश्न 25.
(क) उपर्युक्त गद्यांश के लिए एक उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
(ख) लोगों की सोच को बनाने-बदलने में मीडिया की क्या भूमिका है?
(ग) आज दुनिया में भारतीय किन गुणों के लिए जाने जाते हैं?
(घ) सरल वाक्य में बदलिए-ऐसे अधिकारी हैं जो अपने सिद्धान्तों को रोटी-रोजी से बड़ा मानते हैं।
उत्तर:
(क) गद्यांश का शीर्षक-‘चरित्रवान् नागरिक चरित्रवान् समाज।’
(ख) लोगों की सोच को बनाने और बदलने में मीडिया की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। मीडिया में किसी समाचार को बार-बार पढ़ने या देखने से लोग उससे अवश्य प्रभावित होते हैं। जनमत के निर्माण में मीडिया का विशेष योगदान होता है।
(ग) आज दुनिया में भारतीय बेईमानी और भ्रष्टाचार के लिए कम लेकिन अपनी निष्ठा, लगन और बुद्धिमत्ता के लिए अधिक जाने जाते हैं।
(घ) सरल वाक्य-अपने सिद्धान्तों को रोजी-रोटी से बड़ा मानने वाले अधिकारी भी हैं।
(26) आज भारतीय समाज में दहेज के नग्न नृत्य को देखकर किसी भी समाज और देश के हितैषी का हृदय लज्जा और दुःख से भर उठेगा। इस प्रथा से केवल व्यक्तिगत हानि हो, ऐसी बात नहीं। इससे समाज और राष्ट्र को महान हानि पहुँचती है। तड़क-भड़क, शान-शौकत के प्रति आकर्षण से धन का अपव्यय होता है। समाज की क्रियाशील और उत्पादक पूँजी व्यर्थ नष्ट होती है। जीवन में भ्रष्टाचार की वृद्धि होती है। नारी के सम्मान पर चोट होती है। आत्महत्या और आत्महीनता की भावनाएँ जन्म लेती हैं। परन्तु इस अभिशाप से मुक्ति का उपाय क्या है ? इसके दो पक्ष हैं-जनता और शासन। शासन कानून बनाकर इसे समाप्त कर सकता है और कर भी रहा है, किन्तु बिना जन-सहयोग के ये कानून प्रभावी नहीं हो सकते। इसके लिए महिला वर्ग को और कन्याओं को स्वयं संघर्षशील बनना होगा, स्वावलम्बिनी और स्वाभिमानिनी बनना होगा। ऐसे वरों का तिरस्कार करना होगा, जो उन्हें धन-प्राप्ति का साधन मात्र समझते हैं। इसके साथ ही धर्माचार्यों का भी दायित्व है कि वे अपने लोभ के कारण समाज को संकट में न डालें। अविवाहित कन्या के घर में रहने से मिलने वाला नरक, जीते-जी प्राप्त नरक से अच्छा रहेगा । हमारी कन्याएँ हमसे विद्रोह करें और हम मजबूरन सही रास्ते पर आयें, इससे तो यही अच्छा होगा कि हम पहले ही सँभल जायें।
प्रश्न 26.
(क) उपर्युक्त गद्यांश का उचित शीर्षक लिखिए।
(ख) दहेज प्रथा के व्यक्ति और समाज पर क्या कुप्रभाव होते हैं ?
(ग) दहेज प्रथा की समाप्ति के लिए महिलाओं और कन्याओं को क्या करना होगा?
(घ) अविवाहित शब्द में मूल शब्द तथा उपसर्ग और प्रत्यये अलग करके लिखिए।
उत्तर:
(क) गद्यांश का शीर्षक-‘दहेज-प्रथा का दोष’।
(ख) दहेज-प्रथा से व्यक्ति का जीवन दुश्चिंता, अपमान और तनाव से भर जाता है। सामाजिक जीवन में धन के दुरुपयोग, भ्रष्टाचार और असमानता की समस्यायें पनपती हैं।
(ग) दहेज-प्रथा की समाप्ति के लिए महिलाओं और कन्याओं को संघर्षशील, स्वावलम्बी और स्वाभिमानी बनना होगा। उन्हें दहेज-लोभियों का तिरस्कार और बहिष्कार करना होगा।
(घ) मूलशब्द-विवाह, उपसर्ग-अ, प्रत्यय, इत।
(27) महाराणा प्रताप जंगल-जंगल मारे फिरते थे, अपनी स्त्री और बच्चों को भूख से तड़पते देखते थे, परन्तु उन्होंने उन लोगों की बात न मानी जिन्होंने उन्हें अधीनतापूर्वक जीते रहने की सम्मति दी, क्योंकि वे जानते थे कि अपनी मर्यादा की चिन्ता जितनी स्वयं को हो सकती है, उतनी दूसरे को नहीं। एक बार एक रोमन राजनीतिज्ञ, बलवाइयों के हाथ में पड़ गया। बलवाइयों ने उससे व्यंग्यपूर्वक पूछा, “अब तेरा किला कहाँ है?” उसने हृदय पर हाथ रखकर उत्तर दिया, “यहाँ ।” ज्ञान के जिज्ञासुओं के लिए यही बड़ा भारी गढ़ है। मैं निश्चयपूर्वक कहता हूँ कि जो युवा पुरुष सब बातों में दूसरों का सहारा चाहते हैं, जो सदा एक-न-एक नया अगुआ ढूँढ़ा करते हैं और इनके अनुयायी बना करते हैं, वे आत्म-संस्कार के कार्य में उन्नति नहीं कर सकते। उन्हें स्वयं विचार करना, अपनी सम्मति आप स्थिर करना, दूसरों को उचित बातों का मूल्य समझते हुए भी उनका अंधभक्त न होना सीखना चाहिए। तुलसीदास जी को लोक में इतनी सर्वप्रियता और कीर्ति प्राप्त हुई, उनका दीर्घ जीवन इतना महत्त्वमय और शान्तिमय रहा, सब इसी मानसिक स्वतन्त्रता, निर्द्वद्वता और आत्मनिर्भरता के कारण। वहीं उनके समकालीन केशवदास को देखिए जो जीवन भर विलासी राजाओं के हाथ की कठपुतली बने रहे, जिन्होंने आत्म-स्वतन्त्रता की ओर कम ध्यान दिया और अन्त में आप अपनी बुरी गति की।
प्रश्न 27.
(क) राणाप्रताप ने किन लोगों की बात नहीं मानी और क्यों?
(ख) तुलसीदास और केशवदास के जीवन में क्या अन्तर था और क्यों?
(ग) उपर्युक्त गद्यांश का उचित शीर्षक लिखिए।
(घ) ‘हाथ की कठपुतली होना’-मुहावरे का अर्थ लिखकर उसको अपने बनाए वाक्य में प्रयोग कीजिए।
उत्तर:
(क) महाराणा प्रताप ने उन लोगों की बात नहीं मानी, जो उनसे अकबर की अधीनता स्वीकार करने के लिए कहते थे। प्रताप जानते थे कि अपनी मर्यादा की चिन्ता जितनी हम स्वयं कर सकते हैं, उतना कोई दूसरा नहीं करता। अधीनता से मर्यादा को चोट पहुँचती है।’
(ख) केशवदास ने राज्याश्रय स्वीकार किया था, अत: वह अपने मन के अनुकूल काव्य रचना नहीं कर सके थे। इसके विपरीत तुलसीदास किसी के अधीन नहीं थे। वह मन से स्वाधीन, निर्द्वन्द्व और आत्मनिर्भर थे। अत: एक लोकप्रिय प्रसिद्ध कवि बन सके।
(ग) उपर्युक्त गद्यांश का उचित शीर्षक–‘आत्मनिर्भरता’ हो सकता है।
(घ) हाथ की कठपुतली होना – पराश्रित होना। प्रयोग-किसी के हाथ की कठपुतली बनकर कोई मनुष्य जीवन में सफल नहीं हो सकता।
(28) तत: किम् ! मैं हैरान होकर सोचता हूँ कि मनुष्य आज अपने बच्चों को नाखून न काटने के लिये डाँटता है। किसी दिन, कुछ थोड़े लाख वर्ष पूर्व वह अपने बच्चों को नाखून नष्ट करने पर डाँटता रहा होगा। लेकिन प्रकृति है कि यह अब भी नाखून को जिलाये जा रही है और मनुष्य है कि वह अब भी उसे काटे जा रहा है। वे कम्बख्त रोज बढ़ते हैं, क्योंकि वे अन्धे हैं, नहीं जानते कि मनुष्य को इससे कोटि-कोटि गुना शक्तिशाली अस्त्र मिल चुका है। मुझे ऐसा लगता है कि मनुष्य अब नाखून को नहीं चाहता। उसके भीतर बर्बर युग का कोई अवशेष रह जाय, यह उसे असह्य है। लेकिन यह भी कैसे कहूँ, नाखून काटने से क्या होता है? मनुष्य की बर्बरता घटी कहाँ है? वह तो उसका नवीनतम रूप है! मैं मनुष्य के नाखूनों की ओर देखता हूँ, तो कभी-कभी निराश हो जाता हूँ। ये उसकी भयंकर पाशविक वृत्ति के जीवन प्रतीक हैं। मनुष्य की पशुता को जितनी बार भी काट दो, वह मरना नहीं जानती।
प्रश्न 28.
(क) लेखक मनुष्य के नाखूनों को देखकर कभी-कभी निराश क्यों हो जाता है?
(ख) इस गद्यांश का एक उपयुक्त शीर्षक लिखिए।
(ग) “मनुष्य की पशुता को जितनी बार काट दो, वह मरना नहीं जानती।’ इस वाक्य को साधारण वाक्य में बदल कर लिखिए।
(घ) “पशु’ शब्द में तल् (ता) प्रत्यय जोड़ने से ‘पशुता’ भाववाचक संज्ञा बनती है। मनुष्य’ शब्द में कोई अन्य प्रत्यय जोड़कर भाववाचक संज्ञा बनाइए।
उत्तर:
(क) मनुष्य के नाखूनों को देखकर लेखक को इसलिए निराशा होती है कि नाखूनों का बढ़ना उसकी भयंकर पशु-प्रकृति को बताता है। मनुष्य की पशुता बार-बार काटने पर भी मरती नहीं।
(ख) गद्यांश को उचित शीर्षक-नाखून क्यों बढ़ते हैं।’ हो सकता है।
(ग) साधारण वाक्य-‘बार-बार काटे जाने पर भी मनुष्य की पशुता मरना नहीं जानती।
(घ) मनुष्य शब्द में ‘त्व’ प्रत्यय जोड़ने से भाववाचक संज्ञा ‘मनुष्यत्व’ बनता है।
(29) कठिनाइयों और बाधाओं के होते हुए भी मैं ईश्वर के प्रति अनुगृहीत हूँ कि संसार में जितनी दु:ख की मात्रा है उसको देखते हुए मुझे अपने हिस्से से बहुत कम मिला है; किन्तु इस विषय में मैं साम्यवादी नहीं बनना चाहता हूँ और ने मेरे साम्यवादी मित्र ही दु:ख का साम्यवादी बँटवारा चाहेंगे। इसी कारण मैं सुख और वैभव में साम्यवादी बनने के लिए बहुत उत्सुक नहीं हूँ। मैंने दूध का हर एक रूप में स्वागत किया है (सपरेटा को छोड़कर)। दूध मैंने गरम ही पीना चाहा है। असावधानी मेरा जन्मगत दोष है, क्योंकि वसन्त से एक दिन पूर्व ही मैं इस संसार में आया; किन्तु मैं उससे (दूध से) जला नहीं हूँ इसलिए छाछ को फेंक-फेंककर पीने की आवश्यकता नहीं पड़ी। जीवन में पर्याप्त लापरवाही रही। अनियमितता ही मेरे जीवन का नियम और विधान रहा। जीने के लिए जितने खाने की आवश्यकता है, उससे कहीं अधिक खाया । रसना का संयम मैं न कर सका। मैं सब चीजों का आस्वाद लेकर ‘रसना’ शब्द को सार्थक करता रहता हूँ। मैं न खाने के लिए जिया और न मैंने जीने के लिए खाया, वरन् इसलिए खाया कि खाना भी जीवन का सदुपयोग है। किन्तु मैं मर्यादा से बाहर नहीं हुआ।
प्रश्न 29.
(क) लेखक किस विषय में साम्यवादी बनना नहीं चाहता?
(ख) ‘छाछ को फेंक-फेंक कर पीने की आवश्यकता नहीं पड़ी’ इस कथन का आशय स्पष्ट कीजिए।
(ग) ‘सार्थक’ शब्द की विलोम लिखिए।
(घ) उपर्युक्त गद्यांश के लिए एक उचित शीर्षक लिखिए।
उत्तर:
(क) संसार में जितना दु:ख है उससे बहुत कम दु:ख लेखक के हिस्से में आया है परन्तु लेखक दु:ख के सम्बन्ध में साम्यवादी बनना नहीं चाहता। दु:ख और सुख सभी को बराबर मिलें यह नहीं चाहता।
(ख) इस कथन का आशय है कि लेखक को जीवन में कभी विशेष कष्ट या धोखा नहीं झेलना पड़ा। इसलिए वह हर बात में संशय और सावधानी नहीं बरतता।
(ग) ‘सार्थक’ शब्द का विलोम शब्द है-‘निरर्थक’।
(घ) उचित शीर्षक–‘मेरा जीवन’।
(30) भीष्म ने दूसरे पक्ष की उपेक्षा की थी। वह सत्यस्य वचनम्’ को ‘हित’ से अधिक महत्त्व दे गये। एक बार गलत-सही जो कह दिया उसी से चिपट जाना ‘भीषण’ हो सकता है, हितकर नहीं ! भीष्म ने ‘भीषण’ को ही चुना था।
भीष्म और द्रोण भी, द्रोपदी को अपमान देखकर भी क्यों चुप रह गये? द्रोण गरीब अध्यापक थे, बाल-बच्चे वाले थे। गरीब ऐसे कि गाय भी नहीं पाल सकते थे। बिचारी ब्राह्मणी को चावल का पानी देकर दूध माँगने वाले बच्चे को फुसलाना पड़ा था। उसी अवस्था में फिर लौट जाने का साहस कम लोगों में होता है, पर भीष्म तो पितामह थे। उन्हें बाल-बच्चों की फिक्र भी नहीं थी, भीष्म को क्या परवाहे थी? एक कल्पना यह की जा सकती है कि महाभारत की कहानी जिस रूप में प्राप्त है, वह उसका बाद का परिवर्तित रूप है। शायद पूरी कहानी जैसी थी वैसी नहीं मिली है, लेकिन आजकल के लोगों को आप जो चाहे कह लें, पुराने इतिहासकार इतने गिरे हुए नहीं होंगे कि पूरा इतिहास ही पलट दें। सो, इस कल्पना से भी भीष्म की चुप्पी समझ में नहीं आती। इतना सच जान पड़ता है कि भीष्म में कर्तव्य-अकर्तव्य के निर्णय में कहीं कोई कमजोरी थी। वह उचित अवसर पर उचित निर्णय नहीं ले पाते थे।
प्रश्न 30.
(क) भीष्म ने किस पक्ष की उपेक्षा की थी?
(ख) ‘भीष्म में कर्तव्य-अकर्तव्य के निर्णय में कहीं कोई कमजोरी थी।” इस वाक्य का आशय स्पष्ट कीजिए।
(ग) उपर्युक्त गद्यांश का एक संक्षिप्त शीर्षक लिखिए।
(घ) ‘इतिहासकार’ में कौन-सा प्रत्यय जुड़ा है? इसे प्रत्यय को प्रयोग करके दो नये शब्द बनाइए।
उत्तर:
(क) भीष्म ने परहित तथा जनहित के पक्ष की उपेक्षा की। उन्होंने अपनी विवाह न करने की प्रतिज्ञा के सत्य को ही महत्त्वपूर्ण माना। भीष्म ने सत्य के भीषण पक्ष को चुना और सत्य के जनहितकारी पक्ष की उपेक्षा की।
(ख) वाक्य का आशय है कि भीष्म सही समय पर सही निर्णय नहीं ले पाते थे। द्रोपदी के अपमान के समय उनका चुप रहना इसी दुर्बलता का प्रमाण है।
(ग) उचित शीर्षक-अनिर्णय के शिकार भीष्म पितामह।’
(घ) ‘इतिहासकार’ में ‘कार’ प्रत्यय जुड़ा है। ‘कार’ प्रत्यय से निर्मित दो शब्द हैं-1. कहानीकार, 2. उपन्यासकार
(31) हिरोशिमा और नागासाकी में हुआ भयानक विनाश आज भी रोंगटे खड़े कर देता है। विनाशकारी भूकम्प और सुनामी के कारण जापान में फुकुशिमा दायची परमाणु संयन्त्रों में विस्फोट का तथा विकिरण का खतरा बहुत बढ़ गया था। विद्युत उत्पादन के लिए कोयले पर आधारित थर्मल पावर की जगह परमाणु ऊर्जा अधिक साफ-सुथरी तथा अच्छे परिणाम वाली है परन्तु इसमें विकिरण से होने वाले भयानक विनाश का संकट भी है।
परमाणु विकिरण से होने वाला विनाश कल्पना से बाहर की बात है। जापान की त्रासदी के बाद इस पर विचार होने लगा है। भविष्य में ऐसे न्यूक्लियर प्लांट बनाए जा सकते हैं, जो भूकम्प तथा सुनामी का संकट झेल सके। परन्तु चेर्नोबिल तथा श्री माइल आइलैंड में तो कोई भूकम्प भी नहीं आया था। भारत परमाणु उद्योग के सुरक्षा सम्बन्धी प्रभावों से निपटने में सक्षम नहीं है। भारत के पास विकिरण सम्बन्धी दुर्घटना से निपटने के लिए कोई आपातकालीन तैयारी भी नहीं है। यह बात दिल्ली के मायापुरी में हुई परमाणु विकिरण की घटना से सिद्ध हो चुकी है। अत: इस प्रकार के संकट की सम्भावना को हल्केपन से लेना उचित नहीं है।
प्रश्न 31.
(क) जापाने के उन दो शहरों के नाम बताएँ, जो परमाणु त्रासदी का शिकार हुए?
(ख) जापान के फुकुशिमा दायची परमाणु संयंत्रों की त्रासदी से विश्व के समक्ष विचार के लिए क्या प्रश्न उपस्थित हुआ है?
(ग) उपर्युक्त गद्यांश का उचित शीर्षक लिखिए।
(घ) कल्पना से बाहर की बात’ के लिए एक शब्द लिखिए।
उत्तर:
(क) हिरोशिमा तथा नागासाकी जापान के दो शहर हैं। द्वितीय विश्वयुद्ध में अमेरिका ने इन पर अणुबम गिराये थे जिससे अनेक लोग मारे गये थे। उससे कई गुना बीमार हुए थे तथा विकिरण के प्रभाव से जल, वायु, खाद्यान्न दूषित हो गए थे।
(ख) जापान के फुकुशिमा दायची में विद्युत उत्पादन आदि के लिए परमाणु ऊर्जा का प्रयोग होता है। मार्च 2011 में आए भूकम्प तथा सुनामी के कारण इन संयंत्रों में विस्फोट का खतरा उत्पन्न हो गया, इससे विश्व के सामने विचार करने के लिए यह प्रश्न उपस्थित हो गया है कि क्या विद्युत उत्पादन के लिए थर्मल पावर के स्थान पर परमाणु ऊर्जा का प्रयोग पूरी तरह निरापद है?
(ग) उपर्युक्त गद्यांश का उचित शीर्षक-‘परमाणु ऊर्जा का उपयोग निरापद नहीं।’
(घ) “कल्पना से बाहर की बात’ शब्दांश के लिए एक शब्द-अकल्पनीय।
(32) चिन्ता को लोग चिता कहते हैं। जिसे किसी प्रचण्ड चिन्ता ने पकड़ लिया है, उस बेचारे की जिन्दगी ही खराब हो जाती है। किन्तु ईर्ष्या शायद चिन्ता से भी बदतर चीज है क्योंकि वह मनुष्य के मौलिक गुणों को ही कुण्ठित बना डालती है।
मृत्यु शायद, फिर भी श्रेष्ठ है, बनिस्पते इसके कि हमें अपने गुणों को कुण्ठित बनाकर जीना पड़े। चिन्ता-दग्ध व्यक्ति समाज की दया का पात्र है। किन्तु ईष्र्या से जला-भुना आदमी जहर की एक चलती-फिरती गठरी के समान है, जो हर जगह वायु को दूषित करती फिरती है।
ईष्र्या मनुष्य का चारित्रिक दोष ही नहीं है, प्रत्युत इससे मनुष्य के आनन्द में भी बाधा पड़ती है। जब भी मनुष्य के हृदय में ईष्र्या का उदय होता है, सामने का सुख उसे मद्धिम-सा दिखने लगता है। पक्षियों के गीत में जादू नहीं रह जाता और फूल तो ऐसे हो जाते हैं, मानो वे देखने के योग्य ही न हों।
आप कहेंगे कि निन्दा के बाण से अपने प्रतिद्वन्द्वियों को बेधकर हँसने में एक आनन्द है और यह आनन्द ईर्ष्यालु व्यक्ति का सबसे बड़ा पुरस्कार है। मगर, यह हँसी मनुष्य की नहीं, राक्षस की हँसी होती है और यह आनन्द भी दैत्यों का आनन्द होता हैं।
प्रश्न 32.
(क) ईष्र्या का क्या काम है? चिन्ता तथा ईष्र्या में क्यों अन्तर है?
(ख) ईष्र्या का लाभदायक पक्ष कौन-सा है?
(ग) उपर्युक्त गद्यांश के लिए एक उपयुक्त शीर्षक लिखिए।
(घ) उपर्युक्त गद्यांश से दो शब्द-युग्म छाँटकर लिखिए।
उत्तर:
(क) ईर्ष्या का काम जलाना है। यह उसी को जलाती है जिसके मन में यह पैदा होती है। चिन्ता को चिता कहते हैं। चिन्ताग्रस्त मनुष्य का जीवन बेकार हो जाता है, परन्तु ईष्र्या चिन्ता से भी अधिक बुरी है। इससे मनुष्य के मौलिक गुण नष्ट हो जाते हैं।
(ख) ईष्र्या का लाभदायक पक्ष यह है कि यह मनुष्य को प्रतिस्पर्धा के लिए प्रेरित करती है। इसके अन्तर्गत हर आदमी, हर जाति, हर दल अपने प्रतिद्वन्द्वी का समकक्ष बनना चाहती है। ऐसा तभी होता है जब ईष्र्या से प्राप्त प्रेरणा रचनात्मक हो।
(ग) उपयुक्त शीर्षक-‘ईष्र्या से हानि।’
(घ) शब्द-युग्म – (1) जला-भुना, (2) चलती-फिरती।
(33) जिन्हें धन-वैभव प्यारा है, साहित्य मंदिर में उनके लिए स्थान नहीं है। यहाँ तो उन उपासकों की आवश्यकता है, जिन्होंने सेवा को अपने जीवन की सार्थकता मान लिया हो, जिनके दिल में दर्द की तड़प हो और मुहब्बत का जोश हो। अपनी इज्जत तो अपने हाथ है। अगर हम सच्चे दिल से समाज की सेवा करेंगे तो मान, प्रतिष्ठा और प्रसिद्धि की चिंता हमें क्यों सताए और उसके न मिलने से हम निराश क्यों हों ? सेवा में जो आध्यात्मिक आनन्द है, वही हमारा पुरस्कार है-हमें समाज पर अपना बड़प्पन जताने, उस पर रौब जमाने की हवस क्यों हो ? दूसरों से ज्यादा आराम से रहने की इच्छा भी हमें क्यों सताए ? हम अमीरों की श्रेणी में अपनी गिनती क्यों करें ? हम तो समाज का झंडा लेकर चलने वाले सिपाही हैं और सादी जिन्दगी के साथ ऊँची निगाह हमारे जीवन का लक्ष्य है।
प्रश्न 33.
(क) साहित्य के मंदिर में किनके लिए स्थान नहीं होता ?
(ख) साहित्यकार को अपने सम्मान की चिंता क्यों नहीं करनी चाहिए ?
(ग) सादी जिन्दगी के साथ ऊँची निगाह’ के लिए हिन्दी में क्या कहावत प्रयुक्त होती है ?
(घ) उपर्युक्त गद्यांश के लिए एक उचित शीर्षक लिखिए।
उत्तर:
(क) धन-दौलत को महत्त्व देने वाले लोगों के लिए साहित्य के मंदिर में स्थान नहीं है। साहित्य की रचना वही कर सकते हैं, जो सादगीपूर्ण जीवन जीते हैं और धन के पीछे नहीं भागते हैं।
(ख) साहित्यकार को अपने सम्मान की चिंता नहीं करनी चाहिए। साहित्यकार की रचनाएँ ही उसका सम्मान होती हैं। वह सम्मान के पीछे नहीं भागता।
(ग) ‘सादी जिन्दगी के साथ ऊँची निगाह’-के लिए हिन्दी में “सादा जीवन उच्च विचार” कहावत प्रचलित है।
(घ) उपर्युक्त गद्यांश का शीर्षक-‘साहित्यकार और उसका लक्ष्य’ ।
(34) जिस प्रकार सुखी होने का प्रत्येक प्राणी को अधिकार है, उसी प्रकार मुक्तातंक होने का भी। पर कर्म क्षेत्र के चक्रव्यूह में पड़कर जिस प्रकार सुखी होना प्रयत्न-साध्य होता है उसी प्रकार निर्भय रहना भी। निर्भयता के सम्पादन के लिए दो बातें अपेक्षित होती हैं-पहली तो यह कि दूसरों को हमसे किसी प्रकार का भय या कष्ट न हो, दूसरी यह कि दूसरे हमको कष्ट या भय पहुँचाने का साहस न कर सकें। इनमें से एक का सम्बन्ध उष्कृष्ट शील से है और दूसरी का शक्ति और पुरुषार्थ से। इस संसार में किसी को न डराने से ही डरने की सम्भावना दूर नहीं हो सकती । साधु-से-साधु प्रकृति वाले को क्रूर लोभियों और दुर्जनों से क्लेश पहुँचता है। अतः उनके प्रयत्नों को विफल करने या भय-संचार द्वारा रोकने की आवश्यकता से हम बच नहीं सकते।
प्रश्न 34.
(क) प्रयत्न-साध्य होने का क्या अर्थ है ? लेखक के अनुसार प्रयत्न-साध्य क्या है ?
(ख) निर्भय रहने के लिए कौन-सी दो बातें आवश्यक होती हैं ?
(ग) “मुक्तातंक’ शब्द में सन्धि-विच्छेद करके लिखिए।
(घ) उपर्युक्त गद्यांश के लिए एक उपयुक्त शीर्षक लिखिए।
उत्तर:
(क) जिस कार्य में प्रयत्न करने से सफलता मिल जाय वह कार्य प्रयत्न-साध्य होता है। प्रयत्न-साध्य का अर्थ है, प्रयत्न द्वारा सफल होना।
(ख) निर्भय रहने के लिए दो बातें आवश्यक हैं। एक, हम किसी को कष्ट न दें तथा भयभीत न करें। दो, दूसरे हमको कष्ट देने या डराने का साहस न करें। अर्थात् निर्भय रहने के लिए मनुष्य को शीलवान् तथा पुरुषार्थी होना चाहिए।
(ग) “मुक्तातंक’ में दीर्घ सन्धि है-मुक्त + आतंक।
(घ) उपयुक्त शीर्षक – ‘हम निर्भीक कैसे रहें ?’
(35) आन्तरिक सुरक्षा को लेकर आज बहुत चिन्ता जताई जा रही है। प्रधानमन्त्री, गृहमन्त्री, सांसद और जनता सभी देश में बढ़ रही आन्तरिक असुरक्षा को लेकर चिंतित नजर आते हैं। देश की आन्तरिक सुरक्षा के लिए दो तत्व खतरा बने हुए हैं। एक देशी-विदेशी आतंकी और दूसरे माओवादी। प्रधानमन्त्री और गृहमन्त्री मानते हैं कि माओवादी आंतरिक सुरक्षा के लिए आतंकवादियों से भी अधिक बड़ा संकट है। माओवादियों का हिंसा द्वारा सत्ता पर अधिकार करना ही उद्देश्य है। व्यवस्था परिवर्तन और सामाजिक न्याय की आड़ लेकर वे आदिवासियों और युवावर्ग को भ्रमित किए हुए हैं। बढ़ते हुए माओवादी संकट से पार पाने के लिए न तो केन्द्रीय और राज्य सरकारों में दृढ़ इच्छाशक्ति है और न कोई स्पष्ट रणनीति है। आए दिन माओवादी जब-जहाँ चाहते हैं अपना तांडव दिखा देते हैं। पुलिस के लोगों, विधायकों, विदेशियों आदि का अपहरण करके अपनी मनमानी माँगें मानने के लिए सरकार को विवश कर देते हैं।
प्रश्न 35.
(क) देश की आंतरिक सुरक्षा से क्या तात्पर्य है? इसके लिए कौन लोग खतरा बने हुए हैं?
(ख) सरकार माओवादियों पर पार पाने में क्यों सफल नहीं हो पा रही है?
(ग) इसे गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक लिखिए।
(घ) “अपहरण’ शब्द से उपसर्ग और मूल शब्द अलग कीजिए और इसी उपसर्ग द्वारा दो नए शब्द बताइए।
उत्तर:
(क) देश की आंतरिक सुरक्षा से तात्पर्य है-देश के भीतर शांति और व्यवस्था बनाए रखना। आंतरिक सुरक्षा के लिए देशी-विदेशी आतंकवादी तथा माओवादी बड़ा खतरा बने हुए हैं।
(ख) सरकार दृढ़ इच्छाशक्ति न होने के कारण तथा कोई स्पष्ट रणनीति न अपनाने के कारण माओवादियों पर पार पाने में सफल नहीं हो पा रही है।
(ग) गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक- ‘माओवादी संकट’ हो सकता है।
(घ) ‘अपहरण’ शब्द में ‘अप’ उपसर्ग है तथा ‘हरण’ मूल शब्द है। ‘अप’ उपसर्ग से निर्मित दो अन्य शब्द हैं-अपराध, अपमान।
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