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RBSE Class 12 Hindi काव्यांग परिचय काव्य गुण

July 31, 2019 by Safia Leave a Comment

Rajasthan Board RBSE Class 12 Hindi काव्यांग परिचय काव्य गुण

काव्य क्या है?

काव्य का स्वरूप अत्यन्त व्यापक, जटिल और सूक्ष्म है। इसके सम्बन्ध में अनेक विद्वानों तथा विचारकों ने समय-समय पर विचार किया है। स्वदेशी-विदेशी विचारकों के इस विषय में जो मत हैं, उनमें से कुछ निम्नलिखित हैं –

  1. दण्डी – इष्टार्थ व्यवच्छिन्ना पदावलिः काव्यम् (इष्ट अर्थ से युक्त पदों को काव्य कहते हैं।)
  2. भामह – शब्दार्थो सहितौ काव्यम्। (शब्द और अर्थ सहित रचना को काव्य कहते हैं।)
  3. विश्वनाथ – वाक्यं रसात्मकं काव्यम्। (रसपूर्ण वाक्य काव्य है।)
  4. मम्मट – तद्दोषौ शब्दार्थों सगुणावनलंकृती पुन: क्वापि। (दोषरहित, गुण सहित तथा यदा-कदा अलंकार विहीन शब्दार्थ को काव्य कहते हैं।)
  5. पण्डितराज जगन्नाथ – रमणीयार्थ प्रतिपादकः शब्दः काव्यम्। (रमणीय अर्थ का प्रतिपादन करने वाला शब्द काव्य है।)
  6. न्याय-नागीश – गुणालंकार संयुक्तौ शब्दार्थो रस भावव्यै नित्यदोष विनिर्मुक्तौ काव्यमित्यभिधीयते। (गुण, अलंकार, रस, भाव से युक्त तथा नित्यदोषों से मुक्त शब्दार्थ को काव्य कहा जाता है।)

उपर्युक्त विचारों में काव्य प्रकाश के रचयिता आचार्य मम्मट का विचार ही अधिक युक्तिसंगत प्रतीत होता है। आचार्य मम्मट मानते हैं कि वे शब्द और अर्थ काव्य कहे जाते हैं जो दोष मुक्त हों गुण युक्त हों और रसाभिव्यञ्जक हों, वह अलंकृत हों अथवा न हों। ‘अलंकृती पुनः क्वापि’ कहकर आचार्य मम्मट यह बताना चाहते हैं कि यथासम्भव-शब्दार्थ अलंकृत हों किन्तु यदि कहीं कोई स्पष्ट रूप से अलंकार न हो, तब भी रसपूर्ण होने से काव्यत्व का अभाव नहीं माना जायगा। यह नहीं माना जा सकता कि यदि अलंकार नहीं होगा तो काव्य-सौन्दर्य का अनुभव ही नहीं होगा क्योंकि काव्य का सौन्दर्य तो रसादि की अभिव्यक्ति में निहित होता है। आचार्य मम्मट द्वारा बताए उपर्युक्त काव्य-लक्षण पर विचार करें तो दो बातें सामने आती हैं।

एक, अदोषों; विशेषण द्वारा वह यह व्यक्त करना चाहते हैं कि संसार में कुछ भी तथा कोई भी पूर्णत: निर्दोष नहीं है किन्तु यदि काव्य में कोई भाग ऐसा हो, जिसमें कोई दोष हो किन्तु वह सौन्दर्यानुभूति में बाधक न हो तो उसको अकाव्य नहीं काव्य ही मानना चाहिए। आचार्य की उपर्युक्त परिभाषा में ‘सगुणौ’ शब्द यह प्रकट करता है कि ‘गुण’ युक्त शब्द और अर्थ ही काव्य के लिए उपयुक्त होते हैं। आचार्य ने रसस्याङ्गिनी धर्माः’ कहकर गुणों को रस का धर्म माना है किन्तु यहाँ इन गुणों को शब्दों और अर्थों का गुण बताने का आशय यह है कि भले ही गुण रस का धर्म हो किन्तु रस की व्यजंना शब्दार्थ के द्वारा ही होने से वे शब्द और अर्थ के भी गुण हैं। नागेश ने काव्य के लिए अलंकार, रस तथा भाव को भी आवश्यक माना है। उपर्युक्त परिभाषाओं में ‘साहित्य दर्पण’ में दी गई आचार्य विश्वनाथ की वाक्यं रसात्मकं काव्यम्’ में काव्य के लिए सरसता को आवश्यक माना गया है।

उनकी यह परिभाषा मान्य होने के साथ लोकप्रिय भी है। काव्य के स्वरूप पर आधुनिक हिन्दी साहित्य के विचारकों आचार्य महावीर प्रसार द्विवेदी, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, बाबू श्याम सुन्दर दास, जयशंकर प्रसाद, प्रेमचन्द आदि ने भी विचार किया है। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने कवि और कविता नामक निबन्ध में लिखा है-“सादगी, असलियत और जोश आदि ये तीनों गुण कविता में हो तो कहना ही क्या”। उनके इस कथन पर अंग्रेजी भाषा के कवि मिल्टन का प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने लिखा है-“जिस प्रकार आत्मा की मुक्तावस्था ज्ञान-दशा कहलाती है। उसी प्रकार हृदय की मुक्तावास्था रस दशा कहलाती है। हृदय की इसी मुक्ति की साधना के लिए मनुष्य की वाणी जो शब्द विधान करती आई है, उसे कविता कहते हैं।”

भारतीय ही नहीं पाश्चात्य विचारकों ने भी काव्य-कला पर विचार किया है। अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘पोइटिक्स’ में अरस्तू ने कला को अनुकृति कहा है। इसके लिए कल्पना को आवश्यक माना गया है। पाश्चात्य विद्वानों पर अरस्तू का प्रभाव है। इन विचारकों में मैथ्यू आरनाल्ड, वर्ड्सवर्थ, शैक्सपीयर, जॉन मिल्टन, कालरिज, हडसन आदि का नाम लिया जा सकता है। काव्य के स्वरूप का निर्माण पाँच तत्वों के सम्मिलन से होता है – 1. शब्द, 2. अर्थ, 3. भाव 4. कल्पना तथा 5. विचार। इनके संतुलित समन्वय से ही सुन्दर काव्य की रचना होती है। स्मरणीय शब्द तथा भावमय अर्थ से युक्त रचना ही काव्य कहलाती है।

(क) काव्य-गुण

गुण काव्य के प्रभाव को बढ़ाते हैं। जिस प्रकार शौर्य आदि आत्मा के धर्म हैं, शरीर के नहीं उसी प्रकार काव्य-गुण रस में अवस्थित रहते हैं, वर्णों में नहीं। आचार्य आनन्द वर्धन तथा आचार्य अभिनव गुप्त ने गुणों को रम से अपृथक् सिद्ध रूप में ही माना है। ‘काव्य प्रकाश’ के रचयिता आचार्य मम्मट ने गुणों को रस का धर्म माना है

ये रसस्याङ्गिनो धर्माः शौर्यादयः इवात्मनः।
उत्कर्ष हेतवस्तस्युश्चल स्थितयो गुणाः॥

गुणों की व्यंजना वर्णों अथवा अक्षरों से होती है। किन्तु इस कारण यह नहीं माना जा सकता कि गुण अक्षरों में विद्यमान रहते हैं। गुण रस में रहते हैं, वर्गों में नहीं। गुण नीरस नहीं सरस साधन होते हैं। नीरस शब्दार्थ को सगुण नहीं कहेंगे। उसी प्रकार दोषों के अभाव को गुण नहीं माना जायगा। भारतीय काव्य-शास्त्र में भरतमुनि, वामन, मम्मट, अभिनव गुप्त, विश्वनाथ, पण्डितराज जगन्नाथ आदि ने गुणों के सम्बन्ध में विचार किया है। आचार्यों ने उनको रीति के अन्तर्गत माना है। आचार्य वामन के अनुसार विशेष प्रकार की पदरचना रीति कहलाती है तथा यह गुणों पर आश्रित होती है। आचार्य विश्वनाथ ने दोनों के संयोजन को रीति कहा है। उन्होंने माना है कि रम के उत्कर्ष में वृद्धि करने वाले वर्ण-विन्यास और पद-विन्यास काव्यगुण हैं। प्रसिद्ध आलोचक डॉ. नगेन्द्र का कहना है कि आचार्य दण्डी काव्य के समस्त अवयवों को अलंकार मानते हैं, इस प्रकार गुण भी अलंकार ही हैं।

परिभाषा – गुण रस के सहायक धर्म हैं। जिस प्रकार शौर्य आदि आत्मा के धर्म हैं, उसी प्रकार गुण रस के धर्म हैं। गुण काव्य की सरस शब्दावली तथा पदावली में स्थित होकर काव्य की श्रीवृद्धि किया करते हैं।
गुणों की संख्या – गुणों की संख्या के सम्बन्ध में आचार्य एकमत नहीं हैं। भरत मुनि से पण्डितराज जगन्नाथ तक में मतभेद हैं। भरतमुनि ने गुणों की संख्या दस मानी है –
1. श्लेष, 2. प्रसाद, 3. समता, 4. समाधि, 5. माधुर्य, 6. ओज, 7. सौकुमार्य, 8. अर्थ-व्यक्ति, 9. उदारता तथा, 10. कान्ति।

आचार्य दण्डी ने भी गुणों की संख्या दस ही मानी है। ये दस गुण हैं –
1. श्लेष, 2. प्रसाद, 3. समता, 4. माधुर्य, 5. सौकुमार्य, 6. अर्थ व्यक्ति, 7. उदारता, 8. ओज, 9. कान्ति तथा 10. समाधि।

रीतिवादी आचार्य वामन भट्ट ने इसी प्रकार निम्नलिखित दस गुण माने हैं –
1. ओज, 2. प्रसाद, 3. श्लेष, 4. समता, 5. समाधि, 6. माधुर्य, 7. सौकुमार्य, 8. उदारता, 9. अर्थ व्यक्ति तथा, 10. कान्ति।
आचार्य मम्मट ने उपर्युक्त दस गुणों का अन्तर्भाव माधुर्य, ओज तथा प्रसाद में किया है तथा कहा है कि गुण केवल तीन ही होते हैं।

“माधुर्योजः प्रसादाख्यास्त्रयस्ते-न-पुनर्दश।”           – काव्यप्रकाश

माधुर्य, ओज तथा प्रसाद का सम्बन्ध मनुष्य की चित्तवृत्तियों से है। माधुर्य का चित्त के द्रवित होने से, प्रसाद का चित्त को प्रफुल्लित होने से तथा ओज चित्त के उद्दीप्त होने से है। प्रसाद गुण सभी रसों से भी सम्बन्धित है तथा माधुर्य और ओज गुणों का सम्बन्। तीन-तीन रसों से है। गुणों का सम्बन्ध चित्त की वृत्तियों से है। ओज गुण मनुथ्य की कठोर वृत्तियों से तथा अन्य कोमल वृत्तियों से सम्बन्धित है। रीतिवादी आचार्य गुणों को रीति से जोड़कर देखते हैं। आचार्य मम्मट दोनों को एक मानते हैं। रीतियों का वर्गीकरण स्थान अथवा देश के आधार पर है। वृत्तियों का आधार रचना के गुण होते हैं। काव्य गुणों से सम्बन्धित वृत्तियाँ तथा रीतियाँ इस प्रकार मानी जाती हैं –

1. माधुर्य गुण – वैदर्भी रीति,       उप नागरिका वृत्ति।
2. प्रसाद गुण – पांचाली रीती,     कोमल वृत्ति।
3. ओज गुण – गौड़ी रीति,          परुष (कठोर) वृत्ति।

गुण त्रय

1. माधुर्य गुण – माधुर्य शब्द का अर्थ है – मधुरता। जिस गुण के कारण रचना में मधुरता उत्पन्न होती है। उसको माधुर्य गुण कहते हैं। माधुर्य गुण वाली रचना के पठन-श्रवण से पाठक तथा श्रोता का मन द्रवित हो उठता है तथा वह आनन्दमय हो उठता है। आह्लाद माधुर्य गुण का प्रमुख भाव है। माधुर्य गुण में समास रहित, मधुर तथा कोमल शब्दावली का प्रयोग होता है। इसमें कोमल वर्ण, क वर्ग, च वर्ग, प वर्ग, त वर्ग तथा य, ल, व का प्रयोग अधिक होता है। ट वर्ग तथा लम्बे सामासिक पदों का प्रयोग नहीं किया जाता। माधुर्य गुण वैदर्भी रीति से सम्बन्धित है। यह विदर्भ देश के कवियों की रीति है। दण्डी ने इसको सभी गुणों के लिए उपयुक्त माना है। यह उपनागरिका वृत्ति से सम्बन्धित है। आचार्य विश्वनाथ ने अपने ‘साहित्य दर्पण’ में माधुर्य गुण की परिभाषा देते हुए लिखा है –

“चित्त द्रवी भावमयोल्हादो माधुर्यमुच्यते”।
(जिससे चित्त आहलाद से द्रवित हो जाय, वह गुण माधुर्य कहा जाता है।)
भरत मुनि ने अपने ‘नाट्यशास्त्र’ में माधुर्य का अर्थ श्रुतिमधुरता माना है। आचार्य दण्डी माधुर्य का अर्थ रसपूर्णता मानते हैं। आचार्य वामन मानते हैं कि माधुर्य गुण के लिए रचना को सामासिक पदावली से रहित होना चाहिए। आचार्य मम्मट आह्लाद तथा शृंगार रस में द्रवित करने को माधुर्य गुण की विशेषता मानते हैं। माधुर्य गुण शृंगार, शान्त और करुण रसों में प्रयुक्त होता है। श्रुति मधुरता, समासादि हीनता, आह्लादकता, चित्त की द्रवणशीलता, आर्द्रता आदि माधुर्य के लिए आवश्यक हैं। भिखारीदास ने माधुर्य गुण के लक्षण बताते हुए लिखा है, यह अनुस्वार तथा कोमल वर्णों से युक्त किन्तु ट वर्ग के वर्षों से रहित होता है।

अनुस्वार औ वर्गजुत, सबै बरन अट वर्ग
अच्छर जामें मदु परै सौ माधुर्य नि सर्ग।

उदाहरण –
1. सघन कुंज छाया सुखद, सीतल मंद समीर।
मन हवै जात अजौं वहै, वा जमुना के तीर।

2. पाकर अहा! उमंग उर्मिला अंग भरे थे।
आली ने हँस कहा-“कहाँ ये रंग भरे थे।
सुप्रभात है आज स्वप्न की सच्ची माया।
किन्तु कहाँ वे गीत? यहाँ जब श्रोता आया।

3. नयन उन्हें हैं निष्ठुर कहते।
पर इनसे जब आँस बहते।
सदय हृदय वह कैसे सहते।
गये तरस ही खाते।
सखि वे मुझसे कहकर जाते।

2. प्रसाद गुण – प्रसाद शब्द का अर्थ है- प्रसन्नता किन्तु प्रसाद गुण का होना वहाँ माना जाता है जहाँ स्वयं में सुबोधता हो तथा उसका अर्थ सुनते ही समझ में आ जाय। दण्डी के मतानुसार जिस रचना का अर्थ सुनते ही सुनने वाले की समझ में आ ज़ाय, वहाँ प्रसाद गुण होता है। आचार्य मम्मट का कथन है

चित्तं व्याप्नोति यः क्षिप्रंशष्कन्धनामिवानलः।
स प्रसादः समस्तेषु रसेषु रचनासु च।

उनका कहना है कि जिस प्रकार सूखे ईंधन में अग्नि तुरन्त व्याप्त हो जाती है, उसी प्रकार चित्त में शीघ्र ही व्याप्त हो जाने वाला काव्य गुण प्रसाद है। प्रसाद गुण पांचाली रीति से सम्बन्धित है। प्रसाद गुण यद्यपि सभी रसों में मिलता है। किन्तु करुण रस, शान्त रस, वात्सल्य रस और हास्य रस में प्रसाद गुण अधिक पाया जाता है। इसमें कोमलकान्त पदावली, वर्गों के पाँचवें वर्णों, क वर्ग, त वर्ग का प्रयोग अधिक होता है। नीति, भक्ति आदि के वर्णन में प्रसाद गुण की प्रधानता रहती है।

उदाहरण –
1. मुनिवर जतनु करहिं जेहि लागी। भूप राजु तजि होंहि बिरागी।
सोइ कोसलाधीस रघुराया। आयउ करन तोहि पर दाया।
जो पिय मानतु मोर सिखावन। सुजसु होई तिहूँ पुर अति पावन ।
अस कहि नयन नीर भरि गहि पद कंपित गात।
नाथ भजहु रघुनाथहि अचल होइ अहिवात।।

2. भारत माता
ग्रामवासिनी।
खेतों में फैला है श्यामल।
धूल भरा मैला-सा आँचल
गंगा यमुना में आँसू जल
मिट्टी की प्रतिमा उदासिनी।

3. चारु चन्द्र की चंचल किरणें
खेल रही हैं जल-थल में।
स्वच्छ चाँदनी बिछी हुई है
अवनि और अम्बर तल में।

3. ओज गुण – ‘ओज’ शब्द का अर्थ तेज, दीप्ति, उत्तेजना आदि होता है। जिस रचना के पढ़ने अथवा सुनने से पाटक अथवा श्रोता के मन में आवेग और उत्साह पैदा हो, उसमें ओज गुण का होना माना जाता है। इसमें द्वित्व, संयुक्त तथा परुष वर्गों, रेफ, लम्बे समस्त पदों आदि का प्रयोग होता है। इसमें मूर्धन्य ध्वनियों का प्रयोग होता है। इसका सम्बन्ध गौड़ी रीति तथा परुष वृत्ति से है। इस रीति में ओज गुण, अलंकारों तथा समासों की प्रधानता रहती है। ‘ढ’ तथा ‘ण’ का प्रयोग अधिक होता है। वीर, रौद्र, वीभत्स तथा भयानक रसों में ओज गुण रहता है।

ओज गुण के बारे में विभिन्न आचार्यों ने विचार किया है। भरत मुनि समस्त गम्भीर अर्थ पूर्ण और श्रवण-सुखद पदावली के ओज गुण को उपयुक्त मानते हैं। दण्डी समस्त पदावली की बहुलता को ओज गुण के लिए आवश्यक मानते हैं। वामन के मतानुसार संयुक्ताक्षरों और संश्लेषण पदों के वीररस की अपेक्षा वीभत्स रस में तथा वीभत्स रस की अपेक्षा रौद्र रस में ओज गुण अधिक उद्दीप्त होता है। आचार्य विश्वनाथ कठोर वर्गों और संयुक्ताक्षरों के प्रयोग को ओज गुण के लिए जरूरी मानते हैं।

उदाहरण –
1. धंसती धरा धधकती ज्वाला, ज्वालामुखियों के विश्वास
और संकुचित क्रमशः उसके अवयव का होता था ह्रास ॥
घनीभूत हो चुके पवन, फिर श्वासों की गति होती रुद्ध।
और चेतना थी, बिलखती दृष्टि विकल होती थी क्रुद्ध ॥

2. हयरुण्ड गिरे, गज झुण्ड गिरे,
कटकट अवनी पर शुण्ड गिरे।
भू पर हय विकल वितुण्ड गिरे,
लड़ते-लड़ते अरि झुण्ड गिरे।

3. किसने कहा पाप है समुचित
स्वत्व प्राप्ति हित लड़ना।
उठा न्याय का खड्ग समर में
अभय मारना-मरना?

RBSE Class 12 Hindi काव्यांग परिचय महत्वपूर्ण प्रश्नोत्तर

RBSE Class 12 Hindi काव्यांग परिचय वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न 1.
‘वाक्यं रसात्मकं काव्यम्’-काव्य की यह परिभाषा करने वाले हैं
(क) आचार्य मम्मट
(ख) पण्डितराज जगन्नाथ
(ग) आचार्य विश्वनाथ
(घ) आचार्य भामह।
उत्तर:
(ग) आचार्य विश्वनाथ

प्रश्न 2.
निम्नलिखित पंक्तियों में माधुर्य गुण किस पंक्ति में है
(क) किसने कहा पाप है, समुचित, स्वत्व प्राप्ति हित लड़ना।
(ख) चारु चन्द्र की चंचल किरणें खेल रही हैं जलथल में।
(ग) सघन कुंज छाया सुखद, सीतल मंद समीर।
(घ) फँसती धरा धधकती ज्वाला, ज्वालामुखियों के विश्वास।
उत्तर:
(ग) सघन कुंज छाया सुखद, सीतल मंद समीर।

प्रश्न 3.
भू पर हय विकल वितुण्ड गिरे।
लड़ते-लड़ते अरि झुण्ड गिरे।
उपर्युक्त में कौन-सा काव्य-गुण है –
(क) ओज
(ख) माधुर्य
(ग) प्रसाद
(घ) कोई नहीं।
उत्तर:
(क) ओज

प्रश्न 4.
प्रसाद गुण निम्नलिखित किस काव्य-पंक्ति में निहित है –
(क) चढ़ चेतक पर तलवार उठा, रखता था भूतल पानी को
(ख) कहुँ सुलगत कोऊ चिता, कहूँ कोऊ जाति बुझाई
(ग) पाकर अहा ! उमंग उर्मिला अंग भरे थे
(घ) नाथ भजहु रघुनाथहि अचल होइ अहिवात
उत्तर:
(घ) नाथ भजहु रघुनाथहि अचल होइ अहिवात

RBSE Class 12 Hindi काव्यांग परिचय अति लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
‘अहह नाथ रघुनाथ सम कृपासिंधु नहि आन’-में कौन-सा काव्य-गुण है?
उत्तर:
‘अहह नाथ रघुनाथ सम कृपासिंधु नहिं आन’ में प्रसाद गुण है।

प्रश्न 2.
“होगी जय, होगी जय, हे पुरुषोत्तम नवीन”-में काव्य-गुण कौन-सा है?
उत्तर:
“होगी जय, होगी जय, हे पुरुषोत्तम नवीन में” ओज काव्य-गुण है। :

प्रश्न 3.
निम्नलिखित में से वह पंक्ति छाँटकर लिखिए जिसमें ओज नामक काव्य-गुण है
(क) अरावली-श्रृंग-सा समुन्नत सिर किसका?
बोलो, कोई बोलो-अरे, क्या तुम सब भूत हो।
(ख) स्वर्ण शस्य पर पदतल लुण्ठित।
धरती सा सहिष्णु मन कुण्ठित।
(ग) हम जैसा बोयेंगे, वैसा ही पायेंगे।
उत्तर:
ओज-गुण युक्त काव्य-पंक्ति है
अरावली-शृंग-सा समुन्नत सिर किसका?
बोलो, कोई बोलो-अरे, क्या तुम सब भूत हो?

प्रश्न 4.
काव्य-गुण किसको कहते हैं? काव्य-गुण कितने प्रकार के होते हैं?
उत्तर:
काव्य की सरस पदावली में स्थित रहकर काव्य की शोभा बढ़ाने वाले धर्म को काव्यगुण कहते हैं। ये माधुर्य, प्रसाद तथा ओज नामक तीन प्रकार के होते हैं।

प्रश्न 5.
माधुर्य गुण का एक उदाहरण लिखिए।
उत्तर:
माधुर्य गुण का उदाहरण –
नील परिधान बीच सुकुमार।
खुल रहा मृदुल अधखुला अंग।
खिला हो ज्यों बिजली का फल।
मेघ बन बीच गुलाबी रंग।

प्रश्न 6.
ओज गुण का एक उदाहरण लिखिए।
उत्तर:
ओज गुण का उदाहरण –
जब तक हैं लक्ष्मण महावाहिनी के नायक
मध्य मार्ग में अंगद, दक्षिण श्वेत सहायक।
मैं, भल्ल सैन्य है वाम पार्श्व में हनुमान।
नल् नील और छोटे कपिगण उनके प्रधान।

प्रश्न 7.
प्रसाद गुण का एक उदाहरण लिखिए।
उत्तर:
प्रसाद गुण का उदाहरण –
प्रजा मूल अन्न सब अन्नन को मूल मेघ,
मेघन को मूल एक जज्ञ अनुसरिवौ।
जज्ञन को मूल धन, धन मूल धर्म अरु
धर्म मूल गंगाजल बिन्दु पान करिबौ।

प्रश्न 8.
माधुर्य गुण की उदाहरण सहित परिभाषा लिखिए।
उत्तर:
परिभाषा – जिससे चित्त आह्लाद से द्रवित हो जाय, उस काव्य गुण को माधुर्य कहते हैं।

उदाहरण –
प्रीतम छवि नैनन बसी, परछबि कहाँ समाय।
भरी सराय रहीम लखि आपु पथिक फिरि जाय।

प्रश्न 9.
प्रसाद गुण की सोदाहरण परिभाषा दीजिए।
उत्तर:
परिभाषा – जिस रचना का अर्थ सुनते ही सुनने वाले की समझ में आ जाय वहाँ प्रसाद गुण होता है। जिस प्रकार सूखे ईंधन में अग्नि तुरन्त व्याप्त हो जाती है, उसी प्रकार चित्त में प्रसाद गुण शीघ्र व्याप्त हो जाता है।

उदाहरण –
इसमें मानव समता के दाने बोने हैं।
जिससे उगल सके फिर धूलि सुनहरी फसलें।
मानवता के जोवन श्रम से हँसे दिशाएँ।

प्रश्न 10.
ओज गुण की परिभाषा लिखकर एक उदाहरण दीजिए।
उत्तर:
परिभाषा – जिस काव्य-रचना के पढ़ने अथवा सुनने से पाठक अथवा श्रोता का मन उत्साह से भर उठे, उसमें ओज नामक काव्य-गुण होता है।

उदाहरण –
यह पुण्य भूमि प्रसिद्ध है इसके निवासी आर्य हैं
विद्या, कला-कौशल सभी के जो प्रथम आचार्य हैं।
सन्तान उनकी आज यद्यपि हम अधोगति में पड़े।
पर चिहन अभी उच्चता के आज भी कुछ हैं खड़े।

प्रश्न 11.
प्रसाद गुण किन-किन रसों में प्रयुक्त होता है? कोई एक उदाहरण दीजिए।
उत्तर:
प्रसाद गुण सभी रसों में प्रयुक्त होता है किन्तु करुण रस, हास्य रस, शान्त रस तथा वात्सल्य रस में अधिक प्रयुक्त होता है।

उदाहरण –
जान्यो मनुज करि दनुज कानन दहन पावक हरि स्वयं ।
जेहि नमत शिव ब्रह्मादि सुर पिय भजेहु नहिं करुनामयं ॥
आजन्म ते पर द्रोह रत पापौघमय तब तनु अयं ।
तुम्हहूँ दियो निज धाम राम नमामि ब्रह्म निरामयं ॥

प्रश्न 12.
ओज गुण किन रसों में प्रयुक्त होता है? ओज रस का एक उदाहरण दीजिए।
उत्तर:
ओज गुण वीर रस, वीभत्स रस तथा रौद्र रस में पाया जाता है।
उदाहरण –
कौन लेगा मान यह?
जीवित है कौन?
सांस चलती है किसकी
कहता है कौन ऊँची छाती कर, मैं हूँ
मैं हूँ मेवाड़ मैं।…….

प्रश्न 13.
माधुर्य गुण किन-किन रसों से सम्बन्धित है? .
उत्तर:
माधुर्य गुण शृंगार रस, शान्त रस तथा करुण रसों से सम्बन्धित है। वैसे आचार्यों ने माधुर्य को सभी रसों के लिए उपयुक्त माना है।

प्रश्न 14.
काव्य गुणों का रसों से क्या सम्बन्ध है?
उत्तर:
काव्य-गुणों को रस की आत्मा कहा गया है। काव्य गुण वर्णों, पदों तथा अर्थ के माध्यम से काव्य की सरसता की वृद्धि किया करते हैं।

प्रश्न 15.
निम्नलिखित में से प्रसाद, ओज तथा माधुर्य काव्य-गुणों से सम्बन्धित पंक्तियाँ छाँटकर उनके सामने सम्बन्धित गुण का नाम लिखिए
(क) सच पूछो तो शर ही में बसती है दीप्ति विनय की।
(ख) किरण-धेनुओं का समूह यह आया अंधकार चरता।
(ग) संतो, भाई आई ज्ञान की आँधी रे।
(घ) प्रीतम छवि नैननि बसी, पर छवि कहाँ समाय।
(ङ) उठी अधीर धधक पौरुष की आग राम के शर से।
(च) निरखि सखी ये खंजन आये। फेरे उन मेरे रंजन ने इधर नयन मन भाये।
(छ) हिमाद्रि तुंग श्रृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती।
उत्तर:
(क) सच पूछो तो शर ही में बसती है दीप्ति विनय की – ओजपूर्ण।
(ख) किरण धेनुओं का समूह यह आया अंधकार चरता – माधुर्य गुण।
(ग) संतो, भाई आई ज्ञान की आँधी रे – प्रसाद गुण।
(घ) प्रीतम छवि नैननि बसी पर छवि कहाँ समाय – माधुर्य गुण।
(ङ) उठी अधीर धधक पौरुष की आग राम के शर से – ओज गुण।
(च) निरखि सखी ये खंजन आये। फेरे उन मेरे रंजन ने इधर नयन मन भाये – माधुर्य गुण।
(छ) हिमाद्रि तुंग शृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती – ओज पूर्ण।

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