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RBSE Solutions for Class 12 Hindi मंदाकिनी Chapter 10 गेहूँ बनाम गुलाब (निबन्ध)

July 30, 2019 by Safia Leave a Comment

Rajasthan Board RBSE Class 12 Hindi मंदाकिनी Chapter 10 गेहूँ बनाम गुलाब (निबन्ध)

RBSE Class 12 Hindi मंदाकिनी Chapter 10 पाठ्यपुस्तक के प्रश्नोत्तर

RBSE Class 12 Hindi मंदाकिनी Chapter 10 वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न 1.
मैदान जोते जा रहे हैं, बाग उजाड़े जा रहे हैं, किसके लिए?
(क) गेहूँ के लिए
(ब) गुलाब के लिए
(स) शान्ति के लिए
(द) खुशी के लिए
उत्तर:
(क) गेहूँ के लिए

प्रश्न 2.
गेहूँ और गुलाब के बीच आवश्यक है –
(अ) विरोध
(ब) सन्तुलन
(ग) शान्ति
(द) होड़
उत्तर:
(ब) सन्तुलन

प्रश्न 3.
गुलाब की दुनिया प्रतीक है –
(अ) स्वर्ग की
(ब) धरती की
(स) मानस की
(द) मस्तिष्क की
उत्तर:
(स) मानस की

RBSE Class 12 Hindi मंदाकिनी Chapter 10 अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
मानव को मानव किसने बनाया?
उत्तर:
मानव को मानव उसकी भावात्मक एवं सांस्कृतिक प्रवृत्ति ने बनाया।

प्रश्न 2.
मानव शरीर में सबसे नीचे का स्थान क्या है?
उत्तर:
मानव शरीर में सबसे नीचे का स्थान पेट है।

प्रश्न 3.
लेखक के अनुसार आने वाली दुनिया को हम कौन-सी दुनिया कहेंगे?
उत्तर:
आने वाली दुनिया को हम गुलाब की अर्थात् भावात्मक एवं सांस्कृतिक प्रवृत्ति की दुनिया कहेंगे।

RBSE Class 12 Hindi मंदाकिनी Chapter 10 लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
गेहूँ और गुलाब का सम्बन्ध किनसे है?
उत्तर:
गेहूँ का संबंध मनुष्य के शरीर के पुष्ट होने अर्थात् उसकी भौतिक सुख-सुविधाओं से है और गुलाब का संबंध उसके मन अर्थात् उसके भावात्मक एवं मानसिक आनंद से है।

प्रश्न 2.
‘अब गुलाब गेहूँ पर विजय प्राप्त करे’ से क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
तात्पर्य – अब समय है जब मनुष्य अपनी भूख और भौतिक सुख-साधनों की समृद्धि से सुख प्राप्त होने की कल्पना को त्यागकर मानसिक सुख-शान्ति को प्राप्त करने का प्रयास करें। नवीनीकरण द्वारा भौतिक वृत्तियों पर विजय प्राप्त करें।

प्रश्न 3.
लेखक के अनुसार राक्षसता क्या है?
उत्तर:
राक्षसता से लेखक का अभिप्राय उन दूषित मानसिक-प्रवृत्ति वाले लोगों से है जो दूसरों की बहू-बेटियों पर बुरी नजर रखते हैं। गरीबों का शोषण करते हैं। न खाने योग्य पदार्थों का सेवन करते हैं। संपन्न होते हुए भी और अधिक पाने की लालसा से ग्रसित हैं।

RBSE Class 12 Hindi मंदाकिनी Chapter 10 निबंधात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
गेहूँ और गुलाब की प्रतीकात्मकता स्पष्ट कर लेखक के उद्देश्य पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
गेहूँ और गुलाब दोनों का ही मानव जीवन में महत्व है। मानव के लिए पेट और मस्तिष्क दोनों की ही उपयोगिता है। गेहूँ खाने के काम आता है। इससे हमारा शरीर पुष्ट होता है, अत: गेहूँ हमारी भूख और आर्थिक प्रगति का द्योतक है। गुलाब को हम सँघते हैं, इससे हमारा मन पुलकित होता है, इसलिए गुलाब हमारी संस्कृति का प्रतीक है। 

आरंभ से मनुष्य ने अपनी भूख शान्त करने के लिए गेहूँ को आवश्यक महत्व दे रहा है। परन्तु भूख को मिटाना ही उसने अपने जीवन का मूल उद्देश्य नहीं समझा है। वह प्राचीन काल से ही अनेक साधनों को अपनाकर शारीरिक इच्छाओं पर विजय प्राप्त करने की कोशिश करता रहा है। यही कारण है कि आदिकाल में गेहूँ और गुलाब में अर्थात् धन और संस्कृति में अर्थात् भूख और सौन्दर्य में समन्वय था। आज वह समन्वय समाप्त हो गया है। मानव का दृष्टिकोण अतिवादी हो गया है। वह अर्थ (धन) के पीछे दौड़ रहा है। आधुनिक मानव 

पेट भरने को ही जीवन का परम लक्ष्य मानता है। वह सौन्दर्य, कला एवं संस्कृति से अपना सम्बन्ध तोड़ चुका है या कला और सौन्दर्य के नाम पर घोर विलासिता के कीचड़ में धंस चुका है। परिणाम यह है कि दोनों मानसिकता वाले व्यक्ति दु:खी हैं। अब समय बदल रहा है। भौतिकवादी भावना जगत से अब समाप्त होने वाली है और शीघ्र ही वह युग आने वाला है जो आध्यात्मिकता पर आधारित मानसिक भावों को महत्व देगा।

उद्देश्य – लेखक के अनुसार यद्यपि दोनों ही मानव के लिए आवश्यक है तथापि गेहूँ की अपेक्षा गुलाब को अर्थात् भौतिक प्रगति की अपेक्षा बौद्धिक एवं सांस्कृतिक प्रगति को अधिक महत्व दिया जाना चाहिए। लेखक का उद्देश्य है कि मनुष्य अपने जीवन में इन दोनों का सन्तुलन करे और चिरस्थायी सुख को प्राप्त करे।

प्रश्न 2.
इन्द्रिय संयमन और वृत्ति उन्नयन से आप क्या समझते हैं? ये क्यों आवश्यक हैं?
उत्तर:
इन्द्रिय संयमन से तात्पर्य है- अपनी इन्द्रियों पर नियन्त्रण पाना और वृत्ति उन्नयन का अर्थ है- अपने आचरण को उन्नत बनाना, उसे ऊपर की ओर उठाना अर्थात् इन्द्रिय संयमन और वृत्ति उन्नयन से आशय है- अपनी इन्द्रियों पर संयम रखकर अपने आचरण , को ऊपर उठाना। ऐसे कार्य करना जिससे किसी को कोई चोट अथवा नुकसान नहीं पहुँचे। इन्द्रिय संयमन के द्वारा मनुष्य को अपनी दुष्प्रवृत्तियों पर नियन्त्रण रखने में सहयोग मिलेगा। इन्द्रियों पर संयम रखना सबसे कठिन कार्य है। बड़े-बड़े ऋषि-मुनि भी अपनी इन्द्रियों को काबू में रखने में असफल रहे और उनकी तपस्याएँ भंग हो गईं।

वर्तमान में भी सत्य, अहिंसा, अस्तेय, प्रेम, कर्तव्यनिष्ठा, ईमानदारी और भाईचारे का उपदेश देने वाले महात्मा गाँधी, हम स्वयं का जिनका सबसे बड़ा अनुयायी बताते हैं। इन्द्रियों पर संयम रखने में असफल हैं। संयमन से दुष्प्रवृत्तियाँ नियन्त्रित होने के स्थान पर बढ़ती हैं। अत: इन्द्रिय संयमन से अच्छा उपाय है- अपनी वृत्तियों को ऊर्वोन्मुखी बनाना, उनकी दिशा बदलना। मन में स्थित वृत्तियों को ऐसी दिशा पर ले जाना, जिससे मनुष्य के सच्चरित्र का निर्माण हो सके। व्यक्ति दुष्वृत्तियों का त्याग करके सद्वृत्तियों का पालन करे और एक संस्कारित और सुगठित समाज का निर्माण करे। यही वह उपाय है जो दुष्वृत्तियों के मकड़ जाल में फँसे मनुष्यों को सही राह पर चलाकर उन्हें प्रगति पथ पर अग्रसर कर सकता है।

प्रश्न 3.
गेहूँ सिर धुन रहा खेतों में, गुलाब रो रहा बगीचों में से क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
आरंभ से मनुष्य अपनी भूख को शान्त करने के लिए गेहूँ आवश्यक मानकर महत्त्व देता आया है; किन्तु प्राचीन समय में उसने भूख मिटाने को ही अपने जीवन का मूल उद्देश्य नहीं समझा। अपनी शारीरिक तृप्ति के साथ-साथ मनुष्य ने अपनी मानसिक तृप्ति के भी उपाय खोजे । जहाँ उसने जानवरों को मारकर उनका माँस खाया, वहीं उसने उनकी खाल से ढोल और सींगों से तुरही भी बनाई। प्राचीनकाल से ही अनेक साधनों को अपनाकर वह शारीरिक इच्छाओं पर विजय प्राप्त करने की कोशिश करता रहा है। उस समय में गेहूँ।

और गुलाब में अर्थात् धन और संस्कृति में अथवा भूख और सौन्दर्य में समन्वय था। आज वह समन्वय दिखाई नहीं देता है। वर्तमान समय में मानव को दृष्टिकोण अतिवादी हो गया है। वह अर्थ के पीछे पागल हुआ दौड़ता चला जा रहा है। आधुनिक मानवे तो पेट भरने को ही जीवन का परम लक्ष्य मानता है। वह सौन्दर्य, कला एवं संस्कृति से अपना सम्बन्ध तोड़ चुका है या तो कला और सौन्दर्य के नाम पर विलासिता के गहरे कीचड़ में धंस चुका है। एक समय था जब गेहूँ भूख और श्रम का प्रतीक था और गुलाब सौन्दर्य का; किन्तु इनके पालनकर्ताओं ने गेहूँ को धन का और गुलाब को विलासिता का प्रतीक मान लिया है। परिणामतः दोनों ही दृष्टिकोणों के आधार पर जीवन-यापन करने वाले दुःखी हैं। इस प्रकार पेट भरने वाला गेहूँ खेतों में सिर धुन रहा है और सौन्दर्य का प्रतीक गुलाब बागों में रो रहा है। दोनों ही अपने-अपने पालनकर्ताओं के भाग्य और दुर्भाग्य पर आँसू बहा रहे हैं।

RBSE Class 12 Hindi मंदाकिनी Chapter 10 अन्य महत्त्वपूर्ण प्रश्नोत्तर

RBSE Class 12 Hindi मंदाकिनी Chapter 10 लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
‘गेहूँ बनाम गुलाब’ नामक निबन्ध में गेहूं व गुलाब किसके प्रतीक हैं?
उत्तर:
प्रस्तुत पाठ में लेखक ने गेहूँ को मानवे की भौतिक आवश्यकताओं का प्रतीक माना है। गेहूँ की आर्थिक, राजनैतिक एवं शारीरिक इच्छाओं की पूर्ति का साधन है। गुलाब को मानव की सांस्कृतिक प्रगति का प्रतीक माना है। गुलाब मनुष्य के मानसिक तथा बौद्धिक विकास को प्रस्फुटित करता है।

प्रश्न 2.
मनुष्य जन्म से ही अपने साथ क्या लेकर आया? अपनी भूख शांत करने के लिए उसने क्या-क्या किया?
उत्तर
मनुष्य जन्म से ही अपने साथ भूख और प्यास लेकर आया। अपनी भूख को शांत करने के लिए उसने माँ का स्तनपान किया, वृक्षों को झकझोरा। अपनी भूख को शांत करने के लिए उसने कीट-पतंग, पशु-पक्षी किसी को भी नहीं छोड़ा।

प्रश्न 3.
”मैदानजोते जा रहे हैं, बाग उजाड़े जा रहे हैं”- किसके लिए? लिखिए।
उत्तर:
मनुष्य को जब गेहूँ के विषय में ज्ञात हुआ वह कि इसे उगाकर और खाकर अपनी भूख को शांत कर सकता है तो उसने गेहूँ की खेती करने के लिए मैदानों को जोतकर और बागों को काटकर उन्हें साफ कर लिया।

प्रश्न 4.
पशु और मानव अन्तर का आधार क्या है?
अथवा
मनुष्य पशु से किस आधार पर श्रेष्ठ है?
उत्तर:
पशुओं के लिए केवल गेहूँ का महत्त्व है, उसके लिए गुलाब कोई महत्त्व नहीं रखता है, जबकि मनुष्य के लिए गुलाब उसकी मानसिक सन्तुष्टि का द्योतक है। मनुष्य में उसका मस्तिष्क, हृदय तथा पेट ऊपर से नीचे की ओर व्यवस्थित होता है, पशुओं में ऐसा न होकर सब कुछ एक सीध में होता है। मनुष्य के लिए मानसिक तुष्टि का महत्त्व पशु से अधिक है। यही कारण है कि वह पशु से श्रेष्ठ है।

प्रश्न 5.
भूख के साथ अपनी मानसिक संतुष्टि के लिए मनुष्य ने क्या-क्या कार्य किए?
उत्तर:
भूख को शांत करने के लिए जब उसने ऊखल और चक्की में गेहूँ को कूटा और पीसा तो उससे उत्पन्न संगीत ने उसे आनंद प्रदान किया। अपनी भूख मिटाने के लिए उसने जिन पशुओं को मारा, उनका माँस खाया, उनकी खाल से उसने ढोल बनाए। सग से तुरही बनाई। बाँस से लाठी के साथ बंशी भी बनाई। इन सभी ने उसे मानसिक संतुष्टि प्रदान की।

प्रश्न 6.
पेट की अग्नि (क्षुधा) शांत हो जाने पर मनुष्य किस ओर आकर्षित हुआ? इसका उस पर क्या प्रभाव पड़ा?
उत्तर:
पेट की अग्नि (भूख) शांत हो जाने पर मनुष्य प्रकृति के अनुपम सौन्दर्य की ओर आकर्षित हुआ। उसने ऊषा की लालिमा, सूर्य के प्रकाश और मधुरिम हरियाली के अनेक दृश्यों को निहारा तो वह उल्लास और प्रसन्नता से झूम उठा। आकाश में उमड़ते-घुमड़ते बादलों और इन्द्रधनुष को देखकर उसका मन मयूर नाचने लगा।

प्रश्न 7.
‘गेहूँ की आवश्यकता उसे है; किन्तु उसकी चेष्टा रही है गेहूँ पर विजय प्राप्त करने की।’ आशय स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
आरम्भ से मनुष्य अपनी भूख शान्त करने के लिए गेहूँ को आवश्यक मानकर महत्त्व देता रहा है, परन्तु केवल उसने भूख को मिटाना ही अपने जीवन का मूल उद्देश्य नहीं समझा। सत्यता यह है कि वह व्रत, उपवास और तपस्या जैसे अनेक साधनों को अपनाकर अपनी शारीरिक इच्छाओं पर विजय प्राप्त करने की कोशिश करता रहा है।

प्रश्न 8.
गेहूँ और गुलाब के मध्य सन्तुलन के समय मानव की स्थिति कैसी थी?
उत्तर:
गेहूँ और गुलाब के मध्य सन्तुलन के समय मानव सुखी और सानन्द रहा। वह कमाता हुआ गाता था और गाता हुआ कमाता था। वह बहुत प्रसन्न और सुखी था। उसके श्रम के साथ संगीत जुड़ा हुआ था तो उसके संगीत के साथ श्रम। इन दोनों के तालमेल ने उसे शारीरिक पुष्टि और मानसिक तुष्टि दोनों ही प्रदान की।

प्रश्न 9.
‘गेहूँ बनाम गुलाब’ निबन्ध में लेखक ने ‘साँवला’ कहकर किसे सम्बोधित किया है? उसका आरंभिक जीवन कैसा था?
उत्तर:
प्रस्तुत पाठ में लेखक ने ‘साँवला’ कहकर श्रीकृष्ण को संबोधित किया है। मथुरा जाने से पूर्व वह एक ग्वाले थे। वे वन में अपनी गाय चराने जाते थे और अपनी बाँसुरी बजाते थे। ऐसी स्थिति में भी वह अपने उच्च विचारों को नहीं भूले और जब मथुरा पहुँचे तब भी अपनी संस्कृति से जुड़े रहे। वहाँ भी उन्होंने बाँसुरी बजाना नहीं छोड़ा।

प्रश्न 10.
प्राचीनकाल से चले आ रहे गेहूँ और गुलाब के बीच सन्तुलन टूटने पर गेहूँ किसका प्रतीक बनकर रह गया?
उत्तर:
जब गेहूँ और गुलाब के बीच का यह सन्तुलन टूटने लगा तो गेहूँ जो प्राचीन समय में भूख और श्रम का प्रतीक था वह अब कमर तोड़, उबाने और थकाने वाले और नरक जैसी यातना देने वाले श्रम का परिचायक बन गया। ऐसा श्रम जो मनुष्य की भूख को ठीक से शांत नहीं कर पाता था, जो मात्र उसे कष्ट और यातनाएँ प्रदान करता था।

प्रश्न 11.
इस असन्तुलन ने गुलाब को किसका परिचायक बना दिया?
उत्तर:
प्राचीन समय से जो गुलाब बौद्धिक और सांस्कृतिक प्रगति का परिचायक था, वह गेहूँ और गुलाब के मध्य उत्पन्न हुए असन्तुलन से विलासिता का, भ्रष्टाचार का, दूषित मानसिकता और गलीज का परिचायक बन गया। यह ऐसी मानसिक विलासिता हैं जो मात्र मनुष्य के शरीर को ही नहीं नष्ट करती अपितु उसके मन और चरित्र को भी नष्ट करती है।

प्रश्न 12.
गेहूँ पर गुलाब की प्रभुता से क्या तात्पर्य है?
अथवा
गेहूँ पर गुलाब की प्रभुता किस प्रकार संभव है?
उत्तर:
मानव को भौतिक वस्तुओं के जाल से मुक्त होकर सांस्कृतिक एवं प्राकृतिक सौन्दर्य के आनन्द को प्राप्त करना होगा। भौतिक, आर्थिक एवं राजनीतिक आवश्यकताओं के स्थान पर सांस्कृतिक एवं भौतिक आवश्यकताओं को महत्त्व देना होगा। उसे मानसिक आवश्यकताओं का स्तर, शारीरिक आवश्यकताओं के स्तर से ऊँचा उठाना होगी। तभी गेहूँ पर गुलाब की प्रभुता संभव होगी।

प्रश्न 13.
विज्ञान ने हमें गेहूँ और मनुष्य की भूख के विषय में क्या-क्या जानकारियाँ प्रदान की हैं?
उत्तर:
वर्तमान समय में विज्ञान ने हमें गेहूँ के स्वरूप के विषय में बताया कि एक विशेष प्रक्रिया के माध्यम से आकाश और पृथ्वी 
के तत्व पौधों की बालियों में एकत्र होकर गेहूँ बन जाते हैं। वहीं मनुष्य में स्थित चिर-बुभुक्षा अर्थात् सदैव बनी रहने वाली भूख इन्हीं तत्वों की कमी का परिणाम है।

प्रश्न 14.
कौन-सी बात हस्तामलकवत् के समान कब सिद्ध होकर रहेगी? इस दिशा में विज्ञान किस प्रकार योगदान दे सकता है?
उत्तर:
मनुष्य के जीवन में गेहूं से अधिक गुलाब की उपयोगिता है। भौतिक आवश्यकताओं से अधिक मानसिक तुष्टि आवश्यक है। एक न एक दिन यह बात अवश्य सिद्ध होकर रहेगी, जब मनुष्य का ध्यान गेहूँ अर्थात् भौतिक संसाधनों को जुटाने से होने वाले असाध्य कष्टों की ओर जाएगा। यह बात स्वतः ही सिद्ध हो जाएगी। इसके लिए विज्ञान को सृजनशील बनना होगा। उसे जीवन की समस्याओं पर ध्यान देना होगा।

प्रश्न 15.
लेखक के अनुसार गेहूँ पर विजय किस प्रकार प्राप्त की जा सकती है?
उत्तर:
लेखक के अनुसार गेहूँ पर विजय सभी भौतिक वृत्तियों में नवीनीकरण द्वारा प्राप्त की जा सकती है। अर्थात् विज्ञान के माध्यम से ऐसे उत्तम किस्म के खाद, बीज और सिंचाई और जुताई के उन्नत तरीके ईजाद किए जाएँ जिनसे गेहूं की समस्या का पूर्णतः समाधान हो जाए और सम्पूर्ण विश्व में गेहूँ हवा और पानी के समान सभी को उपलब्ध हों।

प्रश्न 16.
प्रस्तुत पाठ में लेखक द्वारा उल्लेखित सोने की नगरी कौन-सी है? वहाँ के निवासी कैसे थे और क्या कहलाते थे?
उत्तर:
प्रस्तुत पाठ में लेखक द्वारा उल्लेखित सोने की नगरी, राक्षसराज रावण की नगरी लंका है, जो स्वर्ण निर्मित थी। इस नगरी के निवासी दुराचारी निशाचर थे। ये लोगों का खून पीते थे। दिन में सोते थे और रात्रि में भोजन की तलाश। दूसरों की बहू-बेटियों का अपहरण करने में इन्हें तनिक भी संकोच नहीं होता था। ये सभी राक्षस कहलाते हैं।

प्रश्न 17.
लेखक इन्द्रिय संयमन को कैसा मानता है? लिखिए।
उत्तर:
लेखक का मानना है कि इन्द्रिय संयमन के द्वारा मनुष्य की दुष्प्रवृत्तियों पर नियन्त्रण नहीं किया जा सकता। इंन्द्रियों पर संयम रखना आसान काम नहीं है। वह मानता है कि इसमें दुष्प्रवृत्तियाँ नियन्त्रित होने के स्थान पर बढ़ेगी और हम संयम की बात पर जितना जोर देंगे, समाज में उतना ही कदाचार बढ़ेगा।

प्रश्न 18.
वर्तमान में किसकी दुनिया समाप्त होने के कगार पर है? 
उत्तर:
वर्तमान में गेहूँ की अर्थात् भौतिकता की दुनिया समाप्त होने वाली है। मनुष्य ने स्वार्थवश जिस भौतिकता को अपनाया, उसी ने उस पर आर्थिक एवं राजनैतिक रूप से राज्य करना प्रारंभ कर दिया और उसका शोषण करने लगी। किन्तु अब यह भौतिकवादी भावना. संसार से नष्ट होने वाली है और जल्द ही नए युग का आरंभ होने वाला है।

प्रश्न 19.
लेखक के अनुसार किसकी दुनिया आरंभ होने जा रही है? यह दुनिया कैसी होगी?
उत्तर:
लेखक के अनुसार गुलाब की अर्थात् सांस्कृतिक और बौद्धिक प्रगति की दुनिया आरंभ होने जा रही है। यह दुनिया सन्तोष प्रदान करने वाली होगी। इस दुनिया में मन को सन्तोष मिल सकेगा और मानव संस्कृति विकसित हो सकेगी। हम शरीर को बाह्य आवश्यकताओं के बन्धन से मुक्त हो सकेंगे और हमारे मन में आध्यात्मिक शांति का नया संसार विकसित होगा।

प्रश्न 20.
“शौके दीदार अगर है, तो नजर पैदा कर!’ भाव स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
जल्द ही इस संसार से भौतिक युग समाप्त हो जाएगा और लोग धन अथवा अपने स्वार्थों को महत्त्व देने के स्थान पर श्रेष्ठ और महान विचारों तथा प्रेम और सौहार्द पर आधारित भावनाओं को महत्व देना प्रारंभ कर देंगे। शारीरिक भूख और तृप्ति के स्थान पर मानसिक सन्तोष और भावनाओं की सन्तुष्टि पर अधिक बल दिया जाएगा। सम्पूर्ण संसार सुखमय हो जाएगा। याद कोई आने वाले ऐसे सुनहरे युग को देखना और महसूस करना चाहता है तो उसे स्वयं में प्रत्यक्षीकरण की प्रबल जिज्ञासापूर्ण दृष्टि उत्पन्न करनी होगी।

RBSE Class 12 Hindi मंदाकिनी Chapter 10 निबंधात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
रामवृक्ष बेनीपुरी का संक्षिप्त जीवन-परिचय देते हुए उनका हिन्दी साहित्य में स्थान निश्चित कीजिए।
उत्तर:
जीवन-परिचय – रामवृक्ष बेनीपुरी का जन्म सन् 1902 ई. में बिहार के मुजफ्फरपुर जिले के बेनीपुर नामक ग्राम में हुआ था। सामान्य कृषक परिवार में जन्मे रामवृक्ष बेनीपुरी के हृदय में देशप्रेम की भावना बाल्यकाल से ही विद्यमान थी। अतः सन 1920 में असहयोग आन्दोलन में कूद पड़े। इनके इस कार्य का प्रभाव उनकी शिक्षा पर भी पड़ा। फलस्वरूप इनकी शिक्षा का क्रम भंग हो गया। बाद में इन्होंने प्रयाग से ‘विशारद’ परीक्षा उत्तीर्ण की। 
भारतीय स्वाधीनता संग्राम आन्दोलन के सक्रिय सेनानी होने के कारण ये अनेक बार कारावास भी गए। फिर भी उनकी स्वतन्त्रता और सरस्वती की आराधना नहीं रुकी। बेनीपुरी जी आजीवन साहित्य – साधना में व्यस्त रहे। सन् 1968 ई. में इस महान स्वतंत्रता सेनानी और सरस्वती के साधक को देहावसान हो गया।

हिन्दी साहित्य में स्थान – बेनीपुरी जी नाटककार, निबन्धकार एवं कुशल अभिव्यक्ति से सम्पन्न राष्ट्रीय साहित्यकार थे। इन्होंने अपनी रचना सम्पदा से हिन्दी-साहित्य के कोष में समृद्धि की। ये शब्दों के जादूगर और भाषा के बादशाह थे। अपनी अमूल्य कृतियों . के कारण बेनीपुरी जी हिन्दी-साहित्य के क्षेत्र में एक स्मरणीय प्रतिभा सम्पन्न साहित्यकार के रूप में प्रतिष्ठित हैं।

प्रश्न 2.
रामवृक्ष बेनीपुरी की साहित्यिक सेवाओं का उल्लेख करते हुए उनकी कृतियों पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
साहित्यिक सेवाएँ – बेनीपुरी जी देशभक्ति, मौलिक साहित्यिक प्रतिभा, अथक समाज सेवा और चारित्रिक पावनता के अद्भुत समन्वय थे। एक प्रतिभासम्पन्न साहित्यकार के रूप में बेनीपुरी-जी गद्य के क्षेत्र में विशेष लोकप्रिय हुए हैं। इन्होंने कहानी, उपन्यास, नाटक, रेखाचित्र, संस्मरण, जीवनी, यात्रा-वृत्त, आलोचना एवं टीका तथा ललित निबन्ध के रूप में अनेक पुस्तकों की रचना करके हिन्दी साहित्य के भण्डार को श्रीवृद्धि की। बेनीपुरी जी की अस्सी से अधिक बालोपयोगी, किशोरोपयोगी, राजनैतिक एवं साहित्यिक विषयों पर पुस्तकें प्रकाशित हुईं। स्वतन्त्रता के पश्चात् पदों और उपाधियों से दूर रहकर उन्होंने देश में पनपती पद-लोलुपता और भोगवादी प्रवृत्तियों पर तीखे व्यंग्य करते हुए सशक्त भारत के निर्माण के प्रयास किए।

कृतियाँ – बहुमुखी प्रतिभासम्पन्न बेनीपुरी जी की प्रमुख कृतियाँ निम्नलिखित
हैंसंस्मरण – जंजीरें और दीवारें, मील के पत्थर आदि।
निबन्ध एवं रेखाचित्र – गेहूँ और गुलाब, माटी की मूरत, लाल तारी, वन्दे वाणी विनायकौ, मशाल आदि।
नाटक – सीता की माँ, अम्बपाली, रामराज्य आदि।
उपन्यास – पतितों के देश में । कहानी
संग्रह – चिता के फूल जीवनी- कार्ल-मार्क्स, जयप्रकाश नारायण, महाराणा प्रतापसिंह
यात्रावृत्त – पैरों में पंख बाँधकर, उड़ते चलें। आलोचना- विद्यापति पदावली, बिहारी सतसई की सुबोध टीका। 
बेनीपुरी जी एक यशस्वी पत्रकार भी रहे। इन्होंने तरुण भारत, कर्मवीर, युवक, हिमालय, नई धारा, बालक, किसान मित्र आदि पत्र-पत्रिकाओं का कुशलतापूर्वक सम्पादन किया।

प्रश्न 3.
‘गेहूँ बनाम गुलाब’ निबन्ध के आधार पर स्पष्ट कीजिए कि मनुष्य ने अपनी शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति के साथ मानसिक, बौद्धिक और आत्मिक आवश्यकताओं की संतुष्टि के लिए क्या प्रयास किए? इनका उस पर क्या प्रभाव पड़ा?
उत्तर:
अपने जन्म के साथ ही मनुष्य अपनी सर्वप्रथम एक मौलिक शारीरिक आवश्यकता अर्थात् अपनी भूख को मिटाने के लिए प्रयासरत हुआ। अपनी भूख मिटाने के लिए उसने सर्वप्रथम अपनी माँ के स्तन से दूध पीया और धीरे धीरे उसने पेड़-पौधों से अपने भोजन की जुगत लगाई। यहाँ तक कि अपनी भूख शांत करने के लिए उसने कीट-पतंगे, पशु-पक्षी किसी को नहीं छोड़ा। परन्तु जिस प्रकार काली रात के बीत जाने के बाद मनुष्य प्रात:काल की लालिमा और सौन्दर्य के प्रति आकर्षित होता है उसी प्रकार पेट की आग बुझ जाने के बाद वह प्रकृति के अद्वितीय सौन्दर्य की ओर आकर्षित हुआ।

जब उसने उषा की अलौलिक लालिमा, सूर्य के प्रकाश और पेड़पौधों की मधुरिम हरियाली को निहारा तो वह उल्लास और प्रसन्नता से नाच उठा, झूम उठा। आकाश में उमड़ती-घुमड़ती काली घटाओं ने उसको मन केवल इसलिए नहीं आकर्षित किया कि उनके बरसने पर अन्न पैदा होगा जो उसका पेट भरेगा। अपितु प्रकृति के इस अनुपम सौन्दर्य को देखकर वह आत्म-विभोर हो गया। उसका मन-मयूर नाचने लगा। बादलों के बीच प्रकट हुए इन्द्रधनुष को देखकर उसको मन उल्लास से भर गया। 

इस प्रकार मनुष्य ने न केवल अपनी शारीरिक आवश्यकताओं की तृप्ति की अपितु अपनी मानसिक संतुष्टि भी प्राप्त की। उसने अपनी भूख ही नहीं मिटाई अपितु प्रकृति के सौन्दर्य को भी निहारा । जिसने उसके मन को प्रसन्न, उल्लसित और तृप्त कर दिया। भूख के कारण वह प्रकृति के जिस सौन्दर्य से अनभिज्ञ था, पेट भरा होने पर वह नि:स्वार्थ भाव और स्वाभाविक रूप से प्रकृति के सौन्दर्य को निहार-सका।

प्रश्न 4.
“मानव शरीर में पेट का स्थान नीचे है; हृदय का ऊपर और मस्तिष्क सबसे ऊपर।” सूक्ति के आधार पर स्पष्ट कीजिए कि विधाता ने मनुष्य को पशु से किस प्रकार भिन्न बनाया है? मनुष्य का कौन-सा गुण उसे श्रेष्ठ बनाता है?
अथवा
मनुष्य और पशु में अन्तर स्पष्ट करते हुए बताइए कि मनुष्य पशु से किस प्रकार श्रेष्ठ है?
उत्तर:
गेहूँ और गुलाब दोनों का ही मानव-जीवन में महत्त्व है; अर्थात् मानव के पेट और मस्तिष्क दोनों की ही उपयोगिता है। गेहूँ। उसकी भूख मिटाने के काम आता है। उसके शरीर को पुष्ट बनाता है, जबकि गुलाब को वह सँघता है। उसका मन पुलकित होता है। इस प्रकार मनुष्य को विधाता ने इन दोनों का उपभोग करने के लिए बनाया है। उसने एक सुनिर्धारित क्रम में मानव शरीर के विभिन्न अंगों की रचना की है। उसने मानव में सबसे ऊपर मस्तिष्क की और सबसे नीचे पेट की रचना की। इन दोनों के बीच हृदय को स्थापित किया और इन तीनों को इनकी स्थिति के अनुसार ही महत्त्व भी प्रदान किया। मस्तिष्क व्यक्ति को विचारशील बनाता है। हृदय उसंमें भावनाओं का संचार करता है और पेट शारीरिक भूख को जन्म देता है।

इस आधार पर मनुष्य को सर्वप्रथम अपनी मानसिक तुष्टि को सबसे अधिक महत्त्व देना चाहिए। इसके बाद भावनात्मक और सबसे अंत में शारीरिक सन्तुष्टि पर ध्यान देना चाहिए। इसके विपरीत विधाता ने पशुओं को एक सीधी रेखा में व्यवस्थित किया है। उसके लिए गेहूँ अर्थात् उसकी शारीरिक संतुष्टि की पूर्ति ही सर्वोपरि है। पेट के भर जाने पर पशुओं को सन्तुष्टि हो जाती है। पेट की भूख शान्त हो जाने पर वह कुछ और नहीं करना चाहता है। यह ईश्वर की विचारहीन कृति है। पशु प्रकृति के सौन्दर्य का आनन्द नहीं ले सकता, वह केवल उसका उपभोग कर सकता है, जबकि मनुष्य प्रकृति के प्रत्येक तत्व का उपभोग करने के साथ-साथ उसके प्रत्येक तत्व का आनंद भी ले सकता है। उसकी यही विशेषता उसे पशु से श्रेष्ठ बनाती है।

प्रश्न 5.
मनोविज्ञान द्वारा बताए गए उपायों में से लेखक दुष्प्रवृत्तियों को नियन्त्रण करने के लिए किस उपाय को श्रेष्ठ मानता है?
अथवा
किन दृष्टांतों के आधार पर लेखक ने दुष्वृत्तियों को वश में करने के लिए इन्द्रिय संयमन की अपेक्षा वृत्तियों को ऊर्ध्वगामी करने के उपाय को श्रेष्ठ माना है?
उत्तर:
लेखक रामवृक्ष बेनीपुरी जी ने मनोविज्ञान द्वारा बताए गए वृत्ति उन्नयने के उपायों का विवेचन करते हुए इन्द्रिय संयमन के विषय में कहा कि इन्द्रिय संयमन के द्वारा मनुष्य की दुष्प्रवृत्तियों पर नियन्त्रण नहीं किया जा सकता है। अपनी इस बात की पुष्टि के लिए उन्होंने दृष्टांत देते हुए कहा कि सदियों से हमारे ऋषि-मुनि लोगों की इन्द्रियों को अपने वश में करके संयम बरतने का उपदेश देते आए हैं; किन्तु यह बात केवल उपदेशों तक ही सिमटकर रह गई है। समाज पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा; क्योंकि इंद्रियों पर संयम रखना आसान काम नहीं है। दूसरों को उपदेश देने वाले महातपस्वी भी जब स्वयं पर संयम नहीं रख सके तो साधारणजन से संयम बरतने की अपेक्षा रखना स्वयं को धोखा देना है।

इससे दुष्प्रवृत्तियाँ नियंत्रित होने के स्थान पर बढ़ेगी और समाज में कदाचार उतने ही बढ़ेंगे। वर्तमान में भी गाँधीजी ने तीस वर्षों तक दिन-रात सत्य, अहिंसा, अस्तेय, प्रेम, कर्तव्यनिष्ठा, ईमानदारी और भाईचारे इत्यादि आदर्शों का उपदेश दिया और स्वयं को उनका सच्चा अनुयायी बताने वाले हम सभी इन आदर्शों पर चलकर उन्नति करने के स्थान पर दिन-दिन गिरते हुए रसातल तक पहुँच गए हैं। इन दोनों दृष्टांतों के आधार पर लेखक का मानना है कि संयमन द्वारा दुष्प्रवृत्तियों पर नियन्त्रण संभव नहीं है। उनका मानना है कि इन्हें नियन्त्रित करने का एकमात्र उपाय मानव मन में स्थित वृत्तियों की दिशा बदलकर उन्हें ऊर्ध्वमुखी बना दिया जाए।

प्रश्न 6.
पाठ के अंत में लेखक ने कैसे मानव जगत की कल्पना की है? उसे देखने के लिए कैसी दृष्टि उत्पन्न करने की आवश्यकता है?
अथवा
कैसी मानसिकता वाला युग समाप्त होने वाला है? उसकी समाप्ति के बाद कैसे युग का आरंभ होगा? इस युग के दर्शन के लिए मनुष्य को कैसी दृष्टि की आवश्यकता होगी?
उत्तर:
भौतिकता पर आधारित यह जगत जो आर्थिक और राजनैतिक रूप में हम पर शासन करता रहा, अब समाप्त होने वाला है। मनुष्य की वह भौतिक मानसिकता अब समाप्त होने वाली है, जो अब तक आर्थिक शोषण के रूप में निर्धन का रक्त पीती रही और तुच्छ राजनैतिक गतिविधियों के रूप में बढ़ती रही, अब समाप्त होने वाली है। अब मानसिक सन्तोष का युग आने वाला है। यह ऐसा संसार होगा, जिसमें मन को सन्तोष मिल सकेगा और मानव की संस्कृति विकसित हो सकेगी। वह दिन बहुत मंगलमय होगा, जब हम शरीर की बाह्य आवश्यकताओं के बन्धन से मुक्त हो सकेंगे और हमारे मन में आध्यात्मिकता का नवीन संसार विकसित होगा।

तब हम गुलाब की सांस्कृतिक धरती पर स्वच्छन्दता के साथ विचरण कर सकेंगे। शीघ्र ही वह समय आने वाला है जब भौतिकता पर आध्यात्मिकता की विजय होगी। लोग धन अथवा अपने स्वार्थों को महत्त्व देने के स्थान पर उच्च विचारों तथा प्रेम और सौहार्द पर आधारित भावनाओं को महत्त्व प्रदान करेंगे। शारीरिक भूख की तृप्ति पर अधिक ध्यान दिया जाएगा और सम्पूर्ण संसार में सुख और शान्ति का वातावरण उत्पन्न हो जाएगा। यदि कोई आने वाले ऐसे सुनहरे युग के दर्शन करना चाहता है तो उसे स्वयं में इस युग के प्रत्यक्षीकरण की प्रबल जिज्ञासापूर्ण दृष्टि उत्पन्न करनी होगी।

पाठ-सारांश :

गेहूँ बनाम गुलाब’ श्री रामवृक्ष बेनीपुरी द्वारा रचित एक ललित निबन्ध है। इस निबन्ध के अन्तर्गत लेखक ने गेहूँ को भौतिक, आर्थिक एवं राजनैतिक प्रगति का प्रतीक माना है और गुलाब को मानसिक अर्थात् सांस्कृतिक प्रगति का प्रतीक माना है। इन दोनों का सन्तुलन ही मानव जीवन को पूर्णता प्रदान कर सकता है।

प्राचीनकाल में गेहूँ और गुलाब की स्थिति – मनुष्य अपने जन्म के साथ ही भूख साथ लेकर आया। अपनी इस भूख-प्यास को मिटाने के लिए उसने प्रकृति के हर तत्व से भोजन जुटाने का प्रयास किया। जन्म से ही अपने साथ भूख लाने वाला यही मनुष्य आदिकाल से ही सौन्दर्य-प्रेम भी रहा है। अपनी क्षुधा को शान्त करने के लिए उसने जहाँ एक ओर कठिन परिश्रम किया, वहीं अपनी कोमल भावनाओं को भी नष्ट नहीं होने दिया। उसने अपनी इन कोमल भावनाओं को भी नष्ट नहीं होने दिया। उसने अपनी इन कोमल भावनाओं का कुशलतापूर्वक पोषण किया।

अपनी भूख मिटाने के लिए जहाँ उसने पशुओं को मारकर उनका माँस खाया, वहीं अपने मनोरंजन और अपनी मानसिक शांति के लिए उन्हीं पशुओं की खाल से ढोल भी बनाया। बाँस से लाठी बनाने के साथ-साथ उसने बाँसुरी भी बनाई । यदि समग्र रूप में यह कहें कि प्राचीनकाल से ही गेहूँ अर्थात् भौतिक शांति के साथ-साथ गुलाब अर्थात् मानसिक प्रगति को भी महत्व दिया जाता रहा है तो इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। गेहूँ और गुलाब की वर्तमान स्थिति- मनुष्य के शरीर में पेट का स्थान नीचे और मस्तिष्क का सबसे ऊपर होता है।

वह गेहूँ। खाता है और गुलाब सँघता है। एक से उसका शरीर तृप्त होता है और दूसरे से उसका मन तृप्त होता है। मनुष्य ने जब से दो पैरों पर चलना सीखा उसके मन ने गेहूँ अर्थात् अपनी भूख पर काबू करने के प्रयास शुरू कर दिए। वह आदिकाल से ही उपवास, व्रत एवं तपस्या करके गेहूँ पर विजय प्राप्त करने की चेष्टा कर रहा है; गेहूँ और गुलाब के सन्तुलन में ही सुख है, शक्ति है; परन्तु आज यह सन्तुलन टूट रहा है। वर्तमान समय में गेहूँ घोर परिश्रम का प्रतीक बन गया है और गुलाब घोर विलासिता का।

सन्तुलन की आवश्यकता – मनुष्य ने जब से अपनी क्षुधा को शांत करने के लिए परिश्रम करना आरंभ किया, उसने परिश्रम के साथ संगीत को भी महत्त्व दिया। आदिकाल में मनुष्य ने गेहूँ और गुलाब अर्थात् शरीर और मन में समन्वय स्थापित किया था। यही कारण था कि वह बहुत सुखी था; परन्तु वर्तमान युग के भौतिकतावादी समय में यह सन्तुलन टूट गया है। इसलिए सर्वत्र अशान्ति और हाहाकार मचा हुआ है। सभी जगह युद्ध और संकट के बादल मँडरा रहे हैं। यदि इसी प्रकार गुलाब और गेहूँ का यह संतुलन बिगड़ता गया तो सर्वनाश निश्चित है।

भौतिक समृद्धि से सुख की प्राप्ति कल्पना मात्र है – भौतिक सुख-सुविधाओं से स्थायी सुख एवं शांति की प्राप्ति असंभव है; यह केवल क्षणिक अथवा सुख का दिखावा मात्र अवश्य हो सकती है; किन्तु इससे मानव की स्थायी प्रगति नहीं हो सकती है। इस वास्तविकता को भुलाकर मानव इन भौतिक सुख-साधनों के पीछे दौड़ रहा है, परिणामस्वरूप मानवता के स्थान पर दानवता बढ़ रही है। भौतिक समृद्धि अनिष्ट का कारण नहीं है किन्तु मनुष्य की अधीरता और इन साधनों को प्राप्त करने की लालसा ने उसे भौतिकता में व्याप्त राक्षसी प्रवृत्तियों में संलिप्त कर दिया है। भौतिकता में व्याप्त ये राक्षसी प्रवृत्तियाँ सबसे अधिक अहितकर हैं। इसलिए आज यह आवश्यक हो गया है कि ऐसे उपाय किए जाएँ, जिससे व्यक्ति को मानसिक संस्कार हो; अर्थात् गेहूँ पर गुलाब की, शरीर पर मन की और भौतिकता पर सांस्कृतिकता की विजय हो।

नए युग का आरंभ – गेहूँ की दुनिया अर्थात् भौतिकता की स्थूल दुनिया नष्ट हो रही है। अब गुलाब की दुनिया अर्थात् सांस्कृतिक और भावात्मक दुनिया का आरंभ हो रहा है। इस युग में मानवता पर पड़ा हुआ गेहूँ का मोटा आवरण हट जाएगा और मानव-जीवन संगीतमय होकर संगीत, नृत्य एवं आनंद से मचल उठेगा । यह युग संस्कृति का युग होगा। यह रंगों, सुगन्धों और सौन्दर्य का संसार होगा।

कठिन शब्दार्थ :

(पा.पु.पृ. 82) भावात्मक = भावनाओं पर आधारित । सांस्कृतिक = संस्कृति से संबंधित । भौतिकता = स्थूलता । मानसिक = मस्तिष्क की। आनन्द = प्रसन्नता। प्रतीक = चिह्न। तृप्ति = संतुष्टि। स्थूल = बाहरी, भौतिक। जगत = संसार । सूक्ष्म = महीन। पुष्ट = मजबूत मानस = मन। मानव = मनुष्य। पृथ्वी = धरती। क्षुधा = भूख। पिपासा = प्यास। वृक्ष = पेड़।,

(पा. पु.पृ. 83) काफिला = समूह। सिसकियाँ लेना = रोना। वृत्ति = आदत । रक्खा = रखा। तरजीह = महत्त्व । कामिनियाँ = पत्नियाँ। तृप्त = संतुष्ट । वंशी = बाँसुरी । घुप्प = घना । उच्छवसित = विकसित, खिला हुआ। समिधा = यज्ञ में आहुति के लिए दी जाने वाली लकड़ियाँ । सहूलियत = सुविधा । आनंद-विभोर होना = प्रसन्न होना । उषा = प्रात:काल। शनै = धीरे । प्रस्फुटित = फूटने वाली । लक्ष = लाखों। समानान्तर = समान। चेष्टा = प्रयास। श्रम = परिश्रम । साँवला = श्रीकृष्ण 

(पा.पु.पृ. 84) उबाने वाला = बोरियत पैदा करने वाला। नारकीय = नरक के समान। यंत्रणाएँ = कष्ट। श्रम = परिश्रम। क्षुधा = भूखा । गलीच = गन्दा, मैला। नवीन = नया। चिरस्थायी = सदैव रहने वाला। चेष्टा = प्रयास। सिर खपाना = बेकार परिश्रम करना। चिर = सदैव । आकांक्षा = इच्छा। सोलह आने = पूरी तरह। जताना = महसूस कराना। बुभुक्षा = भूख। पृथ्वी = धरती । संगृहीत = एकत्र। अनहोनी = न होने वाली। आकाश-पाताल एक करना = पूरी कोशिश करना । हस्तामलकवत् = हाथ में रखे आँवले के समान, पूरी तरह स्पष्ट। संहार = नाश ।

(पा.पु.पृ.85) कदम = चरण, पैर। परमावश्यक = सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण। इफरात = बहुतायत । तरीके = उपाय। किस्म = प्रकार । प्रचुरता = पूर्ण उपलब्धता । निवास करना = रहना ।तनिक = जरा। झिझक = शर्म । रक्त = खून, लहू। अभक्ष्य = न खाने योग्य । अकाय = बिना स्वरूप वाला। शिर = सिर । प्रबल = ताकतवर। क्षुधा = भूख। वासनाएँ = बुरी इच्छाएँ, आदतें । जागृत करना = जगाना। तबाह करना = नष्ट करना। संयमन = संयम, नियन्त्रण । ऊर्ध्वगामी = ऊपर की ओर जाने वाली, उच्च विचारों वाली। नतीजे = परिणाम । स्खलित = नष्ट, भंग।

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