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RBSE Solutions for Class 12 Hindi पीयूष प्रवाह Chapter 4 मानस का हंस

May 4, 2019 by Fazal Leave a Comment

RBSE Solutions for Class 12 Hindi पीयूष प्रवाह Chapter 4 मानस का हंस is part of RBSE Solutions for Class 12 Hindi. Here we have given Rajasthan Board RBSE Class 12 Hindi पीयूष प्रवाह Chapter 4 मानस का हंस.

Rajasthan Board RBSE Class 12 Hindi पीयूष प्रवाह Chapter 4 मानस का हंस

RBSE Class 12 Hindi पीयूष प्रवाह Chapter 4 मानस का हंस पाठ्य-पुस्तक के प्रश्नोत्तर

RBSE Class 12 Hindi पीयूष प्रवाह Chapter 4 मानस का हंस वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न 1.
‘विरक्त अब फिर से राग के बन्धनों में नहीं बँध सकता।’ यह कथन है –
(क) रत्नावली का
(ख) तुलसीदास का
(ग) राजा भगत का
(घ) टोडरमल का।
उत्तर:
(ख)

प्रश्न 2.
अब इस जन्म में हमारा-तुम्हारा साथ नहीं हो सकता’-तुलसीदास के इस कथन में व्यंजित भाव है –
(क) वेदना
(ख) पश्चात्ताप
(ग) वैराग्य
(घ) तिरस्कार।
उत्तर:
(ग)

RBSE Class 12 Hindi पीयूष प्रवाह Chapter 4 मानस का हंस अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
राजा भगत अपने साथ किसको लेकर आए?
उत्तर:
राजा भगत अपने साथ रत्नावली को लेकर आये।

प्रश्न 2.
‘इस कलिकाल में ऐसा कठिन जोग साधने वाली जोगिन मैंने नहीं देखी’-पंक्ति में ‘जोगिन’ शब्द किसके लिए प्रयुक्त हुआ है?
उत्तर:
यह कथन राजा भगत का है और उन्होंने ‘जोगिन’ शब्द रत्नावली के लिए प्रयुक्त किया है।

प्रश्न 3.
रत्नावली ने तुलसीदास से किस रचना की प्रति माँगी?
उत्तर:
रत्नावली ने तुलसीदास से उनके द्वारा रचित ‘रामचरितमानस’ की प्रति माँगी।

प्रश्न 4.
विदाई के समय भिक्षा के रूप में रत्नावली ने क्या विनती की?
उत्तर:
रत्नावली ने तुलसी से विनती की कि वे मृत्यु से पहले उसे एक बार अपना श्रीमुख दिखाने की कृपा करें।

RBSE Class 12 Hindi पीयूष प्रवाह Chapter 4 मानस का हंस लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
“केशव, यह दोनों परस्पर विरोधी विशेषताएँ, वो मुझमें कदापि नहीं हो सकतीं।”-तुलसीदास के इस कथन में व्यक्त पीड़ा का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
तुलसी के सम्बन्ध में अलग-अलग धारणाएँ थीं। कोई उन्हें महामुनि और कोई कपटी-कुचाली कहता था । तुलसी कहते हैं कि ये दोनों विरोधी विशेषताएँ मुझसे सहन नहीं होतीं। मैं अधम प्राणी हूँ तभी आप (उनके आराध्य राम) मुझे दर्शन नहीं दे रहे। मुझे एक बार कह दो कि मैं तुम्हारा हूँ। इसे सुनकर मेरे हृदय को सन्तोष हो जाएगा। यह सुनकर मुझे किसी और चीज की अपेक्षा नहीं रहेगी। मुझे आपका भरोसा चाहिए, विश्वास चाहिए। आपका सान्निध्य चाहिए। तुलसी को पीड़ा है कि प्रभु उन्हें दर्शन नहीं देते। अपना नहीं कहते । तुलसी यह सुनना चाहते हैं कि तुलसी राम का है। इसी पीड़ा से वे व्यथित हैं।

प्रश्न 2.
राजा भगत का तुलसीदास से मिलने का क्या उद्देश्य था? वे कहाँ तक सफल रहे?
उत्तर:
राजा भगत अपने साथ रत्नावली को लाये थे। उनका उद्देश्य था कि रत्नावली तुलसी के पास ही रहें। किन्तु वे अपने उद्देश्य में सफल नहीं हुए। यद्यपि तुलसी के मन में रत्नावली के प्रति स्नेह था। किन्तु उनके हृदय में अन्तर्द्वन्द्व था। कभी वे रत्नावली की ओर झुकते तो कभी राम की भक्ति की ओर मुड़ जाते। अन्त में उन्होंने रत्नावली को मठ से चले जाने के लिए कह दिया। राजा भगत का जो उद्देश्य था वह पूरा नहीं हुआ। वैराग्य के कारण तुलसी ने रत्नावली को स्वीकार नहीं किया।

प्रश्न 3.
“रामजी कदाचित् मुझे इसलिए दर्शन नहीं दे रहे हैं कि मैं रत्नावली से निठुराई बरत रहा हूँ।” पंक्ति में निहित तुलसीदास के अन्तर्द्वन्द्व को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
तुलसी के हृदय में अन्तर्द्वन्द्व था। उनका मन थाली के बैंगन की तरह कभी रत्नावली की ओर झुकता तो कभी राम की ओर मुड़ जाता । राजा से बात करने के बाद उन्होंने चादर तान ली। राम-राम जपना भी आरम्भ किया किन्तु रत्नावली उनके मन से नहीं हटी। वे सोचने लगे कि रत्नावली उनके पास आए अपना दुख-सुख उनसे कहे। कभी सोचते रत्नावली को अपने पास रख लूं इससे उसे सुख मिलेगा। रत्नावली से दूर रहने के लिए ही शायद राम दर्शन नहीं दे रहे हैं। उनका मन इसी उहापोह में रहता। कभी मन रत्नावली के मोह में फँस जाता, कभी राम की ओर मुड़ जाता । इसी अन्तर्द्वन्द्व के कारण वे रातभर सो न सके। मन की गति अस्थिर थी।

प्रश्न 4.
तुलसीदास ने रत्नावली को काशी में रहने की अनुमति क्यों नहीं दी?
उत्तर:
तुलसीदास के मन में अन्तर्द्वन्द्व था। कभी मन रत्नावली की ओर मुड़ जाता, कभी राम की भक्ति की ओर मुड़ जाता। तुलसीदास ने वैराग्य धारण कर लिया था। रत्नावली यदि मठ में रहती तो मोह के वशीभूत होकर राम की भक्ति में मन स्थिर नहीं हो पाता। उनकी साधना में व्यवधान उत्पन्न होता । रत्नावली से वार्तालाप करते समय उन्होंने स्वयं कहा था कि अब आँसू न बहाओ अन्यथा मेरे मन का धैर्य और सन्तोष बँट जायगा। इस कारण उन्होंने रत्नावली को काशी में रहने के लिए मना कर दिया था।

RBSE Class 12 Hindi पीयूष प्रवाह Chapter 4 मानस का हंस निबन्धात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
‘सेवक का धर्म कठिन होता है।’ कथन के आधार पर तुलसीदास के व्यक्तित्व में तत्कालीन सामाजिक परिदृश्य का चित्रण कीजिए।
उत्तर:
सेवक का धर्म कठिन होता है। उसे स्वामी के अतिरिक्त और किसी से अनुराग नहीं होता। तुलसी स्वयं को राम का सेवक मानते थे। अतः मन को राम की भक्ति में ही तल्लीन रखना चाहते थे। मोह उत्पन्न होने पर सेवक की भक्ति में व्यवधान उत्पन्न होता है। तुलसी ने इसी कारण रत्नावली को आश्रम में नहीं रहने दिया, यद्यपि उनका मन बार-बार रत्नावली की ओर झुकता था, किन्तु राम की भक्ति को सर्वश्रेष्ठ मानकर उन्होंने रत्नावली का त्याग कर दिया। मोह में नहीं बँधे । सेवक धर्म का निर्वाह तलवार की धार पर चलने के समान है। सेवक को संसार से विरक्त होना पड़ता है। तुलसी ने भी राम की सेवा के लिए सब भोगों का त्याग कर दिया। किसी भी प्रकार के मोह में बँधकर सेवक अपने धर्म से विमुख हो जाता है। इस कारण तुलसी ने सेवक धर्म को कठिन बताया है। राम के अतिरिक्त उन्हें कुछ भी अच्छा नहीं लगता था। उनके हृदय में रत्नावली के त्याग का दुख भी है। मैं अपने और पत्नी के सुख के लिए समाज की आस्था अधर में नहीं लटका सकता। यह था तुलसी का व्यक्तित्व।

तुलसी के समय में जनता मुगलों के शासन से संघर्ष करते हुए हतोत्साहित हो गई थी और विलासिता के पंक में डूब चुकी थी।

राजा एक से अधिक स्त्रियाँ रखते थे। मुगलों के शासन में वर्ण व्यवस्था शिथिल हो गई थी। उस समय लोग जीविकाहीन और निरुद्देश्य भटक रहे थे। सदाचार नष्ट हो रहे थे। उनके समय में ओर ही लोगों का ध्यान था। धनोपार्जन विशेष उद्देश्य था। नारियों की दशा ठीक नहीं थी। उदरपूर्ति के लिए सन्तान का क्रय-विक्रय होता था। ब्राह्मणों की स्थिति शोचनीय थी। दहेज प्रथा प्रबल थी। तुलसी के समय विवाह के अवसर पर रीति-रिवाजों का पालन किया जाता था। अन्धविश्वास व्याप्त था। नारियों को एक ओर महान् गौरव प्रदान था तो दूसरी ओर उन्हें मात्र भोग और विलासिता का साधन समझा जाता था। नागरिकों की स्थिति दयनीय थी। उन्हें सामाजिक अधिकार प्राप्त नहीं थे। सती प्रथा का प्रचलन था। स्पष्ट है कि तुलसी के समय तात्कालीन सामाजिक स्थिति ठीक नहीं थी।

प्रश्न 2.
‘रत्नावली का चरित्र आदर्श भारतीय नारी का प्रतिबिम्ब है।’-पाठ में आए घटनाक्रम के आधार पर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
भास्तीय नारी का सर्वस्व उसका पति होता है। वह उसे ही अपना आराध्य मानती है। प्रस्तुत अंश में रत्नावली का चित्रण एक आदर्श भारतीय नारी के रूप में हुआ है। रत्नावली तुलसीदास के मार्ग में बाधक नहीं बनती, बल्कि तपस्विनी भारतीय नारी के समान उनका साथ देती है। वह प्रबुद्ध है। भारतीय नारी लज्जाशील होती है रत्नावली जब पहली बार मठ में आई तो लज्जा से उसने पति की ओर देखा दोनों की आँखें मिलीं पर उसने कुछ कहा नहीं और आगे बढ़ी तथा पति तुलसीदास के चरणों में गिर गई। यह भारतीय नारी का आदर्श है। भारतीय नारी की तरह रत्नावली गंगा में स्नान करके मठ में लौट आई । भारतीय नारी अपने हाथ का बना भोजन पति को खिलाती है। रत्नावली भी रसोई में चली गई और पति के लिए अपने हाथ से भोजन बनाने लगी।

भारतीय नारी पति की साधना में बाधक नहीं बनती बल्कि सहायक बनती है। तुलसी रत्नावली की एक झलक देखना चाहते थे पर वह सतर्कतापूर्वक अपने को उनकी आँखों से बचाती रहती। कहीं तुलसी साधना से विचलित न हो जाएँ, इसलिए वह उनके सामने नहीं आना चाहती थी। पति के लिए पत्नी बहुत त्याग करती है। रत्नावली ने भी तुलसीदास के लिए बहुत त्याग किया। राजा भगत ने उनके त्याग की चर्चा इस प्रकार की-‘गाँव में तुम्हारी रुचि की रसोई बनाती है और किसी भूखे कंगले को खिलाती थी। आप बिना चुपड़ी, बिना सागभाजी के दो रोटी खाकर अपने दिन बिताती हैं। रोज तुम्हारी धोती धोना, तुम्हारी पूजा की सामग्री लगाना, तुम्हारे बैठक में झाड़ लगाना, तुम्हारी एक-एक चीज को सहेज-सँभालकर रखना, कहाँ तक कहें भैया, भौजी जैसी तपसिन हमने देखी नहीं। तुम घर से निकल गए पर उन्होंने अपनी भक्ति से तुम्हें अभी तक घर में ही बाँध रखा है। यह एक भारतीय नारी का आदर्श है जिसका प्रतिबिम्ब हमें रत्नावली में देखने को मिलता है। रत्नावली और तुलसीदास के मिलन के अवसर पर भी रत्नावली ने भारतीय नारी के आदर्श का परिचय दिया है। तुलसी ने उसे मठ से चले जाने का आदेश दिया। रत्नावली ने स्वीकार कर लिया किन्तु मृत्यु से पूर्व श्रीमुख दिखाने की भीख माँगी । भारतीय नारी भी अन्तिम समय में पति की निकटता चाहती है। उपर्युक्त सभी उदाहरणों से स्पष्ट होता है कि रत्नावली में भारतीय नारी का प्रतिबम्ब विद्यमान है।

RBSE Class 12 Hindi पीयूष प्रवाह Chapter 4 मानस का हंस अन्य महत्त्वपूर्ण प्रश्नोत्तर

RBSE Class 12 Hindi पीयूष प्रवाह Chapter 4 मानस का हंस वस्तुनिष्ठ प्रश्न

1. रत्नावली में कौन-सा चरित्र परिलक्षित होता है –

(क) आदर्श नारी को
(ख) पति परायण स्त्री का
(ग) त्यागमयी नारी का
(घ) सेवाभावी नारी की।

2. पाठ में तुलसीदास का जो रूप प्रतिष्ठापित होता है, वह है –

(क) रामभक्त
(ख) वैरागी
(ग) ममतामयी
(घ) त्यागी।

3. तुलसीदास लोलार्क कुण्ड के मठ में किसकी आरती उतारते हैं?

(क) राम
(ख) कृष्ण
(ग) विष्णु
(घ) शंकर।

4. सभी प्रकार की साधना करने के बाद भी तुलसी को प्राप्त नहीं हुआ –

(क) साम्राज्य भक्ति
(ख) वैराग्य
(ग) प्रत्यक्ष दर्शन
(घ) मन का सन्तोष।

5. तुलसीदास प्रभु से क्या सुनना चाहते थे?

(क) तू भक्त है।
(ख) तू साधक है
(ग) तू वैरागी है।
(घ) तू मेरा है।

6. रत्नावली को देखकर तुलसी ने राजा से पूछा- “इन्हें क्यों लाए?” कथन में तुलसी का जो भाव परिलक्षित होता है, वह है –

(क) रूखापन
(ख) रोष
(ग) उपेक्षा
(घ) घृणा।

7. “दो (तपस्वी) जब मिल जाते हैं तब दोनों के मन में एक-दूसरे से आगे बढ़ने का भाव उत्पन्न होता है।” कौन-सा भाव उत्पन्न होता है?

(क) प्रेरणा का
(ख) ईष्र्या का
(ग) हौंसले का
(घ) होड़ का।

8. राजा भगत ने तुलसी से रत्नावली की किस विशेषता का उल्लेख किया?

(क) वह पति परायण हैं
(ख) वह साध्वी हैं।
(ग) वह विदुषी हैं
(घ) वह जोगिन हैं।

9. “तुलसी को रात में अच्छी नींद न आई।” नींद न आने का कारण था

(क) अन्तर्द्वन्द्व
(ख) रत्नावली की स्मृति
(ग) प्रभु दर्शन न होने के कारण
(घ) साधना में कमी के कारण।

10. ‘गंगाराम के घर से रत्नावली लौट आई हैं।’ यह सुनकर तुलसी के चेहरे पर जो भाव उत्पन्न हुआ वह था –

(क) रोष का
(ख) सन्तोष का
(ग) स्नेह का
(घ) सुख का।

11. “मैं अपने मन से बड़ा ही दुःखी हूँ रघुनाथ।” तुलसी मन से क्यों दुखी थे?

(क) अडिगता के कारण
(ख) ऊहापोह के कारण
(ग) चंचलता के कारण
(घ) निष्ठुरता के कारण।

12. रत्नावली ने सबको मोह लिया था –

(क) सौन्दर्य से
(ख) मृदुता से
(ग) मधुर वाणी से
(घ) व्यवहार से।

13. तुलसी और रत्नावली के सम्वादों की विशेषता है –

(क) मर्मस्पर्शी हैं।
(ख) भावानुकूल हैं।
(ग) तर्कपूर्ण हैं।
(घ) छोटे हैं।

उत्तर:

  1. (ग)
  2. (ख)
  3. (ख)
  4. (ग)
  5. (घ)
  6. (ख)
  7. (ग)
  8. (घ)
  9. (क)
  10. (ख)
  11. (ग)
  12. (घ)
  13. (क)

RBSE Class 12 Hindi पीयूष प्रवाह Chapter 4 मानस का हंस अतिलघुत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
‘मानस का हंस’ के संकलित अंश में क्या व्यक्त हुआ है?
उत्तर:
तुलसीदास का अन्तर्द्वन्द्व, तत्कालीन समाज की मन:स्थिति तथा रत्नावली की त्यागमयी प्रतिमूर्ति का चित्रण व्यक्त हुआ है।

प्रश्न 2.
भगवान श्रीकृष्ण की आरती के बाद तुलसीदास क्या करते हैं?
उत्तर:
आरती के बाद तुलसीदास दर्शनार्थियों को कृष्ण-भक्ति का महत्व बताते हैं। सभी अवतारों के प्रति श्रद्धा प्रकट करते हैं। और ‘जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरति देखी तिन तैसी’ चौपाई का भाव स्पष्ट करते हैं।

प्रश्न 3.
एकान्त में तुलसीदास के मन में क्या विचार आते हैं?
उत्तर:
एकांत में तुलसीदास के मन में यह विचार आते हैं कि हे प्रभु! आप मुझे प्रत्यक्ष दर्शन क्यों नहीं देते? आप मेरे ध्यान में क्यों नहीं आते ? मैं प्रीत बढ़ाना चाहता हूँ, पर प्रतीति क्यों नहीं होती?

प्रश्न 4.
“भोग के लिए भोजन में कौन-कौन से व्यंजन बनें?” शिष्य के पूछने पर तुलसी ने क्या उत्तर दिया?
उत्तर:
खिन्न मन से तुलसी ने उत्तर दिया-“जो भगवान को रुचता हो वही बनाओ जो रुचे सो बनाओ।”

प्रश्न 5.
तुलसीदास केशव से क्या प्रार्थना करते हैं?
उत्तर:
हे प्रभो ! एक बार यह कक्ष तुम्हारे आश्वासन भरे स्वर से गूंज उठे, तुम कह दो कि तुलसी तू मेरा है, तो बस फिर मुझे कुछ नहीं चाहिए।

प्रश्न 6.
“तुलसीदास का उदास भाव तिरोहित हो गया, कब?” उन्होंने क्या किया? ”
उत्तर:
राजा भगत के आगमन का समाचार सुनते ही तुलसी का उदास भाव तिरोहित हो गया। वे मन्दिर के दालान से बाहर आए। और आँगन पार करते हुए फाटक की ओर तेजी से बढ़ चले।

प्रश्न 7.
तुलसीदास ने प्रभुदत्त को क्या निर्देश दिया?
उत्तर:
तुलसीदास ने निर्देश दिया कि माताजी (रत्नावली) को ऊपर के कक्ष में पहुँचा दो और माताजी यदि गंगा स्नान के लिए जाना चाहें तो किसी को उनके साथ भेज दो।

प्रश्न 8.
“माताजी रसोईघर में रसोइये को सहायता दे रही हैं।” भृत्य के कथन को सुनकर तुलसीदास पर क्या प्रभाव पड़ा?
उत्तर:
तुलसीदास के मन पर सन्तोष के भाव ने छाना चाहा पर छा न सका, लेकिन किसी प्रकार का असंतोष भी मन में न जागा

प्रश्न 9.
तुलसीदास रत्नावली से क्या अपेक्षा करते थे?
उत्तर:
तुलसीदास चाहते थे कि रत्नावली उनके बालमित्र की धर्मपत्नी के प्रति अपना आदर प्रकट करने जाएँ।

प्रश्न 10.
टोडर की क्या अभिलाषा थी?
उत्तर:
टोडर ने कहा कि रत्नावली हमारे घर पधारें। उनकी अभिलाषा थी कि गठजोड़े से महात्माजी हमारे घर भोजन करें। उनकी जूठन गिरने का सौभाग्य मेरे घर को मिलेगा। उस दिन मेरा जन्म सार्थक हो जाएगा।

प्रश्न 11.
भोजन के समय तुलसी को क्या अनुभव होता था?
उत्तर:
भोजन के समय उन्हें अपनी थाली के हर व्यंजन में रत्नावली के हाथ का स्पर्श मालूम पड़ता। वे थाली के सामने बैठकर बार-बार रत्नावली की छवि के साथ अपने मन में बँध जाते थे।

प्रश्न 12.
तुलसीदास के जीवन में क्या-क्या उतार-चढ़ावे आये?
उत्तर:
तुलसीदास ने अपने जीवन में दुख-सुख के दिन देखे थे। वे स्वयं स्वीकार करते हैं कि कभी एक कटोरी छाछ के लिए भी तरसना पड़ता था। एक यह दिन है जब सोंधे दूध की मलाई खाते समय खुनस आती है।

प्रश्न 13.
“आप उन्हें अब यही रहने दें महात्माजी ….।” टोडर के इस कथन का तुलसीदस ने क्या उत्तर दिया?
उत्तर:
तुलसी ने कहा- “क्या तुम चाहते हो कि मैं अपने अथवा अपनी पत्नी के सुख के लिए समाज की आस्था को अधर ही में लटका दें? यह असम्भव है।

प्रश्न 14.
राजा ने रत्नावली की क्या विशेषता बताई?
उत्तर:
राजा ने रत्नावली की यह विशेषता बताई कि भौजी तपस्विनी हैं। उनका तप देखकर ही हम अपने मन को ठिकाने पर ला पाए हैं। इस कलिकाल में ऐसा कठिन जोग साधने वाली जोगिन मैंने नहीं देखी।

प्रश्न 15.
“मैं अपने मन से बड़ा ही दुखी हूँ रघुनाथ।” तुलसीदास अपने मन से क्यों दुखी थे?
उत्तर:
तुलसीदास के शब्दों में संयम, जप, तप, नियम, धर्म, व्रत आदि सारी औषधियाँ करके मैं हार गया पर मेरा मन मेरे काबू में नहीं आया। आप ही कृपा करके उसे निरोग बना सकते हैं। इसलिए मैं दुखी हूँ।

RBSE Class 12 Hindi पीयूष प्रवाह Chapter 4 मानस का हंस लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
‘मानस को हंस’ पाठ का मुख्य कथ्य क्या है?
उत्तर:
इस अंश में तुलसीदास का अन्तर्द्वन्द्व, तत्कालीन समाज की मन:स्थिति तथा रत्नावली की त्यागमयी प्रतिमूर्ति का दिग्दर्शन है। तुलसीदास को राम भक्ति के शिखर पुरुष के रूप में दिखाया गया है। तुलसीदास के हृदय में.रत्नावली के प्रति स्नेह है और उसके परित्याग का पश्चात्ताप भी है। उनके मार्ग में रत्नावली बाधक नहीं बनती बल्कि तपस्विनी भारतीय नारी के समान उनका साथ देती है। तुलसीदास ने लोक-कल्याण के लिए वैराग्यमय जीवन का अनुसरण किया है। इस सारी बातों का चित्रण ही इस पाठ को कथ्य है।

प्रश्न 2.
तुलसीदास ने पतंग-डोर का उदाहरण देकर दर्शनार्थियों को क्या समझाया?
उत्तर:
हाथ में डोर सधी होने पर पतंग आकाश में कहीं भी उड़ती रहती है, उसे कोई बाधा नहीं होती। उस प्रकार अपने इष्ट को साधकर भाव की डोर में बँधी हुई मन की पतंग को सारे आकाश में उड़ाओ, सब देवों के प्रति श्रद्धा अर्पित करो तो इष्ट भी सर्वव्यापी और सर्व सामर्थ्यवान के रूप में अपने आप को प्रकट करेगा। मन को प्रभु के चरणों में लगाए रहो। सभी देवी-देवताओं की आराधना करो पर अपने मन को अपने इष्ट के प्रति लगाए रहो। अपने इष्ट की ओर से मन भटकना नहीं चाहिए। पतंग सारे आकाश में उड़ती है। पर उसका सम्बन्ध चुटकी की डोर से जुड़ा रहता है।

प्रश्न 3.
“अपना प्रवचन आप ही खाने लगा।” पंक्ति का आशय स्पष्ट करते हुए बताइए कि तुलसीदास का प्रवचन उन्हें कैसे खाने लगा?
उत्तर:
तुलसीदास ने जो प्रवचन दर्शनार्थियों के सामने किया था वे स्वयं उसी पर विचार करने लगे। अपने सम्बन्ध में सोचने लगे। प्रभु से प्रार्थना करने लगे। वे सोचने लगे कि मैंने सब कुछ किया। वेद, पुराण, शास्त्र और सन्तों की वाणी में प्रभु को पाने के जो साधन बताए गए हैं, वे सब किए। फिर भी प्रभु के दर्शन नहीं हुए। उन्होंने प्रभु से प्रार्थना की कि आप मुझे प्रत्यक्ष दर्शन क्यों नहीं देते। आप मेरे ध्यान में क्यों नहीं आते। आपकी प्रतीति क्यों नहीं होती। वे उदास हो जाते हैं। वे संताप के झरने में उतरते-चढ़ते रहे और उनका संताप बढ़ गया।

प्रश्न 4.
भावुक गोस्वामी जी युगल मूर्ति की ओर टकटकी लगाकर भिखारी जैसी दीन मुद्रा में देखते हुए क्या सोचने लगे?
उत्तर:
तुलसीदास सोचने लगे-हे रामजी, मेरा मन अभी सधा भी नहीं था कि आपने मुझे इस वैभव की भट्टी में डालकर और अधिक तपाना आरम्भ कर दिया। आप मुझ दीन-दुर्बल की ऐसी कठोर परीक्षा क्यों ले रहे हैं। मैं अति अधर्म प्राणी हूँ, तभी आप मुझे अपनी प्रतीति नहीं दे रहे हैं। एक बार मुझे अपना कहकर मेरे हृदय को आश्वस्त कर दो। फिर मेरी कोई चाह नहीं रह जाएगी। मैं आप से फिर कुछ नहीं माँगूंगा। मुझे तो आपका भरोसा और आपका सान्निध्य चाहिए। भगवान अवश्य बोलेंगे। इसी आशा में वे टकटकी लगाकर भगवान की युगल मूर्ति को निहारने लगे।

प्रश्न 5.
तुलसीदास को भोजन में वर्षों पूर्व का स्वाद क्यों मिल रहा था?
उत्तर:
जिसके प्रति लगाव होता है, मोह होता है उसकी प्रत्येक वस्तु प्रिय लगती है। रत्नावली के प्रति तुलसीदास का आकर्षण था, इस कारण उसके द्वारा बनाई हुई हर वस्तु स्वादिष्ट तो लगनी ही थी। आज का भोजन रत्नावली के हाथ का बना हुआ था। इस कारण उन्हें पूर्व के स्वाद का अनुभव होने लगा। उनके प्रह्लाद घाट जाने पर भोजन का स्वाद भी चला गया। भोजन के समय उन्हें अपनी थाली के हर व्यंजन में रत्नावली के हाथ का स्पर्श अनुभव होता था। वे थाली के सामने बैठकर बार-बार रत्नावली की छवि के साथ अपने मन में बँध जाते थे। इस कारण उन्हें वर्षों पूर्व रत्नावली के हाथ के बने भोजन के स्वाद का अनुभव हो रहा था।

प्रश्न 6.
“खरा गोस्वामी ही इस पानी पर बिना पैर भिगोए चल सकता है।” तुलसी के इस कथन का आशय स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
राजा ने तुलसी से कहा था कि तुम्हारी जिवा में भगवान जी स्वाद लेते हैं। गोसाई दुनिया का हर भोग राजी होकर ग्रहण करते हैं पर अपने स्वाद और सुख को वे भगवान का मानकर ही चलते हैं।

तुलसीदास ने राजा के इस कथन के उत्तर में यह बात कही है। इसका आशय यह है कि जो भगवान का सच्चा भक्त है वही अपने स्वाद और सुख को भगवान का मानकर चल सकता है, जिसमें सच्ची भक्ति नहीं है वह अपने स्वाद को और सुख को भगवान में नहीं देख सकता। इसके लिए सच्ची साधना की आवश्यकता है, जिसने अपने आपको प्रभु के चरणों में समर्पित कर दिया है वही अपना स्वाद और सुख भगवान का मानकर चल सकता है। इसके लिए पूर्ण समर्पण की आवश्यकता है, जिसने अपनी इन्द्रियों को जीत लिया है और प्रभुमय हो गया है वही इस आनन्द को ले सकता है। उनके लिए हर वस्तु भगवान की वस्तु है। हर स्वाद भगवान का स्वाद है।

प्रश्न 7.
“भौजी जैसी तपसिनी हमने देखी नहीं।” रत्नावली के किस तपस्विनी रूप का वर्णन किया गया है?
उत्तर:
राजा ने तुलसी से कहा कि तुम यहाँ तपस्या करते हो, भौजी गाँव में तपस्या करती हैं। उन जैसी तपस्विनी मैंने नहीं देखी। वे गाँव में तुम्हारी रुचि की रसोई बनाती रहीं और किसी भूखे बंगले को खिलाती थीं। आप बिना चुपड़ी बिना सागभाजी के दो रोटी खाकर अपने दिन बिताती हैं। रोज तुम्हारी धोती धोना, तुम्हारी पूजा की सामग्री लगाना, तुम्हारे बैठक में झाड़ लगाना, तुम्हारी एक-एक चीज को सहेज-सँभालकर रखना, यह सारे काम वे करती हैं। यह उनकी तपस्या ही है। ऐसी तपस्या भौजी ही कर सकती हैं। इसलिए राजा ने उन्हें तपस्विनी कहा।।

प्रश्न 8.
राजा भगत ने तुलसीदास को सीता-राम की कथा क्यों सुनाई? उनका लक्ष्य क्या था?
उत्तर:
राजा का लक्ष्य था कि तुलसीदास रत्नावली को मठ में रहने की आज्ञा प्रदान कर दें और अपने पास ही रखें। राम सीता के बिना कभी सुखी नहीं रह पाए। जब उन्हें रावण हर ले गया, तब राम बड़े बेचैन रहे और जब धोबी के कहने पर उन्हें वाल्मीकि के आश्रम में भेज दिया तब भी श्रीराम सुखी नहीं रह पाये । बायाँ अंग कट जाने पर दायाँ अंग कभी सुखी नहीं रह सकता। इस प्रकार रत्नावली से अलग रहकर तुलसीदास भी सुखी नहीं रह सकते। उनकी साधना, तपस्या कभी पूर्णता को प्राप्त नहीं हो सकती। उन्हें रत्नावली को अपने पास ही रखना चाहिए।

प्रश्न 9.
टोडर ने रत्नावली को मठ में रखने के लिए क्या तर्क दिया और तुलसी ने उसे किस तर्क से काट दिया?
उत्तर:
टोडर ने कहा कि बड़े-बड़े सन्तों ने गृहस्थ जीवन व्यतीत किया है। बल्लभाचार्य जी ने घर-गृहस्थी में रहकर अपनी साधना की। वे परिवार में रहते थे फिर भी उन्हें मोक्ष की प्राप्ति हुई। फिर आपको परिवारिक जीवन व्यतीत करने में क्या आपत्ति है। तुलसीदास ने तर्क देकर इसे काट दिया। उन्होंने कहा कि आज का समय बल्लभाचार्य जी जैसा नहीं है। कबीरदास का समय भी बीत गया। यह घोर कलिकाल है। इस कलिकाल में नैतिकता को इतना ह्रास हो गया कि उसे यदि एक स्तर तक उठाकर नहीं रखा जाएगा तो फिर सारा संसार अनैतिकता की लपेट में आए बिना कदापि न रह पायेगा। इस तर्क से तुलसीदास ने टोडर का प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया।

प्रश्न 10.
राजा भगत ने कौन-सा षड्यंत्र रचा और क्यों? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
राजा भगत तुलसी और रत्नावली का मेल कराना चाहते थे। इसलिए उन्होंने षड्यंत्र रची। राजा ने सभी को अपने पक्ष में कर लिया। उन्होंने पंडित गंगाराम, टोडर और कैलाश कवि को भी अपने पक्ष में कर लिया। गंगाराम और कैलाश आए, उन्होंने रत्नावली को मठ में रखने के लिए कहा। शिष्यों ने भी उन्हीं का समर्थन किया और कहा कि माताजी परम विदुषी हैं, उनके यहाँ रहने से हमारे अध्ययन में बड़ी सहायता मिलेगी किन्तु तुलसीदास ने किसी की बात नहीं मानी और रत्नावली को मठ में रखने के लिए मना कर दिया।

प्रश्न 11.
“इस प्रसंग को अब यहीं पर समाप्त कर दो नत्थू।” कौन-सा प्रसंग था और तुलसीदास ने उसे समाप्त करने के लिए क्यों कहा?
उत्तर:
रत्नावली काशी में आई हैं। इस बात को लेकर लोगों में चर्चा है। नत्थू ने लोगों के विचारों को तुलसीदास को सुनाया। नत्थू ने कहा लोग पूछते हैं कि माताजी क्या अब यहीं रहेंगी। बड़ी हवेली के गोसाई महाराज गिरहस्त हैं। पर उनके बारे में कोई कुछ नहीं कहता। आपके लिए रोक-टोक करते हैं। लोग कहते हैं चार दिन की चाँदनी फिर अँधेरा पाख है। अब ये भी तपस्या छोड़कर भोग विलास में …। यह प्रसंग नत्थू ने सुनाया। तुलसीदास ने इस प्रसंग को समाप्त करने के लिए कहा। तुलसी को अपनी और रत्नावली की बात अच्छी नहीं लगी। रत्नावली के प्रति उनके मन में आदर था। लोगों की बात सुनकर तुलसीदास को बुरा लगा इसलिए उन्होंने इस प्रसंग को समाप्त करने के लिए कहा। उनके मन में एक अंधड़-सा उठने लगा।

प्रश्न 12.
“मेरा मन विविध ताप से जल रहा है।” कथन के आधार पर तुलसीदास की मन:स्थिति का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
नत्थू की बात सुनकर तुलसीदास के मन में अन्तर्द्वन्द्व उत्पन्न हो गया। वे प्रभु से कहने लगे कि मेरा मन स्थिर नहीं है। यह बौरा गया है। कभी योगाभ्यास करता है तो कभी भोग विलास में हँस जाता है। कभी कठोर और दयावान बन जाता है। कभी दीन, मूर्ख, कंगाल और कभी घमण्डी राजा बन जाता है। वह कभी पाखण्डी और कभी ज्ञानी बनता है। कभी धन का लालच सताता है, कभी शत्रुमय बन जाता है। कभी जगत को नारीमय देखने लगता है। यह संसार मेरे मन को विविध प्रकार से सता रहा है। तुलसीदास का मन स्थिर नहीं है। वे अपने मन से दुखी हैं क्योंकि संयम, जप, तप, नियम, धर्म, व्रत आदि करने से भी मन स्थिर नहीं हो रहा है। मन में उठने वाले विविध विचारों के कारण ही तुलसीदास कहते हैं कि मेरा मन विविध तापों से जल रहा है। वे भगवान से अटल भक्ति की कामना करते हैं।

प्रश्न 13.
“तुलसीदास के मार्ग में रलावली बाधक नहीं बल्कि तपस्विनी भारतीय नारी के समान उनका साथ देती है।” इस कथन के सम्बन्ध में अपने विचार प्रकट कीजिए।
उत्तर:
तुलसीदास ने वैराग्य धारण कर लिया है और गृहस्थ जीवन का परित्याग कर दिया है। रत्नावली उनके मार्ग में बाधक नहीं बनती। वह नहीं चाहती कि उसके कारण तुलसीदास की साधना में विघ्न पड़े। इसलिए वह मठ में आकर भी उनसे दूर ही रहती है। तुलसीदास चाहते थे कि एक बार रत्नावली से आमना-सामना हो जाए। वह अपना दुख-दर्द उसे कहे। पर वह बड़ी सतर्कतापूर्वक अपने आपको उनकी नजरों से बचा जाती। वह रसोई में उनके लिए भोजन अवश्य तैयार करती पर कभी सामने नहीं आती। पहली बार जब वह आई थी तब अवश्य आँख से आँख मिली थी। इसके बाद कभी साक्षात्कार नहीं हुआ। पाठ के अन्त में जब दोनों का संवाद होता है तो उस समय तुलसीदास रत्नावली से काशी छोड़ने के लिए कहते हैं। उस समय भी रत्नावली ने हठ नहीं किया और जाने को सहर्ष तैयार हो गई। केवल अन्तिम समय में उनके दर्शन की भीख अवश्य माँगी। इससे स्पष्ट होता है कि रत्नावली तुलसी के मार्ग की बाधक नहीं बल्कि साधक थी।

RBSE Class 12 Hindi पीयूष प्रवाह Chapter 4 मानस का हंस निबन्धात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
“थाली का बैंगन कभी इधर लुढ़कता और कभी उधर।” कथन को स्पष्ट करते हुए तुलसी के अन्तर्द्वन्द्व पर अपने विचार प्रकट कीजिए।
उत्तर:
थाली का बैंगन गोल होने के कारण इधर-उधर लुढ़कता रहता है, एक स्थान पर स्थिर नहीं रहता। इसी प्रकार तुलसीदास का मन भी लुढ़कता रहता है। उनके मन में द्वन्द्व चलता रहता है। कभी उनका मुस रत्नावली के मोह में डूब जाता है तो कभी प्रभु की भक्ति की ओर मुड़ जाता है। यह अन्तर्द्वन्द्व सर्वत्र व्याप्त है। जब रत्नावली काशी में तुलसीदास के मठ में आती है और उनके पैरों का स्पर्श करती है तो स्पर्श से तृप्ति होती है और राम बिसर गए। राजा भगत ने जब रत्नावली के जोगिन रूप की प्रशंसा की तो तुलसीदास को अच्छा लगा लेकिन उनका मन बैंगन की तरह तुरन्त लुढ़ककर राम की भक्ति की ओर चला गया। दूध पीकर कुल्ला करने बाहर गये फिर द्वन्द्व हुआ। एक मन कहता था चेत और दूसरा रत्नावली की मनोछवि निहारने में अटका था।

दूध पीने के बाद तुलसी लेटे। राम-राम जपना आरम्भ किया पर रत्नावली मन से नहीं हटी। उससे मिलने की इच्छा होने लगी। एक साथ दो विरोधी विचार हृदय में आए। मन ऊहापोह में रहता कभी रत्नावली की ओर जाता कभी झटके के साथ मोह से बाहर निकल करे राम की ओर मुड़ जाती। टोडर, गंगाराम, कैलाश कवि और शिष्यों ने रत्नावली को मठ में रखने का आग्रह किया। तुलसीदास का दुहरा रूप सामने आया वे ऊपर से विरोध करते पर मन कहता रत्नावली को पास रखकर साधना करता तो अच्छा रहता। नत्थू से बात करते समय अन्तर्द्वन्द्व का बड़ा अच्छा उदाहरण देखने को मिलता है। तुलसीदास स्वयं स्वीकार करते हैं कि मेरा मन स्थिर नहीं है। कभी यह योगाभ्यास करता है कभी भोग-विलास में फंस जाता है। कभी कठोर और कभी दयालु बन जाता है। कभी पाखण्डी और कभी ज्ञानी बन जाता है। कभी लालच सताता है तो कभी शत्रु भय सताता है। वे प्रभु से इसे द्वन्द्व को मिटाने की प्रार्थना करते हैं।

अन्तर्द्वन्द्व का अर्थ है दो विरोधी विचारों का एक साथ मन में उठना । प्रस्तुत अंश में स्थान-स्थान पर देखने को मिलता है कि तुलसी के मन में एक साथ दो विरोधी विचार आते हैं। मन रत्नावली की ओर जाता है तो प्रभु भक्ति की ओर भी मुड़ जाता है। स्पष्ट है। तुलसीदास का मन थाली के बैंगन की तरह इधर से उधर लुढ़कता रहता है।

प्रश्न 2.
तुलसी तपस्वी एवं वैरागी हैं, पर रत्नावली के प्रति उनका मोह भी कम नहीं है। उदाहरण देते हुए अपने विचार प्रकट कीजिए।
उत्तर:
तुलसीदास वैरागी थे। उन्होंने ने स्वयं कहा था- “विरक्त अब फिर से राग के बन्धनों में नहीं बँध सकता।” फिर भी उनके मानस पटल पर रत्नावली की मूर्ति विद्यमान थी। उसके प्रति मन के कोने में एक आकर्षण था। जो बार-बार उन्हें आकर्षित करता रहता था। रत्नावली ने जब उनके पैरों को स्पर्श किया तो उन्हें तृप्ति मिली और पलभर के लिए मन से राम बिसर गये। रत्नावली रसोई में रसोइये की सहायता कर रही है, भृत्य से यह सुनकर उन्हें अच्छा लगा। भोजन करते समय हर व्यंजन में रत्नावली के हाथ को स्पर्श मालूम पड़ता। थाली के सामने बैठकर बार-बार रत्नावली की छवि के साथ अपने मन में बँध जाते। भोजन के हर व्यंजन में वे रत्नावली के हाथ का स्पर्श चाहते थे। रत्नावली जब प्रह्लाद घाट चली गई, तो उन्हें भोजन स्वादहीन लगने लगा।

राजा भगत से रत्नावली की कठिन साधना की प्रशंसा सुनकर तुलसीदास को अच्छा लगा। उन्हें सन्तोष हुआ। रत्नावली तुलसी के मन के दृश्य पटल पर बार-बार आती, उनकी इच्छा होती कि वह रत्नावली को एक बार फिर देखें, उससे बातें करें । मन में एक गुदगुदाहट होती। उनका मन रत्नावली की मनोहर छवि निहारने में अटका हुआ था। सोते समय राम-राम जपना आरम्भ किया किन्तु रत्नावली उनके मन से नहीं हटी। उनकी इच्छा होने लगी कि रत्नावली उनके पास आए, उनसे अपना दुख-सुख कहे। उन्हें अनुभव हुआ कि वह मेरे (तुलसी के) लिए तड़पती है। वे सोचने लगे कि प्रभु मुझे इसलिए दर्शन नहीं दे रहे हैं क्योंकि मैं रत्नावली के प्रति निठुराई बरत रहा हूँ। सरवन को उसकी सेवा करने का निर्देश दिया।

उपर्युक्त उदाहरण से स्पष्ट है कि तुलसी वैरागी थे पर उनके अन्त: करण रत्नावली विद्यमान थी। उसके प्रति उनका मोह था और वे रत्नावली से मिलना भी चाहते थे।

प्रश्न 3.
‘मानस का हंस’ उपन्यास के पाठांश का सार अपने शब्दों में लिखिए।
उत्तर:
तुलसीदास लोलार्क कुण्ड के मठ में कृष्ण की आरती कर रहे हैं और कृष्ण भक्ति का पद गाते हैं। भक्तों को कृष्ण भक्ति का महत्व बताते हैं। उन्होंने कहा कि सब देवों की उपासना करो पर अपने इष्ट को मत भूलो ह अपने आप प्रकट हो जाएगा।

एकान्त होने पर तुलसी अपने बारे में सोचने लगे। वे सोचते हैं-मैंने सब कुछ किया, सन्तों की वाणी सुनी, साधना की, पर प्रभु के प्रत्यक्ष दर्शन नहीं हुए। उनका मन अस्थिर है। वे प्रभु से प्रार्थना करते हैं कि एक बार आप यह कह दीजिए कि तुलसीदास मेरा है। मुझे आप को भरोसा है। आप अपना लेंगे तो मुझे सन्तोष हो जाएगा। राजा भगत के आने पर वे प्रसन्न हो जाते हैं, परन्तु रत्नावली को देखकर उनका मन कुछ खिन्न हो जाता है। यद्यपि वे रत्नावली और राजा के ठहरने की व्यवस्था करते हैं। रत्नावली गंगा स्नान के बाद रसोइये की सहायता के लिए रसोई में चली गई। रत्नावली के द्वारा बनाये भोजन में तुलसीदास को स्वाद आया। टोडर से तुलसीदास ने राजा भगत का परिचय कराया। टोडर ने दोनों को अपने घर आने का निमंत्रण दिया।

तुलसीदास के मन में रत्नावली के प्रति मोह था। वे रत्नावली से मिलना चाहते थे पर रत्नावली सतर्कतापूर्वक बचकर निकल जाती। तुलसीदास दूध पीकर लेट गये। वे राम का नाम जपते हैं पर रत्नावली उनके मन से नहीं हटी, वे सोचने लगे कि मैं रत्नावली के प्रति निठुराई दिखा रहा हूँ शायद इसलिए रामजी मेरे प्रति दयालु नहीं हैं। उनके मन में अन्तर्द्वन्द्व चलता रहा। राजा भगत ने रत्नावली की साधना और जोगिन रूप की प्रशंसा की जिसे सुनकर तुलसीदास को सन्तोष मिला। तुलसीदास के मन में बार-बार आता कि वह रत्नावली से मिलें। रत्नावली उनसे अपने दुख-सुख की बात कहे। राजा ने समझाया कि सीता को बिना राम को कष्ट हुआ। एकाकी जीवन सुखी नहीं हो सकता। टोडर, गंगाराम, कैलाश और शिष्यों ने रत्नावली को मठ में रखने का आग्रह किया पर तुलसी ने यह कहकर- “विरक्त अब फिर से राग के बंधनों में नहीं बँध सकता” बात टाल दी। तुलसी ने कहा कि यदि वे राग में फंस जायेंगे तो समाज की आस्था अधर में लटक जाएगी। तुलसीदास ने कहा कि आज का समय बल्लभाचार्य और कबीर को नहीं है। नत्थू ने तुलसीदास को रत्नावली को लेकर जो चर्चा हो रही है, उसे सुनाया। तुलसीदास को यह सुनकर दुख हुआ।

तुलसीदास ने नौकर को बुलाकर रत्नावली के पास सन्देश भिजवाया कि वे शीघ्र राजपुर चली जायें। रत्नावली ने उत्तर में कहलाया कि वे मिलना चाहती हैं। तुलसीदास ने स्वीकृति दे दी। रत्नावली आई, आसन पर बैठी, पर दोनों के बीच में पर्दा पड़ा था। अन्त में रत्नावली ने रामचरित मानस की एक प्रति माँगी और एक भिक्षा माँगी, “मेरी मृत्यु से पहले एक बार मुझे अपना श्रीमुख दिखलाने की कृपा करें।” तुलसी ने इसे स्वीकार कर लिया।

प्रश्न 4.
‘मानस का हंस’ की संवाद योजना पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
संवाद कथा साहित्य के प्राण हैं। इनसे कथा का विस्तार होता है, कथा में रोचकता आती है। संवाद जितने छोटे, सहज, स्वाभाविक, पात्रानुकूल और परिस्थितिजन्य होंगे उतने ही रोचक होंगे और पाठकों को बाँधने वाले होंगे।

छोटे संवाद
शिष्य तुलसी से पूछता है- “भगवान के भोजन में कौन-कौन व्यंजन बनेंगे।” तुलसी का छोटा-सा उत्तर है- “जो भगवान को रुचता हो वही बनाओ।” छोटा-सा संवाद है किन्तु सार्थक और समयानुकूल है। रत्नावली को देखकर राजा से पूछा- “इन्हें क्यों लाए।” भृत्य से रत्नावली के सम्बन्ध में पूछा ”वह कहाँ हैं”? छोटा सा उत्तर मिला- “रसोईघर में रसोइये को सहायता दे रही हैं। ऐसे छोटे-छोटे संवाद रोचकता बढ़ाते हैं।

बड़े संवाद
कहीं-कहीं लम्बे संवाद भी हैं। राजा भगत और तुलसीदास के संवाद थोड़े बड़े हैं। उदाहरण देखिए-राजा तुलसीदास से कह रहे हैं- “काहे खुनसाते हो भइया । तुम्हारी जिभ्या से भगवान जी स्वाद लेते हैं। गोसाइयों में हमें यही बात तो अच्छी लगती है कि गोसाई लोग दुनिया का हर भोग राजी होकर ग्रहण करते हैं पर अपने स्वाद और सुख को वे भगवान का मानकर ही चलते हैं।” कथन बड़ा है। पर रोचक है।

पात्रानुकूल संवाद
संवाद पात्रानुकूल हैं। नत्थू नाई है, अनपढ़ है। उसके संवाद उसी के अनुकूल हैं। नत्थू समाज में रत्नावली को लेकर जो चर्चा है। उसका जिक्र करता है। उसकी भाषा उसके अनुकूल है। वह ‘गिरहस्त’ और ‘तपिस्या’ जैसे साधारण शब्दों का प्रयोग करता है। दूसरी ओर टोडर का कथन संभ्रान्त व्यक्ति जैसा है- “हाँ हाँ वहाँ जाएँगी और यहाँ भी पधारेंगी। जिस दिन गठजोड़ से महात्मा जी की जूठन गिरने का सौभाग्य मेरे घर को मिलेगा उस दिन मेरा जन्म सार्थक हो जाएगा।”

परिस्थितिजन्य संवाद
संवाद परिस्थितजन्य भी हैं। गोसाई होकर तुलसीदास को क्या सुख मिला। इसका वे स्वयं वर्णन करते हैं। दूध पीते समय वे कहते हैं- “गोसाई क्या बना हूँ आठों पहर तर माल चाभते-चाभते दुखी हो गया हूँ। कहाँ तो एक वह दिन था कि कटोरी भर छाछ पाने के लिए मैं ललाता था और कहाँ अब इस सोंधे दूध की मलाई को खाते भी खुनस आती है।”

संवेदनशील संवाद
संवाद संवेदनशील भी हैं। रत्नावली और तुलसीदास के मिलन के संवाद गम्भीर और उस परिस्थिति के अनुकूल ही हैं। संवाद छोटे भी हैं। संवाद की गम्भीरता देखिए- “जय सियाराम बाहर आसन बिछा होगा, विराजो।” रत्ना का कथन- “मैंने रामचरित मानस का पारायण किया था। मैंने उसे वाल्मीकि जी की कृति से श्रेष्ठ भक्ति प्रदायक माना।” “मुझे रामचरित मानस की एक प्रति चाहिए।”

“रो रही हो रत्ना”-“संतोष के आँसू हैं। इस प्रकार के गम्भीर और परिस्थितिजन्य संवाद भी हैं। अतः स्पष्ट है कि संवाद की दृष्टि से यह अंश श्रेष्ठ है।

मानस का हंस (उपन्यास अंश) लेखक परिचय

अमृत लाल नागर (1916 ई.-1990 ई.) ने लगभग आधी सदी तक अपने सक्रिय लेखन से साहित्य-जगत् में अप्रतिम योगदान किया। उनका व्यक्तित्व बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न था। इन्होंने हिन्दी गद्य की लगभग समस्त विधाओं में लेखनी चलाई। अमृत लाल नागर संवादों के शिल्पी, घरेलू जीवन के कुशल चित्रक, कथा गठन में माहिर, मनुष्य के अन्तर्विरोधों को उभारकर उसकी दुर्बलताओं पर करारे व्यंग्य करने वाले एवं मनुष्य की मूर्खता का गम्भीरता के साथ मजाक उड़ाने वाले रचनाकार हैं। निम्न वर्ग, मध्य वर्ग तथा अभिजात्य वर्ग की विषम परिस्थितियों एवं उनकी संस्कृति के सफल और कुशल चित्रकार हैं। उनकी भाषा में उर्दू के शब्दों का सुन्दर प्रयोग हुआ है, किन्तु उससे हिन्दी की स्वाभाविकता में कोई बाधा नहीं पहुँचती। प्रमुख रचनाएँ इस प्रकार हैंउपन्यास-बूँद और समुद्र, सुहाग के नूपुर, अमृत और विष, एकदा नैमिषारण्ये, मानस का हंस, नाच्यौ बहुत गोपाल, खंजन नयन। कहानी-संग्रह -वाटिका, अवशेष, एटम बम, पीपल की परी, एक दिल हजार अफसाने आदि। अन्य- चैतन्य महाप्रभु (जीवनी), साहित्य और संस्कृति (निबन्ध), चकल्लस (व्यंग्य), हमारे युग निर्माता, सतखण्डी हवेली का मालिक (बाल साहित्य) आदि।

मानस का हंस (उपन्यास अंश) पाठ-सारांश

गोस्वामी जी गोलार्क कुण्ड के मठ में कृष्ण की आरती उतारते हुए कृष्ण-भक्ति का पद गाते हैं। सभी उनके भजन पर मुग्ध हैं। वे कृष्ण भक्ति का महत्त्व बताते हैं। सभी अवतारों के प्रति श्रद्धा प्रकट करते हैं। वे कहते हैं पतंग और डोर की तरह अपने इष्ट से सम्बन्ध रखो। तभी इष्ट सर्वव्यापी और सर्वसामर्थ्यवान के रूप में प्रकट होगा। एकान्त होने पर वे सोचने लगे कि मैंने इष्ट को पाने के लिए सब कुछ किया फिर भी प्रत्यक्ष दर्शन नहीं हुए। वे सोचते हैं मेरे ध्यान में कभी-कभी हनुमान जी प्रकट हो जाते हैं पर प्रभु आप क्यों नहीं आते।

शिष्य ने पूछा भगवान के लिए क्या-क्या व्यंजन बनेंगे। तुलसी ने खिन्न होकर कहा-जो भगवान को रुचता हो वही बनाओ। शिष्य भी खिन्न मन से चला गया। दालान में बैठे तुलसी राधा-मुरलीधर की मूर्ति निहारने लगे। वे सोचने लगे हे कृष्ण रूप राम मेरा मन अभी सधा नहीं था, आपने इस वैभव की भट्ठी में डालकर और तपाना आरम्भ कर दिया। मैं अति अधम प्राणी हूँ। दुनिया में मुझे कोई महामुनि और कोई कपटी भी कहता है। एक बार हे प्रभु कह दो कि तुम मेरे हो।

विक्रमपुर के राजा आये हैं। यह सुनकर उनकी उदासी दूर हो गई। सुनकर वे बाहर आये पर देहली की चौखट पर पैर रखते ही उत्साह समाप्त हो गया। राजा के साथ रत्नावली भी थी। रत्नावली ने तुलसी की ओर देखा। राजा ने तुलसी को चकित दृष्टि से देखा। उन्होंने राजा से पूछा आप रत्नावली को क्यों लाये। रत्नावली उनके चरणों में गिर पड़ी। उनकी उँगलियों के स्पर्श से थोड़ी देर के लिए तुलसी राम को भूल गये। उन्होंने शिष्य द्वारा दोनों के रहने की व्यवस्था करवा दी। रत्नावली का सभी ने आदर किया। रत्नावली ने रसोईघर में सहायता की। तुलसी को वर्षों पुराना रसोई का स्वाद प्राप्त हुआ। उन्होंने टोडर से राजा भगत का परिचय कराया और पत्नी के आने की सूचना दी।

तुलसी-रत्नावली का आमना-सामना नहीं हुआ। तुलसी उन्हें देखना चाहते थे पर रत्नावली बचती रहीं। भोजन के समय अवश्य रत्नावली के हाथ के स्पर्श का अनुभव होता। गंगाराम ने रत्नावली को लाने के लिए पालकी भेज दी। रात में राजा और तुलसीदास धर्म चर्चा करते रहे। दूध आया उसका स्वाद लिया। तुलसी ने कहा कि एक वह दिन था जब कटोरी भर छाछ नहीं मिलती थी, आज दूध का आनन्द आ रहा है। राजा ने कहा-गोसाइयों की यह बात अच्छी है कि वे अपने स्वाद और खुद को भगवान का मानकर ही चलते हैं। उत्तर में गोस्वामी ने कहा मैं पूर्ण गोस्वामीत्व पाने के लिए अभी तक रामजी की ड्योढ़ी का भिखारी हूँ। राजा और तुलसी में गम्भीर वार्तालाप हुआ। राजा ने रत्नावली के तप की प्रशंसा की।

उनका कथन था कि वे कठिन जोग साधने वाली जोगिन हैं। रत्नावली की प्रशंसा सुनकर तुलसी को राम शब्द बिसरने लगा और रत्नावली की झलक उनके दृश्य पटल पर आने लगी। मन में अन्तर्द्वन्द्व हुआ। कभी मन रत्नावली की ओर जाता कभी राम की भक्ति की ओर मुड़ जाता। सीता के बिना राम सुखी नहीं रहे तुम भी रत्नावली के बिना सुखी नहीं रह सकते। तुलसी का मन थाली के बैंगन की तरह लुढ़क रहा था। लेटने पर भी उनका ध्यान रत्नावली पर से नहीं हटा। विचार आया कि रत्नावली को रख लूँ तो रामजी भी मुझ पर दया कर देंगे। टोडर ने रत्नावली को वहीं रखने के लिए कहा पर तुलसी ने यह प्रस्ताव ठुकरा दिया। तुलसी ने कहा कलिकाल में नैतिकता का ह्रास हो चुका है उसे बचाया नहीं गया तो अनैतिकता बढ़ जाएगी। किन्तु सभी ने रत्नावली को मठ में रखने का आग्रह किया।

तुलसी ऊपर से रत्नावली को रखने का विरोध करते पर मन रत्नावली की ओर ही चला जाता। गंगा राम के घर से रत्नावली लौटी, तुलसी ने सरवन को उनकी अच्छी सेवा करने का आदेश दिया। नाथू ठोड़ी बनाता हुआ तुलसी को लोगों की बात सुनाता रहा। तुलसी के मन में उतार-चढ़ाव होता रहा। मन जब बहुत बेचैन हुआ तो तुलसी का मन रामजी की ओर चला गया। मन ही मन अपने हृदय का द्वन्द्व प्रभु के सम्मुख रखने लगे। आँखों में आँसू आ गए। नाथू ने भी रत्नवाली को मठ में रखने को कहा पर तुलसी ने मना कर दिया।

रत्नवाली ने तुलसी से मिलने की सूचना उनके पास पहुँचाई। मन में द्वन्द्व हुआ, मना करने की इच्छा हुई। अंतत: तुलसी ने भेजने के लिए कह दिया और कहा कोठरी का पर्दा गिरा दो और उनका (रत्नावली) आसन बाहर लगा दो। रत्नावली आई, पर्दा देखकर कुछ देर खड़ी रही फिर जय सियाराम कहा। तुलसी ने भी उत्तर दिया और बाहर बैठने को कहा। रत्नावली ने रामचरित मानस पढ़ने की बात कही और एक प्रति माँगी। रत्नावली का कण्ठ भर आया। तुलसी ने आँसू बहाने को मना किया। रत्नावली ने जाते हुए एक भिक्षा माँगी कि मेरी मृत्यु से पहले अपना श्री मुख दिखा देना। तुलसी ने आने का वचन दिया।

शब्दार्थ –
(पृष्ठ-29-30) सम्भ्रान्त = सभ्य व्यक्ति, निरूपित = विस्तृत विवेचन, ललक = प्रबल अभिलाषा, प्रतीति = ज्ञान, पाकशास्त्री = खाना बनाने में प्रवीण, दर्शनार्थियों = दर्शन करने वाले, मूरति = मूर्ति, ललक = लालसा, इच्छा, प्रतीति = ज्ञान, दर्शन, खिन्न = दुःखी, नातेदार = सम्बन्धी, भृत्य = नौकर, उल्लसित = प्रसन्न, तिरोहित = हट गया, दूर हो गया, उत्साह ठिठक गया = उत्साह कम हो गया, दिव्य = सुन्दर, कान्तियुक्त, ताप्ति = सन्तुष्टि, रोष = क्रोध, मृदुल = कोमल।

(पृष्ठ-31) औपचारिक = जो कहने सुनने के दिखलाने के लिए हो, जो वास्तविक न हो, ललाता = ललचाता, खुन्नस = क्रोध, मुहाना = मुख, हौंसला = उमंग, उत्साह, आमना-सामना = साक्षात्कार, सतर्कतापूर्वक = सावधानी के साथ, झुलसाते = क्रोधित होते, ग्रहण = स्वीकार, मनोधारा = मन की भावना, खरा = सच्चा, विशुद्ध, तिरोहित = विलुप्त, उहापोह = असमंजस।

(पृष्ठ-32) कलिकाल = कलियुग, गुदगुदाहट = उत्कंठा, उल्लास, उमंग, मनोछवि = मन के भाव, आसरम = आश्रम, थाली का बैंगन = अस्थिर मन, कदाचित = शायद, निठुराई = कठोरता, उहापोह = मन में होने वाला तर्क-वितर्क, साचे-विचार, उबारकर = निकालकर, राग = भौतिकता, अनुराग।

(पृष्ठ-33) विदुषी = विद्वान स्त्री, किस्वत = नाई की पेटी, गिरहस्त = गृहस्थ, षड़यन्त्र = भीतरी चाल, सुगम = सरल, सही, काम = कामवासना, विकार = दोष, बुराई, मन का हाला-डोला = मन की चंचलता, अस्थिरता, आभा = चमक, कान्ति, भृत्य = दास, नौकर, मींजते = मलते, कलजुग = कलयुग, तपिस्या = तपस्या।

(पृष्ठ-34-35) मनोलोक = मन में, अहंता = अहंकार, विकलता = व्याकुलता, सुख सिन्धु = सुख-सागर, सुख के भण्डार, कारुणीक = दयावान, बौरा गया है = अस्थिर हो गया है, बेचैन हो गया है, पाखण्डी = वेद विरुद्ध आचरण करने वाला, बनावटी, घिरस्तास्रमी = गृहस्थाश्रमी, पारायण = अध्ययन, प्रदायक = प्रदान करने वाला।

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