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Rajasthan Board RBSE Class 12 Hindi सरयू Chapter 13 गुल्ली-डंडा (कहानी)
RBSE Class 12 Hindi सरयू Chapter 13 पाठ्यपुस्तक के प्रश्नोत्तर
RBSE Class 12 Hindi सरयू Chapter 13 वस्तुनिष्ठ प्रश्न
प्रश्न 1.
इस कहानी में कथानायक विलायती खेलों का सबसे बड़ा ऐब क्या मानते हैं ?
(क) महँगा होना
(ख) सस्ता होना
(ग) चोट को डर
(घ) अधिक समय लगना
उत्तर:
(क) महँगा होना
प्रश्न 2.
कहानी में कथानायक और उसका मित्र गुल्ली-डंडा खेलने कहाँ गए ?
(क) रेलवे स्टेशन
(ख) पाठशाला
(ग) भीमताल
(घ) अस्पताल
उत्तर:
(ग) भीमताल
RBSE Class 12 Hindi सरयू Chapter 13 अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
कहानी में लेखक जिस मित्र से मिला, उसका नाम क्या है ?
उत्तर:
कहानी में लेखक जिस मित्र से मिला, उसे मित्र का नाम गया है।
प्रश्न 2.
कहानी का नायक बड़ा होकर क्या बनता है ?
उत्तर:
बड़ा होकर कहानी का नायक इंजीनियर बनता है।
प्रश्न 3.
कथानायक ने गया को गुल्ली-डंडा मैच देखने के लिए कब का समय दिया ?
उत्तर:
कथानायक ने गुल्ली-डंडा का मैच देखने के लिए गया को शाम का समय दिया था।
RBSE Class 12 Hindi सरयू Chapter 13 लघूत्तरात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
गया के व्यक्तित्व की तीन विशेषताएँ बताइए।
उत्तर:
गया के व्यक्तित्व की तीन विशेषताएँ निम्नलिखित हैं
- गया गरीब परिवार का पतला, लम्बा तथा काला-सा लड़का है।
- वह गुल्ली-डंडा का दक्ष तथा कुशल खिलाड़ी है। गुल्ली उसकी पकड़ से कभी नहीं छूटती।
- गया समझदार है। वह कहानी नायक का अफसर होने के नाते अदब करता है, उसकी धाँधली का विरोध नहीं करता किन्तु मैच देखने का आमंत्रण देकर बताता है कि वह अब भी कुशल खिलाड़ी है।
प्रश्न 2.
कथानायक को गुल्ली-डंडा खेलों का राजा क्यों लगता है ?
उत्तर:
गुल्ली-डंडा नामक खेल के सामान महँगे नहीं हैं। किसी पेड़ से टहनी काटकर गुल्ली तथा डंडा बनाये जा सकते हैं। उसके लिए लॉन, कोर्ट, नेट, थापी आदि की जरूरत नहीं पड़ती। खिलाड़ियों की बड़ी टीम जरूरी नहीं होती। दो खिलाड़ी हों तो भी गुल्ली-डंडा खेला जा सकता है। इतनी खूबियों के कारण लेखक को गुल्ली-डंडा खेलों का राजा लगता है।
प्रश्न 3.
खेल में पदने से बचने के लिए कथानायक क्या चालें चलता है ?
उत्तर:
कथानायक नहीं चाहता कि गया उसको खेल में पदाये। वह पदने से बचने के लिए तरह-तरह की चालें चलता है। वह उसको एक दिन पहले खिलाये अमरूद की याद दिलाता है। वह बच जाने पर भी डंडा चलाता है। गया की खेलने की बारी नहीं आने देता। गुल्ली के थोड़ी दूर गिरने पर वह स्वयं उसको उठा लाता और दो बार डंडा लगाता। गुल्ली डंडे में लगती तब भी अनजान बनता। वह अँधेरे का बहाना बनाकर पदने से बचना चाहता है। .
प्रश्न 4.
कथानायक के अनुसार बच्चों में ऐसी कौन-सी शक्ति होती है, जो बड़ों में नहीं होती ?
उत्तर:
बच्चे मिथ्या को आसानी से सत्य बना देते हैं। बड़ों में इस प्रकार की शक्ति नहीं होती। बड़े तो सत्य को मिथ्या बना लेते हैं परन्तु बच्चों की तरह मिथ्या को सत्य नहीं बना सकते।
प्रश्न 5.
कथानायक और गया के बीच स्मृतियाँ सजीव होने में कौन-सी बात बाधा बनती है ? और क्यों ?
उत्तर:
कथानायक अब एक ऊँचा आफीसर था। गया एक मामूली साईस था। दोनों के बीच पद और प्रतिष्ठा का भारी अन्तर था। जब यह अन्तर गया के सामने आता था तो वह समझे जाता था कि अब बचपन की तरह उनमें समानता नहीं थी। इस कारण उनकी स्मृतियाँ सजीव नहीं हो पाती थीं।
RBSE Class 12 Hindi सरयू Chapter 13 निबंधात्मक प्रश्नोत्तर
प्रश्न 1.
गुल्ली-डंडा कहानी के आधार पर स्पष्ट कीजिए कि पद और प्रतिष्ठा मनुष्य और मनुष्य के बीच के नैसर्गिक सम्बन्ध को समाप्त कर देते हैं।
उत्तर:
प्रकृति के अनुसार बचपन मनुष्य जीवन की वह अवस्था है जिसमें प्रेम और अपनत्व की स्वाभाविक भावना होती है। जब बच्चा बड़ा होता है और सामाजिक जीवन में प्रवेश करता है तो सबसे प्रेम करने और सबको समान समझने की भावना समाप्त हो जाती है। मनुष्य और मनुष्य के बीच ऊँच-नीच, छोटापन-बड़ापन आदि भेदभाव और असमानता सामाजिक पारिस्थितियों की देन है। जो बच्चे साथ खेलते-कूदते बड़े होते हैं, उनमें बचपन में जो समानता और अपनत्व होता है, वह बड़े होने पर समाप्त हो जाता है। कोई बड़ा होने पर किसी बड़े पद पर नियुक्त होकर उच्च प्रतिष्ठा और आय का स्वामी हो जाता है। वह स्वयं को दूसरों से बड़ा मानता है और अहंकार से भर उठता है तो दूसरे भी उसके पद-प्रतिष्ठा से प्रभावित होकर उसको अपने से बड़ा और आदर का पात्र मानते हैं। चाहे यह आदर भाव उनकी मजबूरी ही हो।
‘गुल्ली डंडा’ कहानी का मुख्य पात्र थानेदार का बेटा था और उसका मित्र गया एक गरीब चर्मकार था। बचपन में दोनों में ऊँच-नीच का अन्तर नहीं था। कथानायक बड़ा होकर इंजीनियर बन गया। वह अपने बाल सखा गया के साथ गुल्ली-डंडा खेलने गया परन्तु अपने मित्र गया के खेल में उसको वह दक्षता नहीं दिखाई दी जो बचपन में थी। उसे लगा कि उसकी अफसरी दोनों के बीच दीवार बन गई थी। गया उसके साथ खेल नहीं रहा था, उसका मन रख रहा था और उसकी हर धाँधली को बिना विरोध किए सहन कर रहा था। उसके पद और प्रतिष्ठा ने दोनों में असमानता का भाव उत्पन्न कर दिया था।
प्रश्न 2.
कथानायक की चारित्रिक विशेषताएँ बताइए।
उत्तर:
गुल्ली-डंडा कहानी के कथानायक की चारित्रिक विशेषताएँ निम्नलिखित हैं
थानेदार का पुत्र – कथानायक कस्बे में तैनात थानेदार का बेटा है। उसके पिता की आर्थिक स्थिति अच्छी है तथा समाज में प्रतिष्ठा भी प्राप्त है।
प्रेम और समानता – कथानायक के मन में अपने सहचरों के प्रति प्रेम की भावना है। वह सभी को समान समझता है तथा मिलजुलकर उनके साथ रहता है और खेलता है। अपनी सामाजिक तथा आर्थिक स्थिति के कारण वह स्वयं को ऊँचा तथा दूसरों को नीचा नहीं समझता ।।
गुल्ली-डंडा का खिलाड़ी – वह गुल्ली-डंडा खेलने का शौकीन है। अपने साथी लड़कों के साथ वह सबेरे से ही खेलने निकल पड़ता है। वह खेल में इतना मस्त रहता है कि खाने-नहाने की भी सुध नहीं रहती। उसके घर पर उसकी प्रतीक्षा होती रहती है।
पढ़ाई में प्रवीण – वह पढ़ने-लिखने में प्रवीण है। बड़ा होकर वह इंजीनियर बनता है तथा जिले के अधिकारी पद पर नियुक्त होता है।
बाल मित्रों तथा क्रीड़ा भूमि की स्मृति- वह अपने बालमित्रों तथा बचपन से सम्बन्धित स्थलों की याद से व्याकुल है। जिले के दौरे पर आने के समय वह छड़ी उठाकर पुराने स्थलों को देखने निकलता है और पूछताछ कर अपने बालसखा गया को तलाश लेता है। वह उस भूमि से लिपटकर मिलना चाहता है।
नई जगह देखने को उत्सुक – उसके पिता का तबादला बड़े शहर में हो जाता है। यह जानकर वह खुश होता है। अपने मित्रों से बिछुड़ने की चिन्ता छोड़कर वह नये स्थान देखने को उत्सुक है। वह उस स्थान के बारे में अपने साथियों से डींग हाँकता है। उसके सहचर उसके सौभाग्य पर उससे ईर्ष्या करते हैं।
प्रश्न 3.
निम्नलिखित गद्यांशों की सप्रसंग व्याख्या कीजिए
(क) मैं समझता था ……………… यह सरासर अन्याय था।
(ख) मैं खेल में न था ……………… मैं छोटा हो गया हूँ।
उत्तर:
इन गद्यांशों की व्याख्या महत्वपूर्ण गद्यांशों की सन्दर्भ-प्रसंग सहित व्याख्याएँ शीर्षक के अन्तर्गत देखिए।
RBSE Class 12 Hindi सरयू Chapter 13 अन्य महत्वपूर्ण प्रश्नोत्तर
RBSE Class 12 Hindi सरयू Chapter 13 वस्तुनिष्ठ प्रश्न
प्रश्न 1.
लेखक ने ‘गुल्ली-डंडा’ को माना है –
(क) सब खेलों का राजा
(ख) एक लोकप्रिय खेल
(ग) ग्रामीण खेल
(घ) स्वास्थ्य के लिए हितकर खेल।
उत्तर:
(क) सब खेलों का राजा
प्रश्न 2.
गया गुल्ली पर इस तरह लपकता था –
(क) जैसे बन्दर फलों पर लपकता है।
(ख) जैसे शेर शिकार पर लपकता है।
(ग) जैसे छिपकली कीड़ों पर लपकती है।
(घ) जैसे वकील मुवक्किल पर लपकता है।
उत्तर:
(ग) जैसे छिपकली कीड़ों पर लपकती है।
प्रश्न 3.
लॉन, कोर्ट, नेट, थापी की जरूरत किस खेल में नहीं होती ?
(क) क्रिकेट ।
(ख) वालीबाल
(ग) बैडमिन्टन
(घ) गुल्ली-डंडा।
उत्तर:
(घ) गुल्ली-डंडा।
प्रश्न 4.
मतई, मोहन, दुर्गा, गया तथा कृष्णा में से कथानायक का सहचर नहीं था –
(क) मतई
(ख) मोहन
(ग) कृष्णा
(घ) दुर्गा।
उत्तर:
(ग) कृष्णा
प्रश्न 5.
कथानायक अपने तथा गया के बीच दीवार मानता है –
(क) अपनी ऊँची पढ़ाई को
(ख) अपने प्रतिष्ठित परिवार को
(ग) अपनी अफसरी को
(घ) अपनी अच्छी आमदनी को।
उत्तर:
(ग) अपनी अफसरी को
प्रश्न 6.
गुल्ली-डंडा खेल से सम्बन्धित शब्द है –
(क) गुच्ची
(ख) पाला
(ग) लॉन
(घ) नेट।
उत्तर:
(क) गुच्ची
प्रश्न 7.
गया और कथानायक भीमताल तक गये थे –
(क) पैदल
(ख) मोटर में बैठकर
(ग) घोड़े पर बैठकर
(घ) साइकिल पर बैठकर
उत्तर:
(ख) मोटर में बैठकर
RBSE Class 12 Hindi सरयू Chapter 13 अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
प्रेमचन्द द्वारा लिखी हुई पहली कहानी कौन-सी है ?
उत्तर:
‘पंचपरमेश्वर’ प्रेमचन्द की पहली कहानी है। कुछ लोग ‘संसार का अनमोल रतन’ को उनकी पहली कहानी मानते हैं।
प्रश्न 2.
बंगाली भाषा के उपन्यासकार शरतचन्द्र ने प्रेमचन्द को क्या उपाधि प्रदान की थी ?
उत्तर:
बंगाली भाषा के उपन्यासकार शरतचन्द्र ने प्रेमचन्द को ‘उपन्यास-सम्राट’ की उपाधि प्रदान की।
प्रश्न 3.
प्रस्तुत कहानी का नाम ‘गुल्ली डंडा’ क्यों रखा गया है ?
उत्तर:
प्रस्तुत कहानी ‘गुल्ली-डंडा’ खेल के बारे में है। यह खेल गुल्ली तथा डंडा की सहायता से खेला जाता है।
प्रश्न 4.
प्रेमचन्द की दृष्टि में ‘गुल्ली-डंडा’ कैसा खेल है ?
उत्तर:
प्रेमचन्द की दृष्टि में ‘गुल्ली-डंडा’ सब खेलों का राजा है।
प्रश्न 5.
बचपन में लेखक को गया के साथ झगड़ा क्यों हुआ था ?
उत्तर:
गया गुल्ली-डंडा के खेल में लेखक को पदाना चाहता था परन्तु लेखक पदना नहीं चाहता था। वह बहाना बनाकर भाग रहा था।
प्रश्न 6.
“मैं समझता था, न्याय मेरी ओर है”- लेखक ऐसा क्यों समझता था ?
उत्तर:
लेखक ने एक दिन पहले गया को अमरूद खिलाया था। लेखक समझता था कि अमरूद खाकर गया को दाव माँगने का हक नहीं था।
प्रश्न 7.
लेखक के पिता कौन थे ? उत्तर-लेखक के पिता थानेदार थे।
प्रश्न 8.
इंजीनियर बनने के बाद कस्बे में आने पर लेखक किसके लिए व्याकुल था ?
उत्तर:
इंजीनियर बनने के बाद कस्बे में आने पर लेखक बचपन के क्रीड़ास्थलों को देखने के लिए व्याकुल था।
प्रश्न 9.
गया झेंप क्यों रहा था ?
उत्तर:
लेखक ने गया के सामने गुल्ली-डंडा खेलने का प्रस्ताव रखा था। अपना तथा लेखक की पद-प्रतिष्ठा के अन्तर के कारण गया उस प्रस्ताव को स्वीकार करने में झेप रहा था।
प्रश्न 9.
लेखक के साथ गुल्ली-डंडा खेलते समय गया ने असंतोष प्रकट क्यों नहीं किया ?
उत्तर:
गया खेल नहीं रहा था। वह लेखक को खिला रहा था। अत: उसको बेईमानी करता देखकर भी असंतोष प्रगट नहीं कर रहा था।
प्रश्न 10.
‘मैं खेल में न था’- कहने का क्या तात्पर्य है ?
उत्तर:
‘मैं खेल में न था’- कहने का तात्पर्य है कि लेखक खेल नहीं रहा था। वह खेल देख रहा था।
प्रश्न 11.
गयो की दया के योग्य कौन है तथा क्यों ?
उत्तर:
लेखक गया की दया के योग्य है। गया उसको बराबर का खिलाड़ी नहीं मानता। उस पर दया दिखाकर जिताता है।
RBSE Class 12 Hindi सरयू Chapter 13 लघूत्तरात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
कहानी का शीर्षक ‘गुल्ली-डंडा’ क्यों रखा गया है ?
उत्तर:
गुल्ली-डंडा नामक खेल में गुल्ली तथा डंडा का होना आवश्यक होता है। इन दो चीजों के बिना यह खेल नहीं खेला जा सकता। इस कहानी में लेखक के साथ गया द्वारा गुल्ली-डंडा खेले जाने का वर्णन है। विषय का केन्द्र गुल्ली और डंडा ही है। अतः शीर्षक सर्वथा उपयुक्त है।
प्रश्न 2.
‘गुल्ली-डंडा’ कहानी की विषय-वस्तु क्या है ?
उत्तर:
लेखक तथा गया द्वारा खेला गया गुल्लीडंडा का खेल इस कहानी का विषय है। इस कहानी में कथाकार ने बड़े कौशल से इस सच्चाई को प्रगट किया है कि पद और प्रतिष्ठा मनुष्य और मनुष्य के बीच की प्राकृतिक समानता को समाप्त कर देते हैं। इंजीनियर बनने के बाद लेखक गुल्ली-डंडा खेल में गया का समकक्ष खिलाड़ी नहीं रहता।
प्रश्न 3.
गुल्ली-डंडा को सब खेलों का राजा क्यों कहा गया है ?
उत्तर:
गुल्ली-डंडा महँगा खेल नहीं है। किसी पेड़ की टहनी से गुल्ली तथा डंडा बन जाते हैं। इसके खेलने के लिए किसी लॉन, कोर्ट, नेट तथा थापी की जरूरत नहीं होती। किसी भी खुली जगह में इसे खेला जा सकता है। इस खेल को दो खिलाड़ी होने पर भी खेला जा सकता है। इसके लिए किसी बड़ी टीम की जरूरत नहीं होती।
प्रश्न 4.
‘गरीब लड़कों के लिए क्यों यह व्यसन मढ़ते हो-” इस कथन में किस बात का निषेध किया गया है ?
उत्तर:
भारत में देशी खेलों की उपेक्षा कर अँग्रेजी खेल खिलाये जाते हैं। स्कूलों में ली गई फीस की बड़ी धनराशि इन खेलों पर ही खर्च की जाती है। देशी खेल सस्ते हैं। अँग्रेजी खेल धनवान लोगों के लिए हैं। भारतीय गरीब हैं। उनको अँग्रेजी खेल खिलाना अनुचित है। गरीब भारतीय विद्यार्थियों को अँग्रेजी खेल खिलाने का लेखक ने निषेध किया है।
प्रश्न 5.
‘गुल्ली-डंडा’ खेल के विरुद्ध क्या आरोप लगाया जाता है ? लेखक ने इसका क्या उत्तर दिया है ?
उत्तर:
आरोप लगाया जाता है कि गुल्ली से आँख फूटने का खतरा होता है। लेखक मानता है कि चोट-फेट का डर तो हर खेल में रहता है। क्रिकेट के खेल में टाँग टूटने, माथा फूटने तथा तिल्ली फट जाने का डर रहता है। इस कारण गुल्ली-डंडा न खेलना ठीक नहीं है।
प्रश्न 6.
लेखक के साथ गुल्ली-डंडा खेलने वाले गया की क्या विशेषताएँ हैं ?
उत्तर:
गया दक्ष तथा चतुर खिलाड़ी है। वह लेखक से दो-तीन साल बड़ा है। वह दुबला, पतला तथा लम्बा है। उसकी उँगलियाँ बन्दरों के समान पतली तथा लम्बी हैं। उसमें बन्दरों जैसी चपलता है। गुल्ली पर तेजी से लपकता है। गुल्ली उसकी पकड़ से नहीं बचती। खेल में सब उसको अपना साथी बनाना पसंद करते हैं।
प्रश्न 7.
आप ‘गुल्ली-डंडा’ खेल से सम्बन्धित किन शब्दों से परिचित हैं ? नामोल्लेख करके किन्हीं दो के बारे में बताइए।
उत्तर:
गुल्ली डंडा’ के खेल में डंडा, गुल्ली, गुच्ची, पदना, पदाना, दाँव देना, दाँव लेना, टाँड लगाना, हुच जाना इत्यादि शब्दों का प्रयोग होता है। गुच्ची’ भूमि पर डंडे की सहायता से बनाई गई वह खंदक या दरार होती है जिस पर गुल्ली रखकर डंडे से उछाली जाती है। ‘हुच जाने’ का अर्थ खिलाड़ी का खेल से बाहर होना है। जब गुल्ली गुच्ची पर रखे डंडे से टकराती है तो खिलाड़ी अपनी बारी से हट जाता है।
प्रश्न 8.
“यह सरासर अन्याय था” – लेखक की दृष्टि में अन्याय क्या था ? क्या आप भी ऐसा ही मानते हैं ?
उत्तर:
लेखक गया का दाँव दिए बिना ही जाना चाहता था। वह तरह-तरह की चालें चल रहा था परन्तु गया उसका पीछा नहीं छोड़ रहा था। एक दिन पहले उसने गया को अमरूद खिलाया। लेखक की दृष्टि में अमरूद खाने के बाद भी दाव लेने की जिद करना गया का अन्याय था। रिश्वत देकर तो लोग खून के आरोप से भी बच जाते हैं। लेखक का अमरूद खाकर गया को उससे दाव लेने का हक नहीं था। अमरूद देने का लालच लेखक की दाव देने से बचने की एक चाल थी। वास्तव में इसका सम्बन्ध न्याय-अन्याय से नहीं था। मैं इसको गया का अन्यायपूर्ण कार्य नहीं मानता।
प्रश्न 9.
“उसने मेरी पीठ पर डंडा जमा दिया”- किसने किसकी पीठ पर डंडा मारा ? इसको क्या परिणाम हुआ?
उत्तर:
गया लेखक से अपना दाव लेना चाहता था। लेखक के राजी न होने पर झगड़ा होने लगा तथा गया ने लेखक की पीठ पर डंडा जमा दिया। परिणाम यह हुआ कि लेखक रोने लगा। यह देखकर गया घबराकर भागा। अब लेखक को भी अवसर मिला। उसने अपनी आँखें पोंछी तथा डंडे की चोट भूलकर हँसते हुए अपने घर जा पहुँचा। उसे गया को दाव देने से छुटकारा मिल गया।
प्रश्न 10.
लेखक के पिता का तबादला होने पर उन पर, उनकी पत्नी पर तथा लेखक पर क्या प्रभाव पड़ा ?
उत्तर:
लेखक के पिता थानेदार थे तथा कस्बे में तैनात थे। यह अच्छी आमदनी वाली जगह थी अत: वह दुखी थे। वहाँ चीजें सस्ती थीं तथा मोहल्ले की स्त्रियों से घरेलूपन हो गया था। अत: उनकी पत्नी भी दु:खी थीं। लेखक प्रसन्न था। उसको नई दुनिया देखने की खुशी में अपने साथियों से बिछुड़ने का भी गम नहीं था।
प्रश्न 11.
“बच्चों में मिथ्या को सत्य बना लेने की शक्ति है”- लेखक तथा उसके कस्बे के साथियों के व्यवहार के आधार पर इस कथन पर टिप्पणी कीजिए।
उत्तर:
लेखक ने अपने साथियों से डींग हाँकी कि वह अपने पिता के साथ जिस बड़े शहर में जा रहा है, वहाँ आसमान को छूने वाले ऊँचे मकान हैं। वहाँ अंग्रेजी स्कूले हैं। मास्टर यदि बच्चों को मारता है तो उसको जेल जाना पड़ता है। उसकी गप्पों को सच मानकर उसके साथी आश्चर्यचकित हुए तथा वह उनकी दृष्टि में बहुत बड़ा हो गया। बच्चों का यह व्यवहार बालपन में मिथ्या बातों को भी सत्य बनाने की क्षमता का सटीक प्रमाण है।
प्रश्न 12.
”ऐसा जी होता था कि उस धरती से लिपटकर रोऊँ और कहूँ, तुम मुझे भूल गईं। मैं अब भी तुम्हारा वही रूप देखना चाहता हूँ।” इस कथन से मनुष्य की किस मनोवृत्ति का पता चलता है ? इस सम्बन्ध में आपका क्या मत है ?
उत्तर:
इस कथन से पता चलता है कि जिस स्थान पर किसी मनुष्य का बचपन व्यतीत होता है, वह उसको बहुत प्रिय होता है। वह उसकी स्मृतियों में बसता है। बड़े होने पर भी वह उस स्थान को देखना पसंद करता है। यह एक मनोवैज्ञानिक सच्चाई है। मेरे मते में इसका खण्डन करने का कोई कारण नहीं है। ऐसा करना मानव मन की वृत्ति के प्रति अज्ञान की प्रदर्शन करना है।
प्रश्न 13.
लेखक बीस साल बाद गया को देखकर उससे गले मिलना चाहता था। उसने ऐसा क्यों नहीं किया?
उत्तर:
जब लेखक कस्बे में स्थित खेल के पुराने स्थानों को देखने पहुँचा तो एक लड़का उसके कहने पर उसके पुराने साथी गया को बुला लाया । उसको आता देखकर वह उससे गले मिलना चाहता था परन्तु उसने ऐसा नहीं किया। उसने सोचा कि वह इंजीनियर है। तथा जिले का एक बड़ा अफसर है। गया एक मामूली आदमी है। ऐसा करना ठीक नहीं होगा। वह उसकी बराबर का नहीं था।
प्रश्न 14.
गुल्ली-डंडा खेलने के लेखक के प्रस्ताव पर गया तथा लेखक दोनों ही झेंप रहे थे। इसका कारण क्या था ?
उत्तर:
लेखक ने गया के समक्ष गुल्ली-डंडा खेलने का प्रस्ताव रखा। गया मुश्किल से राजी हुआ। वह यह सोचकर झेप रहा था कि वह एक मामूली मजदूर था तथा लेखक एक बड़ा अफसर था। दोनों में बराबरी की स्थिति नहीं थी। लेखक के मन में भी झेप का भाव था। वह सोच रहा था कि गया के साथ उसको खेलता देखकर लोग खेल को अजूबा समझेंगे और तमाशा बना लेंगे। वहाँ भारी भीड़ एकत्र हो जाएगी।
प्रश्न 15.
“कुछ ऐसी मिठास थी उसमें कि आज तक उससे मन मीठा होता रहता है।” इस कथन में लेखक किस मिठास के बारे में बता रहा है ?
उत्तर:
बचपन में लेखक गया के साथ गुल्ली-डंडा खेला था। गया उससे अपना दाँव लेने पर अड़ा था। लेखक बिना दाँव दिए जाना चाहता था। दोनों में झगड़ा हुआ। गया ने उसकी पीठ पर डंडा मारा तो लेखक रोने लगा । बीस साल बाद उसने गया को उसकी याद दिलाई तो गया ने उसे बचपन की अपनी गलती बतायो । लेखक ने कहा वह उसके बाल जीवन की सबसे मीठी याद है। उसकी मिठास आज तक बाकी है। उसमें जो मिठास थी वह आज उच्च पद, धन और सम्मान में भी नहीं है।
प्रश्न 16.
“लेकिन आज गुल्ली को उससे वह प्रेम नहीं रहा”- कथन का आशय स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
गया ‘गुल्ली-डंडा’ खेलने में दक्ष था। गुल्ली को लपकने में उसका कोई मुकाबला नहीं था। वह उसकी पकड़ से बचती नहीं थी। गुल्ली आकर सीधे उसकी हथेलियों में समा जाती थी। बीस साल बाद लेखक ने उसके साथ खेलते समय देखा कि गया अपना यह गुण खो चुका था। वह गुल्ली को लपक नहीं पा रहा था। गुल्ली उसके इधर-उधर से निकल रही थी।
प्रश्न 17.
बीस साल बाद हुए लेखक और गया के बीच गुल्ली-डंडा के खेल को आप कैसा खेल मानते हैं?
उत्तर:
इंजीनियर बनने के बाद लेखक बीस साल बाद उसी कस्बे में पहुँचा और बालसखा गया के साथ गुल्ली-डंडा खेलने भीमताल पहुँचा। वहाँ दोनों ने गुल्ली-डंडा खेला। इस खेल को हम खेल नहीं मानते । लेखक नियम विरुद्ध खेल रहा रहा था और धाँधली कर रहा था। गया कोई विरोध नहीं कर रहा था और उसकी प्रत्येक अनियमितता को चुपचाप देख रहा था। खिलाड़ियों के बीच जो समानता की भावना होती है, वह खेल में नहीं थी। एक अफसर था तो दूसरा टके का मजदूर।
प्रश्न 18.
“गया वह सारी बे-कायदगियाँ देख रहा था”-गया द्वारा देखी गई कोई तीन बे-कायदगियाँ गिनाइए।
उत्तर:
गया देख रहा था कि उसका साथी खिलाड़ी अनियमितता कर रहा था। गया द्वारा देखी गईं तीन अनियमितता निम्नलिखित हैं –
- लेखक हुच जाने पर भी डंडा चला रहा था और गया की बारी नहीं आने दे रहा था।
- गुल्ली पर कम चोट पड़ती है वह कुछ दूर ही जाकर गिरती तो वह स्वयं उसको उठा लाता और दोबारा टांड लगाता था।
- गुल्ली डंडे में लगती तब भी वह उसको स्वीकार नहीं करता था।
प्रश्न 18.
बेकायदगियाँ देखकर भी गया चुप क्यों था ?
उत्तर:
बेकायदगियाँ देखकर भी गया चुप था। वह लेखक का मन रखने को खेल रहा था। वह लेखक को अपने जोड़ का खिलाड़ी नहीं मानता था। वह विरोध करके लेखक को खेल से हटाना तथा पदाना नहीं चाहता था। लेखक अफसर था और वह एक मजदूर। अत: सब अनियमितताएँ देख, सुन और जानकर भी वह चुप था।
प्रश्न 19.
”इस सत्य को झुठलाना वैसे ही था, जैसे दिन को रात बताना”- के अनुसार बताइए कि किस सत्य को, किसने तथा क्यों झुठलाया ?
उत्तर:
गुल्ली डंडे में लगी और जोर की आवाज हुई। उत्साहित होकर गया ने कहा- ‘लग गई, लग गई, टन से बोली’। गुल्ली डंडे से टकराई थी, यह बात सच थी। मगर लेखक ने इस सत्य को भी झुठलाया और कहा कि आवाज गुल्ली के ईंट से टकराने से हुई है। लेखक बेईमानी और अनियमितता करना चाहता था और गया से पदना नहीं चाहता था अतः उसने सच्चाई को नहीं माना ।
प्रश्न 20.
“इसी वक्त मुआमला साफ कर लेना अच्छा होगा”- लेखक ने ऐसा विचार क्यों किया ?
उत्तर:
गया को बहुत देर से पदता देखकर और खेल में अपनी बेईमानियों पर कुछ पसीज कर लेखक ने गया से खेलने का प्रस्ताव किया। गया ने अँधेरा होने के कारण अगले दिन अपना दाँव लेने की बात कही। लेखक जानता था कि जल्दी ही पूरा अँधेरा हो जाएगा और उसको पदने से मुक्ति मिल जायगी। अगले दिन खेलने पर गया को खूब समय मिलेगा। अत: उसने गया का दाँव उसी समय देकर मामला निबटा लेना ठीक समझा।
प्रश्न 21.
“कल गया ने मेरे साथ खेला नहीं, केवल खेलने का बहाना किया ?” गया के एक दिन पहले लेखक के साथ हुए खेल के आधार पर इस कथन की पुष्टि कीजिए।
उत्तर:
शाम को गुल्ली-डंडा के मैच में खेल पहले से भी अधिक परिपक्व हो गया था और वह पूरी दक्षता के साथ खेल रहा था। वह साथ के खिलाड़ियों की बेईमानियों को भी सहन नहीं कर रहा था। एक दिन पूर्व अपने साथ गया के खेल को स्मरण कर लेखक ने पाया कि कल गया ने मेरे साथ खेला नहीं, केवल खेलने का बहाना किया।” गया न तो खेल में कुशलता दिखा रहा था और ने लेखक की अनियमितताओं का विरोध कर रहा था। वह तो उसे खिला रहा था और उसका मन रख रहा था।
प्रश्न 22.
“वह बड़ा हो गया है, मैं छोटा हूँ’-लेखक को ऐसा अनुभव कब तथा क्यों हुआ ?
उत्तर:
लेखक ने देखा कि उसके साथ खेलते समय गया अनमना था। वह खेल में अपनी दक्षता नहीं दिखा रहा था। वह उसकी अनियमितताओं का विरोध भी नहीं कर रहा था। वह खेल नहीं रहा था खेल का बहाना कर रहा था । लेखक के विचार में इसका कारण दोनों के बीच पद, प्रतिष्ठा तथा आर्थिक सम्पन्नता में गहरा अन्तर होना था। गया उसको अपने जोड़ का खिलाड़ी नहीं मानता था। वह उसको अकुशल खिलाड़ी मानती था। खेल में गया बड़ा था और लेखक छोटा था।
प्रश्न 23.
‘गुल्ली-डंडा’ आपकी दृष्टि में कैसा शीर्षक है ? क्या आप इस कहानी का कोई अन्य उपयुक्त शीर्षक रखना चाहेंगे ?
उत्तर:
हमारी दृष्टि में कहानी का शीर्षक गुल्ली-डंडा सर्वथा उपयुक्त है। इस कहानी में बाल-सखाओं द्वारा गुल्ली-डंडा खेलने का सजीव वर्णन पाया जाता है। यदि कोई अन्य शीर्षक देना ही हो तो -‘अकुशल खिलाड़ी’, ‘बेईमान खिलाड़ी’, ‘एक अफसर एक मजदूर’ इत्यादि शीर्षक दिए जा सकते हैं। वैसे ‘गुल्ली-डंडा’ बहुत उचित शीर्षक है। अतः हम कोई अन्य शीर्षक देना नहीं चाहेंगे।
प्रश्न 24.
स्वयं को कथा-नायक कल्पित करते हुए गया के साथ अपने खेल की विशेषताओं पर विचार कीजिए।
उत्तर:
यदि मैं कुछ देर के लिए स्वयं को गुल्ली-डंडा खेल का प्रमुख खिलाड़ी और कथानायक मान लें तो अपने खेल में कोई विशेषता नहीं पाता। इसके विपरीत मैं पाता हूँ कि अपनी अकुशलता तथा अभ्यासहीनता को छिपाने के लिए मैंने गया के साथ खेलते समय अनियमितता की तथा खेल के नियमों का उल्लंघन किया। मेरा पूरा खेल अनुचित तरीकों का प्रदर्शन था।
प्रश्न 25.
अब गली-मोहल्लों में लड़के कौन-सा खेल खेलते दिखाई देते हैं ? अब गुल्ली-डंडा क्यों नहीं खेला जाता ?
उत्तर:
अब गली-मोहल्लों में लड़के क्रिकेट खेलते दिखाई देते हैं। आजकल क्रिकेट की लोकप्रियता चरम पर है। कभी लड़के गलियों में गुल्ली-डंडा खेला करते थे। आजकल गुल्ली-डंडा नहीं खेला जाता। शायद गाँवों के लड़के भी नहीं खेलते। कारण यह है कि दूरदर्शन आदि पर क्रिकेट की तरह गुल्ली-डंडा खेलते लोग नहीं दिखाई देते। इसको खेलना गॅवारूपन तथा पिछड़ापन माना जाता है। प्रचार तथा प्रोत्साहन के अभाव में बच्चे गुल्ली-डंडा नहीं खेलते।
प्रश्न 26.
‘गुल्ली-डंडा’ के आधार पर प्रेमचन्द की भाषा-शैली पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
‘गुल्ली-डंडा’ कहानी में प्रेमचन्द ने बालकों के जनप्रिय खेल का वर्णन किया है। इसके लिए प्रेमचन्द ने सरल तथा विषयानुकूल भाषा का चयन किया है। उनकी भाषा में संस्कृत के तत्सम शब्दों के साथ उर्दू भाषा के शब्द, मुहावरे तथा लोकभाषा के शब्द भी हैं। इस कारण उसमें प्रवाह है। अधिकांशतः वर्णनात्मक शैली को ही अपनाया गया है। आवश्यकता के अनुसार विचारात्मक, विवेचनात्मक तथा व्यंग्य शैली भी प्रयुक्त हुई है। सूत्र वाक्य भी इसमें हैं।
प्रश्न 27.
गुल्ली-डंडा कहानी के पात्रों का परिचय दीजिए।
उत्तर:
गुल्ली-डंडा कहानी में कथानायक, गया, मतई, मोहन तथा दुर्गा नामक पात्र हैं। कथानायक थानेदार का बेटा है। वह बड़ा होकर इंजीनियर हो जाता है। उसकी आर्थिक स्थिति अच्छी थी। गया गरीब है, वह चर्मकार है तथा डिप्टी साहब का साईस है। वह गुल्ली-डंडा खेलने में दक्ष है। मतई, मोहन, दुर्गा भी साथी खिलाड़ी हैं। उनमें मतई की मृत्यु हो चुकी है।
प्रश्न 28.
अवसर मिलने पर आप गुल्ली-डंडा कैसे खेलेंगे ?
उत्तर:
अवसर मिला तो मैं गुल्ली-डंडा खेलूंगा। मैं खेल के नियमों का पालन करूंगा। मैं किसी प्रकार की अनियमितता नहीं करूंगा। दाँव लँगा तथा दाँव पूँगा भी। खेल में झगड़ा भी मैं नहीं करूंगा। इस प्रकार मेरा खेल पवित्र तथा निष्कलंक होगा।
RBSE Class 12 Hindi सरयू Chapter 13 निबंधात्मक प्रश्नोत्तर
प्रश्न 1.
‘गुल्ली-डंडा’ कहानी की कथावस्तु की समीक्षा कीजिए।
उत्तर:
‘गुल्ली-डंडा’ कहानी गुल्ली-डंडा नामक भारतीय खेल तथा उसके खिलाड़ियों से सम्बन्धित है। कहानी का आरम्भ गुल्ली-डंडा को खेलों का राजा बताकर उसकी विशेषताओं के वर्णन के साथ होता है। विदेशी महँगे खेलों की तुलना में सस्ते भारतीय खेलों को प्रोत्साहित किया गया है। कहानी के मुख्य पात्र तथा गया को गुल्ली डंडा खेलते तथा लड़ते-झगड़ते वर्णित किया गया है। मुख्य पात्र बीस साल बाद उसी कस्बे में आता है तथा गया के साथ गुल्ली डंडा खेलता है। वह गया के खेल में पहली वाली विशेषता नहीं पाता। सोच-विचार के बाद वह इस निष्कर्ष पर पहुँचता है कि उसका अफसर होना दोनों के बीच असमानता पैदा कर देता है। गया उसको अपने जोड़ का नहीं मानता। वह खेलता नहीं केवल खेलने का बहाना करता है। कहानी की कथावस्तु सुगठित तथा संदेशप्रद है। आरम्भ से अन्त तक उसमें पाठक की रुचि बनी रहती है। गया तथा लेखक के खेल के साथ कथानक का विकास होता है और अन्त इस मनोवैज्ञानिक सत्य के साथ होता है कि पद और प्रतिष्ठा मनुष्य-मनुष्य के बीच की प्राकृतिक समानता को समाप्त कर देते हैं।
प्रश्न 2.
‘गुल्ली-डंडा’ कहानी के पात्र गया का चरित्र-चित्रण कीजिए।
उत्तर:
‘गुल्ली-डंडा’ कहानी में मुख्य पात्र दो ही हैं-कथानायक अथवा लेखक और गया। गया के चरित्र की प्रमुख विशेषताएँ। निम्नलिखित हैं
- कुशल खिलाड़ी – गया गुल्ली-डंडा का कुशल खिलाड़ी है। गुल्ली को वह सरलता से लपक लेता है। उसका निशाना कभी चूकता नहीं है। यह जिस टीम के साथ होता है उसकी जीत निश्चित होती है। सब उसको अपना गोइयाँ बनाना चाहते हैं।
- शारीरिक बनावट – गया दुबला, पतला तथा लम्बा है। उसके हाथ की उँगलियाँ बन्दरों की तरह लम्बी हैं। उसका रंग काला है। वह फुर्तीला है।
- आर्थिक स्थिति – गया गरीब चर्मकार है। उसकी आर्थिक दशा अच्छी नहीं है। वह बड़ा होकर डिप्टी साहब के यहाँ साईस बन जाता है। ।
- समझदार – गया समझदार है। वह समाज में पद और प्रतिष्ठा का महत्व समझता है। लेखक जब अफसर बनकर लौटता है तो वह उसके साथ अदब का व्यवहार करता है। वह उसके कहने पर खेलता है परन्तु दोनों के बीच का अन्तर नहीं भुला पाता। वह खेलने को दिखावा करता है। डंडा मारने की घटना याद दिलाने पर वह उसको बचपना कहकर भुलाने के लिए कहता है।
प्रश्न 3.
‘गुल्ली-डंडा’ की संवाद-योजना पर संक्षेप में विचार व्यक्त कीजिए।
उत्तर:
‘गुल्ली-डंडा’ कहानी के संवाद नाटकीय तथा चुटीले हैं। कहानीकार ने छोटे तथा लम्बे-दोनों ही प्रकार के संवादों का प्रयोग किया है मगर छोटे संवाद ही अधिक हैं। संवादों की भाषा सरल तथा पात्रानुकूल है।
लेखक ने संवादों का प्रयोग कथावस्तु के विकास में किया है। पात्रों की चरित्रगत विशेषताओं के प्रकाशन में भी ‘गुल्ली-डंडा’ के संवाद सहायक हैं। निम्नलिखित उदाहरण विचारणीय हैं।
गया ने झुककर सलाम किया – ‘हाँ मालिक, भला पहचानँगा क्यों नहीं। आप मजे में रहे ?’
‘बहुत मजे में । तुम अपनी कहो ?’
‘डिप्टी साहब का साईस हूँ।’
‘मतई, मोहन, दुर्गा सब कहाँ हैं ? कुछ खबर है ?’
‘मतई तो मर गया। दुर्गा और मोहन दोनों डाकिए हो गए हैं। आप ?’
‘मैं तो जिले का इंजीनियर हूँ।’
‘सरकार तो पहले ही बहुत जहीन थे।’
‘अब कभी गुल्ली-डंडा खेलते हो।’
इस उदाहरण से कथानायक तथा गया के सामाजिक, आर्थिक तथा शैक्षिक अन्तर पर प्रकाश पड़ता है। यह भी पता चलता है कि कथानायक गया के साथ गुल्ली-डंडा खेलना चाहता है। इसी प्रकार कहानी के अन्य संवाद भी उद्देश्यपूर्ण हैं।
प्रश्न 4.
गुल्ली-डंडा कहानी में क्या संदेश दिया गया है ?
अथवा
‘गुल्ली-डंडा’ कहानी में किस मनोवैज्ञानिक सत्य का उद्घाटन हुआ है ?
अथवा
“तब मैं उसका समकक्ष था। इसमें कोई भेद न था। यह पद पाकर अब मैं केवल उसकी दया के योग्य हूँ’- लेखक के इस कथन का क्या आशय है ? वह छोटा तथा गया बड़ा कैसे हो गया है ?
उत्तर:
बीस वर्ष बाद अफसर बनकर जब लेखक कस्बे में लौटा और अपने बचपन के साथी गया के साथ गुल्ली-डंडा खेला तो उसको लगा कि गया में खेल की पहले जैसी कुशलता नहीं है। वह न गुल्ली को लपक पा रहा था, न टांड लगा पा रहा था और न गलत खेल का विरोध कर रहा था। इसके अगले दिन गया के बुलावे पर उसने गुल्ली-डंडा का मैच देखा तो उसने उसके खेल में पहले से भी ज्यादा परिपक्वता पाई। यह देखकर उसने सोचा कि कल गया खेल नहीं रहा था, उसको खिला रहा था। वह उसको अपने बराबर का खिलाड़ी नहीं मान रहा था। वह उसका मन रखने के लिए उस पर दया करके उसके साथ खेलने का नाटक कर रही था। लेखक उसकी दृष्टि में छोटा हो गया था और वह बड़ा।
कहानीकार ने ‘गुल्ली-डंडा’ कहानी में इस मनोवैज्ञानिक सत्य का उद्घाटन किया है कि बचपन के समान अवस्था वाले साथियों में बड़े होने पर पद, प्रतिष्ठा, आर्थिक स्थिति आदि असमान होने पर बचपन जैसी समानता नहीं रहती। उनके आपसी व्यवहार में असमानता आ जाती है। लेखक अफसर है और गया मजदूर। यह अन्तर उनके खेल में बाधक बनता है। गुल्ली-डंडा कहानी का संदेश यही है कि पद, सामाजिक और आर्थिक अन्तर आदि होने के कारण मनुष्य-मनुष्य के बीच की नैसर्गिक समानता समाप्त हो जाती है। उनका आपसी व्यवहार भी पहले जैसा नहीं रहता, उसमें दिखावा और अन्तर आ जाता है। ऐसा होना स्वाभाविक है। बाह्य प्रभाव के कारण प्राकृतिक आचरण मानो नष्ट हो जाता है और बनावटी सभ्य आचरण का जन्म होता है।
प्रश्न 5.
‘गुल्ली-डंडा’ लेखक की दृष्टि में कैसा खेल है ? उसके बारे में लेखक की स्मृतियों का उल्लेख करते हुए बताइए कि आपको यह खेल कैसा लगता है ?
उत्तर:
‘गुल्ली-डंडा’ लेखक की दृष्टि में एक अच्छा भारतीय खेल है। यह सस्ता है। पेड़ से टहनी काटकर गुल्ली और डंडा बना लिए जाते हैं। केवल दो लोग हों तब भी यह खेल खेला जा सकता है। गुल्ली-डंडा खेलों का राजा है। अँग्रेजी खेल महँगे होने के कारण निर्धन भारतीयों के अनुकूल नहीं हैं। बचपन में लेखक सबेरा होते ही साथियों के साथ निकल जाता था। वे पेड़ की टहनी लेकर गुल्ली और डंडा बनाते थे तथा खेलने में मस्त हो जाते थे। उनको समय का पता ही नहीं चलता था और नहाने-खाने की सुध भी नहीं रहती थी। उधर उसके आने के इंतजार में पिताजी बैठे होते थे, रोटियाँ सामने रखी होती थीं। वह नाराज हो रहे होते थे। माँ बार-बार दरवाजे पर आकर उनका आना देखती थी। घरवाले सोचते थे कि इस लड़के का भविष्य तो खराब हो गया। परन्तु वह गुल्ली-डंडा के खेल में सब कुछ भुला देता था।
मेरे विचार में गुल्ली-डंडा एक सस्ता भारतीय खेल है। उसको प्रोत्साहन देने की आवश्यकता है। विदेशी खेलों की तुलना में भारतीय खेल खिलाना देश की आर्थिक स्थिति के अनुकूल है तथा सांस्कृतिक और राष्ट्रीय एकता को भी बढ़ाने वाला है।
प्रश्न 6.
‘गुल्ली-डंडा’ कहानी के आधार पर लेखक और गया के बीच हुए झगड़े को अपने शब्दों में लिखिए।
उत्तर:
लेखक गया के साथ गुल्ली-डंडा खेल रहा था। वह पद रहा था। गया पदा रहा था। वह गया से पीछा छुड़ाकर घर जाना चाहता था। मगर अनुनय-विनय करने पर भी गया उसको अपना दाँव लिए बगैर जाने नहीं दे रहा था। इस पर दोनों में झगड़ा होने लगा। लेखक ने कहा कि क्या वह दिन भर पदता रहेगा ? खाने-पीने नहीं जायेगा ? क्या वह उसको गुलाम है ? गया ने कहा- हाँ, वह दाँव दिए वगैर नहीं जा सकता। लेखक ने गया से छुटकारा पाने के लिए अपना वह अमरूद माँगा जो उसने उसको कल खिलाया था। बात किसी तरह न बनने पर वह जाने लगा तो गया ने उसका हाथ पकड़करे उसको रोक लिया। लेखक ने गया को गाली दी। गया ने और भद्दी गाली दी और उसने एक चाँटा भी जड़ दिया। लेखक ने दाँतों से उसे काट लिया। गया ने उसकी पीठ पर एक डंडा मार दिया। लेखक रोने लगा तो गया डरकर पीछे हट गया । लेखक ने आँसू पोंछे और डंडे की चोट भुलाकर हँसते हुए अपने घर चला गया। वह एक थानेदार को बेटा था। एक अदने-से लड़के से पिटने की शिकायत उसने अपने घर पर किसी से नहीं की।
प्रश्न 7.
“मैं समझता था न्याय मेरी ओर है।’ लेखक किसको न्याय समझता है ? वह जिसको न्याय समझता है क्या आप भी उसको न्याय समझते हैं ? तर्कपूर्ण उत्तर दीजिए।
उत्तर:
लेखक गया का दाँव दिए बगैर जाना चाहता था मगर गया उसको जाने नहीं दे रहा था। उसने गया को एक दिन पहले एक अमरूद खिलाया था। उसने वह अमरूद उससे वापस माँगा और कहा कि वह अमरूद नहीं लौटायेगा तो वह दाँव नहीं देगी। रिश्वत देकर तो लोग खून से भी बच जाते हैं। क्या गया उसका अमरूद मुफ्त में पचा जाएगा। लेखक समझ रहा था कि अमरूद गया को देकर उसने न्याय को अपने पक्ष में कर लिया है। अब गया को अधिकार नहीं है कि वह उससे दाँव देने को कहे। लेखक की न्याय के सम्बन्ध में यह धारणा विचित्र है तथा बचपन की सोच पर आधारित है। वास्तविकता तो यह है कि यह न्याय है ही नहीं। मेरा विचार है कि लेखक जिसको न्याय समझ रहा है, वह उसका बालोचित विचार है। वैसे भी रिश्वत देकर न्याय प्राप्त नहीं किया जा सकता। यदि कोई रिश्वत देता है तो वह अपराधी है। रिश्वत देकर न्याय के लिए बाध्य करना सही नहीं है। लेखक जिसको न्याय नहीं मानता वह उसका बचपना है। अतः न्याय के उसके पक्ष में होने की बात भी कुतर्क मात्र है।
प्रश्न 8.
लेखक तथा गया के बीच भीमताल पर खेले गए ‘गुल्ली-डंडा’ खेल का वर्णन अपने शब्दों में कीजिए।
उत्तर:
लेखक बीस साल बाद बड़ा अफसर बनकर जिले के दौरे पर पहुँचा। कस्बे में पहुँचकर अपने बचपन के क्रीड़ास्थलों को देखने गया। वहाँ उसकी भेंट बालसखा गया के साथ हुई। उसने गया के सामने गुल्ली-डंडा खेलने का प्रस्ताव रखा तथा उसके साथ भीमताल पर पहुँचा ।। चारों तरफ सन्नाटा था । जेठ के महीने की शाम थी। लेखक ने एक पेड़ पर चढ़कर टहनी काटी और गुल्ली तथा डंडा बनाए । खेल शुरू हुआ, लेखक ने गुच्ची में रखकर गुल्ली उछाली। गया ने उसको लपकने के लिए हाथ फैलाए मगर वह उसके सामने से निकल गई । बचपन में गुल्ली गया की पकड़ से बचती नहीं थी। अब वह उसे पकड़ नहीं पा रहा था। लेखक को भी खेल का अभ्यास नहीं रहा था। वह उसकी कमी बेईमानी से पूरी कर रहा था। वह तरह-तरह की धाँधलियाँ कर रहा था। हुच जाने पर भी डंडा खेल रहा था। बेईमानी करके गया की बारी ही नहीं आने दे रही थी। आधा घण्टा गया को पदाने के बाद एक बार गुल्ली-डंडे में लगी, जोर से आवाज हुई मगर उसने स्वीकार नहीं किया। दो-तीन बार ऐसा ही हुआ। गया भी विरोध प्रकट नहीं कर रहा था। अंत में दया प्रकट करते हुए उसने गया को खेलने का मौका दिया। गया एक मिनट में ही हुच गया। तब तके अँधेरा हो चुका था। वे मोटर पर बैठे और दीपक जलने तक अपने पड़ाव पर पहुँच गए।
प्रश्न 9.
प्रेमचन्द की कहानी-कला की विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर:
प्रेमचन्द पहले उर्दू में लिखते थे, बाद में हिन्दी में लिखने लगे। उनकी लगभग 300 कहानियाँ ‘मानसरोवर’ में आठ भागों में संग्रहीत हैं। प्रेमचन्द की कहानी-कला की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं –
- प्रेमचन्द की कहानियों में समाज के यथार्थ चित्र मिलते हैं। किसान, मजदूर, धनी, निर्धन, जर्मीदार, उच्च वर्ग, दलित वर्ग सभी प्रकार के पात्र उनमें मिलते हैं।
- प्रेमचन्द की प्रारम्भिक कहानियाँ घटना प्रधान हैं। बाद की कहानियों में सामाजिक समस्याओं तथा पात्रों के मनोविकारों का चित्रण मिलता है। उनमें मनोविश्लेषण का प्रायः अभाव है।
- कहानियों की कथावस्तु भारत के लोगों के जीवन, समाज तथा राष्ट्र की तत्कालीन स्थिति पर आधारित है। उसमें सुन्दर संवाद योजना है। पात्रों का चरित्र-चित्रण सफलतापूर्वक हुआ है। लेखक ने देश-काल का ध्यान रखा है। कहानियाँ उद्देश्यपूर्ण तथा संदेश-परक
- कहानियों की भाषा सरल तथा विषयानुकूल है। शैली प्राय: वर्णनात्मक है। यत्र-तत्र विचार, विवेचन-व्यंग्य आदि शैलियाँ भी प्रयुक्त हुई हैं।
- प्रेमचन्द की कहानियों में यथार्थ के साथ आदर्श का समन्वय है। वह आदर्शोन्मुख यथार्थवादी कहानीकार हैं।
लेखक – परिचय :
प्रश्न:
प्रेमचन्द का जीवन परिचय तथा साहित्यिक उपलब्धियों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
प्रेमचन्द का जन्म उत्तरप्रदेश के वाराणसी जिले के लमही नामक गाँव में 31 जुलाई, 1880 को हुआ था। इनकी माता आनन्दी देवी थीं। पिता अजायबराय डाक मुंशी थे। प्रेमचन्द ने बचपन में ही दोनों को खो दिया था। प्रेमचन्द का असली नाम धनपतराय श्रीवास्तव था। 1898 में मैट्रिक परीक्षा उत्तीर्ण करके वह शिक्षक बन गए। 1919 में बी. ए. किया और शिक्षा विभाग में इंस्पेक्टर हो गए। आपने बाल-विधवा शिवरानी देवी से दूसरा विवाह किया। उनके तीन संतानें हुईं। पहले यह नबावराय के नाम से उर्दू में लिखते थे। अँग्रेज सरकार ने इनकी ‘सोजे वतन’ नामक रचना पर प्रतिबन्ध लगा दिया। मुंशी दयानारायण की सलाह पर बाद में वह प्रेमचन्द के नाम से हिन्दी में लिखने लगे। सन् 1936 में बीमारी के बाद आपका निधन हो गया।
साहित्यिक परिचय – प्रेमचन्द हिन्दी के प्रसिद्ध उपन्यासकार तथा कहानी सम्राट थे। यह उपाधि आपको बाँग्ला भाषा के प्रसिद्ध कथाकार शरत्चन्द्र चट्टोपाध्याय ने दी थी। प्रेमचन्द ने हिन्दी गद्य की कहानी, उपन्यास, निबन्ध, नाटक आदि विधाओं को समृद्धि प्रदान की। सम्पादन और अनुवाद का कार्य भी आपने सफलतापूर्वक किया। प्रेमचन्द ने 301 कहानियाँ लिखीं जिनमें से तीन अब प्राप्त नहीं हैं। कुछ विद्वान ‘संसार का अनमोल रतन’ को उनकी पहली कहानी मानते हैं किन्तु कुछ अन्य ‘पंच परमेश्वर’ (1916 ई.) को प्रथम कहानी का श्रेय देते हैं। उनका उपन्यास ‘मंगलसूत्र’ अधूरा ही रह गया था, जिसको उनके पुत्र अमृतराय ने पूरा किया।
रचनाएँ – प्रेमचन्द की निम्नलिखित रचनाएँ हैं –
(1) कहानी – ‘सोजे वतन’ – उर्दू भाषा में लिखी कहानियों का संग्रह (1908) । जीवन काल में प्रकाशित कहानी-संग्रह- ‘सप्त सरोज’, ‘नवनिधि’, ‘प्रेम पूर्णिमा’, ‘प्रेम पचीसी’, ‘प्रेम प्रतिमा’, ‘प्रेम द्वादशी’, ‘समर यात्रा’, ‘मान सरोवर-भाग-1 व 2′, ‘कफन’। उनकी मृत्यु के बाद उनकी कहानियाँ’मानसरोवर’ शीर्षक से 8 खण्डों में प्रकाशित हुईं। ‘पंच परमेश्वर’ को उनकी पहली तथा’कफन’ को अन्तिम कहानी माना जाता है।
- उपन्यास – ‘वरदान’ (अनूदित) ‘प्रेमा’, ‘रूठी रानी’, ‘सेवासदन’, ‘प्रेमाश्रम’, ‘रंगभूमि’, ‘कायाकल्प’, ‘निर्मला’, ‘गबन’, ‘कर्मभूमि’, ‘गोदान’ तथा ‘मंगलसूत्र’ (अपूर्ण) ।
- नाटक – ‘संग्राम’, ‘कर्बला’।
- निबन्ध – ‘प्रेमचन्द : विविध प्रसंग’ (तीन भाग), ‘प्रेमचन्द : कुछ विचार’, ‘साहित्य का उद्देश्य’, ‘कहानी कला (तीन भाग)’, ‘हिन्दी उर्दू की एकता’, ‘महाजनी सभ्यता’, ‘उपन्यास’, ‘जीवन में साहित्य का स्थान’ इत्यादि।
- अनुवाद – ‘टालस्टॉय की कहानियाँ तथा गाल्सवर्दी के तीन नाटक – ‘हड़ताल’, ‘चाँदी की डिबिया, और ‘न्याय’।
- सम्पादन – ‘माधुरी’, ‘मर्यादा’, ‘हंस’ तथा ‘जागरण’ नामक पत्र-पत्रिकाएँ।
पाठ – सार
प्रश्न:
‘गुल्ली-डंडा’ कहानी का सारांश लिखिए।
उत्तर:
परिचय – ‘गुल्ली-डंडा’ प्रेमचन्द द्वारा लिखी हुई कहानी है। इसमें बचपन की यादें सँजोई गई हैं। गुल्ली-डंडा भारतीय खेल है। बचपन में लेखक अपने साथियों के साथ गुल्ली-डंडा खेलता था। बड़ा होकर अफसर बनने के बाद वह उसी स्थान पर अपने बचपन के साथी के पास गया और उसके साथ गुल्ली-डंडा खेलने लगा। उसने अनुभव किया कि खेल में पहले जैसा आनन्द नहीं आ रहा है। उनके और साथियों के बीच उनकी अफसरी दीवार बन गई है।
भारतीय खेल – गुल्ली-डंडा भारतीय खेल है। विलायती खेलों की तरह यह महँगा नहीं है। दो खिलाड़ी भी हों तो भी यह खेला जा सकता है। इसमें बस लकड़ी के एक डंडे तथा एक गुल्ली की जरूरत होती है। अँग्रेजी खेल अमीरों के लिए हैं। भारतीय खेल सस्ते हैं। गुल्ली-डंडा सभी खेलों का राजा है। यदि गुल्ली से आँख फूटने का डर है तो क्रिकेट में सिर फूटने और टाँग टूटने आदि का डर है।
बचपन में लेखक सवेरे ही घर से निकल जाता था तथा पेड़ों पर चढ़कर टहनियाँ काटता और डंडा तथा गुल्ली बनाता था। खेलने वालों में छूत-अछूत, अमीर-गरीब का भेद नहीं था, खेल में लड़ाई भी होती थी। खेल में ऐसे मस्त रहते कि नहाना-खाना भी भूल जाते। जरा-सी गुल्ली में मिठाइयों की मिठास तथा तमाशों का आनन्द भरा था।
गया और लेखक – लेखक के साथ खेलने वालों में एक गया नाम का लड़का था। वह दुबला-पतला और लम्बा था। गुल्ली कैसी भी हो, उसको लपकने में वह चूकता नहीं था। वह जिसकी तरफ हो जाये उसकी जीत निश्चित हो जाती थी। सभी उसको अपने साथ रखना चाहते थे। वह गुल्ली क्लब का चैम्पियन था। एक दिन लेखक उसके साथ खेल रहा था। वह पद रहा था और लेखक पदा रहा था। उससे पदने की लेखक ने अनेक कोशिशें कीं, उचित-अनुचित तरीके अपनाये परन्तु वह अपना दाँव लिए वगैर पीछा छोड़ने को तैयार न था। अनुनय-विनय का असर न होने पर लेखक अपने घर की ओर भागा।
गया द्वारा प्रतिरोध – गया ने उसे दौड़कर पकड़ लिया। डंडा तानकर कहा- दाँव देकर जाओ। पदने के समय भाग रहे हो। वे दोनों झगड़ने लगे। एक दिन पहले लेखक ने उसको अमरूद दिलाया था। वह उससे वापस माँगा। दोनों में मारपीट, गाली-गलौज हुई। गया ने लेखक की पीठ पर डंडा मारा। वह रोने लगी। यह देखकर गया पीछे हटा तो लेखक घर की ओर भागा। वह थानेदार का बेटा था
और एक मामूली लड़के से पिट गया था। उसने इसकी शिकायत अपने घर में नहीं की। उन्हीं दिनों लेखक के पिता का तबादला हो गया। वह उस छोटे स्थान को छोड़कर अपने पिता के साथ बड़े शहर में चला गया।
बीस साल बाद – पढ़-लिखकर लेखक इंजीनियर बन गया और बीस साल बाद उसी जिले को दौरा करता हुआ उसी कस्बे में पहुँचा। वह डाक बँगले में ठहरा था। बचपन की यादें ताजा करने उस स्थान को सैर को निकला। समय के साथ वहाँ काफी परिवर्तन हो गया था। वह बचपन के क्रीड़ास्थलों को देखने को व्याकुल था। सहसा एक खुले स्थान पर दो-तीन लड़के गुल्ली-डंडो खेलते दिखाई दिए। उनसे गया के बारे में पूछा । लेखक के कहने पर वह गया को बुला लाया। कुछ देर बातचीत करने के बाद लेखक ने उससे गुल्ली-डंडा खेलने का प्रस्ताव किया।
स्थान की तलाश – गया मुश्किल से राजी हुआ। लेखक डाक बँगले आया और अपनी मोटर में गया के साथ एकान्त स्थान की तलाश में निकला, रास्ते में उसने गया से पूछा कि क्या उसे उसकी याद आती थी। फिर बताया कि वह उसको बराबर याद करता था। उसने बचपन में गया द्वारा मारे गए डंडे की याद दिलाई और कहा कि वह उसके बचपन की सबसे रसीली याद है। वे बस्ती से तीन मील दूर भीमताल पर आ पहुँचे थे। यहाँ चारों ओर सन्नाटा था।
खेल का प्रारम्भ – लेखक ने एक पेड़ से टहनी काटकर डंडा और गुल्ली बनाए और खेल प्रारम्भ हुआ। उसने गुच्ची में रखकर गुल्ली उछाली। गुल्ली गया के सामने से निकली परन्तु वह उसे लपक न सका। पहले गुल्ली उसके हाथों से बच नहीं सकती थी। लेखक आधा घंटे तक गया को पदाता रहा। वह तरह-तरह की धाँधलियाँ कर रहा था। मगर गया चुप था। गुल्ली डंडे में लगी लेकिन लेखक ने बेईमानी की। गया तब भी चुप रहा, बचपन में वह ऐसी बातें बर्दाश्त नहीं करता था। तीसरी बार गुल्ली डंडे से टकराई तो उसने गया को दाँव देने का निश्चय किया। उसको उस पर दया आ रही थी। वैसे भी अँधेरा होने लगा था। गया ने खेलना शुरू किया मगर अभ्यास छूटने के कारण वह एक मिनट में ही अपना दाँव खो बैठा। मोटर में बैठकर दीपक जलने के समय तक वे पड़ाव पर पहुँच गए।
खेल देखने का निमंत्रण – गया ने बताया कि अगले दिन सभी पुराने खिलाड़ी गुल्ली-डंडा खेलेंगे। उसने लेखक को खेल देखने का निमंत्रण दिया। शाम को वह खेल देखने पहुँचा। उस दिन गया पूरी कुशलता से खेल रहा था। उसके डंडे से गुल्ली दो सौ गज दूर जाकर गिरती थी। पदने वाले एक युवक ने धाँधली की तो गया का चेहरा तमतमा उठा। यदि वह चुप न होता तो मारपीट भी हो सकती थी। लेखक को लगा कि कल खेल में गया ने उसके साथ खेलने का नाटक किया था। उसने उस पर दया दिखाई थी। वह खेल नहीं रहा था। लेखक को खिला रहा था, उसका मन रख रहा था । लेखक की अफसरी उसके और गया के बीच दीवार बन गई थी। उनमें समानता नहीं रह गई थी। गयी उसका अदब कर सकता था, उसका सहचर नहीं हो सकता था। बचपन में वह उसका सहचर था। दोनों में कोई भेद ने था। खेल में अब लेखक उसकी दया की पात्र है। गया उसको अपनी जोड़ का नहीं समझता। वह बड़ा हो गया है और लेखक छोटा हो गया है।
कठिन शब्दों के अर्थ
(पृष्ठ 59) जी लोट पोट होना = मन प्रसन्न होना। लॉन = मैदान । नेट = जाल। टहनी = डाल । विलायती = विदेशी, अँग्रेजी। ऐब = दोष । एक सैकड़ा = सौ रुपये। शुमार = गिनती। बिना हर्र फिटकरी चोखा रंग देना = बिना अधिक व्यय किये ही लाभ होना। दीवाने = पागल। अरुचि होना = अच्छा न लगना। दाम कौड़ी = धन, पैसा । व्यसन = शौक।
(पृष्ठ60) दाग = निशाना । स्मृतियाँ = यादें। अमीराना = धनवान लोगों से सम्बन्धित है। चोंचले = दिखावटी बातें । पदाना = गुल्ली-डंडे के खेल में खिलाड़ी से दूसरे पक्ष का काम, फील्डिंग। पदना = खेलना। गुंजाइश = स्थान, अवकाश। सुधि = ध्यान, याद। तमाशा = खेल । हमजोली = सहचर, साथी। चपलता = चंचलता। गोइयाँ = साथी । अखरना = बुरा लगना। गला छुड़ाना = मुक्त होना । शास्त्रे = नियमों की पुस्तके। विहित = अनुकूल, मान्य । क्षम्य = क्षमा के योग्य । पिंड न छोड़ना = पीछा न छोड़ना, बाध्य करना। अनुनय-विनय = निवेदन। बेर = मौका। दिल्लगी = हँसी, मजाक। दाँव देना = खेल खिलाना, फील्डिंग करना। दाँव लेना = खेल खेलना ।।
(पृष्ठ 61) स्वार्थ = मतलब । निःस्वार्थ = बेमतलब । सलूक = व्यवहार । हजम करना = पचा लेना। नसीब = भाग्य । सरासर = पूरी तरह। अस्त्र = हथियार। अदना-सा = मामूली। तबादला = स्थानान्तरण, बदली। खुशी से फूलना = बहुत प्रसन्न होना । हमजोली = साथी। आमदनी = आय। घेराव-सा = अपनापन, घरेलूपन। जीट = शेखी, डींग। जेहल = जेल की सजा। मुद्रा = शारीरिक देशा। निगाह = दृष्टि। मिथ्या = असत्य। स्पर्धा = होड़। ऊजड़ = वीरान । दौरा = निरीक्षण। कस्बो = छोटा शहर । बाल-स्मृतियाँ = बचपन की यादें । क्रीड़ा-स्थल = खेल का स्थान। खंडहर = टूटा हुआ मकान। काया पलटे = पूरा परिवर्तन । संचित = इकट्ठी। अधीर = व्याकुल । जी = मन, तबियत ।।
(पृष्ठ 62) आवरण = पर्दा । लपकना = तेज चलना । सलाम = नमस्कार । मजे में = सुखी, प्रसन्न । साईस = घोड़ों की देखभाल करने वाला नौकर। जहीन = तेज बुद्धि का । मुश्किल = कठिनाई । टेका = छोटा सिक्का । जोड़ = बराबरी । झेप = संकोच। अजूब = विषय, पहले से न देखा-सुना । तमाशी = खेल, प्रदर्शन। जने = व्यक्ति । कुल्हाड़ी = लकड़ी काटने का औजार।
(पृष्ठ 63) उत्सुकता = जानने व कुछ करने की इच्छा। मगन = लीन। भाग में बदा होना = भाग्य में लिखा होना । मिठास = मीठापन। मील = दूरी का माप । सन्नाटी = निस्तब्धता, शब्दहीनता। कोस = दो मील से अधिक दूरी। झूमक = कर्णफूल, झुमके। केसर में डूबी = लाल रंग में रँगी। चटपट = शीघ्र । गुच्ची = भूमि में बना वह गड्ढा जहाँ गुल्ली रखी जाती है। लपकाया = पकड़ने को फैलाया । वशीकरण = सम्मोहन, मोहित करने की क्रिया । चुम्बक = लोहे को अपनी ओर खींचने की शक्ति । धाँधली = बेईमानी, नियम विरुद्ध कार्य । कसर = कमी । हुच जाना = खेल से बाहर हो जाना । बारी = अवसर। ओछी = कम तेज, हल्की । टांड लगानी = गुल्ली को डंडे से उछालना । बे-कायदगियाँ = अनियमित काम। कायदे-कानून = खेलने के नियम । अचूक = कभी असफल न होना, न चूकने लायक। टन से = आवाज करती हुई।
(पृष्ठ 64) घपला = अनियमितता । मजाल = साहस। चेष्टा = प्रयास । हरज = हानि। गैला = गाड़ी के जाने लायक रास्ता । गैला छुड़ाना = मार्ग की रुकावट दूर करना । उल्लास = प्रसन्नता। अनजाने = अज्ञानी । झुठलाना = झूठ सिद्ध करना। प्रत्यक्ष = आँखों देखी। मुआमला = मामला । परवाह = चिन्ता । चिराग = दीपक। पड़ाव = ठहरने का स्थान। फुरसत = अवकाश का समय।
(पृष्ठ 65) मैच = खेल की प्रतियोगिता । मण्डली = टीम। नैपुण्य = निपुणता, कुशलता, चतुराई । बेदिली = अनमनापने। प्रौढ़ता = विकसित अवस्था । ताल ठोंकना = कुश्ती लड़ना। नौबत = अवसर, मौका। तमतमाना = क्रोध से लाल होना। कचूमर निकालना = पूरी तरह परास्त करना। दीवार = बाधा। लिहाज = बड़ा मानना। अदब = आदर। साहचर्य = साथीपन, मित्रता । समकक्ष = समान। भेद = अन्तर।।
महत्वपूर्ण गद्यांशों की सन्दर्भ-प्रसंग सहित व्याख्याएँ
1. हमारे अँग्रेज दोस्त माने या ना मानें, मैं तो यही कहूँगा कि गुल्ली-डंडा सब खेलों का राजा है। अब भी कभी लड़कों को गुल्ली-डंडा खेलते देखता हूँ तो जी लोट-पोट हो जाता है कि इनके साथ जाकर खेलने लगूं। न लॉन की जरूरत, न कोर्ट की, न नेट की, न थापी की। मजे से किसी पेड़ से एक टहनी काट ली, गुल्ली बना ली और दो आदमी भी आ गए, तो खेल शुरू हो गया। (पृष्ठ 59)
सन्दर्भ – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक में संकलित ‘गुल्ली-डंडा’ शीर्षक कहानी से उधृत है। इसके लेखक कथा – सम्राटे मुंशी प्रेमचन्द हैं।
प्रसंग – कहानीकार ने बताया है कि गुल्ली-डंडा भारत की लोकप्रिय खेल है। उसने गुल्ली-डंडा को सभी खेलों का राजा बताया है तथा उसकी उन विशेषताओं का उल्लेख किया है जिनके कारण वह इस खेल को सर्वश्रेष्ठ खेल कह रहा है।
व्याख्या – कहानीकार का मानना है कि गुल्ली-डंडा सभी खेलों का राजा है। उसकी बात से अंग्रेजी सभ्यता के मानने वाले तथा अँग्रेजी खेलों को पसंद करने वाले सहमत हों अथवा न हों परन्तु वह अपनी बात पर दृढ़ है। जब लेखक देखता है कि कुछ लड़के गुल्ली-डंडा खेल रहे हैं तो उसका चित्त प्रसन्न हो जाता है तथा उसकी इच्छा उनके साथ खेलने की होती है। गुल्ली-डंडा ऐसा खेल है। जिसके खेलने के लिए विशेष तैयारियाँ नहीं करनी पड़तीं। इस खेल के लिए किसी मैदान की जरूरत नहीं होती न कोर्ट तथा थापी की आवश्यकता होती है। इसमें जाल भी नहीं बाँधना पड़ता । विदेशी खेल क्रिकेट, फुटबॉल, वालीबॉल, बेडमिंटन आदि इनके बिना नहीं खेले जा सकते। किसी पेड़ से एक डाली काटकर उससे गुल्ली और डंडा आराम से बना लिया जाता है। खिलाड़ियों की बड़ी टीम की जरूरत भी नहीं होती। दो खिलाड़ी ही इसको खेल सकते हैं।
विशेष –
- कहानीकार ने गुल्ली-डंडी की खूबियों का जिक्र किया है।
- कहानीकार गुल्ली-डंडा को सर्वश्रेष्ठ खेल मानता है।
- भाषा सरल, प्रवाहपूर्ण है। इसमें अँग्रेजी भाषा के प्रचलित शब्द तथा मुहावरों का प्रयोग इसके प्रभाव को बढ़ा रहे हैं।
- शैली वर्णनात्मक है।
2. विलायती खेलों में सबसे बड़ा ऐब है कि उनके सामान महँगे होते हैं। जब तक कम-से-कम एक सैकड़ा न खर्च कीजिए, खिलाड़ियों में शुमार नहीं हो सकता। यहाँ गुल्ली-डंडा है कि बिना हर-फिटकरी के चोखा रंग देता है; पर हम अँग्रेजी चीजों के पीछे ऐसे दीवाने हो रहे हैं कि अपनी सभी चीजों से अरुचि हो गई। स्कूलों में हरेक लड़के से तीन-चार रुपये सालाना केवल खेलने की फीस ली जाती है। किसी को यह नहीं सूझता कि भारतीय खेल खिलाएँ, जो बिना दाम-कौड़ी के खेले जाते हैं। अँगरेजी खेल उनके लिए है जिनके पास धन है। गरीब लड़कों के सिर क्यों यह व्यसन मढ़ते हो ? ठीक है, गुल्ली-डंडा से आँख फूट जाने का भय रहता है, तो क्रिकेट से सिर फूट जाने, तिल्ली फट जाने, टांग टूट जाने का भय नहीं रहता ! (पृष्ठ 59-60)
सन्दर्भ – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक में संकलित ‘गुल्ली-डंडा’ शीर्षक कहानी से अवतरित है। कथा सम्राट प्रेमचन्द इसके लेखक हैं। – प्रसंग-कहानीकार ने भारतीय लोकप्रिय खेल गुल्ली-डंडा का वर्णन करते हुए उसको खेलों का राजा कहा है। लेखक का मानना है कि विदेशी खेलों की तुलना में गुल्ली डंडा में अनेक विशेषताएँ हैं। विदेशी खेलों के स्थान पर देश में स्वदेशी खेलों को प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए।
व्याख्या – लेखक का कहना है कि विदेशी (अँग्रेजी) खेलों में सबसे बड़ा दोष यह है कि वे महँगे होते हैं। उनसे सम्बन्धित चीजें खरीदने के लिए कम से कम सौ रुपयों की आवश्यकता होती है। इतना धन खर्च किए बिना आपकी गिनती खिलाड़ियों में नहीं हो सकती । गुल्ली-डंडा के खेल के लिए विशेष खर्च करने की जरूरत नहीं। किन्तु भारत के लोग विदेशी खेलों के पीछे पागल हो रहे हैं। और उनको बहुत पसंद करते हैं। उनको अपने खेल अच्छे नहीं लगते, स्कूलों में तीन-चार रुपये खेल की वार्षिक फीस ली जाती है तथा विदेशी खेल खिलाये जाते हैं। कोई यह नहीं सोचता कि भारत के खेल स्कूलों में खिलायें। इन खेलों के आयोजन पर पैसा खर्च नहीं होता। अँग्रेजी खेल धनवान लोगों के लिए हैं। निर्धन विद्यार्थियों को इन खेलों का शौकीन बनाना ठीक नहीं है। यह माना जा सकता है। कि गुल्ली-डंडा में आँख फूटने का डर होता है परन्तु विदेशी खेलों में कुछ न कुछ डर तो रहता है। क्रिकेट में सिर फूटने, तिल्ली फटने तथा पैर टूटने का डर रहता है।
विशेष –
- कहानीकार ने अँग्रेजी खेलों की तुलना में भारतीय खेलों को सस्ता बताया है।
- उसने स्कूलों में भारत के खेल खिलाने के लिए की सलाह दी है।
- भाषा सरल है तथा वर्णित विषय के अनुरूप है।
- शैली विचारात्मक है।
3. घर वाले बिगड़ रहे हैं, पिताजी चौके पर बैठे वेग से रोटियों पर अपना क्रोध उतार रहे हैं, अम्माँ की दौड़ केवल द्वार तक है, लेकिन उनकी विचारधारा में मेरा अंधकारमय भविष्य टूटी हुई नौका की तरह डगमगा रहा है, और मैं हूँ कि पदाने में मस्त हूँ, न नहाने की सुधि है, न खाने की। गुल्ली है तो जरा-सी, पर उसमें दुनिया भर की मिठाइयों की मिठास और तमाशों का आनन्द भरा हुआ है। (पृष्ठ 60)
सन्दर्भ – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक में संकलित ‘गुल्ली-डंडा’ शीर्षक कहानी से उद्धृत है। इसके लेखक प्रसिद्ध कहानीकार प्रेमचन्द हैं।
प्रसंग – लेखक गुल्ली-डंडा की प्रशंसा करते हुए उसको सर्वश्रेष्ठ खेल बता चुके हैं। उनके विचार में भारतीय खेल विदेशी खेलों की तुलना में सस्ते होते हैं अत: उनको ही बढ़ावा दिया जाना चाहिए। गुल्ली-डंडा रुचिकर खेल है। इसका खिलाड़ी सब भूलकर इसी में रम जाता है।
व्याख्या – लेखक कहते हैं कि गुल्ली-डंडा खेलने के लिए वह सबेरे ही घर से निकल पड़ते थे और सब कुछ भूलकर उसी में मग्न हो जाते थे। उनको अपने घरवालों के नाराज होने का ध्यान नहीं रहता था। उनको यह याद नहीं रहती थी कि दोपहर हो गया है और घर पर खाना खाने नहीं जाने पर पिताजी रसोईघर में बैठकर रोटियों पर अपनी नाराजगी दिखा रहे होंगे। अम्मा उनको देखने के लिए बार-बार घर के दरवाजे तक आ जा रही होंगी। माता-पिता सोच रहे होंगे कि लड़का हर समय खेल में मस्त रहता है उसका तो भविष्य इसी प्रकार खराब है जैसे कोई नाव टूटने पर पानी में डूब जाती है। उधर लेखक गुल्ली-डंडा खेलने में मस्त है। उसको नहाने तथा खाने की भी याद नहीं है। गुल्ली छोटी-सी होती है। परन्तु उससे खेलने का आनन्द बहुत व्यापक होता है। उससे प्राप्त आनन्द में दुनिया भर की मिठाइयों की मिठास होती है तथा सारे संसार के खेल-तमाशों की खुशी भरी होती है।
विशेष –
- गुल्ली-डंडा खेलने वालों की तन्मयता का उल्लेख हुआ है।
- खिलाड़ी नहाना, खाना-पीना सब भूलकर गुल्ली-डंडा खेलने में लगा रहता है।
- भाषा सरल तथा विषयानुकूल है।
- शैली वर्णनात्मक तथा चित्रात्मक है।
4. मैं समझता था, न्याय मेरी ओर है। आखिर मैंने किसी स्वार्थ से ही उसे अमरूद खिलाया होगा। कौन निःस्वार्थ किसी। के साथ सलूक करता है। भिक्षा तक तो स्वार्थ के लिए ही देते हैं। जब गया ने अमरूद खाया, तो फिर उसे मुझसे दाँव लेने का क्या अधिकार है। रिश्वत देकर तो लोग खून पचा जाते हैं। यह मेरा अमरूद यों ही हजम कर जाएगी। अमरूद पैसे के पाँच वाले थे, जो गया के बाप को भी नसीब न होंगे। यह सरासर अन्याय था। (पृष्ठ 61)
सन्दर्भ – प्रस्तुत गद्य-खण्ड हमारी पाठ्य-पुस्तक के ‘गुल्ली-डंडा’ शीर्षक पाठ से लिया गया है, इसके लेखक कहानी-सम्राट प्रेमचन्द हैं।
प्रसंग – लेखक गया के साथ गुल्ली-डंडा खेल रहा था। वह पद रहा था, गया पदा रहा था। लेखक उसको दाँव देना नहीं चाहता था और खेल को छोड़कर जाना चाहता था। उसने गया को एक दिन पहले अमरूद खिलाया था, उसे वापस माँगा। वह समझता था कि अमरूद खाने के बाद गया को दाँव लेने का कोई हक नहीं है।
व्याख्या – लेखक कहता है कि गया ने अमरूद लौटाने से मना कर दिया अब उसको दाँव लेने का कोई अधिकार नहीं था। न्याय की दृष्टि से उसका पक्ष प्रबल था। उसने अपना कोई स्वार्थ पूरा करने के लिए ही गया को अमरूद खिलाया था। संसार में कोई बिना मतलब किसी को कुछ देता नहीं है। सारे व्यवहार स्वार्थ पर आधारित हैं। लोग किसी भिखारी को भीख भी अपना स्वार्थ पूरा करने के लिए ही देते हैं। गया ने लेखक का दिया हुआ अमरूद खाया था। अब वह उसका ऋणी था। उसको उससे दाँव लेने का अधिकार नहीं था। रिश्वत देकर तो लोग हत्या के अपराध से भी बच जाते हैं। तो गया लेखक द्वारा दिया अमरूद कैसे पचा लेगा ? उसका अमरूद बढ़िया और कीमती था- एक पैसे के पाँच वाला अमरूद था। ऐसा अमरूद तो गया के बाप के भाग्य में भी नहीं होगा। तब भी दाँव माँगना गया का न्याय के विपरीत काम था।
विशेष –
- भाषा तत्सम शब्दों, उर्दू शब्दों तथा मुहावरों से युक्त और प्रवाहपूर्ण है।
- शैली वर्णनात्मक है।
- लेखक अमरूद खिलाकर गया को दाँव देने से बचना चाहता है।
- वह न्याय को अपने पक्ष में मानकर अन्यायपूर्ण आचरण कर रहा है।
5. मुझे न्याय का बल था। वह अन्याये पर डटा हुआ था। मैं हाथ छुड़ाकर भागना चाहता था। वह मुझे जाने न देता ! मैंने उसे गाली दी, उसने उससे कड़ी गाली दी, और गाली ही नहीं, एक चाँटा जमा दिया। मैंने उसे दाँत से काट लिया, उसने मेरी पीठ पर डंडा जमा दिया। मैं रोने लगा। गया मेरे इस अस्त्र का मुकाबला न कर सका। भागा। मैंने तुरंत आँसू पोंछ डाले, डंडे की चोट भूल गया और हँसता हुआ घर जा पहुँचा। मैं थानेदार का लकड़ा एक अदने से लड़के के हाथों पिट गया, यह मुझे उस समय भी अपमानजनक मालूम हुआ, लेकिन घर में किसी से शिकायत न की। (पृष्ठ 61)
सन्दर्भ – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक में संकलित ‘गुल्ली-डंडा’ शीर्षक कहानी से अवतरित है। इसके लेखक प्रसिद्ध कहानीकार प्रेमचन्द हैं।
प्रसंग -. गया और लेखक गुल्ली-डंडा खेल रहे थे। गया अपना दाँव माँग रहा था, लेखक देना नहीं चाहता था। एक दिन पहले उसने गया को अमरूद खिलाया था। लेखक समझता था कि इस कारण न्याय उसकी ओर था और गया का दाँव माँगना उसका अन्याय था।
व्याख्या – लेखक कहता है कि अमरूद खाकर भी दाँव माँगना गया का अन्याय था। लेखक न्याय के मार्ग पर था। गया अन्याय करने पर अड़ा हुआ था। गया उसको जाने नहीं दे रहा था। उसने उसका हाथ पकड़ रखा था। उसने गया को गाली दी तो उत्तर में गया ने उससे ज्यादा भद्दी गाली दी, इतना ही नहीं उसने उसे चाँटा भी मारा। लेखक ने गया को दाँतों से काट लिया। गया ने डंडा उठाकर लेखक की पीठ पर मारा। डंडा अपनी पीठ पर खाकर लेखक रोने लगा। उसका रोना एक अचूक हथियार सिद्ध हुआ। इसका उत्तर गया के पास न था। वह भाग खड़ा हुआ। लेखक ने अपने आँसू पोंछे और डंडे की चोट भुलाकर हँसता हुआ अपने घर पहुँच गया । वह एक थानेदार का बेटा था। गया एक मामूली आदमी का पुत्र था। उससे पिटना उसको अपना अपमान लगा था मगर उसने इस घटना के बारे में घर पर किसी को कुछ नहीं बताया था।
विशेष –
- गुल्ली-डंडा के खेल में बचपन में तकरार तथा लड़ाई-झगड़ा होता है। इस गद्यांश में इसी सच्चाई का उद्घाटन हुआ है।
- न्याय के सम्बन्ध में लेखक का यह बचपन का स्वार्थपूर्ण विचार है। वह अन्याय को न्याय मान बैठा है। बाल मनोविज्ञान का यह पक्ष यहाँ प्रकट हुआ है।
- भाषा सरल, मुहावरेदार और प्रभावपूर्ण है।
- शैली वर्णनात्मक है। उसमें सजीवता और चित्र प्रधानता है।
6. उन्हीं दिनों पिताजी को वहाँ से तबादला हो गया। नई दुनिया देखने की खुशी में ऐसा फूला कि अपने हमजोलियों से बिछुड़ जाने का बिल्कुल दुःख न हुआ। पिताजी दुःखी थे। यह बड़ी आमदनी की जगह थी। अम्माजी भी दुःखी थीं, यहाँ सब चीजें सस्ती थीं, और मुहल्ले की स्त्रियों से घेराव-सा हो गया था, लेकिन मैं मारे खुशी के फूला न समाता था। लड़कों से जीट उड़ा रहा था, वहाँ ऐसे घर थोड़े ही होते हैं। ऐसे-ऐसे ऊँचे घर हैं कि आसमान से बातें करते हैं। वहाँ के अँग्रेजी स्कूल में कोई मास्टर लड़कों को पीटे, तो उसे जेहल हो जाए। मेरे मित्रों की फैली हुई आँखें और चकित मुद्रा बतला रही थी कि मैं उनकी निगाह में कितना ऊँचा उठ गया हूँ। बच्चों में मिथ्या को सत्य बना लेने की शक्ति है, जिसे हम, जो सत्य को मिथ्या बना लेते हैं, क्या समझेंगे ? उन बेचारों को मुझसे कितनी स्पर्धा हो रही थी। मानो कह रहे थे- तुम भगवान् हो भाई, जाओ। हमें तो इसी ऊजड़ ग्राम में जीना भी है और मरना भी। (पृष्ठ 61)
सन्दर्भ – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक में संकलित कहानी-सम्राट प्रेमचन्द द्वारा लिखित ‘गुल्ली-डंडा’ शीर्षक कहानी से लिया गया है।
प्रसंग – लेखक के पिता एक कस्बे में थानेदार थे। उनकी बदली एक बड़ी जगह हो गई थी। इस तबादले से वह प्रसन्न नहीं थे। मगर लेखक खुश था। उसको कस्बे के अपने सहचरों से अलग होने का भी दु:ख नहीं था।
व्याख्या – लेखक का कस्बे में रहते समय वहाँ के लड़कों के साथ साहचर्य हो गया था। वे साथ-साथ पढ़ते और खेलते-कूदते थे। लेखक के पिता थानेदार थे। तभी उनकी बदली एक बड़े शहर में हो गई। कस्बा छेटी जगह थी परन्तु वहाँ आमदनी अच्छी थी। इस कारण तबादला होने पर उसके पिताजी दु:खी थे। माँ भी दु:खी थी । वहाँ चीजें सस्ती र्थी तथा पड़ोस की औरतों से घर जैसा व्यवहार हो गया था। लेखक के वहाँ अनेक प्रिय साथी थे परन्तु उनकी चिन्ता छोड़कर वह बड़े और नये शहर में जाने के विचार से प्रसन्न था। वह साथी लड़कों से डींग मारता था कि जहाँ वे जा रहे हैं, वह बहुत बड़ा शहर है।
वहाँ के मकान आसमान छूते हैं तथा बहुत ऊँचे हैं। वहाँ अँग्रेजी स्कूल है। उनमें लड़कों को पीटने पर मास्टरों को जेल की सजा भुगतनी पड़ती है। लेखक की इन बातों को सुनकर उसके साथी आश्चर्यचकित थे। आश्चर्य के कारण उसकी आँखें फैल गई थीं। उनकी यह अवस्था बता रही थी कि लेखक कुछ ही समय में बहुत बड़ा हो गया था, बच्चे झूठ को सच बनाने की शक्ति रखते हैं। वे बड़े लोग जो सच को झूठ बना देते हैं, उनकी इस शक्ति को नहीं जान सकते। लेखक के साथियों के मन में उसके प्रति होड़ के भाव उत्पन्न हो रहे थे। ऐसा लग रहा था जैसे वे कहना चाहते हों-तुम बहुत बड़े हो गए। उस शानदार शहर में जाओ। हम इतने भाग्यशाली नहीं हैं। हमको तो इसी नीरस और पिछड़े हुए गाँव में रहना है।
विशेष –
- लेखक बड़े नगर में जाने के विचार से प्रसन्न था और उसके साथी उसके इस सौभाग्य पर चकित होकर उससे लड़ाई कर रहे थे।
- इन पंक्तियों में बाल मनोविज्ञान पर प्रकाश डाला गया है।
- भाषा में संस्कृत के तत्सम तथा उर्दू भाषा के शब्दों के साथ ही घेराव, जेहल, जीट आदि लोक प्रचलित शब्द प्रयुक्त हुए हैं। भाषा सरल है।
- शैली वर्णनात्मक है।
7. आँख किसी प्यासे पथिक की भाँति बचपन के उन क्रीड़ा-स्थलों को देखने के लिए व्याकुल हो रही थी; पर उस परिचित नाम के सिवा वहाँ और कुछ परिचित न था। जहाँ खंडहर था, वहाँ पक्के मकान खड़े थे। जहाँ बरगद का पुराना पेड़ था, वहाँ अब सुन्दर बगीचा था। स्थान की काया-पलट हो गई थी। अगर उसके नाम और स्थिति का ज्ञान न होता, तो मैं इसे पहचान भी न सकता। बचपन की संचित और अमर स्मृतियाँ बाँह खोले अपने उन पुराने मित्रों से गले मिलने को अधीर हो रही थीं, मगर वह दुनिया बदल गई थी। ऐसा जी होता था कि उस धरती से लिपटकर रोऊँ और कहूँ, तुम मुझे भूल गईं ! मैं तो अब भी तुम्हारा वही रूप देखना चाहता हूँ। (पृष्ठ 61-62)
सन्दर्भ – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक में संकलित ‘गुल्ली-डंडा’ शीर्षक कहानी से लिया गया है। इसके लेखक मुंशी प्रेमचन्द है।
प्रसंग – लेखक बीस साल बाद जब जिले का इंजीनियर बनकर उस कस्बे में पहुँचा, जिसमें उसका बचपन गुजरा था, तो उन स्थलों को देखने गया जहाँ वह साथियों के साथ गुल्ली-डंडा खेला करता था। वह इन स्थलों को देखने के लिए बेचैन हो रहा था।
प्रसंग – बीस साल बाद इंजीनियर बनकर लौटा लेखक बचपन के साथी गया के साथ गुल्ली-डंडा खेल रहा था। वह घपले तथा बेईमानी कर रहा था। गया उसका प्रतिरोध नहीं कर रहा था। डंड़े में गुल्ली के लगने पर भी वह दाँव खेलना नहीं छेड़ रहा था।
व्याख्या – अचानक गुल्ली जोर की आवाज करती हुई डंडे से टकराई। आवाज इतनी तेज थी जैसे कि बन्दूक से गोली चली हो । गुल्ली के डंडे से टकराने का इससे बड़ा प्रमाण क्या हो सकता था ? इस सच्चाई को झुठलाना संभव नहीं था। इसकी हिम्मत भी लेखक में नहीं थी लेकिन उसने पुन: झूठ बोलने का प्रयास किया। उसने सोचा कि झूठ कहने में हानि ही क्या है। यदि गया ने उसकी बात मान ली तो उसको आगे खेलते रहने का मौका मिलेगा और यदि न मानी तो कुछ देर ही तो पदना पड़ेगा। वह कोई न कोई बहाना बनायेगा जैसे कि कहे अँधेरा हो गया है और जल्दी ही गया से पीछा छुड़ा लेगा। उसे पदने से मुक्ति मिल जाएगी। फिर अगले दिन दाँव देने वह आयेगा ही क्यों ?
विशेष –
- गया के साथ खेलते समय लेखक निरन्तर बेईमानी कर रहा था। बल्ले में गुल्ली टकराने पर भी वह गया को दाव नहीं देता था।
- गया कोई विरोध नहीं कर रहा था, इसका लाभ वह उठा रहा था।
- भाषा तत्सम तथा उर्दू शब्दों के प्रयोग के कारण प्रभावशाली बन पड़ी है।
- ‘अँधेरे का बहाना करके जल्दी से गैला छुड़ा लूंगा’- में “गैला छुड़ाना’ मुहावरे का प्रयोग पीछा छुड़ाने के अर्थ में हुआ है। गैल या रास्ता गैल भूलना या ‘रास्ता भूलना’ प्रयोग तो हिन्दी में होता है किन्तु ‘गैला छुड़ाना” कहानीकार का अद्भुत प्रयोग है। इस अर्थ में ‘गला छुड़ाना’ मुहावरा प्रयुक्त होता है जैसा कि लेखक ने पूर्व में किया भी है- “मैंने गला छुड़ाने के लिए सब चालें चली। ‘गैला छुड़ाना’ का अर्थ अपने रास्ते के अवरोध को हटाना माना जा सकता है।
- शैली वर्णनात्मक है।
10. मैं खेल में न था, पर दूसरों के इस खेल में मुझे वही लड़कपन का आनन्द आ रहा था, जब हम सब-कुछ भूलकर खेल में मस्त हो जाते थे। अब मुझे मालूम हुआ कि कल गया ने मेरे साथ खेला नहीं, केवल खेलने का बहाना किया। उसने मुझे दया का पात्र समझा। मैंने धाँधली की, बेईमानी की, पर उसे जरा क्रोध न आया। इसीलिए कि वह खेल न रहा था, मुझे खेला रहा था, मेरा मन रख रहा था। वह मुझे पदाकर मेरा कचूमर नहीं निकालना चाहता था। मैं अब अफसर हूँ। यह अफसरी मेरे और उसके बीच में दीवार बन गई है। मैं अब उसका लिहाज पा सकता हूँ, अदब पा सकता हूँ, साहचर्य नहीं पा सकता। लड़कपन था, तब मैं उसका समकक्ष था। हममें कोई भेद न था। यह पद पाकर अब मैं केवल उसकी दया के योग्य हूँ। वह मुझे अपना जोड़ नहीं समझता। वह बड़ा हो गया है, मैं छोटा हो गया हूँ। (पृष्ठ 65)
सन्दर्भ – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक में संकलित ‘गुल्ली-डंडा’ शीर्षक कहानी से अवतरित है। इसके लेखक कहानीकार प्रेमचन्द हैं।
प्रसंग – गया ने लेखक को गुल्ली-डंडे का खेल देखने के लिए निमंत्रित किया। शाम के समय वह आया और अपनी मोटर में बैठकर गया और अन्य खिलाड़ियों का खेल देखने लगा। आज गया में पुरानी दक्षता और कुशलता दिखाई दे रही थी। आज कल जैसी बात न थी, जब वह लेखक के साथ खेला था और उसकी किसी भी धाँधली का विरोध नहीं किया था।
व्याख्या – लेखक कहता है कि वह गया तथा दूसरे खिलाड़ियों का खेल देख रहा था। वह स्वयं खेल नहीं रहा था। परन्तु दूसरों को खेलते देखकर उसे वैसा ही आनन्द आ रहा था, जैसा कि बचपन में खेलते समय आता था। उस समय वह तथा उसके साथी सब भूल जाते थे और खेलने में मग्न हो जाते थे। आज गया का खेल देखकर वह समझ गया था कि कल गया लेखक के साथ खेल नहीं रहा था। वह लेखक को खिला रहा था तथा उसका मन रख रहा था। वह खेलने का बहाना कर रहा था। वह लेखक पर दया प्रगट कर रहा था। लेखक ने कल खूब धाँधली की थी, खेलने में बेईमानी भी की मगर गया को उस पर गुस्सा नहीं आया था।
उसने कोई विरोध नहीं किया था। वह उसको पदा-पदा कर परेशान करना नहीं चाहता था। उसे पता था कि लेखक एक अफसर था और वह एक साधारण मजदूर। उसकी अफसरी गया के और उसके बीच की एकता और समानता में बाधक बन गई थी। गया अब उसका लिहाज कर सकता था। वह उससे आदर पा सकता था। परन्तु गया का उसका सहचर बनना असंभव था। बचपन में वह उसका साथी और सहचर था। वे दोनों समान थे। उनमें कोई अन्तर न था किन्तु अब जिले का अफसर बनकर वह उसकी समानता नहीं दया ही पा सकता है। वह उसको अपनी बराबरी का नहीं समझता। अब गया बड़ा हो गया है और वह उससे छोटा हो गया है।
विशेष –
- पद एवं प्रतिष्ठा मनुष्य-मनुष्य में बदलाव का कारण बन जाती है। बचपन में बराबर के साथी भी इस कारण छोटे-बड़े हो जाते हैं।
- कहानीकार ने इस सच को ‘गुल्ली डंडा’ कहानी में व्यक्त किया है।
- भाषा सरल तथा प्रवाहपूर्ण है।
- शेली विवेचनात्मक-विचारात्मक है।
- गया की मन:स्थिति का विवेचन स्पष्टतापूर्ण किया गया है।
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