Rajasthan Board RBSE Class 12 History Chapter 4 मुगल आक्रमण: प्रकार और प्रभाव
RBSE Class 12 History Chapter 4 पाठ्यपुस्तक के प्रश्नोत्तर
RBSE Class 12 History Chapter 4 बहुचयनात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
यह किसने कहा था कि “हमें सूखे वृक्ष की जड़ों पर प्रहार करना चाहिए, शाखाएँ तो अपने आप गिर जाएँगी”?
(ब) शिवाजी
(ब) शाहू
(स) बालाजी विश्वनाथ
(द) बाजीराव प्रथम।
प्रश्न 2.
इनमें से कौन – सी एक उपाधि बप्पा रावल ने धारण नहीं की थी?
(अ) हिन्दू सूर्य
(ब) राजगुरु
(स) चक्कवै
(द) हिन्दू सुरत्राण।
प्रश्न 3.
पृथ्वीराज चौहान और मुहम्मद गौरी के बीच युद्ध किस स्थान पर लड़े गए?
(अ) तराइन
(ब) पानीपत
(स) खानवा
(द) हल्दीघाटी।
प्रश्न 4.
रणथम्भौर पर अलाउद्दीन खिलजी ने किस वर्ष अधिकार किया?
(अ) 1299 ई.
(ब) 1300 ई.
(स) 1301 ई.
(द) 1303 ई.।
प्रश्न 5.
मलिक मुहम्मद जायसी की रचना ‘पद्मावत्’ के अनुसार अलाउद्दीन खिलजी के चित्तौड़ पर आक्रमण का कारण था
(अ) अलाउद्दीन खिलजी की साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षा था
(ब) मेवाड़ की बढ़ती हुई शक्ति
(स) चित्तौड़ का भौगोलिक एवं सामरिक महत्व
(द) पद्मनी को प्राप्त करने की लालसा।
प्रश्न 6.
कौन-सा राजस्थानी शासक अपनी सांस्कृतिक उपलब्धियों के लिए इतिहास में प्रसिद्ध है?
(अ) महाराणा सांगा
(ब) महाराणा कुम्भा
(स) महाराणा प्रताप
(द) पृथ्वीराज चौहान।
प्रश्न 7.
महाराणा सांगा ने बाबर की सेना को किस स्थान पर पराजित किया?
(अ) खानवा
(ब) बयाना
(स) बाड़ी
(द) खातोली।
प्रश्न 8.
दुर्गादास राठौर ने राजस्थान की किस रियासत की रक्षा के लिए औरंगजेब से लम्बे समय तक संघर्ष किया?
(अ) आमेर
(ब) मारवाड़
(स) मेवाड़
(द) कोटा।
उत्तरमाला:
1. (द)
2. (द)
3. (अ)
4. (स)
5. (द)
6. (ब)
7. (ब)
8. (ब)।
RBSE Class 12 History Chapter 4 अति लघूत्तरात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
महाराणा प्रताप को समझाने के लिए अकबर द्वारा किन – किन दरबारियों को भेजा गया?
उत्तर:
अकबर ने महाराणा प्रताप को समझाने के लिए अत्यन्त चतुर व वाक्पटु दरबारी जलाल खाँ कोरची तथा तीन अन्य दरबारी मानसिंह, भगवन्तदास और टोडरमल को भेजा गया।
प्रश्न 2.
‘भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन में चित्तौड़ के ‘विजय स्तम्भ’ का क्या महत्व है?
उत्तर:
‘भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन में चित्तौड़ के विजय स्तम्भ’ ने क्रान्तिकारियों के लिए प्रेरणा स्रोत का कार्य किया।
प्रश्न 3.
शिवाजी का जन्म कब और कहाँ हुआ?
उत्तर:
शिवाजी का जन्म 20 अप्रैल, 1627 ई. को पूना (महाराष्ट्र) के समीप शिवनेर के पहाड़ी किले में हुआ था।
प्रश्न 4.
हल्दीघाटी का युद्ध कब और किनके मध्य लड़ा गया?
उत्तर:
हल्दीघाटी का युद्ध 1576 ई. को अकबर और महाराणा प्रताप के मध्य लड़ा गया।
प्रश्न 5.
मारवाड़ के राव चन्द्रसेन को ‘प्रताप को अग्रगामी’ क्यों कहा जाता है?
उत्तर:
मारवाड़ के राव चन्द्रसेन सिंह ने संघर्ष की जो शुरुआत की थी उसी राह पर आगे चल कर महाराणा प्रताप ने बड़ा नाम कमाया। इस कारण चन्द्रसेन को ‘प्रताप का अग्रगामी’ कहा जाता है।
प्रश्न 6.
चम्पानेर की सन्धि किन – किन के मध्य हुई?
उत्तर:
चम्पानेर की सन्धि 1565 ई. में मेवाड़ और गुजरात के मध्य में हुई थी।
प्रश्न 7.
महमूद गजनवी को अन्तिम भारत अभियान कब और किस शक्ति के विरुद्ध हुआ?
उत्तर:
महमूद गजनवी को अन्तिम आक्रमण 1027 ई. में सिन्ध के जाटों के विरुद्ध हुआ।
प्रश्न 8.
दिल्ली की गद्दी पर बैठने वला अन्तिम हिन्दू सम्राट कौन था?
उत्तर:
दिल्ली की गद्दी पर बैठने वाला अन्तिम हिन्दू सम्राट पृथ्वीराज चौहान (चाहमान वंश) था।
प्रश्न 9.
हम्मीरदेव चौहान की जानकारी के कोई चार साहित्यिक स्रोतों का नाम लिखिए।
उत्तर:
हम्मीरदेव चौहान की जानकारी के चार प्रमुख साहित्यिक स्रोत हैं-
- हम्मीर महाकाव्य (नयन चन्द्र सूरी)
- हम्मीरायण (व्यास भाण्ड)
- हम्मीर रासो (जोधराज) तथा
- हम्मीरबन्धन (अमृत कैलाश)।
प्रश्न 10.
‘हिन्दू पत’ किस राजस्थानी शासक को कहा जाता है और क्यों?
उत्तर:
मेवाड़ के महाराणा सांगा को ‘हिन्दूपत’ या ‘हिन्दुपति’ कहा गया है क्योंकि सांगा भारत में हिन्दू राज्य स्थापित करना चाहता था।
प्रश्न 11.
मारवाड़ की ‘संकटकालीन राजधानी’ किसे कहा जाता है?
उत्तर:
मारवाड़ की संकटकालीन राजधानी ‘सिवाणा’ को कहा जाता है।
प्रश्न 12.
किस मुस्लिम इतिहासकार ने हल्दीघाटी के युद्ध में अकबर की तरफ से भाग लिया था?
उत्तर:
हल्दीघाटी के युद्ध में इतिहासकार ,बदायूँनी ने अकबर की तरफ से भाग लिया था।
प्रश्न 13.
कौन – कौन सी दो उपाधियाँ महाराणा कुम्भा को महान संगीत ज्ञाता होने की प्रमाण हैं?
उत्तर:
महाराणा कुम्भा के संगीत ज्ञाता होने की दो उपाधियाँ-
- ‘अभिनव भरताचार्य’ तथा
- ‘वीणावादन प्रवीणेन’ हैं।
प्रश्न 14.
महाराणा साँगा को ‘एक सैनिक को भग्नावशेष’ क्यों कहा जाता है?
उत्तर:
अपने भाई पृथ्वीराज के साथ झगड़े में उसकी एक आँख फूट गई, इब्राहीम लोदी के साथ खातोली के युद्ध में उसका हाथ कट गया और एक पैर से वह लंगड़ा हो गया। मृत्यु समय तक उसके शरीर पर तलवारों व भालों के कम-से-कम 80 निशान लगे हुए थे जो ‘एक सैनिक का भग्नावशेष’ सिद्ध करते हैं।
RBSE Class 12 History Chapter 4 लघूत्तरात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
भारत पर अरबों के आक्रमण के क्या कारण थे?
उत्तर:
भारत पर अरबों के आक्रमण के निम्नलिखित कारण थे-
- इस्लाम ने अरबवासियों को संगठित कर उनमें मजहबी प्रचार की तीव्र अभिलाषा उत्पन्न कर दी थी। अन्य देशों की तरह भारत में भी इस्लाम के प्रसार के उद्देश्य ने उन्हें आक्रमण करने के लिए प्रेरित किया।
- खलीफा इस्लामी जगत् का मजहबी प्रमुख ही नहीं अपितु राजनैतिक अधिकारी भी होता था। ऐसे में साम्राज्य विस्तार की भावना होना भी स्वाभाविक था।
- अरबवासी भारत की आर्थिक समृद्धि से परिचित थे। वे यहाँ आक्रमण कर धन प्राप्त करना चाहते थे।
प्रश्न 2.
अरबों की सिन्ध विजय के सांस्कृतिक परिणामों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
सांस्कृतिक दृष्टि से भारत ने अरबों पर विजय प्राप्त की। भारतीय दर्शन, विज्ञान, गणित, चिकित्सा और ज्योतिष ने अरबों को बहुत प्रभावित किया। उन्होंने कई भारतीय संस्कृत ग्रन्थों का अरबी भाषा में अनुवाद करवाया जिनमें ब्रह्मगुप्त का ‘ब्रह्म सिद्धान्त’ तथा ‘खण्ड खांड्यक’ अधिक प्रसिद्ध है। अरब के लोगों ने अंक, दशमलव पद्धति, चिकित्सा व खगोल शास्त्र के कई मौलिक सिद्धान्त भारतीयों से सीखे और कला तथा साहित्य के क्षेत्र में भी भारतीय पद्धतियों को अपनाया। भारतीय दर्शन, साहित्य व कला की अनेक बातें अरबों के माध्यम से यूरोप के लोगों ने सीखी। इस प्रकार अरबों द्वारा भारतीय ज्ञान पश्चिमी देशों में पहुँचने में सफल रहा।
प्रश्न 3.
नागभट्ट प्रथम के मुस्लिम प्रतिरोध का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
नागभट्ट प्रथम के समय सिन्ध की दिशा से बिलोचों तथा अरबों ने भारत पर आक्रमण किया। उसने न केवल मुस्लिम आक्रमण से पश्चिम भारत की रक्षा की अपितु उनके द्वारा रौंदे हुए प्रदेशों पर दु: अधिकार कर लिया। ग्वालियर प्रशस्ति में नागभट्ट प्रथम को मलेच्छों (विदेशी आक्रमणकारी) का दमनकारक और दोनों का उद्धारक होने के कारण ‘नारायण’ उपाधि से विभूषित किया गया है। मुस्लिम लेखक अलबिलादुरी के विवरण से भी ज्ञात होता है कि समकालीन अरब शासक जुनैद को मालवा के विरुद्ध सफलता नहीं मिली। नौसारी अभिलेख में अरबों द्वारा पराजित राजाओं के नाम दिए गए हैं किन्तु इस सूची में नागभट्ट प्रथम का न होना उपरोक्त तथ्यों को प्रमाणित करता है।
प्रश्न 4.
मुहम्मद गौरी के विरुद्ध पृथ्वीराज चौहान की असफलता के क्या कारण थे?
उत्तर:
विजेता होने के बावजूद पृथ्वीराज चौहान में दूरदर्शिता व कूटनीति का अभाव था। उसने अपने पड़ोसी राज्यों के साथ मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध स्थापित नहीं किए अपितु उनके साथ युद्ध करके शत्रुता मोल ले ली। इसी कारण मुहम्मद गौरी के विरुद्ध संघर्ष में उसे उनका कोई सहयोग नहीं मिला। 1178 ई. में जब मुहम्मद गौरी ने गुजरात के शासक भीमदेव द्वितीय पर आक्रमण किया था, उस समय पृथ्वीराज ने गुजरात की कोई सहायता न कर एक भूल की। तराइन के प्रथम युद्ध में पराजित होकर भागती तुर्क सेना पर आक्रमण न करना भी उसकी एक भयंकर भूल सिद्ध हुई। यदि उस समय शत्रु सेना पर प्रबल आक्रमण करता तो मुहम्मद गौरी भारत पर पुनः आक्रमण करने के बारे में कभी नहीं सोचता। इस प्रकार उपरोक्त कारणों से पृथ्वीराज को असफल होना पड़ा।
प्रश्न 5.
मारवाड़ के इतिहास में राव चन्दसेन को समुचित महत्व क्यों नहीं मिल पाया?
उत्तर:
इतिहास में समुचित महत्व न मिलने के कारण चन्द्रसेन को मारवाड़ का ‘भूला – बिसरा नायक’ कहा जाता है। चन्द्रसेन का नाम इतिहास में विस्मृत होने का प्रमुख कारण यही है कि एक तरफ प्रताप की मृत्यु के बाद जहाँ मेवाड़ का राज्य उनके पुत्र – पौत्रादि के हाथों में रहा, वहीं चन्द्रसेन की मृत्यु के बाद मारवाड़ की गद्दी पर उसके भाई उदय सिंह का अधिकार हो गया। चन्द्रसेन और उदय सिंह के बीच विरोध चलता आया था।
प्रश्न 6.
आप कैसे कह सकते हैं कि महाराणा प्रताप धार्मिक रूप से सहिष्णु शासक था?
उत्तर:
महाराणा प्रताप ने धर्म रक्षक व राज चिह्न की सदैव रक्षा की। उनकी मान्यता थी, जो दृढ़ राखे धर्म को तिहि राखे करतार। प्रताप के संरक्षण में चावण्ड में रहते हुए चक्रपाणि मिश्र ने तीन संस्कृत ग्रन्थ – राज्याभिषेक पद्धति, मुहूर्त माला एवं विश्व वल्लभ लिखे। ये ग्रन्थ क्रमशः गद्दीनशीनी की शास्त्रीय पद्धति, ज्योतिषशास्त्र और उद्यान विज्ञान के विषयों से सम्बन्धित है। प्रताप के राज्यकाल में भामाशाह के भाई ताराचन्द्र की प्रेरणा से 1595 ई. में हेमरत्न सूरि द्वारा गोरा बादल’ कथा पद्मनी चौपाई काव्य ग्रन्थ लिखे। उपरोक्त तथ्य प्रताप की धार्मिक सहिष्णुता का परिचायक है।
प्रश्न 7.
खानवा के युद्ध में महाराणा सांगा की पराजय के क्या कारण थे?
उत्तर:
खानवा के युद्ध में महाराणा सांगा की पराजय के निम्नलिखित कारण थे-
- महाराणा सांगा की पराजय का मुख्य कारण बयाना विजय के तुरन्द बाद ही युद्ध न करके बाबर को तैयारी करने का पूरा समय देना था।
- राजपूत सैनिक परम्परागत हथियारों से युद्ध लड़ रहे थे। वे तीर, कमान, भालों व तलवारों से बाबर की तोपों के गोलों का मुकाबला नहीं कर सकते थे।
- हाथी पर सवार होकर भी सांगा ने बड़ी भूल की क्योंकि इससे शत्रु को उस पर ठीक से निशाना लगाकर घायल करने का मौका मिला।
- राजपूत सेना में एकता और तालमेल का अभाव था क्योंकि सम्पूर्ण सेना अलग-अलग सरदारों के नेतृत्व में एकत्रित हुई थी।
- अपनी गतिशीलता के कारण राजपूतों की हस्ति सेना पर बाबर की अश्व सेना भारी पड़ गयी। बाबर की तोपों ने सांगा के हाथियों को अपनी ही सेना को रौंदने का मौका दिया।
प्रश्न 8.
औरंगजेब के विरुद्ध राठौर – सिसौदिया गठबन्धन का मूल्यांकन कीजिए।
उत्तर:
अजीत सिंह को लेकर मारवाड़ के सरदार जोधपुर पहुँचे किन्तु जोधपुर पर शाही अधिकार ले जाने के कारण वे अजीत सिंह की सुरक्षा को लेकर चिन्तित थे। महाराजा जसवन्त सिंह की सबसे बड़ी रानी जसवन्त दे बूंदी के राव छत्रसाल की पुत्री थी। उसकी सौतेली बहन काननकुमारी का विवाह महाराणा राजसिंह के साथ हुआ था। इस कारण दुर्गादास ने काननकुमारी के माध्यम से उनके बहनोई महाराणा राजसिंह के पास अजीत सिंह को सुरक्षा देने की प्रार्थना की। पूरे मामले में मेवाड़ की सुरक्षा भी जुड़ी हुई थी। इस कारण राजसिंह ने प्रार्थना को स्वीकार करते हुए अजीतसिंह को बारह गाँवों सहित केलवे का पट्टा दे दिया। औरंगजेब को जब इसकी जानकारी मिली तो उसने महाराणा के पास फरमान भेज कर अजीत सिंह की माँग की किन्तु महाराणा ने इस पर बिल्कुल ध्यान नहीं दिया।
प्रश्न 9.
पुरन्दर की सन्धि की प्रमुख शर्तों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
जून, 1665 ई. में शिवाजी और जयसिंह के मध्य पुरन्दर की सन्धि हुई। इस सन्धि की शर्ते निम्नलिखित र्थी| इस सन्धि के अनुसार अपने 23 दुर्ग मुगलों के हवाले कर दिए और आवश्यकता पड़ने पर बीजापुर के विरुद्ध मुगलों की सहायता करने का आश्वासन दिया। शिवाजी को व्यक्तिगत रूप से दरबार में उपस्थित होने के लिए बाध्य नहीं किया गया। इस सन्धि के समय फ्रांसीसी यात्री बर्नियर भी मौजूद था।
प्रश्न 10.
महाराणा सांगा के समय मेवाड़ और दिल्ली सल्तनत के मध्य संघर्ष का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
सांगा (मेवाड़) ने सिकन्दर लोदी के समय ही दिल्ली के अधीनस्थ राज्यों (इलाकों) पर अधिकार करना शुरू कर दिया था किन्तु अपने राज्य की निर्बलता के कारण वह महाराणा के साथ संघर्ष के लिए तैयार नहीं हो सका। सिकन्दर लोदी के उत्तराधिकारी इब्राहीम लोदी ने 1517 ई. में मेवाड़ पर आक्रमण कर दिया। खातोली (कोटा) नामक स्थान पर दोनों पक्षों के बीच युद्ध हुआ जिसमें सांगा की विजय हुई। सुल्तान युद्ध के मैदान से भाग निकलने में सफल रहा किन्तु उसके एक शहजादे को कैद कर लिया गया। इस युद्ध में तलवार से साँगा का बायाँ हाथ कट गया और घुटने पर तीर लगने से वह हमेशा के लिए लंगड़ा हो गया। खातौली की पराजय का बदला लेने के लिए 1518 ई. में इब्राहिम लोदी ने मियाँ माखन की अध्यक्षता में साँगा के विरुद्ध एक सेना भेजी किन्तु साँगा ने बाड़ी (धौलपुर) नामक स्थान पर लड़े गए युद्ध में एक बार फिर शाही सेना को पराजित किया।
प्रश्न 11.
शिवाजी की धार्मिक नीति का मूल्यांकन कीजिए।
उत्तर:
विद्वान ब्राह्मणों को प्रोत्साहन देने के लिए शिवाजी ने एक पृथक् धनराशि की व्यवस्था की थी। आग्रही हिन्दू होने के कारण शिवाजी एक धर्म सहिष्णु शासक थे। उन्होंने अपनी मुस्लिम प्रजा को विचार और नमाज की पूरी स्वतन्त्रता दे रखी थी तथा मुसलमान फकीर व पीरों को समान रूप से आर्थिक सहायता प्रदान की। उन्होंने केलोशी के बाबा याकूत के लिए आश्रम बनवाया। युद्ध अभियानों के समय उनके सैनिकों के हाथ अगर कुरान लग जाती थी तो वे उसे अपने मुस्लिम साथियों को पढ़ने के लिए दे देते थे। मुस्लिम इतिहासकार खफ़ी खाँ ने भी शिवाजी की धर्म सहिष्णुता की प्रशंसा की है।
प्रश्न 12.
महाराणा प्रताप और राव चन्द्रसेन में क्या – क्या समानता व असमानता थी?
उत्तर:
समानताएँ:
चन्द्रसेन व प्रताप दोनों को अपने भाई – बन्धुओं के विरोध का सामना करना पड़ा। प्रताप की भाँति चन्द्रसेन के अधिकार में मारवाड़ के कई भाग नहीं थे। मेवाड़ के माण्डलगढ़ और चित्तौड़ पर तो मारवाड़ के मेड़ता, नागौर, अजमेर आदि स्थानों पर मुगलों का अधिकार था।
असमानताएँ:
समानता के साथ – साथ दोनों शासकों की गतिविधियों में मूलभूत अन्तर भी पाया जाता है। दोनों शासकों ने अपने – अपने पहाड़ी क्षेत्रों में रह कर मुगलों को खूब छकाया किन्तु प्रताप के समान चन्द्रसेन चावंड जैसी कोई स्थायी राजधानी नहीं बसा पाया। विशेष अवसर पर चन्द्रसेन की उपस्थिति व मुगल सेना को विकेन्द्रित करने से प्रताप को सहयोग मिला।
प्रश्न 13.
अगर हम्मीर चौहान के स्थान पर आप होते तो अलाउद्दीन खिलजी के विद्रोहियों को लौटाने के प्रति क्या निर्णय लेते और क्यों?
उत्तर:
हम्मीर महाकाव्य के अनुसार रणथम्भौर पर आक्रमण करने का कारण यहाँ के शासक हम्मीर द्वारा विद्रोही सेनापति मीर मोहम्मद शाह को शरण देना था। इसामी ने भी इस कथन की पुष्टि की है। 1299 ई. में अलाउद्दीन खिलजी ने अपने दो सेनापतियों उलूग खाँ व नुसरत खाँ को गुजरात पर आक्रमण करने के लिए भेजा था। विजयोपरान्त जब यह सेना वापस लौट रही थी तो जालौर के पास लूट के माल के बँटवारे के प्रश्न पर नवमुसलमानों ने विद्रोह कर दिया।
विद्रोहियों के दमन के उपरान्त उनमें से मुहम्मद शाह व उसका भाई कैहब्रू भागकर हम्मीरदेव की शरण में चला गया। हम्मीर ने न केवल उन्हें शरण दी अपितु मुहम्मद को जगाना’ की जागीर भी दी। हम्मीरदेव ने इन विद्रोहियों को अलाउद्दीन खिलजी को सौंपने से मना कर दिया विद्रोहियों को शरण देना यह शास्त्र के अनुसार धर्म नीति है-इस प्रकार का उदाहरण राजा रघु और समुद्रगुप्त ने भी दक्षिण भारत के राज्यों के साथ किया। हम्मीरदेव ने ऐसा करके राजधर्म का पालन किया। यही उचित भी है।
प्रश्न 14.
एक विजेता के रूप में बप्पारावल की उपलब्धियों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
बप्पा रावल को मेवाड़ के गुहिल वंश का वास्तविक संस्थापक कहा जाता है। बप्पा चित्तौड़ के शासक मानमोरी की सेवा में चला गया। इसी समय विदेशी मुस्लिम सेना ने चित्तौड़ पर आक्रमण कर दिया। राजा मान ने अपने सामन्तों को विदेशी सेना का मुकाबला करने के लिए कहा किन्तु उन्होंने इन्कार कर दिया। अन्त में बप्पा रावल ने इस चुनौती को स्वीकार करते हुए युद्ध के लिए प्रस्थान किया। बप्पा के अद्भुत पराक्रम के सामने विदेशी आक्रमणकारी टिक नहीं पाये और सिन्ध की तरफ भाग निकले। शत्रुओं का पीछा करता हुआ बप्पा अपने पूर्वजों की राजधानी गजनी तक पहुँच गया। गजनी के शासक सलीम को हराकर बप्पा ने अपने भानजे को वहाँ के सिंहासन पर बैठाया। बप्पा ने सलीम की पुत्री के साथ विवाह किया और चिंत्तौड़ लौट गया। इस प्रकार बप्पा एक सफल विजेता शासक था।
RBSE Class 12 History Chapter 4 निबन्धात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
महाराणा कुम्भा की राजनैतिक एवं सांस्कृतिक उपलब्धियों का मूल्यांकन कीजिए।
उत्तर:
महाराणा कुम्भा 1433 ई. में मेवाड़ की राजगद्दी पर बैठा। उसके पिता का नाम महाराणा के मोकल तथा माता का नाम सौभाग्य देवी था। शासक बनने के बाद उसने अपने यशस्वी पराक्रम द्वारा न केवल आन्तरिक और बाह्य कठिनाइयों का सफलतापूर्वक सामना किया अपितु अपनी युद्धकालीन और सांस्कृतिक उपलब्धियों द्वारा मेवाड़ के गौरव को पराकाष्ठा पर पहुँचा दिया।
कुम्भा की प्रारम्भिक कठिनाइयाँ:
शासक बनने के समय कुम्भा के समय अनेक आन्तरिक और बाह्य समस्याएँ थीं। मेवाड़ के महाराणा क्षेत्र सिंह (1364 – 82 ई.) की उपपत्नी की सन्तान चाचा और मेरा उसके पिता मोकल की हत्या कर मेवाड़ पर अधिकार करने के लिए प्रयास करने लगे थे। इस कारण मेवाड़ी सरदार दो भागों में विभाजित हो चुके थे-एक गुट कुम्भा समर्थक तथा दूसरा गुट उसके विरोधियों चाची, मेरा व मंहपा पंवार का समर्थक।
इस अव्यवस्था का लाभ उठाकर अनेक राजपूत सामन्त अपने स्वतन्त्र राज्य स्थापित करने के प्रयास करने लगे थे। कुम्भा द्वारा रणमल व राघवदेव के नेतृत्व में भेजी गई सेना ने शीघ्र ही विद्रोहियों का दमन कर दिया। चाचा और मेरा अपने अनेक समर्थकों के साथ मारे गए किन्तु चाचा के पुत्र एक्का व महपा पंवार भागकर मालवा के सुल्तान महमूद खिलजी की शरण में पहुँचने में सफल हो गए।
महाराणा कुम्भा की राजनैतिक उपलब्धियाँ
1. मेवाड़ और मालवा का सम्बन्ध:
मेवाड़ और मालवा दोनों एक-दूसरे के पड़ोसी राज्य थे और यहाँ के शासक अपने-अपने राज्यों की सीमाओं का विस्तार करना चाहते थे। इस कारण दोनों राज्यों के बीच संघर्ष होना आवश्यक था किन्तु दोनों के बीच संघर्ष का तात्कालिक कारण मालवा के सुल्तान द्वारा कुम्भा के विद्रोही सरदारों को अपने यहाँ शरण देना था। मोकल के हत्यारे महपा पंवार ने मालवा के सुल्तान महमूद खिलजी के पास शरण ले रखी थी।
कुम्भा ने सुल्तान को पत्र लिखकर महपा की माँग की जिसे सुल्तान द्वारा अस्वीकार कर दिया गया। इसलिए कुम्भा ने मालवा पर आक्रमण करने का फैसला किया। 1437 ई. में सारंगपुर नामक स्थान पर दोनों की सेनाओं के बीच घनघोर संघर्ष हुआ जिसमें पराजित होकर महमूद भाग गया। कुम्भा ने महमूद का पीछा करते हुए मालवा को घेर लिया और उसे कैद कर चित्तौड़ ले आया। छः माह तक सुल्तान को अपने यहाँ कैद रखने के कुम्भा ने उसे बिना शर्त रिहा कर दिया।
महमूद खिलजी ने अपनी पहली पराजय का बदला लेने के लिए 1443 ई. में कुम्भलगढ़ पर आक्रमण कर दिया। कुम्भा ने किले के दरवाजे के नीचे वाणमाता के मन्दिर के पास दीपसिंह के नेतृत्व में एक मजबूत सेना नियुक्त कर रखी थी। सात दिन तक चले भयंकर संघर्ष में दीपसिंह व उनके साथियों की मृत्यु के बाद ही मन्दिर पर शत्रु की सेना अधिकार कर पाई। इस मोर्चे को तोड़ने में महमूद की सेना को इतनी हानि उठानी पड़ी कि मन्दिर को नष्ट – भ्रष्ट कर उसकी टूटी हुई मूर्तियाँ कसाइयों को माँस तौलने के लिए दे दी गई।
नन्दी की मूर्ति का चूना पकाकर राजपूतों को पान में खिलाया गया। महमूद की सेना ने चित्तौड़ पर अधिकार करने का प्रयास भी किया किन्तु उसे सफलता नहीं मिली। 1446 ई. में महमूद ने एक बार फिर माण्डलगढ़ व चित्तौड़ पर अधिकार करने का प्रयास किया किन्तु सफलता उसे इस बार भी न मिल सकी। 1456 ई. में महमूद ने माण्डलगढ़ पर अधिकार करने का अन्तिम असफल प्रयास किया।
2. मेवाड़ – गुजरात सम्बन्ध:
कुम्भा के समय गुजरात की अव्यवस्था समाप्त हो चुकी थी और वहाँ के शासक अपने प्रभाव क्षेत्र के विस्तार के लिए लालायित थे। मालवा मेवाड़ के बीच चलने वाले संघर्ष तथा सिरोही व गुजरात की राजनीतिक स्थिति ने मेवाड़ – गुजरात के बीच संघर्ष को आवश्यक बना दिया। 1456 ई. में फिरोज खाँ की मृत्य के बाद उसका पुत्र शम्स खाँ नागौर का नया स्वामी बना किन्तु फिरोज के छोटे भाई मुजाहिद खाँ ने शम्स खाँ को पराजित कर नागौर पर अपना अधिकार कर लिया। शम्स खाँ ने महाराणा कुम्भा की सहायता से नागौरपर पुनः अधिकार कर लिया किन्तु शीघ्र ही उसने कुम्भा की शर्त के विपरीत नागौर के किले की मरम्मत करवानी प्रारम्भ कर दी। नाराज कुम्भा ने नागौर पर आक्रमण कर अपना अधिकार कर लिया।
शम्स खाँ ने गुजरात के सुल्तान कुतुबुद्दीन के साथ अपनी लड़की का विवाह कर उससे सहायता की माँग की। इस पर कुतुबुद्दीन मेवाड़ पर आक्रमण के लिए रवाना हुआ। सिरोही के देवड़ा शासक की प्रार्थना पर उसने अपने सेनापति मलिक शहवान को आबू विजय के लिए भेजा और स्वयं कुम्भलगढ़ की तरफ चला। इतिहासकार फरिश्ता के अनुसार राणी से धन मिलने के बाद सुल्तान गुजरात लौट आया। इसी समय कुतुबुद्दीन के सामने महमूद खिलजी के प्रतिनिधि ताज खाँ ने मेवाड़ पर गुजरात – मालवा के संयुक्त आक्रमण की योजना रखी जिसके अनुसार मेवाड़ के दक्षिण भाग पर गुजरात और मेवाड़ के खास भाग वे अहीरवाड़ा पर मालवा का अधिकार होना था।
1456 ई. में चम्पानेर नामक स्थान पर हुई इस आशय की सन्धि के बाद कुतुबुद्दीन आबू पर अधिकार कर चित्तौड़ की तरफ बढ़ा, वहीं महमूद खिलजी ने मालवा की तरफ से मेवाड़ पर आक्रमण किया। फरिश्ता के अनुसार कुम्भा ने धन देकर आक्रमणकारियों को विदा किया जबकि कीर्ति स्तम्भ प्रशस्ति और रसिक प्रिया के अनुसार कुम्भा ने दोनों सुल्तानों को पराजित कर दिया। मुस्लिम शासकों पर विजय के कारण कुम्भा ‘हिन्दू सुरत्राण’ (हिन्दू बादशाह) के रूप में प्रसिद्ध हुआ।
महाराणा कुम्भा की सांस्कृतिक उपलब्धियाँ
कुम्भा एक वीर योद्धा ही नहीं अपितु कलाप्रेमी और विद्यानुरागी शासक भी था। इसकारण उसे ‘युद्ध में स्थिर बुद्धि’ कहा गया है। एक लिंग के माहात्म्य के अनुसार वह वेद, स्मृति, मीमांसा, उपनिषद्, व्याकरण, राजनीति और साहित्य में बड़ा निपुण था। महान संगीत ज्ञाता होने के कारण उसे ‘अभिनव भरताचार्य’ तथा ‘वीणावादन प्रवीणेन’ कहा जाता है। कीर्तिस्तम्भ प्रशस्ति के अनुसार वह वीणा बजाने में निपुण था। संगीत राज, संगीत मीमांसा, संगीत क्रम दीपिका व सूड प्रबन्ध उसके द्वारा लिखे प्रमुख ग्रन्थ हैं।
‘संगीतराज’ के पाँच भाग – पाठ रत्नकोश, गीत रत्न कोश, वाद्यरत्नकोश, नृत्य रत्न कोश और रस रत्न कोश हैं। उसने चण्डीगढ़ की व्याख्या, जयदेव के संगीत ग्रन्थ गीत गोविन्द और शारंगदेव के संगीत रत्नाकर की टीकाएँ भी लिखी। कुम्भ ने महाराष्ट्री (मराठी), कर्णाटी (कन्नड़) तथा मेवाड़ी भाषा में चार नाटकों की रचना की। उसने कीर्ति स्तम्भों के विषय पर एक ग्रन्थ रचना और उसको शिलाओं पर खुदवाकर विजय स्तम्भ पर लगवाया जिसके अनुसार उसने जय और अपराजित के मतों को देखकर इस ग्रन्थ की रचना की थी। उसका ‘कामराज रतिसार’ नामक ग्रन्थ सात अंगों में विभक्त है।
कुम्भा को ‘राणौ रासो’ (विद्वानों का संरक्षक) कहा गया है। उसके दरबार में ‘एकलिंग महात्म्य’ का लेखक कान्ह व्यास तथा प्रसिद्ध वास्तुशास्त्री ‘मण्डन’ रहते थे। मण्डन ने देवमूर्ति प्रकरण (रूपावतार), प्रासाद मण्डन, राजवल्लभ (भूपतिवल्लभ), रूपमण्डन, वास्तुमण्डन, वास्तुशास्त्र और वास्तुकार नामक वास्तु ग्रन्थ लिखे। मण्डन के भाई नाथा ने वास्तुमंजरी और पुत्र गोविन्द ने उद्दारधोरिणी, कलानिधि’ देवालयों के शिखर विधान पर केन्द्रित है जिसे शिखर रचना व शिखर के अंग – उपांगों के सम्बन्ध में कदाचित् एकमात्र स्वतन्त्र ग्रन्थ कहा जा सकता है। आयुर्वेदज्ञ के रूप में गोविन्द की रचना ‘सार समुच्चय’ में विभिन्न व्याधियों के निदान व उपचार की विधियाँ दी गई हैं। कुम्भा की पुत्री रमाबाई को ‘वागीश्वरी’ कहा गया है, वह भी अपने संगीत प्रेम के कारण प्रसिद्ध रही।
कवि ‘मेहा’ महाराणा कुम्भा के समय का एक प्रतिष्ठित रचनाकार था। उसकी रचनाओं में ‘तीर्थमाला’ प्रसिद्ध है। जिसमें 120 तीर्थों का वर्णन है। मेहा कुम्भा के समय के दो सबसे महत्वपूर्ण निर्माण कार्यों कुम्भलगढ़ और रणकपुर जैन मन्दिर के समय उपस्थित था। उसने बताया है कि हनुमान की जो मूर्तियाँ सोजत और नागौर से लाई गई थी, उन्हें कुम्भलगढ़ और रणकपुर में स्थापित किया गया। रणकपुर जैन मन्दिर के प्रतिष्ठा समारोह में भी मेहा स्वयं उपस्थित हुआ था। हीरानन्द मुनि को कुम्भा अपना गुरु मानते थे और उन्हें ‘कविराज’ की उपाधि दी।
कविराज श्यामलदास की रचना ‘वीर विनोद’ के अनुसार मेवाड़ के कुल 84 दुर्गों में से अकेले महाराणा कुम्भा ने 32 दुर्गों का निर्माण करवाया। अपने राज्य की पश्चिमी सीमा के तंग रास्तों को सुरक्षित रखने के लिए नाकाबन्दी की और सिरोही के निकट बसन्ती का दुर्ग बनवाया। मेरों के प्रभाव रोकने के लिए मचान के दुर्ग का निर्माण करवाया। केन्द्रीय शक्ति को पश्चिमी क्षेत्र में अधिक शक्तिशाली बनाने व सीमान्त भागों को सैनिक सहायता पहुँचाने के लिए 1452 ई. में परमारों के प्राचीन दुर्ग के अवशेषों पर अचलगढ़ का पुनर्निर्माण करवाया। कुम्भा द्वारा निर्मित कुम्भलगढ़ दुर्ग का परकोटा 36 किलोमीटर लम्बा है जो चीन की दीवार के बाद विश्व की सबे लम्बी दीवार मानी जाती है। रणकपुर (पाली) का प्रसिद्ध जैन मन्दिर महाराणा कुम्भा के समय में ही धारणकशाह द्वारा बनवाया गया था।
कुम्भा को अपने अन्तिम दिनों में उन्माद का रोग हो गया था और वह अपना अधिकांश समय कुम्भलगढ़ दुर्ग में ही बिताता था। यहीं पर उसके सत्तालोलुप पुत्र उदा ने 1468 ई. में उसकी हत्या कर दी। कुम्भलगढ़ शिलालेख में उसे धर्म और पवित्रता का ‘अवतार’ तथा दानी राजा भोज व कर्ण से बढ़कर बताया गया है। वह निष्ठावान वैष्णव था और यशस्वी गुप्त सम्राटों के समान स्वयं को ‘परम भागवत’ कहा करता था। उसने ‘आदिवाराह’ की उपाधि भी अंगीकार की थी-‘वसन्धुररोद्धरणादिवराहेण’ विष्णु के प्राथमिक अवतार ‘वाराह’ के समान वैदिक व्यवस्था का पुनस्र्थापक था।
1. विजय स्तम्भ:
चित्तौड़ दुर्ग के भीतर स्थित नौ मंजिले और 122 फीट ऊँचे विजय स्तम्भ का निर्माण महाराणा कुम्भा ने मालवा के सुल्तान महमूद खिलजी पर विजय की स्मृति में करवाया। इसका निर्माण प्रधान शिल्पी ‘जैता’ व उसके तीन पुत्रों – नापा, पोमा और पूंजा की देखरेख में हुआ। अनेक हिन्दू देवी – देवताओं की कलात्मक प्रतिमाएँ उत्कीर्ण होने के कारण विजय स्तम्भ को ‘पौराणिक हिन्दू मूर्तिकला का अनमोल खजाना’ (भारतीय मूर्तिकला का विश्वकोष) कहा जाता है। डॉ. गोपीनाथ शर्मा ने इसे ‘हिन्दू देवी – देवताओं से सजाया हुआ एक व्यवस्थित संग्रहालय’ तथा गौरीशंकर हीरा चन्द ओझा ने ‘पौराणिक देवताओं के अमूल्य कोष’ की संज्ञा दी है।
मुख्य द्वार पर भगवान विष्णु की प्रतिमा होने के कारण विजय स्तम्भ को ‘विष्णुध्वज’ भी कहा जाता है। महाराजा स्वरूप सिंह (1442 – 61 ई.) के काल में इसका पुनर्निर्माण करवाया गया। भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के दौरान विजय स्तम्भ ने क्रान्तिकारियों के लिए प्रेरणा स्रोत का कार्य किया। प्रसिद्ध क्रान्तिकारी संगठन अभिनव भारत समिति के संविधान के अनुसार प्रत्येक नए सदस्य को मुक्ति संग्राम से जुड़ने के लिए विजय स्तम्भ के नीचे शपथ लेनी पड़ती थी।
प्रश्न 2.
महाराणा सांगा व बाबर के मध्य संघर्ष का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
पानीपत के प्रथम युद्ध (1526 ई.) में इब्राहीम लोदी को पराजित कर बाबर ने भारत में मुगल साम्राज्य की नींव डाली। शीघ्र ही बाबर और राणा सांगा के बीच संघर्ष प्रारम्भ हो गया। इस संघर्ष के निम्नलिखित कारण थे।
1. सांगा पर वचन भंग का आरोप:
तुर्की भाषा में लिखी अपनी आत्मकथा ‘तुजुक-ए-बाबरी’ में बाबर ने लिखी है कि “सांगा ने काबुल में मेरे पास दूत भेजकर दिल्ली पर आक्रमण करने के लिए कहा, उसी समय सांगा ने स्वयं आगरा पर हमला करने का वायदा किया था किन्तु सांगा अपने वचन पर नहीं रहा। मैंने दिल्ली और आगरा पर अधिकार जमा लिया तो भी सांगा की तरफ से हिलने का कोई चिह्न दृष्टिगत नहीं हुआ।” सांगा पूर्व में इब्राहीम लोदी को अकेला ही दो बार पराजित कर चुका था, ऐसे में उसके विरुद्ध काबुल से बाबर को भारत आमंत्रित करने का आरोप तर्कसंगत प्रतीत नहीं होता।
2. महत्वाकांक्षाओं का टकराव:
बाबर की इब्राहीम लोदी पर विजय के बाद सांगा ने सोचा था कि वह अपने पूर्वज तैमूर तथा अन्य आक्रमणकारियों की भाँति माल लूटकर वापस चला जायेगा किन्तु वह उसको भ्रम था। बाबर सम्पूर्ण भारत में अपना आधिपत्य स्थापित करना चाहता था। ‘हिन्दूपत’ (हिन्दू प्रमुख) सांगा को पराजित करना चाहता था। ‘हिन्दूपत’ (हिन्दू प्रमुख) सांगा को पराजित किए बिना ऐसा सम्भव नहीं था। दोनों का उत्तरी भारत में एक साथ बने रहना ठीक वैसा ही था जैसे एक म्यान में दो तलवार।
3. राजपूत – अफगान मैत्री:
यद्यपि पानीपत के प्रथम युद्ध में अफगान पराजित हो गए थे। इस कार्य के लिए सांगा को उपयुक्त पात्र समझकर अफगानों के नेता हसन खाँ मेवाती और मृतक सुल्तान इब्राहीम लोदी का भाई महमूद लोदी उसकी शरण में पहुँच गए। राजपूत-अफगान मोर्चा बाबर के लिए भय का कारण बन गया। अतः उसने सांगा की शक्ति को नष्ट करने का फैसला कर लिया।
4. सांगा द्वारा सल्तनत के क्षेत्रों पर अधिकार करना:
पानीपत के युद्ध में इब्राहीम लोदी की पराजय से उत्पन्न अव्यवस्था का लाभ उठाते हुए सांगा ने खण्डार दुर्ग (रणथम्भौर के पास) व उसके निकटवर्ती दो सौ गाँवों को अधिकृत कर लिया जिससे वहाँ के मुस्लिम परिवारों को पलायन करना पड़ा।
बाबर और महाराणा सांगा से यद्ध
दोनों शासकों ने भावी संघर्ष को देखते हुए अपनी-अपनी स्थिति सुदृढ़ करनी प्रारम्भ कर दी। मुगल सेनाओं ने बयाना, धौलपुर और ग्वालियर पर अधिकार कर लिया जिससे बाबर की शक्ति में वृद्धि हुई। इधर सांगा के नियन्त्रण में अफगान नेता हसन खाँ मेवाती और. महमूद लोदी, मारवाड़ का मालदेव, आमेर का पृथ्वीराज, ईडर का राजा भारमल, वीरमदेव मेड़तिया, बागड़ का रावल, उदय सिंह, सलूम्बर कारावत रत्न सिंह, चन्देरी को मेदिनीराय, सादड़ी का झाला अज्जा, देवलिया का रावत बाघसिंह और बीकानेर का कुँवर कल्याणमल ससैन्य आ डटे।
फरवरी, 1527 ई. में सांगा रणथम्भौर से बयाना पहुँच गया, जहाँ इस समय बाबर की तरफ से मेंहदी ख्वाजा दुर्ग रक्षक के रूप में तैनात था। सांगा न दुर्ग को घेर लिया जिससे दुर्ग में स्थित मुगल सेना की स्थिति काफी खराब हो गई। बाबर ने बयाना की रक्षा के लिए मुहम्मद सुल्तान मिर्जा की अध्यक्षता में एक सेना भेजी किन्त राजपूतों ने उसे खदेड़ दिया। अन्ततः बयाना पर सांगा का अधिकार हो गया। बयाना विजय बाबर के विरुद्ध सांगा की एक महत्वपूर्ण विजय थी।
इधर बाबर भी तैयारियों में जुटा था किन्तु महाराणा भी तीव्र गति, बयाना की लड़ाई और वहाँ से लौटे हुए शाह मंसूर किस्मती आदि से राजपूतों की वीरता भी प्रशंसा सुनकर चिन्तित हो गया। इसी समय एक मुस्लिम ज्योतिषी मुहम्मद शरीफ ने भविष्यवाणी की कि “मंगल का तारा पश्चिम में है, इसलिए पूर्व से लड़ने वाले पराजित होंगे।” बाबर की सेना की स्थिति पूर्व में ही थी। चारों तरफ निराशा का वातावरण देख बाबर ने अपने सैनिकों को उत्साहित करने के लिए कभी शराब न पीने की प्रतिज्ञा की और शराब पीने की कीमती सुराहियाँ व प्याले तुड़वाकर गरीबों में बाँट दिये। सैनिकों के मजहबी भावों को उत्तेजित करने के लिए उसने कहा- “सरदारों और सिपाहियों ! प्रत्येक मनुष्य, जो संसार में आता है, अवश्य मरता है।
जब हम चले जायेंगे तब एक खुदा ही बाकी रहेगा। जो कोई जीवन का भोग करने बैठेगा, उसको अवश्य मरना भी होगा। जो इस संसार रूपी सराय में आता है, उसे एक दिन यहाँ से विदा भी होना पड़ता है। इसलिए बदनाम होकर जीने की अपेक्षा प्रतिष्ठ के साथ मरना अच्छा है। मैं भी यही चाहता हूँ कि कीर्ति के साथ मृत्यु हो तो अच्छा होगा, शरीर तो नाशवान है। खुदा ने हम पर बड़ी कृपा की है कि इस लड़ाई में हम मरेंगे तो ‘शहीद’ होंगे और जीतेंगे तो ‘गाजी’ कहलायेंगे।
इसलिए सबको कुरान हाथ में लेकर कसम खानी चाहिए कि प्राण रहते कोई भी युद्ध में पीठ दिखाने का विचार न करे।” इसके साथ ही बाबर ने रायसेन के सरदार सलहदी तंवर के माध्यम से सुलह की बात भी चलाई। महाराणा ने इस प्रस्ताव पर अपने सरदारों से बात की किन्तु सरदारों को सलहदी की मध्यस्थता पसन्द नहीं आई। इसलिए उन्होंने अपनी सेना की प्रबलता और बाबर की निर्बलता प्रकट कर सन्धि की बात बनने ने दी।
सन्धि वार्ता का लाभ उठाते हुए बाबर तेजी से अपनी तैयारी करता रहा और खानवा के मैदान में आ डेटा। कविराज श्यामलदास कृत ‘वीर विनोद’ के अनुसार 16 मार्च, 1527 ई. को सुबह खानवा (भरतपुर) के मैदान में युद्ध प्रारम्भ हुआ। पहली मुठभेड़ में बाजी राजपूतों के हाथ लगी किन्तु अचानक सांगा के सिर में एक तीर लगने के कारण उसे युद्ध भूमि से हटना पड़ा। युद्ध संचालन के लिए अब सरदारों ने सलूम्बर के रावत रत्नसिंह चूण्डावत से सैन्य संचालन के लिए प्रार्थना की।
रत्नसिंह ने यह कहते हुए उक्त प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया कि मेरे पूर्वज मेवाड़ का राज्य छोड़ चुके हैं इसलिए मैं एक छड़ के लिए भी राज्य चिह्न धारण नहीं कर सकता परन्तु जो कोई राज्य छत्र धारण करेगा, उसकी पूर्ण रूप से सहायता करूंगा और प्राण रहने तक शत्रु से लडूंगा। इसके बाद झाला अज्जा को हाथी पर बिठाकर युद्ध जारी रखा गया। राजपूतों ने अन्तिम दम तक लड़ने का निश्चय किया किन्तु बाबर की सेना के सामने उनकी एक न चली और उन्हें पराजय का सामना करना पड़ा। विजय के बाद बाबर ने ‘गाजी’ की पदवी धारण की और विजय – चिह्न के रूप में राजपूत सैनिकों के सिरों की एक मीनार बनवाई।
राणा सांगा की पराजय के कारण
- इतिहासकार गौरीशंकर हीराचन्द ओझा के अनुसार सांगा की पराजय का मुख्य कारण बताया विज के तुरन्त बाद ही युद्ध न करके बाबर को तैयारी करने का पूरा समय देना था। लम्बे समय तक युद्ध को स्थगित रखना महाराणा की बहुत बड़ी भूल सिद्ध हुई। महाराणा के विभिन्न सरदार देश – प्रेम के भाव से इस युद्ध में शामिल नहीं हो रहे थे। सभी के अलग – अलग स्वार्थ थे, यहाँ तक कि कइयों में तो परस्पर शत्रुता भी थी। सन्धिवार्ताओं के कारण कई दिन शान्त बैठे रहने से उन्हें युद्ध के प्रति वह जोश व उत्साह नहीं रहा जो युद्ध के लिए रवाना होते समय था।
- राजपूत सैनिक परम्परागत हथियारों से युद्ध लड़ रहे थे। वे तीर – कमान, भालों व तलवारों से बाबर भी तोपों के गोलों का मुकाबला नहीं कर सकते हैं।
- हाथी पर सवार होकर भी साँगा ने बड़ी भूल की क्योंकि इससे शत्रु को उस पर ठीक निशाना लगाकर घायल करने का मौका मिला। उसके युद्ध भूमि से बाहर जाने से सेना का मनोबल कमजोर हुआ।
- राजपूत सेना में एकता और तालमेल का अभाव था क्योंकि सम्पूर्ण सेना अलग – अलग सरदारों के नेतृत्व में एकत्रित हुई थी।
- अपनी गतिशीलता के कारण राजाओं की हारती सेना पर बाबर की अश्व सेना भारी पड़ी। बाबर भी तोपों के गोलों से भयभीत हाथी ने पीछे लौटते समय अपनी ही सेना को रौंदकर नुकसान पहुँचाया।
खानवा युद्ध के परिणाम
खानवा के युद्ध में बाबर के विरुद्ध राणा सांगा की पराजय के निम्नलिखित कारण थे
- भारत में राजपूतों की सर्वोच्चता का अन्त हो गया। राजपूतों का वह प्रताप सूर्य जो भारत के गगन के उच्च स्थान पर पहुँच कर लोगों में चकाचौंध कर रहा था, अब अस्तांचल की ओर खिसकने लगा।
- मेवाड़ की प्रतिष्ठा और शक्ति के कारण निर्मित राजपूत संगठन इस पराजय के साथ ही समाप्त हो गया।
- भारतवर्ष में मुगल साम्राज्य स्थापित हो गया और बाबर स्थिर रूप से भारत का बादशाह बन गया।
प्रश्न 3.
दुर्गादास राठौर के जीवन – चरित्र व उपलब्धियों पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
1. जीवन चरित्र:
दुर्गादास का जन्म 1638 ई. में सालवा गाँव में हुआ था। वे जोधपुर के महाराजा जसवन्त सिंह की सेवा में रहने वाले आसकरण की तीसरी पत्नी के सन्तान थे। आसकरण को मारवाड़ में सालवा की जागीर मिली हुई थी और कालान्तर में ‘मुहणौत नैणसी’ के बाद उसे मारवाड़ का प्रधानमन्त्री भी नियुक्त किया गया था। अपनी पत्नी से प्रेम न रहने के कारण उसने पत्नी, पुत्र दोनों को अलग कर दिया। बालक दुर्गादास अपनी माता के साथ लूणावे गाँव में रहकर खेती-बाड़ी द्वारा गुजारा चलाने लगा। 1655 ई. में आपसी कहा-सुनी के बाद उसने अपने खेत से होकर सांडनियाँ (मादा ऊँट) ले जाने पर राजकीय चरवाहे को मार डाला। खबर मिलने पर महाराजा ने आसकरण से सफाई माँगी।
आसकरण ने कहा कि उसके सब बेटे राज्य की सेवा में है और गाँव में कोई बेटा नहीं है। तब महाराजा ने दुर्गादास को बुलाकर सारी बात पूछी। दुर्गादास ने अपना अपराध स्वीकार करते हुए कहा कि उक्त चरवाहे की लापरवाही के कारण न केवल किसानों की फसल नष्ट हो रही थी अपितु उसने आपके दुर्ग को भी अपशब्दों के साथ ‘बिना छज्जे का धोका ढूंढ़ा’ (बिना छत का सफेद खण्डहर) कहा। इस कारण मैंने उसकी हत्या कर दी। पूरी जानकारी प्राप्त कर महाराजा ने आसकरण से जब यह पूछा कि ‘तुम तो कहते थे कि गाँव में मेरा कोई बेटा नहीं है’
तो आसकरण ने कहा कि कपूत को बेटों में नहीं गिनते। महाराजा जसवन्त सिंह बोले, “यह आपका भ्रम है। यही कभी डगमगाते हुए मारवाड़ को कंधा देगा” और इसके बाद दुर्गादास को अपनी सेवा में रख लिया। 1667 ई. में दुर्गादास को बारह हजार रुपये की वार्षिक आय वाले पाँच गाँव-झांवर, समदड़ी, जगीसा, कोठड़ी, आम्बा-रो-बाड़ो और अमरसर प्रदान किए गए। कालान्तर में जसवन्त सिंह द्वारा मारवाड़ के रायमल बालो, जवणदेसर और बांभसेण गाँवों के साथ रोहतक परगने का लुणोद गाँवं भी दुर्गादास को जागीर के रूप में दिया गया।
2. जोधपुर पर शाही नियन्त्रण स्थापित होना:
महाराज जसवन्त सिंह और मुगल बादशाह औरंगजेब के बीच प्रायः विरोध की स्थिति बनी रही। इस कारण औरंगजेब ने जसवन्त सिंह को मारवाड़ से बहुत दूर जमरुद (अफगानिस्तान) के थाने पर नियुक्त कर दिया। 1678 ई. में जमरुद्ध में जसवन्त सिंह की मृत्यु की खबर सुनते ही औरंगजेब के मुँह से निकल पड़ा- “दरवाजा-ए-कुफ्र शिकस्त” (आज मजहब विरोध का दरवाजा टूट गया)।
पर जब महल में बेगम ने यह हाल सुनी तो कहा- “आज शोक का दिन है कि बादशाह का ऐसा स्तम्भ टूट गया।” जसवन्त सिंह की मृत्यु के बाद औरंगजेब ने जोधपुर को खालसा घोषित कर ताहिर खाँ को फौजदार, खिदमत गुजार खाँ को किलेदार, शेर अनवर को अमीन और अब्दुर्रहीम को कोतवाल बनाकर प्रबन्ध के लिए नियुक्त कर दिया।
मारवाड़ पर पूरी तरह नियन्त्रण स्थापित हो जाने के बाद खानजहाँ बहादुर मन्दिरों के तोड़ने से एकत्रित हुई मूर्तियों को गाड़ियों मे भरवाकर अप्रैल, 1679 ई. में दिल्ली पहुँच गया। बादशाह ने उसकी बड़ी प्रशंसा की और मूर्तियाँ दरबार के जलूखाने (आंगन) तथा जुमा मस्जिद की सीढ़ियों के नीचे डाली जाने की आज्ञा दी ताकि ये लोगों के पैरों के नीचे कुचली जा सकें।
26 मई, 1679 ई. को औरंगजेब ने इन्द्रासिंह (जसवन्त सिंह के बड़े भाई अमर सिंह का पौत्र) को जोधपुर को राज्य, राजा का खिताब, खिलअत, जड़ाऊ साज की तलवार, सोने के साज सहित घोड़ा, हाथी झण्डा और नक्कारा दिया। उसने भी बादशाह को छत्तीस लाख रुपये की पेशकशी देना स्वीकार कर लिया। इन्द्रसिंह न तो जोधपुर का प्रबन्ध कर पाया और न वहाँ होने वाले उपद्रवों को शान्त कर पाया जिसके कारण बादशाह ने लगभग दो माह बाद ही उसे वापस बुला लिया।
3. अजीत सिंह की सुरक्षा:
जसवन्त सिंह की मृत्यु के बाद राठौड़ सरदार उनकी दोनों गर्भवती रानियों को लेकर जमरुद से रवाना हुए किन्तु शाही परवाना न होने के कारण अटक नदी पर अफसरों ने उन्हें रोक लिया। इन अफसरों से लड़ाई कर राठौड़ दल ने अटक नदी पार किया। वहीं दोनों रानियों ने 19 फरवरी, 1679 ई. को आधे घण्टे के अन्तराल पर क्रमशः अजीत सिंह और दलथंभन नामक पुत्रों को जन्म दिया। जोधपुर की ख्यात के अनुसार इन कुंवरों के जन्म का समाचार मिलने पर बादशाह ने व्यंग्य से मुस्कराते हुए कहा कि, “बन्दा कुछ सोचता है और खुदा उससे ठीक उल्टा करता है।” शाही आज्ञा से इन बालकों को वहाँ से दिल्ली ले जाया गया।
दिल्ली में दोनों कुंवरों व रानियों को किशनगढ़ के राजा रूपसिंह की हवेली में ठहराया गया। बादशाह की नीयत साफ न देखकर राठौढ़ रणछोड़दास, भाटी रघुनाथ, राठौड़ रूपसिंह, राठौड़ दुर्गादास आदि सरदारों ने फैसला किया कि यहाँ रहकर मरने में कोई लाभ नहीं, यदि जिन्दा रहे तो संघर्ष कर जोधपुर पर अधिकार कर लेंगे। इसलिए प्रमुख – प्रमुख राठौड़ सरदारों को दिल्ली से जोधपुर भेजने का फैसला किया गया। इस योजना का एक लाभ तो यह था कि जोधपुर पहुँचने वाले सरदार वहाँ अपनी शक्ति संगठित कर सकेंगे, वहीं बादशाह को उनकी अपने प्रति स्वामिभक्ति पर भी शक नहीं होगा। इतिहासकार गोपीनाथ शर्मा के अनुसार इस सम्पूर्ण योजना के पीछे दुर्गादास का मस्तिष्क ही था।
जब राठौड़ सरदार एक – एक कर दिल्ली से विदाई लेने लगे तो औरंगजेब ने इसकी शक्ति कम होती देख राज परिवार के प्रति अधिक कठोर नीति अपनानी प्रारम्भ कर दी। उसने कोतवाल फौलाद खाँ को आदेश दिया कि राठौड़ रानियों और राजकुमारों को रूपसिंह की हवेली से हटाकर नूरगढ़ पहुँचा दिया जाए और अगर राठौड़ इससे आनाकानी करें तो उन्हें दण्ड दिया जाये। सौभाग्य से इसके एक दिन पहले ही दुर्गादास और चाम्पावत सोनिंग अजीत सिंह को लेकर मारवाड़ के लिए निकल गए थे। बादशाह को जब राजकुमारों के भागने की खबर लगी तो उसने पीछा करने का आदेश दिया। दुर्गादास ने मार्ग में शाही सेना को रोक दिया जिसके कारण अजीत सिंह सुरक्षित जोधपुर पहुँचने में सफल रहा। इधर बादशाह ने एक जाली अजीतसिंह का नाम मोहम्मदी राज रखकर अपनी पुत्री जैबुन्निशा को परवरिश के लिए सौंप दिया।
4. राठौड़ – सिसौदिया गठबन्धन:
अजीत सिंह को लेकर मारवाड़ के सरदार जोधपुर पहुँचे किन्तु जोधपुर पर शाही अधिकार हो जाने के कारण वे अजीत सिंह की सुरक्षा को लेकर चिन्तित थे। इस कारण बालक अजीतसिंह को उनकी विमाता देवड़ाजी की सलाह पर कालिन्द्री (सिरोही) भेज दिया गया। यहाँ उसे पुष्करण ब्राह्मण जयदेव के संरक्षण में रखा गया और सुरक्षा के लिए गुप्त रूप से मुकुन्ददास खची को नियुक्त कर दिया गया।
महाराजा जसवन्त सिंह की सबसे बड़ी रानी जसवन्त दे बूंदी के राव छत्रसाल की पुत्री थी। उसकी सौतेली बहन कानन कुमारी का विवाह महाराणा राजसिंह के साथ हुआ था। इस कारण दुर्गादास ने काननकुमारी के माध्यम से उनके बहनोई महाराणा राजसिंह के पास अजीतसिंह को सुरक्षा देने की प्रार्थना भिजवाई। पूरे मामले से मेवाड़ की सुरक्षा भी जुड़ी हुई थी। इस कारण राजसिंह ने प्रार्थना को स्वीकार करते हुए अजीत सिंह को बारह गाँवों सहित केलवे का पट्टा दे दिया। ओरंगजेब को जब इस बात की जानकारी मिली तो उसने महाराणा के पास फरमान भेजकर अजीत सिंह की माँग की किन्तु महाराणा ने उस पर बिल्कुल भी ध्यान नहीं दिया।
5. शाहजादा अकबर का विद्रोह:
दुर्गादास ने महाराणा राजसिंह के साथ मिलकर शाहजादे मुअज्जम (जो दरबारी के पास उदय सागर पर ठहरा हुआ था) को बादशाह के खिलाफ खड़ा करने का प्रयत्न किया किन्तु मुअज्जम अपनी माता नवाब बाई की सलाह के कारा राजपूतों की इस योजना से सहमत नहीं हुआ। इसके बाद उन्होंने शाहजादा अकबर को अपने पक्ष में मिलाने का प्रयास किया। यद्यपि इसी दौरान अक्टूबर, 1680 ई. में महाराणा राजसिंह की मृत्यु हो गई किन्तु नये महाराणा जयसिंह के साथ भी यह वार्ता चलती रही। इसका परिणाम यह हुआ कि एक जनवरी, 1681 ई. को अकबर ने नाडोल में स्वयं को बोदशाह घोषित कर दिया और राजपूत सेना का साथ लेकर औरंगजेब के विरुद्ध अजमेर के लिए रवाना हो गया।
औरंगजेब की सेना ने अजमेर के पास दौराई नामक स्थान पर पड़ाव डाल रखा था। 15 जनवरी को औरंगजेब ने छल-कपट का सहारा लेते हुए अकबर के मुख्य सेनापति तहव्वर खाँ (अजमेर का फौजदार जो औरंगजेब का साथ छोड़कर अकबर के साथ हो गया था) को उसके ससुर इनायत खाँ (बादशाह का सेनापति) के द्वारा इस आशय का खत लिखाकर अपने पास बुलाया कि यदि वह चला आयेगा तो उसका अपराध क्षमा कर दिया जाएगा, अन्यथा उसकी स्त्रियाँ सबके सामने अपमानित की जायेंगी और बच्चे कुत्तों के मूल्य पर गुलामों के तौर पर बेच दिए जाएँगे। इस धमकी के कारण तहव्वर खाँ सोते हुए अकबर और दुर्गादास को सूचित किए बिना ही औरंगजेब के पास चला आया, जहाँ शाही नौकरों ने उसे मार डाला।
इसके बाद औरंगजेब ने अकबर और राजपूतों के बीच विरोध पैदा करने के लिए एक और चाल चली। उसने एक जाली पत्र अकबर के नाम इस आशय का लिखा कि तुमने राजपूतों के साथ खूब धोखा किया है और उन्हें मेरे सामने लाकर बहुत ही प्रशंसनीय कार्य किया है। अब तुम्हें चाहिए कि उन्हें हरावल (युद्ध में सेना का सबसे आगे वाला भाग) में रखो, जिससे कल प्रात:काल के युद्ध में उन पर दोनों तरफ से हमला किया जा सके। यह पत्र किसी तरह दुर्गादास के डेरे के पास पहुँचा दिया गया जिसे पढ़ते ही उसके मन में खटका हो गया। दुर्गादास उसी समय अकबर के डेरे पर गया किन्तु अर्द्धरात्रि के समय उसे किसी भी दशा में जगाने की आज्ञा नहीं थी।
इसके बाद उसने तहव्वर खाँ को बुलाने के लिए आदमी भेजे तो पता चला कि वह तो बादशाह के पास जा चुका है। ऐसे में उसका सन्देह विश्वास में बदल गया और प्रातः काल होने से पहले ही राजपूत सेना अकबर का सामान लूटते ही मारवाड़ की तरफ चली गई। सुबह अकबर अपने को अकेला पाकर राजपूतों के पीछे भागा। दो दिन तक वह निराश्रित जान बचाता भागता रहा। तब दुर्गादास को औरंगजेब की चाल समझ में आई। उसने अकबर को अपने साथ लिया और सुरक्षित मराठा राज्य में पहुँचाया।
6. दुर्गादास को मारने का प्रयास:
जोधपुर में विद्रोह की सम्भावना से भयभीत औरंगजेब ने 1701 ई. में शहजादे आजम को लिखा कि दुर्गादास को शाही सेवा में भेजने का प्रयत्न करें या उसे मार डालें। आजम ने धोखे से दुर्गादास को गिरफ्तार करने का प्रयास किया किन्तु सन्देह का पूर्व ज्ञान हो जाने के कारण दुर्गादास बच निकला। मारवाड़ में पहुँच कर दुर्गादास मुगल क्षेत्रों में खुल्लमखुल्ला विद्रोह करने लगा।
7. महाराजा अजीत सिंह व दुर्गादास के बीच अनबन:
शिशु अजीत सिंह को औरंगजेब की चंगुल से बचाने का सर्वाधिक श्रेय दुर्गादास को ही है। दिल्ली से सुरक्षित निकालने के बाद दुर्गादास की योजनानुसार ही उसे गुप्त स्थान पर रखा गया था। अप्रैल, 1687 ई. में दक्षिण से लौटने पर दुर्गादास यह जानकर काफी व्यथित हुआ कि उसके निर्देशों के बावजूद उसके मारवाड़ लौटने से पहले ही 23 मार्च, 1687 ई.को अज्ञातवास से निकाल कर अजीत सिंह को पालड़ी गाँव (सिरोही) में सावर्जनिक किया जा चुका है। इस समय तक दुर्गादास से अप्रसन्न राठौड़ सामन्त अजीत सिंह के आसपास एकत्र हो चुके थे।
अब दुर्गादास की स्थिति में परिवर्तन आ गया और वह अजीत सिंह के भाग्य को निर्धारित करने वाले केन्द्रीय शक्ति नहीं। रहा। इस कारण उसने दूर रहकर बदलती हुई परिस्थितियों को समझने का फैसला किया। अक्टूबर, 1687 ई. में अजीत सिंह ने भीमरलाई गाँव में दुर्गादास से मिलकर गिले-शिकवे दूर किए। 1707 ई. में औरंगजेब की मृत्यु की खबर मिलने के बाद अजीतसिंह ने जोधपुर के नायब फौजदार जाफरकुली को भगाकर अपने पैतृक राज्य पर कब्जा कर लिया। यह आक्रमण इतनी जल्दी हुआ कि किले में मौजूद कुछ मुसलमानों को जान बचाने के लिए हिन्दुओं का वेश बनाकर भागना पड़ा।
जोधपुर राज्य की ख्यात में लिखा है कि सांभर विजय (3 अक्टूबर, 1708 ई.) के बाद वहाँ डेरे होने पर दुर्गादास ने अपनी सेना सहित अलग डेरा किया। महाराजा ने उसे मिसल (सरदारों की पंक्ति) में डेरा करने को कहा तो उसने उत्तर दिया कि मेरी तो उमर अब थोड़ी रह गई है, मेरे पीछे के लोग मिसल में डेरा करेंगे। अजीत सिंह के व्यवहार से आहत दुर्गादास मेवाड़ के महाराणा अमर सिंह द्वितीय की सेवा में चला गया और वहाँ से बुलाने पर भी जोधपुर नहीं लौटा।
अजीत सिंह ने दुर्गादास की अभिरक्षा में अकबर के बच्चों की सुरक्षा करने वाले रघुनाथ सांचोरा को सार्वजनिक रूप से कोड़े मारकर अपमानित किया और काल कोठरी में भूखा – प्यासा रखकर मरने के लिए बाध्य कर दिया (अक्टूबर, 1707 ई.)। जुलाई, 1708 ई. में अपने महामन्त्री मुकुन्ददास चम्पावत तथा उसके भाई रघुनाथ चम्पावत की हत्या करवा दी। इतिहासकार रघुवीर सिंह के अनुसार इन घटनाओं से दुर्गादास को अहसास हो गया कि अगली बारी उसी की है।
8. अन्तिम समय:
महाराणा अमर सिंह द्वितीय ने उसे विजयपुर की जागीर देकर अपने पास रखा और उसके लिए पाँच सौ रुपये रोजाना नियत कर दिए। बाद में वह रामपुरा का हाकिम नियत किया गया, जहाँ रहते हुए 22 नवम्बर, 1718 ई. में उज्जैन में उसकी मृत्यु हो गई। उसका अन्तिम संस्कार क्षिप्रा नदी के तट पर किया गया, जहाँ आज भी उनकी छतरी बनी दुर्गादास का मूल्यांकन – शाहजहाँ के पुत्रों के बीच हुए उत्तराधिकार युद्ध के दौरान दुर्गादास ने महाराजा जसवन्त सिंह के साथ धरमत के युद्ध में भाग लिया था।
दुर्गादास के सम्पर्क में रहे समकालीन लेखक कुम्भकर्ण सांदू की रचना ‘रतनरासो’ में इस युद्ध के दौरान दुर्गादास की वीरता का वर्णन करते हुए कहा गया है कि, “दुर्गादास राठौड़ ने एक के बाद एक चार घोड़ों की सवारी थी और जब चारों एक-एक कर मारे गए तो अन्त में वह पाँचवें घोड़े पर सवार हुआ, लेकिन यह पाँचवाँ घोड़ा भी मारा गया। तब तक न केवल उसके सारे हथियार टूट चुके थे बल्कि उसका शरीर भी बुरी तरह से घायल हो चुका था। अन्ततः वह भी रणभूमि में गिर पड़ा। ऐसा लगता था कि जैसे एक और भीष्म शरशैय्या पर लेटा हुआ हो। जसवन्त सिंह के आदेश से घायल दुर्गादास को युद्ध-स्थल से हटा लिया गया और जोधपुर भेज दिया गया।”
दुर्गादास एक कुशल कूटनीतिज्ञ था। उसने न केवल अजीत सिंह की रक्षा की अपितु जोधपुर के सिंहासन पर आसीन भी किया। इसके लिए उसने न केवल मेवाड़ के महाराणा राजसिंह के साथ मिलकर ‘राठौर-सिसौदिया गठबन्धन’ किया अपितु शाहजादा अकबर को बादशाह के विरुद्ध विद्रोह के लिए प्रेरित भी किया। अकबर का विद्रोह असफल होने के बाद उसे दक्षिण में सुरक्षित ले गया और उसके ईरान जाने तक साथ ही रहा। अकबर के पुत्र बुलन्द अख्तर और पुत्री सफी यतुन्निसा को न केवल अपने पास रखकर दुर्गादास ने मित्रता निभाई, वान् अपने धर्म दर्शन ‘सर्वपन्थ समादर’ को परिचय भी दिया।
उसने दोनों बच्चों की देख-रेख और शिक्षा-दीक्षा की भी ठीक वैसी ही व्यवस्था की जो कि एक सुन्नी मतावलम्बी के लिए आवश्यक होती है। अवसर आने पर उन्हें सम्मानपूर्वक बादशाह के पास भेज दिया। दुर्गादास ने अपने इन्हीं वीरोचित् गुणों द्वारा औरंगजेब जैसे पाषाण हृदय व्यक्ति का दिल जीत लिया और मनसब प्राप्त किया। कर्नल जेम्स टॉड ने उसे ‘राठौड़ों का यूलीसैस’ कहा है। राजस्थान के प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ. गौरीशंकर हीराचन्द्र ओझा ने ‘जोधपुर राज्य का इतिहास’ का दूसरा खण्ड दुर्गादास राठौड़ को ही समर्पित किया है।
प्रश्न 4.
चित्तौड़ पर अलाउद्दीन खिलजी के आक्रमण के कारणों का उल्लेख करते हुए पद्मनी की कहानी अपने शब्दों में लिखिए।
उत्तर:
रावल समर सिंह की मृत्यु के बाद 1302 ई. में मेवाड़ के सिंहासन पर उसका पुत्र रत्नसिंह (1302 ई. से 1303 ई.) बैठा। रत्न सिंह को केवल एक वर्ष ही शासन करने का अवसर मिला जो दिल्ली के सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी के चित्तौड़ पर आक्रमण के लिए प्रसिद्ध है।
अलाउद्दीन खिलजी के चित्तौड़ पर आक्रमण के कारण:
अलाउद्दीन खिलजी के चित्तौड़ पर आक्रमण के निम्न कारण थे-
1. अलाउद्दीन खिलजी की साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षा:
अलाउद्दीन खिलजी एक महत्वाकांक्षी और साम्राज्यवादी शासक था। वह सिकन्दर के समान विश्व विजेता बनना चाहता था जिसका प्रमाण उसकी उपाधि ‘सिकन्दर सानी’ (द्वितीय सिकन्दर) थी। दक्षिण भारत की विजय और उत्तर भारत पर अपने अधिकार को स्थायी बनाये रखने के लिए राजपूत राज्यों को जीतना आवश्यक था। चित्तौड़ पर उसका आक्रमण इसी नीति का हिस्सा था।
2. मेवाड़ की बढ़ती हुई शक्ति:
जैत्रसिंह, तेजसिंह और समर सिंह जैसे पराक्रमी शासकों के काल में मेवाड़ की सीमाओं में लगातार वृद्धि होती जा रही थी। इल्तुतमिश, नासिरुद्दीन महमूद और बलबन जैसे सुल्तानों ने मेवाड़ की इस बढ़ती शक्ति पर लगाम लगाने का प्रयास किया, किन्तु वे पूरी तरह सफल नहीं हुए। 1299 ई. में मेवाड़ के रावल समर सिंह ने गुजरात अभियान के लिए जाती हुई शाही सेना का सहयोग करना तो दूर, उल्टे उससे दण्ड वसूल करके ही आगे जाने दिया। अलाउद्दीन खिलजी उस घटना को भूल नहीं पाया था।
3. चित्तौड़ का भौगोलिक एवं सामरिक महत्व:
दिल्ली से मालवा, गुजरात तथा दक्षिण जाने वाला प्रमुख मार्ग चित्तौड़ के पास से ही गुजरता था। इस कारण अलाउद्दीन खिलजी के लिए मालवा, गुजरात और दक्षिण भारत पर राजनीतिक एवं व्यापारिक प्रभुत्व बनाए रखने के लिए चित्तौड़ पर अधिकार करना आवश्यक था। मौर्य राजा चित्रांगद द्वारा निर्मित चित्तौड़ को दुर्ग अभी तक किसी भी मुस्लिम आक्रमणकारी द्वारा जीता नहीं जा सका था। यह भी अलाउद्दीन खिलजी के लिए एक बहुत बड़ी चुनौती थी।
4. पद्मनी को प्राप्त करने की लालसा:
कुछ इतिहासकारों के अनुसार अलाउद्दीन खिलजी मेवाड़ के शासक रत्नसिंह की सुन्दर पत्नी पद्मनी को प्राप्त करना चाहता था। उसने रत्नसिंह को सन्देश भिजवाया कि वह सर्वनाश से बचना चाहता है तो अपनी पत्नी पद्मनी को शाही हरम में भेज दे। रत्न सिंह द्वारा इस प्रस्ताव को अस्वीकार किए जाने पर अलाउद्दीन खिलजी ने चित्तौड़ पर आक्रमण कर दिया। शेरशाह सूरी के समय 1540 ई. के लगभग लिखी गई मलिक मुहम्मद जायसी की रचना ‘पद्मावत्’ के अनुसार इस आक्रमण का कारण पद्मनी को प्राप्त करना ही था।
अलाउद्दीन खिलजी का आक्रमण
28 जनवरी, 1303 को दिल्ली से रवाना होकर अलाउद्दीन खिलजी ने चित्तौड़ को घेर लिया। रत्नसिंह ने शाही सेना को मुँह तोड़ जवाब दिया जिसके कारण दो माह की घेरेबन्दी के बाद भी शाही सेना कोई सफलता अर्जित नहीं कर पाई। ऐसी स्थिति में सुल्तान को अपनी रणनीति में परिवर्तन करना पड़ा। उसने दुर्ग की दीवार के पास ऊँचे-ऊँचे चबूतरों का निर्माण करवाया और उन पर ‘मंजनिक’ तैनात करवाये। किले की दीवार पर भारी पत्थरों के प्रहार शुरु हुए किन्तु दुर्भेद्य दीवारें टस से मस नहीं हुई। लम्बे घेरे के कारण दुर्ग में खाद्यान्न सामग्री नष्ट होने लग गई थी। चारों तरफ सर्वनाश के चिह्न दिखाई देने पर राजपूत सैनिक किले के द्वार खोलकर मुस्लिम सेना पर टूट पड़े। भीषण संघर्ष में रत्नसिंह वीरगति को प्राप्त हुआ और उधर पद्मनी के नेतृत्व में चित्तौड़ का पहला जौहर हुआ।
इस प्रकार 26 अगस्त, 1303 ई. को चित्तौड़ पर अलाउद्दीन खिलजी को अधिकार हो गया। अगले दिन सुल्तान ने अपने सैनिकों को आम जनता के कत्लेआम का आदेश दिया। इस अभियान के दौरान मौजूद अमीर खुसरो ने अपनी रचना ‘खजाईन-उल-फुतूह’ (तारीखे अलाई) में लिखा है कि एक ही दिन में लगभग तीस हजार असहाय लोगों को मौत के घाट उतार दिया गया। अलाउद्दीन खिलजी ने चित्तौड़ का नाम बदलकर ‘खिज़ाबाद’ कर दिया और अपने बेटे खिज्रखाँ को वहाँ का प्रशासन सौंपकर दिल्ली लौट आया। खिज्र खाँ ने गम्भीरी नदी पर एक पुल का निर्माण करवाया। उसने चित्तौड़ की तलहटी में एक मकबर बनवाया जिसमें लगे हुए एक फारसी लेख में अलाउद्दीन खिलजी को ईश्वर की छाया और संसार का रक्षक कहा गया है।
1. पद्मनी की कहानी:
सिंहल द्वीप (श्रीलंका) में गन्धर्व सेन नामक राजा था। उसकी पटरानी चम्पावती से पद्मनी नामक एक अत्यन्त रूपवती कन्या उत्पन्न हुई। उसके पास हीरामन नाम का एक सुन्दर और चतुर तोता था। एक दिन वह पिंजरे से उड़ गया और एक बहेलिए द्वारा पकड़ा जाकर एक ब्राह्मण के हाथ बेचा गया। उस ब्राह्मण ने उसको चित्तौड़ के राजा रत्नसिंह को एक लाख रुपये में बेच दिया। रत्नसिंह की रानी नागमती ने एक दिन श्रृंगार कर तोते से पूछा-क्या मेरी जैसी सुन्दरी जगत् में कोई है? इस पर तोते ने उत्तर दिया कि जिस सरोवर में हंस नहीं आया वहाँ बगुला ही हंस कहलाता है। रत्नसिंह तोते के मुख से पद्मनी के रूप, गुण आदि की प्रशंसा सुनकर उस पर मुग्ध हो गया और योगी बनकर तोते सहित सिंहल को चला।
अनेक संकट सहता हुआ वह सिंहल द्वीप पहुँचा। तोते ने पद्मनी के सम्मुख रत्नसिंह के रूप, कुल, ऐश्वर्य, तेज आदि की प्रशंसा कर कहा कि तेरे योग्य वर तो यही है और वह तेरे प्रेम से मुग्ध होकर यहाँ आ पहुँचा है। बसन्त पंचमी के दिन वह बन ठन करे उस मन्दिर में गई, जहाँ रत्नसिंह ठहरा हुआ था। वहाँ दोनों एक-दूसरे को देखते ही परस्पर प्रेमबद्ध हो गए। अन्त में गन्धर्वसेन ने उसके वंश आदि का हाल जानकर दोनों का विवाह कर दिया। विवाह के बाद रत्नसिंह पद्मनी के साथ अपनी राजधानी चित्तौड़ लौट आया।
रत्नसिंह द्वारा मेवाड़ से निकाले गए राघव चेतन नामक तान्त्रिक ने अपने अपमान का बदला लेने के लिए दिल्ली जाकर सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी के समक्ष पद्मनी के रूप की तारीफ की और उसे चित्तौड़ पर आक्रमण करने के लिए प्रोत्साहित किया। इस पर अलाउद्दीन खिलजी चित्तौड़ पर चढ़ आया। आठ वर्ष तक घेरा डालने के पश्चात् भी जब सुल्तान चित्तौड़ को नहीं जीत पाया तो उसने प्रस्ताव रखा कि यदि उसे पद्मनी का प्रतिबिम्ब ही दिखा दिया जाये तो वह दिल्ली लौट जायेगा।
राणा ने इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया। दर्पण में पद्मनी का प्रतिबिम्ब देखकर जब अलाउद्दीन खिलजी वापस लौट रहा था, उस समय उसने रत्नसिंह को कैद कर लिया और रिहाई के बदले पद्मनी की माँग की। सारा वृत्तान्त ज्ञात होने पर पद्मनी ने राणा को छुड़ाने की योजना बनाई और अलाउद्दीन के पास अपनी सोलह सौ सहेलियों के साथ आने का प्रस्ताव भेजा। प्रस्ताव स्वीकार होने पर पद्मनी सहेलियों के स्थान पर पालकियों में राजपूत योद्धाओं को बैठाकर रवाना हो गई। दिल्ली के पास पहुँचकर शाही हरम में शामिल होने से पहले उसने अन्तिम बार अपने पति से मिलने की इच्छा प्रकट की जिसे सुल्तान द्वारा स्वीकृति दे दी गई।
जब दोनों पति-पत्नी मिल रहे थे उसी समय राजपूत योद्धा सुल्तान की सेना पर टूट पड़े और उन्हें सुरक्षित चित्तौड़ निकाल दिया। अलाउद्दीन को दल का पता लगा तो उसने ससैन्यं राजपूतों का पीछा किया। रत्नसिंह अपने सेनानायकों गोरा व बादल के साथ लड़ता हुआ मारा गया और पद्मनी ने जौहर किया। पद्मनी की कहानी का ऐतिहासिक उल्लेख मलिक मुहम्मद जायसी की रचना ‘पद्मावत’ में किया गया है। इसके बाद अबुल फजल (अकबरनामा), फरिश्ता (गुलशन-ए-इब्राहिमी), हाजी उद्दवीर (जफरुलवली), कर्नल टॉड (एनल्स एण्ड एन्टिक्वीटिज ऑफ राजस्थान), फ्रांसीसी यात्री मनूची (स्टीरियो डी मेगोर) तथा गुहणौत नैणसी (नैणसी री ख्यात) ने भी इस कहानी का कुछ हेर-फेर के साथ उल्लेख किया है। बूंदी के प्रसिद्ध कवि सूर्यमल्ल मिश्रण व कुछ आधुनिक इतिहासकारों ने पद्मनी की कहानी की ऐतिहासिकता को स्वीकार नहीं किया है।
प्रश्न 5.
महाराणा प्रताप द्वारा किए गए मुगल प्रतिरोध को मूल्यांकन कीजिए।
उत्तर:
महाराणा प्रताप का जीवन व राज्यारोहण-महाराणा प्रताप का जन्म वि. सं. 1597, ज्येष्ठ शुक्ला तृतीय (9 मई, 1540 ई.) को कुम्भलगढ़ दुर्ग में हुआ। वे मेवाड़ के महाराणा उदयसिंह के ज्येष्ठ पुत्र थे तथा उनकी माँ का नाम जैवन्ताबाई (जीवन्त कंवर या जयवन्ती बाई) था किन्तु उदय सिंह की एक अन्य रानी धीर कंवर थी। धीर कंवर अपने पुत्र जगमाल को मेवाड़ की गद्दी पर बैठाने के लिए उदयसिंह को राजी करने में सफल रही। उदय सिंह की मृत्यु के बाद जगमाल ने स्वयं को मेवाड़ का महाराजा घोषित कर दिया किन्तु सामन्तों ने प्रताप का समर्थन करते हुए उसे मेवाड़ के सिंहासन पर बैठा दिया। इस प्रकार होली के त्यौहार के दिन 28 फरवरी, 1572 ई. को गोगुंदा में महाराणा प्रताप का राजतिलक हुआ।
महाराणा प्रताप के राज्यारोहण के समय मेवाड़ की स्थितियाँ काफी खराब थी। मुगलों के साथ चलने वाले दीर्घकालीन युद्धों के कारण मेवाड़ की राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था अस्त-व्यस्त हो चुकी थी। चित्तौड़ सहित मेवाड़ के अधिकांश भागों पर मुगलों का अधिकार हो चुका था और अकबरे मेवाड़ के बचे हुए क्षेत्र पर भी अपना अधिकार करना चाहता था।
इस समय के चित्तौड़ के विध्वंस और उसकी दीन दशा को देखकर कवियों ने उसे ‘आभूषण रहित विधवा स्त्री’ की उपमा तक दे दी थी। शासक बनने पर प्रताप ने आमेर, बीकानेर, जैसलमेर जैसी रियासतों की तरफ अकबर की अधीनता स्वीकार न कर मातृभूमि की स्वाधीनता को महत्व दिया और अपने वंश की प्रतिष्ठा के अनुकूल संघर्ष का मार्ग चुना। मेवाड़ पर मुगलों के आक्रमणों से प्रताप के अन्य सामन्तों के साहस में कमी आने लगी।
ऐसी स्थिति में प्रताप ने सब सामन्तों को एकत्रित कर उनके सामने रघुकुल की मर्यादा की रक्षा करने और मेवाड़ को पूर्ण स्वतन्त्र करने का विश्वास दिलाया और प्रतिज्ञा की कि जब तक मेवाड़ को स्वतन्त्र नहीं करा लँगा तब तक राजमहलों में नहीं रहूँगा, पलंग पर नहीं सोऊँगा और पंचधातु (सोना, चाँदी, ताँबा और पीतल, काँसी) के बर्तनों में भोजन नहीं करूंगा। आत्मविश्वास के साथ मेवाड़ के स्वामिभक्त सरदारों तथा भीलों की सहायता से शक्तिशाली सेना का संगठन किया ओर मुगलों से अधिक दूर रहकर युद्ध का प्रबन्ध करने के लिए अपनी राजधानी गोगुंदा से कुम्भलगढ़ स्थानान्तरित की।
अकबर को प्रताप द्वारा मेवाड़ राज्य में उसकी सत्ता के विरुद्ध किए जा रहे प्रयत्नों की जानकारी मिलने लगी। अतः अकबर ने पहल करते हुए प्रताप के राज्यारोहण के वर्ष से ही उसे अधीनता स्वीकार करवाने के लिए एक के बाद एक चार दूत भेजे। महाराणा प्रताप के सिंहासन पर बैठने के छः माह बाद सितम्बर, 1572 ई. में अकबर ने अपने अत्यन्त चतुर वाक्पटु दरबारी जलाल खाँ कोरची के साथ सन्धि – प्रस्ताव भेजा। अगले वर्ष अकबर ने प्रताप को अपने अधीन करने के लिए क्रमशः तीन अन्य दरबारी – मान सिंह, भगवन्तदास और टोडरमल भेजे किन्तु प्रताप किसी भी कीमत पर अकबर की अधीनता स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हुआ।
1. हल्दीघाटी का युद्ध:
मेवाड़ पर आक्रमण की योजना को कार्य रूप में परिणत करने के लिए मार्च, 1576 ई. में अकबर स्वयं अजमेर जा पहुँचा। वहीं पर मानसिंह को मेवाड़ के विरुद्ध भेजी जाने वाली सेना का सेनानायक घोषित किया। 13 अप्रैल, 1576 ई. को मानसिंह सेना लेकर मेवाड़ विजय के लिए चल पड़ा। दो माह माण्डलगढ़ में रहने के बाद अपने सैन्य बल में वृद्धि कर मानसिंह खमनौर गाँव के पास आ पहुँचा। इस समय मानसिंह के साथ गाजी खाँ व बख्शी, ख्वाजा गयासुद्दीन अली, आसिफ खाँ, जगन्नाथ कछवाह, सैय्यद राजू मिहत्तर खाँ, भगवतदास का भाई माधोसिंह, मुजाहिद बेग आदि सरदार उपस्थित थे।
मुगल इतिहास में यह पहला अवसर था जब किसी हिन्दू को इतनी बड़ी सेना का सेनापति बनाकर भेजा गया था। मानसिंह को मुगल सेना का प्रधान सेनापति बनाये जाने से मुस्लिम दरबारियों में नाराजगी फैल गई। बदायूँनी ने अपने संरक्षक नकीब खाँ से भी इस युद्ध में चलने के लिए कहा तो उसने उत्तर दिया कि “यदि इस सेना का सेनापति एक हिन्दू न होता, तो मैं पहला व्यक्ति होता जो इस युद्ध में शामिल होता।”
ग्वालियर के राजा रामशाह और पुराने अनुभवी योद्धाओं ने राय दी कि मुगल सेना के अधिकांश सैनिकों को पर्वतीय भाग में लड़ने का अनुभव नहीं है। अत: उनको पहाड़ी भाग में घेरकर नष्ट कर देना चाहिए। किन्तु युवा वर्ग ने इस राय को चुनौती देते हुए इस बात पर जोर दिया कि मेवाड़े के बहादुरों को पहाड़ी भाग से बाहर निकलकर शत्रु सेना को खुले मैदान में पराजित करना चाहिए। अन्त में मानसिंह ने बनास नदी के किनारे मोलेला में अपना शिविर स्थापित किया तथा प्रताप ने मानसिंह से छः मील दूर लोसिंग गाँव में पड़ाव डाला।
मुगल सेना में टहरावल (सेना का सबसे आगे वाला भाग) का नेतृत्व सैय्यद हाशिम कर रहा था। उसके साथ मुहम्मद बादख्शी रफी, राजा जगन्नाथ और आसफ खाँ थे। प्रताप की सेना के दो भाग थे, प्रताप की सेना के हरावल में हकीम खाँ सूरी, अपने पुत्रों सहित ग्वालियर का रामशाह, पुरोहित गोपीनाथ, शंकरदास, चारणजैसा, पुरोहित जगन्नाथ, सलूम्बर का चूड़ावत कृष्णदास, सरदारगढ़ का भीमसिंह, देवगढ़ को रावत सांगा, जयमल मेड़तिया का पुत्र रामदास आदि शामिल थे। दूसरे भाग का नेतृत्व सेना के केन्द्र में रहकर स्वयं महाराणा कर रहे थे जिनके साथ भामाशाह व उनका भाई ताराचन्द था।
18 जून, 1576 ई. को प्रात:काल प्रताप ने लोसिंग से हल्दीघाटी में गोगुन्दा की ओर बढ़ती सेना का सामना करने का निश्चय कर कूच किया। युद्ध के प्रथम भाग में मुगल सेना का बल तोड़ने के लिए राणा ने अपने हाथी लूना को आगे बढ़ाया जिसका मुकाबला मुगल हाथी गजमुख (गजमुक्ता) ने किया। गजमुख घायल होकर भागने ही वाला था कि लूना का महावत तीर लगने से घायल हो गया और लूना लौट पड़ा। इस पर महाराणा के विख्यात हाथी रामप्रसाद को मैदान में उतारना पड़ा।
युद्ध का प्रारम्भ प्रताप की हरावल सेना के भीषण आक्रमण से हुआ। मेवाड़ के सैनिकों ने अपने तेज हमले और वीरतापूर्ण युद्ध-कौशल द्वारा मुगल पक्ष की अग्रिम पंकित व बायें पाश्र्व को छिन्न-भिन्न कर दिया। बदायूँनी के अनुसार इस हमले से घबराकर मुगल सेना लूणकरण के नेतृत्व में भेड़ों की झुण्ड की तरफ भाग निकली। इस समय जब प्रताप के राजपूत सैनिकों और मुगल सेना के राजपूत सैनिकों के मध्ये फर्क करना कठिन हो गया तो बदायूँनी ने यह बात मुगल सेना के दूसरे सेनापति आसफ खाँ से पूछी।
आसफ खाँ ने कहा कि, “तुम तो तीर चलाते जाओ। राजपूत किसी भी ओर का मारा जाये, इससे इस्लाम का तो लाभ ही होगा।” मानसिंह को मुगल सेना का सेनापति बनाने का बदायूँनी भी विरोधी था, किन्तु जब उसने मानसिंह को प्रताप के विरुद्ध बड़ी वीरता और चातुर्य से लड़ते देखा तो प्रसन्न हो गया। युद्ध के दौरान सैय्यद हाशिम घोड़े से गिर गया और आसफ खाँ ने पीछे हटकर मुगल सेना के मध्य भाग में जाकर शरण ली। जगन्नाथ कछवाहा भी मारा जाता किन्तु उसकी सहायता के लिए चन्दावल (सेना में सबसे पीछे की पंक्ति) से सैन्य टुकड़ी लेकर माधोसिंह कछवाहा आ गया।
मुगल सेना के चन्दाबल में मिहतर खाँ के नेतृत्व में आपातस्थिति के लिए सुरक्षित सैनिक टुकड़ी रखी गई थी। अपनी सेना को भागते देख मिहतर खाँ आगे की ओर चिल्लाता हुआ आया कि “बादशाह सलामत एक बड़ी सेना के साथ स्वयं आ रहे हैं। इसके बाद स्थिति बदल गई और भागती हुई मुगल सेना नये उत्साह और जोश के साथ लौट पड़ी। राणा प्रताप अपने प्रसिद्ध घोड़े चेतक पर सवार होकर लड़ रहा था और मानसिंह ‘मरदाना’ नामक हाथी पर सवार था। रण छोड़ भट्ट कृत संस्कृत ग्रन्थ ‘अमरकाव्य’ में वर्णन है कि प्रताप ने बड़े वेग के साथ चेतक के अगले पैरों को मानसिंह के हाथी के मस्तक पर टिका दिया और अपने भाले से.मानसिंह पर वार किया।
मानसिंह ने हौदे में नीचे झुककर अपने को बचा लिया किन्तु उसका महावंत मारा गया। इस हमले में मानसिंह के हाथी की सँड़ पर लगी तलवार से चेतक का एक अगला पैर कट गया। प्रताप को संकट में देखकर बड़ी सादड़ी के झाला बीदा ने राजकीय छत्र स्वयं धारण कर युद्ध जारी रखा और प्रताप ने युद्ध को पहाड़ों की ओर मोड़ लिया। हल्दी घाटी से कुछ दूर बलीचा नामक स्थान पर घायल चेतक की मृत्यु हो गई, जहाँ उसका चबूतरा आज भी बना हुआ है। हल्दी घाटी के युद्ध में महाराणा प्रताप की तरफ से हकीम खाँ सूरी, झाला बीदा, मानसिंह सोनगरा, जयमल मेड़तिया का पुत्र रामदास, रामशाह और उसके तीन पुत्र (शालिवाहन, भवानी सिंह व प्रताप सिंह) वीरता का प्रदर्शन करते हुए मारे गए। सलूम्बर का रावत कृष्णदास चूड़ावत, घाड़ेराव का गोपालदास, भामाशाह, ताराचन्द्र आदि रणक्षेत्र में बचने वाले प्रमुख सरदार थे।
जब युद्ध पूर्ण गति पर था, तब प्रताप ने युद्ध स्थिति में परिवर्तन किया। युद्ध को पहाड़ी की ओर मोड़ दिया। मानसिंह ने मेवाड़ी सेना का पीछा नहीं किया। मुगलों द्वारा प्रताप की सेना का पीछा न करने के बदायूँनी ने तीन कारण बताये हैं-
- जून माह की झुलसाने वाली तेज धूप।
- मुगल सेना की अत्यधिक थकान से युद्ध करने की क्षमता ने रहना।
- मुगलों को भय था कि प्रताप पहाड़ों में घात लगाए हुए हैं और उसके अचानक आक्रमण से अत्यधिक सैनिकों का जीवन खतरे में पड़ जाएगा।
इस तरह अकबर की इच्छानुसार वह न तो प्रताप को पकड़ सका अथवा मार सका और न ही मेवाड़ की सैन्य-शक्ति का विनाश कर सका। अकबर का यह सैन्य अभियान असफल रहा तथा पासा महाराणा प्रताप के पक्ष में था। युद्ध के परिणाम से खिन्न अकबर ने मानसिंह और आसफ खाँ की कुछ दिनों के लिए ड्योढ़ी बन्द कर दी अर्थात् उनको दरबार में सम्मिलित होने से वंचित कर दिया।
शहंशाह अकबर की विशाल साधन सम्पन्न सेना का गर्व मेवाड़ी सेना ने ध्वस्त कर दिया। जब राजस्थान के राजाओं में मुगलों के साथ वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित कर उनकी अधीनता मानने की होड़ मची हुई थी, उस समय प्रताप द्वारा स्वतन्त्रता का मार्ग चुनना नि:सन्देह सराहनीय कदम था।