Rajasthan Board RBSE Class 12 History Chapter 7 राजस्थान का स्वाधीनता संग्राम एवं एकीकरण
RBSE Class 12 History Chapter 7 पाठ्यपुस्तक के प्रश्नोत्तर
RBSE Class 12 History Chapter 7 बहुचयनात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
राजस्थान में क्रान्ति की शुरुआत कहाँ से हुई?
(अ) नसीराबाद
(ब) नीमच
(स) मेवाड़
(द) मारवाड़।
उत्तर:
(अ) नसीराबाद
प्रश्न 2.
आऊवा का सम्बन्ध किससे है?
(अ) रामसिंह
(ब) खुशाल सिंह
(स) लक्ष्मण सिंह
(द) जोरावर सिंह।
उत्तर:
(ब) खुशाल सिंह
प्रश्न 3.
बिजौलिया किसान आन्दोलन के नेतृत्वकर्ता थे?
(अ) नयनूराम शर्मा
(ब) हरिभाऊ उपाध्याय
(स) विजय सिंह पथिक
(द) जमनालाल।
उत्तर:
(स) विजय सिंह पथिक
प्रश्न 4.
‘चेतावनी रा चूगटयाँ’ सोरठा किसने लिखा?
(अ) प्रताप सिंह बारहठ
(ब) जोरावर सिंह बारहठ
(स) भारतसिंह बारहठ
(द) केसरी सिंह बारहठ।
उत्तर:
(द) केसरी सिंह बारहठ।
प्रश्न 5.
राजस्थान के एकीकरण में प्रथम चरण में किसका निर्माण हुआ?
(अ) मत्स्य संघ
(ब) राजस्थान संघ
(स) वृहत्तर राजस्थान
(द) मेवाड़ संघ।
उत्तर:
(अ) मत्स्य संघ
प्रश्न 6.
महाभारत कालीन क्षेत्र से सम्बन्धित था
(अ) वृहत् राजस्थान
(ब) संयुक्त राजस्थान
(स) सिरोही
(द) मत्स्य संघ।
उत्तर:
(द) मत्स्य संघ।
प्रश्न 7.
वृहत् राजस्थान की राजधानी थी
(अ) उदयपुर
(ब) जयपुर
(स) जोधपुर
(द) कोटा।
उत्तर:
(ब) जयपुर
प्रश्न 8.
“सिरोही के विलय” को लेकर हुए आन्दोलन का नेतृत्व किया
(अ) गोकुल भाई भट्ट
(ब) माणिक्य लाल वर्मा
(स) जयनारायण व्यास
(द) हरिभाऊ उपाध्याय।
उत्तर:
(अ) गोकुल भाई भट्ट
प्रश्न 9.
राजस्थान के प्रथम राज्यपाल बनाए गए
(अ) एन. वी. गाड़गिल
(ब) हीरालाल शास्त्री
(स) गुरुमुख निहाल सिंह
(द) माणिक्य लाल वर्मा।
उत्तर:
(स) गुरुमुख निहाल सिंह
RBSE Class 12 History Chapter 7 अति लघुत्तरात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
नीमूचना काण्ड को सम्बन्ध कौन – से जिले से है?
उत्तर:
नीमूचना (नीमूचणा) काण्ड का सम्बन्ध अलवर जिले हैं। यहाँ राज्य में भी जन जागृति का प्रारम्भ किसान आन्दोलन से हुआ।
प्रश्न 2.
गोविन्द गुरु ने कौन – सा आन्दोलन शुरू किया था?
उत्तर:
गोविन्द गुरु एक महान् समाज सुधारक थे जिन्होंने ‘भगत आन्दोलन’ को शुरू किया।
प्रश्न 3.
‘एकी आन्दोलन’ के प्रवर्तक का नाम लिखो।
उत्तर:
मोतीलाल तेजावत ने ‘एक्की आन्दोलन’ के प्रवर्तक थे। यह जनजाति आन्दोलन था।
प्रश्न 4.
मेवाड़ प्रजामण्डल के नेतृत्व को गति प्रदान करने वाले नेताओं के नाम बताओ।
उत्तर:
मेवाड़ प्रजामण्डल के नेतृत्व को गति प्रदान करने वाले नेताओं में माणिक्य लाल वर्मा व बलवन्त सिंह मेहता थे।
प्रश्न 5.
अर्जुनलाल सेठी व जमनालाल बजाज ने किस क्षेत्र को अपना कर्मक्षेत्र चुना था?
उत्तर:
अर्जुनलाल सेठी व जमनालाल बजाज ने जयपुर प्रजामण्डल क्षेत्र को अपना कर्मक्षेत्र चुना था।
प्रश्न 6.
राजस्थान का एकीकरण कितने चरणों में पूर्ण हुआ?
उत्तर:
राजस्थान का एकीकरण सात चरणों में पूर्ण हुआ
- मत्स्य संघ
- संयुक्त राजस्थान
- मेवाड़ को शामिल किया गया
- वृहत् राजस्थान
- मत्स्य संघ को शामिल करते हुए वृहत् राजस्थान
- सिरोही का विलय तथा
- अजमेर मेरवाड़ा का विलय।
प्रश्न 7.
वृहत् राजस्थान के प्रधानमन्त्री कौन थे?
उत्तर:
वृहत् राजस्थान के प्रधानमन्त्री पं. हीरालाल शास्त्री थे। इन्होंने 4 अप्रैल, 1950 ई. को मन्त्रिमण्डल की कमान सम्भाली।
प्रश्न 8.
ब्रिटिशकाल में राजस्थान में स्थित केन्द्रशासित प्रदेश का नाम क्या था?
उत्तर:
ब्रिटिश काल में अजमेर मेरवाड़ा एक केन्द्रशासित प्रदेश रह्म था।
प्रश्न 9.
राजस्थान दिवस किस तारीख को मनाया जाता है?
उत्तर:
राजस्थान दिवस 30 मार्च को मनाया जाता है।
RBSE Class 12 History Chapter 7 लघूत्तरात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
राजस्थान में जागृति के क्या – क्या करण थे?
उत्तर:
राजस्थान में जन:
जागृति के कारणों में प्रथम कारण स्वामी दयानन्द सरस्वती व उनका प्रभाव था। वे स्वदेशी वे स्वराज्य का शंख फूकने वाले पहले समाज सुधारक थे। दूसरा कारण समाचार-पत्र व साहित्य द्वितीय कारण था। इनमें राजपूतानी गजट, राजस्थान केसरी, नवीन राजस्थान नामक अखबार प्रमुख थे। मध्यम वर्ग की भूमिका तृतीय कारण थी। इनमें शिक्षक, वकील व पत्रकार तथा जयनारायण व्यास, मास्टर भोलानाथ आदि प्रमुख थे।
राजस्थान के लगभग सभी राज्यों की सेनाओं ने प्रथम विश्वयुद्ध में भाग लिया। इन सैनिकों ने अपने – अपने अनुभव बाँटकर राजस्थान के लोगों को परिचित कराया। इसके साथ ही बाह्य वातावरण का प्रभाव भी जनजागृति का प्रमुख कारण था। राष्ट्रीय स्तर के नेताओं व उनके कार्यक्रमों का प्रभाव भी यह्न पर पड़ा।
प्रश्न 2.
कोटा के विप्लव के जन आक्रोश को अपने शब्दों में लिखो।
उत्तर:
1857 की क्रान्ति के जन-आक्रोश का प्रमुख केन्द्र मुख्यतः छः सैनिक छावनियाँ र्थी जो नसीराबन्द, नीमच, देवली, कोय, एरनपुरा और खेरवाड़ा नाम से प्रसिद्ध थीं। नीमच के क्रान्तिकारी देवली होते हुए कोय पहुँचे। क्रान्तिकारियों ने कोय रेजीमेण्ट के साठ व्यक्तियों को देवली छावनी से अपने साथ चलने के लिए बाध्य किया परन्तु रास्ते में ये सैनिक भाग निकलने में सफल हो गए और कुछ दिनों पश्चात् वापस देवली पहुँच गए।
15 अक्टूबर को कोय महाराव भीमसेन की दो पलटन ने विद्रोह कर दिया। रेजीडेण्ट बर्टन का सिर काट दिया और महाराव को नजरबन्द कर दिया। सम्पूर्ण कोय पर क्रान्तिकारियों का अधिकार बना रह्य। कोय में जन-आक्रोश को संगठित करने में महाराव के वकील तथा विद्वान जयदयाल भटनागर का महत्वपूर्ण योगदान रह्म।
प्रश्न 3.
विजय सिंह पथिक ने जन – जागरण का कार्य किस प्रकार किया?
उत्तर:
बिजौलिया आन्दोलन के नेतृत्वकर्ता विजय सिंह ‘पथिक’ का मूल नाम भूपसिंह था। बिजौलिया आने से पूर्व वे एक क्रान्तिकारी थे, वे रास बिहारी बोस के अनुयायी थे। उन्होंने ही बिजौलिया आन्दोलन का नेतृत्व किया। कृषकों की समस्याओं को उन्होंने ‘प्रताप’ समाचार – पत्र के माध्यम से अखिल भारतीय स्तर पर प्रचारित किया।
1919 में वर्धा में राजस्थान सेवा संघ की स्थापना की। नवीन राजस्थान पत्र का प्रकाशन भी अजमेर से शुरू हुआ। 1922 ई. में पथिक जी के प्रयासों से कृषकों व प्रशासन के बीच समझौता हुआ। बिजौलिया का आन्दोलन जब बेगू में फैला तो पथिक जी ने वहाँ के आन्दोलन की भी बागडोर सम्भाली। उन्हें तीन साल के कारावास की सजा मिली।
प्रश्न 4.
एक ही परिवार के तीनों शहीद सपूतों का नाम लिखो।
उत्तर:
एक ही परिवार के तीन शहीद क्रान्तिकारी केसरी सिंह बारहट, प्रताप सिंह बारहट तथा जोरावर सिंह बारहट थे। केसरी सिंह बारहट हिन्दी भाषा के पक्षधर थे। उन्होंने स्वदेशी शिक्षण संस्थाओं में अपने बच्चों को शिक्षा देने की प्रेरणा दी। प्रताप सिंह बारहट अपने पिता केसरी सिंह के पदचिन्हों पर चलते हुए देश के लिए शहीद हो गए।
आन्दोलन के दौरान कई प्रलोभनों के बावजूद, अमानुषिक अत्याचारों व दारुण यातनाओं को सहते हुए उन्होंने अपने प्राण त्याग दिए। इसी प्रकार जोरावर सिंह बारहट के त्याग व बलिदान की कथा अतुलनीय है। 1912 ई. में दिल्ली में वायसराय हार्डिग्स के जुलूस पर बम फेंकने का दुःसाहसिक कार्य जोरावर सिंह बारहट का ही था।
प्रश्न 5.
गोविन्द गुरु ने आदिवासियों में जागृति का कार्य किस प्रकार किया था?
उत्तर:
गोविन्द गुरु एक महान् समाज सुधारक थे जिन्होंने भीलों के सामाजिक व नैतिक उत्थान का बीड़ा उठाया। उन्हेंने ‘सम्प सभा’ की स्थापना की व उन्हें हिन्दू धर्म के दायरे में बनाये रखने के लिए ‘भगत पन्थ’ की स्थापना की। सम्प सभा के माध्यम से मेवाड़ डूंगरपुर, ईडर, गुजरात, विजय नगर और मालवा के भीलों में सामाजिक जागृति से शासन सशंकित से उठा और भीलों को ‘भगत पन्थ’ छेड़ने को विवश किया।
गोविन्द गुरु के प्रयासों से शिक्षा का प्रचार होने के साथ – साथ सुधार भी होने लगा। जब भीलों में मद्यपान का प्रचलन कम होने लगा तो आबकारी क्षेत्र को काफी नुकसान हुआ। भीलों में कोई महती राजनीतिक महत्वाकांक्षा नहीं थी, किन्तु उनमें सामाजिक एकता भी अंग्रेजों व शासकों के लिए चुनौती बन गई। भीलों के साथ-साथ दूसरे वर्गों में राजनीतिक चेतना उत्पन्न हुई।
प्रश्न 6.
‘मत्स्य संघ’ के वृहत् राजस्थान में विलय की प्रक्रिया स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
भौगोलिक, जातीय, आर्थिक दृष्टिकोण से अलवर, भरतपुर, धौलपुर, करौली एक से थे। चारों राज्यों के शासकों को 27 फरवरी, 1948 को दिल्ली बुलाकर उनके समक्ष संघ का प्रस्ताव रखा गया, जिसे सहर्ष स्वीकार कर लिया गया। श्री के. एम. मुंशी के सुझाव पर इस संघ का नाम मत्स्य संघ रखा गया। 28 फरवरी, 1948 को दस्तावेज पर हस्ताक्षर किये गये।
18 मार्च, 1948 को इस संघ का उद्घाटन केन्द्रीय मंत्री एन. वी. गाडगिल ने किया। संघ की जनसंख्या 18 लाख व वार्षिक आय दो करोड़ रुपये थी। धौलपुर के महाराज उदयभान सिंह को राजप्रमुख नियुक्त कर एक मन्त्रिमण्डल का गठन किया गया। शोभाराम (अलवर) को मत्स्य संघ का प्रधानमंत्री बनाया गया एवं संघ में शामिल चारों राज्यों में से एक-एक सदस्य लेकर मन्त्रिमण्डल बनाया गया।
प्रश्न 7.
सिरोही किस प्रकार राजस्थान में सम्मिलित हुआ?
उत्तर:
10 अप्रैल, 1948 को हीरालाल शास्त्री ने सरदार पटेल को पत्र लिखा कि सिरोही का अर्थ है-गोकुल भाई और बिना गोकुल भाई के हम राजस्थान नहीं चला सकते। इस बीच सिरोही के प्रश्न को लेकर राजस्थान की जनता में काफी उत्तेजना फैल चुकी थी। 18 अप्रैल, 1948 को संयुक्त राजस्थान के उद्घाटन के अवसर पर राजस्थान के कार्यकर्ताओं का एक शिफ्ट मण्डल पं. नेहरू से मिला और उन्हें सिरोही के सम्बन्ध में प्रदेश की जन भावनाओं से अवगत कराया। पं. नेहरू की सरदार पटेल वार्ता के पश्चात् अत्यन्त चतुराई से जनवरी, 1950 में माउण्ट आबू सहित सिरोही का 304 वर्गमील क्षेत्र के 89 गाँव गुजरात में व शेष सिरोही राजस्थान में मिला दिया गया।
प्रश्न 8.
संयुक्त राजस्थान में विलय के लिए मेवाड़ के महाराणा ने क्या-क्या शर्ते रखी थीं?
उत्तर:
संयुक्त राजस्थान के उद्घाटन के तीन दिन बाद संयुक्त राजस्थान में मेवाड़ विलय के प्रश्न पर वार्ता आरम्भ हुई। सर राममूर्ति ने भारत सरकार को महाराणा की प्रमुख तीन माँगों से अवगत कराया-
- महाराणा को संयुक्त राजस्थान को वंशानुगत राजप्रमुख बनाया जाए।
- उन्हें बीस लाख रुपये वार्षिक प्रिवीपर्स दिया जाए और
- यह कि उदयपुर को संयुक्त राजस्थान की राजधानी बनाया जाए।
रियासत विभाग ने संयुक्त राजस्थान के शासकों से बात करके मेवाड़ को संयुक्त राज्य राजस्थान में विलय करने का निश्चय किया।
प्रश्न 9.
रियासत सचिवालय की स्थापना कब एवं क्यों की गई थी?
उत्तर:
15 अगस्त, 1947 ई. को भारत स्वाधीन हुआ। परन्तु भारतीय स्वाधीनता अधिनियम 1947 की आठर्वी धारा के अनुसार ब्रिटिश सरकार की भारतीय देशी रियासतों पर स्थापित सर्वोच्चता पुनः देशी रियासतों को हस्तान्तरित कर दी गयी। इसका तात्पर्य था कि देशी रियासतें स्वयं इस बात का निर्णय करेंगी कि वह किसी अधिराज्य में (भारत अथवा पाकिस्तान में) अपना अस्तित्व रखेंगी।
यदि कोई रियासत किसी अधिराज्य में शामिल न हो तो वह स्वतन्त्र राज्य के रूप में भी अपना अस्तित्व रख सकती थी। यदि ऐसा होने दिया जाता तो भारत अनेक छोटे – छोटे खण्डों में विभक्त हो जाता एवं भारत की एकता समाप्त हो जाती। तत्कालीन भारत सरकार को राजनैतिक विभाग जो अब तक देशी रियासतों पर नियन्त्रण रखता था, समाप्त कर दिया गया और 5 जुलाई, 1947 ई. को सरदार पटेल की अध्यक्षता में रियासत सचिवालय गठित किया गया।
प्रश्न 10.
प्रजामण्डल आन्दोलन का संक्षेप में वर्णन करें।
उत्तर:
ब्रिटिश भारत में हो रहे आन्दोलनों के परिणामस्वरूप राजस्थान में किसान एवं जनजाति आन्दोलन हुए फिर भी अनेक समस्याएँ थीं जिनके कारण रियासती जनता कष्ट में थी। अनेक अनुचित प्रतिबन्धों के कारण जनता का जीवन कष्टमय हो गया था। इन सभी के निराकरण के लिए रियासतों में राजनीतिक चेतना वे प्रजामण्डल का गठन किया। इस प्रकार जोधपुर, बीकानेर, मेवाड़, कोटा, बूंदी, झालावाड़, जयपुर, अलवर, भरतपुर, धौलपुर तथा अन्य राज्यों में प्रजामण्डल आन्दोलन हुए।
जोधपुर में जयनारायण व्यास, बीकानेर में कन्हैयालाल ढूँढ, मेवाड़ में माणिक्य लाल वर्मा, कोटा में नयनूराम शर्मा, बूंदी में पथिक जी, राम नारायण चौधरी, माँगीलाल भव्य, तनसुख लाल मित्तल, जयपुर में अर्जुन लाल सेठी, सेठ जमनालाल बजाज, हीरालाल शास्त्री, अलवर में पं. हरिनारायण शर्मा ने प्रजामण्डल आन्दोलन चलाया। इसी प्रकार भरतपुर में श्रीगणेश जगन्नाथ दास अधिकारी तथा धौलपुर में स्वामी श्रद्धानन्द ने प्रजामण्डल आन्दोलन का नेतृत्व किया।
RBSE Class 12 History Chapter 7 निबन्धात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
बिजौलिया किसान आन्दोलन की सफलता में विजय सिंह पथिक के योगदान को रेखांकित कीजिए।
उत्तर:
1. जीवन – परिचय:
बिजौलिया आन्दोलन का नेतृत्वकर्ता विजय सिंह ‘पथिक’ का मूलनाम भूपसिंह था। इनका जन्म बुलन्दशहर जिले के गुठावल गाँव में हुआ था। 1907 ई. में भूपसिंह प्रसिद्ध क्रान्तिकारी रास बिहारी बोस तथा शचीन्द्र ‘सान्याल’ के सम्पर्क में आये तथा तभी से उन्होंने क्रान्तिकारी गतिविधियों में भाग लेना आरम्भ कर दिया। बोस ने उन्हें राजस्थान में क्रान्ति का आयोजन करने के लिए खरवा के ठाकुर गोपाल सिंह के पास भेजा।
परन्तु देश में क्रान्ति की योजना असफल हो जाने पर सर्वत्र क्रान्तिकारी पकड़े जाने लगे थे। भूपसिंह को भी पकड़कर टाटागढ़ के किले में बन्द कर दिया गया। परन्तु वे चुपचाप वहाँ से निकल भागे। उन्होंने अपनी दाढ़ी बढ़ा ली तथा अपना नाम भूपसिंह की जगह विजय पथिक’ रख लिया। तभी से वे जीवनभर इसी नाम से जाने जाते रहे। संयोगवश उनकी मुलाकात सीताराम दास से हो गयी। सीताराम दास के आग्रह पर विजय सिंह पथिक ने बिजौलिया आन्दोलन का नेतृत्व करना स्वीकार कर लिया।
उनकी उपस्थिति से किसानों का उत्साह बढ़ गया। माणिक्य लाल वर्मा, साधु सीताराम दास, भंवरलाल सुनार और प्रेमचन्द भील के सहयोग से पथिक ने किसानों को पंचायतों के माध्यम से संगठित किया और उन्हें युद्ध – कोष में धन देने से मना कर दिया। किसानों ने महाराणा तथा जागीरदार को प्रार्थना – पत्र भिजवाये। प्रत्युत्तर में महाराणा ने किसान नेताओं को गिरफ्तार करने तथा आन्दोलन को कुचलने का आदेश दिया। पथिक जी भूमिगत हो गए और वीरान स्थान से आन्दोलन का संचालन करने लगे।
2. समाचार – पत्रों का सहयोग:
विजय सिंह पथिक ने कानपुर से प्रकाशित होने वाले समाचार – पत्र ‘प्रताप’ के माध्यम से बिजौलिया के किसान आन्दोलन को समूचे देश में चर्चा का विषय बना दिया। इस पर जागीरी दमन – चक्र जोर पकड़ गया। माणिक्य लाल वर्मा, साधु सीताराम दास आदि नेताओं को बन्दी बना लिया गया। किसानों पर भी बड़े-बड़े अत्याचार किए गए लेकिन किसानों ने सब कुछ सहते हुए आन्दोलन जारी रखा। बिजौलिया आन्दोलन के समाचार प्रसारित करने के लिए पथिक ने ‘प्रताप’ के सम्पादक श्री गणेश शंकर विद्यार्थी को राखी भेजकर घनिष्ठता बढ़ाई।
महात्मा गाँधी को भी बिजौलिया आन्दोलन की जानकारी हो गयी और उन्होंने इस सन्दर्भ में पथिक जी को बम्बई आमंत्रित किया। वे गणेश शंकर विद्यार्थी से मिलते हुए 1918 ई. में कांग्रेस अधिवेशन में सम्मिलित होने बम्बई चले गए। इस अन्तराल में भी किसानों पर दमने-चक्र चलता रहा। अन्ततः राणा ने ठिकाने के प्रशासन को आदेश दिया कि किसान ने जिस भूमि को जोता है उसी भूमि का कर लिया जाये। यह किसानों की दूसरी विजय थी।
3. राजस्थान सेवा – संघ की स्थापना:
1919 ई. में पथिक ने राजस्थान सेवा-संघ की स्थापना की। इसका कार्यालय अजमेर में रखा गया। पथिक जी ने अब यहाँ से बिजौलिया किसान आन्दोलन का संचालन आरम्भ किया। दिसम्बर, 1919 में वे अमृतसर कांग्रेस अधिवेशन में भाग लेने गए और वहाँ बिजौलिया का मामला उठाना चाहा। लोकमान्य तिलक ने इसके प्रस्ताव को प्रस्तुत किया और केलकर ने इसका समर्थन किया।
परन्तु मदन मोहन मालवीय के विरोध के कारण कांग्रेस में इस प्रस्ताव पर विचार न हो सका, क्योंकि देशी राज्यों के मामलों में वे हस्तक्षेप नहीं करना चाहते थे। लेकिन मालवीय जी ने व्यक्तिगत रूप से पथिक जी को आश्वासन दिया कि वे स्वयं महाराणा से मिलकर इसे तय करने का प्रयास करेंगे। इस प्रकार बिजौलिया किसान आन्दोलन अब राष्ट्रीय नेताओं की निगाह में आ गया।
4. राजपूताना मध्य भारत सभा:
पथिक जी इस आन्दोलन को राष्ट्रीय महत्व को आन्दोलन बनाना चाहते थे। अतः उन्होंने इस मामले को ‘राजपूताना मध्य भारत सभा’ के माध्यम से उठाना चाहा। भवानी दयाल की अध्यक्षता में एक आयोग गठित किया गया। इस सूचना से महाराणा को अवगत करा दिया गया परन्तु महाराणा नहीं चाहते थे कि कोई बाहरी एजेन्सी बिजौलिया के मामले में हस्तक्षेप करे। महाराणा ने स्वयं एक आयोग गठित किया।
5. माणिक्यलाल वर्मा का प्रतिनिधि मण्डल:
माणिक्य लाल वर्मा की अध्यक्षता में पन्द्रह सदस्यीय दल उदयपुर गया। श्री वर्मा ने विस्तृत रूप से किसानों की कठिनाइयों को आयोग के समक्ष रखा। सदस्य गण भी प्रस्ताव से सहमत थे। इसी समय पं. मदन मोहन मालवीय भी उदयपुर आ गये थे। परन्तु महाराणा ने न तो आयोग और न मालवीय जी की मन्त्रणा को स्वीकार किया। ब्रिटिश सरकार ने इस आन्दोलन को रूस की क्रान्ति से समता करते हुए इसे सख्ती से दबाने की राय दी।
1920 ई. में बिजौलिया के किसान नागपुर के कांग्रेस अधिवेशन में गए। यहाँ किसानों ने इस आन्दोलन से गाँधी जी को अवगत कराया तथा उनका आशीर्वाद प्राप्त किया। यह वह समय था जब असहयोग आन्दोलन समस्त भारत में फैल चुका था। ब्रिटिश सरकार असहयोग आन्दोलन को लेकर चिन्तित थी और इधर किसान आन्दोलन बेगू, पारसौली तथा दक्षिण पश्चिम के पहाड़ी क्षेत्रों में फैल चुका था।
6. समझौते का प्रयास:
ब्रिटिश सरकार को यह भय था कि मेवाड़ का किसान आन्दोलन कहीं भारत में चल रहे असहयोग आन्दोलन से न जुड़ जाये। अतः एम. जी. जी. हॉलैण्ड के प्रयासों से किसानों तक जागीरदारों के बीच समझौता हो गया। इस समझौते के अनुसार किसानों पर लगी पैंतीस लागतें समाप्त कर दी गईं तथा लगान कम कर दिया गया। किसानों पर लगाए गए अभियोग वापस ले लिए गए। इस प्रकार बिजौलिया के किसान की मुख्य माँगों को मान लिया तथा उनकी पंचायतों को मान्यता मिल गई। यह बिजौलिया के किसानों की तीसरी विजय थी।
19022 के समझौते का क्रियान्वयन न होना-ब्रिटिश सरकार को इस समझौते के प्रति कोई रुचि नहीं थी। वह तो किसानों को भारत में चल रहे असहयोग आन्दोलन से दूर रखना चाहती थी। असहयोग आन्दोलन की समाप्ति के बाद ए. जी. जी. ने बिजौलिया आन्दोलन के समझौते को पता ही नहीं लगाया। बिजौलिया के जागीरदार प्रारम्भ से ही इसे लागू नहीं करना चाहते थे। कृषकों के अतिरिक्त किसी ने इस समझौते में रुचि नहीं ली।
7. पथिक जी का पुनः नेतृत्व संभालना:
1922 ई. में पथिक जी के प्रयासों से कृषक व प्रशासन के बीच समझौता हुआ। बिजौलिया का आन्दोलन जब बे में फैला तो पथिक जी ने वीं के आन्दोलन की भी बागडोर संभाली तो उन्हें तीन साल के लिए कारावास की सजा दे दी गई। कारावास से छूटने के बाद वे निर्वासित कर दिए गए। चूँकि पथिक जी के मेवाड़ राज्य में प्रवेश पर प्रतिबन्ध था।
अत: उन्होंने बिजौलिया की सीमा पर स्थित ग्वालियर राज्य के फूसरिया गाँव से किसान-पंचायत का मार्गदर्शन करना प्रारम्भ किया। 1927 में जब बिजौलिया आन्दोलन में माल भूमि छोड़ने का प्रश्न उठा तो पथिक जी ने कृषकों को भूमि छोड़ने की सलाह दी। वे सम्भवत: बदली हुई राजनीतिक परिस्थितियों को भाँप नहीं पाए। पथिक जी का यह निर्णय गलत व दोषयुक्त प्रमाणित हुआ। इस निर्णय का नैतिक तथा वैधानिक उत्तरदायित्व अपने ऊपर लेते हुए पथिक जी ने किसान पंचायत की मध्यस्थता से त्याग – पत्र दे दिया।
भूमि जब्त होने पर किसानों का मनोबल टूय। पथिक जी के हाथों से नेतृत्व निकलकर अखिल भारतीय स्तर पर स्थानान्तरित से गया। इसके उपरान्त बिजौलिया किसान आन्दोलन का नेतृत्व श्री हरिभाऊ उपाध्याय को सौंप दिया गया। अन्ततः हम कह सकते हैं कि इस आन्दोलन ने न केवल मेवाड़ में बल्कि राजस्थान की अन्य रियासतों में भी नई चेतना उत्पन्न कर दी।
प्रश्न 2.
आदिवासी आन्दोलन में भगत व एक्की आन्दोलन को विस्तार से समझाइए।
उत्तर:
राजस्थान के दक्षिणी क्षेत्र में भील निवास करते हैं, जो मुख्यतः डूंगरपुर, मेवाड़, बांसवाड़ा, प्रतापगढ़ वे कुशलगढ़ के इलाके हैं। भील अत्यन्त परम्परावादी जाति है जो अपने सामाजिक व आर्थिक स्तर को लेकर सजग रहती है। जब इनके परम्परागत अधिकारों का हनन हुआ तो इन्होंने अपना विरोध प्रकट किया, चाहे वह फिर अंग्रेजों के विरुद्ध हो या फिर शासक के विरुद्ध हो।
1. गोविन्द गुरु व भगत आन्दोलन:
गोविन्द गुरु एक महान् समाज सुधारक थे जिन्हेंने भी के सामाजिक व नैतिक उत्थान का बीड़ा उठाया। उन्हें सामाजिक दृष्टि से संगठित करके मुख्य धारा में लाने का प्रयास किया।
2. सम्प – सभा की स्थापना:
गोविन्द गुरु ने भीलों की सेवार्थ 1883 ई. में ‘सम्प-सभा’ की स्थापना की। राजस्थान की भाषा में ‘सम्प’ का अर्थ ‘प्रेम’ होता है। इस सभा के माध्यम से वह मेवाड़, डूंगरपुर, ईडर, गुजरात, विजयनगर और मालवा के भीलों में सामाजिक जागृति से शासन संशकित हो उठ और भीलों को ‘भगत पन्थ’ छोड़ने के लिए विवश किया जाने लगा।
जब उन्हें बेगार व कृषि कार्य के लिए बाध्य किया गया और जंगल में उनके मूलभूत अधिकारों से वंचित किया गया, तो वे आन्दोलन के लिए विवश हो गए। गोविन्द गुरु के प्रयासों से शिक्षा का प्रचार होने के साथ-साथ सुधार भी होने लगी। उदाहरण के लिए जब भील में मद्यपान का प्रचलन कम होने लगा, तो कुशलगढ़ व बाँसवाड़ा राज्य को आबकारी क्षेत्र में काफी नुकसान उठाना पड़ा। अंग्रेजों ने इस सुधार व संगठन के पीछे भील राज्य की स्थापना की सम्भावना व्यक्त की।
3. आन्दोलन की प्रगति व दमन – चक्र :
अप्रैल, 1913 में डूंगरपुर राज्य द्वारा पहले गिरफ्तार और फिर रिहा किए जाने के बाद गोविन्द गुरु अपने साथियों के साथ ईडर राज्य में मानगढ़ की पहाड़ी पर चले गए जो बाँसवाड़ा वसथ’ राज्य की सीमा पर स्थित है। अक्टूबर, 1913 को उन्होंने अपने सन्देश द्वारा भीलों को मानगढ़ की पहाड़ी पर एकत्र होने के लिए कहा। भील भारी संख्या में हथियार लेकर एकत्र हो गए। उनके द्वारा बाँसवाड़ा राज्य के दो सिपाहियों को प्रीय गया। सूथ, किले पर हमला किया गया। इस कार्यवाही ने सूथ, बाँसवाड़ा, ईडर व डूंगरपुर राज्यों को चौकन्ना कर दिया।
ए. जी. जी. की स्वीकृति मिलते ही इसे 6 से 10 नवम्बर, 1913 के बीच मेवाड़ भील की दो कम्पनियाँ, 104 वेलेजली राइफल्स की एक कम्पनी, राजपूत रेजीमेण्ट की एक कम्पनी व जाट रेजीमेण्ट की एक कम्पनी मानगढ़ की पहाड़ी पर पहुँच गई और गोलाबारी करके भीलों को मार दिया। सरकारी आँकड़ों के अनुसार इस कार्यवाही में पन्द्रह सौ भील मारे गए। इस नरसंहार को कई इतिहासकारों ने जलियाँवाला बाग हत्याकाण्ड से भी अधिक वीभत्सकारी बताया है।
इस प्रकार भगत आन्दोलन निर्ममतापूर्वक कुचल दिया गया। गोविन्द गुरु को दस वर्ष के कारावास की सजा सुनाई गई। यह तो स्पष्ट है कि भीलों की कोई महती राजनीतिक महत्वाकांक्षा नहीं थी, किन्तु उनमें व्याप्त सामाजिक एकता भी अंग्रेजों व शासकों के लिए चुनौती बन गई। गोविन्द गुरु अहिंसा के पक्षधर थे व उनकी श्वेत ध्वजा शान्ति का प्रतीक थी। इस आन्दोलन के परिणाम दूरगामी सिद्ध हुए। भीलों के साथ-साथ समाज के दूसरे वर्गों में राजनीतिक चेतना उत्पन्न हुई।
मोतीलाल तेजावत व एकी आन्दोलन
अंग्रेजों द्वारा भगत आन्दोलन कुचल दिए जाने के बाद भीलों का आन्दोलन कुछ समय के लिए निष्क्रिय हो गया। फिर भी भगत आन्दोलन का प्रभाव भीलों की राजनीतिक चेतना पर पड़ा। भीलों के विरुद्ध सरकारी नीति जारी रही। 1917 में भी व गरसियों ने मिलकर महाराणा को पत्र लिखकर दमनकारी नीति व बेगार के प्रति अपना विरोध जताया। कोई परिणाम न निकलता देखकर 1921 में बिजौलिया किसान आन्दोलन से प्रभावित होकर पुनः महाराणा को अत्यधिक लागतों व कामगारों के शोषणात्मक व्यवहार के विरुद्ध शिकायत दर्ज की।
इन सभी अहिंसात्मक प्रयासें का जब कोई परिणाम नहीं निकला तो भोमट के खालसा क्षेत्रों के भीलों ने लागते व बेगार चुकाने से इन्कार कर दिया 1921 में भीलों को मोतीलाल तेजावत का नेतृत्व प्राप्त हुआ। तेजावत ने भीलों को लगान व बेगार न देने के लिए प्रेरित किया। एक्की आन्दोलन के नाम से विख्यात इस आन्दोलन को जनजातियों के राजनीतिक जागरण का प्रतीक माना जा सकता है।
डूंगरपुर के महारावल ने आन्दोलन फैल जाने के भय से सभी प्रकार की बेगारें अपने राज्य से समाप्त कर र्दी। जागीरी क्षेत्रों में भीलों को यह सुविधा न मिल पाने के कारण एक्की आन्दोलन’ संगठित रूप से तेजावत के नेतृत्व में भोमद क्षेत्र के अतिरिक्त सिरोही व गुजरात क्षेत्र में भी फैलने लगा।
अंग्रेजी सरकार ने अब दमनात्मक नीति अपनाई। 7 अप्रैल, 1922 को ईडर क्षेत्र में माल नामक स्थान पर मेजर सदन के अधीन मेवाड़ भील कोर ने गोलीबारी की। 3 जून, 1929 को ईडर राज्य ने तेजावत को गिरफ्तार कर मेवाड़ सरकार को सैंप दिया। मेवाड़ के सर्वोच्च न्यायालय महोइन्द्राज सभा ने लिखित में तेजावत से राज्य के विरुद्ध कार्य न करने का आश्वासन माँगा। गाँधीजी के निकट सहयोगी मणिलाल कोठवरी के हस्तक्षेप से एक समझौता हुआ। 16 अप्रैल, 1936 को तेजावत ने लिखित में इच्छित आश्वासन दिया और 23 अप्रैल को वह रिह्म कर दिए गए।
प्रश्न 3.
राजस्थान में क्रान्ति के केन्द्र कहाँ थे व अका क्या परिणाम रह्य?
उत्तर:
जब भारत में 1857 का स्वतन्त्रता संग्राम फैला, तो उससे राजस्थान भी अछूता न रह्य। जब राजस्थान में 1857 के स्वतन्त्रता संग्राम की आग फैली तो ब्रिटिश सरकार चिन्तित हो उठी। राजस्थान में मुख्यतया छः सैनिक छावनियाँ थीं जो नसीराबाद, नीमच, देवली, कोय, एरनपुरा और खेरवाड़ा आदि स्थानों में स्थित र्थी।
राजस्थान में क्रान्ति के प्रमुख केन्द्र
(1) नसीराबाद:
राजस्थान में 1857 के स्वतन्त्रता संग्राम का संकेत नसीराबाद से आरम्भ हुआ। 28 मई, 1857 को शाम के चार बजे नसीराबाद में सैनिकों ने विद्रोह कर दिया। ब्रिटेन की ओर से नसीराबाद स्थित सेनाओं को नि:शस्त्र करने के प्रयास ने आग में घी का काम किया। ऐसी अफवाहें भी फैल रही थीं कि सैनिकों को जो आय दिया जाता है और जो कारतूस काम में लेने के लिए दिए जाते हैं उसमें गऊ का माँस मिलाया जाता है।
27 मई को यह भी समाचार फैला कि दीसा से यूरोपीय सैनिकों की एक टुकड़ी नसीराबाद आ रही है जो वसँ स्थित सैनिकों का स्थान लेगी। इस समाचार ने ब्रिटिश विरोधी भावना को चरम सीमा पर पहुँचा दिया। नसीराबाद की स्थिति बिगड़ने लगी। सैनिकों ने विद्रोह कर दिया परन्तु फर्स्ट रेजीमेण्ट बॉम्बे लान्सर ने विद्रोहियों का साथ नहीं दिया और ब्रिटिश आदेश का पालन करते हुए उन पर गोली चलाई परन्तु लाइट एवं ग्रनेडियर कम्पनी ने गोली चलाने से इनकार कर दिया।
ब्रिगेडियर मेकल अपने यूरोपियन साथियों के साथ पीछे हटने को बाध्य हुआ, साथ ही कर्नल पैनी जो कि कोर कमाण्डर थे- घटना स्थल पर ही मर गए। सम्भवतः इसका कारण उनका नरवस हो जाना था। दो अन्य ब्रिटिश अधिकारियों की भी मृत्यु से गई, दो घायल हो गए और इसके साथ ही नसीराबाद क्रान्तिकारियों के हाथ में चला गया। दूसरे दिन क्रान्तिकारियों ने नसीराबाद छावनी को नष्ट कर दिया और दिल्ली की ओर प्रस्थान किया।
लेफ्टीनेण्ट माल्टर तथा लेफ्टीनेण्ट हेथकोट के नेतृत्व में लगभग एक हजार मेवाड़ के सैनिकों ने क्रान्तिकारियों को पीछा किया परन्तु उन्हें सफलता प्राप्त नहीं हुई। सम्भवतः इसका कारण यह था कि मेवाड़ और मारवाड़ के जागीरदारों ने नसीराबाद के विप्लवकारियों को अपने प्रदेश में से आसानी से गुजर जाने दिया। यह तथ्य इस बात का संकेत था कि मेवाड़ और मारवाड़ की सहानुभूति क्रान्तिकारियों के साथ थी।
सैनिकों में पुनः असन्तोष:
12 जून, 1857 को उड़ीसा से यूरोपीय सेनाओं की प्रथम टुकड़ी नसीराबाद पहुँची और 10 जुलाई, 1857 को एजेण्ट गवर्नर जनरल के द्वारा इस टुकड़ी को नीमच भेज दिया गया। इस घटना ने नसीराबाद स्थित सैनिकों में पुनः असन्तोष को जन्म दिया। बारहवीं बम्बई नेटिव इन्फेन्टरी के सैनिक अत्यधिक उत्तेजित हो उठे, परन्तु उन्हें शीघ्र ही नि:शस्त्र कर दिया गया।
10 अगस्त, 1857 को बम्बई कैवेलरी के सैनिकों ने अपने कमाण्डर के आदेश को मानने से इनकार कर दिया और अपने अन्य साथियों को भी अपना अनुसरण करने को कहा परन्तु ब्रिटिश सरकार ने कठोर कदम उठाए। एक सैनिक को तत्काल गोली मार दी गई। पाँच और सैनिकों को फाँसी पर लटका दिया गया तथा शेष सभी भारतीय सैनिकों को नि:शस्त्र कर दिया गया। इस प्रकार नसीराबाद में पुन: सुलगती हुई क्रान्ति की आग को तत्काल दबा दिया गया।
नीमच में क्रान्ति:
क्रान्ति का दूसरा केन्द्र नीमच बना। 2 जून को कर्नल अबोट ने हिन्दू और मुसलमान सिपाहियों को गंगा और कुरान की शपथ दिलाई थी कि वे ब्रिटिश शासन के प्रति वफादार रहेंगे, कर्नल अबोट ने स्वयं भी बाइबिल को हाथ में लेकर शपथ ली थी, जिससे कि वे अपने अधीन सिपाहियों का पूर्ण सहयोग प्राप्त कर सकें परन्तु जब 3 जून, 1857 को नसीराबाद के क्रान्ति का समाचार नीमच पहुँचा तो उसी दिन रात्रि ग्यारह बजे वहाँ भी विप्लव हो गया।
स्थल सेना ने समूची छावनी को घेर लिया और उसको आग लगा दी। यहाँ तक कि ब्रिगेडियर मेजर के बंगले तक को आग लगा दी गई।बंगलों पर तैनात सैनिकों ने क्रान्तिकारियों पर गोली चलाने से इनकार कर दिया और कुछ समय बाद वे भी उनके साथ मिल गए। ऐसा विश्वास किया जाता है कि दो स्त्रियाँ तत्काल मृत्यु को प्राप्त हुई और अनेक बच्चों को अग्नि की ज्वाला में भेंट कर दिया गया। ब्रिटिश स्त्री – पुरुष और बच्चे जो लगभग संख्या में चालीस थे, क्रान्तिकारियों के द्वारा घेर लिए गए।
यदि उदयपुर (मेवाड़) के सैनिक उचित समय पर सहायता के लिए न पहुँचे होते तो सम्भवतः उनका जीवन भी समाप्त हो जाता। 5 जून को क्रान्तिकारियों ने आगरा होते हुए दिल्ली प्रस्थान किया। उन्होंने आगरा जेल में बन्द सभी कैदियों को मुक्त कर दिया और सरकारी खजाने में से एक लाख छब्बीस हजार नौ सौ रुपये लूटकर साथ ले गए, परन्तु आगरा का बाजार सुरक्षित रहा।
नीमच के क्रान्तिकारी देवली पहुँचे और उन्होंने छावनी को आग लगा दी। ऐसा विश्वास किया जाता है कि देवली छावनी को पहले ही खाली किया जा चुका था और वहाँ से ब्रिटिश अधिकारियों को मेवाड़ स्थित जहाजपुर कस्बे में बसा दिया गया था। क्रान्तिकारियों ने कोटा रेजीमेण्ट के साठ व्यक्तियों को देवली छावनी से अपने साथ चलने के लिए बाध्य किया परन्तु रास्ते में ये सैनिक भाग निकलने में सफल हो गए और कुछ दिनों पश्चात् वापस देवली पहुँच गए।
आस – पास के अन्य स्थानों की स्थिति विस्फोटक होती जा रही थी। मालवा, महू, सलूम्बर इत्यादि स्थानों पर भी क्रान्तिकारियों के आक्रमण बढ़ते जा रहे थे। उदयपुर स्थित खेरवाड़ा और सलूम्बर की स्थिति अधिक नाजुक बन चुकी थी कि कैप्टन शावर्स के विचार में इन क्षेत्रों की रक्षा करना बहुत मुश्किल हो गया था। 12 अगस्त, 1857 को नीमच में द्वितीय कैवेलरी के कमाण्डर कर्नल जेक्शन ने इस सूचना के आधार पर कि भारतीय सेना में विद्रोह होने वाला है और उनकी योजना समस्त यूरोपीय अधिकारियों की हत्या कर देने की है, यूरोपीय सैनिकों को बुला भेजा।
इस घटना ने नीमच स्थित भारतीय सैनिकों को उत्तेजित कर दिया और परिणामतः वहाँ पुनः क्रान्ति की ज्वालाएँ धधकने लगीं। उत्तेजना में एक यूरोपीय सिपाही की हत्या कर दी गई। दो अन्य सिपाही घायल हो गए और लेफ्टीनेण्ट विलयेयर किसी यूरोपीय की बन्दूक से ही घायल हो गए। सैनिकों ने कर्नल जेक्शन के आदेश का पालन करने से इनकार कर दिया। यहाँ तक कि यूरोपीय अधिकारियों के मध्य भी आदेश दिए जाने सम्बन्धी वाद-विवाद उठ खड़े हुए, अतः यह निश्चित किया गया कि नीमच के क्रान्तिकारियों को दबाने के लिए और अधिक सैनिक बुलाए जाएँ। परन्तु इसी बीच उदयपुर की सहायता से क्रान्ति को दबा दिया गया।
(2) आऊवा (मारवाड़) ठिकाना व ठाकुर खुशाल सिंह का नेतृत्व:
अगस्त, 1857 में क्रान्ति की ज्वालाएँ समस्त राज्य में फैलने लर्गी। 21 अगस्त को एरनपुरा स्थित जोधपुर सेनाओं ने विद्रोह कर दिया और उन्होंने अपने अधिकारियों के आदेश का पालन करने से इन्कार कर दिया। परिणामतः लेफ्टीनेण्ट कारमोली को क्रान्तिकारियों के साथ चलने के लिए बाध्य होना पड़ा, यद्यपि तीन दिन पश्चात् क्रान्तिकारियों ने उन्हें रिहा कर दिया। भील सैनिकों ने भी क्रान्तिकारियों का साथ दिया और ब्रिटिश शासन के साथ सहयोग करने से इनकार कर दिया क्रान्तिकारियों ने अनेक ब्रिटिश नागरिक एवं परिवारों को अपनी हिरासत में ले लिया, यद्यपि कुछ समय पश्चात् उन्हें भी रिहा कर दिया।
तत्पश्चात् आऊवा के ठाकुर खुशाल सिंह ने भी क्रान्तिकारियों को सहयोग देना प्रारम्भ किया, इसका मुख्य कारण यह था कि पिछले कुछ वर्षों से ठाकुर कुशाल सिंह और जोधपुर महाराजा के आपसी सम्बन्ध तनावपूर्ण थे और वर्तमान परिस्थितियों में ठाकुर खुशाल सिंह ने अवसरे से लाभ उठाना चाहा। 8 सितम्बर, 1857 को महाराजा जोधपुर की सेनाओं और क्रान्तिकारियों एवं आऊवा के ठाकुर की सशस्त्र सेनाओं के मध्य पाली के समीप विढोड़ा व चेलावास में संघर्ष हुआ, महाराजा जोधपुर की सेनाओं को न केवल पराजय का ही मुँह देखना पड़ा अपितु उनके अधिकांश अस्त्र – शस्त्र क्रान्तिकारियों के हाथ लगे।
जोधपुर किले के किलेदार ‘अनारसिंह’ और महाराजा के अनेक विश्वासपात्र सहयोगी इस युद्ध में काम आए। यहाँ तक कि लेफ्टीनेण्ट हैटकोच जिसे कि राजस्थान में ब्रिटिश एजेण्ट गवर्नर जनरल लॉरेन्स ने भेजा था, बड़ी मुश्किल से अपना बचाव कर सका। उसकी समस्त सम्पत्ति क्रान्तिकारियों द्वारा लूट ली गई। इन गम्भीर परिस्थितियों को समझते हुए स्वयं जनरल लॉरेन्स ने आऊवा की ओर कूच करने का निश्चय किया।
उसने ब्यावर के समीप सशस्त्र बटालियन तैयार की और आऊवा की ओर चल पड़ा। 18 सितम्बर को जनरल लॉरेन्स के नेतृत्व में ब्रिटिश सशस्त्र सेनाओं ने आऊवा पर असफल आक्रमण किया। विप्लवकारी सैनिकों ने न केवल आक्रमण को ही विफल किया अपितु अनेक ब्रिटिश अधिकारियों का, जिनमें जोधपुर स्थित ब्रिटिश पॉलिटिकल एजेण्ट मौक मेसन एवं एक यूरोपीय अधिकारी भी शामिल था, मार डाला, साथ ही साथ जोधपुर सेना के अनेक सैनिक भी क्रान्तिकारियों के हाथों मारे गए और बन्दी बना लिए गए।
क्रान्तिकारियों ने मौकमेसन का सर धड़ से अलग करके आऊवा के किले पर लटका दिया गया जो एक प्रकार से उनकी विजय का प्रतीक था। जनरल लॉरेन्स को पीछे हटना पड़ा और आऊवा से लगभग तीन मील दूर एक गाँव में शरण लेनी पड़ी। तदुपरान्त वह अजमेर वापस आया।
जनरल लॉरेन्स की पराजय को ब्रिटिश सरकार ने बड़ी गम्भीरता से लिया, इसका कारण यह था कि इस घटना का समूचे राजस्थान पर व्यापक प्रभाव पड़ सकता था अतः ब्रिटिश सरकार ने आदेश दिया कि हर कीमत पर आऊवा ठाकुर को कुचल दिया जाना चाहिए। उधर दूसरी ओर, क्रान्तिकारियों ने किसालदार, अब्दुल अली, अब्बास अली खाँ, शेख मुहम्मद बख्श और हिन्दू तथा मुसलमान सिपाहियों के नाम पर मारवाड़ और मेवाड़ की जनता से अपील की कि वह उनकी हर सम्भव सहायता करे।
ठाकुर खुशाल सिंह ने भी मेवाड़ के प्रमुख जागीरदार ठाकुर समंद सिंह से ब्रिटेन के विरुद्ध सहायता देने का प्रस्ताव किया। ठाकुर समंद सिंह ने और मारवाड़ के अनेक प्रमुख जागीरदारों ने चार हजार सैनिकों की सहायता का आश्वासन दिया। 9 अक्टूबर, 1857 को आसोप के ठाकुर श्योनाथ सिंह, पुलनियावास के ठाकुर अजीत सिंह, बोगावा के ठाकुर जोधसिंह, बांता के ठाकुर पेम सिंह, बसवाना के ठाकुर चाँद सिंह, तुलगिरी के ठाकुर जगत सिंह ने दिल्ली सम्राट से सहायता लेने के लिए दिल्ली की ओर प्रस्थान किया। ठाकुर समंद सिंह ने भी उपर्युक्त जागीरदारों का साथ दिया।
जनवरी, 1858 को ब्रिटिश सैनिकों की सहायता करने के लिए बम्बई की सैनिक टुकड़ी नसीराबाद पहुँची। मार्ग में सिरोही के ठाकुर के अधीन सेवा के किले को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया गया और 19 जनवरी, 1858 को टुकड़ी आऊवा पहुँची। इस सेना की सहायता करने के लिए जोधपुर के कार्यकारी ब्रिटिश पॉलिटिकल एजेण्ट मेजर मोरीसन भी आऊवा पहुँचे। उधर दूसरी ओर, कर्नल हाल्मस के नेतृत्व में बम्बई नेटिव इन्फेन्ट्री भी आऊवा पहुँची।
तत्पश्चात् 19 जनवरी को ही कर्नल होल्मस के नेतृत्व में आऊवा किले पर घेरा डाल दिया गया परन्तु 23 जनवरी, 1858 को अन्धकार और वर्षा व तूफान का फायदा उठाते हुए आऊवा क्रान्तिकारी बच निकले। ब्रिटिश सेनाओं के द्वारा क्रान्तिकारियों का पीछा किया गया जिन्होंने 18 क्रान्तिकारियों को मौत के घाट उतार दिया और सात को हिरासत में ले लिया।
दूसरी ओर, आऊवा गाँव में 124 व्यक्तियों को बन्दी बनाया गया, जिन्हें तत्काल गोलियों का निशाना बना दिया गया। साथ ही साथ आऊवा ठाकुर के निवास स्थान को भी मिट्टी में मिला दिया गया और इस प्रकार 24 जनवरी, 1858 को आऊवा पर ब्रिटिश सैनिकों का कब्जा हो गया।
ऐसा विश्वास किया जाता है कि सैनिक कार्यवाही के दौरान अनेक निहत्थे नागरिकों की भी हत्या की गई जिनके शव गलियों में पड़े दिखाई देते थे। ब्रिटिश सेना को भी काफी क्षति पहुँची और उनके कम-से-कम दस सैनिक घायल हुए। ब्रिटिश सैनिकों ने आऊवा में भयंकर अत्याचार किए। भौरता, भीमालिया और लम्बीया गाँवों को तहस – नहस कर डाला और इस प्रकार जनता में आतंक फैलाकर ब्रिटिश सैनिक नसीराबाद की ओर बढ़े।
15 सितम्बर, 1857 को मेजर बर्टन को ब्रिटिश पोलिटिकल एजेण्ट के रूप में कोटा जाने का आदेश मिला। तदनुसार कोय महाराव के वकील मेजर बर्टन को लेने के लिए नीमच पहुँचे। 5 अक्टूबर को मेजर बर्टन अपने दो पुत्र के साथ कोय के लिए रवाना हुए। मेजर बर्टन की पत्नी, उनकी पुत्री और उनके तीन पुत्र नीमच में ही रुक गए थे। 12 अक्टूबर को मेजर बर्टन अपने दोनों पुत्रों के साथ कोय पहुँचे। उसी दिन दिल्ली का पतन हुआ और ऐसा विश्वास किया जाता है कि इस अवसर पर महाराव कोय को तोपों की सलामी दी गई।
दूसरे दिन कोय महाराव ब्रिटिश पोलिटिकल एजेण्ट से मिलने उनके निवास स्थान पर गए और उसी दिन शाम को पोलिटिकल एजेण्ट अपने दोनों पुत्रों के साथ महाराव से मिलने आए। ऐसा विश्वास किया जाता है कि अपनी बातचीत के दौरान पोलिटिकल एजेण्ट ने महाराव से अनुरोध किया कि वह अपने कुछ प्रमुख सहयोगियों को पदमुक्त कर दें। परन्तु 15 अक्टूबर को कोय महाराव की दो पल्टन ने ब्रिटेन के विरुद्ध विद्रोह कर दिया और मेजर बर्टन उनके दोनों पुत्र, एक असिस्टेन्ट सर्जन और एक स्थानीय क्रिश्चियन डॉक्टर की हत्या कर दी।
यही नहीं, मेजर बर्टन का सिर काट लिया गया और क्रान्तिकारी उसे अपने साथ लेते गए। क्रान्तिकारियों का जनता ने भी सहयोग किया और इसे जन-आन्दोलन का रूप दे दिया। कोय की क्रान्ति में जयदयाल माथुर व मेहराब खाँ की मुख्य भूमिका रही। ब्रिटिश सेनाओं को पीछे हटना पड़ा। पाँच महीने तक लगातार कोय पर क्रान्तिकारियों का आधिपत्य रह्य।
अन्य राज्यों का योगदान:
जयपुर, टोंक, अल्वर, भरतपुर, धौलपुर, लंगरपुर आदि राज्यों में भी अंग्रेज विरोधी भावना विद्यमान थी। भरतपुर की सेना, गुर्जर तथा मेव जनता ने भी खुलकर विद्रोह में भाग लिया। जयपुर की जनता ने रास्ते से गुजरती सेना को अपमानित कर अंग्रेज विरोधी भावना व्यक्त की। येक के नवाब की सेना ने भी विद्रोह किया। बकाया वेतन वसूला तथा दिल्ली गए।
प्रश्न 4.
राजस्थान के एकीकरण के चरणों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
भारत सरकार के रियासत विभाग द्वारा सभी रियासतों को मिलाकर एकीकृत राजस्थान का गठन करने का निश्चय किया गया। इस कार्य के लिए अत्यन्त बुद्धिमानी, दूरदर्शिता, संयम एवं कूटनीति भी आवश्यकता थी और इसलिए यह कार्य बड़ी सावधानी से धीरे – धीरे सम्पन्न किया गया।
एकीकृत राजस्थान के विभिन्न चरण: एकीकृत राजस्थान का गठन निम्नलिखित पाँच चरण में पूर्ण हुआ-
1. प्रथम चरण : मत्स्य संघ का निर्माण:
इस संघ में अलवर, भरतपुर, धौलपुर एवं करौली को शामिल किया गया। भौगोलिक, जातीय और आर्थिक दृष्टिकोण से ये एक जैसे राज्य थे। चारों राज्यों के शासकों को 27 फरवरी, 1948 ई. को दिल्ली बुलाकर उनके समक्ष संध का प्रस्ताव रखा गया, जिसे सहर्ष स्वीकार कर लिया गया। श्री के. एम. मुंशी के सुझाव पर इस संघ का नाम ‘मत्स्य संघ’ रखा गया जैसा कि महाभारत के काल से इस क्षेत्र का नाम था। 28 फरवरी, 1948 को दस्तावेज पर हस्ताक्षर किए गए। 18 मार्च, 1948 को इस संघ का उद्घाटन केन्द्रीय मन्त्री एन. वी. गाडगिल ने किया।
संघ की जनसंख्या अयरह लाख व वार्षिक आय दो करोड़ रुपये थी। धौलपुर के महाराज उदयभान सिंह को राज प्रमुख नियुक्त कर एक मन्त्रिमण्डल का गठन किया गया। शोभाराम (अलवर) को मत्स्य संघ का प्रधानमन्त्री बनाया गया एवं संघ में शामिल चारों राज्यों में से एक – एक सदस्य लेकर मन्त्रिमण्डल बनाया गया। गोपीलाल यादव (भरतपुर), मास्टर भोलानाथ (अलवर), डॉ. मंगल सिंह (धौलपुर), चिरंजीलाल शर्मा (करौली) ने शपथ ली।
2. द्वितीय चरण : संयुक्त राजस्थान:
इस संघ में कोय, बूंदी, झालावाड़, बाँसवाड़ा, प्रतापगढ़ और शाहपुरा शामिल किए गए। कोय, झालावाड़ व डूंगरपुर के शासकों ने एक हाड़ौती संघ बनाने का विचार किया एवं 3 मार्च, 1948 को दिल्ली में इन तीनों शासकों ने संघ का विचार स्वीकार कर लिया। यही राय बाँसवाड़ा, प्रतापगढ़ व डूंगरपुर के राज्यों की भी बनी। स्थानीय प्रजामण्डलों का दबाव भी लगातार संघ के पक्ष में बन रह्य था। शाहपुर व किशनगढ़ दो ऐसी रियासतें र्थी जिन्होंने पूर्व में अजमेर-मेरवाड़ा में विलय के प्रयास का विरोध किया था।
ये रियासतें राजस्थान की अन्य रियासतों के संघ में मिलने के इच्छुक थे। इसीलिए इन्होंने संयुक्त राजस्थान में सम्मिलित होना स्वीकार कर लिया। इस प्रकार संयुक्त राजस्थान में नौ राज्य थे- बाँसवाड़ा, डूंगरपुर, प्रतापगढ़, कोटा, बूंदी, झालावाड़, किशनगढ़, शाहपुरा एवं टोंक। इस संघ का क्षेत्रफल 16807 वर्ग मील, आबादी 23.5 लाख एवं आय 1.90 करोड़ वार्षिक थी।
प्रस्तावित नए संघ के क्षेत्र के मध्य में मेवाड़ की रियासत पड़ती थी। यद्यपि रियासत विभाग के मापदण्डानुसार मेवाड़ अपना पृथक् अस्तित्व रख सकता था। फिर भी रियासत विभाग ने मेवाड़ को इस संघ में शामिल होने का निमंत्रण दिया। किन्तु मेवाड़ के महाराणा भूपाल सिंह तथा मेवाड़ राज्य के दीवान सर एस. वी. राममूर्ति ने इस प्रस्ताव का विरोध करते हुए कहा कि मेवाड़ का 1300 वर्ष पुराना राजवंश अपनी गौरवशाली परम्पराओं को तिलाजंलि देकर भारत के मानचित्र पर अपना अस्तित्व समाप्त नहीं कर सकता।
मेवाड़ राज्य के उपर्युक्त रवैये को देखते हुए रियासत विभाग ने निर्णय लिया कि फिलह्मल उदयपुर को छोड़कर दक्षिण – पूर्व राजस्थान की रियासतों को मिलाकर ‘संयुक्त राजस्थान’ का निर्माण कर लिया जाय। प्रस्तावित संयुक्त राजस्थान में कोय सबसे बड़ी रियासत थी। अत: निर्णय हुआ कि ‘संयुक्त राजस्थान के राज प्रमुख का पद कोय के महाराज भीम सिंह को दिया जाए और 25 मार्च, 1948 को श्री एन. वी. गाडगिल इस नये संघ का उद्घाटन करें।
कोय के महाराज भीम सिंह को राज प्रमुख का पद दिया जाना, वरिष्ठता, क्षेत्रफल व महत्व के आधार पर बूंदी के महाराज बहादुर सिंह को स्वीकार्य नहीं था क्योंकि कुलीय परम्परा में उसका कोय से स्थान ऊँचा था। अत: बूंदी महाराव ने मेवाड़ के महाराणा से नए राज्य में शामिल होने की प्रार्थना की ताकि उदयपुर के महाराज राज प्रमुख बन जायेंगे, जिससे बूंदी महाराज की कठिनाइयों का स्वत: निराकरण हो जायेगा। किन्तु महाराणा ने बूंदी महाराज को वही उत्तर दिया जो उन्होंने कुछ दिनों पहले रियासत विभाग को दिया था।
अन्त में विवश होकर बूंदी महाराव ने कोटा महाराज को संयुक्त राजस्थान का राजप्रमुख बनाने का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। बूंदी महाराव को उप-राजप्रमुख तथा डूंगरपुर के महाराव को उप-राजप्रमुख बनाने का निर्णय किया। इन नौ राज्यों का एक संक्षिप्त संविधान तैयार किया गया और इसका उद्घाटन 25 मार्च, 1948 को होना तय हुआ।
इधर मेवाड़ के संयुक्त राजस्थान में शामिल न होने के फैसले का मेवाड़ में तीव्र विरोध हुआ। मेवाड़ प्रजा मण्डल के प्रमुख नेता एवं संविधान निर्मात्री समिति के सदस्य श्री माणिक्यलाल वर्मा ने कहा कि-मेवाड़ की बीस लाख जनता के भाग्य का फैसला अकेले महाराणा साहब और उनके प्रधान सर राममूर्ति नहीं कर सकते। प्रजामण्डल की यह स्पष्ट नीति है कि मेवाड़ अपना अस्तित्व समाप्त कर राजपूताना प्रान्त का एक अंग बन जाये।
किन्तु महाराणा अपने निश्चय पर अटल रहे। शीघ्र ही मेवाड़ की राजनैतिक परिस्थितियाँ पलटी। मेवाड़ में मन्त्रिमण्डल के गठन को लेकर प्रजामण्डल एवं मेवाड़ सरकार के बीच गतिरोध उत्पन्न हो गया। अतः राज्य में उत्पन्न राजनैतिक गतिरोध को समाप्त करने के लिए महाराणा ने 23 मार्च, 1948 को मेवाड़ को संयुक्त राजस्थान में शामिल करने के अपने इरादे की सूचना भारत सरकार को भेजते हुए संयुक्त राजस्थान के उद्घाटन की तारीख 25 मार्च को आगे बद्मने का आग्रह किया।
चूँकि विलय की प्रक्रिया एवं उद्घाटन की सभी तैयारियाँ पूरी हो चुकी अतः उसी समय पर कार्यक्रमों में परिवर्तन न करते हुए श्री गाडगिल ने राजस्थान का विधिवत् उद्घाटन किया। श्री गोकुल प्रसाद असावा को प्रधानमन्त्री बनाया गया। किन्तु भारत सरकार की सलाह पर मन्त्रिमण्डल का गठन का कार्य स्थगित कर दिया गया।
3. तृतीय चरण : मेवाड़ का संयुक्त राजस्थान में विलय:
संयुक्त राजस्थान के उद्घाटन के तीन दिन बाद संयुक्त राजस्थान में मेवाड़ विलय के प्रश्न पर वार्ता आरम्भ हुई। सरे राममूर्ति ने भारत सरकार को महाराणा की प्रमुख तीन माँगों से अवगत कराया। पहली – महाराणा को संयुक्त राजस्थान का वंशानुगत राजप्रमुख बनाया जाए, दूसरी – उन्हें बीस लाख रुपये वार्षिक प्रिवीपर्स दिया जाए और तीसरी – यह कि उदयपुर को संयुक्त राजस्थान की राजधानी बनाया जाए।
रियासत विभाग ने संयुक्त राजस्थान के शासकों से बात करके मेवाड़ को संयुक्त राजस्थान में विलय करने का निश्चय किया। महाराणा को आजीवन राजप्रमुख मान लिया गया। यह पद महाराणा की मृत्यु के बाद समाप्त होना तय माना गया। संयुक्त राजस्थान की राजधानी उदयपुर रखी गयी किन्तु विधानसभा का प्रति वर्ष एक अधिवेशन कोय में रखना निश्चित हुआ। मेवाड़ के महाराणा ने प्रिवीपर्स बीस लाख रुपये माँगे थे। इसके जवाब में प्रिवीपर्स तो दस लाख ही रखा गया किन्तु वार्षिक अनुदान के रूप में पाँच लाख रुपये व धार्मिक अनुष्ठान के लिए पाँच लाख रुपये स्वीकृत किए गए। 1 अप्रैल, 1948 को मेवाड़ ने विलय पत्र पर हस्ताक्षर किए।
इस संघ का उद्घाटन पंडित नेहरू ने 18 अप्रैल, 1948 को उदयपुर में किया। मेवाड़ के महाराणा राजप्रमुख, कोय के महाराज वरिष्ठ उप-राजप्रमुख तथा बूंदी व डूंगरपुर के शासक कनिष्ठ उप-राजप्रमुख घोषित किए गए। प्रधानमन्त्री माणिक्यलाल वर्मा ने पंडित नेहरू एवं सरदार पटेल के परामर्श पर अपने मन्त्रिमण्डल का गठन किया। मन्त्रिमण्डल में गोकुल प्रसाद असावां (शाहपुरा), प्रेम नारायण माथुर, भूरेलाल बया और मोहन लाल सुखाड़िया (सभी उदयपुर), भोगीलाल पण्ड्या (डूंगरपुर), अभिन्न गिरी (कोटा) एवं ब्रजसुन्दर शर्मा (बूंदी) थे। इस प्रकार राजस्थान एकीकरण का तीसरा चरण भी पूरा हुआ।
4. चतुर्थ चरण : वृहत् राजस्थान का निर्माण:
मेवाड़ के विलय के साथ ही शेष बचे राज्यों का विलय आसान व निश्चित हो गया। जयपुर, जोधपुर, बीकानेर व जैसलमेर में विलय व एकीकरण का जनमत और भी तेज हो गया। जोधपुर, बीकानेर एवं जैसलमेर राज्यों की सीमाएँ पाकिस्तान की सीमा से मिली हुई थीं, जहाँ से सदैव आक्रमण का भय बना रहता था।
फिर यातायात एवं संचार साधनों की दृष्टि से यह क्षेत्र काफी पिछड़ा हुआ था, जिसका विकास करना इन राज्यों के आर्थिक सामर्थ्य के बाहर था। समाजवादी दल के नेता डॉ. जय प्रकाश नारायण ने 9 नवम्बर, 1948 को एक सार्वजनिक सभा में अविलम्ब वृहत् राजस्थान के निर्माण की माँग की। अखिल भारतीय स्तर पर राजस्थान आन्दोलन समिति का गठन किया गया जिसके अध्यक्ष डॉ. राममनोहर लोहिया ने भी एकीकृत राजस्थान की माँग की थी।
रियासत विभाग के सचिव श्री वी. पी. मेनन ने सम्बन्धित शासकों से वार्ता शुरू की। वे 11 जनवरी, 1949 को जयपुर गए एवं जयपुर महाराज से वार्ता की। जयपुर महाराज सवाई मानसिंह काफी हिचकिचाहट एवं समझाने-बुझाने के बाद वृहत् राजस्थान के लिए तैयार हुए किन्तु यह शर्त रखी कि जयपुर महाराज को वृहत् राजस्थान का वंशानुगत राजप्रमुख बनाया जाए और जयपुर को भावी राजस्थान की राजधानी बनाया जाये।
मेनन ने विलय की शर्तों पर बाद में विचार करने का आश्वासन देकर विलय की बात स्वीकार कर ली। विलय के प्रारूप की जयपुर महाराजा की स्वीकृति के बाद तार द्वारा इसकी सूचना बीकानेर और जोधपुर को भेज दी गयी। बीकानेर एवं जोधपुर के शासकों ने काफी आनाकानी के बाद विलय के प्रारूप को स्वीकृति दे दी। 14 जनवरी, 1949 को सरदार पटेल ने उदयपुर की एक आम सभा में वृहत् राजस्थान के निर्माण की घोषणा कर दी।
मेवाड़ के महाराणा को आजीवन महाराज प्रमुख घोषित किया गया। जयपुर के शासक को राजप्रमुख, जोधपुर व कोटा के शासकों को वरिष्ठ उप – राजप्रमुख और बूंदी व डूंगरपुर के शासकों को कनिष्ठ उप – राजप्रमुख बनाया गया। राज प्रमुख व उसके मन्त्रिमण्डल को केन्द्रीय सरकार के सामान्य नियन्त्रण में रखा गया। राजप्रमुख को नये संविलयन पत्र पर हस्ताक्षर केरके संविधान द्वारा संघीय व समवर्ती सूचियों को स्वीकार करना था।
सरदार पटेल ने नई संगठित इकाई का उद्घाटन 30 मार्च, 1949 को किया जिसे वर्तमान में राजस्थान दिवस के रूप में मनाया जाता है। श्री हीरालाल शास्त्री ने 4 अप्रैल, 1949 को मन्त्रिमण्डल की कमान सम्भाली जिसमें श्री सिद्धराज दड्दा (जयपुर), प्रेम नारायण माथुर (उदयपुर), भूरेलाल बया (उदयपुर), फूलचन्द बापना (जोधपुर), नरसिंह कछवाहा (जोधपुर), राव राजा हनुमन्त सिंह (जोधपुर), रघुवर दयाल गोयल (बीकानेर) व वेदपाल त्यागी (कोटा) सम्मिलित थे।
जयपुर के शासक को अठारह लाख रुपये, जोधपुर के शासक को 17.5 लाख रुपये, बीकानेर शासक को 17 लाख रुपये, जैसलमेर शासक को 2.8 लाख रुपये प्रिवीपर्स के रूप में स्वीकृत किए गए। जयपुर को राजधानी घोषित किया गया तथा राजस्थान के बड़े नगरों का महत्व बनाये रखने के लिए कुछ राज्य स्तर के सरकारी कार्यालय; यथा – हाईकोर्ट जोधपुर में, शिक्षा विभाग बीकानेर में, खनिज विभाग उदयपुर में तथा कृषि विभाग भरतपुर में स्थापित किए गए।
5. पंचम चरण : मत्स्य संघ का वृहत् राजस्थान में विलय:
मत्स्य संघ के निर्माण के समय इस संघ में सम्मिलित होने वाले चारों राज्यों के शासकों को यह स्पष्ट कर दिया गया था कि भविष्य में यह संघ राजस्थान अथवा उत्तर प्रदेश में विलीन किया जा सकता है। इधर मत्स्य संघ स्वतन्त्र रूप से कार्य कर रहा था किन्तु सरकार कई समस्याओं से घिरी थी। मेवों का उपद्रव सरकार के लिए चिन्ता का विषय था। भरतपुर किसान सभा एवं नागरिक सभा द्वारा सरकार विरोधी आन्दोलन भी चरम सीमा पर था।
भरतपुर किसान सभा ने ब्रज प्रदेश नाम से भरतपुर, धौलपुर के अलग अस्तित्व की माँग रखी। अब यह आशंका व्याप्त होने लगी कि कहीं मत्स्य संघ का ही विघटन हो जाए। इस आशंका को दृष्टिगत रखते हुए चारों राज्यों के शासकों तथा प्रधानमन्त्रियों को बातचीत के लिए 10 मई, 1949 को दिल्ली बुलाया गया। विचारणीय बिन्दु यह था कि ये राज्य निकटवर्ती राज्य उत्तर प्रदेश में विलीन होंगे अथवा राजस्थान में।
जहाँ अलवर व करौली राजस्थान में विलय के पक्ष में थे, वहीं भरतपुर और धौलपुर उत्तर प्रदेश में विलय के इच्छुक थे। समस्या के समाधान के लिए श्री शंकरराव देव की अध्यक्षता में एक समिति बनाई गई। इस समिति की सिफारिश के अनुसार भरतपुर व धौलपुर का जनमत राजस्थान में विलय के पक्ष में था। 15 मई, 1948 को ‘मत्स्य संघ’ राजस्थान में सम्मिलित हो गया।
प्रश्न 5.
राजस्थान के एकीकरण के पूर्व राजस्थान की रियासतों की स्थिति व उनकी समस्याएँ लिखिए।
उत्तर:
15 अगस्त, 1947 ई. को भारत स्वाधीन हुआ। परन्तु भारतीय स्वाधीनता अधिनियम 1947 की आठवीं धारा के अनुसार ब्रिटिश सरकार की भारतीय देशी रियासतों पर स्थापित सर्वोच्चता पुनः देशी रियासतों को हस्तान्तरित कर दी गई। इसका तात्पर्य था कि देशी रियासतें स्वयं इस बात का निर्णय करेंगी कि वह किस अधिराज्य में (भारत अथवा पाकिस्तान में) अपना अस्तित्व रखेंगी। यदि कोई रियासत किसी अधिराज्य में शामिल न तो वह स्वतन्त्र राज्य के रूप में भी अपना अस्तित्व रख सकती थी।
यदि ऐसा होने दिया जाता है तो भारत अनेक छोटे-छोटे खण्डों में विभक्त हो जाता एवं भारत की एकता समाप्त हो जाती। तत्कालीन भारत सरकार का राजनैतिक विभाग जो अब तक देशी रियासतों पर नियन्त्रण रखता था, समाप्त कर दिया गया और 5 जुलाई, 1947 को सरदार वल्लभ भाई पटेल की अध्यक्षता में रियासत सचिवालय गठित किया गया। रियासत सचिवालय सभी छोटी-बड़ी रियासतों का विलीनीकरण या समूहीकरण चाहता था। इन रियासतों का समूहीकरण इस प्रकार किया जाता था कि भाषा संस्कृति और भौगोलिक सीमा की दृष्टि से एक संयुक्त राज्य संगठित हो सके।
राजस्थान के गठन के प्रारम्भिक प्रयास
स्वतन्त्रता प्राप्ति के समय राजस्थान में 22 छोटी-बड़ी रियासतें थीं। इसके अलावा अजमेर-मेरवाड़ा का छोटा-सा क्षेत्र ब्रिटिश शासन के अन्तर्गत था। इन सभी रियासतों तथा ब्रिटिश शासित क्षेत्र को मिलाकर एक इकाई के रूप में संगठित करने की अत्यन्त विकट समस्या थी। सितम्बर, 1946 ई. को अखिल भारतीय देशी राज्य लोक परिषद् ने निर्णय लिया था कि समस्त राजस्थान का एक इकाई के रूप में भारतीय संघ में शामिल होना चाहिए। इधर भारत सरकार के रियासत सचिवालय ने निर्णय लिया कि स्वतन्त्र भारत में वे ही रियासतें अपना पृथक् अस्तित्व रख सकेंगी जिनकी आय एक करोड़ रुपये वार्षिक एवं जनसंख्या दस लाख या उससे अधिक हो।
इस मापदण्ड के अनुसार राजस्थान में केवल जोधपुर, जयपुर, उदयपुर एवं बीकानेर ही इस शर्त को पूरा करते थे। राजस्थान की छोटी रियासतें यह तो अनुभव कर रही थीं कि स्वतन्त्र भारत में आपस में मिलकर स्वावलम्बी इकाइयाँ बनाने के अलावा कोई अन्य विकल्प नहीं है, परन्तु ऐतिहासिक तथा कुछ अन्य कारणों से शासकों में एक-दूसरे के प्रति अविश्वास एवं ईष्र्या भरी हुई थी।
राजस्थान की प्रमुख रियासतों की समस्याएँ: राजस्थान की प्रमुख रियासतों की निम्नलिखित समस्याएँ थीं-
- स्वतन्त्रता एवं विभाजन के पश्चात् हुए साम्प्रदायिक झगड़े मुख्य कारण थे। अलवर व भरतपुर में मेव जाति की समस्या पुनः उभर कर आई। गाँधीजी की हत्या में अलवर राज्य का नाम आने से भी अलवर विवादित था।
- जोधपुर की भौगोलिक एवं सामाजिक स्थिति अत्यन्त ही महत्वपूर्ण थी। पाकिस्तान की तरफ से जोधपुर को अपनी तरफ मिलाने की चर्चा भी गरम थी।
- मेवाड़ के महाराणी एवं जागीरदार वर्ग अपनी गौरवपूर्ण ऐतिहासिक स्थिति के कारण संघ में विलय के इच्छुक नहीं थे।
- उधर बीकानेर भी सीमान्त राज्य होने के कारण भारत के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण प्रदेश था। यद्यपि भारत की संविधान निर्मात्री सभा में बीकानेर का प्रतिनिधित्व था, फिर भी शासक का मन स्वतन्त्र अस्तित्व बनाए रखने का ही था।
बदलती हुई राजनीतिक परिस्थिति में मेवाड़ महाराणा द्वारा 25 जून, 1946 ई. को जयपुर में राजस्थानी राजाओं का एक सम्मेलन आयोजित किया गया। जिसका उद्देश्य एक संघ बनाना था। किन्तु समस्त शासक एक मत न हो सके। इसलिए महाराणा की योजना फलीभूत न हो सकी। इसी प्रकार डूंगरपुर के शासक ने भी बागड़ राज्य (डूंगरपुर, बाँसवाड़ा व प्रतापगढ़) बनाने का असफल प्रयास किया।
जयपुर में कोटा के शासकों के प्रयास भी असफल रहे। फलस्वरूप भारत सरकार के रियासत विभाग द्वारा सभी रियासतों को मिलाकर एकीकृत राजस्थान का गठन करने का निश्चय किया गया। इस कार्य के लिए अत्यन्त बुद्धिमानी, दूरदर्शिता, संयम एवं कूटनीति की आवश्यकता थी और इसलिए यह कार्य बड़ी सावधानी से धीरे – धीरे किया गया।
RBSE Class 12 History Chapter 7 अन्य महत्वपूर्ण प्रश्नोत्तर
RBSE Class 12 History Chapter 7 बहुचयनात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
1857 की क्रान्ति से पूर्व जिस शासक ने ब्रिटिश विरोधी भावना प्रदर्शित की, वह था।
(अ) डूंगरपुर का महारावल जसवन्त सिंह
(ब) जोधपुर का शासक मानसिंह
(स) उदयपुर का शासक स्वरूप सिंह
(द) भरतपुर का शासक जसवन्त सिंह।
उत्तर:
(ब) जोधपुर का शासक मानसिंह
प्रश्न 2.
राजस्थान के ईंग जी व जवाहर जी अत्यन्त लोकप्रिय थे, क्योंकि।
(अ) वे क्रान्तिकारी नेता थे।
(ब) वे जनहित के कार्यों में लगे हुए थे
(स) वे अंग्रेजों की छावनियाँ व सम्पत्ति, लूटते थे
(द) उन्होंने अपनी जागीर बढ़ाने में अनेक लोकहित के कार्य करवाये थे।
उत्तर:
(स) वे अंग्रेजों की छावनियाँ व सम्पत्ति, लूटते थे
प्रश्न 3.
राजस्थान के सामन्तवर्ग में सशस्त्र क्रान्ति का संचालन किया था।
(अ) सलूम्बर के सामन्त ने
(ब) कोरिया के सामन्त ने
(स) आसीन्द के सामन्त ने
(द) आऊवा के सामन्त ने।
उत्तर:
(द) आऊवा के सामन्त ने।
प्रश्न 4.
राजस्थान में 1857 की क्रान्ति का सूत्रपात कहाँ से हुआ?
(अ) नसीराबाद
(ब) आऊवा
(स) नीमच
(द) मेवाड़।
उत्तर:
(अ) नसीराबाद
प्रश्न 5.
1857 की क्रान्ति का सूत्रपात नसीराबाद से हुआ, क्योंकि।
(अ) नसीराबाद में अंग्रेजों के विरुद्ध आक्रोश अधिक था
(ब) नसीराबाद के सैनिकों से चर्बी वाले कारतूसों का प्रयोग करने को कहा गया था
(स) 15 र्वी बंगाल इन्फेन्ट्री को अजमेर से नसीराबाद भेज दिया था
(द) नसीराबाद के सैनिकों को दिल्ली के क्रान्तिकारियों का सन्देश प्राप्त हो गया।
उत्तर:
(ब) नसीराबाद के सैनिकों से चर्बी वाले कारतूसों का प्रयोग करने को कहा गया था
प्रश्न 6.
वीर सतसई की रचना किसने की?
(अ) सागरमल गोपा
(ब) सूर्यमल्ल मिश्रण
(स) साधु सीताराम
(द) जयनारायण व्यास।
उत्तर:
(ब) सूर्यमल्ल मिश्रण
प्रश्न 7.
स्वामी दयानन्द सरस्वती की किन शिक्षाओं ने राष्ट्रीय चेतना का विकास किया?
(अ) स्वधर्म
(ब) स्वराज्य
(स) स्वदेशी
(द) उपर्युक्त सभी।
उत्तर:
(द) उपर्युक्त सभी।
प्रश्न 8.
नीमच में क्रान्ति प्रारम्भ हुई।
(अ) 28 मई, 1857
(ब) 30 जून, 1857
(स) 3 जून, 1857
(द) 3 अप्रैल, 1857.
उत्तर:
(स) 3 जून, 1857
प्रश्न 9.
राजस्थान में ताँत्या येपे को शरण देने वाला सामन्त था।
(अ) आऊवा का ठकुर कुशाल सिंह
(ब) कोयरिया को रावत जोधसिंह
(स) आसोप के ठकुर शिवनाथ सिंह
(द) गूलर के ठाकुर विशन सिंह।
उत्तर:
(ब) कोयरिया को रावत जोधसिंह
प्रश्न 10.
राजस्थान के जिस शासक ने ताँत्या येपे की सहायता की, वह है।
(अ) जोधपुर का राव केसरी सिंह
(ब) भरतपुर का शासक जसवन्त सिंह
(स) डूंगरपुर का महारावल जसवन्त सिंह
(द) उदयपुर का शासक स्वरूप सिंह।
उत्तर:
(अ) जोधपुर का राव केसरी सिंह
प्रश्न 11.
राजस्थान में क्रान्ति की असफलता का प्रमुख कारण था।
(अ) कुशल नेतृत्व का अभाव
(ब) शासकों की उदासीनता
(स) जन – सहयोग का अभाव
(द) सीमित साधन।
उत्तर:
(ब) शासकों की उदासीनता
प्रश्न 12.
क्रान्ति का अन्त सर्वप्रथम कहाँ हुआ?
(अ) नसीराबाद में
(ब) दिल्ली में
(स) नीमच में
(द) देवली में।
उत्तर:
(ब) दिल्ली में
प्रश्न 13.
आऊवा में जिस ब्रिटिश पॉलिटिकल एजेण्ट की हत्या की गई, वह है।
(अ) सेवील की
(ब) मेजर बर्टन की
(स) मोकमेंसन की
(द) कर्नल बुक की।
उत्तर:
(स) मोकमेंसन की
प्रश्न 14.
वंश भाष्कर के रचयिता हैं।
(अ) सूर्यमल्ल मिश्रण
(ब) श्यामलदास
(स) बाँकीदास
(द) दयालदास।
उत्तर:
(अ) सूर्यमल्ल मिश्रण
प्रश्न 15.
अंग्रेजों से की गई सन्धियों से सर्वाधिक प्रभावित हुए।
(अ) सामन्त
(ब) राजा
(स) प्रजा
(द) सैनिक।
उत्तर:
(अ) सामन्त
प्रश्न 16.
क्रान्ति के समय मेवाड़ के जिस शासक ने अंग्रेजों का साथ दिया, वह है।
(अ) स्वरूप सिंह
(ब) मानसिंह
(स) जसवन्त सिंह
(द) उपर्युक्त से कोई नहीं।
उत्तर:
(अ) स्वरूप सिंह
प्रश्न 17.
बिजौलिया के किसानों को सर्वप्रथम संगठित होकर आवाज उठाने की सलाह दी थी।
(अ) नानजी पटेल ने
(ब) साधु सीतारामदास ने
(स) फतहकरण चारण ने
(द) ठाकरी पटेल ने।
उत्तर:
(ब) साधु सीतारामदास ने
प्रश्न 18.
बीसवीं शताब्दी में बिजौलिया किसान आन्दोलन प्रारम्भ होने का प्रमुख कारण था।
(अ) जागीरदार पृथ्वी सिंह ने किसानों को पूर्व में दी गई रियासतें रद्द कर दीं।
(ब) किसानों पर तलवार – लाग नाम से नई लागत लगा दी गई।
(स) किसानों की खड़ी फसल में आग लगवा दी गई।
(द) किसानों की बहू – बेटियों को बेरहमी से पीटा गया।
उत्तर:
(ब) किसानों पर तलवार – लाग नाम से नई लागत लगा दी गई।
प्रश्न 19.
जिस किसान आन्दोलन की गूंज इंग्लैण्ड के हाउस ऑफ कॉमन्स में सुनाई पड़ी, वह था।
(अ) बिजौलिया किसान आन्दोलन
(ब) शेखावटी किसान आन्दोलन
(स) सीकर किसान आन्दोलन
(द) बेगूं किसान आन्दोलन।
उत्तर:
(स) सीकर किसान आन्दोलन
प्रश्न 20.
बिजौलिया किसान आन्दोलन के प्रमुख प्रणेता थे।
(अ) विजय सिंह पथिक
(ब) केसरी सिंह बारहट
(स) दामोदरदास राठी
(द) माणिक्यलाल वर्मा।
उत्तर:
(अ) विजय सिंह पथिक
प्रश्न 21.
मेवाड़ के भोमट क्षेत्र में ‘सम्प सभा’ की स्थापना की।
(अ) गोविन्द गुरु
(ब) सुर्जी भगत
(स) दामोदरदास राठी
(द) माणिक्य लाल वर्मा।
उत्तर:
(अ) गोविन्द गुरु
प्रश्न 22.
जिस आन्दोलन को बोल्शेविक की संज्ञा दी जाती है।
(अ) बिजौलिया आन्दोलन
(ब) बेगूं आन्दोलन
(स) शेखावाटी आन्दोलन
(द) बूंदी आन्दोलन।
उत्तर:
(ब) बेगूं आन्दोलन
प्रश्न 23.
राजस्थान में सर्वप्रथम किसान आन्दोलन प्रारम्भ हुआ।
(अ) बिजौलिया में
(ब) अलवर में
(स) शेखावाटी में
(द) जयपुर में।
उत्तर:
(अ) बिजौलिया में
प्रश्न 24.
‘एक्की’ आन्दोलन के माध्यम से जनजातियों को संगठित किया।
(अ) विजय सिंह पथिक ने
(ब) गोविन्द गुरु ने
(स) मोतीलाल तेजावत ने
(द) बलवन्त सिंह ने।
उत्तर:
(स) मोतीलाल तेजावत ने
प्रश्न 25.
“यदि मैं राज्य की नौकरी करूंगा तो अंग्रेजों को देश से बाहर कौन निकालेगा?” शब्द किसके थे।
(अ) विजय सिंह पथिक के
(ब) अर्जुनलाल सेठी के
(स) जोरावर सिंह के
(द) गोपाल सिंह खरवा के।
उत्तर:
(ब) अर्जुनलाल सेठी के
प्रश्न 26.
1885 में राजस्थान से प्रकाशित होने वाला समाचार – पत्र है।
(अ) राजस्थान समाचार
(ब) राजपूताना गजट
(स) नवीन राजस्थान
(द) तरुण राजस्थान।
उत्तर:
(ब) राजपूताना गजट
प्रश्न 27.
‘नवजीवन’ समाचार – पत्र प्रकाशित होता था।
(अ) जयपुर से
(ब) ब्यावर से
(स) अजमेर से
(द) उदयपुर से।
उत्तर:
(द) उदयपुर से
प्रश्न 28.
‘मारवाड़ हितकारिणी सभा’ की स्थापना की।
(अ) जयनारायण व्यास ने
(ब) आनन्दराज सुराणा ने
(स) कस्तूरकरण ने
(द) चाँदमल सुराणा ने।
उत्तर:
(द) चाँदमल सुराणा ने
प्रश्न 29.
31 दिसम्बर, 1945 ई. में अखिल भारतीय देशी राज्य लोक परिषद् का सातवाँ अधिवेशन हुआ।
(अ) कोटा
(ब) उदयपुर
(स) सिरोही
(द) मेवाड़।
उत्तर:
(ब) उदयपुर
प्रश्न 30.
एकीकृत राजस्थान के निर्माण में जो ‘मत्स्य संघ’ बना, उसमें सम्मिलित थे।
(अ) जयपुर, जोधपुर, बीकानेर, कोटा और अलवर।
(ब) उदयपुर, बाँसवाड़ा, डूंगरपुर, प्रतापगढ़ और टोंक।
(स) शाहपुरा, किशनपुर, झालावाड़, जैसलमेर और करौली।
(द) अलवर, भरतपुर, धौलपुर और करौली।
उत्तर:
(द) अलवर, भरतपुर, धौलपुर और करौली।
प्रश्न 31.
मार्च, 1948 ई. संयुक्त राजस्थान का प्रधानमन्त्री जिसे बनाया गया।
(अ) श्री जयनारायण व्यास
(ब) श्री शोभालाल कुमावत
(स) पं. हीरालाल शास्त्री
(द) श्री गोकुल प्रसाद असावा।
उत्तर:
(द) श्री गोकुल प्रसाद असावा।
प्रश्न 32.
‘मत्स्य संघ’ की राजधानी थी।
(अ) अलवर
(ब) भरतपुर
(स) धौलपुर
(द) करौली।
उत्तर:
(अ) अलवर
प्रश्न 33.
राजस्थान की रियासतों का एकीकरण कितने चरणों में पूर्ण हुआ?
(अ) दो चरणों में
(ब) तीन चरणों में
(स) चार चरणों में
(द) कई चरणों में।
उत्तर:
(द) कई चरणों में।
प्रश्न 34.
एकीकरण के फलस्वरूप राजस्थान के पाँच चरणों में जो राज्य सम्मिलित नहीं हुए, वे हैं।
(अ) सिरोही व अजमेर
(ब) बाँसवाड़ा व झालावाड़
(स) प्रतापगढ़ व शाहपुरा
(द) जोधपुर व जैसलमेर।
उत्तर:
(अ) सिरोही व अजमेर
प्रश्न 35.
अजमेर का राजस्थान में विलीनीकरण जिस वर्ष हुआ, वह है।
(अ) 1947 ई. में
(ब) 1948 ई. में
(स) 1956 ई. में
(द) 1965 ई. में।
उत्तर:
(स) 1956 ई. में
(i) मिलान करो।
उत्तरमाला:
1. (ग)
2. (ज)
3. (ङ)
4. (ङ)
5. (ख)
6. (घ)
7. (क)
8. (च)
9. (छ)।
मिलान करो।
उत्तरमाला:
1. (ङ)
2. (ग)
3. (घ)
4. (ख)
5. (क)।
RBSE Class 12 History Chapter 7 अति लघूत्तरात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
राजस्थान में जन-जागृति के कोई दो कारण लिखिए।
उत्तर:
राजस्थान में जन – जागृति के कारण थे-
- स्वामी दयानन्द सरस्वती व उनका प्रभाव
- समाचार – पत्रों व साहित्य का योगदान।
प्रश्न 2.
‘राजस्थान केसरी’ समाचार – पत्र के प्रकाशक कौन थे?
उत्तर:
‘राजस्थान केसरी’ समाचार – पत्र के प्रकाशक ‘विजय सिंह पथिक’ थे।
प्रश्न 3.
राजस्थान में स्वाधीनता संग्राम के सम्बन्ध में आवाज उठाने वाले प्रमुख समाचार – पत्र कौन – कौन से थे।
उत्तर:
राजस्थान में स्वाधीनता संग्राम से सम्बन्धित आवाज को प्रमुखता से उजागर करने वाले प्रमुख समाचार – पत्र नवज्योति, नवजीवन तथा जयपुर समाचार थे।
प्रश्न 4.
वीर सतसई की रचना किसने थी?
उत्तर:
वीर सतसई की रचना सूर्यमल्ल मिश्रण ने की।
प्रश्न 5.
1857 ई. में राजस्थान में सर्वप्रथम क्रान्ति कहाँ आरम्भ हुई?
उत्तर:
1857 ई. में राजस्थान में सर्वप्रथम क्रान्ति नसीराबाद से आरम्भ हुई।
प्रश्न 6.
नसीराबाद में क्रान्ति होने के बाद वहाँ के ब्रिटिश अधिकारी भागकर कहाँ गये?
उत्तर:
नसीराबाद में क्रान्ति होने के बाद ब्रिटिश अधिकारी नीमच भाग गए।
प्रश्न 7.
राजस्थान में क्रान्ति के प्रमुख केन्द्र कौन – कौन से थे?
उत्तर:
राजस्थान में क्रान्ति के प्रमुख केन्द्र थे-नसीराबाद, नीमच, देवली, आऊवा, कोटा, एरिनपुरा, सलूम्बर तथा कोठारिया।
प्रश्न 8.
आऊवा में किस ब्रिटिश पोलिटिकल एजेण्ट की हत्या कर दी गई?
उत्तर:
आऊवा में ब्रिटिश पॉलिटिकल एजेण्ट मोकमेसन की हत्या कर दी गई।
प्रश्न 9.
ताँत्या टोपे को राजस्थान के किस शासक ने सहायता दी?
उत्तर:
सलूम्बर के रावल केसरी सिंह ने ताँत्या टोपे को सहायता दी?
प्रश्न 10.
ताँत्या टोपे को दगाबाजी से पकड़ने वाला कौन था?
उत्तर:
ताँत्या टोपे को दगाबाजी से पकड़ने वाला नरवर का राजपूत जागीरदार मानसिंह था।
प्रश्न 11.
मेवाड़ के किस शासक ने क्रान्ति के समय अंग्रेजों का साथ दिया?
उत्तर:
मेवाड़ के महाराणा स्वरूप सिंह ने क्रान्ति के समय अंग्रेजों का साथ दिया।
प्रश्न 12.
राजस्थान में क्रान्ति की असफलता के क्या कारण थे?
उत्तर:
राजस्थान में क्रान्ति की असफलता के कारण थे-राजस्थान के शासकों में नेतृत्व का अभाव तथा समन्वय का अभाव।
प्रश्न 13.
ताँत्या टोपे की असफलता का प्रमुख कारण क्या था?
उत्तर:
ताँत्या टोपे की असफलता का प्रमुख कारण था-राजस्थान के शासकों का पूर्ण असहयोग तथा अपने ही साथी द्वारा विश्वासघात।
प्रश्न 14.
अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह का प्रमुख केन्द्र कहाँ था तथा वहाँ के किस शासक ने क्रान्तिकारियों को सहयोग दिया?
उत्तर:
आऊवा अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह का प्रमुख केन्द्र था। यहाँ के ठाकुर खुशाल सिंह ने क्रान्तिकारियों को महत्वपूर्ण सहयोग दिया।
प्रश्न 15.
1857 की क्रान्ति से पूर्व किस शासक ने ब्रिटिश विरोधी भावना प्रदर्शित की?
उत्तर:
1857 की क्रान्ति से पूर्व जोधपुर के शासक मानसिंह ने ब्रिटिश विरोधी भावना प्रदर्शित की।
प्रश्न 16.
राजस्थान में बढ़ाठे के जागीरदार इँग सिंह और जवाहर सिंह की लोकप्रियता का क्या कारण था?
उत्तर:
इँग जी व जवाहर जी दोनों ब्रिटिश छावनियों और सरकारी खजानों को लूटते थे और गरीबों की सहायता करते थे। इसलिए वे जनता में लोकप्रिय थे।
प्रश्न 17.
कोटा में किस ब्रिटिश अधिकारी की हत्या की गई?
उत्तर:
कोटा में ब्रिटिश अधिकारी मेजर बर्टन की हत्या की गई।
प्रश्न 18.
जयपुर के किस शासक ने इस क्रान्ति में अंग्रेजों की सहायता की?
उत्तर:
जयपुर के शासक रामसिंह ने इस क्रान्ति में अंग्रेजों की सहायता की।
प्रश्न 19.
1857 की क्रान्ति राजस्थान के किन राज्यों में सैनिक विद्रोह के रूप में प्रस्फुटित हुई?
उत्तर:
नसीराबाद और नीमच में यह क्रान्ति सैनिक विद्रोह के रूप में प्रस्फुटित हुई।
प्रश्न 20.
साहित्यकार चारणों – भाटों ने आऊवा ठाकुर की प्रशंसा में गीत किन भावनाओं के कारण लिखे?
उत्तर:
चारणों – भाटों ने आऊवा ठाकुर की प्रशंसा में गीत उसकी अंग्रेजी विरोधी भावनाओं के कारण लिखे थे।
प्रश्न 21.
मेवाड़ के महाराणा ने माल हाकिम हमीद हुसैन को बिजौलिया क्यों भेजा?
उत्तर:
बिजौलिया के जागीरदार द्वारा लगाई गयी गैर कानूनी लागतों की जाँच करने हेतु मेवाड़ के महाराणा ने माल हाकिम हुसैन को बिजौलिया भेजा।
प्रश्न 22.
विजय सिंह पथिक ने बिजौलिया किसान आन्दोलन का नेतृत्व क्यों स्वीकार किया?
उत्तर:
किसानों को अत्यधिक लगान से व्यथित देखकर विजय सिंह पथिक ने बिजौलिया किसान आन्दोलन का नेतृत्व स्वीकार किया।
प्रश्न 23.
‘पीवल’ और ‘बारानी’ भूमि से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
पीवल भूमि का अर्थ है- सिंचित भूमि और बारानी भूमि का अर्थ है- असिंचित भूमि।
प्रश्न 24.
सीकर का किसान आन्दोलन कैसे समाप्त हुआ?
उत्तर:
सीकर के राव राजा और किसानों में जयपुर राज्य के हस्तक्षेप से किसान आन्दोलन समाप्त हुआ।
प्रश्न 25.
डाबला – काण्ड क्या था? इसमें किस राजनीतिक दल ने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की?
उत्तर:
मारवाड़ के जागीरदारों के विरोध में 13 मार्च, 1947 को डाबला गाँव में ‘मारवाड़े लोक परिषद् के नेतृत्व में आयोजित किसानों की सभा में जागीरदार के आदमियों ने जुलूस पर आक्रमण कर बेरहमी से दमन – चक्र चलाया जिसे ‘डाबला काण्ड’ के नाम से जाना जाता है। इसमें मारवाड़ लोक परिषद् ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
प्रश्न 26.
भीलों को सामाजिक समुदाय में संगठित करने वाले कौन थे?
उत्तर:
सुर्जी भगत और गोविन्द गुरु ने भीलों को सामाजिक समुदाय में संगठित किया।
प्रश्न 27.
राजस्थान की दो प्रमुख जनजातियों के नाम लिखिए।
उत्तर:
राजस्थान की प्रमुख जनजातियाँ थीं- भील और मीणा।
प्रश्न 28.
भील आन्दोलन के प्रमुख नेताओं के नाम लिखिए।
उत्तर:
भील आन्दोलन के प्रमुख नेता थे-
- गोविन्द गुरु और मोतीलाल तेजावत।
प्रश्न 29.
बिजौलिया क्षेत्र के किसान किस जाति के थे?
उत्तर:
बिजौलिया क्षेत्र के किसान धाकड़ जाति के थे।
प्रश्न 30.
बिजौलिया आन्दोलन का उद्देश्य क्या था?
उत्तर:
बिजौलिया किसान आन्दोलन का उद्देश्य बिजौलिया के जागीरदार द्वारा किसानों पर लगाए गए भारी करों तथा विभिन्न लागतों तथा बेगार-प्रथा के विरुद्ध असन्तोष व्यक्त कर न्याय प्राप्त करना था।
प्रश्न 31.
धाकड़ किसानों के कौन – से दो नेता 1897 में किसानों की दुर्दशा को व्यक्त करने उदयपुर महाराणा के पास गए?
उत्तर:
धाकड़ किसानों के दो नेता – नानाजी पटेल और ठाकरी पटेल किसानों की दुर्दशा व्यक्त करने उदयपुर महाराणा के पास गए।
प्रश्न 32.
विजय सिंह पथिक का वास्तविक नाम क्या था?
उत्तर:
भूप सिंह।
प्रश्न 33.
विजय सिंह पथिक ने किस प्रकार बिजौलिया किसान आन्दोलन को समूचे देश में चर्चा का विषय बना दिया?
उत्तर:
कानपुर से प्रकाशित होने वाले समाचार – पत्र ‘प्रताप’ के माध्यम से।
प्रश्न 34.
गोविन्द गुरु ने भीलों को संगठित करने के लिए किस संस्था की स्थापना की?
उत्तर:
भीलों को संगठित करने के लिए गोविन्द गुरु ने ‘सम्प सभा’ की स्थापना की।
प्रश्न 35.
भीलों में राष्ट्रीय चेतना को फैलाने में अभूतपूर्व योगदान देने वाले व्यक्तियों के नाम लिखिए।
उत्तर:
विजय सिंह पथिक, माणिक्य लाल वर्मा तथा हरिभाऊ उपाध्याय ने भीलों में राष्ट्रीय चेतना फैलाने में अभूतपूर्व योगदान दिया।
प्रश्न 36.
1927 ई. में स्थापित ‘राजस्थान मध्य भारत सभा’ का मुख्य उद्देश्य क्या था?
उत्तर:
1927 ई. में स्थापित ‘राजस्थान मध्य भारत सभा’ का मुख्य उद्देश्य कांग्रेस की गतिविधियों से लोगों को अवगत कराना था।
प्रश्न 37.
राजस्थान में अखिल भारतीय देशी राज्य लोक – परिषद् की शाखाओं के नाम लिखिए।
उत्तर:
राजस्थान में अखिल भारतीय देशी राज्य लोक – परिषद् की शाखाओं के नाम थे-प्रजामण्डल या प्रजा परिषद् या लोक परिषद्।
प्रश्न 38.
मेवाड़ में प्रजामण्डल की स्थापना के बाद प्रथम अधिवेशन में क्या लक्ष्य रखा गया?
उत्तर:
मेवाड़ में प्रजामण्डल की स्थापना के बाद प्रथम अधिवेशन में राज्य में उत्तरदायी शासन स्थापित करने तथा जनता को नागरिक अधिकार दिए जाने का लक्ष्य रखा गया था।
प्रश्न 39.
दिसम्बर, 1927 ई. में ‘देशी राज्य लोक – परिषद्’ की स्थापना क्यों हुई?
उत्तर:
दिसम्बर, 1927 ई. में देशी राज्यों की जनता को एकसूत्र में बाँधने के लिए ‘देशी राज्य लोक – परिषद्’ की स्थापना हुई।
प्रश्न 40.
जयपुर प्रजामण्डल की स्थापना का उद्देश्य क्या था?
उत्तर:
जयपुर प्रजामण्डल की स्थापना का उद्देश्य जयपुर में उत्तरदायी सरकार की स्थापना, जनता के लिए मूलभूत अधिकारों की प्राप्ति तथा जयपुर राज्य का विकास करना था।
प्रश्न 41.
‘राजपूताना मध्य भारत सभा’ का अधिवेशन कहाँ व किसकी अध्यक्षता में हुआ?
उत्तर:
जमनालाल बजाज की अध्यक्षता में ‘राजपूताना मध्य भारत सभा’ का अधिवेशन अजमेर में हुआ।
प्रश्न 42.
‘कोटा राज्य प्रजामण्डल’ को प्रथम अधिवेशन कब और किसकी अध्यक्षता में हुआ?
उत्तर:
‘कोटा राज्य प्रजामण्डल’ को प्रथम अधिवेशन नयनूराम शर्मा की अध्यक्षता में माँगरोल में हुआ।
प्रश्न 43.
बीकानेर प्रजामण्डल की स्थापना कहाँ और किसने की?
उत्तर:
बीकानेर प्रजामण्डल की स्थापना बीकानेर में मघाराम वैद्य ने की।
प्रश्न 44.
1911 ई. में दिल्ली दरबार के समय मेवाड़ का महाराणा कौन था?
उत्तर:
1911 ई. में महाराणा फतह सिंह दिल्ली दरबार के समय में मेवाड़ का महाराणा था।
प्रश्न 45.
राजस्थान मध्य भारत सभा’ का गठन किन कार्यकर्ताओं ने मिलकर किया था?
उत्तर:
इस सभा का गठन सेठ जमनालाल बजाज, विजय सिंह पथिक आदि कार्यकर्ताओं ने मिलकर किया।
प्रश्न 46.
‘मारवाड़ हितकारिणी’ सभा की ओर से किन दो पुस्तिकाओं का प्रकाशन किया गया?
उत्तर:
ये हैं-
- मारवाड़ की अवस्था
- पोपाबाई की पोल।
प्रश्न 47.
अलवर राज्य में पंडित हरिनारायण शर्मा ने जनजातियों के उत्थान के लिए क्या – क्या कार्य किए?
उत्तर:
हरिनारायण शर्मा ने जनजातियों के उत्थान के लिए अस्पृश्यता संघ, वाल्मीकि संघ और आदिवासी संघ की स्थापना की तथा खादी का प्रचार एवं साम्प्रदायिक एकता के लिए कार्य कर जनता में जागृति पैदा की।
प्रश्न 48.
30 दिसम्बर, 1940 ई. को ‘प्रजा – परिषद्’ का पहला राजनीतिक सम्मेलन किसकी अध्यक्षता में हुआ?
उत्तर:
यह सम्मेलन जयनारायण व्यास की अध्यक्षता में हुआ।
प्रश्न 49.
अखिल भारतीय देशी राज्य लोक परिषद् के सातवें अधिवेशन की अध्यक्षता किसने की?
उत्तर:
इस अधिवेशन की अध्यक्षता जवाहरलाल नेहरू ने की।
प्रश्न 50.
प्रतापगढ़ में किसके नेतृत्व में उत्तरदायी मन्त्रिमण्डल का गठन किया गया?
उत्तर:
14 अगस्त, 1947 को प्रो. गोकुलदास असावा के नेतृत्व में उत्तरदायी मन्त्रिमण्डल का गठन किया गया।
प्रश्न 51.
सितम्बर, 1946 ई. अखिल भारतीय देशी राज्य लोक – परिषद् ने राजस्थान के सम्बन्ध में क्या निर्णय लिया था?
उत्तर:
सितम्बर, 1946 ई. में अखिल भारतीय देशी राज्य लोक परिषद् ने राजस्थान के सम्बन्ध में यह निर्णय लिया कि समस्त राजस्थान को एक इकाई के रूप में भारतीय संघ में सम्मिलित होना चाहिए।
प्रश्न 52.
राजस्थान की कौन – सी रियासत अपना स्वतन्त्र अस्तित्व रख सकती थी?
उत्तर:
राजस्थान में केवल उदयपुर, जोधपुर, जयपुर और बीकानेर ही ऐसी रियासतें थीं जो अपना स्वतन्त्र अस्तित्व रख सकती थीं।
प्रश्न 53.
राजस्थान व आन्दोलन समिति के अध्यक्ष श्री राममनोहर लोहिया ने क्या माँग की थी?
उत्तर:
श्री राममनोहर लोहिया ने जयपुर, जोधपुर, बीकानेर, जैसलमेर और मत्स्य संघ को संयुक्त राजस्थान में मिलाकर भारतीय संघ की एक सुदृढ़ इकाई में परिवर्तित करने की माँग की थी।
प्रश्न 54.
सरदार पटेल सिरोही को राजस्थान में क्यों नहीं मिलाना चाहते थे?
उत्तर:
श्री पटेल सिरोही को राजस्थान में इसलिए नहीं मिलाना चाहते थे क्योंकि गुजराती नेता सिरोही को गुजरात का अंग बनाना चाहते थे। सरदार पटेल भी स्वयं गुजराती थे और गुजराती नेताओं के प्रति उनकी सहानुभूति थी।
प्रश्न 55.
संयुक्त राजस्थान का महाराज प्रमुख कौन था?
उत्तर:
25 मार्च, 1948 को मेवाड़ के विलय से पूर्व संयुक्त राजस्थान के महाराज प्रमुख कोटा के महाराव भीम सिंह बने, परन्तु 18 अप्रैल, 1948 को मेवाड़ विलय के बाद संयुक्त राजस्थान के महाराज प्रमुख का पद मेवाड़ के महाराणा भूपाल सिंह को दिया गया।
प्रश्न 56.
वृहत् राजस्थान की राजधानी कौन – सी थी?
उत्तर:
30 मार्च, 1949 को बने वृहत् राजस्थान की राजधानी जयपुर थी।
प्रश्न 57.
रियासतों के एकीकरण का श्रेय किसे दिया जाता है?
उत्तर:
सरदार बल्लभ भाई पटेल को।
प्रश्न 58.
राजस्थान दिवस कब और क्यों मनाया जाता है?
उत्तर:
30 मार्च, 1949 के दिन को वृहत् राजस्थान का निर्माण पूरा होने के कारण राजस्थान दिवस के रूप में मनाया जाता है।
प्रश्न 59.
‘मत्स्य – संघ’ का निर्माण कब और किन राज्यों के विलय से हुआ?
उत्तर:
18 मार्च, 1948 को अलवर, भरतपुर, धौलपुर एवं करौली रियासतों के विलय से ‘मत्स्य – संघ’ का निर्माण हुआ।
प्रश्न 60.
‘मत्स्य – संघ’ की राजधानी क्या थी? इसके प्रधानमन्त्री कौन थे?
उत्तर:
मत्स्य – संघ की राजधानी ‘अलवर’ थी और इसके प्रधानमन्त्री श्री शोभाराम थे।
प्रश्न 61.
किस आधार पर राजस्थान के प्रथम संघ का नाम ‘मत्स्य – संघ’ रखा गया?
उत्तर:
महाभारत काल में इस क्षेत्र का नाम ‘मत्स्य जनपद’ था, उसी आधार पर इस क्षेत्र का नाम ‘मत्स्य – संघ’ रखा गया।
प्रश्न 62.
मेवाड़ के महाराणा ने विलय-पत्र पर हस्ताक्षर किए?
उत्तर:
मेवाड़ के महाराणा ने 11 अप्रैल, 1948 ई. को विलय-पत्र पर हस्ताक्षर किए।
प्रश्न 63.
जयपुर के राजा मानसिंह ने वृहत् राजस्थान में जयपुर रियासत के विलय के सम्बन्ध में क्या शर्त रखी?
उत्तर:
जयपुर के महाराज मानसिंह ने यह शर्त रखी कि जयपुर महाराजा को वृहत् राजस्थान का वंशानुगत राजप्रमुख बनाया जाए तथा जयपुर को भावी राजस्थान की राजधानी बनाया जाये।
RBSE Class 12 History Chapter 7 लघूत्तरात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
राजस्थान में 1857 की क्रान्ति की प्रमुख घटनाओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
जब भारत में 1857 को स्वतन्त्रता संग्राम फैला उस समय राजस्थान में एजेण्ट टू गवर्नर पेट्रिक लॉरेन्स थे। साथ ही साथ विभिन्न राज्यों में ब्रिटेन के रेजीडेण्ट भी नियुक्त किए जा चुके थे। उदाहरणतः उदयपुर में कैप्टन सी. एल. शॉवर्स, जयपुर में कैप्टन विलियम, ईडन, जोधपुर में कैप्टन मॉक मेसन, कोटा में मेजर बर्टन और भरतपुर में मेजर निक्सन थे। राजस्थान में मुख्यतः छः सैनिक छावनियाँ थीं। जो नसीराबाद, नीमच, देवली, कोटा, एरनपुरा और खेरवाड़ा आदि स्थानों पर स्थित थीं।
नीमच में बंगाल नेटिव आर्टेलरी, फर्स्ट बंगाल केवेलरी, बहत्तरर्वी बंगाल इन्फेन्टरी और सातवीं इन्फेन्टरी ग्वालियर नियुक्त थी। देवली और कोटा में भी इसी प्रकार कुछ ब्रिटिश टुकड़ियाँ तैनात थीं। इसके अतिरिक्त एरनपुरा, ब्यावर और खेरवाड़ा में भील टुकड़ियों के साथ – साथ फर्स्ट बंगाल केवेलरी भी नियुक्त थी। लेकिन इतना स्पष्ट है कि स्वतन्त्रता संग्राम के समय समूचे राजस्थान में एक भी यूरोपीय सिपाही तैनात नहीं था। यही कारण है कि जब राजस्थान में भी 1857 के स्वतन्त्रता संग्राम की आग फैली तो ब्रिटिश सरकार चिन्तित हो उठी।
प्रश्न 2.
1857 के स्वाधीनता संग्राम में दामोदरदास राठी का क्या योगदान है?
उत्तर:
राजस्थान के अग्रणी स्वतन्त्रता प्रेमियों में दामोदरदास राठी (1882-1918) का नाम लिया जाता है। ये उद्योगपति थे और राव गोपाल सिंह व अरविन्द घोष के सम्पर्क में रहे। उन्होंने ब्यावर में आर्य समाज व होमरूल आन्दोलन की शाखा खोली व एक सनातन धर्म शिक्षा संस्था की स्थापना की। तिलक की उग्र नीति के ये प्रबल समर्थक थे। सभी क्रान्तिकारी गतिविधि की विशेषता यह थी कि ये सामाजिक सुधार व शिक्षा के प्रसार के साथ-साथ समानान्तर रूप में चल रही थी।
प्रश्न 3.
1857 ई. की क्रान्ति में आऊवां के खुशाल सिंह के योगदान का वर्णन करो।
उत्तर:
1857 ई. के स्वाधीनता संग्राम में राजस्थान की जनता ने राष्ट्रभक्ति और अंग्रेज विरोधी भावना का प्रदर्शन किया तथा क्रांतिकारियों की सहायता की। राजस्थान के आऊवां (मारवाड़) के ठाकुर खुशाल सिंह का योगदान इस आन्दोलन में अविस्मरणीय है। 8 सितम्बर, 1857 ई. को आऊवां के ठाकुर की सशस्त्र सेनाओं ने विद्रोह कर दिया। ठाकुर खुशाल सिंह ने अंग्रेज रेजिडेन्ट माकमासन की गर्दन अलग कर उसे आऊवां के किले पर लटका दिया।
19 जनवरी, 1858 को कर्नल होल्मस के नेतृत्व में आऊवाँ किले पर घेरा डाल दिया गया तथा इस गाँव के 124 व्यक्तियों को बंदी बनाया गया तथा 24 जनवरी, 1858 को आऊवाँ पर ब्रिटिश सैनिकों का कब्जा हो गया। खुशाल सिंह ने इस क्रान्ति में अभूतपूर्व साहस को परिचय दिया लेकिन असहयोग के कारण विद्रोह सुव्यवस्थित तथा सफल नहीं हो सका।
प्रश्न 4.
1857 ई. के स्वाधीनता संग्राम में तात्या टोपे के राजस्थान आगमन की घटना का विवरण दीजिए।
उत्तर:
1857 ई. के स्वतंत्रता संग्राम में तात्या टोपे का राजस्थान आगमन एक महत्वपूर्ण घटना है। ग्वालियर में असफल होने पर तात्या टोपे सहायता प्राप्त करने हेतु लालसोट होते हुए टोंक आ गया। टोंक में सेना ने उसका समर्थन किया। यहाँ से वह सलूंबर चला गया। संलूबर के रावत ने उसकी सहायता की। अंग्रेजों को तांत्या टोपे ने 9 अगस्त, 1858 को हराया पाँच दिन बाद बनास नदी के तट पर पुनः तात्या टोपे की पराजय हुई।
इसके बाद तात्या टोपे हाड़ौती में आ गया तथा उसने झालरापाटन पर अधिकार कर लिया लेकिन सितम्बर माह में अंग्रेजों ने उसे दो बार हराया जिससे विक्श हो वह राजस्थान से चला गया। दिसम्बर 1858 ई. में तात्या टोपे पुनः राजस्थान आया तथा बांसवाड़ा से सलूंबर भीण्डर होते हुए जनवरी 1858 में टोंक पहुँचा तांत्या टोपे दौसा तथा सीकर भी गया। यहाँ अंग्रेजी सेनाओं ने उसे पराजित कर खदेड़ दिया। नरबर के जागीरदार मानसिंह के विश्वासघात के कारण तात्या टोपे को अंग्रेजों ने गिरफ्तार कर लिया तथा अप्रैल 1859 ई. को उसे फांसी दे दी। गई।
प्रश्न 5.
1857 की स्वतन्त्रता संग्राम की असफलता के क्या कारण थे?
उत्तर:
21 सितम्बर, 1857 को मुगल बादशाह बहादुरशाह उनकी पत्नी बेगम जीनत महल तथा उनके पुत्रों को बन्दी बनाकर रंगून भेज दिया गया। 1858 ई. के मध्य क्रान्ति की गतिविधि काफी धीमी हो चुकी थी। ताँत्या टोपे की गिरफ्तारी के साथ ही भारतीयों का प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम राजस्थान में समाप्त हो गया। राजस्थान में इस समय तीव्र ब्रिटिश विरोधी भावना दिखाई दी।
जनता ने अंग्रेजों के विरुद्ध घृणा का खुला प्रदर्शन किया। महाराणा से मिलने जाते समय उदयपुर की। जनता ने कप्तान शावर्स को खुलेआम गालियाँ दीं। विभिन्न रियासतों तथा वहाँ की जनता ने शासकों की नीति के विरुद्ध क्रान्तिकारियों का साथ दिया फिर भी राजस्थान में क्रान्ति असफल हो गई।
प्रश्न 6.
राजस्थान में क्रान्ति के प्रवाह को रोकने हेतु ब्रिटिश सरकार ने देशी राज्यों के प्रति किस नीति को परिवर्तित किया?
उत्तर:
राजस्थान के शासकों ने क्रान्ति के प्रवाह को रोकने हेतु बाँध का कार्य किया था। अंग्रेज शासकों ने यह समझ लिया कि भारत पर शासन की दृष्टि से देशी राजा उनके लिए उपयोगी हैं। अतः अब ब्रिटिश नीति में परिवर्तन किया गया। शासकों को सन्तुष्ट करने हेतु ‘गोद निषेध’ का सिद्धान्त समाप्त कर दिया गया। राजाओं की अंग्रेजी शिक्षा-दीक्षा का प्रबन्ध किया जाने लगा। उनकी सेवाओं के लिए उन्हें पुरस्कार तथा उपाधि दी गईं, ताकि उनमें ब्रिटिश ताज तथा पश्चिमी सभ्यता के प्रति आस्था में वृद्धि हो सके।
प्रश्न 7.
राजस्थान में किसान आन्दोलन के क्या कारण थे?
उत्तर:
बीसर्वी सदी के पूर्वार्द्ध तक राज्यों में अंग्रेजों का हस्तक्षेप और नियन्त्रण बढ़ता गया। अंग्रेजी सरकार को नियमित खिराज (कर) देने और बढ़ते खर्चे तथा आर्थिक शोषण की नीति से किसानों से परम्परागत सम्बन्ध में बदलाव आ गया। किसानों पर नयी लागतें थोप द तथा जबरदस्ती बेगार ली जाने लगी। शासकों और सामन्तों को बाहरी आक्रमणों का खतरा नहीं रहा।
अंग्रेजी नियन्त्रण से पश्चिमी प्रभाव पढ़ा। फलतः शासकों और सामन्तों की जीवन शैली में परिवर्तन आने लगा। उनके खर्चे बढ़ गए। अपनी विलासिता और सुख-सुविधाओं के लिए किसानों का आर्थिक शोषण बढ़ गया। किसानों में बढ़ते असन्तोष के परिणामस्वरूप संगठित किसान आन्दोलित हुए।
प्रश्न 8.
अलवर के किसान आन्दोलन पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
अलवर राज्य में भी जन – जागृति का प्रारम्भ किसान आन्दोलन से हुआ। जंगली सूअरों के उत्पात से दु:खी होकर राज्य के किसानों ने आन्दोलन चलाया। महाराजा ने समझौता करके सूअरों को मारने का आदेश दिया। बाद में राज्य के किसानों ने लगान वृद्धि के विरोध में नीमूचणा गाँव में सभा का आयोजन किया। सैनिकों ने गाँव छोड़कर जाने वाले लोगों पर गोलियाँ चलाईं जिसमें सैकड़ों स्त्री – पुरुष, बच्चे शहीद हो गए। महात्मा गाँधी ने नीमूचणा काण्ड का विरोध किया। अंग्रेजी शासन पर इस काण्ड का दबाव पड़ा और उन्होंने अलवर के महाराजा के साथ मिलकर किसानों से समझौता किया।
प्रश्न 9.
राजस्थान में हुए किसान आन्दोलन का महत्व बताइए।
उत्तर:
राजस्थान और राष्ट्रीय स्तर पर किसान आन्दोलन का अत्यधिक महत्व रहा। किसान आन्दोलनों ने शासकों और अंग्रेजी सरकार की दमनकारी नीति को देश के सामने रखा। राजनीतिक जन चेतना के विकास में योगदान दिया। सामन्ती व्यवस्था को समाप्त करने व प्रजातान्त्रिक शासन की भावना को बल मिला। किसानों व जनता के पक्ष में राष्ट्रीय नेताओं और कांग्रेस ने भी समर्थन किया।
प्रश्न 10.
भीलों की प्रकृति और उनके चरित्र का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
भील भारत की प्राचीनतम जातियों में से एक मानी जाती है। भीलों की उत्पत्ति को लेकर विभिन्न प्रकार की किंवदन्तियाँ प्रचलित हैं। बाणभट्ट कृत कादम्बरी के अनुसार ‘भील’ शब्द का उपयोग प्राचीन संस्कृत और अपभ्रंश – साहित्य में भी मिलता है। कथा – सरित्सागर में भील’ शब्द का उपयोग सम्भवतः सर्वप्रथम माना जाता है। कुछ विद्वानों के अनुसार ‘भील’ शब्द की उत्पत्ति ‘भिल्ला’ शब्द से हुई।
‘कर्नल टॉड इन्हें वन पुत्र’ अथवा ‘जंगली शिशु’ के नाम से पुकारता है। एक अन्य किंवदन्ती के अनुसार भील महादेव से उत्पन्न हुए हैं। कुछ भी हों, राजस्थान में भीलों का विशेष योगदान रहा है। महाराणा प्रताप की सेना में अधिकांश भील थे और उन्होंने मुगल आक्रमण से रक्षा करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया। यह एक बहुत ही सरल व निश्चल जाति है।
प्रश्न 11.
एक्की आन्दोलन के प्रवर्तक मोतीलाल तेजावत के बारे में आप क्या जानते हैं?
उत्तर:
1921 ई. में भीलों को मोतीलाल तेजावत का नेतृत्व प्राप्त हुआ। तेजावत ने भीलों को लगान व बेगार न देने के लिए प्रेरित किया। ऐक्की आन्दोलन के नाम से विख्यात इस आन्दोलन को जनजातियों के राजनीतिक जागरण का प्रतीक माना जा सकता है। डूंगरपुर के महारावल ने आन्दोलन फैल जाने के भय से सभी प्रकार की बेगारें अपने राज्य से समाप्त कर दीं।
जागीरी क्षेत्रों में भीलों को यह सुविधा न मिल पाने के कारण एक्की आन्दोलन संगठित रूप से तेजावत के नेतृत्व में भोमट क्षेत्र के अतिरिक्त सिरोही व गुजरात क्षेत्र में भी फैल गया। अंग्रेजी सरकार ने अब दमनात्मक नीति अपनाई। 7 अप्रैल, 1922 ई. को ईडर क्षेत्र में माल नामक स्थान पर मेजर सटन के अधीन मेवाड़ भील कोर ने गोलीबारी की। 3 जून, 1929 को ईडर राज्य ने तेजावत को गिरफ्तार कर मेवाड़ सरकार को सौंप दिया।
प्रश्न 12.
मीणा आन्दोलन के क्या कारण थे?
उत्तर:
1924 ई. में अंग्रेजी सरकार ने मीणाओं को जरायम पेशा कोम (जन्मजात अपराधी जाति) घोषित कर दिया। मीणा स्त्री – पुरुषों को प्रतिदिन पुलिस थाने पर जाकर हाजरी देनी पड़ती थी। आय के साधनों के अभाव में आर्थिक स्थिति खराब थी। छोटू लाल, महादेव, जवाहर रामं आदि ने ‘मीणा जाति सभा’ की स्थापना की तथा इसे अपमानजनक कानून को विरोध किया गया।
शिक्षा के लिए प्रचार-प्रसार किया। सामाजिक बुराइयों के विरुद्ध आवाज उठाई। मीणा सुधार समिति गठित की गई। श्रीमाधोपुर (सीकर जिला) में आन्दोलन हुआ। ठक्कर बापा के प्रयासों से जयपुर राज्य ने इस कानून को समाप्त कर दिया। कालान्तर में जरायम पेशा अधिनियम 1952 ई. में रद्द हो गया।
प्रश्न 13.
मेवाड़ प्रजामण्डल आन्दोलन का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
उत्तर:
राजस्थान में सर्वाधिक प्रतिष्ठित राज्य मेवाड़ था। कांग्रेस के हरिपुरा अधिवेशन के बाद माणिक्य लाल वर्मा व बलवन्त सिंह मेहता ने 24 अप्रैल, 1938 को मेवाड़ प्रजामण्डल की स्थापना की। इसे 11 मई, 1938 ई. को गैर-कानूनी घोषित कर दिया गया। अजमेर जाकर वर्माजी ने अपनी गतिविधियाँ जारी रखीं व मेवाड़ का वर्तमान शासन’ नामक पुस्तिका प्रकाशित करके शासन की कटु आलोचना की।
फरवरी, 1939 ई. में जब वे उदयपुर आये तो उन्हें बन्दी बनाकर पिटाई की गई। इस घटना की गाँधीजी ने 18 फरवरी, 1939 ई. के ‘हरिजन’ अंक में कड़ी भर्त्सना की। माणिक्य लाल वर्मा को दो वर्ष के कारावास की सजा सुनाई गई। बाद में 1941 ई. में मेवाड़ प्रजामण्डल पर लगी पाबन्दी हटा ली। परिणामस्वरूप राज्य भर में इसकी शाखाएँ स्थापित कर दी गईं।
प्रश्न 14.
कोटा प्रजामण्डल में जनजागृति के लिए नयनूराम शर्मा का क्या योगदान है?
उत्तर:
कोटा में जनजागृति का श्रेय पं. नयनूराम शर्मा को जाता है, जो राजस्थान सेवा संघ के सक्रिय सदस्य थे। पं. शर्मा ने बेगार विरोधी आन्दोलन चलाने के साथ 1934 ई. में हाड़ौती प्रजामण्डल की भी स्थापना की। 1939 ई. में उन्होंने पं. अभिन्न हरि के साथ मिलकर कोटा राज्य प्रजामण्डल की स्थापना की जिसका मुख्य उद्देश्य राज्य में उत्तरदायी प्रशासन की स्थापना करना था।
1941 ई. में पं. नयनूराम शर्मा की हत्या के बाद नेतृत्व पं. अभिन्न हरि के पास आ गया। 1942 ई. में वे गिरफ्तार कर लिए गए। प्रजामण्डल के कार्यकर्ताओं ने पुलिस को बैरकों में बन्द करके शहर कोतवाली पर कब्जा कर तिरंगा झण्डा फहराया।
प्रश्न 15.
एकीकरण के पूर्व राजस्थान की रियासतों की क्या स्थिति थी?
उत्तर:
15 अगस्त, 1947 को भारत स्वाधीन हुआ। परन्तु भारतीय स्वाधीनता अधिनियम 1947 की आठर्वी धारा के अनुसार ब्रिटिश सरकार की भारतीय देशी रियासतों पर स्थापित सर्वोच्चता पुनः देशी रियासतों को हस्तान्तरित कर दी गयी। इसका तात्पर्य था कि देशी रियासतें स्वयं इस बात का निर्णय करेंगी कि वह किस अधिराज्य में (भारत अथवा पाकिस्तान में) अपना अस्तित्व रखेंगी।
यदि कोई रियासत किसी अधिराज्य में शामिल न हो तो स्वतन्त्र राज्य के रूप में भी अपना अस्तित्व रख सकती थी। यदि ऐसा होने दिया जाता है तो भारत अनेक छोटे – छोटे खण्डों में विभक्त हो जाता एवं भारत की एकता समाप्त हो जाती। तत्कालीन भारत का राजनैतिक विभाग समाप्त कर दिया गया और 5 जुलाई, 1947 को सरदार वल्लभ भाई पटेल की अध्यक्षता में रियासत सचिवालय गठित किया गया।
प्रश्न 16.
राजस्थान गठन के प्रारम्भिक प्रयास किस प्रकार किए गए?
उत्तर:
स्वतन्त्रता प्राप्ति के समय राजस्थान में 22 छोटी – बड़ी रियासतें थीं। इसके अलावा अजमेर-मेरवाड़ा का छोटा-सा क्षेत्र ब्रिटिश शासन के अन्तर्गत था। इन सभी रियासतों तथा ब्रिटिश शासित क्षेत्र को मिलाकर एक इकाई के रूप में संगठित करने की अत्यन्त विकट समस्या थी। सितम्बर, 1946 ई. को अखिल भारतीय देशी राज्य लोक परिषद् ने निर्णय लिया था कि समस्त राजस्थान को एक इकाई के रूप में भारतीय संघ में शामिल होना चाहिए।
इधर भारत सरकार के रियासत सचिवालय ने निर्णय लिया कि स्वतन्त्र भारत में वे ही रियासतें अपना पृथक् अस्तित्व रख सकेंगी जिनकी आय एक करोड़ रुपये वार्षिक एवं जनसंख्या दस लाख या उससे अधिक हो। इस मापदण्ड में केवल चार रियासतें ही थीं। यहाँ की छोटी रियासतें यह अनुभव कर रही थीं कि स्वतन्त्र भारत में आपस में मिलकर स्वावलम्बी इकाइयाँ बनाने के अलावा कोई विकल्प नहीं है।
प्रश्न 17.
राजस्थानी राज्यों की प्रमुख रियासतों की क्या-क्या समस्याएँ थीं?
उत्तर:
स्वतन्त्रता के पश्चात् राजस्थानी राज्यों के रियासतों की निम्नलिखित समस्याएँ –
- स्वतन्त्रता एवं विभाजन के पश्चात् हुए साम्प्रदायिक झगड़े मुख्य कारण थे। अलवर व भरतपुर में मेव जाति की समस्या पुनः खड़ी हो गयी। गाँधीजी की हत्या में अलवर राज्य का नाम आने से भी अलवर राज्य विवादित था।
- जोधपुर की भौगोलिक और सामाजिक स्थिति अत्यन्त ही महत्वपूर्ण थी। पाकिस्तान की तरफ से जोधपुर को अपनी तरफ मिलाने की चर्चा भी गरम थी।
- मेवाड़ के महाराणा एवं जागीरदार वर्ग अपनी गौरवपूर्ण एवं ऐतिहासिक स्थिति के कारण संघ में विलय के इच्छुक थे।
- उधर बीकानेर भी सीमान्त राज्य होने के कारण भारत के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण प्रदेश था। यद्यपि भारत की संविधान निर्मात्री सभा में बीकानेर का प्रतिनिधित्व था, फिर भी शासक का मन स्वतन्त्र अस्तित्व बनाए रखने का ही था।
प्रश्न 18.
एकीकृत राजस्थान का गठन कितने चरणों में पूर्ण हुआ?
उत्तर:
एकीकृत राजस्थान का गठन निम्न पाँच चरणों में पूर्ण हुआ
- प्रथम चरण में ‘मत्स्य संघ’ का निर्माण किया गया। इस संघ में अलवर, भरतपुर, धौलपुर एवं करौली को शामिल किया गया।
- द्वितीय चरण में संयुक्त ‘राजस्थान’ का निर्माण किया गया जिसमें कोटा, बूंदी, झालावाड़, बाँसवाड़ा, प्रतापगढ़ और शाहपुरा शामिल किए गए।
- तृतीय चरण में मेवाड़ को संयुक्त राजस्थान में शामिल किया गया।
- चतुर्थ चरण में जोधपुर, बीकानेर और जैसलमेर राज्यों को संयुक्त राजस्थान में शामिल कर ‘वृहत् राजस्थान’ का निर्माण किया गया।
- पंचम चरण में ‘मत्स्य संघ’ को ‘वृहत् राजस्थान में शामिल किया गया।
प्रश्न 19.
मत्स्य संघ का निर्माण किस प्रकार हुआ?
उत्तर:
राजपूताना क्षेत्र के चार प्रमुख राज्य अलवर, भरतपुर, धौलपुर तथा करौली भौगोलिक, जातीय एवं आर्थिक दृष्टिकोण से एक जैसे थे। इन चार राज्यों के शासकों को 27 फरवरी, 1948 ई. को दिल्ली बुलाकर उनके समक्ष संघ का प्रस्ताव रखा गया जिसे सहर्ष स्वीकार कर लिया गया। श्री के. एम. मुंशी के सुझाव पर इस संघ का नाम मत्स्य संघ रखा गया। 18 मार्च, 1948 को इस संघ का उद्घाटन केन्द्रीय मंत्री एन. वी. गाडमिल ने किया।
संघ की जनसंख्या 18 लाख व वार्षिक आय 2 करोड़ रुपये थी। धौलपुर के महाराज उदयभान सिंह को राजप्रमुख नियुक्त कर एक मंत्रिमण्डल का गठन किया गया। शोभाराम (अलवर) को मत्स्य संघ का प्रधानमंत्री बनाया गया एवं संघ में शामिल चारों राज्यों में से एक-एक सदस्य लेकर मंत्रिमण्डल बनाया गया। गोपीलाल यादव (भरतपुर), मास्टर भोलानाथ (अलवर), डॉ. मंगल सिंह (धौलपुर) चिरंजीलाल शर्मा (करौली) ने शपथ ली।
प्रश्न 20.
मेवाड़ का संयुक्त राजस्थान में विलय किस प्रकार हुआ?
उत्तर:
संयुक्त राजस्थान के उद्घाटन के तीन दिन बाद संयुक्त राजस्थान में मेवाड़ विलय के प्रश्न पर वार्ता आरम्भ हुई। सर राममूर्ति ने भारत सरकार को महाराणा की प्रमुख तीन माँगों से अवगत कराया। पहली महाराणा को संयुक्त राजस्थान का वंशानुगत राज प्रमुख बनाया जाए, दूसरी उन्हें बीस लाख रुपये वार्षिक प्रिवीपर्स दिया जाए और तीसरी यह कि उदयपुर को संयुक्त राजस्थान की राजधानी बनाया जाए।
रियासत विभाग ने संयुक्त राजस्थान के शासकों से बात करके मेवाड़ को संयुक्त राजस्थान में विलय करने का निश्चय किया। महाराणा की सभी माँगें पूर्ण की गईं तथा 11 अप्रैल, 1948 को मेवाड़ ने विलये पत्र पर हस्ताक्षर किए।
प्रश्न 21.
जयपुर राज्य का वृहत् राजस्थान में किस प्रकार विलय हुआ?
उत्तर:
रियासत विभाग के सचिव श्री वी. पी. मेनन 11 जनवरी, 1949 को जयपुर गए एवं जयपुर महाराज से वार्ता की। जयपुर महाराज सवाई मानसिंह काफी हिचकिचाहट एवं समझाने – बुझाने के बाद वृहत् राजस्थान के लिए तैयार हुए किन्तु यह शर्त रखी.कि जयपुर महराजा को वृहत् राजस्थान का वंशानुगत राज प्रमुख बनाया जाए तथा जयपुर को भावी राजस्थान की राजधानी बनाया जाये। श्री मेनन ने विलय की शर्तों को काफी आनाकानी के बाद स्वीकृति दे दी। 14 जनवरी, 1949 को सरदार पटेल ने उदयपुर की एक आम सभा में वृहत् राजस्थान के निर्माण की घोषणा कर दी।
प्रश्न 22.
अजमेर मेरवाड़ा का विलय किस प्रकार हुआ?
उत्तर:
ब्रिटिश काल में अजमेर-मेरवाड़ा एक केन्द्र-शासित प्रदेश था। अखिल भारतीय देशी राज्य लोक परिषद् की राजपूताना प्रान्तीय सभा सदैव यह माँग कर रही थी कि वृहत् राजस्थान में प्रान्त के साथ-साथ अजमेर मेरवाड़ा का इलाका भी शामिल किया जाए। 1952 ई. के आम चुनावों के बाद अजमेर मेरवाड़ा में श्री हरीभाऊ उपाध्याय के नेतृत्व में कांग्रेस का मन्त्रिमण्डल बना।
चूँकि कांग्रेस का यह नेतृत्व अजमेर को राजस्थान में मिलाये जाने के कभी पक्ष में नहीं था और अब अजमेर – मेरवाड़ा में मन्त्रिमण्डल के गठन के बाद तो कांग्रेस का नेतृत्व यह तर्क देने लगा कि प्रशासन की दृष्टि से इसे छोटे राज्य ही बनाये रखना चाहिए।
इस प्रकरण को भी राज्य पुनर्गठन आयोग को सौंप दिया गया। आयोग ने कांग्रेस नेताओं के तर्क को अस्वीकृत करते हुए सिफारिश की कि अजमेर-मेरवाड़ा का क्षेत्र राजस्थान में मिला देना चाहिए। तद्नुसार 1 नवम्बर, 1956 ई. को सिरोही के माउण्टआबू वाले क्षेत्र के साथ-साथ अजमेर-मेरवाड़ा को भी राजस्थान में मिला दिया गया।
प्रश्न 23.
एकीकृत राजस्थान में राजतन्त्र के अन्तिम अवशेषों की समाप्ति किस प्रकार हुई?
उत्तर:
एकीकृत राजस्थान के निर्माण के बाद भी राजतन्त्र के अन्तिम अवशेष के रूप में राजप्रमुख के नव सृजित पद रह गए थे। प्रथम श्रेणी के राज्यों के प्रमुख राज्यपाल (गवर्नर) कहलाते थे, जबकि दूसरी श्रेणी के राज्यों के प्रमुख ‘राजप्रमुख कहलाते थे। राज्यपाल और राजप्रमुख दोनों की नियुक्तियाँ राष्ट्रपति ही करते थे, किन्तु राजप्रमुख की नियुक्ति सम्बन्धित राज्य में विलीन रियासतों के पूर्व शासकों में से ही की जाती थी।
भारत की नवनिर्वाचित संसद ने संविधान के सातवें संशोधन द्वारा 1 नवम्बर, 1956 ई. को राजप्रमुख के पद समाप्त कर दिए एवं राज्य के प्रथम राज्यपाल के रूप में सरदार गुरुमुख निहाल सिंह को शपथ दिलाई गई। इस प्रकार सरदार पटेल की चतुराई, बुद्धिमत्ता एवं कुशल नीति से राजस्थानी शासकों की अनिच्छाओं पर जनमत के प्रभावशाली दबाव से राजस्थान के एकीकरण का स्वप्न साकार हो गया।
RBSE Class 12 History Chapter 7 निबन्धात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
राजस्थान में जनजागृति के क्या कारण थे?
उत्तर:
भूमिका:
व्यापार के बहाने ईस्ट इण्उिया कम्पनी भारत आई, उसके साथ अन्य यूरोपीय जातियाँ भी आईं किन्तु अंग्रेजों को अधिक सफलता मिली। अंग्रेजों को एक लाभ यह मिला कि मुगल बादशाह औरंगजेब की मृत्यु के बाद भारत छोटे-छोटे राज्यों एवं रियासतों में बँट गया। यह छोटे – छोटे राज्य आपस में लड़ते रहते थे।
राजाओं की आपसी फूट का लाभ उठाकर ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने भारत पर अपना शासन स्थापित कर लिया। लॉर्ड डलहौजी के शासन काल में देशी रियासतों में अंग्रेज रेजीडेण्ट का प्रभाव बढ़ गया और रेजीडेण्ट सुरक्षा, कर्ज तथा दत्तक पुत्र का बहाना बनाकर देशी रियासतों को हड़पने लगे। इससे नाराज होकर कई राजा एवं जागीदार भी अंग्रेजी शासन को समाप्त करने के लिए तत्पर हो उठे।
अखिल भारतीय स्तर पर जहाँ 1857 ई. में क्रान्ति का बिगुल बज उठा तो उसमें मंगल पाण्डे, झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई व ताँत्या टोपे जैसे क्रान्तिकारियों ने हुंकार भरी। उसी ज्वाला की एक चिंगारी राजस्थान में भी भड़क उठी तथा राज्य की जनता ने उत्साह के साथ क्रान्तिकारियों को क्रान्ति में सहयोग दिया।
राजस्थान में जन जागृति के कारण
किसी भी देश में राजनैतिक चेतना आकस्मिक घटना का परिणाम नहीं होती। इसके लिए दीर्घकाल तक साधना और प्रयत्न करने पड़ते हैं। इस नव राजनीतिक चेतना के कुछ प्रेरक तत्व निम्न प्रकार हैं
(1) स्वामी दयानन्द सरस्वती व उनको प्रभाव:
आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानन्द सरस्वती स्वदेशी व स्वराज्य का शंख फैंकने वाले पहले समाज सुधारक थे। 1865 ई. में वे करौली, जयपुर व अजमेर आये। उन्होंने स्वधर्म, स्वदेशी, स्वभाषा व स्वराज्य का सूत्र दिया जिसे शासक व जनता ने सहर्ष अनुमोदित किया। 1888 – 1890 ई. के बीच आर्य समाज की शाखाएँ राजस्थान में स्थापित की गईं एवं ‘वैदिक मन्त्रालय’ नामक छापाखाना अजमेर में स्थापित किया गया। 1883 ई. में स्वामी जी ने उदयपुर में ‘परोपकारिणी सभा’ की स्थापना की, जो बाद में अजमेर स्थानान्तरित हो गई। इस प्रकार स्वराज्य के लिए प्रेरणा देने का प्रारम्भिक कार्य आर्य समाज ने किया।
(2) समाचार – पत्रों व साहित्य का योगदान:
राजनीतिक चेतना के प्रसार में समाचार-पत्रों का योगदान उल्लेखनीय है। 1885 ई. में राजपूताना गजट, 1889 ई. में राजस्थान समाचार, प्रारम्भिक समाचार-पत्र थे। 1920 ई. में पथिक ने राजस्थान केसरी’ का प्रकाशन आरम्भ किया, जिसने अंग्रेजी नीतियों के खिलाफ अपना स्वर ऊँचा किया।
1922 ई. में राजस्थान सेवा संघ ने ‘नवीन राजस्थान’ नामक अखबार निकाला, जिसने कृषक आन्दोलनों के पक्ष में आवाज उठाई। 1943 ई. में नवज्योति, 1939 ई. में नवजीवन, 1935 ई. में जयपुर समाचार, 1943 ई. में ‘लोकवाणी’ इत्यादि समाचार-पत्रों ने राष्ट्रीय स्तर पर राजस्थान की समस्याओं व आन्दोलनों का खुलासा किया व इनके लिए राष्ट्रीय सहमति बनाई।
इसी प्रकार ठाकुर केसरी सिंह बारहठ, जयनारायण व्यास, पं. हीरालाल शास्त्री की कविताओं में देश-प्रेम अपनी चरम सीमा पर परिलक्षित होता है। अर्जुन लाल सेठी की कृतियों ने वैचारिक क्रान्ति उत्पन्न की। इस सन्दर्भ में महाकवि सूर्यमल्ल मिश्रण द्वारा रचित ‘वीर सतसई’ का उद्धरण विस्मृत नहीं किया जा सकता है जिसमें वीर रस व स्वदेश प्रेम का अनूठी सम्मिश्रण है।
(3) मध्य वर्ग की भूमिका:
यद्यपि राजस्थान का साधारण मनुष्य भी विद्रोह की सामर्थ्य रखता था, फिर भी एक योग्य नेतृत्व उसे मध्य वर्ग से ही मिला जो आधुनिक शिक्षा प्राप्त था। यह नेतृत्व शिक्षक, वकील व पत्रकार वर्ग से आया। जयनारायण व्यास, मास्टर भोलानाथ, मेघराम वैद्य, अर्जुन लाल सेठी, विजय सिंह पथिक आदि इसी मध्यम वर्ग के प्रतिनिधि थे।
(4) प्रथम विश्व युद्ध का प्रभाव:
राजस्थान के लगभग सभी राज्यों की सेनाओं ने प्रथम विश्व युद्ध में भाग लिया। जो सैनिक लौटकर आये उन्होंने अपने अनुभव बाँटे। नई वैचारिक क्रान्ति से राजस्थान के लोगों को परिचित कराया। दूसरी ओर युद्ध का समस्त भार भारतीय जनता द्वारा अंग्रेज सत्ता को कर चुका कर उठाना पड़ा और परिणामस्वरूप असन्तोष का भाव अधिक पनपने लगा।
(5) बाह्य वातावरण का प्रभाव:
राजस्थान शेष भारत में चल रही राजनीतिक गतिविधियों से अनभिज्ञ नहीं था। राष्ट्रीय स्तर के नेताओं व उनके कार्यक्रमों का प्रभाव यहाँ भी पड़ा। जहाँ एक ओर हरिभाऊ उपाध्याय व जमनालाल बजाज जैसे लोग गाँधीवादी नीतियों का अनुसरण कर रहे थे, वहीं रास बिहारी बोस के विचारों से प्रेरित अर्जुनलाल सेठी, गोपाल सिंह खरवा व बारहठ परिवार भी स्वतन्त्रता की अलख जगा रहे थे।
प्रश्न 2.
राजस्थान में 1857 ई. की क्रान्ति की असफलता के कारण और परिणामों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
भूमिका:
21 सितम्बर, 1857 ई. को मुगल बादशाह, उनकी बेगम जीनतमहल तथा उनके पुत्रों को बन्दी बनाकर रंगून भेज दिया गया। 1858 ई. के मध्य में क्रान्ति की गति काफी धीमी हो चुकी थी। ताँत्या टोपे की गिरफ्तारी के साथ ही भारतीयों का प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम राजस्थान में समाप्त हो गया।
राजस्थान में इस समय तीव्र ब्रिटिश विरोधी भावना दिखाई दी। जनता ने अंग्रेजों के विरुद्ध घृणा का खुला प्रदर्शन किया। महाराणी से मिलने जाते समय उदयपुर की जनता ने कप्तान शावर्स को खुलेआम गालियाँ दीं। जोधपुर की सेना ने कप्तान सदरलैण्ड के स्मारक पर पत्थर बरसाए। कोटा, भरतपुर, अलवर तथा टोंके की जनता ने शासकों की नीति के विरुद्ध क्रान्तिकारियों का साथ दिया। फिर भी राजस्थान में क्रान्ति असफल हुई। इस क्रान्ति की असफलता के निम्नलिखित कारण थे-
(1) नेतृत्व का अभाव:
राजस्थान उन्नीस रियासतों में विभाजित था। अनेक स्थानों पर क्रान्ति होने पर भी विद्रोहियों का कोई सर्वमान्य नेतृत्व नहीं था। राजपूत शासकों ने मेवाड़ के महाराणा से सम्पर्क किया, किन्तु महाराणा ने इस सम्बन्ध में समस्त पत्र-व्यवहार अंग्रेजों को सौंप दिया। मारवाड़ के सामन्तों तथा सैनिकों ने मुगल बादशाह के नेतृत्व में संघर्ष का प्रयास किया। किन्तु मुगल बादशाह दिल्ली से बाहर राजस्थान में नेतृत्व प्रदान नहीं कर सका। फलतः क्रान्तिकारी एकजुट होकर संघर्ष नहीं कर सके तथा उन्हें असफल होना पड़ा।
(2) समन्वय का अभाव:
राजस्थान में क्रान्ति का प्रस्फुटन अनेक स्थानों पर हुआ। लेकिन क्रान्तिकारियों के बीच समन्वय का अभाव था। नसीराबाद, नीमच, आऊवा तथा कोटा के क्रान्तिकारियों में सम्पर्क तथा तालमेल नहीं था। यही कारण है कि भारतीयों को सफलता प्राप्त नहीं हुई।
(3) रणनीति का अभाव:
क्रान्तिकारियों के प्रयास योजनाबद्ध नहीं थे। विद्रोह के पश्चात् उनमें बिखराव आता चला गया। दूसरी ओर अंग्रेजों ने योजनाबद्ध ढंग से क्रान्तिकारियों की शक्ति को नष्ट किया। अंग्रेजी सेनाओं का नेतृत्व कुशल सैन्य अधिकारी कर रहे थे। उनकी रसद तथा हथियारों की आपूर्ति सम्पूर्ण भारत से हो रही थी, जबकि क्रान्तिकारी सैनिकों के पास साधनों का अभाव था। उदाहरणार्थ कोटा तथा धौलपुर के शासकों की क्रान्ति को दबाने के लिए अंग्रेजों के अतिरिक्त करौली तथा पटियाला से सहायता दी गई थी।
(4) शासकों का असहयोग:
राजस्थान के शासकों का सहयोग नहीं मिलना भी असफलता का प्रमुख कारण था। यही नहीं, राजस्थान के अधिकांश शासकों ने न केवल राजस्थान बल्कि राजस्थान के बाहर भी अंग्रेजों को पूर्ण सहायता प्रदान की। शासकों की इस अदूरदर्शी नीति ने उखड़ी हुई ब्रिटिश सत्ता की पुनस्र्थापना में महत्वपूर्ण योगदान दिया।
स्वतन्त्रता संग्राम के परिणाम
राजस्थान में 1857 का स्वतन्त्रता संग्राम उपरोक्त सभी कारणों से असफल हो गया। इस स्वतन्त्रता संग्राम के परिणाम दूरगामी थे। इस क्रान्ति ने अंग्रेजों की इस धारणा को निराधार सिद्ध कर दिया कि मुगलों एवं मराठे की लूट से त्रस्त राजस्थान की जनता ब्रिटिश शासन की समर्थक है। 1857 ई. की क्रान्ति के निम्नलिखित परिणाम हुए-
(1) देशी राज्यों के प्रति नीति परिवर्तन:
राजस्थान के शासकों ने क्रान्ति के प्रवाह को रोकने के लिए बाँध का कार्य किया था। अंग्रेज शासकों ने यह समझ लिया कि भारत पर शासन की दृष्टि से देशी राजा उनके लिये उपयोगी हैं। अतः अब ब्रिटिश नीति में परिवर्तन किया गया। शासकों को सन्तुष्ट करने हेतु ‘गोद निषेध’ का सिद्धान्त समाप्त कर दिया गया। राजाओं की अंग्रेजी शिक्षा – दीक्षा का प्रबन्ध किया जाने लगा। उनकी सेवाओं के लिए उन्हें पुरस्कार तथा उपाधियाँ दी गईं, ताकि उनमें ब्रिटिश ताज तथा पश्चिमी सभ्यता के प्रति आस्था में वृद्धि हो सके।
(2) सामन्तों की शक्ति नष्ट करना:
विद्रोह काल में सामन्त वर्ग ने अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष किया। फलतः समाप्ति के बाद अंग्रेजों ने सामन्त वर्ग की शक्ति समाप्त करने की नीति अपनाई। सामन्तों द्वारा दी जाने वाली सैनिक सेवा के बदले नकद राशि ली जाने लगी। फलतः सामन्तों को अपनी सेनाएँ भंग करनी पड़ीं। सामन्तों से न्यायालय शुल्क लिया जाने लगा।
उनके न्यायायिक अधिकार छीन लिए गए, उनका राहदानी शुल्क वसूली का अधिकार भी समाप्त कर दिया गया। ऐसे कानून बनाए गए जिनसे व्यापारी वर्ग अपना ऋण न्यायालय द्वारा वसूल कर सके। इस नीति के फलस्वरूप व्यापारी वर्ग तथा जनता पर सामन्तों का प्रभाव समाप्त होने लगा।
(3) नौकरशाही में परिवर्तन:
सभी राज्यों के प्रशासन में महत्वपूर्ण पदों पर सामन्तों का अधिकार था। क्रान्ति के बाद सभी शासकों ने सामन्तों को शक्तिहीन करने तथा प्रशासन पर अपना नियन्त्रण बढ़ाने के लिए नौकरशाही में अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त, अनुभवी एवं स्वामिभक्त व्यक्तियों को नियुक्ति प्रदान की। इसके फलस्वरूप राजभक्त, अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त मध्यम वर्ग का विकास हुआ।
(4) यातायात के साधन:
संघर्ष के समय में अंग्रेजों की सेनाएँ एक स्थान से दूसरे स्थान पर भेजने में कठिनाई का सामना करना पड़ा। विद्रोह के पश्चात् सैनिक तथा व्यापारिक हितों को ध्यान में रखते हुए यातायात के साधनों का विकास किया गया। नसीराबाद, नीमच तथा देवली को अजमेर तथा आगरा से सड़कों द्वारा जोड़ दिया गया। रेल कम्पनियों को रेल मार्ग निर्माण हेतु प्रोत्साहित किया गया। अंग्रेज सरकार ने देशी राज्यों पर भी सड़कों तथा रेलों के निर्माण हेतु दबाव डाला, इसके फलस्वरूप यातायात के साधनों का त्वरित विकास हुआ।
(5) सामाजिक परिवर्तन:
अंग्रेजी सरकार ने अंग्रेजी शिक्षा पद्धति का विस्तार किया। दूसरी ओर अंग्रेजी शिक्षा को महत्व बढ़ जाने के फलस्वरूप मध्यम वर्ग का विकास हुआ। इस वर्ग ने अंग्रेजी शिक्षा लेकर अन्य क्षेत्रों में महत्वपूर्ण योगदान प्रदान किया। अंग्रेजों ने अपने व्यापारिक स्वार्थों के कारण वैश्य वर्ग को संरक्षण प्रदान किया। कालान्तर में ब्राह्मण तथा राजपूत वर्ग का प्रभाव कम होता चला गया।
मेयो कॉलेज के माध्यम से राजपरिवारों को पाश्चात्य विचारों व विलासिता में ढाला गया। अंग्रेज प्रत्येक ठिकानेदार से निश्चित कर व सैन्य खर्च लेते थे, पूर्व में अकोल आदि की स्थिति में अब कर माफ करना सम्भव नहीं था, अतः जनता से कर वसूली का दबाव बनाया।
प्रश्न 3.
मारवाड़ और अलवर के किसान आन्दोलनों की विवेचना कीजिए।
अथवा
राजस्थान के प्रमुख किसान आन्दोलनों की विवेचना कीजिए।
अथवा
सीकर और शेखावटी किसान आन्दोलन की विवेचना कीजिए।
उत्तर:
1. मारवाड़ में किसान आन्दोलन:
मरुभूमि होने के कारण यहाँ के भूमि बन्दोबस्त पर कृषकों व प्रशासकों का अधिक ध्यान नहीं था। किन्तु कृषकों की समस्याओं के प्रति अन्य राज्यों की अपेक्षा यहाँ राजनीतिक चेतना अधिक जागृत थी। मारवाड़ हितकारिणी सभा के माध्यम से कृषकों की समस्याओं के प्रति सक्रिय जनमत तैयार हुआ। 1936 में जब राज्य सरकार ने 119 प्रकार की लागतों की समाप्ति की घोषणा की तो कृषकों ने इन्हें जागीरी क्षेत्रों से भी खत्म करवाने का प्रयास किया।
1939 ई. में मारवाड़ लोक परिषद ने किसानों की माँगों का समर्थन किया और किसानों को जागीरदार के विरुद्ध आन्दोलन करने के लिए प्रोत्साहित किया। 1941 ई. में परिषद् ने एक समिति नियुक्ति करके ‘लाग’ व ‘बेगारों’ पर अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करने को कहा। किसानों का आन्दोलन कमजोर करने के लिए मारवाड़ किसान सभा’ नामक एक समानान्तर सभा जून 1941 ई. में गठित की गई। किन्तु इस प्रकार का उद्देश्य सफल नहीं हो पाया। 1941-42 ई. में जाट कृषक सुधारक सभा द्वारा राज्य सरकार से लागू करवाने व लगान कम करवाने के लिए सभाएँ कीं।
रामदेवरा व नागौर मेलों जैसे धार्मिक उत्सवों का लाभ उठाते हुए संघर्ष करने के लिए किसानों को प्रेरित किया गया। इस आन्दोलन की चर्चा सम्पूर्ण भारत में होने लगी। ‘हरिजन’ समाचार – पत्र में राज्य की आलोचना छपने के बाद दिसम्बर, 1943 ई. में दरबार ने जागीरों में भूमि बन्दोबस्त के आदेश दिए। इसका विरोध जागीरदारों ने किया व किसानों पर अत्याचार बढ़ा दिए। फलस्वरूप अब आन्दोलन ने जागीरदारों के ही उन्मूलन पर ध्यान केन्द्रित कर लिया।
जागीरदारों ने किसान सभाओं व लोक परिषद् के कार्यकर्ताओं पर क्रूर व पाशविक अत्याचार आरम्भ किये और इसकी पराकाष्ठा डाबरा काण्ड के रूप में हुई, जहाँ 13 मार्च, 1947 को पुलिस ने परिषद् कार्यकर्ताओं व किसानों के शान्तिपूर्ण जुलूस पर हमला कर दिया। इस काण्ड की चारों ओर भर्त्सना की गई, पर राज्य सरकार ने दोषियों को दण्डित करने के स्थान पर कृषकों व लोकपरिषद् के कार्यकर्ताओं को ही दोषी ठहराया। इस गम्भीर समस्या का समाधान भी स्वतन्त्रता पश्चात् ही हो पाया। मारवाड़ में किसानों का नेतृत्व सर्वश्री जयनारायण व्यास, राधाकृष्णन तात आदि जैसे जुझारू नेताओं ने किया।
2. अलवर का किसान आन्दोलन (नीमूचणा काण्ड):
अलवर राज्य में भी जन जागृति का प्रारम्भ किसान आन्दोलन से हुआ। जंगली सूअरों के उत्पात से दु:खी होकर राज्य के किसानों ने आन्दोलन चलाया। महाराजा ने समझौता करके सूअरों को मारने का आदेश दिया। बाद में राज्य के किसानों ने लगान वृद्धि के विरोध में नीमूचणा गाँव में सभा का आयोजन किया।
सैनिकों ने गाँव छोड़कर जाने वाले लोगों पर गोलियाँ चलाईं जिसमें सैकड़ों स्त्री-पुरुष, बच्चे शहीद हो गए। महात्मा गाँधी ने नीमूचणा काण्ड का विरोध किया। अंग्रेजी शासन पर इस काण्ड का दबाव पड़ा और उन्होंने अलवर के महाराजा के साथ मिलकर किसानों से समझौता किया। इसके अलावा मारवाड़, शेखावटी, जयपुर एवं हाड़ौती के किसानों ने भी राज्य में होने वाले अत्याचारों का विरोध किया।
3. सीकर वे शेखावटी में किसान आन्दोलन:
बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में राजस्थान के अन्य इलाकों की भाँति सीकर ठिकाने के किसान भी जुल्मों से त्रस्त थे। किसानों की भूमि का कोई लेखा – जोखा नहीं रखा जाता था। लगान निर्धारण का कोई उचित पैमाना नहीं था, लगान की दरें काफी ज्यादा र्थी। अकाल की स्थिति व फसलों के खराब होने पर भी लगान वसूली में किसान की स्थिति का कोई ख्याल नहीं रखा जाता था। लगान के अतिरिक्त किसानों से अनेक प्रकार की लाग-बाट और बेगार ली जाती थी।
किसान आन्दोलन का प्रारम्भ सीकर ठिकाने के राव राजा कल्याण सिंह द्वारा पच्चीस से पचास प्रतिशत तक भू-राजस्व वृद्धि करने से हुआ व 1923 ई. में वर्षा कम होने पर भी नयी दर से लगान वसूली की। राजस्थान सेवा संघ के मन्त्री रामनारायण चौधरी के नेतृत्व में किसानों ने इसके विरुद्ध आवाज उठाई। 1931 ई. में ‘राजस्थान जाट क्षेत्रीय सभा’ की स्थापना के बाद किसान आन्दोलन को नई ऊर्जा मिली।
किसानों को धार्मिक आधार पर संगठित करने के लिए ठाकुर देशराज ने पलथाना में एक सभा कर ‘जाट प्रजापति महायज्ञ’ करने का निश्चय किया। वसन्त पंचमी 20 जनवरी, 1934 को सीकर में यज्ञाचार्य पं. खेमराज शर्मा की देख – रेख में यह यज्ञ आरम्भ हुआ। यज्ञ की समाप्ति के बाद किसान यज्ञपति पं. हुक्म सिंह को हाथी पर बैठाकर जुलूस निकालना चाहते थे किन्तु राव राजा कल्याण सिंह और ठिकाने के जागीरदार इसके विरुद्ध थे। इससे लोगों में जागीरदारों के प्रति रोष उत्पन्न हुआ और माहौल तनावपूर्ण हो गया।
प्रसिद्ध किसान नेता छोटूराम ने जयपुर महाराजा को तार द्वारा सूचित किया कि एक भी किसान को कुछ हो गया तो अन्य स्थानों पर भारी नुकसान होगा और जयपुर राज्य को गम्भीर परिणाम भुगतने पड़ेंगे। अन्ततः किसानों की जिद के आगे सीकर ठिकाने को झुकना पड़ा और स्वयं दिकाने ने जुलूस के लिए सजा – सजाया हाथी प्रदान किया। सात दिन तक चलने वाले इस यज्ञ कार्यक्रम में स्थानीय लोगों सहित उत्तर प्रदेश, पंजाब, लुहारू, पटियाला और हिसार जैसे स्थानों से लगभग तीन लाख लोग उपस्थित हुए।
सीकर किसान आन्दोलन में महिलाओं की महत्वपूर्ण भूमिका रही। सिहोट के ठाकुर मानसिंह द्वारा सोतिया का बास नामक गाँव में किसान महिलाओं के साथ किए गए दुर्व्यवहार के विरोध में 25 अप्रैल, 1934 ई. को कटराथल नामक स्थान पर श्रीमती किशोरी देवी की अध्यक्षता में एक विशाल महिला सम्मेलन का आयोजन किया गया। सीकर ठिकाने ने उक्त सम्मेलन को रोकने के लिए धारा 144 लगा दी।
इसके बावजूद कानून तोड़कर महिलाओं का यह सम्मेलन हुआ। इस सम्मेलन में लगभग दस हजार महिलाओं ने भाग लिया जिसमें श्रीमती दुर्गा देवी शर्मा, श्रीमती फूला देवी, श्रीमती रमाबाई जोशी, श्रीमती उत्तमा देवी आदि प्रमुख थीं। 25 अप्रैल, 1935 को जब राजस्व अधिकारियों को दल लगान वसूल करने के लिए कूदन गाँव पहुँचा तो एक वृद्ध महिला धापी दादी द्वारा उत्साहित किए जाने पर किसानों ने संगठित होकर लगान देने से इन्कार कर दिया।
पुलिस द्वारा किसानों के विरोध का दमन करने के लिए गोलियाँ चलाई गईं जिसमें चार किसान – चेतराम, टीकूराम, तुलछाराम तथा आशाराम शहीद हुए और 175 को गिरफ्तार किया गया। इस वीभत्स हत्याकाण्ड के बाद सीकर किसान आन्दोलन की पूँज ब्रिटिश संसद में भी सुनाई दी। जून, 1935 ई. में जब इस पर हाऊस ऑफ कामन्स में प्रश्न पूछा गया तो जयपुर के महाराजा पर मध्यस्थता के लिए दबाव पड़ा और जागीदार को समझौते के लिए विवश होना पड़ा।
1935 ई. के अन्त तक किसानों की अधिकांश माँगें स्वीकार कर ली गईं। आन्दोलन का नेतृत्व करने वाले प्रमुख नेताओं में सरदार हरलाल सिंह, नेतराम सिंह, गौरीर, पृथ्वीसिंह गोठड़ा, पन्ने सिंह वाटड़ानाऊ, हरूसिंह पलथाना, गोरू सिंह कटराथले, ईश्वर सिंह भैरूपुरा, लेखराम कसवाली आदि शमिल थे।
4. शेखावटी आन्दोलन:
यह आन्दोलन सीकर कृषक आन्दोलनकारी विस्तार था। यहाँ के पाँच ग्राम समूह (पंच पाने) बिसाऊ, डॅडलोद, मल्सीसर, मण्डावा व नवलगढ़ ठिकाने राज्य प्रशासन की अकर्मण्यता, व 1929 – 30 ई. की विश्वव्यापी आर्थिक मन्दी के कारण त्रस्त थे। इनकी समस्याओं का समर्थन अखिल भारतीय जाट महासभा ने झुन्झुनू के अपने वार्षिक सम्मेलन में किया जिससे किसानों को नैतिक बल मिला। उचित सुनवाई न होने के कारण किसानों ने लगान न देने का फैसला किया।
1934 ई. व 1936 ई. में कुछ समझौतों की रूपरेखा तो बनी पर जागीरदारों के विरोध के कारण क्रियान्वित नहीं हो सकी। 1938 ई. में जयपुर प्रजामण्डल ने भी इस आन्दोलन को नैतिक समर्थन दिया। 1942-46 ई. के मध्य जयपुर राज्य दोनों पक्षों की सन्तुष्टि के लिए विभिन्न समझौते लागू करने का प्रयत्न करता रहा, पर इसका स्थायी समाधान 1947 ई. के बाद निकला।
प्रश्न 4.
मेवाड़, मारवाड़ तथा बीकानेर में प्रजामण्डल की गतिविधियों का संक्षेप में उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
1. भूमिका:
1938 ई. में कांग्रेस के हरिपुरा अधिवेशन में कांग्रेस ने एक प्रस्ताव पारित कर देशी रियासतों के लोगों द्वारा संचालित स्वतन्त्रता संघर्ष को समर्थन किया। कांग्रेस के इस प्रस्ताव से देशी रियासतों में चले रहे स्वतन्त्रता संग्राम को नैतिक समर्थन मिला। इन राज्यों में चल रहे आन्दोलन प्रत्यक्ष रूप से कांग्रेस से जुड़ गए और राजनीतिक चेतना का विस्तार हुआ। प्रजामण्डलों की स्थापना हुई, जिसने देशी शासकों के अधीन उत्तरदायी प्रशासन की माँग की।
2. मेवाड़ प्रजामण्डले:
राजस्थान में सर्वाधिक प्रतिष्ठित राज्य मेवाड़ का था। यहाँ जनजागरण की पृष्ठभूमि किसान आन्दोलन व जनजातीय आन्दोलन से बनी। कांग्रेस के हरिपुरा अधिवेशन के पश्चात् माणिक्यलाल वर्मा व बलवन्त सिंह मेहता ने 24 अप्रैल, 1938 ई. को मेवाड़ प्रजामण्डल की स्थापना की। इसे 11 मई, 1938 ई. को गैर – कानूनी घोषित कर दिया गया एवं वर्माजी को निष्कासित कर दिया गया।
अजमेर जाकर वर्मा जी ने अपनी गतिविधियाँ जारी रख व मेवाड़ का वर्तमान ‘शासन’ नामक पुस्तिका प्रकाशित करके शासकों की कटु आलोचना की। फरवरी, 1939 ई. में जब वे उदयपुर आये तो उन्हें बन्दी बनाकर पिटाई की गई। इस घटना की गाँधीजी ने 18 फरवरी, 1939 के ‘हरिजन’ अंक में कड़ी भर्त्सना की। माणिक्य लाल वर्मा को दो वर्ष के कारावास की सजा सुनाई गई। बाद में 1941 ई. में मेवाड़ प्रजामण्डले पर लगी पाबन्दी हटा ली।
परिणामस्वरूप,राज्य भर में इसकी शाखाएँ स्थापित कर दी गईं। 25-26 नवम्बर, 1941 ई. को इसका पहला अधिवेशन वर्माजी की अध्यक्षता में किया गया जिसमें भाग लेने के लिए आचार्य कृपलानी व विजय लक्ष्मी पंडित उदयपुर आये। अधिवेशन में मेवाड़ में उत्तरदायी शासन की माँग की गई।
वर्माजी भारत छोड़ो आन्दोलन से पूर्व होने वाली रियासती कार्यकर्ताओं की बैठक में भाग लेकर बम्बई से आये। उदयपुर आकर उन्होंने महाराणा को ब्रिटिश सरकार से सम्बन्ध विच्छेद करने के लिए पत्र भेजा। ऐसा न करने पर आन्दोलन की धमकी दी। 21 अगस्त, 1942 ई. को वर्मा जी को गिरफ्तार किया गया, जिसके विरोध में उदयपुर में पूर्ण हड़ताल व गिरफ्तारी हुई।
इस आन्दोलन में विद्यार्थी भी कूद पड़े और आन्दोलन नाथद्वारा, भीलवाड़ा और चित्तौड़ तक फैल गया। 1942 ई. का यह आन्दोलन राजस्थान के अन्य भागों में चल रहे आन्दोलनों से भिन्न था। यहाँ के नेता इस आन्दोलन को अखिल भारतीय स्तर पर चल रहे आन्दोलन का भाग मानते थे।
भारतीय राजनीति का परिदृश्य बदलने पर प्रजामण्डल नेताओं को छोड़ दिया गया वे 1945 ई. में प्रजामण्डल से प्रतिबन्ध हटा लिया गया। राजनीतिक चेतना को विस्तारित करने के लिए प्रभात फेरियाँ व राष्ट्रीय नेताओं की जयन्ती मनायी जाने लगी। वर्मा जी ने 31 दिसम्बर से 1 जनवरी, 1946 को ‘अखिल भारतीय देशी राज्य लोकपरिषद्’ का सातवाँ अधिवेशन उदयपुर में बुलाया।
इसकी अध्यक्षता जवाहरलाल नेहरू ने की। 1946 ई. में महाराणा ने संविधान सभा निर्मात्री सभा का गठन किया, जिसमें प्रजामण्डल द्वारा मनोनीत सदस्य भी सम्मिलित हुए। इसकी रिपोर्ट प्रजामण्डल ने अस्वीकृत की। 2 मार्च, 1947 ई. को घोषित नये संविधान को भी प्रजामण्डल ने अस्वीकार कर दिया।
श्री के. एम. मुंशी द्वारा तैयार किया नये संविधान का प्रारूप मई, 1947 ई. में अस्वीकार कर दिया गया। इस प्रकार महाराणा के प्रगतिशील सुधर्मों का विरोध चलता रहा। अन्ततः उदयपुर ने भारतीय संघ में सम्मिलित होना स्वीकार किया और जनतन्त्रात्मक प्रक्रिया से जुड़ गया।
3. मारवाड़ प्रजामण्डल:
जोधपुर में राजनीतिक गतिविधियाँ 1918 ई. में ही आरम्भ हो गयी थीं जब चाँदमल सुराणा ने ‘मारवाड़ हितकारिणी सभा’ की स्थापना की। 1920 ई. में जयनारायण व्यास ने ‘मारवाड़ सेवा संघ’ स्थापित किया। 1923 ई. में मारवाड़ हितकारिणी सभा को पुनर्जीवित करने का प्रयास किया। अक्टूबर, 1929 ई. में व्यास जी ने ‘मारवाड़ लोकपरिषद् की स्थापना की। उपरोक्त गतिविधियों से स्पष्ट होता है कि जोधपुर में राजनीतिक चेतना का व्यापक प्रसार अन्य क्षेत्रों की अपेक्षा अधिक था।
1934 ई. में जोधपुर में प्रजामण्डल की स्थापना हुई जिसके अध्यक्ष भंवरलाल सर्राफ थे। इसका उद्देश्य उत्तरदायी शासन स्थापित करना व नागरिकों की रक्षा करना था। 1936 ई. में इस संस्था को असंवैधानिक घोषित कर दिया गया। अखिल भारतीय देशी राज्य लोक परिषद् की जोधपुर इकाई ‘मारवाड़ राज्य लोक परिषद्’ सक्रिय रूप से जोधपुर में राजनीतिक गतिविधियाँ संचालित करती रही।
विशेषकर जोधपुर प्रजामण्डल को असंवैधानिक घोषित किए जाने के बाद से लोक परिषद् ने संवैधानिक अधिकारों व उत्तरदायी शासन के लिए संघर्ष जारी रखा। चुनावों को साम्प्रदायिक आधार के स्थान पर क्षेत्रीय आधार पर करवाने की माँग परिषद् ने की। मार्च, 1940 ई. में परिषद् को गैर – कानूनी संस्था घोषित कर दिये जाने के बाद सदस्यों ने शान्तिपूर्ण प्रदर्शनों पर ध्यान केन्द्रित किया।
इसके नेता जैसे – रणछेड़दास गहानी, मथुरादास माथुर, कन्हैयालाल इन्द्रमल जैन, आनन्दराज सुराणा, भंवरलाल सर्राफ आदि ने अपना सारा ध्यान परिषद् की विचारधारा को लोकप्रिय बनाने में लगाया। उधर सरकार ने राजनीतिक अधिकारों की माँग को परिषद् व सामन्तों के बीच संघर्ष का रूप देने का प्रयास किया। 1942 ई. में लोकपरिषद् ने अत्याचारों के विरुद्ध व राज्य में उत्तरदायी शासन के लिए आरम्भ किया।
व्यासजी ने परिषद् का ध्यान स्थगित करके स्वयं को प्रथम डिक्टेटर नियुक्त किया और जोधपुर में भारत छोड़ो आन्दोलन संचालित किया। प्रमुख नेताओं की गिरफ्तारियाँ व भूख हड़ताल हुई जिसमें बाल मुकुन्द बिस्सा की मृत्यु हो गई। 4 नवम्बर, 1947 ई. को परिषद् ने विधानसभा विरोध दिवस मनाया। 1948 ई. में विलय – पत्र पर हस्ताक्षर के बाद ही उत्तरदायी सरकार का गठन हो पाया।
4. बीकानेर प्रजामण्डल:
बीकानेर क्षेत्र के प्रारम्भिक नेता कन्हैया लाल हूँढ़ व स्वामी गोपाल दास थे। इन्होंने चुरू में ‘सर्वहितकारिणी सभा’ स्थापित की। जनता को अधिकारों के प्रति जागृत करने के लिए उसने पुत्री पाठशाला खोली। महाराजा इस रचनात्मक कार्य के प्रति भी आशंकित हो उठे और षड्यन्त्र बताकर उन्हें प्रतिबन्धित कर दिया। अप्रैल, 1932 ई. में जब लन्दन में महाराजा गोलमेज सम्मेलन में भाग लेने गए तो बीकानेर एक दिग्दर्शन’ नामक पम्पलेट बाँटे गए जिसमें बीकानेर की वास्तविक दमनकारी नीतियों का खुलासा किया गया।
लौटकर महाराजा ने सार्वजनिक सुरक्षा कानून लागू किया। स्वामी गोपालदास, चन्दनमल बहड़, सत्यनारायण सर्राफ, खूबचन्द्र सर्राफ आदि को बीकानेर षड्यन्त्र केस के नाम पर गिरफ्तार कर लिया गया। इस काले कानून का विरोध जारी रहा। 4 अक्टूबर, 1936 ई. को प्रमुख नेता शीघ्र ही निर्वासित कर दिए गए जिनमें वकील मुक्ता प्रसाद, मघ राम वैध व लक्ष्मीदास शामिल थे।
रघुवर दयाल ने 22 जुलाई, 1942 ई. को बीकानेर प्रजा परिषद् की स्थापना की, जिसका उद्देश्य महाराजा के नेतृत्व में उत्तरदायी शासन की स्थापना करना था। 1943 ई. में गंगासिंह जी की मृत्यु के बाद शार्दूल सिंह गद्दी पर बैठे, वे भी दमन में विश्वास रखते थे। 26 अक्टूबर, 1944 ई. में ‘बीकानेर दमन विरोधी दिवस’ मनाया गया, जो राज्य में प्रथम सार्वजनिक प्रदर्शन था।
दुधवाखारा के किसानों ने जागीरदारों के दमन के विरोध में प्रजा परिषद् के सहयोग से आन्दोलन शुरू किया। मार्च, 1940 ई. में प्रेस अधिनियम पारित हुआ जिसमें प्रेस पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया। इसी बीच भारत में राजनीतिक गतिविधियाँ तेज हो गईं और महाराजा ने उत्तरदायी शासन की घोषणा की। 30 जून, 1946 ई. में रायसिंह नगर में हो रहे प्रजा परिषद् के सम्मेलन में पुलिस ने गोलीबारी की। बदली हुई परिस्थितियों को देखते हुए सत्ता हस्तान्तरण के लक्षण जब दिखने लगे तो प्रजा परिषद् का कार्यालय पुनः स्थापित किया गया।
1946 ई. में ही दो समितियों, संवैधानिक समिति व मताधिकार समिति की स्थापना की गई। रिपोर्ट को लागू करने का आश्वासन तो दिया गया पर कोई ठोस कार्यवाही नहीं हो पाई व उत्तरदायी शासन की माँग अधूरी ही रही। 16 मार्च, 1948 ई. में जसवन्त सिंह दाऊदसर के नेतृत्व में मन्त्रिमण्डल बना जिसे प्रजा परिषद् ने अस्वीकृत कर दिया और उसके मन्त्रियों ने इस्तीफा दिया। 30 मार्च, 1949 ई. को वृहत्तर राज्य के निर्माण के साथ रघुवर दयाल, हीरा लाल शास्त्री के मन्त्रिमण्डल में सम्मिलित हुए।
प्रश्न 5.
वृहत्तर राजस्थान का निर्माण किस प्रकार हुआ?
अथवा
राजस्थान के एकीकरण के चतुर्थ एवं पंचम चरण का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
1. राजस्थान के एकीकरण का चतुर्थ चरण : वृहत् राजस्थान का निर्माण:
मेवाड़ के विलय के साथ ही शेष बचे राज्यों का विलय आसान व निश्चित हो गया। जयपुर, जोधपुर, बीकानेर व जैसलमेर में विलय व एकीकरण का जनमत और भी तेज हो गया। जोधपुर, बीकानेर व जैसलमेर राज्यों की सीमाएँ पाकिस्तान की सीमा से मिली हुई थीं, जहाँ से सदैव आक्रमण का भय बना रहता था।
फिर यातायात एवं संचार साधनों की दृष्टि से भी यह क्षेत्र काफी पिछड़ा हुआ था, जिसका विकास करना इन राज्यों के आर्थिक सामर्थ्य के बाहर था। समाजवादी दल के नेता डॉ. जयप्रकाश नारायण ने 9 नवम्बर, 1948 ई. को एक सार्वजनिक सभा में अविलम्ब वृहद् राजस्थान के निर्माण की माँग की। अखिल भारतीय स्तर पर राजस्थान आन्दोलन समिति का गठन किया गया जिसके अध्यक्ष डॉ. राममनोहर लोहिया ने भी एकीकृत राजस्थान की माँग की थी।
रियासत विभाग के सचिव श्री वी. पी. मेनन ने सम्बन्धित शासकों से वार्ता शुरू की। वे 11 जनवरी, 1949 को जयपुर गए एवं जयपुर महाराज से वार्ता की। जयपुर महाराज सवाई मानसिंह काफी हिचकिचाहट एवं समझाने – बुझाने के बाद वृहत् राजस्थान के लिए तैयार हुए किन्तु यह शर्त रखी कि जयपुर महाराजा को वृहत् राजस्थान का वंशानुगत राजप्रमुख बनाया जाए तथा जयपुर को भावी राजस्थान की राजधानी बनाया जाये।
मेनन ने विलय की शर्तों पर बाद में विचार करने का आश्वासन देकर विलय की बात स्वीकार कर ली। विलय के प्रारूप की जयपुर महाराज की स्वीकृति के बाद तार द्वारा इसकी सूचना बीकानेर और जोधपुर को भेज दी गई। बीकानेर एवं जोधपुर के शासकों ने काफी आनाकानी के बाद विलय के प्रारूप की स्वीकृति दे दी। 14 जनवरी, 1949 ई. को सरदार पटेल ने उदयपुर की एक आम सभा में वृहत् राजस्थान के निर्माण की घोषणा कर दी।
मेवाड़ के महाराणा को आजीवन महाराज प्रमुख घोषित किया गया। जयपुर के शासकों को राजप्रमुख, जोधपुर व कोटा के शासकों को वरिष्ठ उप राजप्रमुख तथा बूंदी व डूंगरपुर के शासकों को कनिष्ठ उपराज प्रमुख बनाया गया। राजप्रमुख व उसके मन्त्रिमण्डल को केन्द्रीय सरकार के सामान्य नियन्त्रण में रखा गया। राजप्रमुख को नये संविलयन पत्र पर हस्ताक्षर करके, संविधान सभा द्वारा संघीय व समवर्ती सूचियों को स्वीकार करना था।
सरदार पटेल ने नई संगठित इकाई का उद्घाटन 30 मार्च, 1949 को किया जिसे वर्तमान में राजस्थान दिवस के रूप में मनाया जाता है। श्री हीरालाल शास्त्री ने 4 अप्रैल, 1949 ई. को मन्त्रिमण्डल की कमान सम्भाली जिसमें श्री सिद्धराज ढड्ढा (जयपुर), प्रेम नारायण माथुर (उदयपुर), भूरेलाल बया (उदयपुर), फूलचन्द बापना (जोधपुर), नरसिंह कछवाहा (जोधपुर), रावराजा हनुमन्त सिंह (जोधपुर), रघुवर दयाल गोयल (बीकानेर) व वेदपाल त्यागी (कोटा) सम्मिलित थे।
जयपुर के शासक को 18 लाख रुपये, जोधपुर शासक को 17.5 लाख रुपये, बीकानेर शासक को 15 लाख रुपये, जैसलमेर शासक को 2.8 लाख रुपये प्रिवीपर्स के रूप में स्वीकृत किए गए। जयपुर को राजधानी घोषित किया गया तथा राजस्थान के बड़े नगरों का महत्व बनाये रखने के लिए कुछ राज्य स्तर के सरकारी कार्यालय; यथा-हाईकोर्ट जोधपुर में, शिक्षा विभाग बीकानेर में, खनिज विभाग उदयपुर में तथा कृषि विभाग भरतपुर में स्थापित किए गए।
2. राजस्थान के एकीकरण का पंचम चरण : मत्स्य संघ का वृहत् राजस्थान में विलय:
मत्स्य संघ के निर्माण के समय मत्स्य संघ में सम्मिलित होने वाले चारों राज्यों के शासकों को यह स्पष्ट कर दिया गया था कि भविष्य में यह संघ राजस्थान अथवा उत्तर प्रदेश में विलीन किया जा सकता है। इधर मत्स्य संघ स्वतन्त्र रूप से कार्य कर रहा था किन्तु सरकार कई समस्याओं से घिरी थी। मेवों का उपद्रव सरकार के लिए चिन्ता का विषय था।
भरतपुर किसान सभा एवं नागरिक सभा द्वारा सरकार विरोधी आन्दोलन भी चरम सीमा पर था। भरतपुर किसान सभा ने ब्रज प्रदेश नाम से भरतपुर, धौलपुर के अलग अस्तित्व की माँग रखी। अब यह आशंका व्याप्त होने लगी कि कहीं मत्स्य संघ का ही विघटन न हो जाये। इस आशंका को बातचीत के लिए 10 मई, 1949 ई. को दिल्ली बुलाया गया। विचारणीय बिन्दु यह था कि ये राज्य निकटवर्ती राज्य उत्तर प्रदेश में विलीन होंगे अथवा राजस्थान में।
जहाँ अलवर व करौली राजस्थान में विलय के पक्ष में थे, वहीं भरतपुर और धौलपुर उत्तर प्रदेश में विलय के इच्छुक थे। समस्या के समाधान के लिए श्री शंकर राव देव की अध्यक्षता में एक समिति बनाई गयी। इस समिति की सिफारिश के अनुसार भरतपुर व धौलपुर का जनमत राजस्थान के विलय के पक्ष में था। 15 मई, 1948 ई. को मत्स्य संघ राजस्थान में सम्मिलित हो गया।
पं. हीरालाल शास्त्री राजस्थान के प्रधानमन्त्री बने रहे तथा मत्स्य संघ के प्रधानमन्त्री श्री शोभाराम शास्त्री को मन्त्रिमण्डल में शामिल कर लिया गया। इस प्रकार मत्स्य संघ भी राजस्थान का एक अंग बन गया।
प्रश्न 6.
राजस्थान में अन्तिम चरणों में कौन-कौन से राज्य सम्मिलित हुए?
अथवा
सिरोही, अजमेर – मेरवाड़ा का राजस्थान में विलय कब हुआ? समझाइए।
उत्तर:
सिरोही का प्रश्न-गुजरात के नेता सिरोही स्थित माउण्ट आबू के पर्यटक केन्द्र को गुजरात का अंग बनाना चाहते थे। अतः नवम्बर, 1947 ई. में ही सिरोही को भी गुजरात स्टेट्स एजेन्सी के अन्तर्गत कर दिया गया था। 10 अप्रैल, 1948 ई. को हीरालाल शास्त्री ने सरदार पटेल को पत्र लिखा कि सिरोही का अर्थ है-गोकुल भाई और बिना गोकुल भाई के हम राजस्थान को नहीं चला सकते।
इस बीच सिरोही के प्रश्न को लेकर राजस्थान की जनता में काफी उत्तेजना फैल चुकी थी। 18 अप्रैल, 1948 ई. को संयुक्त राजस्थान के उद्घाटन के अवसर पर राजस्थान के कार्यकर्ताओं का एक शिष्टमण्डल पं. नेहरू से मिला और उन्हें सिरोही के सम्बन्ध में प्रदेश की जनभावनाओं से अवगत कराया। पं. नेहरू की सरदार पटेल से वार्ता के पश्चात् अत्यन्त चतुराई से जनवरी, 1950 ई. माउण्ट आबू सहित सिरोही का 304 वर्ग मील क्षेत्र के 89 गाँव गुजरात में व शेष सिरोही राजस्थान में मिला दिया गया।
इस प्रकार सिरोही के प्रमुख आकर्षण देलवाड़ा एवं माउण्ट आबू तो गुजरात में मिल गए और गोकुल भाई भट्ट के जन्म स्थान हाथल सहित सिरोही का शेष भाग राजस्थान को दे दिया गया। इस कदम का राजस्थान में तीव्र विरोध हुआ जिसका नेतृत्व मुख्यत: गोकुल भाई भट्ट ने किया। राजस्थान के नेतृत्व ने पं. नेहरू से इस समस्या के समाधान के लिए दबाव बनाया। अन्ततः इसके निपटारे के लिए इस प्रकरण को राज्य पुनर्गठन आयोग को सौंप दिया गया।
अजमेर मेरवाड़ा का विलय ब्रिटिश काल में अजमेर – मेरवाड़ा एक केन्द्र-शासित प्रदेश रहा था। अखिल भारतीय देशी राज्य लोक परिषद् की राजपूताना प्रान्तीय सभा सदैव यह माँग करती रही कि वृहत् राजस्थान में न केवल प्रान्त की सभी रियासतें वरन् अजमेर – मेरवाड़ा का इलाका भी शामिल किया जाए किन्तु दूसरी ओर अजमेर का कांग्रेस नेतृत्व इस माँग का विरोध कर रहा था। 1952 ई. के आम चुनावों के बाद अजमेर – मेरवाड़ा में श्री हरिभाऊ उपाध्याय के नेतृत्व में कांग्रेस का मन्त्रिमण्डल बना।
चूँकि कांग्रेस का यह नेतृत्व अजमेर को राजस्थान में मिलाए जाने का कभी पक्षधर नहीं रहा और अब अजमेर मेरवाड़ा में मन्त्रिमण्डल के गठन के बाद कांग्रेस का नेतृत्व यह तर्क देने लगा कि प्रशासन की दृष्टि से छोटे राज्ये ही बनाये रखना चाहिए। इस प्रकरण को भी राज्य पुनर्गठन आयोग को सौंप दिया गया। राज्य पुनर्गठन आयोग ने अजमेर के कांग्रेस नेताओं के तर्क को स्वीकार नहीं किया एवं सिफारिश की कि अजमेर-मेरवाड़ा का क्षेत्र राजस्थान में मिला देना चाहिए।
तद्नुसार 1 नवम्बर, 1956 ई. को राज्य पुनर्गठन आयोग द्वारा सिरोही के माउण्ट आबू वाले क्षेत्र के साथ – साथ अजमेर – मेरवाड़ा को भी राजस्थान में मिला दिया गया। इस प्रकार राजस्थान के एकीकरण की प्रक्रिया जो मार्च, 1948 ई. में आरम्भ हुई थी उसकी पूर्णाहुति 1 नवम्बर, 1956 को हुई। एकीकृत राजस्थान के निर्माण के बाद भी राजतन्त्र के अन्तिम अवशेष के रूप में राजप्रमुख के नवसृजित पद रह गए थे।
भारत की नव – निर्वाचित संसद ने संविधान के सातवें संशोधन द्वारा 1 नवम्बर, 1956 को राजप्रमुख के पद समाप्त कर दिए एवं राज्य के प्रथम राज्यपाल के रूप में सरदार गुरुमुख निहाल सिंह को शपथ दिलाई गई। इस प्रकार सरदार पटेल की चतुराई, बुद्धिमत्ता एवं कुशल नीति से, राजस्थान शासकों की अनिच्छाओं पर जनमत के प्रभावशाली दबाव से राजस्थान के एकीकरण का स्वप्न साकार हो गया।
प्रश्न 7.
राजस्थान के एकीकरण में योगदान देने वाले प्रमुख व्यक्तियों का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
उत्तर:
राजस्थान के एकीकरण में योगदान देने वाले प्रमुख व्यक्ति थे-
- विजय सिंह पथिक – इनका वास्तविक नाम भूपसिंह था इन्होंने विजौलिया किसान आन्दोलन का नेतृत्व किया। इन्होंने वर्धा से राजस्थान केसरी समाचार पत्र निकाला। इन्हें सम्पूर्ण भारत में किसान आन्दोलन का जनक कहा जाता है।
- अर्जुनलाल सेठी – सन् 1880 को जयपुर में जैन परिवार में इनका जन्म हुआ। सेठी जी जयपुर राज्य में जनजाग्रति के जनक कहे जाते हैं। क्रान्तिकारी रासबिहारी बोस ने राजस्थान में सशस्त्र क्रान्ति का भार सेठी जी पर डाला था। सेठी जी ने 1907 में जयपुर में जैन शिक्षा सोसाइटी की स्थापना की। इन्होंने हिन्दू मुस्लिम एकता के लिए खूब प्रयास किये।
- केसरीसिंह बारहठ – इनका जन्म सन् 1872 में शाहपुरा (भीलवाड़ा) में हुआ था। इन्होंने 1910 में वीर भारत सभा की स्थापना की। इन्होंने चेतावनी री चूंगट्या नामक सोरठे की रचना की इन्हें राजस्थान केसरी भी कहा जाता है।
- प्रताप सिंह बारहठ – ये केसरीसिंह बारहठ के पुत्र थे। 1912 ई. में इन्होंने हार्डिंग्ज पर बम फेंका, 1918 में बरेली जेल में दी गई यातनाओं से इनकी मृत्यु हो गई। इन्होंने अर्जुनलाल सेठी की जैन वर्धमान पाठशाला में भी प्रशिक्षण लिया था।
- जोरावर सिंह बारहठ – ये केसरीसिंह बारहठ के ओटे भाई थे। इन्होंने सन् 1912 में दिल्ली के चांदनी चौक में लार्ड हार्डिंग्ज के ऊपर बम फेंका। सरकार व रजवाड़ों की ओर से उन्हें पकड़ने के लिए अनेक कोशिशें की गई परन्तु वे मृत्युपर्यंत पकड़ में नहीं आये।
- राब गोपाल सिंह खरवा – राव गोपाल सिंह अजमेर मेरवाड़ा में खरवा ठिकाने के राव थे। इनका मुख्य कार्य क्रान्तिकारियों के लिए अस्त्र-शस्त्र की व्यवस्था करना था। इन्होंने प्रथम विश्व युद्ध में रासबिहारी बोस व शचीन्द्र नाथ सान्याल के साथ मिलकर उत्तरी भारत में सशस्त्र क्रान्ति की योजना बनाई परन्तु असफल रहे।
- सागरमल गोपा – इनका जन्म जैसलमेर में हुआ तथा इन्होंने जैसलमेर के तत्कालीन महारावल जवाहर सिंह के अत्याचारों का डटकर विरोध किया। इन्होंने जैसलमेर में राजनीतिक चेतना उत्पन्न करने के साथ – साथ शिक्षा के प्रचार – प्रसार पर जोर दिया। राजद्रोह के आरोप में इन्हें जेल में डाल दिया गया तथा इनके साथ अमानवीय अत्याचार किया गया।
- स्वामी गोपालदास – इनका जन्म चुरु में हुआ तथा यही सार्वजनिक सेवा के द्वारा लोगों में चेतना जाग्रत की। बीकानेर के महाराजा गंगासिंह ने स्वामी गोपालदास को बीकानेर राज्य के विरुद्ध षड्यंत्र करने के आरोप में लम्बी अवधि के लिए जेल भेज दिया गया जहाँ सन् 1939 में इनकी मृत्यु हो गई।
- दामोदार दास राठी – इनका जन्म जैसलमेर के पोकरण नामक स्थान पर हुआ। इन्होंने लोकहित में सनातन धर्म स्कूल, कॉलेज तथा नव भारत विद्यालय की स्थापना की। इन्होंने क्रान्तिकारियों को गतिविधियों के लिए आर्थिक सहायता प्रदान की।
- मोतीलाल तेजावत – इनका जन्म उदयपुर के पास कोलियारी गाँव में सन् 1887 में हुआ था। इन्होंने भीलों के खिलाफ हो रहे अत्याचारों का विरोध करने के लिए एकी आन्दोलन प्रारम्भ किया। आदिवासियों में ये बावजी के नाम से प्रसिद्ध हुए।
- माणिक्य लाल वर्मा – इनका जन्म विजौलिया में हुआ। इन्होंने मेवाड़ प्रजामण्डल की स्थापना की। इन्होंने अपने जीवन का ध्येय दलितों व पीड़ितों की सेवा करना बनाया।
- गोविन्द गुरु – ये एक महान् समाज सुधारक थे जिन्होंने भीलों के सामाजिक व नैतिक उत्थान का बीड़ा उठाया तथा उन्हें सामाजिक दृष्टि से संगठित करके मुख्य धारा में लाने का प्रयास किया। इस लक्ष्य के लिए उन्होंने सम्प सभा की स्थापना की व उन्हें हिन्दू धर्म के दायरे में बनाये रखने के लिए भगत पंथ की स्थापना की।
- हीरालाल शास्त्री – इनका जन्म 24 नवम्बर, 1899 को जोबनेर (जयपुर) में हुआ था। 30 मार्च 1949 को ये वृहत् राजस्थान के प्रथम मुख्यमंत्री बने। इन्होंने जयपुर प्रजामण्डल की अध्यक्षता भी की।
- गोकुल भाई भट्ट – इनका जन्म 1898 ई. में सिरोही जिले के हाथल गाँव में हुआ था। इन्होंने राजस्थान में मद्य निषेध के लिए अथक प्रयत्न किया। इन्होंने सिरोही प्रजामण्डल की स्थापना भी की।
- जयनारायण व्यास – इनका जन्म जोधपुर में हुआ। ये राजस्थान के मुख्यमंत्री भी रहे।
- बलवन्त सिंह मेहता – इन्होंने सन् 1915 में राजनीतिक जाग्रति की प्रेरक प्रताप सभा के लम्बे अन्तराल तक संचालक रहकर राजस्थान में जनचेतना का महत्वपूर्ण कार्य किया। ये सन् 1938 में मेवाड़ प्रजामण्डल के प्रथम अध्यक्ष बने। स्वतंत्रता के पश्चात् ये संविधान निर्मात्री सभा के सदस्य के रूप में चयनित हुए।
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