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RBSE Solutions for Class 9 Hindi प्रबोधिनी Chapter 1 युवाओं से

May 20, 2019 by Safia 1 Comment

Rajasthan Board RBSE Class 9 Hindi प्रबोधिनी Chapter 1 युवाओं से

RBSE Class 9 Hindi प्रबोधिनी Chapter 1 पाठ्य-पुस्तक के प्रश्नोत्तर

RBSE Class 9 Hindi प्रबोधिनी Chapter 1 वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न 1.
शिकागो विश्वधर्म सम्मेलन में स्वामी जी ने कब व्याख्यान दिया था ?
(क) 1893 ई.
(ख) 1897 ई.
(ग) 1889 ई.
(घ) 1901 ई.
उत्तर:
(क) 1893 ई.

प्रश्न 2.
विवेकानंद के गुरु का क्या नाम था ?
(क) रामानन्द
(ख) शंकराचार्य
(ग) रामकृष्ण परमहंस
(घ) नरेन्द्र नाथ
उत्तर:
(ग) रामकृष्ण परमहंस

RBSE Class 9 Hindi प्रबोधिनी Chapter 1 अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 3.
विवेकानंद की दृष्टि में भारत के पुनरुत्थान को सर्वश्रेष्ठ आधार क्या हो सकता है ?
उत्तर:
विवेकानंद का मानना था कि भारत का पुनरुत्थान शारीरिक शक्ति से नहीं बल्कि आत्मिक शक्ति से ही हो सकता है।

प्रश्न 4.
विवेकानंद व्यक्ति के लिए शक्ति प्राप्त करने का सुलभ स्रोत क्या मानते हैं ?
उत्तर:
विवेकानंद व्यक्ति के लिए शक्ति प्राप्त करने का सहज उपाय त्याग और सेवा को मानते हैं। लघूत्तरात्मक प्रश्न।

प्रश्न 5.
”मैं तो सिर्फ उस गिलहरी की भाँति होना चाहता हूँ जो श्री रामचन्द्र जी के पुल बनाने के समय थोड़ा बालू देकर अपना भाग पूरा कर संतुष्ट हो गयी थी। यही मेरा भी भाव है।” इस पंक्ति से विवेकानंद क्या स्पष्ट करना चाहते हैं ?
उत्तर:
इसे पंक्ति द्वारा विवेकानंद भारत की उन्नति में अपने सहयोग को स्पष्ट करना चाहते हैं। वे युवकों के नेता बनकर उन्हें सुधारने और अपने आदेश थोपने में विश्वास नहीं करते। वह सहज भाव से उन्नति होने में विश्वास करते हैं। गिलहरी के समान वह विनम्र भाव से इस कार्य में अपना साधारण-सा योगदान करना चाहते हैं।

प्रश्न 6.
स्वदेश भक्ति से सामान्य अर्थ क्या लिया जाता है ? विवेकानंद के विचार इससे किस प्रकारे भिन्न हैं? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
स्वदेश भक्ति का साधारण अर्थ देश के लिए सब कुछ बलिदान कर देना माना जाता है। विवेकानंद स्वदेश भक्ति की महानता को स्वीकार करते हैं लेकिन उनके अनुसार स्वदेश भक्ति का अर्थ है, बुद्धि और विचार के साथ देशवासियों के लिए हृदय में भरपूर प्रेमभाव होना। इसीलिए वह भारत के देशभक्तों से देशवासियों को भूख और अशिक्षा से मुक्त करने और उनके कष्टों को समझने का संदेश दे रहे हैं।

प्रश्न 7.
विवेकानंद तरुणों को शारीरिक दृष्टि से अधिक शक्तिशाली बनने को प्राथमिकता देते हैं। इसके पीछे उनके क्या तर्क हैं ?
उत्तर:
विवेकानंद चाहते हैं कि भारत के नवयुवक शारीरिक रूप से स्वस्थ और शक्तिशाली बनें। इनका मानना है किएक रोगी या दुर्बल व्यक्ति धर्मग्रन्थों के ऊँचे-ऊँचे विचारों को केवल जान सकता है लेकिन बिना स्वस्थ शरीर के उनका लाभ नहीं उठा सकता। गीता और उपनिषदों का ज्ञान शक्तिशाली व्यक्ति के लिए ही उपयोगी हो सकता है। दीन-हीन बने रहकर युवा लोग मनुष्य कहलाने योग्य भी नहीं हो सकते।

प्रश्न 8.
धर्म के बारे में आप विवेकानंद को उदार दृष्टिकोण वाला मानते हैं या संकीर्ण ? युक्तियुक्त उत्तर दीजिए।
उत्तर:
धर्म के बारे में विवेकानंद के विचार बड़े उदार हैं। वह संसार के सभी धर्मों को समान रूप से आदर देते हैं। वह किसी भी धर्म के मानने वाले के साथ ईश्वर की पूजा करने को तैयार हैं। उन्हें मुसलमानों की मस्जिदों, ईसाइयों के चर्चे, बौद्ध लोगों के मंदिरों में और जंगलों में परमात्मा का ध्यान करने वाले हिन्दुओं के बीच जाकर, नमाज, पूजा और प्रार्थना में भाग लेने में कोई संकोच नहीं है।

प्रश्न 9.
निम्नांकित शब्दों का विग्रह करते हुए समास बताइए- पददलित, इच्छाशक्ति, दीन-हीन, पृथ्वीमाता, परहित, श्रद्धासम्पन्न, अजर-अमर।
उत्तर:
RBSE Solutions for Class 9 Hindi प्रबोधिनी Chapter 1 युवाओं से 1

RBSE Class 9 Hindi प्रबोधिनी Chapter 1 निबंधात्मक प्रश्न

प्रश्न 10.
आज की शिक्षा में आप क्या कमियाँ अनुभव करते हैं ? उनमें सुधार लाने के लिए आप विवेकानंद के विचारों से क्या सहायता लेना चाहेंगे ?
उत्तर:
हमारी आज की शिक्षा-प्रणाली हमारे छात्रों के वर्तमान और भविष्य को सुधार पाने में असफल सिद्ध हो रही है। जीवन के बहुमूल्य 10-15 वर्ष शिक्षा में खपाने के बाद भी आज का साधारण छात्र अपने आपको चौराहे पर खड़ा पाता है। उपयोगी और जीवन को सफल बनाने वाली शिक्षा हर किसी की पहुँच में नहीं है। कॉलेजों से बाहर आकर जीविका तलाशने के लिए छात्र को कोचिंग का सहारा लेना पड़ता है। इस शिक्षा-प्रणाली ने छात्र से उसका आत्मविश्वास, चरित्र और उत्तम भविष्य छीन लिया है। समाज में बढ़ते अपराध और आत्महत्या की प्रवृत्ति, इस आधी-अधूरी शिक्षा का ही – परिणाम है। विवेकानंद के अनुसार छात्र के मस्तिष्क में अनेक विषयों की ढेरों जानकारियाँ भर देना शिक्षा नहीं है। चाहे थोड़े ही विषय पढ़ाए जाएँ लेकिन छात्र अपने जीवन में उन्हें उतार ले, यही शिक्षा का वास्तविक लाभ है। अतः स्वामी जी के शिक्षा संबंधी विचारों को अपनाए जाने पर हमारी शिक्षा प्रणाली स्वस्थ, देश-प्रेमी, चरित्रवान और परोपकारी छात्रों का निर्माण कर सकेगी।

प्रश्न 11.
निम्नांकित की सप्रसंग व्याख्या कीजिए
(क) बुद्धि और विचार शक्ति से हम लोगों की थोड़ी सहायता कर सकते हैं। वह हमको थोड़ी दूर अग्रसर करा देती है और वहीं ठहर जाती है। किन्तु हृदय के द्वारा ही महाशक्ति की प्रेरणा होती है, प्रेम असंभव को संभव कर देता है। प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश स्वामी विवेकानंद द्वारा अमेरिका में आयोजित विश्वधर्म महासभा’ में दिए गए व्याख्यान से संकलित पाठ ‘युवाओं से’ का अंश है। स्वामी जी ने स्वदेश प्रेम के प्रसंग में यह बात कही है।
व्याख्या – स्वामी जी ने स्वदेश भक्ति के महत्व को स्वीकार करते हुए उसमें अपना विश्वास जताया है। लेकिन स्वदेश भक्ति के बारे में उनके विचार कुछ अलग प्रकार के हैं। उनके अनुसार किसी भी बड़े काम को करने के लिए तीन चीजें आवश्यक होती हैं-बुद्धि, विचार की शक्ति और प्रेम से पूर्ण हृदय। जहाँ तक बुद्धि और विचार शक्ति की बात है, ये दोनों एक सीमा तक ही व्यक्ति को आगे ले जा सकती हैं। ये दोनों उसे लक्ष्य तक नहीं पहुँचा सकतीं। प्रेम से परिपूर्ण हृदय में ही वह महान् शक्ति आती है जिसके बल पर मनुष्य असंभव लगने वाले कार्य को भी कर दिखाता है। अतः उनके अनुसार देशवासियों के प्रति हृदय में प्रेमभाव रखते हुए उनके कष्टों और अभावों को दूर करना ही सच्ची स्वदेश भक्ति है।
विशेष – स्वामी जी ने स्वदेश भक्ति का वास्तविक स्वरूप समझाकर देश के युवाओं को शताब्दियों से भूख और गरीबी से पीड़ित देशवासियों की सेवा करने का संदेश दिया है।

(ख) यह एक बड़ी सच्चाई है, शक्ति ही जीवन है और कमजोरी मृत्यु है। शक्ति परम सुख है, जीवन अजर-अमरे है, कमजोरी कभी न हटने वाला बोझ और यंत्रणा है, कमजोरी ही मृत्यु है। प्रसंग-प्रस्तुत पंक्तियाँ स्वामी विवेकानंद द्वारा अमेरिका में आयोजित विश्वधर्म महासभा’ में दिए गए व्याख्यान से उद्धृत हैं। इनमें स्वामी जी ने मानव-जीवन में शक्ति के महत्व पर प्रकाश डाला है।
व्याख्या – तन और मन की शक्ति से रहित मनुष्य तो मरे के समान होता है। जिसके पास शक्ति है वही व्यक्ति जीवन में सुख प्राप्त कर सकता है और उसे भोग सकता है। यश प्राप्त करना, सफलता पाना या अपना अधिकार प्राप्त करना जीवन के महान आनंद हैं। ये सभी शक्तिशाली को ही मिल पाते हैं। जब मनुष्य आत्मशक्ति (आत्मज्ञान) और शारीरिक शक्ति से पूर्ण होता है तभी वह जीवन की अमरता से परिचित होता है। जीवात्मा अमर है, शरीर नाशवान है। यह आनंदमय रहस्य आत्मज्ञान की शक्ति से ज्ञात होता है। दुर्बलता मनुष्य को जीवन भर बोझ के समान दबाए रखकर घोर कष्ट पहुँचाती रहती है। जीवन में कमजोर रहना मृत्यु के ही समान है।
विशेष –
1. स्वामी जी ने युवकों को स्वस्थ और बलवान बनने का संदेश दिया है।
2. स्वामी जी तो शारीरिक रूप से स्वस्थ और शक्तिशाली बनने को, धर्म-पालन से भी अधिक महत्वपूर्ण मानते हैं।

RBSE Class 9 Hindi प्रबोधिनी Chapter 1 अन्य महत्वपूर्ण प्रश्नोत्तर

RBSE Class 9 Hindi प्रबोधिनी Chapter 1 अतिलघूत्तरात्मक प्रश्नोत्तर प्रश्न

प्रश्न 1.
विवेकानंद के अनुसार भारत को पुनरुत्थान किस प्रकार हो सकता है?
उत्तर:
विवेकानंद जी के अनुसार भारत का पुनरुत्थान आत्मा की शक्ति अर्थात् शांति और प्रेम के द्वारा ही हो सकता है।

प्रश्न 2.
विवेकानंद के अनुसार मनुष्य ‘बुद्ध’ के समान कब बन जाता है?
उत्तर:
विवेकानंद के अनुसार जब व्यक्ति नि:स्वार्थ भाव से काम करता है तो वह ‘बुद्ध’ के समान प्रभावशाली हो जाता है।

प्रश्न 3.
भारत के उत्थान के लिए विवेकानंद को कैसे युवकों की आवश्यकता है?
उत्तर:
भारत के उत्थान के लिए विवेकानंद को वीर, तेजस्वी, श्रद्धा रखने वाले और छल-कपट से रहित युवकों की आवश्यकता है।

प्रश्न 4.
विवेकानंद के अनुसार शिक्षा क्या है?
उत्तर:
स्वामी जी के अनुसार शिक्षा वे उपयोगी जानकारियाँ हैं जो व्यक्ति के जीवन को और चरित्र को सार्थक बनाने में सहायक हों।

प्रश्न 5.
स्वामी विवेकानंद ने जीवन का आदर्श क्या बताया
उत्तर:
स्वामी विवेकानन्द ने मन में गरीबों, पददलितों के लिए सहानुभूति रखने, उनके दु:ख-दर्द को समझने और ईश्वर से प्रार्थना करते हुए जीवन-यापन को ही जीवन का आदर्श बताया है।

प्रश्न 6.
स्वामी विवेकानन्द ने युवकों से कैसा आचरण करने को कहा है ?
उत्तर:
स्वामी विवेकानन्द ने युवकों से आत्म-प्रतिष्ठा, दलबंदी और ईष्र्या को सदा के लिए त्यागकर पृथ्वी माता की तरह सहनशील बनने के लिए कहा है।

RBSE Class 9 Hindi प्रबोधिनी Chapter 1 लघूत्तरात्मक प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
संसार की दशा को पूरी तरह बदल देने वाली शक्ति कैसे व्यक्ति में उत्पन्न हो सकती है? विवेकानंद के अनुसार बताइए।
उत्तर:
जब कोई व्यक्ति धन की, यश की या किसी और वस्तु की चाह न रखते हुए नि:स्वार्थ भावना से किसी अच्छे काम में लग जाता है तो बुद्ध भगवान के समान सारी मानवता के कल्याण करने की शक्ति प्राप्त कर लेता है। वह अन्याय, गरीबी, भूख आदि को मिटाकर सारे संसार के जीवन को बदल सकता है। चारों ओर सुख, शांति और भाईचारे की भावना स्थापित कर सकता है।

प्रश्न 2.
‘पहले मनुष्य बनिए’ यह बात स्वामी विवेकानंद ने किस प्रसंग में कही है? ‘युवाओं से’ पाठ के आधार पर बताइए।
उत्तर:
स्वामी जी ने यह बात मनुष्य का महत्व समझाते हुए कही है। वह कहते हैं कि चाहे नियम-कानून हों, चाहे रुपया-पैसा हो या नाम हो, इन सभी को आदमी ने पैदा किया या बनाया है। इन्होंने मनुष्य को नहीं बनाया। अतः मनुष्य इन सबसे ऊपर और महत्वपूर्ण है। इनके पीछे भागने के बजाय उन्हें आदर्श मनुष्य बनने का प्रयत्न करना चाहिए। तब ये सभी चीजें उनके पीछे भागेंगी।

प्रश्न 3.
स्वामी विवेकानंद के अनुसार भारत के देशभक्त युवकों को यह कब मानना चाहिए कि उन्होंने देशभक्ति की पहली सीढ़ी पर पैर रखा है?
उत्तर:
देशभक्त युवकों की देशभक्ति को परखने के लिए स्वामी जी ने कुछ प्रश्नों द्वारा उनके हृदयों को झकझोरा है। वह युवकों से पूछते हैं कि क्या उनको देशवासियों की दुर्दशा देखकर कभी रात को नींद नहीं आई? क्या वे उनकी दशा सुधारने को पागल जैसे हुए हैं? क्या उन्होंने अपना तन, मन, धन देशवासियों के लिए दाँव। पर लगा दिया है? यदि ऐसा हुआ है तो समझें कि उन्होंने देशभक्ति की अभी पहली सीढ़ी पार की है।

प्रश्न 4.
भारत में शिक्षा के नाम पर छात्रों के साथ क्या होता आ रहा है? स्वामी विवेकानंद के अनुसार शिक्षित व्यक्ति किसे माना जाना चाहिए?
उत्तर:
स्वामीजी का कहना है कि भारत में शिक्षा के नाम पर नवयुवकों के मस्तिष्क में ढेरों जानकारियाँ इँस दी जाती हैं। इन जानकारियों या ज्ञान को समझना और जीवन में उतारना नहीं सिखाया जाता। ये बेकार पड़ी जानकारियाँ जीवन भर युवकों के मन को भ्रमित करती रहती हैं। स्वामीजी के अनुसार यदि कोई युवक इनमें से पाँच विचारों को भी अपनाकर, अपने जीवन और चरित्र को सुधार ले तो वह पूरे पुस्तकालय को पढ़ लेने वाले से अधिक शिक्षित माना जाना चाहिए।

RBSE Class 9 Hindi प्रबोधिनी Chapter 1 निबंधात्मक प्रश्नोत्तर

प्रश्न:
देश में व्याप्त गम्भीर समस्याओं के हल में स्वामी विवेकानंद के विचार और संदेश कहाँ तक सहायक हो सकते हैं? अपना मत लिखिए।
उत्तर:
स्वामी जी के समय के भारत और आज के भारत में बहुत अंतर आ चुका है। स्वामी जी के समय देश के करोड़ों लोग भूख, गरीबी और अशिक्षा से पीड़ित थे। देश परतंत्र था। भारतीय युवकों में हीनता की भावना थी। अत: स्वामी। जी ने भारत के पुनरुत्थान (फिर से ऊँचा बनाना) के लिए युवकों को संगठित होकर, देशवासियों के कल्याण में जुट जाने का आह्वान किया। उन्हें चरित्रवान, बलवान और करुणावान बनने का संदेश दिया। उन्हें आत्मविश्वासी और अपने देश तथा धर्म पर गर्व करने की प्रेरणा दी।

आज परिस्थितियाँ बदल गई हैं। भूख, गरीबी और अशिक्षा के साथ भ्रष्टाचार, अच्छी शिक्षा तथा रोजगार जैसी समस्याओं से युवकों को जूझना पड़ रहा है। राजनेताओं के चरित्रों पर उँगलियाँ उठ रही हैं। नई तकनीकों के साथ जीने की चुनौतियाँ हैं। अत: स्वामी जी के संदेशों की समय के अनुसार व्याख्या करके, उन्हें ग्रहण करना होगा। यदि भारत के युवक आत्मविश्वासी, दृढ़ संकल्प वाले और चरित्रवान बन जाएँ तो वे आज की सभी समस्याओं को हल कर सकते हैं। स्वामीजी ऐसे ही युवकों का साथ चाहते थे।

-स्वामी विवेकानंद

पाठ – परिचय

सन् 1893 में अमेरिका के शिकागो में एक ‘‘विश्वधर्म सभा” आयोजित की गई थी। स्वामी विवेकानंद ने इसमें भारत की ओर से सनातन धर्म का प्रतिनिधित्व किया था। प्रस्तुत पाठ संबोधन शैली में लिखा गया है, जो विवेकानंद द्वारा सभा में दिए गए व्याख्यान से संकलित है। इस अंश में विवेकानंद ने भारत के नवयुवकों को देश के पुनरुत्थान के लिए आह्वान किया है।

शब्दार्थ – पुनरुत्थान = फिर से उन्नति करना। बुद्ध = ज्ञानी, दूसरों का मार्गदर्शक। आस्था = विश्वास, भरोसा। वीर्यवान = बलशाली, वीर। अवलम्बन = साथ, सहारा। साक्षात् = सीधे, स्वयं। प्रतिहत = बिना रुके, निरंतर। अग्रसर = आगे बढ़ाना। आच्छन्न करना = ढक लेना, छा जाना। आत्मसात् = भली प्रकार जान लिया गया, अपना लिया गया। उन्मत्तता = दीवानापन, मनमानी करना।

प्रश्न 1. स्वामी विवेकानन्द का संक्षिप्त जीवन – परिचय दीजिए।
उत्तर:
लेखक परिचय

जीवन परिचय – स्वामी विवेकानन्द का जन्म सन् 12 जनवरी 1863 ई. को तत्कालीन बंगाल प्रदेश में हुआ था। विवेकानन्द का मूल नाम नरेन्द्र नाथ दत्त था। उन्होंने युवावस्था में पश्चिमी देशों के दार्शनिकों द्वारा मान्य भौतिकवादी विचारधारा को अध्ययन किया था, जिसमें ईश्वर का कोई स्थान नहीं था। दूसरी ओर भारतीय दर्शन था जो ईश्वर के अस्तित्व में दृढ़ विश्वास रखता था। ऐसे में विवेकानन्द गहरे अनिश्चय से गुजर रहे थे कि किसे स्वीकार करें? इसी बीच संयोगवश वह काली माँ के अनन्य उपासक रामकृष्ण परमहंस के सम्पर्क में आए और उनकी कृपा से उन्हें ईश्वर के अस्तित्व का दिव्य अनुभव प्राप्त हुआ। परमहंस ने ही उन्हें विवेकानन्द नाम प्रदान किया। आपने 1893 ई. में शिकागो (अमेरिका) में आयोजित विश्वधर्म महासभा में भारत की ओर से भाग लिया। विवेकानन्द की मात्र 39 वर्ष की आयु में देहावसान हो गया।

साहित्यिक विशेषताएँ – विवेकानन्द का अध्ययन बहुते व्यापक था। उनकी विद्वत्ता और दूरदृष्टि का परिचय उनके ग्रन्थों तथा व्याख्यानों से प्राप्त होता है। वह मूलतः एक संन्यासी और समाज सुधारक थे। वह एक महान स्वप्नदृष्टा थे। उन्होंने अपनी विलक्षण प्रतिभा से भारतीय दर्शन और संस्कृति का सारे विश्व में प्रचार – प्रसार किया। उन्होंने भारत के वेदान्त दर्शने की मानवतावादी व्याख्या प्रस्तुत की। वह भारतीय युवाओं के प्रेरणास्रोत थे। अपने व्याख्यानों और कार्यों द्वारा उन्होंने उनका निरन्तर मार्गदर्शन किया। आपकी रचनाएँ योग की युगानुकूल व्याख्याएँ प्रस्तुत करती हैं। रचनाएँ – योग, राजयोग, ज्ञान योग।

महत्वपूर्ण गद्यांशों की सप्रसंग व्याख्याएँ

प्रश्न 2.
निम्नलिखित गद्यांशों की सप्रसंग व्याख्याएँ कीजिए
1. भारत के राष्ट्रीय आदर्श हैं – त्याग और सेवा। आप इन धाराओं में तीव्रता उत्पन्न कीजिए और शेष सब अपने आप ठीक हो जायेगा। तुम काम में लग जाओ फिर देखोगे, इतनी शक्ति आयेगी कि तुम उसे संभाल न सकोगे। दूसरों के लिए रत्ती – भर सोचने, काम करने से भीतर की शक्ति जाग उठती है। दूसरों के लिए रत्ती – भर सोचने से धीरे – धीरे। हृदय में सिंह का सा बल आ जाता है। तुम लोगों से मैं इतना स्नेह करता हूँ परन्तु यदि तुम लोग दूसरों के लिए परिश्रम करते – करते मर भी जाओ, तो भी यह देखकर मुझे प्रसन्नता ही होगी। (पृष्ठ – 3)

संदर्भ तथा प्रसंग – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक ‘हिंदी प्रबोधिनी’ में संकलित युवाओं से’ नामक पाठ से लिया गया हैं यह स्वामी विवेकानंद द्वारा अमेरिका (शिकागो) की एक ‘विश्वधर्म महासभा’ में दिए गए व्याख्यान का अंश है। इस अंश में स्वामी जी ने भारत के युवकों को त्याग और सेवा द्वारा पीड़ित देशवासियों की सहायता करने का संदेश दिया

व्याख्या – त्याग की भावना और दुखियों की सेवा करना, भारतीय संस्कृति के आदर्श रहे हैं। यदि युवक इन दो बातों को तेजी से आगे बढ़ाएँ तो बाकी की समस्याएँ अपने आप हल होती चली जाएँगी। युवक बिना किसी स्वार्थ के देशवासियों के हित में लग जाएँ तो उनके भीतर अपार आत्मबल आ जाएगा। दूसरों की भलाई के बारे में थोड़ा – सा भी सोचने और काम करने से मनुष्य का आत्मबल जाग उठता है। यह बल धीरे – धीरे इतना बढ़ता है कि व्यक्ति सिंह के समान निर्भय और बलवान हो जाता है। स्वामी जी युवकों से कहते हैं कि वह उनसे बहुत स्नेह करते हैं परन्तु यदि वे युवक दूसरों के लिए काम करते हुए अपना जीवन भी बलिदान कर दें तो इससे उनको दुख नहीं बल्कि प्रसन्नता ही होगी। वह सोचेंगे कि उनके शिष्यों या कार्यकर्ताओं ने एक अच्छे काम के लिए अपना जीवन दाँव पर लगा दिया।

विशेष –

  1. पर सेवा से और त्याग से, मनुष्य के आत्मबल में अपार वृद्धि होती है।
  2. भाषा भावों के अनुरूप है और शैली भावात्मक तथा उपदेशात्मक है।

2. केवल वही व्यक्ति सबकी अपेक्षा उत्तम रूप से कार्य करता है, जो पूर्णतया नि:स्वार्थी है, जिसे न तो धन की लालसा है, न कीर्ति की और न किसी अन्य वस्तु की ही और मनुष्य जब ऐसा करने में समर्थ हो जायेगा, तो वह भी एक बुद्ध बन जाएगा, उसके भीतर से ऐसी शक्ति प्रकट होगी, जो संसार की अवस्था को सम्पूर्ण रूप से परिवर्तित कर सकती है। (पृष्ठ – 3)

संदर्भ तथा प्रसंग – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक ‘हिंदी प्रबोधिनी’ में संकलित युवाओं से’ नामक पाठ से लिया गया हैं यह स्वामी विवेकानंद द्वारा अमेरिका (शिकागो) की एक ‘विश्वधर्म महासभा’ में दिए गए व्याख्यान का अंश है। इसमें स्वामी जी ने बताया है कि उसी व्यक्ति के काम को सर्वश्रेष्ठ माना जाता है जो बिना किसी स्वार्थ के काम करता है।

व्याख्यो – काम तो सभी लोग करते हैं, लेकिन उसी के काम की प्रशंसा होती है जो बिना किसी लोभ – लालच के, पूरी लगन से काम को पूरा करता है। जब व्यक्ति के मन में न धन की इच्छा होती है न यश पाने की कामना होती है और वह काम को नि:स्वार्थ भाव से पूरा करता है तो वह ‘बुद्ध’ के समान आत्मबल और ज्ञान से सम्पन्न हो जाता है। इस बल से वह चाहे तो सारे संसार की काया पलट सकता है। भगवान बुद्ध ने अपने आत्मबल से अंगुलिमाल जैसे क्रूर डाकू का हृदय परिवर्तन कर दिया था।

विशेष –

  1. स्वामी जी ने नि:स्वार्थ भाव से की गई सेवा के महान प्रभाव से देशवासियों को परिचित कराया है।
  2. भाषा साहित्यिक है तथा शैली उपदेशात्मक और प्रेरणा से पूर्ण है।

3. एक बात पर विचार करके देखिए, मनुष्य नियमों को बनाता है या नियम मनुष्य को बनाते हैं? मनुष्य रुपया पैदा करता है या रुपया मनुष्य को पैदा करता है? मनुष्य कीर्ति और नाम पैदा करता है या कीर्ति और नाम मनुष्य को पैदा करते हैं? मेरे मित्रो, पहले मनुष्य बनिए, तब आप देखेंगे कि वे सब बाकी चीजें स्वयं आपका अनुसरण करेंगी। परस्पर के घृणित द्वेषभाव को छोड़िए और सदुद्देश्य, सदुपाय एवं सत्साहस का अवलम्बन कीजिए। (पृष्ठ – 3)

संदर्भ तथा प्रसंग – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक ‘हिंदी प्रबोधिनी’ में संकलित ‘युवाओं से’ नामक पाठ से लिया गया हैं यह स्वामी विवेकानंद द्वारा अमेरिका (शिकागो) की एक ‘विश्वधर्म महासभा’ में दिए गए व्याख्यान का अंश है। इस अंश में स्वामी जी ने भारत के युवकों को आदर्श मनुष्य बनने की प्रेरणा दी है।

व्याख्या – स्वामी जी युवकों को संबोधित करते हुए कहते हैं। कि उन्हें धन, यश और नियमों के पीछे नहीं भागना चाहिए। ये सभी चीजें मनुष्य द्वारा बनाई और पैदा की गई हैं। अतः एक आदर्श मनुष्य बनना इनको पाने से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है। ये सभी वस्तुएँ मनुष्य के उपयोग के लिए बनी हैं, मनुष्य इनके लिए नहीं बना है। आपसी ईष्र्या, द्वेष और घृणा का त्याग करके अच्छे उपायों और साहस द्वारा जीवन के श्रेष्ठ लक्ष्यों को पाने की चेष्टा करनी चाहिए। यदि त्याग, सेवा, प्रेम और अहिंसा आदि गुणों को धारण करके आप एक अच्छे मनुष्य बन जाएँ तो ये सारी वस्तुएँ आपके पीछे – पीछे चलती नजर आएँगी। आपको इनके पीछे दौड़ने की आवश्यकता नहीं। लेकिन इस महान उद्देश्य की पूर्ति के लिए आपको आपसी द्वेष – भाव जैसे घृणित दोष को त्यागना होगा। अपना उद्देश्य महान बनाना होगा, उचित उपायों का अवलम्बन करते हुए प्रशंसनीय साहस से काम लेना होगा। सफलता अवश्य मिलेगी।

विशेष –

  1. स्वामी जी ने युवकों को विश्वास दिलाया है। कि यदि वे सच्चे अर्थों में मनुष्य बन जाएँ तो धन और यश स्वयं ही उन्हें प्राप्त हो जाएँगे।
  2. भाषा सरल है और शैली तर्क – प्रधान है।

4. अपने भाइयों का नेतृत्व करने का नहीं वरन् उनकी सेवा करने का प्रयत्न करो। नेता बनने की इस क्रूर उन्मत्तता ने बड़े – बड़े जहाजों को इस जीवनरूपी समुद्र में डुबो दिया है। मैं तुम सबसे यही चाहता हूँ कि तुम आत्म – प्रतिष्ठा, दलबंदी और ईष्र्या को सदा के लिए छोड़ दो। तुम्हें पृथ्वी – माता की तरह सहनशील होना चाहिए। यदि तुम ये गुण प्राप्त कर सको, तो संसार तुम्हारे पैरों पर लोटेगा। (पृष्ठ – 5)

संदर्भ तथा प्रसंग – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक ‘हिंदी प्रबोधिनी’ में संकलित युवाओं से’ नामक पाठ से लिया गया हैं यह स्वामी विवेकानंद द्वारा अमेरिका (शिकागो) की एक ‘विश्वधर्म महासभा’ में दिए गए व्याख्यान का अंश है। इस अंश में भारतीय युवकों को सावधान किया गया है कि वे अपने साथियों के नेता बनकर उन्हें अपने आदेशों पर चलाने के विचार से दूर रहें। उनके सहयोगी बनकर अपने लक्ष्य को प्राप्त करें।

व्याख्या – कोई भी कार्यक्रम या आन्दोलन आरम्भ होता है। तो कार्यकर्ताओं में उसका नेता या अगुआ बनने की होड़ शुरू हो जाती है। क्या देश की सेवा नेता बने बिना नहीं की जा सकती? स्वामी जी इस अंश में भारत की उन्नति के कार्य में लगने वाले युवकों को सावधान कर रहे हैं कि वे अपने साथियों के कंधे से कंधे मिलाकर देश – सेवा के पथ पर बढ़े। अपने आपको एक साधारण कार्यकर्ता माने, नेता नहीं। नेता बनने की धुन में लोग इतने निर्दय और मतवाले होते रहे हैं कि उनकी लालसा के कारण बड़ी – बड़ी जिन्दगियाँ तबाह होकर रह गईं। रक्तपात हुए और वे स्वयं भी जीवनरूपी समुद्र में डूब मरे।

इसलिए स्वामी जी चाहते हैं कि देश के युवक, ईष्र्या – द्वेष, अहंकार और आपसी दलबंदी से दूर रहें। हर समस्या का हल सहनशीलता से निकालें। वे धरती जैसे क्षमावान बनें। यदि उन्होंने ये सभी गण अपना लिए तो सारा संसार फिर से उनके भारत की चरण – वंदना करेगा। भारत को अपना गुरु मान लेगा।

विशेष –

  1. भाषा में भावों को गहराई तक पहुँचाने वाले शब्दों का प्रयोग हुआ है।
  2. शैली भावात्मक, व्यंग्यमयी और आलंकारिक है।
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