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RBSE Solutions for Class 9 Sanskrit सरसा Chapter 18 हितं मनोहारि च दुर्लभं वचः

June 19, 2019 by Safia Leave a Comment

Rajasthan Board RBSE Class 9 Sanskrit सरसा Chapter 18 हितं मनोहारि च दुर्लभं वचः

RBSE Class 9 Sanskrit सरसा Chapter 18 पाठ्य-पुस्तकस्य अभ्यास प्रश्नोत्तराणि

RBSE Class 9 Sanskrit सरसा Chapter 18 वस्तुनिष्ठप्रश्नाः

प्रश्न 1.
अस्य पाठस्य श्लोकानां रचयिता कविः कः अस्ति?
(क) कालिदासः
(ख) श्रीहर्षः
(ग) भारविः
उत्तराणि:
(ग) भारविः

प्रश्न 2.
अयं पाठः कस्य महाकाव्यस्य अंशः अस्ति?
(क) मेघदूतस्य
(ख) किरातार्जुनीयस्य
(ग) रघुवंशस्य
उत्तराणि:
(ख) किरातार्जुनीयस्य

प्रश्न 3.
यः अधिपं साधु ने शास्ति सः कः?
(क) किंप्रभुः
(ख) किंपतिः
(ग) किंसखा
उत्तराणि:
(ग) किंसखा

प्रश्न 4.
अन्यसम्मुन्नतिं कः न सहते?
(क) महीयसः
(ख) गरीयस
(ग) लघीयसः
उत्तराणि:
(क) महीयसः

RBSE Class 9 Sanskrit सरसा Chapter 18 लघूत्तरात्मक प्रश्नाः

प्रश्न 1.
सर्वसम्पदः कुत्र रतिं कुर्वते?
उत्तरम्:
सर्वसम्पदः नृपेषु अमात्येषु च सदानुकूलेषु रतिं कुर्वते।

प्रश्न 2.
पराभव के व्रजन्ति?
उत्तरम्:
मायाविषु ये मायिनः न भवन्ति ते मूढ़धिय: पराभवं व्रजन्ति।

प्रश्न 3.
सहसा किं न विदधीत?
उत्तरम्:
सहसा कामपि क्रियां न कुर्यात्।

RBSE Class 9 Sanskrit सरसा Chapter 18 निबन्धात्मक प्रश्नाः

1. अधोलिखितश्लोकयोः हिन्दीभाषायामनुवादः करणीयः

(क) तथापि जिह्मः स भवजिगीषया तनोति शुभ्रं गुणसम्पदा यशः।
समुन्नयन् भूतिमनार्यसङ्गमाद् वरं विरोधोऽपि समं महात्मभिः॥
उत्तरम्:
फिर भी वह कुटिल (दुर्योधन) आपको (पांडवों को) जीतने की इच्छा से दया-दक्षिणा आदि से (अपनी) निर्मल कीर्ति का विस्तार कर रहा है। ऐश्वर्य को बढ़ाते हुए महात्माओं के साथ विरोध भी दुष्टजनों के साथ की अपेक्षा श्रेष्ठ होता है।

(ख) सहसा विदधीत न क्रियाम् अविवेकः परमापदां पदम्।
वृणते हि विमृश्यकारिणम् गुणलुब्धाः स्वयमेव सम्पदः॥
उत्तरम्:
बिना विचार किये (शीघ्र ही) संधि-विग्रहादिक कार्य नहीं करने चाहिए (क्योंकि) बिना सोचे-समझे किया गया कार्य विपत्तियों का कारण होता है। निश्चित रूप से सोच-समझकर किये गये कार्यों में अनुरक्त रहने वाली सम्पत्तियाँ विचार कर कार्य करने वाले पुरुष का स्वयं ही वरण कर लेती हैं।

प्रश्न 2.
अधोलिखित श्लोकस्य संस्कृतभाषायां व्याख्यां कुरुत। स किंसखा साधु न शास्ति योऽधिपम् हितान्न यः संशृणुते स किंप्रभुः। सदानुकूलेषु हि कुर्वते रतिं नृपेष्वमात्येषु च सर्वसम्पदाम
उत्तरम्:
व्याख्याः अस्मिन् श्लोके मन्त्री नृपस्य च अनुकूलतां वर्णयन् कवि कथयति यत् यः प्रभुम् उचितं न परामृशंदाति सः कुत्सितः मित्रं भवति, यः हितैषिणः वचनं न शृणोति सः कुत्सितो राजभवति। राजसु मन्त्रिषु च परस्पर अनुकूलतायां सर्वसम्पत्तयः सदैव अनुरागं कुर्वते।

प्रश्न 3.
सन्धिविच्छेदं कृत्वा सन्धिनामनिर्देशनं कुरुत –
उत्तरम्:
(क) तथापि, = तथा + अपि = दीर्घ संधि
(ख) ममाधयः = मम + आधयः = दीर्घ संधि
(ग) मृगाधिपः = मृग + अधिपः = दीर्घ संधि
(घ) नान्यः = न + अन्यः = दीर्घ संधि
(ङ) सदानुकूलेषु = सदा + अनुकूलेषु = दीर्घ संधि
(च) नृपेष्वमात्येषु = नृपेषु + अमात्येषु = यण संधि

प्रश्न 4.
अधोलिखित पदानां समास विग्रहं कुरुत –
उत्तरम्:
(क) आवारिधिः = वारिद्याम् पर्यन्तम् (आसमुद्रात् (समुद्र तक)
(ख) चित्तवृत्तयः = चित्तस्य वृत्तयः इति ष०त० समास
(ग) अविवेकः = न विवेकः इति नञ् त० पु० समास
(घ) भवज्जिगीषाः = भवतः जिगीषा: इति ष० त० समास
(ङ) गुणसम्पदः = गुणानाम् सम्पदः इति ष० त० समास।

प्रश्न 5.
अधोलिखितपदेषु धातु-लकार-पुरुष वचनानां निर्देश कुरुत –
(क) तनोति, (ख) कुर्वते, (ग) व्रजन्ति, (घ) जन्ति, (ङ) रुजन्ति, (च) शास्ति, (छ) संशृणुते।
उत्तरम्:
RBSE Solutions for Class 9 Sanskrit सरसा Chapter 18 हितं मनोहारि च दुर्लभं वचः 1

प्रश्न 6.
समुचित विभक्ति प्रयोगेण रिक्तस्थानानि पूरयत
(क) व्रजन्ति …………… मूढ़धियः पराभवम्। (तत्)
(ख) मायाविषु ……………. न मायिनः। (यत्)
(ग) ………………. वेद न तावकीं धियं। (अस्मद्)
(घ) तथापि जिह्म: ………… भवज्जिगीषया। (तत्)
उत्तराणि:
(क) ते (ख) ये (ग) अहम् (घ) सः

प्रश्न 7.
‘क’ खण्डं ‘ख’ खण्डेन सह योजयत
RBSE Solutions for Class 9 Sanskrit सरसा Chapter 18 हितं मनोहारि च दुर्लभं वचः 2
उत्तरम्:
योऽधिपं न शास्ति स किं सखा।
भवन्ति मायाविषु ये न मायिनः।
विचित्ररूपाः खलु चित्तवृत्तयः।
अन्यसमुन्नतिं न सहते।

RBSE Class 9 Sanskrit सरसा Chapter 18 अन्य महत्वपूर्ण प्रश्नोत्तराणि

अधोलिखित प्रश्नान् संस्कृत भाषया पूर्ण वाक्येन उत्तरत –

प्रश्न 1.
कीदृशं वचः दुर्लभं भवति?
उत्तरम्:
हितं मनोहारि च दुर्लभं वचः।

प्रश्न 2.
कः कुत्सितः सखा?
उत्तरम्:
य: अधिपं साधुन शास्ति स किं सखा।

प्रश्न 3.
किं प्रभुः कः कथ्यते?
उत्तरम्:
य: हितान्न संशृणुते सः किं प्रभुः।

प्रश्न 4.
केषां संगमात् महात्मभि सह विरोधोऽपि वरम्।
उत्तरम्:
अनार्याणां संगमात् महात्मभिः सह विरोधोऽपि वरम्।

प्रश्न 5.
मूढधियान् शठाः कथं घ्नन्ति?
उत्तरम्:
य था विधान् असंवृताङ्गान् निशिता इवेषवः घ्नन्ति।

प्रश्न 6.
चित्तवृत्तयः कीदृश्य भवन्ति?
उत्तरम्:
चित्त वृत्तयः विचित्र रूप खलु।

प्रश्न 7.
द्रौपदी युधिष्ठिरस्य धियं कथं न जानाति?
उत्तरम्:
यतः विचित्र रूपाः खलु चित्तवृत्तयः।

प्रश्न 8.
महीयसां प्रकृति कीदृशी भवति?
उत्तरम्:
महीयसः अन्य समुन्नतिं न सहते।

प्रश्न 9.
अत्र महीयसः तुलना केन सह कृता?
उत्तरम्:
अत्र महीयसः तुलना मृगाधिपेन सह कृता।

प्रश्न 10.
अविवेकः केषां पदम्?
उत्तरम्:
अविवेकः परमापदां पदम्।

स्थूलाक्षर पदानि आधृत्य प्रश्न निर्माणं कुरुत –

प्रश्न 1.
अविवेकः परमापदां पदम्।
उत्तरम्:
क: परमापदाम् पदम्?

प्रश्न 2.
सहसा क्रियां न विदधीत।
उत्तरम्:
सहसा काम् न विदधीत?

प्रश्न 3.
हितं मनोहारि च दुर्लभं वचः।
उत्तरम्:
कीदृशं वचः दुर्लभम्?

प्रश्न 4.
क्रियासु युक्तैः अनुजीविभिः चारचक्षुषः प्रभवः न वञ्चनीया।
उत्तरम्:
कैः चारचक्षुषः प्रभवः न वञ्चनीयाः।

प्रश्न 5.
भारवेरर्थ गौरवम् प्रसिद्धम्।
उत्तरम्:
भारवेः किम् प्रसिद्धम्?

पाठ परिचय
यह पाठ महाकवि भारवि द्वारा रचित किरातार्जुनीयं महाकाव्य से संकलित है। इस पाठ में महाकवि की कुछ नीति सूक्तियाँ भी संकलित की गयी हैं। ये सूक्तियाँ दुर्लभवाणी, शासन पद्धति, शठता के स्वभाव और भिन्न चित्त वृत्ति वाले विषयों को स्पष्टीकरण करते हैं।

मूलपाठ, अन्वय, शब्दार्थ, हिन्दी – अनुवाद एवं सग्रसङ्ग संस्कृत व्याख्या

1. क्रियासु युक्तैर्नृप चारचक्षुषो न वञ्चनीयाः प्रभवोऽनुजीविभिः।
अतोऽर्हसि क्षन्तुमसाधु साधु वा हितं मनोहारि चे दुर्लभ वचः॥

अन्वयः (हे) नृप! क्रियासु युक्तैः अनुजीविभिः चार – चक्षुषः प्रभवः न वञ्चनीयाः, अतः साधु असाधु वो क्षन्तुम् अर्हसि (यत:) हितं मनोहारि च वच: दुर्लभं (भवति)। शब्दार्थाः – नृप! = राजन् (हे राजन्)। क्रियासु = करणीय कार्येषु (कर्तव्य कर्मों में, करने योग्य कार्यों में)। युक्तैः = नियुक्तैः (नियुक्त हुए)। अनुजीविभिः = भृत्यैः, गुप्तचरैः (गुप्तचरों, सेवकों द्वारा)। चारचक्षुषः = गुप्तचरलोचनाः (गुप्तचररूपी दृष्टि रखने वाले)। प्रभवः = राजानः (राजा लोग)। न वञ्चनीयाः = न प्रतारणीयाः (ठगे न जाने चाहिए)। अतः = इसलिए। साधु = प्रियं (उचित, अच्छा)। असाधु = अप्रियं (अनुचित)। क्षन्तुम् = सोदुम् (सहन करने के लिए)। वा = अथवा (अथवा)। अर्हसि = योग्योऽसि (योग्य हो)। (यतः = क्योंकि)। हितं = हितकरं (हितकारी)। मनोहारि च = प्रियं च (और प्रिय)। वचः = वचनं (वचन)। दुर्लभं = दुष्करेण लभ्य (दुर्लभ कठिनाई से प्राप्त)। (भवति = होता है।)

हिन्दी – अंनुवाद – हे राजन्! करने योग्य कार्यों में नियुक्त गुप्तचर सेवकों द्वारा गुप्तचररूपी दृष्टि रखने वाले राजा लोग ठगे नहीं जाने चाहिए। इसलिए प्रिय अथवा अप्रिय को (आप) क्षमा करने योग्य हैं। हितकारी और प्रियवचन दुर्लभ होता है।

सप्रसंग – संस्कृत व्याख्या – प्रस्तुत श्लोकः अस्माकं ‘सरसा इति पाठ्य – पुस्तकस्य ‘हितं मनोहारि च दुर्लभं वचः’ इति पाठात् उद्धृतः। मूलरूपेण अयं महाकवि भारविकृत किरातार्जुनीयम् इति महाकाव्यत: संकलितः। अस्मिन् श्लोके कविः नृपस्य सेवकस्य च कर्तव्यविषये कथयति। हे राजन! करणीय कार्येषु नियुक्तैः भृत्यैः (गुप्तचरैः) गुप्तचरलोचना: राजानः न प्रतारणीयाः। अतः मया उक्तं उचितं अनुचितं वा सोढुम् भवान् योग्योऽसि यतः हितकरं प्रियं च वचनं काठिन्येने लभ्यं भवति।

♦ व्याकरणिक बिन्दवः –

1. क्षन्तुम् = क्षम् + तुमुन्।
2. अतोऽर्हसि = अतः + अर्हसि – विसर्ग, पूर्वरूप संधि।

2. तथापि जिह्मः स भवज्जिगीषया तनोति शुभं गुणसम्पदा यशः।
समुन्नयन् भूतिमनार्यसङ्गमाद् वरं विरोधोऽपि समं महात्मभिः॥

अन्वयः – – तथापि जिह्मः सः भवज्जिगीषया गुणसम्पदां शुभ्रं यशः तनोति। भूतिं समुन्नयन् महात्मभिः समं विरोधः अपि अनार्यसंगमाद् वरम् (भवति)।

शब्दार्थाः – तथापि = फिर भी। जिह्मः = कुटिल: (कुटिल)। सः = असौ दुर्योधनः (वह दुर्योधन)। भवज्जिगीषया = भवद्विजयेच्छया ( आपको जीतने की इच्छा से)। गुणसम्पदा = दयादाक्षिण्यादिगुणगौरवेण (दया दक्षिणादि गुण की महिमा से)। शुभं = निर्मलं, उज्ज्वलं (निर्मल, उज्ज्वल)। यशः = कीर्ति (कीर्ति को)। तनोति = विस्तारयति (विस्तृत कर रहा है, फैला रहा है)। भूतिं = ऐश्वर्यं (गुण सम्पदा को)। समुन्नयन् = भली – भाँति बढ़ाता हुआ। महात्मभिः = साधुजनैः (साधुजनों के)। समं = सार्धम् (साथ)। विरोधः अपि = विग्रह कलहो वा (विग्रह विरोध अथवा कलह, भी)। अनार्यसङ्गात् = खलसङ्गमापेक्षया (दुष्टजनों के संपर्क की अपेक्षा)। वरं एव = श्रेष्ठ एव (श्रेष्ठ ही)। भवति = होता है।

हिन्दी – अनुवाद – फिर भी कुटिल वह (दुर्योधन) आपको जीतने की इच्छा से दया – दक्षिणा आदि गुणों की महिमा से (अपने) उज्ज्वल यश को फैला रहा है। वैभव सम्पदा को बढ़ाते हुए साधुजनों के साथ विरोध भी दुष्टजनों की संगति की अपेक्षा श्रेष्ठ होता है। सप्रसंग – संस्कृत व्याख्या – प्रस्तुत श्लोकः अस्माकं ‘सरसा इति पाठ्यपुस्तकस्य हितं मनोहारि च दुर्लभं वचः’ इति पाठात् उद्धृतः। मूलरूपेण अयं महाकविभारविकृत किरातार्जुनीयम् इति महाकाव्यत: संकलितः। अस्मिन् श्लोके खलजनैः समं अपेक्षया साधुजनैः सह विरोधोऽपि श्रेष्ठः इति विषये कथयति यत् तथापि कुटिलः असौ दुर्योधनः भवद्विजयेच्छया दयादाक्षिण्यादि गौरवेण स्वकीयं निर्मलं कीर्ति विस्तारयति। ऐश्वर्यं समुन्नयन् साधुजनैः सार्धम् कलहो अपि (विरोधोऽपि) खलसङ्गमापेक्षया श्रेष्ठं एव भवति।

♦ व्याकरणिक बिन्दवः –

1. तनोति = तन् + तिप् (लट्० प्र० पु० एकवचन)।
2. भवज्जिगीषया = भवद् + जिगीषया (हल् संधि)।

3. स किं सखा साधु न शास्ति योऽधिपं हितान्न यः संशृणुते स किं प्रभुः।
सदानुकूलेषु हि कुर्वते रतिं नृपेष्वामात्येषु च सर्वसम्पदः॥

अन्वयः – यः अधिपं साधु न शास्ति स किं सखा, यः हितात् न संशृणुते स किं प्रभुः। हि नृपेषु अमात्येषु च अनुकूलेषु (सत्सु) सर्वसम्पदः सदा रतिं कुर्वते।

शब्दार्थाः—यः ( मित्रः) = जो (मित्र)। अधिपं = प्रभु राजानं (स्वामी राजा को)। साधु = उचितं (उचित, सही)। न शास्ति = न उपदिशति (परामर्श नहीं देता)। स किं सखा = से: कुत्सितः सुहृद् मित्र (वह बुरा मित्र (होता है))। हितात् = हितैषिणे: आमात्यादेः (हितैषी अमात्यादि से, मन्त्री आदि से)। न संशृणुते = हितकरं उपदेशं ने शृणोति (हितकारी बात नहीं सुनता)। स = असौ (वह)। कुत्सितः प्रभुः = कुत्सितः राजा (बुरा राजा)। हि = क्योंकि। नृपेषु = राजसु (राजाओं के)। अमात्येषु च = मन्त्रिषु च (और मन्त्रियों के)। अनुकूलेषु = परस्परानुरक्तेषु (परस्पर अनुरक्त होने पर)। सर्वसम्पदः = सकलाः सम्पत्तयः (सभी सम्पत्तियाँ)। सदा = सर्वदा (सदा)। रतिं कुर्वते = अनुरागं कुर्वते (प्रेम करती हैं)।

हिन्दी – अनुवादः – जो मित्र राजा को उचित परामर्श नहीं देता वह क्या अर्थात् बुरा मित्र? जो राजा हितैषी मन्त्री से हित की बात नहीं सुनता वह क्या अर्थात् बुरा राजा? मन्त्रियों एवं राजाओं के परस्पर अनुरक्त होने पर ही सभी सम्पत्तियाँ सदा प्रेम करती हैं अर्थात् प्राप्त होती हैं।

सप्रसंग – संस्कृत व्याख्या – प्रस्तुतश्लोकः अस्माकं ‘सरसा। इति पाठ्यपुस्तकस्य ‘हितं मनोहारि च दुर्लभं वचः’ इति पाठात् उद्धृतः। मूलरूपेण अयं महाकवि भारविकृत किरातार्जुनीयम् इति महाकाव्यत: संकलितः। अस्मिन् श्लोके कुत्सितस्य नृपस्य मित्रणः च धर्मं वर्णितं यत् – य: मित्रंः प्रभुराजानं उचितं न उपदिशति सः कुत्सित सुहृद्? यः (नृपः) हितैषिणः अमात्यादेः हितकरं उपदेशं न शृणोति, असौ कुत्सितः राजा हि राजसु अमात्येषु च परस्परानुरक्तेषु सकल सम्पत्तयः सर्वदा अनुरागं कुर्वन्ते अर्थात् प्राप्तं भवन्ति।

♦ व्याकरणिक बिन्दवः –

1. योऽधिपं = यः + अधिपम् (विसर्ग, पूर्वरूप संधि)।
2. सदाऽनुकूलेषु = सदा + अनुकूलेषु = (दीर्घ संधि)।

4. प्रलीनभूपालमपि स्थिरायति प्रशासदावारिधिमण्डलं भुवः।
सचिन्तयत्येवभियस्त्वदेष्यतीरहो दुरन्ता बलवद्विरोधिता॥

अन्वयः – सः प्रलीनभूपालम् स्थिरायति आवारिधि भुवः मण्डलं प्रशासत् अपि त्वत् एष्यतीः भियः चिन्तयन्ति एव, अंहो बलवद्विरोधिता दुरन्ता (भवति)।

शब्दार्थाः – सः = असौ (दुर्योधनः) (वह दुर्योधन)। प्रलीनभूपालम् = शत्रुरहितं भवन् (शत्रुरहित होकर)। स्थिरायति = चिरस्थायी (चिरस्थायी भविष्य वाले)। आवारिधि = समुद्रपर्यन्तं विस्तीर्णं (समुद्रपर्यन्त फैला)। भुवः मण्डलम् = पृथिव्यां (पृथ्वी पर)। प्रशासत् अपि = राज्यं अनुशास्ति तथापि (शासन करता हुआ भी)। त्वत् = भवत् (आपसे)। एष्यती = उत्पत्स्यमानाः (आने वाली, संभावित) भियः = विपदां (विपत्तियों की)। चिन्तयति एवं = चिन्तान्वितो (चिन्ता करता ही है)। अहो! = खेदस्य विषयोऽयं (अरे यह दुःख की बात है)। बलवदविरोधिता = बलवत् शत्रु विरोधभावः (बलवान् शत्रु के साथ विरोध)। दुरन्ता = दुष्करेण अन्तवान् भवति। (कठिनाई से समाप्त होने वाला होता है)।

हिन्दी – अनुवादः – – यह (दुर्योधन) निष्कण्टक चिरस्थायी समुद्रपर्यन्त पृथ्वी पर शासन करता हुआ भी आपसे (पांडवोंसे आने वाले) भय की चिंता करता ही है। दु:ख की बात है। कि बलवान् शत्रु के साथ विरोध भी मुश्किल से समाप्त होने वाला होता है।

सप्रसंग – संस्कृत व्याख्या – प्रस्तुतश्लोकः अस्माकं ‘सरसा इति पाठ्य – पुस्तकस्य ‘हितं मनोहारि च दुर्लभं वचः’ इति पाठात् उद्धृतः। मूलरूपेण अयं महाकवि भारविकृत किरातार्जुनीयम् इति महाकाव्यत: संकलितः। अस्मिन् श्लोके बलवान् शत्रु केन प्रकारेण कष्टकारकः भवति इति वर्णितं अस्ति। असौ (दुर्योधन) शत्रुरहितं भवन् चिरस्थायी समुद्रपर्यन्तं विस्तीर्णापृथिव्या निष्कण्टकं राज्यं अनुशास्ति तथापि भवतः सद्यः उत्पत्स्यमानाः विपत्ती: विचारयति एव। खेदस्य विषयोऽयं बलवच्छत्रुविरोधभावः दु:खदः भवति।

♦ व्याकरणिक बिन्दवः –

1. प्रलीनभूपालम् = प्रलीनाः भूपालाः यस्मिन् (बहुव्रीहि समास)।
2. दुरन्ता = दुष्करेण अन्तः यस्यः सः (बहुब्रीहि समास)।

5. व्रजन्ति ते मूढधियः पराभवं भवन्ति मायाविषु ये न मायिनः।
प्रविश्य हिं घ्नन्ति शठास्तथाविधान संवृत्ताङ्गान् निशिता इवेषवः॥

अन्वयः – ये मायाविषु मायिनः न भवन्ति ते मूढधियः पराभवं व्रजन्ति। हि निशिताः इषवः असंवृत्ताङ्गान् इव शठाः तथाविधान् प्रविष्य हि घ्नन्ति।

शब्दार्था: – ये = जो। मायाविषु = कपटाचरणकुशलेषु (कपट का आचरण करने वालों के विषय में)। मायिनः = कुटिला (कपट का आचरण करने वाले)। न भवन्ति = (नहीं होते हैं)। ते मूढधियः = अमी विवेकशून्याः, मूढजनाः (वे विवेकशून्य मूर्ख लोग)। पराभवं = पराजयं (पराजयको)। व्रजन्ति = प्राप्नुवन्ति (प्राप्त करते हैं)। हि = यतः (क्योंकि)। निशिताः = तीक्ष्णाः (तीक्ष्ण, तेज)। इषवः = बाणा: (बाणा)। असंवृत्ताङ्गान् इव = अनावृत शरीरान् इव (कवच या आवरणरहित शरीर के समान)। शठाः = धूर्तजनाः (धूर्त लोग)। तथाविधान = अकुटिलान् (निष्कपटलोगों को)। प्रविश्य = अन्तः प्रवेशं प्राप्य (अन्दर प्रवेश करके)। घ्नन्ति = विनाशयन्ति (मार डालते हैं)।

हिन्दी – अनुवादः – जो (लोग) कपटयुक्त आचरण करने वालों के विषय में कुटिल नहीं होते, वे विवेकरहित मूर्ख लोग पराजय को प्राप्त करते हैं। निश्चित रूप से तेज बाणों से बिना ढके शरीर के समान धूर्त लोग निष्कपट लोगों को उनके हृदय में प्रवेश करके मार डालते हैं।

सप्रसंग – संस्कृत व्याख्या – प्रस्तुतश्लोकः अस्माकं ‘सरसा इति पाठ्य – पुस्तकस्य ‘हितं मनोहारि च दुर्लभं वचः’ इति पाठात् उद्धृतः। मूलरूपेण अयं महाकवि भारविकृत किरातार्जुनीयम् इति महाकाव्यत: संकलितः। अस्मिन् पद्ये कविः दुर्जनानां प्रकृतिविषये वर्णयन् कथयति यत् – ये (जनाः) कपट आचरणे कुशलेषु कुटिलाः न भवन्ति अमी (ते) विवेकशून्याः मूढजनाः पराजयं प्राप्नुवन्ति। हि (यत:) यथा निशिताः बाणा: अनावृतशरीरान् घ्नन्ति तथैव धूर्तजनाः अकुटिलान् अंत: प्रवेशं प्राप्य (तान्) विनाशयन्ति।

♦ व्याकरणिक बिन्दवः –

1. प्रविश्य = प्र + विश् + ल्यप्
2. इवेषवः = इव + इशवः गुण संधि।

6. इमामहं वेद न तावकीं धियं विचित्ररूपाः खलु चित्तवृत्तयः।
विचिन्तयन्त्या भवदापदं परां रुजन्ति चेतः प्रसंभं ममाधयः॥

अन्वयः – इमाम् तावकीम् धियम् अहं न वेद, चित्तवृत्तयः विचित्ररूपाः खलु। पराम् भवदापदम् विचिन्तयन्त्या मम चेत: आधयः प्रसभं रुजन्ति। शब्दार्थाः इमाम् = परिदृश्यमानां (इस वर्तमान)। तावकों = तव (आपकी)। धियम् = मतिं (बुद्धि को)। अहं न वेद = अहं न जानामि (मैं नहीं जानती)। चित्तवृत्तयः = संकल्पविकल्पात्मका: मनोव्यापारान् (चित्त अथवा मन की वृत्तियाँ)। विचित्ररूपाः = विचित्रा दुर्बोधा च भवन्ति (अनेक रूप होने के कारण दुर्बोध विचित्र और होती हैं)। खलु = निश्चयेन (निश्चित रूप से ही)। पराम् = गंभीराम् (गंभीर)। भवदापदम् = तव विपत्तिम् (आपकी विपत्ति को)। विचिन्तयन्त्याः = चिन्ता करती हुई। मम चेतः = मम मन: (मेरे मन को)। आधयः = मनोव्यथाः (मन की व्यथाएँ)। प्रसभं = हठात् (हठपूर्वक)। रुजन्ति = परिपीडयन्ति, व्याकुला कुर्वन्ति (व्याकुल कर रही हैं)।

हिन्दी – अनुवादः – इस वर्तमान (क्रोध और संतोष युक्त) आपकी बुद्धि को मैं नहीं जानती। चित्त की वृत्तियाँ निश्चित रूप से अनेक प्रकार की और दुर्बोध होती हैं। अति गंभीर आपकी विपत्ति की चिन्ता करती हुई मेरे (द्रोपदी के) मन को मनोव्यथायें हठपूर्वक व्याकुल कर रही हैं।

सप्रसंग – संस्कृत व्याख्या – प्रस्तुतश्लोकः अस्माकं ‘सरसा इति पाठ्य – पुस्तकस्य ‘हितं मनोहारि च दुर्लभं वचः’ इति पाठात् उद्धृतः। मूलरूपेण अयं महाकवि भारविकृत ‘किरातार्जुनीयम्’ इति महाकाव्यत: संकलितः। अस्मिन् पद्ये दुःखस्य अवसरे चित्तस्य का अवस्था भवति कविः इति वर्णयन् कथयति – परिदृश्यमानां तव मतिं अहं न जानामि। संकल्पविकल्पात्मक मनोव्यापारा: निश्चयेन विचित्रा दुबधा च भवन्ति। गंभीराम् तव विपत्तिम् विचिन्तयन्त्यमानः मम मनः अन्तर्व्यथामिः परिपीडितं आकुलञ्च भवति।

♦ व्याकरणिक बिन्दवः –

1. विचित्ररूपाः = विचित्रं रूपं यासांते बहुव्रीहि।
2. चित्तवृत्तयः = चितस्य वृत्तयः षष्ठी तत्पुरुष।

7. किमपेक्ष्य फलं पयोधरान् ध्वनतः प्रार्थयते मृगाधिपः।
प्रकृतिः सा खलु महीयसः सहते नान्यसमुन्नतिं यया॥

अन्वयः – मृगाधिपः किम् फलम् अपेक्ष्य ध्वनतः पयोधरान् प्रार्थयते। महीयसः सा प्रकृतिः खलु यया अन्य समुन्नतिम् ने सहते।

शब्दार्था: – मृगाधिपः = मृगेन्द्रः, सिंह: (सिंह, शेर)। किं फलं = किं प्रयोजनं (किस प्रयोजन की)। अपेक्ष्य = विचार्य (अपेक्षा से या विचार करके)। ध्वनतः = गर्जतः (गरजते हुए)। पयोधरान् = मेघान् (बादलों को)। प्रार्थयते = अनुगर्जति (ललकारता है)। महीयसः = महापुरुषस्य (महान् पुरुष का)। सा प्रकृति = स्वभावः (वह स्वभाव)। यया = प्रकृत्या (जिससे, स्वभाव से)। अन्यसमुन्नतिम् = अन्योत्कर्षं (दूसरे की उन्नति को) न सहते = न मृष्यति (नहीं सह सकता)।

हिन्दी – अनुवाद – सिंह किस फल की अपेक्षा से गजरते हुए बादलों को ललकारता है अर्थात् किसी भी अपेक्षा से नहीं। महान् पुरुष का वह स्वभाव ही होता है जिससे कि वह दूसरे की उन्नति को नहीं सह पाता।

सप्रसंग – संस्कृत व्याख्या – प्रस्तुत श्लोकः अस्माकं ‘सरसा पाठ्य – पुस्तकस्य ‘हितं मनोहारि च दुर्लभं वचः’ इति पाठात् उद्धृतः। मूलरूपेण अयं महाकवि भारवि कृत ‘किरातार्जुनीयम्’ इति महाकाव्यत: संकलितः। अस्मिन् पद्ये महापुरुषस्य स्वभावस्य विषये वर्णयन् कविः कथयति यत् – मृगेन्द्रः (सिंह:) किं प्रयोजनं विचार्य गर्जतः मेघान् अनुगर्जति अर्थात् केनापि न। अत: महापुरुषस्य स्वभावः एव भवति यत् प्रकृत्या सः अन्योत्कर्षं न मृष्यति इति।

♦ व्याकरणिक बिन्दवः –

1. अपेक्ष्य = अप् + ईक्ष् + (क्त्वा) + ल्यप् ,
2. समुन्नतिं = सम् + उद् +नम् + क्तिन्।

8. सहसा विदधीत न क्रियाम अविवेकः परमापदां पदम्।
वृणते हि विमृश्यकारिणम् गुणलुब्धाः स्वयमेव सम्पदः॥

अन्वयः – सहसा क्रियाम् न विदधीत, अविवेकः परमापदाम् पदं (भवति)। हि गुणलुब्धाः सम्पदः विमृश्यकारिणम् स्वयमेव वृणते।

शब्दार्थाः – सहसा = अविमृश्य झटित्येव (बिना विचार किये, अचानक)। क्रियां = संधिविग्रहादि कार्यं (संधि विग्रहादि कार्यों को)। न विदधीत = न कुर्वीत (नहीं करना चाहिए)। अविवेकः = अविमृश्यकारितम् (बिना विचारे किया गया कार्य)। परमापदां = अतिविपत्तिनाम् (परम विपत्तियों या आपदाओं का)। पदं = स्थानं कारणं वा (स्थान अथवा कारण)। भवति = होता है। सम्पदः = सम्पत्तयः (सम्पत्तियाँ)। विमृश्यकारिणं = विमृश्यकारित्वं (सम्यक् विचार कर कार्य करने वाले पुरुष को)। स्वयमेव = आत्मनैव (स्वयं ही)। वृणते = भजन्ते (वरण करती हैं)।

हिन्दी – अनुवादः – बिना विचार किये अचानक संधि विग्रहादि कार्य नहीं करने चाहिए। बिना विचार किये किया गया कार्य आपदाओं का कारण होता है। निश्चित रूप से सोच – समझकर किये गये कार्यों में अनुरक्त रहने वाली सम्पत्तियाँ विचार कर कार्य करने वाले पुरुष का स्वयं ही वरण करती हैं।

सप्रसंग – संस्कृत व्याख्या – प्रस्तुतश्लोकः अस्माकं ‘सरसा इति पाठ्यपुस्तकस्य ‘हितं मनोहारि च दुर्लभं वचः’ इति पाठात् उद्धृतः। मूलरूपेण अयं महाकवि भारवि कृत ‘किरातार्जुनीयम्’ इति महाकाव्यत: संकलितः। अस्मिन् श्लोके अविचारितं कार्यं न करणीयं इति वर्णयन् कविः कथयति – अविमृश्य झटित्वेन संधिविग्रहादि कार्यं न कुर्वीत यतः अविमृश्यकारित्वं अतिविपत्तिनाम् स्थानं भवति। अतः निश्चितरूपेण विमृश्यकारित्यादिगुणानुरक्ता सम्पत्तयः विमृश्यकारित्वं पुरुषं आत्मनैव भजन्ते इति।

♦ व्याकरणिक बिन्दवः –

1. अविवेकः = न विवेकः नञ् समास।
2. गुणलुब्धाः = गुणेषु लुब्धाः सप्तमी तत्पुरुष।

RBSE Solutions for Class 9 Sanskrit 

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