These comprehensive RBSE Class 10 Science Notes Chapter 9 अनुवांशिकता एवं जैव विकास will give a brief overview of all the concepts.
RBSE Class 10 Science Chapter 9 Notes अनुवांशिकता एवं जैव विकास
→ जनन प्रक्रमों द्वारा नए जीव (व्यष्टि) उत्पन्न होते हैं जो जनक के समान होते हुए भी कुछ भिन्न होते हैं।
→ जनन के समय उत्पन्न विभिन्नताएं वंशानुगत हो सकती हैं। इन विभिन्नताओं के कारण जीव की उत्तरजीविता में वृद्धि हो सकती है।
→ अलैंगिक जनन में उत्पन्न संतति (जीव) में बहुत अधिक समानताएँ होती हैं लेकिन लैंगिक जनन में विविधता अपेक्षाकृत अधिक होती है।
→ स्पीशीज में विभिन्नताओं के साथ अपने अस्तित्व में रहने की संभावना एकसमान नहीं होती है। प्रकृति। की विविधता के आधार पर विभिन्न जीवों को विभिन्न प्रकार के लाभ हो सकते हैं। उष्णता को सहन करने की क्षमता वाले जीवाणुओं को अधिक गर्मी से बचने की संभावना अधिक होती है।
→ आनुवंशिकता-जनक जीवों से संतति में गुणों एवं लक्षणों के स्थानान्तरण को आनुवंशिकता कहते हैं। आनुवशिकता नियम इस बात का निर्धारण करते है जिनके द्वारा विभिन्न लक्षण पूर्ण विश्वसनीयता के साथ वशागत होते हैं।
→ वंशागत लक्षण-शिशु में मानव के सभी आधारभूत लक्षण होते हैं। फिर भी यह पूर्णरूप से अपने जनकों जैसा दिखाई नहीं पड़ता तथा मानव समष्टि में यह विभिन्नता स्पष्ट दिखाई देती है। उदाहरण-स्वतन्त्र तथा जुड़े कर्णपालिं।
→ मानव में लक्षणों की वंशागति के नियम इस बात पर आधारित हैं कि माता एवं पिता दोनों ही समान मात्रा में आनुवंशिक पदार्थ को संतति (शिशु) में स्थानान्तरित करते हैं।
→ ग्रेगर जॉन मेंडल (1822-1884) ने प्रयोग कर आनुवंशिकी लक्षणों की वंशागति के नियमों का प्रतिपादन किया इस कारण इन्हें आनुवंशिकी का जनक कहते हैं।
→ मेंडल ने मटर के पौधे के अनेक विपर्यासी (विकल्पी) लक्षणों का अध्ययन किया जो स्थूल रूप से दिखाई देते हैं। उदाहरणतः गोल/झुरीदार बीज; लंबे/बौने पौधे, सफेद/बैंगनी फूल इत्यादि।
→ मेण्डल के प्रयोगों से सम्बन्धित शब्दों की परिभाषा
(i) कारक-मेण्डल ने जब प्रयोग किये थे उस समय तक गुणसूत्र व जीन सम्बन्धी खोज नहीं हुई थी। अतः मेण्डल ने इन लक्षणों को नियंत्रित करने वाली रचना को जीन के स्थान पर कारक कहा।
(ii) संकरण-दो जाति के जीवों के बीच क्रॉस या निषेचन कर नई सन्तति प्राप्त करने की प्रक्रिया को संकरण कहते हैं।
(iii) संकर-दो जाति के जीवों के बीच क्रॉस कराने से उत्पन्न संतति को संकर कहते हैं।
(iv) प्रथम फिलियल-दो जनक के क्रॉस से उत्पन्न प्रथम पीढ़ी को प्रथम फिलियल कहते हैं। इसे F1 से दर्शाते हैं।
(v) लैंगिक जनन वाले जीवों में एक अभिलक्षण (Trait) के जीन के दो प्रतिरूप (Copies) होते हैं। इन प्रतिरूपों के एकसमान न होने की स्थिति में जो अभिलक्षण व्यक्त होता है उसे प्रभावी लक्षण तथा अन्य को अप्रभावी लक्षण कहते हैं।
(vi) जीन प्ररूप-जीवों के आनुवंशिकीय संघटन (अर्थात् जीनी संरचना) को जीन प्ररूप कहते हैं।
(vii) लक्षण प्ररूप-जीव के बाहरी लक्षणों को लक्षण प्ररूप कहते हैं, जैसे लम्बा, बौना, लाल, हरा रंग।
(viii) युग्म विकल्पी-किसी प्राणी में एक गुण को नियंत्रित या अभिव्यक्त करने वाले जीन के दो विपर्यासी स्वरूप को युग्मविकल्पी (Allele) कहते हैं।
(ix) समयुग्मजी-यदि जीव के दोनों जीन समान प्रकार के हों, जैसे TT या tt तो वह समयुग्मजी होता है। यदि दोनों जीन अलग-अलग प्रकार के हों, जैसे Tt तो जीव विषमयुग्मजी होता है।
(x) संकरपूर्वज संकरण-जब संकरण में F1 पीढ़ी की संतति अर्थात् संकर जीव का संकरण किसी भी जनक P के साथ किया जाये तो इसे संकरपूर्वज संकरण कहते हैं।
(xi) एकल संकर संकरण-एक जोड़ी युग्म विकल्पी के लिए किया गया क्रॉस एकल संकरण कहलाता है।
(xii) द्विसंकर संकरण-दो जोड़ी युग्म विकल्पी के लिए किया गया क्रॉस द्विकर संकरण कहलाता है।
(xiii) शुद्ध किस्म-ऐसे जीव जो किसी लक्षण विशेष के लिए अनेक पीढ़ियों तक अपने समान लक्षण वाले जीव ही उत्पन्न करते हैं, उन्हें शुद्ध किस्म कहते हैं।
(xiv) परीक्षण संकरण-जब F1 पीढ़ी के विषमयुग्मजी संकर का संकरण, समयुग्मजी अप्रभावी जनक के साथ कराया जाता है तो इसे परीक्षण संकरण कहते हैं। इस संकरण से प्राप्त संतति में 50% अप्रभावी लक्षणों वाले जीव होते हैं।
→ एकल लक्षण का नियम (Law of Unit Character)-जीव में पाये जाने वाले समस्त लक्षण जीन से नियंत्रित होते हैं। प्रत्येक लक्षण हेतु एक जीन होता है। यह जीन सदैव युग्म में रहता है। प्रत्येक युग्म में एक कारक (मेण्डल ने कारक कहा था तथा बाद में इसे जीन कहा गया) मातृक तथा दूसरा पैतृक से आता है।
→ डी.एन.ए. का वह भाग जिसमें किसी प्रोटीन संश्लेषण के लिए सूचना होती है, वह प्रोटीन का जीन कहलाता है।
→ वंशागति के नियम-आस्ट्रिया के निवासी ग्रेगर जॉन मेंडल ने वंशागति के तीन नियम प्रस्तुत किये
(i) प्रभाविता का नियम (Law of Dominance)-इसके अनुसार जब एक जोड़ी विपरीत लक्षणों को ध्यान में रखकर क्रॉस कराया जाता है, तो पहली पीढ़ी में उत्पन्न होने वाला लक्षण प्रभावी होता है तथा दूसरे लक्षण जो छिपे रहते हैं, अप्रभावी होते हैं।
(ii) युग्मकों की शुद्धता का नियम (Law of Segregation) – लैंगिक जनन के दौरान जब युग्मक बनते हैं तो युग्मविकल्पी में से केवल एक विकल्पी ही एक युग्मक में हो सकता है अर्थात् युग्मक उस विकल्पी के लिए पूर्णतः शुद्ध होता है। इस नियम के अनुसार संकर F1 पीढ़ी के पौधों में दोनों विपरीत लक्षण जोड़े में विद्यमान रहते हैं। ये लक्षण F2 में पृथक हो जाते हैं। इस कारण इसे ‘पृथक्करण का नियम’ भी कहते हैं।
(iii) स्वतंत्र अपव्यूहन का नियम (Law of Independent Assortment) – इसके अनुसार दो जोड़ी विपरीत लक्षणों वाले दो पौधों के बीच संकरण कराने पर इन लक्षणों का पृथक्करण स्वतंत्र रूप से होता है तथा एक लक्षण की वंशागति दूसरे लक्षण की वंशागति को प्रभावित नहीं करती है।
→ लिंग निर्धारण-विभिन्न स्पीशीज में लिंग निर्धारण के कारक भिन्न होते हैं। मानव में संतान का लिंग इस बात पर निर्भर करता है कि पिता से मिलने वाले गुणसूत्र ‘X’ (लड़कियों के लिए) अथवा ‘Y’ (लड़कों के लिए) किस प्रकार के हैं।
→ उपार्जित लक्षण-उपार्जित लक्षण जैव प्रक्रम द्वारा अगली पीढ़ी को वंशानुगत नहीं होते हैं। उदाहरण-चूहों की पूँछ को कई पीढ़ी तक काटते रहने पर इन चूहों से बिना पूँछ वाले (पूँछहीन) चूहे पैदा नहीं होते हैं।
→ स्पीशीज में विभिन्नताएँ उसे उत्तरजीविता के योग्य बना सकती हैं अथवा केवल आनुवंशिक विचलन में योगदान देती हैं।
→ कायिक ऊतकों में पर्यावरणीय कारकों द्वारा उत्पन्न परिवर्तन वंशानुगत नहीं होते।
→ प्राकृतिक वरण का सिद्धान्त-डार्विन के अनुसार केवल वे ही जीव जीवित रहते हैं जो अपने आपको वातावरण के अनुकूल बना लेते हैं। वे जन्तु जो वातावरण के अनुकूल नहीं हो पाते, धीरे-धीरे नष्ट हो जाते हैं। इस प्रकार प्रकृति जीवों का चयन कर नई जातियों का विकास करती है। डार्विन एक प्रकृतिशास्त्री थे तथा उनका एक शोध भूमि की उर्वरता बनाने में केंचुओं की भूमिका में था।
→ पृथक्करण-प्रकृति द्वारा दो जाति के जीवों के मध्य मुक्त अन्तर्जनन को अवरुद्ध करने वाली प्रक्रिया को पृथक्करण कहते हैं। पृथक्करण जीवों में तीन प्रकार का होता है – (i) भौगोलिक पृथक्करण (ii) स्थानिक पृथक्करण (iii) जननिक पृथक्करण।
→ जाति उद्भव-पृथक्करण जाति उद्भव के लिए महत्त्वपूर्ण होता है। यह जीवों में अन्तरर्जनन को रोक देता है और उन्हें नये आवास में रहने के लिए अनुकूलित करता है। इससे जीवों में नये लक्षण उत्पन्न होते हैं। फलस्वरूप प्राकृतिक वरण प्रभावित हो जाता है, जिससे नई जातियों के निर्माण में सहायता मिलती है।।
→ जैव विकास-अत्यधिक धीमी गति एवं क्रमबद्ध परिवर्तनों की जिस प्रक्रिया द्वारा वर्तमान पौधे व प्राणियों की विभिन्न जातियाँ पृथ्वी पर बहुत पहले उपस्थित जातियों से विकसित हुईं, उसे जैव विकास कहते हैं।
→ विकासीय संबंधों को जीवों के वर्गीकरणों में ढूँढा जा सकता है।
→ काल में पीछे जाकर समान पूर्वजों की खोज से अंदाजा होता है कि समय के किसी बिंदु पर अजैव पदार्थों ने जीवन की उत्पत्ति की।
→ जैव विकास के समय अंग अथवा आकृति नए प्रकार्यों के लिए अनुकूलित होते हैं। उदाहरण के लिए, ‘पर’ जो प्रारंभ में उष्णता प्रदान करने के लिए विकसित हुए थे, कालांतर में उड़ने के लिए अनुकूलित हो गए।
→ अस्तित्व लाभ हेतु मध्यवर्ती चरणों द्वारा जटिल अंगों का विकास हुआ।
→ समजात अंग-वे अंग जिनकी मूलभूत संरचना एवं उत्पत्ति समान हो लेकिन कार्य भिन्न हो, समजात अंग कहलाते हैं।
→ समवृत्ति अंग-वे अंग जिनके कार्य समान हों किन्तु उनकी मूल संरचना एवं उत्पत्ति में अन्तर हो, समवृत्ति अंग कहलाते हैं।
→ अवशेषी अंग-शरीर में पाये जाने वाले ऐसे अंग जो अपने पूर्वजों में किसी समय सक्रिय थे परन्तु अब उनका कोई कार्य नहीं है, अवशेषी अंग कहलाते हैं। उदाहरण-निमेषक पटल व बाह्य कर्ण पेशियाँ। .
→ जीवाश्म-प्राचीन चट्टानों में मिलने वाले मृत जीवधारियों के अवशेष अथवा उनके चिन्हों को जीवाश्म कहते हैं। जीवाश्म कितने पुराने हैं, इसके आकलन के दो घटक हैं – (i) सापेक्ष (ii) फॉसिल डेटिंग।
→ फॉसिल डेटिंग-इसमें जीवाश्म में पाए जाने वाले किसी एक तत्व के विभिन्न समस्थानिकों के अनुपात के आधार पर जीवाश्म का समय निर्धारण किया जाता है।
→ विकास के ‘निम्न’ अभिरूप से उच्चतर अभिरूप को ‘प्रगति’ नहीं कहा जा सकता। वरन् यह प्रतीत होता है कि विकास ने अधिक जटिल शारीरिक अभिकल्प उत्पन्न किए हैं जबकि सरलतम शारीरिक अभिकल्प भलीभाँति अपना अस्तित्व बनाए हुए हैं।
→ मानव के विकास के अध्ययन से हमें पता चलता है कि हम सभी एक ही स्पीशीज के सदस्य हैं जिसका उदय अफ्रीका में हुआ और विभिन्न चरणों में विश्व के विभिन्न भागों में फैला।
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