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RBSE Class 11 Hindi साहित्य का संक्षिप्त इतिहास आदिकाल

July 12, 2019 by Safia Leave a Comment

Rajasthan Board RBSE Class 11 Hindi साहित्य का संक्षिप्त इतिहास आदिकाल

अभ्यास प्रश्न

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न 1.
संस्कृत भाषा से सबसे पहले किस भाषा की उत्पत्ति हुई?
(क) अपभ्रंश
(ख) प्राकृत
(ग) पाली
(घ) हिन्दी।
उत्तर:
(ग) पाली

प्रश्न 2.
अपभ्रंश किस भाषा से निकली हुई भाषा है
(क) संस्कृत
(ख) पाली
(ग) प्राकृत
(घ) अवहट्छ।
उत्तर:
(ग) प्राकृत

प्रश्न 3.
पालि भाषा किस समय थी?
(क) ईसा पूर्व 1500 से 500 तक
(ख) ईसा पूर्व 500 से पहली शताब्दी तक
(ग) ईसा बाद 500 से 1000 तक
(घ) ईसा बाद 1000 से 500 तक।
उत्तर:
(ख) ईसा पूर्व 500 से पहली शताब्दी तक

प्रश्न 4.
वेदांग कितने हैं
(क) पाँच
(ख) चारे।
(ग) तीन
(ध) छः।
उत्तर:
(ध) छः।

प्रश्न 5.
न्याय दर्शन के रचयिता कौन हैं?
(क) महर्षि गौतम
(ख) महर्षि पंतजलि
(ग) महर्षि कणाद
उत्तर:
(क) महर्षि गौतम

प्रश्न 6.
शंकराचार्य। राहुल सांकृत्यायन ने हिन्दी का पहला कवि किसे माना है?
(क) पुष्यदन्त
(ख) सरहपाद
(ग) शालिभद्रसूरि।
(घ) हेमचन्द्र
उत्तर:
(ख) सरहपाद

अति लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
मिश्र बंधुओं ने हिन्दी साहित्य को कितने भागों में विभाजित किया है?
उत्तर:
मिश्र बंधुओं ने हिन्दी साहित्य को 5 भागों में विभाजित किया है।

प्रश्न 2.
‘कीर्तिपताका’ किस भाषा की कृति है?
उत्तर:
‘कीर्तिपताका’ अवहट्ट भाषा की कृति है।

प्रश्न 3.
चंदबरदायी की रचना का नाम लिखिए।
उत्तर:
चंदबरदायी की प्रसिद्ध रचना ‘पृथ्वीराज रासो’ है।

प्रश्न 4.
‘परमाल रासो’ के रचयिता का नाम बताइए।
उत्तर:
‘परमाल रासो’ के रचयिता ‘जगनिक’ कवि थे।

प्रश्न 5.
गार्सा-द-तासी के हिन्दी इतिहास का नाम लिखिए।
उत्तर:
गार्सा-द-तासी के हिन्दी इतिहास का नाम ‘इस्तार दे ला लितरेत्युर ऐंदुई-ए-ऐन्दुस्तानी’ था।

प्रश्न 6.
शिवसिंह सरोज के रचयिता का नाम लिखिए।
उत्तर:
‘शिवसिंह सरोज’ के रचयिता शिवसिंह सेंगर थे।

लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
राहुल सांकृत्यायन ने हिन्दी का पहला कवि किसे माना और क्यों?
उत्तर:
सरहप्पा(सरहपाद) को राहुल सांकृत्यायन ने हिन्दी का प्रथम कवि माना है। सांकृत्यायन के अनुसार कवि सरहपाद की कृतियों में अपभ्रंश की अपेक्षा संस्कृत भाषा के तत्सम शब्दों का प्रयोग हुआ। इनकी काव्य चेतना में अनेक ऐसे तत्वों का समावेश है, जो भक्तिकाल में पल्लवित हुए। सरहप्पा को हिन्दी का पहला कवि कहने के पीछे एक अन्य आधार काव्य शैली है। इनका काव्य दोहा और पदों की शैली युक्त था, जिसे परवर्ती कवियों ने अपनाया।

प्रश्न 2.
शुक्ल जी द्वारा काल विभाजन का समय एवं काल का नाम बताइए।
उत्तर:
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने 900 वर्षों के हिन्दी साहित्य को चार भागों में विभाजित किया

1. वीरगाथा काल वि. 1050 से 1375 तक (993 ई. से 1318 ई.)
2. भक्तिकाल वि. 1375 से 1700 तक (1318 ई. से 1643 ई.)
3. रीतिकाल वि. 1700 से 1900 तक (1643 ई. से 1843 ई.)
4. गद्यकाल वि. 1900 से आज तक (1843 ई. से अब तक)

प्रश्न 3.
डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने वीर गाथा काल को आदिकाल क्यों कहा?
उत्तर:
द्विवेदी जी के अनुसार, शुक्ल जी द्वारा वीरगाथा काल की प्राप्त सामग्री साहित्यिक कोटि में नहीं आती है। इस समय रचित धार्मिक साहित्य की उपेक्षा नहीं कर सकते। इस प्रकार सन्देशरासक स्वयंभू कृत ‘पदमचरिउ’, पुष्यदंत कृत ‘पदमसिरी चरिउ’ आदि जैन, साहित्य के ग्रन्थों को भी हिन्दी साहित्य से बाहर नहीं कर सकते। अत: आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी ने वीरगाथा काल को ‘आदिकाल’ कहा। उनके अनुसार यह काल( आदिकाल) बहुत अधिक परंपरा प्रेमी, रूढ़िग्रस्त और सजग सचेत कवियों का काल रहा है।

प्रश्न 4.
किन्हीं दो जैनाचार्यों के नाम एवं उनकी रचनाएँ लिखिए।
उत्तर:
आदिकाल के दो जैनाचार्य व उनकी कृतियाँ निम्नलिखित हैं
(i) स्वयंभू-इनका समय 783 ई. के आस-पास माना जाता है। इनकी तीन अपभ्रंश रचनाएँ उपलब्ध हैं

  • पदम चरिउ,
  • रिट्ठ नेमिचरिउ,
  • स्वयंभू छन्द।

(ii) पुष्यदन्त-इनका समय दसवीं शताब्दी के आस-पास रहा है। इनके तीन प्रमुख ग्रन्थ रहे हैं-

  • जयकुमार चरिउ,
  • महापुराण,
  • जसहर चरिउ।।

प्रश्न 5.
नाथ संप्रदाय की दो विशेषताएँ बताइए।
उत्तर:
नाथ पंथ या संप्रदाय सिद्ध मत, सिद्ध मार्ग, योग सम्प्रदाय, अवधूत मत एवं अवधूत सम्प्रदाय के नाम से प्रसिद्ध है। यह दो विशेष नामों से जाना जाता है-

  • सिद्ध मत,
  •  नाथ मत।

नाथ संप्रदाय की दो विशेषताएँ निम्नलिखित हैं–

  1. ईश्वरवाद में आस्था का प्रसार करना तथा अन्तः साधना पर जोर देना।
  2. भारतीय मनोवृत्ति के अनुकूल आचरण कर जन-जीवन में स्थान बनाना।

प्रश्न 6.
रासो को वीररस की कृति क्यों माना जाता है?
उत्तर:
आदिकाल में रासो ग्रन्थ पर्याप्त मात्रा में मिलते हैं। वास्तव में ‘रासो’ राजस्थानी भाषा (डिंगल) में राजाश्रय कवियों (विशेष रूप से चारण जाति के कवियों) द्वारा युद्धों का चित्रण, वीरता के यशोगान को अतिश्योक्तिपूर्ण ढंग से धारा प्रवाह ओजस्वी भाषा शैली में लिखा गया काव्य है। राजाश्रित कवियों ने युद्ध के गों में सेना के मनोबल को बढ़ाने के लिए वीर रस को चुना। वीर रस की ओजस्वी शैली के कारण ‘रासो’ को वीररस की कृति माना जाता है।

निबंधात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
शौरसेनी अपभ्रंश से निकलने वाली बोलियों एवं उपभाषाओं का परिचय दीजिए।
उत्तर:
शौरसेनी अपभ्रंश की उपभाषाओं और बोलियों का परिचय निम्न प्रकार है
1. पश्चिमी हिन्दी-इसके अंतर्गत निम्नलिखित बोलियाँ आती हैं

  • खड़ी बोली-इसका क्षेत्र दिल्ली, गाजियाबाद, देहरादून, मुरादाबाद, सहारनपुर के आस-पास का क्षेत्र है। इसमें लोक नाटक, कहानी, लोक काव्य वे गीत आदि की रचनाएँ हुईं। वर्तमान में हिन्दी काव्य इस खड़ी बोली में लिखी जा रहा है।
  • हरियाणवी-यह चंडीगढ़ के आस-पास पटियाला, अम्बाला, हिसार व रोहतक के क्षेत्र में बोली जाती है। यहाँ के लोक साहित्य में यह बहुत प्रचलित है। इसे ग्रामीण क्षेत्र में बाँगरू के नाम से जाना जाता है।
  • कन्नौजी-इसका प्रभाव कानपुर, पीलीभीत, इटावा, शाहजहाँपुर, फर्रुखाबाद व हरदोई क्षेत्रों में है।
  • ब्रजभाषा-ब्रज भाषा का क्षेत्र विस्तार विशाल है-मथुरा-वृंदावन, आगरा, अलीगढ़, बरेली, मथुरा, एटा, मैनपुरी, धौलपुर व भरतपुर आदि इस क्षेत्र में आते हैं। सूरदास, नन्ददास, केशव, बिहारी, घनानन्द, पदमाकर, देव तथा अष्टछाप कवियों की रचनाएँ इसी ब्रजभाषा से मंडित हैं।
  • बुंदेली-इसका प्रदेश ओरछा, झाँसी, छतरपुर, सागर, ग्वालियर, होशंगाबाद व हम्मीरपुर के आस-पास का क्षेत्र है। बुन्देली में लिखी गई ‘आल्हाखण्ड’ एक सुप्रसिद्ध रचना है।

2. पूर्वी हिन्दी-इसके अंतर्गत अवधी, बघेली तथा छत्तीसगढ़ी आदि बोलियाँ आती हैं।

  • बघेली-यह रीवा, सतना, मैहर, नागोद व जबलपुर में बोली जाती है। कुछ भाषा वैज्ञानिक इसे अवधी की एक उपबोली मानते हैं।
  • अवधी-इसका प्रसार अयोध्या, सुल्तानपुर, प्रतापगढ़, सीतापुर, फैजाबाद व बाराबंकी आदि क्षेत्रों में है। तुलसी और जायसी इस भाषा के प्रसिद्ध कवियों में माने जाते हैं।
  • छत्तीसगढ़ी-यह बिलासपुर, रायपुर, दुर्ग, काकेर एवं राजनंदगाँव के आस-पास बोली जाती है।

3. राजस्थानी-इसमें मारवाड़ी, जयपुरी, मेवाती, मालवी आदि बोलियाँ सम्मिलित हैं।

  • मारवाड़ी-राजस्थान के पश्चिमी क्षेत्र-जोधपुर, फलौदी, जैसलमेर, बीकानेर, नागौर, पाली, सिरोही, अजमेर व किशनगढ़ के कुछ हिस्से में यह बोली जाती है।
  • जयपुरी-राजस्थान के पूर्वी भाग जयपुर, टोंक, डिग्गी, मालपुरा, किशनगढ़ आदि में इसे ढूंढाड़ी कहते हैं। इसकी एक शाखा हाड़ौती के नाम से जानी जाती है। यह झालावाड़, कोटा, बाएँ (हाड़ौती क्षेत्र) में बोली जाती है।
  • मेवाती-इसका विस्तार अलवर, भरतपुर, गुड़गाँव व करनाल आदि में है। इसकी एक मिश्रित बोली भी है, जिसे अहीर वाटी भी कहते हैं।
  • मालवी-इसका क्षेत्र उदयपुर, चित्तौड़गढ़, मध्य प्रदेश की सीमा से लगे इन्दौर, रतलाम, भोपाल, होशंगाबाद तथा उसके आस-पास का क्षेत्र है।

4. पहाड़ी-

  • पश्चिमी पहाड़ी-यह हिमाचल प्रदेश में शिमला, मण्डी, धर्मशाला व अम्बाला के आस-पास के क्षेत्रों में बोली जाती है।
  • मध्यवर्ती पहाड़ी-यह गढ़वाल, कुमाऊँ, नैनीताल, अल्मोड़ा व रानीखेत में बोली जाती है। छायावाद के प्रसिद्ध कवि सुमित्रानंदन पंत इसी क्षेत्र के हैं।

5. बिहारी-इसके अंतर्गत भोजपुरी, मगही तथा मैथिली बोलियाँ आती हैं।

  • भोजपुरी-इसका विकसित रूप बनारस, शाहाबाद, आजमगढ़, गोरखपुर, बलिया, मिर्जापुर, जौनपुर, चम्पारन वे सारण के आस-पास पाया जाता है। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, प्रेमचन्द व जयशंकर प्रसाद इसी क्षेत्र के रहने वाले थे।
  • मगही-यह पटना, भागलपुर, हजारीबाग, गया, पलामू के आस-पास बोली जाती है।
  • मैथिली-यह दरभंगा, पूर्णिया, मुंगेर व मुजफ्फरपुर में बोली जाती है। कवि विद्यापति यहीं के थे।

प्रश्न 2.
आदिकाल की विशेषताएँ बताइए।
उत्तर:
हिन्दी साहित्य के इतिहास के 1000 ई. से 1375 ई. तक के कालखण्ड को विद्वानों ने अनेक नाम दिये हैं। इसको
आदिकाल, सिद्ध सामन्त काल, चारण काल और वीरगाथा काल आदि नामों से पुकारा गया है। इस काल के हिन्दी काव्य की प्रमुख विशेषताएँ इस प्रकार हैं

  1. युद्धों का सजीव चित्रण-आदिकाल के कवि राज्याश्रित थे। तत्कालीन राजनीतिक स्थिति के कारण युद्ध चलते ही रहते थे। ये कवि युद्धभूमि में भी अपने आश्रयदाता राजाओं के साथ जाया करते थे। इस कारण इनके युद्ध वर्णन सजीव और रोमांचक होते हैं।
  2. वीर और शृंगार रस प्रधान काव्य-इस काल का काव्य वीर रस और शृंगार रस की अतिशयोक्तिपूर्ण व्यंजना से पूर्ण है। अपने आश्रयदाताओं के विलास वर्णन और उनको युद्ध के लिए प्रोत्साहित करने में ही इन कवियों के कविकर्म की कृतकृत्यता थी।
  3. अन्य विषयक काव्य रचना-श्रृंगार और वीर रस के अतिरिक्त इस युग में नैतिक और धार्मिक साहित्य का भी सृजन हुआ। नामपंथी सिद्धों, बौद्धों तथा जैन कवियों ने धार्मिक या साम्प्रदायिक साहित्य रचा।।
  4. स्फुट रचनाएँ-इस काल में कुछ स्फुट रचनाएँ भी प्राप्त होती हैं, जिनके विषय विविध प्रकार के हैं। खुसरो रचित मुकरियाँ और पहेलियाँ इसी के अंतर्गत आती हैं।
  5. संदिग्ध ऐतिहासिकता-इस काल के अधिकांश ‘रासो’ ग्रन्थों की घटनाएँ इतिहास से प्रमाणित नहीं हो पातीं। उनमें कवि कल्पनाओं का ही अधिकांशतः समावेश है।।
  6. जन-जीवन की उपेक्षा-आदिकालीन साहित्य का अधिकांश भाग राजा-महाराजाओं के जीवन से सम्बन्धित है। उसमें तत्कालीन जन -जीवन की उपेक्षा हुई है।
  7. भाषा, छंद, अलंकार-इस काल के रासो ग्रन्थों की भाषा को डिंगल नाम दिया गया है। इन काव्यों में ‘दूहा’, ‘छप्पय’, ‘तोमर’, ‘तोटक’, ‘गाहा’ तथा ‘उल्लाला’ आदि छंदों का प्रयोग हुआ है।
  8. काव्य शैली-आदिकालीन ‘रासो’ साहित्य की रचना शैली प्रबन्धात्मक है। अतिशयोक्ति एवं चमत्कारिक कथनों को मुक्त भाव से प्रयोग हुआ है।

प्रश्न 3.
प्रमुख सिद्धाचार्यों की रचनाओं की विशेषताएँ बताइए।
उत्तर:
सिद्धों की संख्या 84 मानी गयी है। इनमें सर्वप्रथम कवि सरहपा हैं। राहुल सांस्कृत्यायन ने इन सिद्धों की भाषा को लोक भाषा के अधिक समीप देखकर इसे हिन्दी का प्राचीन रूप माना। इसी आधार पर काशीप्रसाद जायसवाल ने सिद्ध सरहपा को हिन्दी का प्रथम कवि माना है।

सिद्ध साहित्य की विशेषताएँ-इन रचनाओं को देखने से पता चलता है कि इनकी शैली उलट बाँसी शैली है। इनकी प्रमुख विशेषताएँ इस प्रकार हैं
(1) वाह्याचार खण्डन-इन्होंने वाह्याचार खण्डन करते हुए चित्तशुद्धि तथा आत्म निग्रह में अटूट आस्था प्रकट की है। साधना पर जोर देते हुए पण्डितों को फटकारते हुए शास्त्रीय(परम्परा) मार्ग का खण्डन किया है

जहणगगाविअ होई मुत्ति, ती क्षुणहसियालह।

नग्न रहने से मुक्ति मिल जाती तो कुत्ते और स्यार (सियार) भी मोक्ष(मुक्ति) के अधिकारी बन गये होते।

(2) दान परोपकार-इन्होंने आचरण की महत्ता पर बल देते हुए दान, पुण्य और परोपकार की महत्ता को भी स्पष्ट किया है-

“जो अत्थी क्षण ठीअउ, सो जइ जाइ निरास।
रवण उस रीव भिक्खवरुऽछारा जहु रेगिहवाल ॥”

यदि अर्थी जन निराश चला गया तो ऐसे गृहवास से टूटा मृत्पात्र ले भीख माँगना अच्छा।

(3) तान्त्रिक साधना-सिद्धों ने वामाचार का प्रतिपादन करते हुए योग-तन्त्र की साधना में मद्य तथा स्त्रियों के अबाध सेवन का भी महत्त्व प्रतिपादित किया है।
(4) अन्तर्मुखी साधना-इन कवियों ने अन्तर्मुखी साधना पर विशेष बल दिया है।

सहजेथिर करवारुणी साधा। जे अजरामर होइ दिर काँधा।
दशमि दुआरत चिन्ह रेख द्वआ। आइल गराहक अपणे बहिआ॥”

(5) सन्द्या भाषा या संद्या वचन-डॉ. जयकिशन प्रसाद के अनुसार रहस्य मार्गियों की सामान्य प्रवृत्ति के अनुसार सिद्ध लोग अपनी बानी को पहेली या उलट बाँसी के रूप में रखते थे और उनका सांकेतिक अर्थ भी बताया करते थे। इनकी शैली पद-शैली थी।

सिद्ध साहित्य का महत्त्व-इनके वाह्याचार खण्डन, परोपकार-दान की महिमा, कर्म शास्त्र ज्ञान एक मरुस्थल है, सहजावस्था का महत्त्व, हठयोग साधना जैसी स्थितियों का इनके काव्य पर सीधा प्रभाव पड़ा। सिद्धों की चर्या, पद तथा शैली का भी परवर्ती काव्य पर प्रभाव पड़ा।

प्रश्न 4.
आदिकाल की राजनीतिक परिस्थितियों पर लेख लिखिए।
उत्तर:
आठवीं शताब्दी से पन्द्रहवीं शताब्दी तक भारतीय राजनीतिक परिस्थितियाँ धीरे-धीरे क्षीण होती चली गईं और इस्लामी , शासक हिन्दुस्तान पर काबिज हो गए। युद्धों से आहत भारतीय जनता अपना धैर्य खो चुकी थी। विदेशी शक्तियों के आक्रमण का प्रभाव साहित्यिक क्षेत्र में पड़ने लगा। भाषा में अरबी-फारसी के शब्द आ गए। चारों तरफ अराजकता, गृह कलह, विद्रोह, आक्रमण, अशान्ति एवं निर्धनता से त्रस्त होकर मानव अपने मन को परम शक्ति परमात्मा के प्रति केन्द्रित करने लगा।

इन परिस्थितियों के बीच कुछ ऐसे लोग भी थे, जिन्होंने अपने शौर्य और बुद्धि के बल पर धैर्य को बचाये रखा। ईश्वर की लोक कल्याणकारी सत्ता में अपना विश्वास जगाए रखा। ऐसे वीर धरती के लिए गौरव बन रहे थे। उसी गौरवपूर्ण गाथा का उदय रासो साहित्य से हुआ, जिसमें आश्रयादाता राजाओं की प्रशंसा, उनका अतिश्योक्ति पूर्ण वर्णन, शौर्य, वीरता एवं पराक्रम को दर्शाया जा रहा था। राजनीति एक अजीब मोड़ ले रही थी। विदेशी आक्रमणकारियों ने भारत को बुरी तरह नष्ट कर दिया था। जन-धन की हानि के साथ भारतीय निराशा के सागर में डूब रहे थे।

इन युद्धों के कारण जनता और पिस गई थी, आर्थिक संकट से जूझ रही थी। अकाल और भुखमरी से आहत थी और सम्राट युद्ध में व्यस्त रहते थे। गुलाम प्रथा का बोलबाला था। स्त्रियों को बाजार में खरीदा और बेचा जाता था। दास प्रथा का प्रचलन हो रहा था। गुलाम वंश से खिलजी वंश तक भारत की स्थिति दयनीय हो गई थी। अकाल और गरीबी के कारण हिन्दुओं को दु:ख भोगना पड़ता था। अमीर खुसरो इसी युग के कवि थे। इन्होंने इस समय अपनी प्रसिद्ध कृति खुसरो की पहेलियाँ लिख

तरवर से इक तिरिया उतरी, उसने बहुत रिझाया।
बाप का उससे नाम जो पूछा, आधा नाम बताया।
आधा नाम पिता पर प्यारा, बूझ पहेली गौरी।
अमीर खुसरो यों कहे, अपने नाम न बोली निबोरी॥

प्रश्न 5.
शुक्ल जी ने प्रथमकाल को वीरगाथा किन रचनाओं के आधार पर कहा और क्यों?
उत्तर:
शुक्ल जी ने इस काल को ‘वीरगाथा काल’ नाम दिया। उन्होंने नामकरण का आधार तत्कालीन एक विशेष प्रवृत्ति को माना। यह प्रवृत्ति थी शौर्य काव्य रचना। ‘रासो काव्य परम्परा’ को उन्होंने तत्कालीन साहित्य का प्रतिनिधि स्वीकार करते हुए ‘वीरगाथा काल’ नामकरण किया।

प्रमुख रासो काव्यों का परिचय इस प्रकार है-

  1. पृथ्वीराज रासो-इस रचना को हिन्दी का प्रथम महाकाव्य माना जाता है। इस ग्रन्थ के रचयिता कवि चन्दबरदायी पृथ्वीराज के सखा और महाकवि माने गये हैं। इसमें पृथ्वीराज चौहान की वीरता और विलास का वर्णन है।
  2. बीसलदेव रासो-इसके रचयिता नरपति नाल्ह हैं। इसमें बीसलदेव के विवाह और उड़ीसा जाने का वर्णन है।
  3. परमाल रासो-यह वीरगाथा काव्य कवि जगनिक की रचना है। इसमें आल्हा-ऊदल के शौर्य का वर्णन है।
  4. हम्मीर रासो-इस काव्य के वास्तविक रचयिता का नाम ज्ञात नहीं हो सका है। इनमें रणथम्भौर के राजा हम्मीरसिंह के हठ और उसकी वीरता का वर्णन है।

इनके अतिरिक्त ‘खुम्माण रासो’, ‘विजयपाल रासो’, ‘जयचन्द प्रकाश’ तथा ‘जयमयंक’ आदि ग्रन्थ भी इसी परम्परा में आते हैं।। उक्त सभी काव्य रचनाएँ इस प्रथम काल में हुईं। अत: परिणाम और परंपरा की दृष्टि से रासो काव्यधारा आदिकाल का प्रतिनिधित्व करती है।

अन्य महत्त्वपूर्ण प्रश्नोत्तर

वस्तुनिष्ठ प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
हिन्दी भाषा का आविर्भाव माना जाता है
(क) 750 ई. से
(ख) 1000 ई. से
(ग) 1500 ई. से
(घ) 1600 ई. से।
उत्तर:
(ख) 1000 ई. से

प्रश्न 2.
हिन्दी का उद्भव किस भाषा से माना जाता है?
(क) प्राकृत भाषा से
(ख) पालि भाषा से
(ग) शौरसेनी तथा अर्द्ध मागधी से
(घ) संस्कृत भाषा से।
उत्तर:
(ग) शौरसेनी तथा अर्द्ध मागधी से

प्रश्न 3.
हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखन का सर्वप्रथम प्रयास किस विद्वान ने किया?
(क) आचार्य रामचन्द्र शुक्ल
(ख) गार्सा-द-तासी
(ग) जार्ज ग्रियर्सन
(घ) मिश्र बन्धु।
उत्तर:
(ख) गार्सा-द-तासी

प्रश्न 4.
मिश्र बन्धुओं ने आदिकाल का नामकरण किया
(क) प्रारम्भिक काल
(ख) रासो काल
(ग) पूर्वारम्भिक काल
(घ) चारण काले।
उत्तर:
(ग) पूर्वारम्भिक काल

प्रश्न 5.
हिन्दी साहित्य के प्रथम उत्थान काल को ‘आदिकाल’ नाम किसने दिया?
(क) डॉ. रामकुमार वर्मा ने
(ख) आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने।
(ग) राहुल सांकृत्यायन ने।
(घ) चन्द्रधर शर्मा ‘गुलेरी’ ने।
उत्तर:
(ख) आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने।

प्रश्न 6.
हिन्दी साहित्य के इतिहास के प्रारम्भिक काल का सर्वाधिक प्रचलित नाम है
(क)चारण काल
(ख) वीरगाथा काल
(ग) आदिकाल
(घ) सिद्ध-सामंत काल।
उत्तर:
(ग) आदिकाल

प्रश्न 7.
हिन्दी साहित्य के आदिकाल की सामाजिक परिस्थिति थी
(क) सुव्यवस्थित और समरसता युक्त
(ख) अव्यवस्थित और अराजकतापूर्ण
(ग) भोग विलास की प्रवृत्ति से युक्त
(घ) धार्मिक भावना से परिपूर्ण।
उत्तर:
(ग) भोग विलास की प्रवृत्ति से युक्त

प्रश्न 8.
पृथ्वीराज रासो के रचयिता हैं
(क) जगनिक
(ख) नरपति नाल्ह
(ग) चन्दबरदायी
(घ) विद्यापति
(च) शारगंधर।
उत्तर:
(ग) चन्दबरदायी

प्रश्न 9.
‘माङर्न वर्नाक्यूलर लिट्रेचर ऑफ हिन्दुस्तान’ नामक रचना का प्रणेता कौन इतिहासकार है?
(क) जार्ज ग्रियर्सन
(ख) अब्राहम लिंकन
(ग) गार्सा दि तासी
(घ) टेसीरोरी।
उत्तर:
(क) जार्ज ग्रियर्सन

प्रश्न 10.
खड़ी बोली का पहला कवि है
(क) नरपति नाल्ह
(ख) जगनिक
(ग) अमीर खुसरो,
(घ) स्वयंभू। .
उत्तर:
(ग) अमीर खुसरो,

अति लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
हिन्दी को किस भाषा-परिवार की भाषा माना गया है?
उत्तर:
हिन्दी को आर्यभाषा परिवार की भाषा माना गया है।

प्रश्न 2.
सिन्ध’ का ईरानी में क्या रूप होना माना गया है?
उत्तर:
‘सिन्ध’ का ईरानी में ‘हिन्द’ रूप होना माना गया है।

प्रश्न 3.
आदिकालीन हिन्दी साहित्य मुख्य रूप से किन बोलियों में प्राप्त होता है?
उत्तर:
आदिकालीन हिन्दी साहित्य मुख्य रूप से डिंगल, ब्रज, मैथिली, दक्खिनी तथा अवधी बोलियों में प्राप्त होता है।

प्रश्न 4.
हिन्दी साहित्य का प्रारम्भिक इतिहास लिखने वाले दो विद्वानों के नाम बताइए।
उत्तर:
ये दो विद्वान हैं-शिवसिंह सेंगर और जार्ज ग्रियर्सन सेन।

प्रश्न 5.
जार्ज ग्रियर्सन की रचना का नाम बताइए।
उत्तर:
जार्ज ग्रियर्सन की रचना का नाम है-“मॉडर्न वर्नाक्यूलर लिटरेचर ऑफ हिन्दुस्तान।”

प्रश्न 6.
विद्यापति की प्रसिद्धि किस रचना के कारण अधिक हुई है?
उत्तर:
विद्यापति की अमर कीर्ति का आधार उनकी ‘पदावली’ है।

प्रश्न 7.
आदिकाल के अन्य नाम कौन-से हैं? लिखिए।
उत्तर:
आदिकाल को ‘चारण काल’, ‘वीरगाथा काल’ तथा ‘सिद्ध सामन्त काल’ भी कहा गया है।

प्रश्न 8.
आदिकाल के प्रमुख रासो ग्रन्थों के नाम लिखिए।
उत्तर:
आदिकाल के प्रमुख रासो ग्रन्थ इस प्रकार हैं

  1. खुम्माण रासो,
  2. पृथ्वीराज रासो,
  3. हम्मीर रासो,
  4. परमाल रासो,
  5. बीसलदेव रासो।

प्रश्न 9.
हिन्दी साहित्य के प्रथम काल खण्ड को प्रारम्भिक काल’ नाम किसने दिया?
उत्तर:
हिन्दी साहित्य के प्रथम काल खण्ड को प्रारम्भिक काल’ नाम ‘मिश्र बन्धुओं’ ने दिया।

प्रश्न 10.
राहुल सांकृत्यायन ने हिन्दी का प्रथम कवि किसे माना है?
उत्तर:
राहुल सांकृत्यायन जी ने हिन्दी का प्रथम कवि सरहपाद को माना है।

प्रश्न 11.
अमीर खुसरो की प्रसिद्धि का कारण क्या रहा है?
उत्तर:
अमीर खुसरो ने प्रथम बार खड़ी बोली हिन्दी का प्रयोग काव्य में किया। साथ ही साथ वह अपनी पहेलियों, मुकरियों, दोसुखने तथा गजल आदि के लिए भी प्रसिद्ध हैं।

प्रश्न 12.
आदिकालीन साहित्य की दो प्रमुख प्रवृत्तियों के नाम बताइए।
उत्तर:
आदिकालीन साहित्य की दो प्रमुख प्रवृत्तियाँ हैं

  1. वीर तथा शृंगार प्रधान काव्य की रचना
  2. इतिहास की उपेक्षा। लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
‘हिन्दी’ शब्द के आविर्भाव के विषय में क्या मत प्रचलित हैं?
उत्तर:
भाषा-विज्ञान के अनुसार भारतीय भाषाओं के ‘स’ का उच्चारण ईरानी भाषा में ‘ह’ देखा जाता है। अत: ‘सिन्ध’ शब्द वहाँ ‘हिन्द’ उच्चरित होता था। प्रारम्भ में सिन्धु नदी का समीपवर्ती प्रदेश (हिन्द) कहलाने लगा और धीरे-धीरे सम्पूर्ण भारत के लिए ‘हिन्द’ शब्द का प्रयोग होने लगा। हिन्द की भाषा होने से हिन्दी’ विशेषण का प्रयोग हुआ। भारत में भाषा के लिए हिन्दी’ नाम का प्रयोग 1424 ई. के ‘जफरनामा’ नामक ग्रन्थ में सर्वप्रथम देखा गया है। पहले हिन्दी और उर्दू दोनों के लिए हिन्दी शब्द ही प्रयुक्त होता था।

प्रश्न 2.
आजकल ‘हिन्दी’ शब्द का प्रयोग किन-किन अर्थों में होता है?
उत्तर:
आजकल ‘हिन्दी’ शब्द का प्रयोग प्रायः तीन अर्थों में होता है। प्रथम हिन्दी भाषी प्रदेशों की भाषा में, द्वितीय भाषा विज्ञान के आधार पर पश्चिमी हिन्दी तथा पूर्वी हिन्दी के रूप में तथा तृतीय खड़ी बोली साहित्यिक हिन्दी या मानक हिन्दी के अर्थ में जो कि आज भारत की राजभाषा है। इन अर्थों के अनुसार हिन्दी 17 बोलियों का सामूहिक नाम माना जा सकता है।

प्रश्न 3.
हिन्दी भाषा के उद्भव तथा विकास के काल-विभाजन का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
उत्तर:
भाषा-विज्ञानी ‘हिन्दी’ का उद्भव 1000 ई. केआस-पास शौरसेनी तथा अर्द्धमागधी अपभ्रंश से मानते हैं। यह प्रक्रिया पालि भाषा के समय से प्रारम्भ हो गई थी। अपभ्रंश काल तक आते-आते हिन्दी का लगभग 40 प्रतिशत रूप स्पष्ट होने लगा। हिन्दी के लगभग 1000 वर्षों के विकास के इतिहास को क्रमशः आदिकाल (1000 ई. से 1500 ई. तक) मध्यकाल (1500 ई. से 1800 ई. तक) तथा आधुनिक काल (1800 ई. से अब तक) में विभाजित किया गया है।

प्रश्न 4.
‘आदिकाल’ को ‘बीजवपन काल’ नाम किस विद्वान ने और क्यों दिया?
उत्तर:
आदिकाल को आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने बीजवपन काल’ नाम दिया था। उन्होंने हिन्दी साहित्य का प्रारम्भ इसी काल की रचनाओं से माना और यह भी स्वीकार किया कि परवर्ती हिन्दी साहित्य का बीजारोपण इसी काल में हुआ था। अत: इस काल का यही नाम सर्वथा उपयुक्त है।

प्रश्न 5.
आदिकाल को शुक्लजी ने ‘वीरगाथा काल’ नाम क्यों दिया?
उत्तर:
आचार्य शुक्ल ने स्वीकार किया है कि– भारत पर जब मुसलमानों की चढ़ाइयों का आरम्भ होता है, तब से हम हिन्दी साहित्य की प्रवृति को एक विशेष रूप में बँधती हुई पाते हैं। राज्याश्रय कवि अपने आश्रयदाता राजाओं के पराक्रम-पूर्ण चरित्रों या गाथाओं का वर्णन करते थे। यही प्रबन्ध परम्परा ‘रासो’ के नाम से पायी जाती है, जिसे लक्ष्य करके इस काल को हमने ‘वीरगाथा काल’ कहा है।

यद्यपि इस काल में दो प्रकार की रचनाएँ होने का उन्होंने रूप संकेत किया है-अपभ्रंश और देश भाषा पर कवित्व की दृष्टि से उन्होंने देश-भाषा अर्थात् वीरगाथा को ही युग-प्रवृत्ति के रूप में स्वीकार किया।

प्रश्न 6.
हिन्दी साहित्य का प्रारम्भिक काल ‘आदिकाल’ क्यों सर्वसम्मति का आधार बना है?
उत्तर:
आदिकाल अधिक संगत और सर्वस्वीकृत नाम मान गया। डॉ. देवीशरण वाजपेयी की मान्यता है-‘आदिकाल’ के ‘आदि’ शब्द के सम्बन्ध में जो पूर्वाग्रह पाया जाता है, यदि उसे दूर कर दिया जाय, तो इस काल को निश्चिन्त होकर ‘हिन्दी का आदिकाल’ कहा जा सकता है। नये अर्थ के ग्रहण किये जाने पर उसके साहित्य में से आरम्भिक काल का बोध भी होता है और आदिकालीन काव्य की स्थिति भी अखण्ड बनी रहती है।

सभी इतिहासकारों ने ‘आदिकाल’ नाम को किसी-न-किसी रूप में स्वीकार किया है। इस नाम के सन्दर्भ में हिन्दी साहित्य के इतिहास की भाषा, भाव, चिन्तन, शिल्प-दृष्टि आदि से सम्बन्धित अनेक गुत्थियाँ सुलझ जाती हैं। इस नाम से हिन्दी के विशाल साहित्य भण्डार को आधार प्राप्त होने का बोध भी होता है।

प्रश्न 7.
दलपति विजय की रचना का नाम बताइए।
उत्तर:
दलपति विजय की रचना का नाम ‘खुम्माण रासो’ है, जिसकी रचना चित्तौड़ के शासक खुम्माण द्वितीय का चरित्र अंकित करने हेतु की गयी थी। इस रचना की भाषा पर आरम्भिक हिन्दी का प्रभाव स्पष्ट है। इसकी प्रामाणिकता पर भी प्रश्न चिन्ह लगा हुआ है। इसमें राजाओं के युद्धों और विवाहों का वर्णन है। नायिका-भेद, षट्-ऋतु वर्णन, राज-प्रशंसा, वीर तथा श्रृंगार रस का सुन्दर निर्वाह, दोहा-सवैया, कवित्त आदि छन्दों का प्रयोग राजस्थानी भाषा में किया गया है।

प्रश्न 8.
‘वीरगाथा काल’ नामकरण की उपयुक्तता पर क्या आपत्तियाँ की गई हैं?
उत्तर:
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने हिन्दी साहित्य के इतिहास के प्रारम्भिक युग को ‘वीरगाथा काल’ नाम दिया था। इस नामकरण को लेकर अन्य विद्वानों ने अनेक आपत्तियाँ प्रस्तुत की हैं, वे इस प्रकार हैं-

  1. इस कालावधि का नाम वीरगाथा काल रखने से, वीरगाथाओं के पूर्व का साहित्य इसकी परिधि से बाहर हो जाता है।
  2. शुक्लजी द्वारा जिन बारह रचनाओं को नामकरण को आधार माना गया है उनमें अनेक अपभ्रंश की रचनाएँ हैं। ऐसी स्थिति में अन्य अपभ्रंश साहित्य को इससे अलग कैसे रखा जा सकता है।
  3. शुक्लजी की ग्रन्थ सूची में अनेक ऐसे ग्रन्थ हैं जो वीरगाथाएँ नहीं हैं।
  4. सिद्ध तथा नाथ साहित्य, जिसमें हिन्दी का आरम्भिक साहित्य प्राप्त होता है। इसमें सम्मिलित नहीं है जबकि यह साहित्य वीरगाथात्मक साहित्य से मात्रा में कहीं अधिक है।
  5. नाथ साहित्य को साम्प्रदायिक साहित्य मान भी लिया जाय तो भी ‘पउम चरिउ’ ‘संदेसरासक’ ‘जसहर चरित्र’ आदि रचनाएँ वीरगाथाएँ नहीं हैं।

प्रश्न 9.
‘आदिकाल’ को चारणकाल की संज्ञा किसने और क्यों दी है?
उत्तर:
डॉ. रामकुमार वर्मा ने अपने हिन्दी साहित्य’ के ‘आलोचनात्मक इतिहास’ में सं. 1000 वि. से 1375 वि. तक के काल को ‘चारण काल’ माना है। उनकी मान्यता है कि इस काल के अधिकांश कवि चारण थे।

प्रश्न 10.
‘वीरगाथा काल’ नाम अमान्य होने पर भी वह क्यों प्रचलित रहा?
उत्तर:
आदिकाल को ‘वीरगाथा काल’ की संज्ञा, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने प्रदान की थी जिसका आधार था वीर काव्य (रासो काव्यों की प्रमुखता), पर इस काल में अन्य प्रकार के काव्य भी पर्याप्त मात्रा में पाये गये विद्यापति, सिद्ध और नाथ साहित्य आदि। अतः डॉ. हरिवंग कोछड़ ने स्पष्ट किया है कि आचार्य शुक्ल द्वारा दिया गया नाम (वीरगाथा काल) एकदम अपर्याप्त है। वह आदिकाल की शेष रचनाओं का इंच मात्र भी प्रतिनिधित्व नहीं करता।

फिर भी यह नाम प्रचलित हो उठा। उसका कारण है, उस काल की कतिपय वीर गाथाओं ने ख्याति अर्जित की, साहित्य में स्था! बनाया और लोक मानव को भी प्रभावित किया। पृथ्वीराज रासो, ढोला मारू रा दूहा, परमाल रासो-इसी कोटि की रचना हैं। इन वीरगाथाओं के बाहुल्य के कारण ही यह नाम प्रचलित हो गया।।

प्रश्न 11.
‘परमाल रासो’ किसकी रचना थी? और इसका दूसरा नाम क्या है?
उत्तर:
‘परमाल रासो’ कवि जगनिक की रचना है। इसका दूसरा नाम ‘आल्हाखण्ड’ भी हैं। यह एक गेय काव्य है, जिसमें महोबा के राजा और उनके सामन्तों-आल्हा, ऊदल की वीरता का वर्णन है। इसमें प्रौढ़ वीर-भावना का चित्रण है। इसकी लोकप्रियता का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि यह आज भी संगीत के साथ गाया जाता है।

प्रश्न 12.
हिन्दी साहित्य के इतिहास का काल विभाजन किस प्रकार किया गया है? लिखिए।
उत्तर:
आदिकाल -1000 ई. से 1375 ई. तक।
मध्य काल (भक्तिकाल) – 1375 ई. से 1700 ई. तक।
उत्तर मध्य काल (रीति काल) -1700 ई. से 1850 ई. तक
आधुनिक काल – 1850 ई. से आज तक।

प्रश्न 13.
हिन्दी साहित्य के इतिहास के प्रारम्भिक काल को कौन-कौन से नाम दिये गये हैं?
उत्तर:
विभिन्न विद्वानों ने आरम्भिक काल को विभिन्न अारों पर अलग-अलग नाम दिये हैं। मिश्र बन्धुओं के इसे प्रयोगिक काल का नाम दिया, रामचन्द्र शुक्ल ने इसे वीरगाथाओं की प्रधानता के कारण वीरगाथा काल नाम दिया। राहुल सांकृत्यायन ने इसे ‘सिद्ध सामन्त’ नाम देना उचित समझा और आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने इसे ‘बीजवपन काल’ नाम दिया। हजारी प्रसाद द्विवेदी इसे ‘आदिकाल’ कहना उपयुक्त मानते हैं।

प्रश्न 14.
आदिकालीन काव्य की प्रमुख प्रवृत्तियों का नामोल्लेख कीजिए।
उत्तर:
आदिकालीन काव्य की प्रमुख प्रवृत्तियाँ इस प्रकार हैं

  1. आश्रयदाता राजाओं की प्रशंसा,
  2. वीर तथा श्रृंगार रस प्रधान रचनाएँ,
  3. राष्ट्रीय चेतना का अभाव,
  4. अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन,
  5. युद्धों का सजीव वर्णन तथा
  6. ऐतिहासिक प्रामाणिकता का अभाव।

प्रश्न 15.
आदिकालीन प्रमुख काव्यों का उनके रचनाकारों सहित उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
आदिकालीन या वीरगाथा कालीन प्रमुख काव्य तथा उनके रचनाकारों का परिचय निम्न प्रकार है

प्रमुख काव्य   –   कवि
1. खुम्माण रासो – दलपति विजय
2. पृथ्वीराज रासो – चन्दबरदायी
3. हम्मीर रासो – शारंगधर
4. परमाल रासो – जगनिक
5. बीसलदेव रासो – नरपति नाल्ह
6. जयचन्द प्रकाश – केदार भट्ट
7. जय मयंक ज़स चन्द्रिका – मधुकर
8. विद्यापति पदावली – विद्यापति

प्रश्न 16.
आदिकालीन काव्यों की रचना शैली पर आधारित दो भेद कौन-कौन से हैं? प्रत्येक के दो काव्यों के नाम लिखिए।।
उत्तर:
आदिकालीन वीर-रसात्मक रचनाएँ दो रूपों में प्रकट होती हैं-प्रबन्ध काव्य तथा वीरगीत काव्य। इनके दो-दो उदाहरण इस प्रकार हैं
प्रबन्ध काव्य – (1) खुम्माण रासो, (2) पृथ्वीराज रासो।
वीरगीत काव्य – (1) परमाल रासो, (2) बीसलदेव रासो।।

प्रश्न 17.
नाथ पंथी गोरखनाथ का साहित्यिक परिचय दीजिए।
उत्तर:
गोरखनाथ नाथ पंथियों में सर्वोपरि स्थान रखते हैं। इनके विषय में अनेक लोक श्रुतियाँ प्रसिद्ध हैं। ये मत्स्येन्द्र नाथ के शिष्य थे। इनकी 40 हिन्दी रचनाएँ बताई जाती हैं। डॉ. बड़थ्वाल केवल 14 ग्रन्थ ही गोरखनाथ द्वारा रचित मानते हैं। उन्होंने ‘गोरखवाणी’ नामक संकलन भी प्रकाशित किया है। गोरखनाथ ने गुरुभक्ति, साधना, ब्रह्मचर्य, नैतिकता आदि का उपदेश दिया है। इनकी रचनाओं ने ही आगे कबीर जैसे सन्तों का मार्गदर्शन किया। इनके काव्य का एक उदाहरण दृष्टव्य है

कनक कामनी त्यागै दोई।
सो जोगीश्वर विरमें होई।।

प्रश्न 18.
पृथ्वीराज रासो का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
उत्तर:
पृथ्वीराज रासो को हिन्दी का प्रथम महाकाव्य माना जाता है। इसके रचयिता पृथ्वीराज चौहान के सखा तथा राजकवि चन्दबरदायी माने जाते हैं। यह महाकाव्य शुक-शुकी संवाद के रूप में रचा गया है। इसमें 69 समय या सर्ग हैं। महाकाव्य के प्रधान रस वीर और श्रृंगार हैं। कवि ने राजपूतों की उत्पत्ति, पृथ्वीराज का जाना, संयोगिता स्वयंवर, पृथ्वीराज की विजयों, उनका श्रृंगार-विलास और गौरी से साथ युद्ध और गजनी में मुहम्मद गौरी का शब्द भेदी बाण द्वारा वध करके चंद और पृथ्वीराज के परस्पर कटार मारकर मर जाने का वर्णन है। युद्ध वर्णन अत्यन्त सजीव है। सौन्दर्य वर्णन बहुत मार्मिक है। भाषा मिश्रित है। सभी प्रचलित छन्दों का प्रयोग हुआ है।

प्रश्न 19.
आदिकालीन साहित्य की एक प्रमुख प्रवृत्ति का परिचय दीजिए।
उत्तर:
आदिकाल से साहित्य में वीरगाथा परक काव्यों की रचना एक प्रमुख प्रवृत्ति रही है। इस काल में अनेक चरित काव्यों की रचना हुई। कविगण अपने आश्रयदाता राजाओं द्वारा किये जाने वाले युद्धों का अतिशयोक्ति पूर्ण वर्णन करते थे। राजनीतिक वातावरण भी ऐसा ही था कि कभी साम्राज्य विस्तार के लिए, कभी शत्रु से बदला लेने के लिए और कभी किसी सुन्दरी का पाणिग्रहण करने के लिए युद्ध होते रहते थे। कवि स्वयं भी युद्ध में भाग लेते थे। कुछ ग्रन्थों में युद्धों के अत्यन्त सजीव और गतिशील शब्द चित्र अंकित हुए हैं।

निबंधात्मक प्रश्न:

प्रश्न 1.
हिन्दी भाषा के विकास का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
उत्तर:
हिन्दी भाषा का उद्भव 1000 ई. के आस-पास माना जाता है। भाषा विज्ञानी हिन्दी का विकास शौरसेनी तथा अर्द्धमागधी अपभ्रंश से मानते हैं। हिन्दी भाषा के विकास को स्थूल रूप से तीन कालों में विभाजित किया जाता है-

  1. आदिकाल (1000 ई. से. 1500 ई.),
  2. मध्यकाल (1500 ई. से 1800 ई.) तथा
  3. आधुनिक काल (1800 ई. से अब तक)।

इन विकास-कालों का संक्षिप्त परिचय निम्न प्रकार हैं
(1) आदिकाल-यह वह समय था जब अपभ्रंश भाषाओं से हिन्दी अपना अलग स्वरूप ग्रहण कर रही थी। इस काल में भाषा के मूल स्वर पूर्ववत रहे, लेकिन ऐ तथा औ ध्वनियों का विकास हुआ। कुछ ध्वनियों के उच्चारण में अन्तर आया। तृ तथा ड़ जैसे नये व्यंजन विकसित हुए। संयुक्त व्यंजन म्ह, ल्ह आदि म, ल के रूप में व्यवहृत होने लगे। व्याकरण प्रायः अपभ्रंश का ही चलता रहा किन्तु भाषा की प्रकृति संयोगात्मक से वियोगात्मक होने लगी। वाक्य रचना बदली और भक्ति आन्दोलनों के कारण तत्सम शब्दावली में वृद्धि हुई। इस काल के मुख्य साहित्यकार गोरखनाथ, विद्यापति, नरपति नाल्ह और चन्दबरदायी आदि थे।

(2) मध्यकाल-इस काल में हिन्दी का स्वतन्त्र रूप बहुत स्पष्ट हो गया। फारसी के प्रभाव के क, ख, ग आदि नई ध्वनियों का प्रयोग होने लगा। शब्द के अन्त में स्थित ‘अ’ ध्वनि का उच्चारण में लोप होने लगा। हिन्दी का व्याकरण इस काल तक आते-आते बहुत कुछ स्वावलम्बी हो गया। भाषा में सहायक क्रियाओं तथा कारक चिह्नों का अलग से प्रयोग होने लगा। इस काल में विदेशी भाषाओं से आये शब्दों की संख्या हजारों तक जा पहुँची। ब्रज तथा अवधी बोलियों में श्रेष्ठ साहित्य की रचना हुई। जायसी, सूर, तुलसी, मीरा, रसखान, केशव, तथा बिहारी आदि इस काल के प्रमुख साहित्यसर्जक थे।

(3) आधुनिक काल-1800 ई. के पश्चात् अँग्रेजी के अनेक शब्द हिन्दी में सम्मिलित होते गये।’ऑ’ जैसी अंग्रेजी ध्वनि का प्रयोग होने लगा। शब्दान्त ‘अ’ का उच्चारण में पूर्णतया लोप हो गया। व्याकरण पूर्णतया व्यवस्थित हो गया। भाषा पूर्णतया वियोगात्मक हो गयी। आधुनिक काल में हिन्दी का शब्द भण्डार तीव्रगति से बढ़ा है। हिन्दी भाषा अनेक पूर्वाग्रहों तथा नव आसक्तियों की बाधाओं से जूझती हुई निरन्तर विकास के पथ पर बढ़ती जा रही है। ज्ञान-विज्ञान की विविध सामग्री निरन्तर हिन्दी में उपलब्ध कराई जा रही है। भारत के बाहर भी हिन्दी का विस्तार हो रहा है।

प्रश्न 2.
हिन्दी साहित्य के काल विभाजन और उसके नामकरण के सम्बन्ध में विभिन्न मतों का विवरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर:
हिन्दी साहित्य का प्रथम इतिहास लिखने वाले गार्सा-द-तासी और शिवसिंह सेंगर ने मात्र वृत्त संग्रह किया। उन्होंने नामकरण और काल विभाजन की ओर ध्यान नहीं दिया। इसके बाद जार्ज ग्रियर्सन के ‘माडर्न वर्नाक्युलर लिटरेचर ऑफ हिन्दुस्तान’ में इस सम्बन्ध में थोड़ा-सा प्रयास किया।
(1) मिश्रबन्धु-मिश्र बन्धुओं के मिश्रबन्धु विनोद’ में यह नामकरण और काल विभाजन सामने आया। उनका विभाजन इस प्रकार है

  1. आरम्भिक काल-
    (क) पूर्वारम्भिक काल (700 से 1343 वि. तक)
    (ख) उत्तरारम्भिक काल (1344 से 1444 वि. तक)।
  2. माध्यमिक काल-
    (क) पूर्व माध्यमिक काल (1445 से 1560 वि. तक)
    (ख) प्रौढ़ माध्यमिक काल (1561 से 1680 वि. तक)
  3. अलंकृत काल-
    (क) पूर्वालंकृत काल (1681 से 1790 वि. तक)
    (ख) उत्तरालंकृत काल (1791 से 1889 वि. तक)
  4. परिवर्तन काल- (1890 से 1925 वि. तक)
  5. वर्तमान काल- (1926 वि. से आज तक)

(2) आचार्य रामचन्द्र शुक्ल-शुक्लजी ने अपने ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ में काल विभाजन इस प्रकार किया है

  • आदिकाल (वीरगाथा काल) सं. 1050 से 1375 तक।
  • पूर्व मध्य काल ( भक्ति काल) सं. 1375 से 1700 तक
  • उत्तर मध्य काल (रीति काल) सं. 1700 से 1900 तक
  • आधुनिक काल (गद्य काल) सं. 1900 से आज तक।

(3) डॉ. रामकुमार वर्मा-डॉ. वर्मा ने अपने ‘हिन्दी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास’ में काल विभाजन का नामकरण इस प्रकार किया है

  • संधि काल-(750 वि. से 1000 वि. तक)
  • चारण काल-(1000 वि. से 1375 वि. तक)
  • भक्ति काल-(1375 वि. से 1700 वि. तक)
  • रीति काल-(1700 वि. से 1900 वि. तक)
  • आधुनिक काल-(1900 वि. से आज तक)

स्पष्ट है, इसमें संधि काल के अतिरिक्त शुक्लजी के काल विभाजन और नामकरणों को ज्यों का त्यों स्वीकार किया गया है।

(4) डॉ. गणपति चन्द्र गुप्त-डॉ. गुप्त ने अपने ‘हिन्दी का वैज्ञानिक इतिहास’ में मध्य काल को कुछ परम्पराओं में बाँटकर काल विभाजन के नामकरण के प्रयास को नई दिशा दी है

  • धर्माश्रय में लिखित साहित्य-संत काव्य-परम्परा, पौराणिक रीति-परम्परा, पैराणिक प्रबन्ध-काव्य परम्परा, भक्ति-काव्य परम्परा।।
  • राज्याश्रय में लिखित साहित्य-मैथिल गीति परम्परा, ऐतिहासिक रास-काव्य परम्परा, ऐतिहासिक चरित्र-काव्य परम्परा, ऐतिहासिक मुक्तक काव्य परम्परा, शास्त्रीय-मुक्तक काव्य परम्परा।
  • लोकाश्रित में लिखित साहित्य-रोमांसिक कथा-काव्य परम्परा, स्वच्छन्द प्रेम-काव्य परम्परा।

(5) डॉ. नगेन्द्र-डॉ. नगेन्द्र ने भी काल विभाजन प्रस्तुत किया जो इस प्रकार है

  1. आदिकाल,
  2. भक्ति काल,
  3. रीति काल,
  4. आधुनिक काल।

डॉ. नगेन्द्र ने आधुनिक काल के कुछ विभाजन और किये-पुनर्जागरण काल (भारतेन्दु काल), जागरण सुधार काल (द्विवेदी काल), छायावाद काल, छायावादोत्तर काल(क) प्रगति-प्रयोग काल, (ख) नव लेखन काल।

(6) अन्य विद्वान-इसके अतिरिक्त नामकरण का प्रयास अन्य विद्वानों ने भी किया। डॉ. श्याम सुन्दर दास ने अपने ‘हिन्दी साहित्य में जो काल विभाजन किया वह शुक्लजी के अनुसार ही है, परन्तु उन्होंने आधुनिक काल को ‘नवीन विकास का युग’ कहा है।

प्रश्न 3.
हिन्दी साहित्य में इतिहास लेखन की परंपरा पर एक निबंध लिखिए।
उत्तर:
हिन्दी साहित्य इतिहास के लेखन की परम्परा-हिन्दी साहित्य की लेखन सामग्री प्राप्ति के पश्चात् विद्वानों ने इतिहास लेखन प्रारम्भ किया। हिन्दी साहित्य का प्रथम इतिहास लेखन का श्रेय फ्रेंच भाषा के विद्वान् को जाता है। इसका नाम गार्सा द तासी था। इनका “इस्त्वार द ला लितरेत्युर ऐंदुई-ए-ऐन्दुस्तानी” के नाम से 1839 ई. में प्रथम भाग प्रकाशित हुआ तथा द्वितीय भाग 1847 ई. में प्रकाशित हुआ। इसे अंग्रेजी के वर्षों के क्रमानुसार लिखा गया था। यह हिन्दी और उर्दू के लगभग 70 कवियों का संग्रह है। तासी ने प्रथम प्रयास में कवियों की जीवनी और उनके द्वारा रचित रचनाओं का उपलब्ध विवरण प्रस्तुत किया। यह नई दिशा की ओर प्रथम कदम था। इसी परम्परा को आगे बढ़ाते हुए शिवसिंह सेंगर ने “शिवसिंह सरोज’ के नाम से 1883 ई. में दूसरा इतिहास लिखा। इसमें लगभग एक हजार कवियों का वर्णन है।

इसमें कवियों की जीवनी, जीवन सम्बन्धी घटनाएँ, चरित्रों एवं उनकी कविताओं के संग्रह को संग्रहीत किया गया है। हिन्दी इतिहास लेखन का तीसरा प्रयास डॉ. जार्ज ग्रियर्सन ने “द माडर्न वर्नाक्युलर लिटरेचर ऑफ हिन्दुस्तान” के नाम से किया। यह“एशियाटिक सोसायटी ऑफ बंगाल से 1888 ई. में प्रकाशित हुआ। इन्होंने इस इतिहास को वैज्ञानिक दृष्टि से व्यवस्थित किया। इस प्रकार का इतिहास पहली बार लिखा गया, किन्तु कालक्रमबद्ध इतिहास लेखन की परम्परा की शुरुआत मिश्रबन्धुओं द्वारा की गई। यह ग्रंथ “मिश्रबन्धु विनोद” के नाम से 1913 ई. में प्रकाशित हुआ। इसमें काल विभाजन भी किया गया। इसी समय हिन्दी साहित्य जगत् में एक दैदीप्यमान नक्षत्र का अवतरण हुआ। इनका नाम आचार्य रामचन्द्र शुक्ल था। इन्होंने हिन्दी साहित्य के इतिहास को सुव्यवस्थित कालक्रमानुसार लिखा। इसे इतिहास को हिन्दी साहित्य का प्रामाणिक प्रारम्भिक ग्रंथ माना जाता है।

यह नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा “हिन्दी शब्द सागर” की भूमिका के रूप में 1929 में प्रकाशित हुआ। आचार्य शुक्ल ने हिन्दी साहित्य के इतिहास को चार भागों में विभाजित करके इतिहास की महत्ता को बढ़ा दिया और आगामी लेखकों के लिए सीधा और सरल

मार्ग तैयार कर दिया। इनका इतिहास कालक्रमानुसार, न्यायोचित एवं युगानुरूप है, क्योंकि इन्होंने उपलब्धं ग्रंथों के आधार पर काल विभाजन किया है। शुक्ल के पश्चात् हिन्दी साहित्य के परवर्ती इतिहासकारों ने भी हिन्दी जगत में अपना योगदान दिया। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने हिन्दी साहित्य की भूमिका के नाम से इतिहास लिखा, जिसमें ऐसे तथ्यों एवं निष्कर्षों का प्रतिपादन किया जो लेखन की दृष्टि से नवीन सामग्री एवं नई व्याख्या देती है। अन्य लेखकों में डॉ. रामकुमार वर्मा, डॉ. नगेन्द्र, डॉ. धीरेन्द्र वर्मा तथा डॉ. नामवर सिंह इत्यादि ने अपने अध्ययन, शोधप्रबन्ध व समीक्षात्मक दृष्टिकोण के माध्यम से हिन्दी साहित्य के इतिहास में अप्रतिम योगदान दिया।

प्रश्न 4.
सिद्ध साहित्य की प्रमुख विशेषताएँ लिखिए तथा परवर्ती साहित्य पर पड़े इसके प्रभावों को बताइए।
उत्तर:
सिद्ध साहित्य की विशेषताएँ एवं परवर्ती काव्य पर इनका प्रभाव-

1. सिद्धों की रचना से पता चलता है कि इनकी काव्य शैली संधा या उलटबासी शैली थी, जिसका सामान्य अर्थ से उलटा अर्थ निकलता है।
2. सिद्धों के साहित्य में अन्तः साधना पर जोर दिया गया।
3. रहस्यमार्गियों की साधना पद्धति अपनाई गई है।
4. वारुणी प्रेरित अन्तः साधना पर जोर दिया गया। लोक विरुद्ध बाह्य आडम्बरों का खण्डन किया गया।
5. सिद्ध की रचनाएँ उपदेशपरक साहित्यिक रचनाएँ थीं।
6. सिद्धों ने प्रतीक मूलक एवं विरोध मूलक प्रतीकों से काव्य साधना की।

इस प्रकार सिद्ध साहित्य न केवल महत्त्वपूर्ण रहा अपितु उसका प्रभाव परवर्ती भाषा साहित्य पर भी पड़ा। सिद्धाचार्यों के काव्य का सीधा प्रभाव सन्त साहित्य पर पड़ी। कर्मकाण्डों की निन्दा, आचरण की शुद्धता, संध, भाषा, उलटबासियाँ, रहस्यमयी उक्तियाँ, रूपक एवं प्रतीक विधान शब्दावली का प्रयोग हम भक्तिकाल के सन्त कबीर के साहित्य में भी देखते हैं। दोहा और गीत शैली भक्तिकाल की विशेषता बन गई। इसका प्रभाव नाथ साहित्य पर भी पड़ा, क्योंकि योग साधना सिद्धों की परम्परा लगती है। डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कहा “भक्तिवाद पर सिद्धों का प्रभाव है। इनके साहित्य की सबसे बड़ी, महत्त्वपूर्ण देन यह है कि आदिकाल की प्रामाणिक सामग्री प्राप्त हुई।”

प्रश्न 5.
सिद्ध साहित्य की प्रमुख रचनाएँ व रचनाकारों के बारे में लिखिए।
उत्तर:
सिद्ध साहित्य के प्रमुख कवि निम्नलिखित हैं सरह्पाद-सरहपाद इस समय के सबसे प्रमुख सिद्ध माने जाते हैं, जिनका समय 769 ई. माना गया है। इनके द्वारा 32 ग्रंथों की रचना की गई है। ये ब्राह्मण जाति के थे। इसके द्वारा रचित दोहाकोश और चर्यापद प्रसिद्ध रचना है। इन्होंने पाखण्ड और आडम्बरों का घोर विरोध किया तथा गुरु को सबसे पूज्य माना। इनका कहना है कि “सहजभोग मार्ग जीव को महासुख की ओर ले जाता है। इनकी भाषा सरल एवं गेय थी। इसलिए भावों में सहज प्रवाह मिलता है। इन्होंने दक्षिण मार्ग को छोड़कर वाममार्ग का उपदेश दिया।

उदाहरण-

नाद न बिन्दु न रवि न शशि मण्डल।
चिअराअ सहाबे मूकल॥
अजुरे उजु छाड़ि मा लेहुरे बंक।
निअह बोहिया जाहुरे लांक।

कवि सरहपाद की इस भाषा से लगता है कि यह हिन्दी के निकट थी। इसमें अपभ्रंश का भी पूर्ण प्रभाव है। इनके काव्य में अन्तः साधना पर जोर दिया गया। पण्डितों को फटकारने के साथ-साथ इन्होंने शास्त्रीय मार्ग का भी खण्डन किया

पंडिअ सऊल सन्त बसखाणणई। देहहि बुद्ध बसन्त जाणई॥
अमणा गमन णतेनबि खंडिअ। तो विणिलज्ज हउँ पंडिअ॥

शबरपा-शबरों का सा जीवन यापन करने के कारण इनको शबरपा कहा जाने लगा। चर्यापद इनकी प्रसिद्ध रचना है। ये क्षत्रिय कुल के थे। सरहपा से इन्होंने ज्ञान प्राप्त किया। इन्होंने सहज जीवन पर बल देकर माया-मोह का विरोध किया

हेरि ये मेरि तइला, वाडी खसमें समतुला।
पुकडए सेरे कपासु फुटिला॥

लुइपा-ये शबरपा के शिष्य थे। ये जाति से कायस्थ थे, किन्तु इनकी प्रबल साधना देखकर उड़ीसा के राज मंत्री इनके शिष्य बन गए। चौरासी सिद्धों में इनका ऊँचा स्थान है

कौआ तरुवर पंच विडाल, चंचल चीए पइठा काल।

डोम्बिपा-ये डोम्ब्रिपा जाति के क्षत्रिय थे। इनका समय 840 ई. के लगभग माना गया है। इनके गुरु का नाम विरूपा था। इनके प्रसिद्ध ग्रंथ डोम्बि-गीतिको व योगवर्या विशेष-प्रसिद्ध ग्रंथ हैं।

गंगा जउना माझेरे बहर नाई।।
तांहि बुडिली मातंगी पोइली ले पार गई।
सद्गुरु पाऊपए जाइव पुणु जिणउरा।।

कण्हपा-ये ब्राह्मण वंश के थे। इनका समय 820 ई. माना जाता है। इनका जन्म कर्नाटक में हुआ। किन्तु ये बिहार क्षेत्र में रहे। इनके गुरु का नाम जालंधरपा था। इन्होंने रहस्यपरक बातों को बड़े दार्शनिक ढंग से प्रस्तुत किया तथा शास्त्रीय परम्परा एवं रूढ़ियों का खण्डन किया।

आगम बेअ पुराणे, पंडित मान वहति।।
पक्क सिरिफल अलिअ, जिमे वाहेरित भ्रमयंति॥

कुक्कुरिपा-ये कपिलवस्तु के ब्राह्मण थे। चर्पटिया इनके गुरु थे। उन्होंने सोलह ग्रंथों की रचना की। ये सहज जीवन के समर्थक

हांद निवासी खमण भतारे।
मोहोरे विगोआ कहण न जाई॥
फेट लिउ गो माए अन्त उडि चाहि।
ज एथु बाहाम मो एथु नाहि॥

प्रश्न 6.
आदिकाल में उपलब्ध साहित्य का वर्गीकरण करते हुए ‘अपभ्रंश काव्य और रचनाओं’ पर संक्षेप में प्रकाश डालिए।
उत्तर:
आदिकाल का जो साहित्य उपलब्ध है, वह तीन प्रकार का है

  • उपभ्रंश-साहित्य।
  • अपभ्रंश प्रभावित हिन्दी-रचनाएँ
  • अपभ्रंश के प्रभाव से मुक्त हिन्दी रचनाएँ।

अपभ्रंश,काव्य और रचनाएँ-अपभ्रंश के कई कवि माने गये हैं। डॉ. देवेन्द्र कुमार जैन ने स्वयंभू, पुष्पदत्त, धनपाल, घाहिल, वनकामर, अब्दुल रहमान, जिनदत्त सूरि, जोइन्दु, रामसिंह, देवसेन, लुइया सिद्ध कवि भुसुक, किलपाद, दीपंकर, श्रीजान कृष्णाचार्य, धर्मवाद, टेंटया, महीधर तथा कम्बलांवराद आदि को अपभ्रंश का कवि स्वीकार किया गया है।

इसके अतिरिक्त डॉ. त्रिलोकी नाथ श्रीवास्तव ने हेमचन्द, सोम प्रेम सूरि, जैनाचार्य मेरु तुंग, विद्याधर, शारंगधर, महाकवि वीर, नयनान्दि का भी उल्लेख किया है। यहाँ कुछ प्रमुख कवियों का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत है

(i) हेमचन्द-इनका ‘सिद्ध हेमचन्द शब्दानुशासन’ व्याकरण ग्रन्थ प्रसिद्ध है। इसके अतिरिक्त उन्होंने ‘द्वयाश्रय-काव्य’ की भी रचना की है जिसके अन्तर्गत ‘कुमारपाल चरित’ नामक प्राकृत काव्य भी है। इनके व्याकरण का एक उदाहारण देखिए

“पिय संगमि कउ निद्दड़ी? पिय ही परक्ख हो कैव।
भइँ विलिवि बिन्नासिया निद्द न राँच न तैव॥”

(प्रिय के संग में नींद कहाँ और प्रिय के परोक्ष में भी क्यों कर आवै?) में दोनों प्रकार से विनाशिता हुई, न यों नींद न त्यों?

(2) क्षोम प्रभसूरि-इनका ‘कुमारपाल प्रतिबोध’ गद्य-पद्यमय ग्रन्थ है, जिसका एक दोहा यहाँ प्रस्तुत है

बेस बिसि द्वइ बरियइ जइवि मणोहर गन्त।
गंगाजल पक्खालियवि सुणिहि कि होइ पवित्र।”

(वंश विशिष्टों को वारिए अर्थात् बचाइए, यदि मनोहर गात हो तो भी गंगाजल से कोई कुतिया क्या पवित्र हो सकती है।)

(3) स्वयंभू-इन्होंने ‘पंउम चरिउ’ में राम चरित्र को विस्तार से वर्णित किया है। उन्हें अपभ्रंश का वाल्मीकि कहा जाता है। प्रचलित राम-कथा से जुड़कर इस ग्रन्थ में राग-विराग की दर्शानिकता का प्रतिपादन हुआ है।

(4) पुष्यदत्त-इनकी तीन रचनाएँ मानी जाती हैं-‘णायकुमार’, ‘महापुराण’ और जसहर चरिउ’। इन्होंने धार्मिक दृष्टि से भक्ति के प्रचारार्थ जिन ग्रन्थों की रचना की, उनमें ‘महापुराण’ में 63 महापुरुषों की जीवन-घटनाएँ वर्णित हैं, जिनमें राम-कथा को भी स्थान मिला है। इनकी रचनाओं में उच्च कोटि का काव्यत्व, प्रकृति चित्रण तथा भाषा-सौन्दर्य विद्यमान है।

(5) धनपाल-इन्होंने ‘भविसदत्त कहा’ की रचना की है। इसमें एक वणिक’ की कथा को आन्तरिक घात-प्रतिघात से स्वाभाविक बनाया गया है।

(6) अब्दुल रहमान-इनका सन्देश रासक’ पर्याप्त प्रसिद्ध है। यह एक खण्ड काव्य में जिसमें विक्रमपुर की एक विरहिणी की विरह कथा वर्णित है, जिसमें नायिका का नख-शिख वर्णन प्रभावी है। इसके श्रृंगार ने आगे के काव्य को भी प्रभावित किया है।

(7) शारंगधर-इनका आयुर्वेद का ग्रन्थ तो प्रसिद्ध है ही। साथ ही ये अच्छे कवि और कथाकार भी थे। इन्होंने ‘शारंगधर’ पद्धति के नाम से एक सुभाषित संग्रह भी बनाया। आचार्य शुक्ल ने इनका समय 14वीं शताब्दी के अन्तिम चरण में माना है। इन्होंने ‘हम्मीर रासो’ नामक वीरगाथा काव्य की भी रचना की थी। एक दोहा देखिए

ढोला मारिय ठिल्लि मुँह मृच्छिउमंच्छ सरीर।।
पुरण ज्जल्ला मेतिवर चालिअ वीर हम्मीर॥”

प्रश्न 7.
आदिकालीन रासो काव्यधारा की विशेषताएँ संक्षेप में लिखिए।
उत्तर:
आदिकालीन हिन्दी-साहित्य में रासो काव्यों का अत्यधिक महत्त्व है। यद्यपि रासो परम्परा से हटकर भी काव्य रचनाएँ इस युग में हुईं किन्तु परिणाम और परम्परा की दृष्टि से रासो काव्यधारा ही आदिकाल का प्रतिनिधित्व करती है।

काव्यगत विशेषता-इन काव्यों की कुछ सामान्य विशेषताएँ हैं जो इनको विशिष्ट काव्य परम्परा में आबद्ध करती हैं, ये निम्न प्रकार हैं

  1. सजीव युद्ध-वर्णन-इस काल के कवि लेखनी और तलवार दोनों के धनी होते थे। ये स्वयं रणभूमि में जाते थे। अत: इनके युद्ध वर्णनों में सजीवता और वैविध्य मिलता है।
  2. अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन-शैली-आश्रयदाताओं को प्रसन्न करने और पुरस्कार पाने के उद्देश्य से इन कवियों ने उनकी वीरता एवं विलास का अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन किया है।
  3. राष्ट्र-चेतना अनुपस्थित-इन कवियों की भक्ति और दायित्व केवल आश्रयदाता तक ही सीमित रहा है। सम्पूर्ण राष्ट्र और राष्ट्र के लोगों के प्रति ये अत्यधिक उदासीन रहे।
  4. अप्रामाणिक विषयवस्तु–रासो काव्यों को इतिहास से प्रमाणित कर पाना कठिन है। उनका समय और घटनाएँ कल्पना प्रसूत हैं।
  5. वीर और शृंगार रस की प्रधानता- रासो ग्रन्थों के प्रधान रस वीर और श्रृंगार हैं। इन दोनों ही रसों का सुन्दर परिपाक इन काव्यों में प्राप्त होता है।

इनकी भाषा ‘डिंगल’ कही गयी है जोकि ब्रजी, राजस्थानी आदि का मिश्रण है।

प्रश्न 8.
आदिकालीन साहित्य की राजनैतिक, धार्मिक, सामाजिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि को समझाइए।
उत्तर:
हिन्दी साहित्य का आदिकाल, वीरगाथा काल के नाम से भी जाना जाता है। इस काल में वीर एवं श्रृंगार रसात्मक काव्य-रचना की प्रवृत्ति अधिक रही। यह तथ्य अब सर्वमान्य है कि युग की विभिन्न परिस्थितियाँ तत्कालीन साहित्य को कहीं न कहीं से अवश्य प्रभावित करती हैं। अत: इस काल की पृष्ठभूमि को संक्षेप में इस प्रकार समझा जा सकता है

(1) राजनीतिक परिस्थिति-युद्धकाल के अन्त में वर्द्धन, साम्राज्य की स्थापना हुई, जिसका समय 707 से 743 ई. माना गया। उस काल में भारत पर यवनों, हूणों, शकों के आक्रमण प्रारम्भ हो गये और हर्ष के बाद भारत का हिन्दू साम्राज्य छिन्न-भिन्न होकरे छोटे राज्यों में बँट गया, जो परस्पर लड़ते हुए, संगठित रूप से विदेशी आक्रमण का मुकाबिला करने में सर्वथा अक्षम थे। साथ ही देशी नरेश विदेशी आक्रमणकारियों को सहयोग भी प्रदान कर रहे थे। यह काल आपसी कलह, युद्ध, झूठे शौर्य-प्रदर्शन, अराजकता, लूट-पाट, मार-काट तथा अत्याचारों से भरा समय रहा, जिसे राजनीतिक दृष्टि से भारत का पतन काल माना जाता है। विशेष बात यह थी कि इस अराजकता को हिन्दी को ही झेलना पड़ा है।

(2) धार्मिक स्थिति-यहाँ पर भी अराजकता प्रवेश कर गयी। इस काल में उत्तर में वैष्णव धर्म, जैन धर्म और बौद्ध धर्म प्रमुख थे, जिनमें जैन-बौद्ध धर्म, वैष्णव धर्म के विरोधी थे। अतः धार्मिक संघर्ष की स्थिति का होना स्वाभाविक था। ब्राह्मण विरोधी बौद्धों ने सिन्ध के ब्राह्मण राज पर मुसलमानी आक्रमण के सामय मुसलमानों का ही साथ दिया।

इसके साथ ही बौद्ध धर्म विकृत होकर विभिन्न प्रकार की भोग प्रधान विलासिता के जाल में फंस गया था। विभिन्न प्रकार के सम्प्रदायों का उद्भव हुआ। धार्मिक क्षेत्र की इस विषम स्थिति ने प्रबुद्ध विचारकों को सोचने को विवश किया पर यह सोच दक्षिण में उभरी। शंकराचार्य, रामानुज आदि सचेत हो उठे, जिनका प्रभाव बाद में पड़ा।

(3) सामाजिक स्थिति- निरन्तर हो रहे टों ने जनजीवन को त्रत किया। जनता की ओर राजाओं का ध्यान नहीं गया। जाति प्रथा पनपी। उच्च वर्ग के लोग निम्न वर्ग को हेय समझने लगे। नारी केवल भोग की सामग्री बन गई। उसका बलात् अपहरण कर लेना, राजाओं का व्यवसाय बन गया। शिक्षा केवल उच्च वर्ग तक सीमित रही। सामन्त वर्ग समृद्ध, विलासी और शिक्षित था। सामान्य जन निर्धन, अशिक्षित व पीड़ित थे। सिद्ध और नाथपंथी साधकों ने रूढ़ियों व छुआछूत का विरोध किया। निम्न वर्ग में उच्च वर्ग के प्रति विरोध पनपा।

(4) सांस्कृतिक पृष्ठभूमि-हिन्दी साहित्य के आदिकाल का प्रारम्भ उस समय हुआ जब यहाँ भारतीय संस्कृति अपना चरम उत्कर्ष पार कर चुकी थी और आदिकाल की समाप्ति उस समय हुई जब मुस्लिम संस्कृति को भारत में डंका बजने लगा था। इस प्रकार आदिकाल में हिन्दू संस्कृति और मुस्लिम संस्कृति के सिद्ध और नाथपंथी साधकों ने रूढ़ियों व छुआछूत का विरोध किया। निम्न वर्ग में उच्च वर्ग के प्रति विरोध पनपा।

प्रश्न 9.
आदिकाल में गद्य साहित्य में की गई प्रमुख रचनाओं के बारे में लिखिए।
उत्तर:
आदिकाल का गद्य साहित्य-आदिकाल के साहित्य में गद्य रचना बहुत लिखी जाती थी, किन्तु कुछ कवियों ने .. गद्य-पद्य (चम्पूकाव्य) साहित्य लिखकर साहित्य के खजाने को अद्भुत रत्न दिए हैं। इनमें प्रमुख रोड़ा नामक कवि कृत “राउलवेल” (यह गद्य और पद्य का मिश्रित रूप चम्पू रचना है) दामोदर कृत ‘उक्ति व्यक्ति प्रकरण’ तथा ज्योतिरीश्वर ठाकुर कृत ‘वर्ण रत्नाकर’ गद्य की कृतियाँ हैं।

राउलवेल-इसका रचना काल 10वीं शताब्दी माना जाता है। यह गद्य-पद्य मिश्रित (चम्पूकाव्य) की प्राचीनतम कृति है। इसमें राउल नामक नायिका के नख-शिखे वर्णन का प्रसंग है। पहले सौन्दर्य का पद्य में वर्णन किया गया है, बाद में गद्य में इसे वर्णित किया गया है। डॉ. नगेन्द्र के अनुसार “इसी काल में हिन्दी में नख-शिख श्रृंगार आरम्भ होता है। इसमें उपमा, उत्प्रेक्षा आदि अलंकारों का भी प्रयोग हुआ है।”

उक्ति व्यक्ति प्रकरण-महाराज गोविन्दचन्द का शासन काल 12वीं शताब्दी में रहा था। इनके सभा पण्डित दामोदर शर्मा ने 12वीं शताब्दी में इस ग्रंथ की रचना की। डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी के शब्दों में “उक्ति-व्यक्ति प्रकरण एक अत्यन्त महत्वपूर्ण ग्रंथ है। इसमें गद्य और पद्य दोनों शैलियों में तत्सम शब्दावली का प्रयोग हुआ है। इससे बनारस और आस-पास के प्रदेशों की संस्कृति और भाषा आदि पर अच्छा प्रभाव पड़ा है। हिन्दी व्याकरण पर भी इस समय ध्यान दिया जाने लगा।”

वर्ण रत्नाकर-इस ग्रंथ का प्रकाशन डॉ. सुनीति कुमार चटर्जी और पंडित बबुआ मिश्र के सम्पादन में बंगाल एशियाटिक सोसाइटी से हुआ। यह 14वीं शताब्दी की रचना है। इसके लेखक ज्योतिरीश्वर ठाकुर नामक मैथिली कवि हैं। इसकी भाषा आलंकारिक एवं कवित्वपूर्ण है। नायिका का वर्णन भी तत्सम शब्दावली में किया गया है। “उज्ज्वल कोमल लोहित सम संतुल सालंकार पंचगुण सम्पूर्ण चरण” इस प्रकार हिन्दी गद्य की इन प्रमुख कृतियों का हिन्दी साहित्य में महत्त्वपूर्ण योगदान है। तब से गद्य रचना का प्रवाह अखण्ड रूप से प्रवाहित हो रहा है।

भाषा विज्ञानियों ने हिन्दी को आर्यभाषा परिवार की भाषा माना है। भारतवर्ष को प्राचीन काल में आर्यावर्त के नाम से जाना जाता था और यहाँ के निवासियों को आर्य तथा आर्यों द्वारा बोली जाने वाली भाषाओं को आर्यभाषाओं के नाम से जाना जाता था। हिन्दी शब्द की व्युत्पत्ति-हिन्दी’ को हिन्दी नाम कैसे और कब मिला, इस विषय में अनेक मत हैं। कुछ भाषाविज्ञानी मानते। हैं कि भारतीय भाषाओं का ‘स’ ईरानी में ‘ह’ हो गया। इस प्रकार सिन्धु या सिन्ध ‘हिन्दू’ और ‘हिन्द’ हो गया। पहले सिन्धु नदी का सीमावर्ती प्रदेश ‘हिन्द’ कहा जाने लगा और फिर सम्पूर्ण भारत के लिए ‘हिन्द’ और ‘हिन्दुस्तान’ शब्द का व्यवहार होने लगी।

हिन्दी भाषा का उद्भव और विकास- भारतीय भाषा का प्राचीनतम ग्रन्थ ऋग्वेद है। इसकी भाषा संस्कृत है। संस्कृत भाषा के दो रूप हैं-वैदिक संस्कृत और लौकिक संस्कृत। लौकिक संस्कृत बोलचाल की भाषा के रूप से विकसित हुई और धीरे-धीरे पालि भाषा के रूप में प्रचलित हुई। समय के अनुसार पालि से प्राकृत भाषा का उद्भव हुआ। विद्वानों ने प्राकृत भाषा के अन्तिम चरण से अपभ्रंश का उद्भव माना है। अपभ्रंश के समय देशी भाषायुक्त थोड़ी सरलता एवं मधुरता वाली भाषा का भी अभ्युदय हुआ उसे “अवहट्ट” भाषा कहने लगे। मैथिल कोकिल विद्यापति ने इसी भाषा में अपनी दो रचनाएँ लिखीं। पहली “कीर्तिलता” और दूसरी “कीर्तिपताका” ये दोनों अवहट्ट की कृतियाँ हैं, जैसे

देसिल बअना सब जन मिट्ठा।
ते तैसन जपहो अवहट्ठा।।

अपभ्रंश भाषा के विभिन्न क्षेत्रीय रूपों एवं बोलियों से ही हिन्दी भाषा का उद्भव हुआ। अपभ्रंशभाषी कवियों एवं दार्शनिकों, सिद्धाचार्यों, जैनाचार्यों एवं नाथ सम्प्रदाय के अनुयायियों से ही अपभ्रंश भाषा का प्रचार एवं प्रसार हुआ। हर्षवर्द्धन के शासन काल के पश्चात् अपभ्रंश का प्रचार तेज गति से बढ़ा। अत: हिन्दी का प्रारम्भिक काल अपभ्रंश साहित्य में ही दिखाई दिया। इसी काल के चौरासी सिद्धों में हिन्दी का रूप निखर करके आया।

13वीं शताब्दी के प्रारम्भ से 15वीं शताब्दी के पूर्व तक का काल संक्रांति काल था, जिसमें भारतीय भाषाएँ धीरे-धीरे अपभ्रंश की स्थिति को छोड़कर आधुनिक काल की विशेषताओं से युक्त होती जा रही थीं। हिन्दी साहित्य की परम्परा को देखें तो डॉ. नगेन्द्र के अनुसार, अपभ्रंश से ही क्षेत्रीय रूपों में परिवर्तित होने वाली बोलियों से हिन्दी का रूप विकसित हुआ है। अपभ्रंश अर्थात् शौरसेनी अपभ्रंश, पैशाची, ब्राचड़, महाराष्ट्री, मागधी और अर्धमागधी के रूपों में प्रसारित हो रही थी। इनकी उपभाषाएँ एवं मुख्य बोतियों से ही हिन्दी का उद्भव माना गया है। जिसका सामान्य परिचय इस प्रकार है। अपभ्रंश की क्षेत्रीय भाषाएँ जिनसे हिन्दी का उद्भव हुआ

  1. शौरसेनी अपभ्रंश
  2. मागधी अपभ्रंश
  3. अर्धमागधी अपभ्रंश।

शौरसेनी अपभ्रंश की उपभाषाएँ एवं बोलियाँ
उपभाषाएँ – बोलियाँ

  1. पश्चिमी हिन्दी – खड़ीबोली(कौरवी), ब्रजभाषा, बुन्देली, हरियाणवी(बांगरू), कन्नौजी
  2. पूर्वी हिन्दी: – ‘अवधी, बघेली, छत्तीसगढ़ी
  3. राजस्थानी – मारवाड़ी, जयपुरी, मेवाती, हाड़ौती, मालवी
  4. पहाड़ी – पश्चिमी पहाड़ी, मध्यवर्ती पहाड़ी।
  5. बिहारी – मैथिली, मगही, भोजपुरी

इस प्रकार हिन्दी में पाँच उपभाषाएँ और अठारह बोलियाँ सम्मिलित हैं।

हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखन का प्रयोजन-साहित्य के इतिहास लेखन का मुख्य उद्देश्य साहित्य की प्रवृत्तियों एवं उनकी उपलब्धियों को प्रकाश में लाना है। साहित्य का इतिहास कवि एवं लेखकों की काल संबंधी विवेचना करते हुए उनकी कृतियों का भी विश्लेषण करता है। अतः साहित्य के इतिहास का मूल प्रयोजन विगत युगों की साहित्यिक प्रवृत्तियों का दिग्दर्शन करना है, क्योंकि साहित्य का इतिहास मानव की चित्तवृत्तियों का चित्रण तथा समसामयिक परिवेश का विवरण प्रस्तुत करता है।

हिन्दी साहित्य के इतिहास के स्रोत-स्रोत या साक्ष्य दो प्रकार के होते हैं-अन्त:साक्ष्य व बाह्य साक्ष्य। अन्त:साक्ष्य के अंतर्गत उपलब्ध सामग्री में आधारभूत कृतियों एवं ग्रन्थों, कवि एवं लेखकों की फुटकर प्रकाशित एवं अप्रकाशित रचनाएँ होती है। बाह्य साक्ष्य के अंतर्गत ताम्रपत्रावली, शिलालेख, वंशावलियाँ, जनश्रुतियाँ, कहावतें, ख्याल एवं वेचनिकाएँ जैसी सामग्री सम्मिलित होती हैं। हिन्दी साहित्य में भी अन्त: और बाह्य स्रोतों के माध्यम से इतिहास लेखन प्रारंभ हुआ।

हिन्दी साहित्य इतिहास लेखन की परंपरा-हिन्दी साहित्य के प्रथम इतिहास लेखन का श्रेय फ्रेंच भाषा के विद्वान ‘गार्सा द तासी’ को है। इनका ‘इस्त्वार द ला लितरेत्युर ऐंदुई-ए-ऐन्दुस्तावी’ नाम से 1839 ई. में प्रथम भाग प्रकाशित हुआ तथा द्वितीय भाग 1847 में प्रकाशित हुआ। तासी ने प्रथम प्रयास में लगभग 70 कवियों की जीवनी और उनके द्वारा रचित रचनाओं का विवरण प्रस्तुत किया। इनका प्रारंभिक प्रयास इतिहास लेखन की परंपरा में नव का पत्थर बना। इसी प्रयास को आगे बढ़ाते हुए शिवसिंह सेंगर ने ‘शिवसिंह सरोज’ के नाम से 1883 ई. में दूसरा इतिहास लिखा। हिन्दी इतिहास लेखन का तीसरा प्रयास डॉ. जार्ज ग्रियर्सन ने ‘द माडर्न वर्नाक्युलर लिटरेचर ऑफ हिन्दुस्तान’ के नाम से किया।

कालक्रमबद्ध इतिहास लेखन की परंपरा की शुरुआत मिश्र बंधुओं द्वारा की गई। यह ग्रंथ ‘मिश्र बन्धु विनोद’ के नाम से 1913 ई. में प्रकाशित हुआ। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने हिन्दी साहित्य के इतिहास को सुव्यवस्थित कालक्रमानुसार लिखा। यह नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा ‘हिन्दी शब्द सागर’ की भूमिका के रूप में 1929 ई. में प्रकाशित हुआ। इस इतिहास को हिन्दी साहित्य का प्रामाणिक प्रारंभिक ग्रंथ माना जाता है। शुक्ल के पश्चात् हिन्दी साहित्य के प्रवर्ती साहित्यकार एवं इतिहासकारों ने अपना योगदान हिन्दी जगत को दिया जिनमें आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, डॉ. रामकुमार वर्मा, डॉ. नगेन्द्र, डॉ. धीरज वर्मा तथा डॉ. नामवर सिंह प्रमुख हैं।

हिन्दी भाषा पर प्रभाव-हिन्दी साहित्य पर समयानुसार अनेक प्रभाव परिलक्षित हुए जिनमें सांस्कृतिक प्रभाव, राजनीतिक प्रभाव एवं सामाजिक प्रभाव मुख्य हैं। वैदिक धर्म, बौद्ध धर्म व जैन धर्म का प्रभाव तत्कालीन साहित्य पर पाया जाता है। हर्षवर्द्धन के पश्चात् भारत की संगठित सत्ता छिन्न-भिन्न हो गई। विदेशी आक्रमणकारियों की संस्कृति ने भी हिन्दी साहित्य को प्रभावित किया। राजनैतिक परिस्थितियों के साथ सामाजिक स्थितियों में भी परिवर्तन आ रहा था। सामाजिक परिवर्तन का प्रभाव साहित्य में प्रतिबिंबित होने लगा।

काल विभाजन एवं नामकरण

काल विभाजन-हिन्दी साहित्य का आरम्भ कब हुआ? इसे लेकर विद्वानों में मतभेद चला आ रहा है। अनेक विद्वानों ने अपने-अपने तर्कों और प्राप्त सामग्री के आधार पर आरम्भिक समय सीमा का निर्धारण किया है। इन प्रमुख विद्वानों के मत इस प्रकार है।

जार्ज ग्रियर्सन ने सर्वप्रथम हिन्दी साहित्य के काल विभाजन का प्रयास किया। उन्होंने 700 ई. से हिन्दी साहित्य के सृजन का आरम्भ माना। इसके पश्चात् उन्होंने केवल अध्यायों का उल्लेख किया है। उनका काल विभाजन स्पष्ट नहीं है।

मिश्रबन्धु-मिश्रबन्धुओं द्वारा किया गया काल विभाजन इस प्रकार है

1. प्रारम्भिक काल-
(क) पूर्वारम्भिक काल – 700-1343 वि. तक
(ख) उत्तरारम्भिक काल। – 1344-1444 वि. तक

2. माध्यमिक काल-
(क) पूर्व माध्यमिक काल – 1445-1560 वि. तक
(ख) उत्तर माध्यमिक काल। – 1561-1680 वि. तक

3. अलंकृत काल-
(क) पूर्वालंकृत काल – 1681-1790 वि. तक
(ख)उत्तरालंकृत काल – 1791-1889 वि. तक

4. परिवर्तन काल – 1890-1925 वि. तक
5. वर्तमान काल – 1626 वि. से आज तक।

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल-आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने पूर्ववर्ती इतिहास लेखकों के मतों, तर्कों और प्राप्त सामग्री पर विचार करके काल विभाजन इस प्रकार किया है

  1. वीरगाथा काल – 1000 ई. से 1375 ई. तक
  2. भक्ति काल – 1375 ई. से 1700 ई. तक
  3. रीति काल – 1700 ई. से 1850 ई. तक
  4. आधुनिक काल या गद्यकाल – 1850 ई. से आज तक।

इन विद्वानों के अतिरिक्त डॉ. रामकुमार वर्मा, राहुल सांकृत्यायन तथा आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने भी अपने-अपने काल विभाजन प्रस्तुत किये।

नामकरण-हिन्दी साहित्य के विभिन्न कालों के नामकरण को लेकर भी मतभेद रहा है। विभिन्न विद्वानों द्वारा किये गये नामकरण इस प्रकार हैं-

सर्वप्रथम मिश्रबन्धुओं ने कालखण्डों के नामकरण का प्रयास किया। उन्होंने प्रथम कालखण्ड को प्रारम्भिक काल’ नाम दिया किन्तु इसका कोई आधार नहीं बताया। इसके पश्चात् आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने यह मानकर कि इस काल खण्ड में वीरगाथात्मक रचनाएँ अधिक हुईं, इसे ‘वीरगाथा काल’ नाम दिया। यह नाम बहुत समय तक चला। नई खोजों के उपरान्त विद्वानों को यह नाम उचित नहीं लगा। इस काल में वीरगाथात्मक ग्रन्थों के अतिरिक्त शृंगारपरक तथा धार्मिक रचनाएँ भी पर्याप्त मात्रा में रची गई थीं।

आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने इसे ‘बीज वपन काल’ नाम दिया। डॉ. रामकुमार वर्मा ने इसे ‘चारण काल’ नाम दिया, राहुल सांकृत्यायन ने इसे ‘सिद्ध-सामन्त-युग’ नाम दिया। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी प्रारम्भिक काल से ‘आदिकाल’ को उचित मानते हैं। तथापि ‘वीरगाथा काल’ आज भी प्रचलित है।

अब प्रायः’आदिकाल’ नाम से ही सर्व स्वीकृत है। अतः अब कालों के नामकरण इस प्रकार किये जाते हैं

1. आदिकाल
2. पूर्व मध्यकाल या भक्तिकाल
3. उत्तरमध्यकाल या रीतिकाल
4. आधुनिककाल या गद्यकाल

आधुनिक काल के भी प्रवृत्ति विशेष के अनुसार कई विभाजन किये गये हैं। यथा-

  1. भारतेन्दु युग,
  2. द्विवेदी युग,
  3. छायावादी युग,
  4. प्रगतिवादी युग,
  5. प्रयोगवादी युग तथा
  6. नवलेखन युग।

आदिकाल के प्रमुख कवि और उनकी कृतियाँ

यद्यपि रामचन्द्र शुक्ल ‘रासो’ काव्यों को ही आदिकाल साहित्य में स्थान देते हैं किन्तु अनेक विद्वान सिद्ध और नाथ साहित्य के काव्यों को भी आदिकाल के अंतर्गत मानते हैं। अत: यहाँ उन कवियों का भी परिचय दिया जा रहा है जिनका काव्य हिन्दी के निकट है, भले ही वे शुक्लजी की समय सीमा में नहीं आते।

(1) सहपाद-इनके और नाम प्रसिद्ध हैं-सरोजब्रज, राहुल भद्र आदि। ये जाति के ब्राह्मण थे। राहुल सांकृत्यायन ने इनको समय 769 ई. माना है। वे इनको हिन्दी का प्रधान कवि भी मानते हैं। यद्यपि इनकी 32 रचनाएँ मानी जाती हैं किन्तु ‘दोहा कोष’ में ही हिन्दी का स्वरूप बिम्बित होता है। उन्होंने गुरु सेवा, पाखण्ड खण्डन आदि पर दोहों की रचना की है। इनकी कविता का एक उदाहरण प्रस्तुत है-

हाथेरे कांकाण मा लोऊ दापण।
आपणे अपा बूझतु निअन्मण।।

(2) गोरखनाथ–नाथ पंथ की यह सबसे प्रसिद्ध विभूति हैं। इनके आविर्भाव काल पर विद्वान एकमत नहीं हैं। राहुल सांकृत्यायन ने इनका समय 845 ई. माना है। इनके विषय में अनेक चमत्कारपूर्ण जन श्रुतियाँ प्रचलित हैं। यह मत्स्येन्द्र नाथ (मछिन्दर नाथ) के शिष्य थे। इनके नाम से लगभग 40 हिन्दी ग्रन्थ प्राप्त हुए हैं किन्तु विद्वान इनमें से अनेक को संदेहास्पद मानते हैं।

गोरखनाथ की रचनाओं में साधना तथा नैतिकता पर बल दिया जाता है। गुरु भक्ति, ब्रह्मचर्य, संयम तथा माया-मोह के त्याग का इनके अनुसार बहुत महत्त्व है। इनकी कविता का उदाहरण प्रस्तुत है-

एक में अनन्त, अनन्त में ऐहै, ऐकै अनन्त उपाया।
अंतरि एक सों परचा हूवा, तब अनन्त एक में समाया॥
अस्ति कहूँ तो कोई न पतीजैस, बिना आस्ति क्यूँ सीधा।
गोरख बोले सुनो मछिन्दर, हीरै हीरा बीधा॥

(3) दलपति विजय-इनकी रचना ‘खुम्माण रासो’ है। इसका रचना काल विवादग्रस्त है पर प्रमाणों के आधार पर यह स्पष्ट हैं। कि यह नवीं सदी की ही रचना है। इस ग्रन्थ में चित्तौड़ के रावल खुम्माण के समय का वर्णन है। कुछ विद्वान इसे सत्रहवीं सदी के जैन साधु दलपति विजय की रचना मानते हैं, किन्तु गाथा का स्वरूप तथा रचना शैली से यह प्रमाणित नहीं होता। एक उदाहरण प्रस्तुत है-

पिउ चित्तौड़ न आविऊ, सावण पहिली लीज।
जावै बाट विरहिणी, खिण-खिण आणवै खीज॥

(4) नरपति नाल्ह-यह ‘बीसल देव रासो’ के रचयिता हैं। ग्रन्थ के अनुसार इनका समय सन् 1155 ई. है। कुछ लोग 1016 ई. को इसका रचनाकाल मानते हैं। शुक्लजी के अनुसार इस काव्य का नायक विग्रह राज चतुर्थ है। इसमें जैसलमेर के रावल भोज की पुत्री राजमती और बीसलदेव के विवाह का वर्णन है।

(5) जगनिक-इनकी प्रसिद्धि ‘परमाल रासो’ या ‘आल्हा खण्ड’ के रचनाकार के रूप में है। इसमें कवि ने महोबा के राजा परमर्दिदेव के दो वीर सरदारों-आल्हा और ऊदल की वीरता और युद्ध कौशल का वर्णन किया है। इसका रचनाकाल 1173 ई. माना जाता है। यह लोकप्रिय काव्य है।

(6) चन्दबरदायी-चन्दबरदायी प्रसिद्ध महाकाव्य ‘पृथ्वीराज रासो’ के रचयिता हैं। इनका जन्म स्थान लाहौर माना जाता है। इनका जन्म 1168 ई. में हुआ था। ये दिल्ली के राजा पृथ्वीराज चौहान के राज कवि और सखा थे। ऐसी जनश्रुति है कि चन्दबरदायी और पृथ्वीराज का जन्म तथा मरण दिवस एक ही था। ये भट्ट जाति के जगत गोत्र में उत्पन्न हुए थे। इनके चार पुत्र माने गये हैं। सबसे छोटा पुत्र जल्हण था। जब मुहम्मद गौरी महाराज पृथ्वीराज को बन्दी बनाकर ले गया तो ‘चन्द’ भी पृथ्वीराज रासो को पूरा करने का भार जल्हण को सौंप कर पृथ्वीराज के साथ गजनी जा पहुँचे। वहाँ अपने दोहे के संकेत से गौरी की स्थिति बताकर पृथ्वीराज द्वारा शब्द भेदी बाण से गौरी को समाप्त करा दिया और दोनों सखा एक-दूसरे को कटार मारकर अमर हो गये।

(7) अमीर खुसरो-इनका वास्तविक नाम अब्दुल हसन था। इनका समय 125 से 1324 ई. तक माना गया है। इनका जन्म एटा जनपद के पटियाली कस्बे में हुआ था। यह तुर्क जाति के थे। खुसरो ने दर्शनशास्त्र तथा विज्ञान का अध्ययन किया किन्तु कविता में रुचि होने के कारण वे कवि के रूप में प्रसिद्ध हो गये। इन्होंने तीन राजवंशों का उत्थान-पतन देखा था पर वे राजनीतिक कुचक्रों से अपने को दूर रखते हुए सदैव कवि, कलाकार एवं सैनिक ही बने रहे।

खुसरो की प्रसिद्धि इनकी पहेलियों, मुकरियों तथा गजलों आदि के कारण हुई। उन्होंने अरबी, फारसी तथा हिन्दी का शब्दकोष भी सम्पादित किया। खुसरो की भाषा बोलचाल की खड़ी बोली है। उन्होंने अपनी रचनः में फारसी तथा ब्रज भाषा का भी प्रयोग किया है। इनकी रचनाओं के कुछ उदाहरण दर्शनीय हैं-

एक नार ने अचरज किया,
साँप मार पिंजरे में दिया, (दिया = दीपक)
एक थाल मोती से भरा सब के सिर पर औंधा धरा।
चारों ओर वह थाली फिरे, मोती उससे एक न गिरे॥ (आकाश)

♦ मिश्रित भाषा-

चु शमअ सोजा, चु जर्रा हैरां, ज मेहरे आं मह बेगशतम आखिर।
न नींद नैना, न अंग चैना, न आप आवे, न भेजे पतियाँ।

इनके काव्य तथा व्यक्तित्व ने हिन्दू-मुस्लिम सद्भाव के बीज बोए तथा हिन्दी के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।
इन कवियों के अतिरिक्त विद्यापति ने ‘पदावली’ तथा अपने आश्रयदाता को प्रंशसा में ‘कीर्तिलता’ तथा ‘कीर्तिपताका’ नामक वीर काव्यों की रचना की। भट्ट केदार ने ‘जयचन्द्र प्रकाश’ तथा मधुकर कवि ने ‘जय मयंक जस चन्द्रिका’ ग्रन्थ रचे।

विद्यापति की पदावली-मैथिल कोकिल विद्यापति का जन्म सन् 1368 ई. में बिहार के दरभंगा जिले के बिसपी गाँव में हुआ था। वे तिरहुति के महाराजा शिवसिंह के आश्रित कवि थे। अपने आश्रयदाता की प्रशंसा में विद्यापति ने ‘कीर्तिलता’ और ‘कीर्तिपताका’ नामक वीर काव्यों की रचना की। उनकी ‘पदावली’ श्रृंगार रस की उत्कृष्ट कृति मानी जाती है।

विद्यापति ने अपनी भाषा को ‘अवहह’ कहा है। राधा की प्रेम तन्मयतः और रूप चित्रण इन पंक्तियों में देखते ही बनती है

अनुखन माधव-माधव सुमति।
सुन्दर मेल मद्याई।
चाँद सार लए मुख घटना करु लोचन चकित चकोर।
अमिय होय अंचल हानि पोंछलि दहउँ दिसि भेल उजोरे।

आदिकाल का गद्य साहित्य- आदिकाल के साहित्य में गद्य रचना बहुत लिखी जाती थी, किन्तु कुछ कवियों ने गद्य-पद्य(चम्पूकाव्य) साहित्य लिखकर साहित्य के खजाने को अद्भुत रत्न दिए हैं। इनमें प्रमुख रोड़ा नामक कवि कृत “राउलवेल” (यह गद्य और पद्य का मिश्रित रूप चम्पू रचना है) दामोदर कृत ‘उक्ति व्यक्ति प्रकरण’ तथा ज्योतिरीश्वर ठाकुर कृत ‘वर्ण रत्नाकर’ गद्य की कृतियाँ हैं।

आदिकाल हिन्दी साहित्य की प्रवृत्तियाँ-आदिकालीन हिन्दी साहित्य की कुछ सामान्य प्रवृत्तियाँ निम्न प्रकार हैं
(1) वीरगाथात्मक रचनाएँ-वीररस प्रधान काव्यों की रचना आदिकालीन साहित्य की प्रमुख प्रवृत्ति थी। तत्कालीन राजनैतिक स्थिति इसके लिए उत्तरदायी थी। राजा लोग साम्राज्य वृद्धि या किसी राजकुमारी से विवाह को लेकर परस्पर युद्ध किया करते थे। इनकी वीरता की प्रशंसा करने तथा विलास वर्णन करने से कवियों को धन और यश दोनों की प्राप्ति होती थी। इस कारण वे वीर रसात्मक काव्य रचना में प्रवृत्त होते थे।

(2) शृंगारिक भावना का प्राधान्य-आदिकालीन कवियों में श्रृंगार वर्णन की प्रवृत्ति भी पर्याप्त मात्रा में मिलती है। वीररस के साथ शृंगार का वर्णन राजाओं और सामंतों की रुचि के अनुकूल था। वीरता प्रदर्शन के पीछे सुन्दर स्त्रियाँ भी होती थ। ‘पृथ्वीराज रासो’ में वीर रस के साथ शृंगार का भी आकर्षक स्वरूप है।‘खुम्माण रासो’, “वीसलदेव रासो’ ‘ढोला मारू रादूहा’ दोहा तथा ‘वसंत विलास’ श्रृंगार रस की रचनाएँ हैं।

(3) आश्रयदाताओं की प्रशंसा-आदिकालीन कवियों का ध्यान राजाओं और सामंतों का आश्रय पाने पर केन्द्रित रहता था। उनमें राष्ट्रीय भावना जैसी कोई प्रवृत्ति नहीं थी। छोटे-छोटे राज्यों के स्वामियों से पुरष्कृत होना ही उनके कवि कर्म की सीमा थी।

(4) पारम्परिक प्रकृति वर्णन-आदिकालीन काव्यों में प्रकृति वर्णन तो मिलता है किन्तु वह परम्परा का निर्वाह मात्र है। प्रकृति का अधिकांशत: उपयोग उद्दीपन के लिए हुआ है। नाना प्रकार के वृक्षों की नाम परिगणना मिल जाती है। वसंत विलास’ अवश्य इसका अपवाद है। वसंत ऋतु के सौन्दर्य का इस रचना में सुन्दर वर्णन हुआ है।

(5) ऐतिहासिकता की उपेक्षा-इन ग्रन्थों में प्रायः ऐतिहासिक तिथियों और व्यक्तियों के साथ कोई तालमेल नहीं है। कल्पना की ऊँची उड़ान और आश्रयदाता के स्तुतिगान की अधिक चिन्ता है।

(6) लौकिक काव्य रचना–आदिकाल में लोक गाथाओं पर आधारित सुन्दर काव्यों की रचना भी हुई है। ‘ढोला मारू रादूहा’ दोहा, ‘वसंत विलास’, ‘जयचन्द्र प्रकाश’,’जयमयंक जस चन्द्रिका’ तथा ‘खुसरो’ का काव्य इसका प्रमाण हैं।

(7) रासो ग्रन्थों की रचना-वीरगाथाओं और चरित काव्यों के रूप में रासो काव्य ग्रन्थ रचना भी इस काल की प्रमुख कृति है। अनेक रासो ग्रन्थ इस काल में रचे गये। ‘पृथ्वीराज रासो’, ‘खुम्माण रासो’, ‘वीसलदेव रासो’, ‘हमीर रासो’ आदि इसी प्रवृत्ति के द्योतक ग्रन्थ हैं।

(8) भाषा-शैलीगत प्रवृत्तियाँ- भाषा की विविधता इस काल के काव्य की एक प्रमुख विशेषता है। अपभ्रंश, डिंगल, पिंगल, मैथिली तथा खड़ी बोली में काव्य रचना हुई।

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