Rajasthan Board RBSE Class 11 Hindi साहित्य का संक्षिप्त इतिहास भक्तिकाल
अभ्यास प्रश्न
वस्तुनिष्ठ प्रश्न
प्रश्न 1.
किस आलोचक ने भक्ति को ‘धर्म की भावात्मक अनुभूति’ माना है ?
(क) डॉ. नगेन्द्र
(ख) हजारी प्रसाद द्विवेदी
(ग) रामचन्द्र शुक्ल
(घ) डॉ. रामविलास शर्मा।
उत्तर:
(ग) रामचन्द्र शुक्ल
प्रश्न 2.
आलवार मत के इष्ट देवता हैं
(क) विष्णु
(ख) राम
(ग) शिव
(घ) कृष्ण।
उत्तर:
(क) विष्णु
प्रश्न 3.
‘भक्ति आंदोलन भारतीय चिन्तनधारा का स्वाभाविक विकास है’, कथन है
(क) रामचन्द्र शुक्ल
(ख) डॉ. रामकुमार वर्मा
(ग) डॉ. नगेन्द्र
(घ) हजारी प्रसाद द्विवेदी।
उत्तर:
(घ) हजारी प्रसाद द्विवेदी।
प्रश्न 4.
‘राम चरितमानस’ की भाषा है
(क) ब्रजभाषा
(ख) अवधी
(ग) सधुक्कड़ी
(घ) भोजपुरी।
उत्तर:
(ख) अवधी
प्रश्न 5.
इनमें से कौन कवि संत काव्यधारा से नहीं जुड़े हैं ?
(क) रैदास
(ख) मीरा
(ग) कबीर
(घ) सुंदरदास।
उत्तर:
(ख) मीरा
प्रश्न 6.
हिन्दी सूफी काव्यधारा का प्रथम कवि किसे माना जाता है ?
(क) कुतुबन
(ख) जायसी
(ग) मुल्ला दाउद
(घ) उसमान।
उत्तर:
(ग) मुल्ला दाउद
प्रश्न 7.
तुलसीदास के गुरु का नाम है
(क) रामानंद
(ख) बाबा नरहरि दास
(ग) मलूकदास
(घ) राघवानंद।
उत्तर:
(ख) बाबा नरहरि दास
प्रश्न 8.
अष्टछाप के कवि नहीं हैं
(क) सूरदास
(ख) गोविन्द स्वामी
(ग) सूरदास
(घ) नामदेव।
उत्तर:
(घ) नामदेव।
प्रश्न 9.
कवितावली किसकी रचना है ?
(क) सूरदास
(ख) तुलसीदास
(ग) नाभादास
(घ) अंग्रदास।
उत्तर:
(ख) तुलसीदास
प्रश्न 10.
‘बूझत श्याम कौन तू गोरी’ पद है
(क) मीराबाई
(ख) रसखान
(ग) सूरदास
(घ) तुलसीदास।
उत्तर:
(ग) सूरदास
अति लघूत्तरात्मक प्रश्न
प्रश्न. 1.
किस कवि को ‘भाषा का डिक्टेटर’ कहा गया है?
उत्तर:
‘कबीर’ को भाषा का डिक्टेटर कहा गया है।
प्रश्न, 2.
कृष्णभक्ति धारा की प्रधान भाषा कौन-सी है?
उत्तर:
कृष्णभक्ति धारा की प्रधान भाषां ब्रज भाषा है।
प्रश्न. 3.
सूफी काव्य धारा के किन्हीं दो कवियों एवं उनकी रचना बताएँ?
उत्तर:
सूफी काव्य धारा के कवि एवं उनकी रचनाएँ-
- मलिक मुहम्मद जायसी-पद्मावत,
- कुतुबन-मृगावती
प्रश्न. 4.
भक्ति की धारा को दक्षिण से उत्तर की ओर लाने वाले संत का नाम लिखें।
उत्तर:
संत रामानंद।
प्रश्न. 5.
संत काव्य धारा में सर्वप्रमुख महत्ता किसे दी गई है ?
उत्तर:
संत काव्य धारा में मानवीय अनुभव और विवेक को सर्वप्रमुख महत्ता दी गई है।
लघूत्तरात्मक प्रश्न
प्रश्न. 1.
संत काव्य धारा की चार विशेषताएँ बताएँ।
उत्तर:
संत काव्य धारा की प्रमुख चार विशेषताएँ निम्न प्रकार हैं
- ईश्वर की निर्गुण स्वरूप में उपासना की गई है।
- गुरु को ईश्वर के समकक्ष सम्मान दिया गया है।
- कुरीतियों और पाखण्डों पर प्रहार किया गया है।
- संसार के प्रति मोहत्याग पर बल दिया गया है।
प्रश्न. 2.
पुष्टि मार्ग क्या है ? इसके प्रवर्तक का नाम लिखिए।
उत्तर:
पुष्टि मार्गदर्शन में जो शुद्धाद्वैत है, वह व्यवहार अथवा साधना पक्ष में पुष्टिमार्ग कहा जाता है, ‘पुष्ट्रि’ का अर्थ हैईश्वर का अनुग्रह, प्रसाद, अनुकम्पा अथवा कृपा से पुष्ट होने वाली भक्ति। जहाँ ईश्वर की कृपा प्राप्य है, वहीं परम सुख और परम आनंद है। कृष्णभक्ति में गोपिकाएँ मोक्ष की कामना नहीं करतीं, कृष्ण का दर्शन ही उनकी लालसा है, वही उनका सुख है। कृष्ण के प्रति। निश्छल भाव से संपूर्ण समर्पण पुष्टि मार्ग का आग्रह है। पुष्टि मार्ग के प्रवर्तक वल्लभाचार्य जी थे।
प्रश्न 3.
जायसी के पद्मावत काव्य में किसका चित्रण किया गया है, उसकी दो विशेषताएँ बताइए।
उत्तर:
पद्मावत की कथा चित्तौड़ के राजा रतनसेन और सिंहल देश की राजकन्या पद्मिनी की प्रेम कहानी पर आधारित है। रतन सेन अपनी विवाहिता पत्नी नागमती को छोड़कर पड्मिनी की खोज में योगी बनकर निकल पड़ता है। पमिनी से उसका विवाह हो जाता है। पड्मिनी को पाने के लिए अलाउद्दीन रतनसिंह से युद्ध करता है। रतन सिंह मारा जाता है। पड्मिनी और नागमती सती हो जाती हैं। अलाउद्दीन जब चित्तौड़ पहुँचता है तो उसे पमिनी की राख मिलती है।
विशेषताएँ-
- पद्मावत मानवीय प्रेम की महिमा को व्यंजित करता है।
- नागमती के विरह वर्णन का प्रसंग अत्यंत मार्मिक है।
प्रश्न 4.
तुलसीदास की प्रमुख रचनाओं के नाम लिखें।
उत्तर:
गोस्वामी तुलसीदास रचित 12 ग्रंथ प्रमाणिक माने जाते हैं- दोहावली, कवित्तरामायण (कवितावली), गीतावली, रामचरितमानस, रामाज्ञाप्रश्न, विनयपत्रिका, रामललानहछू, पार्वतीमंगल, जानकीमंगल, बरवै रामायण, वैराग्यसंदीपिनी, श्रीकृष्णगीतावली। रामचरितमानस की रचना गोसाईं जी ने सं. 1631 अर्थात् 1574 ई. में प्रारंभ की जैसा कि उनकी इसे अर्धाली से प्रकट है-‘संवत सोलह सौ इकतीसा। करउँ कथा हरिपद धरि सीसा’।
प्रश्न 5.
कबीर के काव्य में ‘निर्गुण’ किस अर्थ में प्रयुक्त हुआ है?
उत्तर:
कबीर के काव्य में निर्गुण निराकार ब्रह्म के लिए प्रयुक्त हुआ है। इसके लिए मानवीय अनुभव और विवेक को प्रामाणिक माना गया है। वे पांडित्य परंपरा और पुस्तकीय ज्ञान के वाद-विवाद को व्यर्थ मानते हैं। उनके निर्गुण काव्य में अनुभूति की निश्छलता और शिल्प की अनगढ़ता मिलती है? कबीर निर्गुण काव्य के माध्यम से वर्णवादी समाज को तोड़कर मानवतावादी समाज की स्थापना के लिए प्रयत्नशील थे।
निबंधात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
अष्टछाप क्या है?
इसके प्रमुख कवियों का परिचय दीजिए।
उत्तर:
सांसारिक दु:ख से निवृत्ति और बन्दन का बोध करने के लिए वल्लभाचार्य ने पुष्टिमार्गीय सेवा विधि की व्यवस्था की। इस सेवा के दो भेद हैं-क्रियात्मक और भावात्मक। इसी आधार पर पुष्टि मार्ग में नैमित्तिक कर्मों की प्रधानता है, ये आठ हैं
- मंगल,
- शृंगार,
- ग्वाल,
- राजभोग,
- उत्थान,
- भोग,
- संध्या-आरती और
- शयन।
इन आठ कर्मों द्वारा प्रात:काल से सायंकाल तक श्रीकृष्ण की भक्ति में मन लगा रहता है। प्रत्येक सेवा के लिए विशिष्ट शिष्यों की नियुक्ति हुई। वल्लभाचार्य के जो चार शिष्य इस सेवा में नियुक्ति थे, वे थे-सूरदास, परमानन्ददास, कुम्भनदास, कृष्णदास। विट्ठलनाथ जी ने वल्लभाचार्य के चार शिष्यों को और चार अपने शिष्यों को मिलाकर अष्टछाप की स्थापना की। विट्ठलनाथ जी के शिष्य थे-नन्ददास, चतुर्भुजदास, गोविन्दस्वामी और गोस्वामी।
अष्ठछाप के प्रमुख कवि एवं उनका परिचय
- सूरदास-अष्टछाप के कवियों में सूरदास का स्थान सर्वोपरि है। इनका जन्म 1483 ई. के आस-पास माना जाता है। इनकी। मृत्यु अनुमानतः 1563 ई. के लगभग हुई। सूरदास वात्सल्य और श्रृंगार के कवि हैं। इन्हें श्रीनाथजी के मंदिर में कीर्तन का कार्य सौंपा गया।
- कुंभनदास-बल्लभाचार्य के अष्टछाप शिष्यों में कुंभनदास प्रथम शिष्य थे। 1492 ई. में बल्लभाचार्य से दीक्षा लेने के बाद वे श्रीनाथ मंदिर में कीर्तन गान करने लगे। इनकी काव्य भाषा साधारण ब्रजभाषा है।
- परमानंददास-अनुश्रुतियों के अनुसार इनका जन्म 1493 ई. माना जाता है। परमानंद का जन्म उज्जैन के कान्यकुब्ज ब्राह्मण परिवार में हुआ था। बचपन से ही काव्य रचना में इनकी प्रवृत्ति थी एवं संगीत का भी अच्छा ज्ञान था। उन्होंने प्रयाग में वल्लभाचार्य से दीक्षा ली।
- कृष्णदास-कृष्णदास का जन्म गुजरात के राजनगर (अहमदाबाद) के चिलोतरा गाँव में 1496 ई. में हुआ। गोस्वामी बिट्ठलनाथ इनकी कुशाग्र बुद्धि और प्रतिभा के बड़े प्रशंसक थे। इनकी प्रबंध पटुता के कारण उन्हें मन्दिर में प्रबंध का दायित्व सौंपा गया।
- नंददास-नंददास का जन्म 1533 ई. में उत्तर प्रदेश में सूकर क्षेत्र के रामपुर गाँव में हुआ था। ये सनाढ्य ब्राह्मण थे। इनके काव्य के विषय में यह उक्ति प्रसिद्ध है-और कवि गढ़िया, नन्ददास जड़िया। इनके यश का आधार रास पंचाध्यायी है।
- गोविन्द स्वामी-गोविन्द स्वामी का जन्म राजस्थान के भरतपुर क्षेत्र के आंतरी गाँव में सन् 1505 ई. में हुआ था। ये सनाढ्य ब्राह्मण थे। इनके फुटकर दोहों का संकलन ‘गोविन्द स्वामी के पद’ के नाम से प्रसिद्ध है।
- छीतस्वामी-छीतस्वामी का जन्म मथुरा के चतुर्वेदी ब्राह्मण परिवार में सन् 1515 ई. में हुआ था। इनके पदों में शृंगार के अतिरिक्त ब्रजभूमि के प्रति प्रेम व्यंजना पाई जाती है।
- चतुर्भुज दास-इनका जन्म 1530 ई. में गोवर्धन के निकट जमुनावतौ गाँव में हुआ था। ये अष्टछाप के प्रसिद्ध कवि कुंभनदास के सबसे छोटे पुत्र थे। इनका निधन 1585 ई. में हुआ था।
प्रश्न 2.
रामभक्ति शाखा की प्रमुख प्रवृत्तियों पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
रामभक्ति शाखा की प्रमुख प्रवृत्तियाँ
- राम को इष्टदेव स्वीकार किया गया है-रामभक्त कवियों के इष्ट देव मर्यादा पुरुषोत्तम राम हैं। उनके लोकरक्षक रूप का इन कवियों ने वर्णन किया है। राम के शील और मर्यादा की रक्षा को महत्व देते हुए उनका आदर्श चरित्र प्रस्तुत किया गया है।
- भक्ति भाव पर बल-रामभक्त कवियों ने भगवान की भक्ति को ही उद्धार का एक मात्र साधन बताया। भक्ति से राम, भक्त के वशीभूत हो जाते हैं। भक्त होने पर निषाद और शबरी भी प्रभु की कृपा पात्र और लोक सम्मान्य हो जाते हैं।
- दास्यभाव भी उपासना-राम भक्त कवियों ने स्वयं को प्रभु का अनन्य सेवक मानते हुए दास्य भाव की भक्ति को ही सर्वश्रेष्ठ माना है।
- लोक-कल्याण की भावना-राम का अवतार ही लोकरक्षा के लिए हुआ है। सज्जनों की सुरक्षा, दुष्टों का विनाश और धर्म की संस्थापना के लिए वह अवतार लेते हैं।
- श्रेष्ठ जीवन मूल्यों को समर्थन-जीवन के हर क्षेत्र में रामभक्ति साहित्य श्रेष्ठ आदर्शों को प्रस्तुत करता है। पारिवारिक, सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक इन सभी क्षेत्रों में तुलसी ने आदर्श पात्रों के सृजन द्वारा मार्गदर्शन किया है।
- समन्वय का प्रयास-रामभक्त काव्य में तुलसी जैसे विराटचेता कवियों ने सामाजिक, धार्मिक, साहित्यिक आदि सभी क्षेत्रों में समन्वय की चेष्टा की है।
- अन्य विशिष्टताएँ-इन कवियों का काव्य भाव, शिल्प, भाषा, शैली आदि सभी दृष्टियों से उत्कृष्ट है।
प्रश्न 3.
‘कबीर आधुनिक भावबोध के कवि हैं’ समझाइए।
उत्तर:
कबीर उच्च कोटि के सन्त, विचारक, भक्त और कवि थे। उन्होंने उत्कृष्ट कोटि की काव्य-रचना की है। उनके काव्य को देखकर यह कहना कि वे कवि नहीं थे, पूर्णत: सत्य प्रतीत नहीं होता क्योंकि उनके काव्य में वे सभी स्थितियाँ पायी जाती हैं जिनकी अपेक्षा एक सिद्ध कवि से की जाती है। यह बात दूसरी है कि कबीर ने अपने अन्त:ज्ञान को व्यक्त किया जो कुछ व्यक्त हुआ वही काव्य बन गया। कबीर की कविता उनके हृदय से निकली हुई है।
(1) कबीर जन कवि-काव्य में तीन तत्व प्रमुखता से पाये जाते हैं-बुद्धितत्व, रागतत्व और कल्पना तत्व। कबीर का विचार और संदेश उनके बुद्धितत्व के परिचायक हैं। रागात्मक तत्व की हृदय स्पर्शिता उनकी कविता में उपलब्ध है। उनकी कविता ने समाज के एक बहुत बड़े वर्ग को प्रभावित किया है और वह आज भी लोकप्रिय बनी हुई है। उनकी कविता में एक भावुक कवि की भावुकता एवं तन्मयता के दर्शन होते हैं।
(2) कबीर का लक्ष्य-कबीर मूलतः भक्त थे, सन्त थे और वह भी ज्ञानी भक्त। इस कारण वह विश्व प्रेमी थे तथा ज्ञान-वैराग्य के मार्ग को व्यष्टि एवं समष्टि दोनों के लिए हितकर समझते थे, इसी आधार पर उन्होंने कुछ ऐसा कहा, जिसके आधार पर व्यक्ति का आत्मविकास सम्भव हो सके तथा व्यक्ति समाज की उन्नति में अपना योग प्रदान कर सके। इसी आधार पर डॉ. रामरतन भटनागर ने कहा है-कबीर ने समाज सुधार का नहीं, बल्कि जीवन गढ़ने का, मनुष्य को गढ़ने का प्रयत्न किया। वस्तुत: उनका यह प्रयत्न उनका समाज सुधार कहलाया।
(3) कबीर का सुधारवादी रूप-कबीर व्यक्ति और समाज को सही दिशा देना चाहते थे। उनको किसी भी प्रकार का दम्भ या दिखावा मंजूर नहीं था। वह व्यक्ति के व्यवहार को अच्छा देखना चाहते थे। उन्हें अर्थहीन आचरण बिल्कुल अच्छा नहीं लगता था। फलत: कबीर ने मूर्तिपूजा, तीर्थाटन, नमाज, हज, रोजा आदि की निस्सारता और गौणता पर बारम्बार बल दिया और उनको करने वाले व्यक्तियों को दम्भी बताते हुए खूब खरी-खोटी सुनायी।
(4) लोक कल्याण की भावना-कबीर को समाज में दो प्रकार के तत्व दिखे-समाजोपयोगी तथा समाज विरोधी। उन्होंने अहितकारी समाज विरोधी तत्वों से बचने की प्रेरणा दी। उनकी प्रेरणा किसी व्यक्ति विशेष को सुधारने के लिए नहीं थी। उन्होंने जो कुछ कहा है, समाज को पतन की ओर जाने से रोकने के लिए कहा है, वे कहते हैं
“दुर्बल को न सताइए, जाकी मोटी हाय।।
मुई खल की सांस सों, सार भसम है जाय।।”
इसके साथ ही कबीर ने नैतिक बल को सबसे बड़ा बल माना
सीलवत्त सबसे बड़ा, सर्व रतने की खानि।
तीन लोक की संपदा, रही सील में आनि।।”
(5) बाह्याचारों का खण्डन-कबीर साधना का आधार प्रेम ही मानते थे, वे बाह्याचार से चिढ़ते थे। इसी आधार पर उन्होंने सम्प्रदाय-भावना, जाति-भावना, छुआछूत, ऊँच-नीच की भावना, छोटे-बड़े की भावना आदि विभेदकारी भावनाओं को विघटनकारी तत्व माना और खुलकर और डटकर उनका विरोध किया
“पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ, पण्डित भया न कोय।
ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पण्डित होय।।”
(6) साम्यवादी दृष्टिकोण-कबीर ने समाज की अपेक्षा व्यक्ति के सुधार को अधिक महत्व प्रदान किया है। डॉ. रामजीलाल सहायक की मान्यता है-“कबीर ने सामाजिक विषमता को मिटाकर एकत्व की स्थापना का निश्चय किया। कबीर जीव मात्र को एक ही परम पिता की सन्तान मानते हैं और सबको एक ही स्तर पर लाकर खड़ा कर देते हैं। कबीर का साम्यवाद अभिव्यक्त सत्ता को पूर्ण प्रभुता प्रदान करता हुआ मानव एकता को सिद्ध करता है। उनके साम्यवाद में मानसिक हिंसा के लिए स्थान नहीं है।
(7) कबीर की प्रगतिशलता-कबीर ने अपने समय की रूढ़ियों को तोड़ने की प्रेरणा प्रदान की। कार्ल मार्क्स ने तो भौतिकवाद, अर्थवाद में सामाजिक संघर्ष के कारण की खोज की, परन्तु कबीर ने संघर्ष के कारणों में धर्म-विविधता को प्रमुख माना। इसीलिए उन्होंने एक ‘प्रगतिमय पंथ’ का सुझाव दिया।
“कहै कबीरदास फकीरा, ऊँचे देखि अवास।।
काल्हि परै भुड़े लेटणां, ऊपर जामै घास।।”
इस प्रकार समस्त बाह्याचारों का खण्डन, जातिगत और धार्मिक उन्माद का डटकर विरोध करते हुए कबीर ने सरल भक्ति मार्ग की स्थापना करने का प्रयास करते हुए व्यक्ति के आचरण की महत्ता पर विशेष जोर दिया। उन्होंने ‘राम’ ‘रहीम’ को एक माना। कबीर का एक सच्चे विश्व प्रेमी का अलग अनुभव था। वह अज्ञान के कारणों की तह तक गये और उन्होंने डाल-पात को धोकर नहीं, बल्कि जड़ से सींचकर समाज रूपी वट वृक्ष के निर्माण का सच्चा प्रयत्न किया। इस दृष्टि से कबीरदास एक उच्च कोटि के समाज सुधारक थे।
उपरोक्त विवरण के आधार पर यह कहा जा सकता है कि कबीर आधुनिक भावबोध के कवि थे। यह बात दूसरी है कि उनका लक्ष्य मात्र कविता करना नहीं था। समाज को गढ़ना, व्यक्ति को सँवारना उनका मुख्य ध्येय था। कविता तो मात्र इस महत्वपूर्ण कार्य का साधन बनी है। उनका मूल लक्ष्य समाज सुधार ही था।
प्रश्न 4.
जायसी मूलतः प्रेम के कवि हैं’ कथन पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
जायसी हिंदी के सूफी काव्य परंपरा के साधकों एवं कवियों के सिरमौर हैं। ये अमेठी के निकट जायस के रहने वाले थे, इसलिए इन्हें जायसी कहा जाता है। जायसी के यश का आधार है- पद्मावत। इसकी रचना जायसी ने 1520 ई. के आसपास की। पद्मावत की विशेषताओं को देखकर यह स्वतः सिद्ध है कि जायसी मूलतः प्रेम के कवि थे।
इस कृति के संबंध में आचार्य शुक्ल ने लिखा-“जायसी की अक्षय कीर्ति का आधार है ‘पद्मावत’, जिसके पढ़ने से यह प्रकट हो जाता है कि जायसी का हृदय कैसा कोमल और प्रेम की पीर’ से भरा हुआ था। क्या लोकपक्ष में, क्या आध्यात्म पक्ष में दोनों ओर उसकी गूढ़ता, गंभीरता और सरसता विलक्षण दिखाई देती है।” पद्मावत प्रेम की पीर की व्यंजना करने वाला विशद प्रबंध काव्य है। यह दोहा-चौपाई में निबद्ध मसनबी शैली में लिखा गया है,
जायसी ने इस प्रेम कथा को आधिकारिक एवं आनुषंगिक कथाओं के ताने-बाने में बहुत सुन्दर जतन से बाँधा है। पद्मावत आद्यांत ‘मानुष प्रेम’ अर्थात् मानवीय प्रेम की महिमा व्यंजित करता है। हीरामन शुक शुरू में कहता है: ‘मानुस प्रेम भएउँ बैकुंठी। नाहि त काहे छार भरि मूठी।’ रचना के अंत में यह छार भरि फिर आती है। अलाउद्दीन पड्मिनी के सती होने के बाद चित्तौड़ पहुँचता है तो यह राख ही मिलती है: ‘छार उठाइ लीन्हि एक मूठी’ दीन्हि उड़ाइ परिथमी झूठी।’कवि ने कौशल से यह मार्मिक व्यंजना की है जो पमिनी रतनसेन के लिए ‘पारस रूप’ है वही अलाउद्दीन जैसे के लिए मुट्ठी भर धूल। मध्यकालीन रोमांचक आख्यानों का कथानक प्राय: बिखर जाता है, किन्तु पद्मावत का कथानक सुगठित है।
जायसी का सूफी काव्य अपनी अंतर्वर्ती विशेषताओं के कारण प्रेमाश्रयी, प्रेममार्गी, प्रेमकाव्य, प्रेमाख्यानके तथा कथाकाव्य के नाम से जाना जाता है। इससे स्पष्ट है कि जायसी की काव्यधारा की मूल चेतना प्रेम रही है। इस प्रेम में भी विरह स्थिति की प्रधानता रही है। इनके काव्य में प्रेम की उत्कट विरह व्यंजना और प्रतीकात्मकता दिखाई देती है। इसीलिए सूफी कवि जायसी प्रेम की पीर’ के कवि कहे गए हैं। इन्होंने प्राय: भारत में लोक प्रचलित कथाओं को अपने प्रबन्ध काव्य का आधार बनाया है। उस कंथा को बड़े कौशल से सूफी मत के अनुकूल रूपायित किया है। इनमें भारतीय संस्कृति सुरक्षित ही नहीं है, वह समृद्ध भी हुई है।
अतः निर्विवाद रूप से यह कहा जा सकता है कि जायसी मूलत: प्रेम के कवि हैं।
प्रश्न 5.
भक्तिकाल के उदय के कारणों को बताइए।
उत्तर:
भक्तिकाल के उदय के प्रमुख कारण निम्न प्रकार हैं
(1) राजनीतिक परिस्थिति-डॉ. राजनाथ शर्मा के अनुसार-पन्द्रहवीं सदी के आरम्भ तक भारत में मुस्लिम साम्राज्य की स्थापना हो चुकी थी और परस्पर कलह में डूबे हिन्दू राजा छुट-पुट विरोध करने में ही समर्थ रह गये थे। यह काल भी युद्ध और अशान्ति का काल है। मुस्लिम शासकों के सिपाही और अधिकारी हिन्दू जनता पर मनमाने अत्याचार करते थे। सिकन्दर लोदी जैसे धर्मान्धं, मुल्ला-मौलवियों के प्रभाव से अन्याय कर बैठते थे।
इस युग की राजनीतिक परिस्थितियाँ विषम र्थी। राजपूत, मराठे, सिख तथा हिन्दू शासक मुसलमानों का विरोध करते थे क्योंकि यह वर्ग मुसलमानों के अत्याचारों का शिकार था। उनके मन्दिर तोड़कर मस्जिदें बन रही थीं। शिया, सुन्नी, अरबी, तुर्की, पठान भी मुगलों का विरोध करते थे। मुगल शासक गद्दी के लिए अपने भाई, पिता का वध कर देते थे।
(2) सामाजिक स्थिति-समाज में जाति-पाँति, ऊँच-नीच की भावना विद्यमान थी, अमीर अत्याचारी थे। बर्नियर ने लिखा है-हिन्दुओं के धन संचय करने के कोई साधन नहीं रह गये थे। अभावों और आजीविका के लिए निरन्तर संघर्ष में जीवन बिताना पड़ता था। प्रजा के रहन-सहन का स्तर निम्न कोटि का था। करों का सारा भार उन्हीं पर था, राज्यपद उनको अप्राप्य थे। बाल विवाह का प्रचलन था क्योंकि मुसलमान हिन्दू स्त्रियों को हरम में डाल लेते थे।
आचार्य परशुराम चतुर्वेदी के अनुसार दैनिक जीवन, रीति-रिवाज रहन-सहन, पर्व-त्योहार आदि की दृष्टि से तत्कालीन समाज सुविधा सम्पन्न और असुविधा प्राप्त दो वर्गों में विभक्त था। प्रथम वर्ग में राजा-महाराजा, सुल्तान, अमीर-सामंत और सेठ साहूकार आते थे। द्वितीय वर्ग में किसान, मजदूर, सैनिक, राज्य कर्मचारी और घरेलू उद्योग-धन्धों में लगी जनता आती थी। दुकानदारों को सामान छिपाकर रखना पड़ता था क्योंकि राज्य कर्मचारी उसे उठा ले जाते थे। तुलसी ने इन पंक्तियों में तत्कालीन स्थिति को यथार्थ चित्र खींचा है
खेती न किसान की, भिखारी कौ न भीख बलि,
बनिक को बनिज न चाकर की चाकरी।।
जीविका विहीन लोग सोद्यान सोचबरन,
कहैं एक एक सौं, कहाँ जाएँ का करी।”
सामन्ती संस्कृति में समाज, शीर्षक और शोषित दो वर्गों में बाँटा गया था।
(3) धार्मिक परिस्थिति-यह युग मतों, सम्प्रदायों और धर्मों के परस्पर विरोध का काल है। सिद्ध, नाथों की विचारधारा से प्रेरित समुदाय थे, जिनमें साधनाविहीन चमत्कार प्रवृत्ति से जनता को प्रभावित करने की प्रबल भावना थी। वैष्णव, शैव, शाक्तों के असहिष्णुता से प्रेरित विरोध भी प्रबल थे। डॉ. राजनाथ शर्मा के अनुसार, “इसके साथ ही हम इस्लाम विरोधी सूफियों को एक ऐसे धर्म या उपासना मार्ग का प्रवर्तन करते हुए देखते हैं, जो धर्म के सम्पूर्ण बाह्य विधानों को एक ओर हटा केवल प्रेम द्वारा ईश्वर की उपासना करने में आस्था रखता है।”
बौद्धों के ‘हीनयान’ और ‘महायान’ दो सम्प्रदाय पनपे, पहला धर्म की दार्शनिक व्याख्या करने में लग गया। अत: जीवन से दूर हो गया। ‘महायान’ व्यावहारिक था, उसमें प्रशिक्षित असंस्कृत और निम्न वर्ग को आश्रय मिला। नाना प्रकार के तन्त्र-मन्त्र, चमत्कार प्रचलित थे।
वैष्णव भक्ति का प्रभाव भी कम नहीं था, जिसमें अवतार भवना प्रमख थी। सगुण तथा निर्गुण भक्ति प्रचलित थी, जिसमें निर्गुण भक्ति पर बौद्धों को भी प्रभाव था, जिसमें ज्ञान, त्याग एवं कठोर साधना पर बल दिया गया।
(4) सांस्कृतिक चेतना-डॉ. राजनाथ शर्मा की मान्यता है कि इस युग में परस्पर भिन्न संस्कृतियों और विचारधाराओं का स्पष्ट संघर्ष दिखायी देता है। एक ओर संस्कृति अपनी पूर्णता और प्राचीनता का दम्भ लिए अपने अतिरिक्त रक्षा में प्रयत्नशील थी, दूसरी ओर धार्मिक उन्माद से ओत-प्रोत मुस्लिम संस्कृति उस पर हावी होना चाह रही थी। अपने रक्षार्थ हिन्दुओं ने सामाजिक बन्धनों को दृढ़ और संकीर्ण बना दिया। फलतः संकीर्णता के आक्रमण में धार्मिकता गौण हो गई।
(5) दार्शनिक पृष्ठभूमि-दर्शन की दृष्टि से रामानन्दी सम्प्रदाय में विशिष्ट द्वैत प्रतिपादित हुआ। इसके अनुसार मोक्ष को सर्वोत्तम साधन भक्ति थी। भक्ति के तीन रूप सामने आये-माधुर्य, शान्त और दास्य। इधर पुष्टिमार्ग के माध्यम से शुद्धाद्वैत प्रतिपादित हुआ जिसके अनुसार भगवत् प्राप्ति का सर्वोत्कृष्ट साधन भक्ति माना गया।
(6) भक्ति भावना का विकास- भक्ति का विकास विद्वानों ने दक्षिण के अलवार भक्तों में देखा है। डॉ. सत्येन्द्र भक्ति का उद्भव, द्रविड़ों की देन मानते हैं। डॉ. रामधारी सिंह दिनकर भी अलवार सन्तों में भक्ति का विकास स्वीकार करते हैं। आचार्य शुक्ल की मान्यता है कि “भक्ति का जो स्रोता दक्षिण की ओर से धीरे-धीरे उत्तर भारत की ओर पहले से ही आ रहा था, उसे राजनैतिक परिवर्तन के कारण शून्य पड़ते हुए जनता के हृदय-क्षेत्र में मिलने के लिए पूरा स्थान मिला। इस प्रकार विभिन्न स्थितियों ने भक्तिकाल के उदय की पृष्ठभूमि निर्मित की थी।
अन्य महत्वपूर्ण प्रश्नोत्तर
वस्तुनिष्ठ प्रश्नोत्तर
प्रश्न 1.
भक्ति काल का प्रारम्भ माना गया है।
(क) 1650 ई. से
(ख) 1375 ई. से
(ग) 1700 ई. से
(घ) 1400 ई. से।
उत्तर:
(ख) 1375 ई. से
प्रश्न 2.
भक्ति काल के प्रतिनिधि जनकवि हैं
(क) मीराबाई
(ख) सन्त रैदास
(ग) सन्त कबीर
(घ) तुलसीदास।
उत्तर:
(ग) सन्त कबीर
प्रश्न 3.
भक्तिकाल को हिन्दी साहित्य का स्वर्णकाल’ कहते हैं क्योंकि
(क) युग धन धान्य से सम्पन्न था
(ख) मुगल साम्राज्य का चरम विकास हुआ था।
(ग) साहित्य, संगीत और कलाओं का पूर्ण उत्कर्ष हुआ था।
(घ) हिन्दी साहित्य की सर्वांगीण उन्नति हुई थी।
उत्तर:
(घ) हिन्दी साहित्य की सर्वांगीण उन्नति हुई थी।
प्रश्न 4.
सूफी प्रेमाख्यान काव्यों की प्रमुखतम विशेषता है
(क) लौकिक प्रेमकथाओं की व्यंजना
(ख) सूफी मान्यताओं का प्रचार-प्रसार
(ग) प्रेम की महत्ता की प्रस्थापना
(घ) लौकिक प्रेम के माध्यम से अलौकिक प्रेम का चित्रण।
उत्तर:
(घ) लौकिक प्रेम के माध्यम से अलौकिक प्रेम का चित्रण।
प्रश्न 5.
‘प्रेमाश्रयी’ काव्यधारा के प्रमुख कवि हैं।
(क) कबीर
(ख) जायसी
(ग) कुतबन
(घ) मंझन।
उत्तर:
(ख) जायसी
प्रश्न 6.
रामभक्ति काव्यधारा की सर्वप्रमुख विशेषता है
(क) रामभक्ति का प्रचार
(ख) सामाजिक मर्यादाओं को महत्त्व
(ग) समन्वय की विराट चेष्टा
(घ) निर्गुण उपासना पर सगुण उपासना की श्रेष्ठता स्थापित करना।
उत्तर:
(ग) समन्वय की विराट चेष्टा
प्रश्न 7.
रामभक्ति शाखा के प्रमुख कवि हैं
(क) परमानन्द दास
(ख) सूरदास
(ग) तुलसीदास।
(घ) केशवदास।
उत्तर:
(ग) तुलसीदास।
प्रश्न 8.
कृष्णभक्ति धारा का प्रमुख ग्रन्थ है
(क) कृष्ण गीतावली
(ख) कृष्णायन।
(ग) सूरसागर
(घ) गीत गोविन्द।
उत्तर:
(ग) सूरसागर
प्रश्न 9.
अष्टछाप की स्थापना करने वाले थे-
(क) वल्लभाचार्य
(ख) सूरदास
(ग) विट्ठलनाथ
(घ) श्रीनाथ।
उत्तर:
(ग) विट्ठलनाथ
प्रश्न 10.
कृष्णभक्ति काव्य के दो प्रमुख रस हैं
(क) श्रृंगार और करुण
(ख) वात्सल्य और हास्य
(ग) श्रृंगार और वात्सल्य
(घ) शान्त और वीर
उत्तर:
(ग) श्रृंगार और वात्सल्य
अति लघूत्तरात्मक प्रश्न।
प्रश्न 1.
भक्तिकालीन काव्यधारा की तीन प्रमुख विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
भक्तिकाल की तीन प्रमुख विशेषताएँ हैं-
- नाथ महिमा,
- आडम्बर का त्याग और
- भक्ति की प्रधानता।
प्रश्न 2.
भक्तिकाल की प्रमुख काव्यधाराओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
भक्तिकाल की प्रमुख काव्यधाराएँ थीं-निर्गुण काव्यधारा, सूफी काव्य परम्परा, रामभक्ति काव्यधारा और कृष्णभक्ति काव्यधारा।
प्रश्न 3.
सन्त काव्य की दो प्रमुख प्रवृत्तियों को बताइए।
उत्तर:
सन्तकाव्य की दो प्रमुख प्रवृत्तियाँ र्थी-निर्गुण निराकार ब्रह्म की उपासना का प्रतिपादन और बाह्याचारों को खण्डन।
प्रश्न 4.
भक्तिकाल की ‘ज्ञानाश्रयी’ शाखा की तीन विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर:
भक्तिकालीन ‘ज्ञानाश्रयी’ शाखा की तीन प्रमुख विशेषताएँ हैं-
- गुरु को अधिक महत्त्व,
- नाम की महिमा तथा
- आडम्बरों का विरोध।
प्रश्न 5.
भक्तिकालीन ‘प्रेमाश्रयी’ काव्यधारा की दो विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
भक्तिकालीन ‘प्रेमाश्रयी’ काव्यधारा की दो विशेषताएँ हैं-
- लौकिक प्रेमाख्यानों का आध्यात्मिक उपयोग तथा
- मसनबी शैली में काव्य-रचना।
प्रश्न 6.
‘मृगावती’ की रचना किसने और कब की ?
उत्तर:
‘मृगावती’ का रचनाकाल सन् 1503 ई. माना जाता है इसके रचनाकार कुतबने थे।
प्रश्न 7.
जायसी ने ‘पद्मावत’ के अलावा और कौन-कौन सी रचनाएँ लिखीं?
उत्तर:
जायसी ने ‘पद्मावत’ के अतिरिक्त ‘अखरावट’ और ‘आखिरी कलाम’ की रचना भी की है।
प्रश्न 8.
रामभक्ति काव्य की दो प्रमुख प्रवृत्तियों को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
रामभक्ति काव्य की दो प्रमुख प्रवृत्तियाँ हैं-
- लोकमंगल की भावना और
- दास्यभाव की भक्ति का प्रतिपादन।
प्रश्न 9.
रामभक्ति शाखा के दो प्रमुख कवियों के नाम लिखिए।
उत्तर:
रामभक्ति शाखा के दो प्रमुख कवि हैं-
- तुलसी तथा
- केशव।
प्रश्न 10.
रामभक्ति शाखा की दो प्रमुख विशेषताएँ लिख़िए।
उत्तर:
रामभक्ति शाखा की दो प्रमुख विशेषताएँ हैं-
- राम को परब्रह्म का अवतार मानना तथा
- धार्मिक समन्वय का प्रयास।
प्रश्न 11.
‘अष्टछाप’ से क्या तात्पर्य है ? लिखिए।
उत्तर:
गोस्वामी विट्ठलनाथ द्वारा वल्लभ सम्प्रदाय में दीक्षित आठ कृष्णभक्त कवियों के मण्डल को ‘अष्टछाप’ नाम दिया गया।
प्रश्न 12.
‘अष्टछाप’ के कवियों के नाम लिखिए।
उत्तर:
“अष्टछाप’ के आठ कवि हैं-सूरदास, नन्ददास, कुम्भनदास, परमानन्द दास, कृष्णदास, चतुर्भुजदास, छीतस्वामी तथा गोविन्द स्वामी।।
प्रश्न 13.
कृष्णभक्ति शाखा के दो प्रमुख कवियों के नाम लिखिए।
उत्तर:
कृष्णभक्ति शाखा के दो प्रमुख कवि हैं-
- सूरदास तथा
- नन्ददास।
प्रश्न 14.
कृष्णभक्ति शाखा के दो प्रमुख ग्रन्थों का नामोल्लेख कीजिए।
उत्तर:
कृष्णभक्ति शाखा के दो प्रमुख ग्रन्थ हैं-
- सूरसागर (सूरदास कृत) तथा
- भ्रमरगीत (नन्ददास कृत)।
लघूत्तरात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
‘सूफी’ शब्द का अभिप्राय स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
‘सूफी’ शब्द की व्याख्या कई प्रकार से की गई है
- मदीना में मस्जिद के पास एक सुफ्फा (चबूतरा) था, उस पर बैठने वाले फकीर ‘सूफी’ कहलाये।
- निर्णय के दिन जिन फकीरों को उनके सदाचार के कारण अन्यों से पृथक अग्रिम पंक्ति (सफ) में खड़ा किया जायेगा, वे ही ‘सूफी’ हैं।
- ‘सूफी’ सोफिया (ज्ञान) शब्द का रूपान्तर है। ज्ञान की प्रधानता के कारण ही उन्हें सूफी कहा गया है।
- जो पवित्र और स्वच्छ थे उन्हें ‘सूफी’ कहा गया।
- ‘सूफी’ शब्द सफेद ऊन से भी जुड़ा है। सफेद ऊन के कपड़े पहनने के कारण उन्हें ‘सूफी’ कहा गया। यह मत अधिक मान्य
प्रश्न 2.
तुलसी की ‘विनय-पत्रिका’ का रचनागत उद्देश्य स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
तुलसी की ‘विनय-पत्रिका’ की रचना का मूलोद्देश्य आराध्य के महत्त्व की प्रस्थापना और भक्त के दैन्य का प्रदर्शन ही प्रतीत होता है। तुलसी के राम शील, सौन्दर्य और शक्ति के केन्द्र थे जो उनके आराध्य भी थे। ऐसे आराध्य के सम्मुख दीनता का निरन्तर अनुभव करना स्वाभाविक ही था। वास्तव में आराध्य की महत्ता और दीनता का परस्पर बिम्ब-प्रतिबिम्ब सम्बन्ध है। भक्त के हृदय में दीनता, आत्मसमर्पण, आशा, उत्साह, आत्मग्लानि, अनुताप तथा आत्म निवेदन आदि की गम्भीर आराध्य के महत्त्व की अनुभूति के अनुपात पर ही निर्भर है। आराध्य की महत्ता का जितना अधिक ज्ञान होगा, जितना अधिक साक्षात्कार होगा, दीनता आदि भाव उतने ही अधिक प्रस्फुटित होते जायेंगे। उन परे महत्त्व की आभा चढ़ती चली जायेगी। ‘विनय-पत्रिका’ के पदों में इन्हीं भावों को अभिव्यक्ति मिली
प्रश्न 3.
समन्वय का अर्थ स्पष्ट करते हुए बताइए कि तुलसी ने शैव और वैष्णवों के बीच क्या समन्वय किया है?
उत्तर:
समन्वय का सरल अर्थ है-मिलाप, अर्थात् दो परस्पर विरोधी तत्वों, चिन्तनों, उपासना-पद्धतियों, दर्शन आदि की किसी ऐसे आधार पर एकता प्रस्थापित करना कि उनका पृथक अस्तित्व भी अक्षुण्ण बना रहे और उनका विरोध भी समाप्त हो जाय। तुलसी के समय में शैव और वैष्णवों का द्वेष चरम सीमा पर था। अत: तुलसी ने दोनों मतों में समन्वय का प्रयास किया। एक ओर तो वे शिव के मुँह से कहलाते हैं
“सोइ मम इष्ट देव रघुवीरा। सेवत जाहि संदा मुनि धीरा।।”
यह कहकर शिव को रामोपासक सिद्ध किया और दूसरी ओर राम के मुख से यह कहलाया
“संकर प्रिय मन द्रोही, शिव द्रोही मम दास।
तेनर करहिं कलंक भरि, घोर नरक महँ बास।।” यह भाव दोनों सम्प्रदायों में समन्वय दृष्टि जगा सकने में सक्षम है।
प्रश्न 4.
मधुर उपासना का अभिप्राय स्पष्ट करते हुए उसके प्रारम्भ पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
मधुर उपासना को कान्ता-रति भी कहा जाता है। यह भक्ति रागात्मक सम्बन्धों पर आधारित है, जिसे दाम्पत्य भाव की भक्ति भी कहा जाता है। इस उपासना में आत्मा ‘प्रिया’ रूप धारण कर सर्वभावेण आत्मसमर्पण अपने प्रियतम रूपी परमात्मा के प्रति कर देती है। इसमें निष्काम-भाव का सच्चा प्रेम रहता है। इस माधुर्य उपासना में सभी ऐन्द्रिय वृत्तियों को समाहित करने की क्षमता है। आत्मसमर्पण की यह चरमावस्था है।
वैसे तो इसका प्रारम्भ कबीर से माना जाता है, जहाँ वे अपने को ‘राम की बहुरिया’ कहकर अपनी आत्मा की विरह की व्यंजना नाना प्रकार से करते हैं पर उसका पूर्ण परिपाक सूर के काव्य में ही देखने को मिलता है।
प्रश्न 5.
परवर्ती राम काव्य पर ‘रामकाव्य’ का क्या प्रभाव पड़ा ?
उत्तर:
भक्ति काल की राम काव्य परम्परा ने हिन्दी साहित्य को दूर तक प्रभावित किया है। भक्ति काल के रामभक्त कवि अपने काव्य से इतने प्रसिद्ध हुए कि परवर्ती काव्य की प्रेरणा के स्रोत बन गये। रीति काल और आधुनिक काल भी इससे अछूता नहीं रह सका।
केशव की ‘रामचन्द्रिका’ उनकी ख्याति का आधार बनी। सेनापति का ‘कवित्त रत्नाकर’ राम-कथा के अनेक प्रसंगों को समेटे है। लालदास के ‘अवध विलास’ में सीता-राम की लीलाओं का वर्णन है, गुरु गोविन्दसिंह ने ‘गोविन्द रामायण’ में ब्रजभाषा के सवैया छन्द में राम-कथा कही। जानकी रसिक शरण ने ‘अवध सागर’ में राम के जीवन का रहस्यपूर्ण शैली में उद्घाटन किया।
आधुनिक काल में ‘वैदेही वनवास’ अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’, ‘साकेत’ और ‘पंचवटी’ मैथिलीशरण गुप्त तथा ‘राम की शक्ति पूजा’ निराला भी राम-काव्य परम्परा की ही श्रेष्ठ कृतियाँ हैं, जिन्हें परवर्ती राम-काव्य माना जा सकता है, जिन पर राम-काव्य का विशेष प्रभाव पड़ा है।
प्रश्न 6.
सूर की भक्ति किस प्रकार की थी? उनकी मान्यताएँ क्या हैं?
उत्तर:
सूर की भक्ति पुष्टमार्गीय भक्ति थी। भगवद् अनुग्रह या भगवद् कृपा को ‘पुष्ट्रि’ कहा जाता है।
“पुष्टि कि मे। पोषणमं। पोष्णम् किम्। तद् अनुग्रहः। भगवत्कृपा।”
अर्थात भगवान के अनुग्रह या कृपा का नाम ही पोषण है, वही पुष्टि है। आचार्य वल्लभ ने अपने भक्ति विवेचन में तीन मार्गों का उल्लेख किया-मर्यादा मार्ग, प्रवाह मार्ग और पुष्टि मार्ग, जिसमें से पुष्टि मार्ग भगवान के अनुग्रह का मार्ग है।
पुष्टि मार्ग की भक्ति रागानुगा भक्ति है। इस भक्ति में किसी प्रकार के कर्मकाण्ड या साधन की अपेक्षा नहीं है। पुष्टिमार्गी भक्ति से संचित और प्रारब्ध कर्म स्वतः शामिल हो जाते हैं। इस भक्ति में सेवा की महत्ता’ है। सेवा के दो प्रकार माने गये-क्रियात्मक और भावात्मक। पुष्टिमार्ग में आठ प्रकार की सेवा की व्यवस्था की गयी।
प्रश्न 7.
कबीर सन्त थे या समाज सुधारक स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
कबीर मूलत: भक्त थे और वह भी ज्ञानी भक्त। अपने जीवन, आचरण से वे शुद्ध सन्त भी थे। उनकी महत्ता को लक्षित करके ही विश्व कवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने कहा है, “सन्त काव्य की असामान्य विशेषता यह है कि इसमें उच्च श्रेणी के साधक और उच्च श्रेणी के कवि सम्मिलित हैं। इस प्रकार का सम्मिलन अन्यत्र दुर्लभ है।
सन्त हृदय नवनीत-सा कोमल होता है, दूसरे के दु:खों पर पिघल जाता है। यही कबीर के साथ भी हुआ। कबीर ने मात्र व्यक्तिगत साधना को ही महत्त्व नहीं दिया, अपितु उन्होंने अपनी साधना को लोकोन्मुखी बना दिया और उनकी वाणी लोक कल्याणार्थ प्रस्तुत हो उठी।
“दुर्बल को न सताइए, जाकी मोटी हाय।
मुई खाल की साँस सौं, सार भसम है जाय।”
व्यक्ति के मन में शुद्ध भक्ति, परोपकार, सेवा, सदाचार का बीज बोना चाहते हैं, जो एक सन्त से अपेक्षा भी की जाती है। इसी आधार पर डॉ. रामरतन भटनागर ने कहा है-कबीर ने समाज सुधार का नहीं, बल्कि जीवन गढ़ने का, मनुष्य को गढ़ने का प्रयत्न किया।
प्रश्न 8.
तुलसी की प्रमुख रचनाओं का नाम बताइए और कवितावली’ का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
उत्तर:
नागरी प्रचारिणी सभा ‘काशी’ ने तुलसी के बारह ग्रन्थों को प्रामाणिक माना है–दोहावली, कवितावली, गीतावली, कृष्ण-गीतावली, विनय-पत्रिका, रामचरितमानस, रामलला-नहछु, वैराग्य संदीपनी, बरवै रामायण, पार्वती मंगल, जानकी मंगल और रामाज्ञा प्रश्नावली।
कवितावली-कवितावली में तुलसी ने रामकथा का ही वर्णन किया है, जिसे सात खण्डों में ‘मानस’ के समान ही विभाजित किया है। इसमें कथारम्भ राम के बाल रूप वर्णन से होती है, जब ऐक सखी दूसरी सखी से कहती है कि जब वह आज प्रातः काल राजा दशरथ के द्वार पर गई तो उसी समय राजा अपने सुत को गोद में लेकर निकले। उसके बाद बाल-लीलाओं को पर्याप्त विस्तार देते हुए बालकाण्ड की कथा राम विवाह तक सीमित है। इसी प्रकार अन्य कोण्डों की भी कथा है। वस्तुत: प्रवन्ध रचना की सीमा में जो प्रसंग तुलसी नहीं उठा पाये, उन्हें कवित्त और सवैया छन्दों के द्वारा इस ग्रन्थ में समेटा गया। भाव वर्णन, रूप वर्णन, श्रृंगार वर्णन के साथ उत्कृष्ट कला-कौशल की छटा भी इस काव्य-ग्रन्थ में बिखरी पड़ी है।
प्रश्न 9.
भक्तिकाल के नामकरण का क्या आधार है ? लिखिए।
उत्तर:
भक्तिकाल विदेशी आक्रान्ताओं के देश में स्थापित हो जाने का समय था। जनता अपने राजाओं से निराश हो चुकी थी। अत: वह सम्पूर्ण विश्व के राजा ईश्वर के प्रति उन्मुख हुई। इस काल में अनेक महान् संतों ने काव्य रचना द्वारा जनता को सांत्वना और मार्गदर्शन दिया। कबीर, सूर, तुलसी, जायसी, रसखान तथा मीरा आदि सभी की रचनाओं की पर्याप्त उपलब्धता होने के कारण इस काल को भक्तिकाल नाम दिया गया है।
प्रश्न 10.
भक्तिकालीन काव्य की सामान्य विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
भक्तिकालीन काव्य की सामान्य विशेषताएँ निम्न प्रकार हैं
- नाम महिमा-भक्तिकालीन कवियों ने ईश्वर के नाम-स्मरण को महत्त्व दिया।
- गुरु का सम्मान-सभी भक्त कवियों ने गुरु को अत्यन्त सम्माननीय स्थान दिया।
- प्रबन्ध एवं मुक्तक दोनों रचना-शैलियाँ अपनायी गयी हैं।
- ईश्वर के निर्गुण और सगुण दोनों रूपों की उपासना स्वीकारी गयी है।
प्रश्न 11.
भक्तिकाल की ‘ज्ञानश्रयी’ काव्यधारा की प्रमुख विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर:
भक्तिकाल की ‘ज्ञानाश्रयी’ काव्यधारा की प्रमुख विशेषताएँ इस प्रकार हैं
- ईश्वर के निर्गुण स्वरूप की उपासना की गयी है।
- गुरु को ईश्वर के समकक्ष सम्मान दिया गया है।
- कुरीतियों और पाखण्डों पर प्रहार किया गया है।
- संसार के प्रति मोहत्याग पर बल दिया गया है।
- मुक्तक रचना-शैली अपनायी गयी है।
- शान्तरस की प्रधानता है।
- भाषा सधुक्कड़ी है।
प्रश्न 12.
कबीर की भाषा-शैली की विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
कबीर पढ़े-लिखे नहीं थे। अत: उनकी भाषा में व्याकरण की दृष्टि से अनेक कमियाँ हैं। वह कालातीत सन्त हैं। उनकी भाषा को ‘सधुक्कड़ी’ या ‘पंचमेल’ भाषा कहा गया है।
कबीर की शैली उपदेशात्मक, व्यंग्यात्मक, खण्डन-मण्डन युक्त, आलंकारिक तथा व्यंग्यात्मक रूपों वाली है।
प्रश्न 13.
भक्तिकालीन ‘प्रेमाश्रयी’ काव्यधारा की सामान्य विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर:
भक्तिकालीन ‘प्रेमाश्रयी’ काव्यधारा की प्रमुख विशेषताएँ इस प्रकार हैं
- इस काव्यधारा के कवि सूफी सन्त हैं।
- मसनबी शैली तथा सूफी दर्शन का प्रभाव है।
- लौकिक प्रेमाख्यानों पर प्रतीकात्मक काव्य रचनाएँ की गयी हैं।
- रहस्यवादी प्रवृत्ति लक्षित होती है।
- प्रबन्ध काव्य शैली में रचनाएँ हुई हैं।
- भाषा प्रायः अवधी है।
प्रश्न 14.
‘प्रेमाख्यान काव्य’ का क्या अभिप्राय है ? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
प्रेमाख्यानों पर काव्य-रचना भारत में वैदिक काल से ही चली आ रही है। पुरुरवा-उर्वशी, दुष्यन्त-शकुन्तला आदि के प्रेमाख्यान लोक प्रसिद्ध हैं। इसी परम्परा में आगे चलकर कवियों ने लोक कथाओं पर आश्रित तथा कल्पना प्रेरक कथानकों पर प्रेमाख्यान काव्यों की रचना की। ‘हंसावती’, ‘मृगावती’, ‘माधवानल’, ‘कामकंदला’ तथा ‘पद्मावत’ आदि प्रेमाख्यान काव्य हैं। इनमें ‘पद्मावत’ जिसके रचयिता जायसी हैं, सबसे श्रेष्ठ काव्य है।
प्रश्न 15.
रामभक्ति शाखा की सामान्य काव्यपरक विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
रामभक्ति शाखा काव्यधारा की प्रमुख विशेषताएँ इस प्रकार हैं
- कवियों के उपास्य दशरथ-पुत्र राम हैं।
- राम लोकरक्षक और मर्यादा पुरुषोत्तम हैं।
- समन्वयात्मक दृष्टि स्वीकारी गयी है।
- लोकमंगल को लक्ष्य बनाया गया है।
- महान आदर्शों और मर्यादाओं को सम्मान दिया गया है।
- दास्यभाव भक्ति प्रधानतया अपनायी गयी है।
- ब्रजी, अवधी भाषा तथा प्रबन्ध और मुक्तक शैली अपनायी गयी है।
प्रश्न 16.
तुलसी को ‘लोकनायक’ क्यों कहा गया है?
उत्तर:
‘लोकनायक’ वह व्यक्ति होता है जो लोक अर्थात् समाज का नेतृत्व या मार्गदर्शन करे, जिसके नायकत्व में समाज अपने संकटों और समस्याओं का समाधान पा सके, जो लोक संस्कृति की रक्षा करे। तुलसीदास में उपर्युक्त सभी गुण विद्यमान हैं। उन्होंने विदेशी शासन से त्रस्त भारतीय समाज को लोकरक्षक मर्यादा पुरुषोत्तम राम के चरित्र का सम्बल प्रदान करके, निराशा से बाहर निकाला। उसमें आत्मविश्वास और स्वाभिमान जागृत किया। उन्होंने जनता को आश्वस्त किया
“जब-जब होहि धरम कै हानी। बाढहिं असुर अधम अभिमानी।
तब-तब धरि प्रभु विविध सरीरा। हरहिं कृपानिधि सज्जन पीरा।।
प्रश्न 17.
भक्तिकालीन कृष्णभक्ति काव्यधारा की सामान्य विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
भक्तिकालीन कृष्णभक्ति काव्यधारा की सामान्य विशेषताएँ इस प्रकार हैं
- इस काव्यधारा के आराध्य देव श्रीकृष्ण हैं।
- इसमें लोकरंजक स्वरूप में आराधना हुई है।
- इसमें बाल एवं कैशोर्य अवस्था की लीलाओं का वर्णन है।
- इसमें हास्य एवं साख्य-भाव की उपासना है।
- इसमें श्रृंगार, वात्सल्य एवं शान्त रसों की प्रधानता है।
- इसमें ब्रज भाषा तथा मुक्तक शैली अपनायी गयी है।
- इसमें भाव और कला दोनों पक्षों की उत्कृष्टता है।
प्रश्न 18.
सूरदास को किस क्षेत्र का सम्राट बताया गया है और क्यों ?
उत्तर:
विद्वान सूर को वात्सल्य रस का सम्राट मानते हैं। सूर ने बालकृष्ण की सरस एवं विविध लीलाओं का ऐसा स्वाभाविक तथा सर्वांगीण चित्रण किया है कि पाठक मुग्ध हो जाता है। बालकृष्ण को पालने में झूलना, आँगन में घुटनों के बल चलना, मक्खने की चोरी करना, उनका बालहठ, रोष, रूठना आदि क्रियाएँ सूर के सूक्ष्म निरीक्षण और बालमनोविज्ञान के पारखी होने का प्रमाण देती हैं। बाल-वर्णन को कोई अंग उनसे छूटा नहीं है। इसी कारण उनको वात्सल्य रस का सम्राट कहा जाता है।
निबंधात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
भक्तिकाल को हिन्दी कविता को स्वर्ण युग क्यों कहा गया है? संक्षेप में उत्तर दीजिए।
उत्तर:
किसी भी काव्य परम्परा का स्वर्णयुग वह काल होता है जिस काल में उस भाषा के साहित्य की सर्वांगीण उन्नति होती है। इस दृष्टि से विचार करने पर भक्तिकाल को हिन्दी कविता का स्वर्ण युग माना जाना उचित है। इस मान्यता के आधार बिन्दु इस प्रकार हैं
- भक्तिकाल में ज्ञानमार्गी सन्तों ने कविता को साधारण जन के जीवन से जोड़ा। समाज में व्याप्त कुरीतियों और अन्धविश्वासों पर प्रहार किये।
- तुलसी जैसे समर्थ और लोकनायक के पद से विभूषित महाकवि इसी काल में पैदा हुए। तुलसी ने कविता को भाव, भाषा, शैली और अलंकरण सभी दृष्टियों से समृद्ध बनाया।
- सूरदास ने भगवान श्रीकृष्ण के लोकरंजक स्वरूप की माधुरी में देश की निराश व हताश जनता को स्नान कराके उसे सजीवता और जीने का लक्ष्य प्रदान किया।
- भक्तिकाल में काव्य की सभी परम्पराओं को विकास का अवसर प्राप्त हुआ। तुलसी और सूर जैसे कवियों की भक्ति-भावना, काव्य-कौशल और समर्थ सम्प्रेषण का आश्रय पाकर, हिन्दी काव्य अपनी श्रेष्ठतम छवि को पा गया।
- भाव पक्ष तथा कला पक्ष इन दोनों की दृष्टि से उत्कृष्ट काव्य की रचना होने के कारण इस काल को हिन्दी का स्वर्ण युग कहा जाना उचित ही है।
प्रश्न 2.
हिन्दी साहित्य के भक्तिकालीन काव्य की प्रमुख विशेषताओं का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
उत्तर:
भक्तिकाल हिन्दी काव्य की स्वर्णिम युग माना गया है। भाव, कला और संदेश की दृष्टि से इस कालखण्ड को हिन्दी काव्य का चरमोत्कर्ष कहा जा सकता है। भक्तिकालीन काव्य की सामान्य विशेषताएँ इसे प्रकार हैं
- ज्ञान, भक्ति और प्रेम की त्रिवेणी-भक्तिकाल की काव्यधारा तीन प्रधान रूपों में प्रवाहित हुई। कुछ सन्तों ने ज्ञान को, कुछ ने भक्ति को और कुछ ने प्रेम को प्रभु-प्राप्ति का मार्ग बताया।
- विभिन्न शाखा-प्रशाखाएँ-भक्तिकालीन काव्य की दो प्रमुख धाराएँ, निर्गुण और सगुण भक्ति धाराएँ हैं। निर्गुण धारा की ‘ज्ञानाश्रयी’ तथा ‘प्रेमाश्रयी’ शाखाएँ हैं तथा सगुण काव्यधारा की ‘रामाश्रयी’ तथा ‘कृष्णाश्रयी’ दो काव्य शाखाएँ हैं।
- भक्ति-भाव से सिक्त रचनाएँ-भक्तिकालीन सभी कवि उच्चकोटि के सन्त और भक्त थे। उनकी प्रत्येक रचना अपने इष्ट को समर्पित है।
- नाम-स्मरण को महत्त्व-भक्तिकालीन कवियों ने ईश्वर या इष्ट के नाम के स्मरण को बहुत महत्त्व दिया है। तुलसी तो ‘ब्रह्म राम ने नाम बड़’ बताते हैं।
- गुरु को अत्यधिक आदर-सभी कवियों ने गुरु को अति आदर के साथ स्मरण किया है। कबीर के मतानुसार “हरि रूठे, तो ठौर है, गुरु रूठे नहीं ठौर।”
- पाखण्ड और प्रदर्शन का विरोध-भक्तिकालीन सभी कवि सहज उपासना पर बल देते हैं। आडम्बर और पाखण्ड का सभी ने खण्डन किया है।
- भाव-पक्ष और कला-पक्ष को उत्कर्ष-कबीर और मीरा आदि को छोड़कर सभी कवियों के काव्य में भाव-पक्ष तथा कला–पक्ष का श्रेष्ठतम स्वरूप लक्षित होता है।
- समन्वय की भावना-भक्तिकालीन कवियों ने वैचारिक और धार्मिक समन्वय के साथ-साथ सामाजिक समन्वय को भी महत्त्व प्रदान किया है।
- भाषा-इस काल के कवियों ने विभिन्न भाषाओं को अपने काव्य का माध्यम बनाया है। ब्रजी, अवधी, खड़ी-बोली, राजस्थानी, संस्कृत तथा सधुक्कड़ी भाषा में रचनाएँ की हैं।
प्रश्न 3.
भक्तिकाल के चार वैष्णव संप्रदाय और उनके आचार्यों का परिचय संक्षेप में दीजिए।
उत्तर:
भक्तिकाल के संप्रदाय- भक्ति के अनेक संप्रदाय हैं, उनमें से चार वैष्णव संप्रदायों और आचार्यों का परिचय संक्षेप में दिया जा रहा है। ये हैं-श्री, ब्राह्म, रुद्र, सनकादि या निम्बार्क।
श्री संप्रदाय-श्री संप्रदाय के आचार्य रामनुजाचार्य हैं। कहा जाता है कि लक्ष्मी ने इन्हें जिस मत का उपदेश दिया उसी के आधार पर इन्होंने अपने मत का प्रवर्तन किया। इसीलिए इनके संप्रदाय को श्री संप्रदाय कहते हैं। इन्होंने आलवारों की भक्ति को दार्शनिक आधार प्रदान किया एवं शंकराचार्य के अद्वैतवाद का खंडन करते हुए जिस मत की स्थापना की उसे विशिष्टाद्वैतवाद के नाम से जाना जाता है।
रामानुज की ही परंपरा में रामानंद हुए। रामानंद प्रयाग में उत्पन्न हुए थे। इनके गुरु को नाम राघवानंद था। रामानंद संस्कृत के पंडित, उच्च कुलोत्पन्न ब्राह्मण थे किन्तु वे आकाशधर्मा गुरु थे। उन्होंने अवर्ण-सवर्ण, स्त्री-पुरुष, राजा-रंक सभी को शिष्य बनाया। उनका विचार था कि ऋषियों के नाम पर गोत्र एवं परिवार बेन सकते हैं तो ऋषियों के भी पूजित परमेश्वर के नाम पर सबका परिचय क्यों नहीं दिया जा सकता। इस प्रकार सभी भाई-भाई हैं, सभी एक जाति के हैं। श्रेष्ठता भक्ति से होती है, जाति से नहीं। इनके 12 शिष्य प्रसिद्ध हैं, उनकी सूची इस प्रकार है
रैदास, कबीर, धन्ना, सेना, पीपा, भावानंद, सुखानंद, अनंतानंद, सुरसुरानंद, नरहरयानंद, पदमावती, सुरसरी। रामानंद के व्यक्तित्व का महत्वपूर्ण पक्ष यह है कि उन्होंने हिन्दी को अपने मत के प्रचार का माध्यम बनाया।
ब्राह्म संप्रदाय-ब्राह्म संप्रदाय के प्रर्वतक मध्वाचार्य थे। उनका जन्म गुजरात में हुआ था। चैतन्य महाप्रभु पहले इसी संप्रदाय में दीक्षित हुए थे। इस संप्रदाय का सीधा संबंध हिन्दी साहित्य से नहीं है।
रुद्र संप्रदाय-इसके प्रवर्तक विष्णु स्वामी थे। वस्तुत: यह महाप्रभु वल्लभाचार्य के पुष्टि संप्रदाय के रूप में ही हिन्दी में जीवित हैं। जिस प्रकार रामानंद ने ‘राम’ की उपासना पर बल दिया था, उसी प्रकार वल्लभाचार्य ने ‘कृष्ण’ की उपासना पर। उन्होंने प्रेमलक्षणा भक्ति ग्रहण की। भगवान के अनुग्रह के भरोसे नित्यलीला में प्रवेश करना जीव का लक्ष्य माना। सूरदास एवं अष्टछाप के कवियों पर इसी संप्रदाय का प्रभाव है।
सनकादि संप्रदाय-यह निम्बाकाचार्य द्वारा प्रवर्तित है। हिन्दी भक्ति साहित्य को प्रभावित करने वाले राधावल्लभी संप्रदाय का संबंध इसी से जोड़ा जाता है। राधावल्लभी संप्रदाय के प्रवर्तक हितहरिवंश का जन्म 1502 ई. में मथुरा के पास बाद गाँव में हुआ था। कहा। जाता है कि हितहरिवंश पहले मध्वानुयायी थे। इसमें राधा की प्रधानता है।
शैली-मुक्तक तथा प्रबन्ध दोनों शैलियों में काव्य रचनाएँ हुई है।
रस, छंद और अलंकारे-लगभग सभी रसों की भी मार्मिक व्यंजना भक्तिकालीन काव्य में हुई है। प्रधानता शान्त रस की है किन्तु श्रृंगार, वात्सल्य, वीर आदि रसों की सफल प्रस्तुति हुई है। विविध छंदों को अपनाया गया है। दोहा, सोरठा, चौपाई, पद, सवैया बरवै तथा लोक छंद भी उपस्थित हैं। अलंकारों का भी सुन्दर प्रयोग किया गया है।
प्रश्न 4.
ज्ञानाश्रयी काव्यधारा के प्रमुख कवियों का संक्षिप्त परिचय लिखिए।
उत्तर:
ज्ञानाश्रयी काव्यधारा के प्रमुख कवियों का संक्षिप्त परिचय किस प्रकार है नामदेव (जन्म 1267 ई.) 13 वीं शताब्दी-इनका जन्म 1267 ई. को महाराष्ट्र के सतारा के नरसी वमनी (बहमनी) गाँव में हुआ था। अपने पैतृक व्यवसाय में इनकी रुचि नहीं थी। अत: बचपन से ही साधुसेवा एवं सतसंग में अपना जीवन बिताते रहे। संत विसोवा खेचर इनके गुरु थे तथा प्रसिद्ध संत ज्ञानेश्वर के प्रति भी इनकी गहरी निष्ठा थी। ऐसा कहा जाता है कि नामदेव पहले सगुणोपासक भक्त थे लेकिन नामदेव के प्रभाव में आकर निर्गुण बह्म की उपासना की ओर प्रवृत्त हुए। मराठी में रचित अभंगों के अतिरिक्त हिन्दी भाषा में भी इनकी रचनाएँ उपलब्ध हैं।
कबीर (1397-1518 ई.)-कबीर के जन्म काल, जीवन मरण तथा जीवन की प्रसिद्ध घटनाओं के विषय में किंवदंतियाँ प्रसिद्ध हैं। जनश्रुति के अनुसार इनका जन्म 1397 ई. में काशी की एक विधवा ब्राह्मणी के घर में हुआ था। लोकापवाद के भय से वह इन्हें लहरतारा ताल के निकट छोड़ आई। इनका पालन-पोषण नीरू-नीमा नामक जुलाहा दम्पत्ति ने किया। कबीर की पत्नी का नाम लोई था। उनकी संतान के रूप में पुत्र कमाल और पुत्री कमाली का उल्लेख मिलता है। कबीर के प्रधान शिष्यों में धर्मदास ने कबीर की वाणी का संग्रह किया। ऐसा माना जाता है कि कबीर की मृत्यु मगहर जिला बस्ती में सन् 1518 ई. में हुई।
रैदास (15वीं शताब्दी)-मध्ययुगीन साधकों में संत रैदास अथवा रविदास के जीवनकाल की तिथि के विषय में कुछ निश्चित रूप से ज्ञात नहीं होता। रैदास रामानन्द के बारह शिष्यों में से एक थे। इनके समकालीन धन्ना और मीरा ने अपनी रचनाओं में बहुत श्रद्धा के साथ इनका नामोल्लेख किया है। यह भी कहा जाता है कि मीराबाई, रैदास की शिष्या थीं।
गुरु नानक देव (1469-1531 ई.)-गुरु नानक का जन्म 1469 ई. में तलवंडी ग्राम, जिला लाहौर में हुआ था। इनकी मृत्यु 1531 ई. में हुई। इनके पिता का नाम कालूचंद खत्री और माँ का नाम तृप्ता था। इनकी पत्नी का नाम सुलक्षणी था। कहते हैं कि इनके पिता ने इन्हें व्यवसाय में लगाने का बहुत प्रयास किया किन्तु इनका मन बचपन से ही भक्ति की ओर अधिकाधिक झुकता गया। इन्होंने हिन्दू-मुसलमानों दोनों की समान धार्मिक उपासना पर बल दिया। वर्णाश्रम व्यवस्था और कर्मकांड का विरोध करके निर्गुण भक्ति का प्रचार किया।
दादूदयाल (1544-1603 ई.)-दादू पंथ के प्रवर्तक दादू दयाल का जन्म गुजरात प्रदेश के अहमदाबाद नगर में 1544 ई. में माना जाता है। इनकी मृत्यु 1603 ई. को राजस्थान प्रांत के जयपुर के निकट नराणा गाँव में हुई, जहाँ इनके अनुयायियों का प्रधान मठ ‘दादू द्वारा विद्यमान है। दादू को परमब्रह्म संप्रदाय को प्रवर्तक माना जाता है। बाद में इस परमब्रह्म संप्रदाय को ‘दादूपंथ’ के नाम से संबोधित किया गया।
सुंदरदास (1596-1689 ई.)-सुन्दरदास 6 वर्ष की आयु में दादू के शिष्य हो गए थे। उनका जन्म 1596 ई. में जयपुर राज्य की प्राचीन राजधानी धौसा नामक स्थान पर हुआ था। ये दादू के सिद्धांतों का प्रचार करते थे और साथ ही साथ काव्य ग्रंथों की रचना भी करते थे।
मलूकदास (1574-1682 ई.)-मलूकदास का जन्म इलाहाबाद के कड़ा नामक गाँव में 1574 ई. में हुआ। उनके पिता का नाम सुन्दरदास खत्री था। 106 वर्ष की अवस्था में इनकी मृत्यु 1682 ई. में औरंगजेब के समय में हुई। निर्गुण मते के इस प्रसिद्ध संत की गद्दियाँ कड़ा, जयपुर, गुजरात, मुलतान, पटना, नेपाल और काबुल तक में कायम हुईं।
रज्जब (17 वीं शताब्दी)-रज्जब दादू के शिष्य थे। ये भी राजस्थान के थे। इनकी कविता में सुंदरदास की शास्त्रीयता का अभाव है। निर्गुण संतों की ज्ञानाश्रयी शाखा के अन्य प्रसिद्ध संत कवि अक्षर अनन्य (जन्म 1653 ई.) जंभनाथ (1451 ई.), सिंगा जी (1519 ई.) और हरिदास निरंजनी (17 वीं शती) हैं। कबीर के पुत्र कमाल और प्रमुख शिष्य धर्मदास की गणना इसी परंपरा में होती है।
प्रश्न 5.
प्रेमाश्रयी शाखा के प्रमुख कवियों का संक्षिप्त परिचय लिखिए।
उत्तर:
प्रेमाश्रयी शाखा के प्रमुख कवि मुल्ला दाउद (14 वीं शताब्दी)-मुल्ला दाउद या मौलाना दाउद की रचना ‘चंदायन’ से सूफी प्रेमाख्यानक काव्य परंपरा का आरम्भ माना जाता है। चंदायन का रचना काल 1379 ई. है। मुल्ला दाउद रायबरेली जिले में डलमऊ के थे। उन्होंने वहीं चंदायन की रचना की थी। यह काव्ये बहुत लोकप्रिय एवं सम्मानित था। दिल्ली के मखदूम शेख तकीउद्दीन रब्बानी जन-समाज के बीच इसका पाठ करते थे।
कुतुबन (15-16 वीं शताब्दी)-कुतुबन चिश्ती वंश के शेख बुरहान के शिष्य थे और जौनपुर के बादशाह हुसैनशाह के आश्रित थे। चौपाई-दोहे के क्रम में कुतुबन ने ‘मृगावती’ की रचना 1503-04 ई. में की थी। ये सोहरावर्दी पंथ के ज्ञात होते हैं। इसमें चंदनगर के राजा गणपति देव के राजकुमार और कंचनपुर के राजा रूपमुरारि की कन्या मृगावती की प्रेम कथा का वर्णन है।
मलिक मुहम्मद जायसी (16 वीं शताब्दी)-जायसी हिंदी के सूफी काव्य परंपरा के साधकों एवं कवियों के सिरमौर हैं। ये अमेठी के निकट जायस के रहने वाले थे, इसलिए इन्हें जायसी कहा जाता है। ये प्रसिद्ध सूफी फकीर शेख मोहिदी के शिष्य थे। जायसी अपने समय के सिद्ध फकीरों में गिने जाते थे। अमेठी के राजघराने में इनका बहुत मान था। इनकी तीन रचनाएँ उपलब्ध हैं – अखरावट, आखिरी कलाम और पद्मावत।। . मंझन (16वीं शताब्दी)-मंझन ने 1545 ई. में मुधमालती की रचना की। मुधमालती नाम की अन्य रचनाओं का भी पता चलता है। लेकिन मंझन कृत मधुमालती जायसी के पद्मावत के पाँच वर्ष बाद रची गई।
उसमान (16-17 वीं शताब्दी)-कवि उसमान की ‘चित्रावली’ सन् 1613 ई. में लिखी गई थी। ये जहाँगीर के समय में वर्तमान थे और गाजीपुर के रहने वाले थे। इनके पिता का नाम शेख हुसैन था और ये पाँच भाई थे। इन्होंने अपना उपनाम ‘मान’ लिखा है। ये शाह निजामुद्दीन चिश्ती की शिष्य परंपरा में हाजीबाबा के शिष्य थे।
प्रश्न 6.
रामभक्ति काव्यधारा के प्रमुख कवियों का संक्षिप्त परिचय लिखिए।
उत्तर:
रामभक्ति शाखा के प्रमुख कवि रामानंद-रामानंद का जन्म 1300 ई. के आसपास काशी में हुआ था। वैष्णव संप्रदाय के आचार्य राघवानंद से इन्होंने दीक्षा ग्रहण की थी। रामानंद ने भक्ति को शास्त्रीय मर्यादा के बंधन से मुक्त माना। जाति और वर्ण के भेदभाव से ऊपर उठकर भक्ति को जनसामान्य से जोड़ने का प्रयत्न किया।
विष्णुदास-विष्णुदास ग्वालियर नरेश डूंगरेन्द्र (सन् 1424 ई.) के राजकवि थे। इनकी कई पुस्तकों का उल्लेख मिलता है, किन्तु उनमें से ‘रामायण कथा’ को प्रमाणिक माना जाता है। इसे रामकथा से संबंधित हिन्दी का प्रथम काव्य कहना अत्युक्तिपूर्ण नहीं होगा। इस पुस्तक का रचना काल सन् 1442 ई. है।
अग्रदास-रामभक्त कवियों में अग्रदास का नाम प्रमुख है। ये रामानंद की शिष्य परंपरा में हुए कृष्णदास पयोहारी के शिष्य थे। कृष्णदास पयोहारी ने जयपुर के समीप गलता नामक स्थान में रामानंद संप्रदाय की जो गद्दी स्थापित की, उससे अग्रदास जुड़े थे।
ईश्वरदास-तुलसी से पूर्व के रामकाव्य परंपरा में ईश्वर दास का नाम भी स्मरणीय है। ये सिकन्दर लोदी के समय में वर्तमान थे। इनकी रचना ‘सत्यवती कथा’ (1501 ई.) के आधार पर ईश्वरदास का जन्मकाल निर्धारित किया जाता है। रामकथा से संबंधित इनकी तीन रचनाएँ मिलती हैं- ‘रामजन्म, ‘अंगदपैज’ और ‘ भरत मिलाप’। इनके अतिरिक्त स्वर्गारोहिणी कथा एवं एकादशी कथा भी इनकी रचनाएँ हैं। भरत मिलाप इनकी प्रसिद्ध रचना है।
तुलसीदास-गोस्वामी तुलसीदास के पिता का नाम आत्माराम दुबे और माता का नाम हुलसी था। मिश्रबन्धुओं ने इन्हें कान्यकुब्ज माना है। मूल गोसाईं चरित और तुलसी चरित्र के आधार पर आचार्य शुक्ल आदि ने इन्हें सरयूपाणि ब्राह्मण माना है। तुलसी का बचपन घोर दरिद्रता एवं असहायावस्था में बीता था। उन्होंने लिखा है, माता-पिता ने दुनिया में पैदा करके मुझे त्याग दिया। अभुक्तमूल नक्षत्र में जन्म लेने के कारण माता-पिता ने इन्हें त्याग दिया था। यह मान्य है कि तुलसी की मृत्यु सं. 1680 अर्थात् 1623 ई. में हुई। ‘
नाभादास-गोस्वामी तुलसीदास के समकालीन रामभक्तों में नाभादास का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। ये अग्रदास के शिष्य थे। नाभादास की रचना भक्तमाल का हिन्दी साहित्य में अभूतपूर्व ऐतिहासिक महत्त्व है। इसकी रचना नाभादास ने 1585 ई. के . आसपास की।
केशवदास-केशवदास का जन्म 1555 ई. में और मृत्यु 1617 ई. के आसपास हुई थी। ओरछा नरेश महाराजा रामसिंह के भाई इन्द्रजीत सिंह की सभा में पांडित्य के कारण इनका अत्यधिक सम्मान था। इनके द्वारा लिखे गए सात ग्रंथ मिलते हैं-कविप्रिया, रसिकप्रिया, रामचन्द्रिका, वीरसिंहचरित्र, विज्ञानगीता, रतनबावनी और जहाँगीरजसचन्द्रिका। इनमें से रामचन्द्रिका (1601 ई.) हिन्दी रामकाव्य परंपरा के अन्तर्गत एक विशिष्ट कृति है।
प्रश्न 7.
“आचार्यों की छाप लगी-कृष्ण का कीर्तिगान करने वाले कवियों में-सबसे ऊँची तान अन्धे कवि सूर की वाणी की थी।” स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
आचार्य वल्लभ ने पुष्टिमार्ग की अवधारणा प्रस्तुत की, विठ्ठलदास ने उनके शिष्य तथा अपने शिष्यों को जोड़कर अष्टछाप की स्थापना की। इस अष्टछाप में सूरदास, कृष्णदास, परमानन्ददास, कुम्भनदास, चतुर्भुजदास, नन्ददास, गोविन्द स्वामी और छीत स्वामी थे। इन्हें आचार्यों की प्रेरणा प्राप्त थी और ये पुष्टि मार्गीय उपासना पद्धति के सक्रिय कवि और गायक थे।
सूर का स्थान-इन कवियों में तथा अन्य कृष्णभक्त कवियों में जो विभिन्न आचार्यों से प्रेरित थे, (राधावल्लभ सम्प्रदाय, सखी सम्प्रदाय आदि) सूर सर्वश्रेष्ठ कवि माने जाते हैं।
(1) परिमाण की दृष्टि से-सूर ने 25 ग्रन्थों की रचना की है, उनका ‘सूरसागर’ ही सवालाख पदों का संग्रह माना जाता है। उनका ‘सूरसागर’ और ‘भ्रमरगीत’ हिन्दी की अक्षय निधि हैं।
(2) लीला वर्णन-सूर वात्सल्य के सम्राट माने जाते हैं, उस कोटि का वात्सल्य वर्णन समूचे हिन्दी साहित्य में दुर्लभ है। उनके बाल वर्णन को देखकर आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने स्पष्ट किया है-“हमारे जाने हुए साहित्य में इतनी तत्परता, मनोहारिकता और सरसता के साथ लिखी हुई बाल-लीला अलभ्य है। बाल-कृष्ण की एक-एक चेष्टाओं के चित्र में कवि कमाल की होशियारी और सूक्ष्म-निरीक्षण का परिचय देता है। न उसे शब्दों की कमी होती है, न अलंकारों की, न भावों की, ने भाषा की। यह निर्विवाद सत्य है कि सूर का बाललीला का वर्णन सहज स्वाभाविक, भावात्मक, अति यथार्थ एवं रागोत्प्रेरक है, जैसा हिन्दी का कोई कवि नहीं कर सका है।”
(3) शृंगार-श्रृंगार वर्णन हिन्दी काव्य का आधारभूत एक प्रमुख तत्व रहा है। अष्टछाप के सभी कवियों ने इस पर लेखनी चलायी है। पर सूर तो ‘ श्रृंगार’ के क्षेत्र में इतने अद्वितीय हैं कि उन पर यह टिप्पणी की जाती है कि श्रृंगार को रस राज सिद्ध करने में उनकी महती भूमिका है। आचार्य शुक्ल ने स्पष्ट स्वीकार किया है कि श्रृंगार’ के संयोग और वियोग दोनों पक्षों का इतना प्रचुर विस्तार और किसी कवि में नहीं है। राधा-कृष्ण के प्रेम के प्रादुर्भाव की कैसी स्वाभाविक व्यंजना सूर ने की है
धेनु दुहत अति ही रति बाढ़ी।
एक धार दीहत पहुँचावत एक धार जहाँ प्यारी ठाढ़ी।”
(4) भ्रमरगीत प्रसंग-यह प्रसंग भी सभी हिन्दी कवियों ने उठाया है पर अधूरा। ब्यौरेवार पूर्ण रूप से भ्रमरगीत प्रसंग सूर के काव्य में ही दमकता है, जिसमें गोपियों की वचनवक्रता इतनी विलक्षण है कि मन मोह लेती है। यद्यपि सूर के भ्रमरगीत की समता किसी भी अन्य भ्रमरगीत से नहीं की जा सकती फिर भी नन्ददास के कतिपय भ्रमरगीत सम्बन्धी पद, सूर के पदों के साथ खड़े होने की क्षमता रखते हैं। गोपियाँ कितनी सरलता से पूछ रही हैं
निर्गुण कौन देस कौ बासी।
मधुकर हँसि समुझाय, सौंहदे बूझति साँच न हाँसी।।”
भाव, कला, संगीत, भाषा, अलंकार, काव्य रचना की प्रचुरता, भक्ति भावना की विशद व्याख्या, दार्शनिक विचारों का प्रतिपादन, भाषा, अलंकारों की छटा आदि में सूर अष्टछाप के कवियों में ही नहीं, समूचे कृष्ण काव्य के बेताज बादशाह हैं।
प्रश्न 8.
कृष्ण-भक्ति काव्य परम्परा में मीरा का स्थान निर्धारित कीजिए।
उत्तर:
कृष्ण-भक्ति काव्य एक लम्बी परम्परा है जिसमें मूर्धन्य स्थान के अधिकारी अष्टछाप के कवि आते हैं। ये कवि हैं-सूरदास, नन्ददास, परमानन्ददास, कुंभनदास, कृष्णदास, चतुर्भुजदास, गोविन्द स्वामी और छित स्वामी। इसके अतिरिक्त हित हरिवंश, हरीराम व्यास, ध्रुवदास, श्रीभट्ट, स्वामी हरिदास, सूरदास, मदन मोहन, गदाधर भट्ट और रसखान की गणना भी श्रेष्ठ कृष्ण-भक्त कवियों में की जाती है। इन कवियों ने कृष्ण की भक्ति में पद गाये, उनकी लीलाओं का वर्णन किया और श्रृंगार की माधुरी बिखेरी। वात्सल्य वर्णन मैं सूरदास सर्वश्रेष्ठ कवि माने जाते हैं।
मीरा का स्थान-मीरा का स्थान कृष्ण-भक्त कवियों में विशिष्ट है। मीरा का विवाह चित्तौड़ के राज कुँवर भोजराज से हुआ था। पर वे तो बचपन से ही कृष्ण-भक्त थीं और उन्होंने अपना पति श्रीकृष्ण को मान लिया था। उनकी कृष्ण-भक्ति राणा परिवार को रास नहीं आयी ऐसी स्थिति में ये वृन्दावन चली गयीं, वहाँ वे मन्दिरों में भजन गाती थीं। इनकी समस्त रचनाएँ ‘पदावली’ में संकलित हैं। मीरा उच्च कोटि की भक्त थीं, उनकी भक्ति में कृष्ण और राधा की आराधना, नवधाभक्ति, माधुर्य भाव की भक्ति और अनन्य भाव की प्रधानता है।
कृष्ण भक्तों में माधुर्य भाव की भक्ति का अधिक प्रचलन रहा। यह भक्ति कान्ता भाव से की जाती है। मीरा की भक्ति भी इसी प्रकार की है। ऐसा होना स्वाभाविक भी था। एक नारी इसके अतिरिक्त और किसी पद्धति को अपना भी नहीं सकती थी। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि मीरा के कान्ता भाव में जो स्वाभाविकता है, वह अन्य पुरुष कृष्ण भक्तों में नहीं मिलती क्योंकि स्वयं नारी होना और नारीत्व का आरोपण करना दोनों में आकाश-पाताल का अन्तर है। प्रो. शशिभूषणदास की मान्यता है, “उन्होंने जिस प्रेम का उल्लेख किया है, वह उनका अपना अपने प्रियतम’ के लिए प्रेम है जो ‘प्रीतम’ है, उनके जन्म-मरण को साथी’ है। यही मीरा के गाने में उनकी निजी अनुभूति का जो अपरोक्ष रूप है, वह अन्य किसी वैष्णव कवि में नहीं मिलता।
विरह के क्षेत्र में भी मीरा अन्य कृष्ण-भक्त कवियों से पृथक हैं। उनकी वेदना अपनी निजी है, उन्होंने अपनी पीड़ा गायी है, भोगी हुई पीड़ा गायी है, किसी के लिए किराये के आँसू नहीं बहाये हैं। शुक्लजी की मान्यता है-उसमें सजी वास्तविकता जीती-जागती यथार्थता के साथ भव्यता और दिव्यता है।
गिरधर की साग कौन गुणां।
कछुक आँगुण हम में काढ़ो, मैं भी कान सुणा।
मैं तो दासी थाराँ जनम-जनम की, थे साहब सुगणा।।”
श्रृंगार वर्णन के क्षेत्र में भी मीरा सूर को छोड़कर अन्य कृष्ण-भक्त कवियों से आगे ही हैं। सूर का ‘भ्रमरगीत’ निश्चित रूप से उत्कृष्ट कोटि का विरह काव्य है। मीरा के संयोग श्रृंगार के सभी पक्षों-अभिलाषा, चिन्ता, स्मृति, गुण-कथन, उद्वेग, संताप आदि की स्थितियाँ चित्रित हैं, वियोग वर्णन में तो मीरा अति विलक्षण हैं।
पपइया रे पिब की वाणी न बोल।
सणि पावेली विरहिणी रे, थारो बालैली पांख मरोड़।।”
गीति योजना की दृष्टि से भी मीरा कृष्ण-भक्ति काव्य में विशिष्ट स्थान रखती हैं। उनके समस्त पद गेय हैं, जिनमें उनके प्रेम पूर्ण। अन्त:करणे की आत्माभिव्यंजना फूटी है। उनमें संगीतात्मकता का भी उत्कृष्ट समावेश है। अनुभूति की पूर्णता है और भावों का काव्य है।
बस्यां म्हारे नैणण मां नन्दलाल।।
मोर मुगट मकराकृत कुंडल अरुण तिलक सोहाँ भाल।
भाव वर्णन के क्षेत्र में मीरा कृष्ण काव्य में एक महत्वपूर्ण स्थान की अधिकारिणी हैं। जहाँ तक काव्य कला का प्रश्न है, तो मीरा प्रेम दीवानी पहले र्थी, कवि बाद में। अंतः तन्मयता युक्त भावोद्रेक इतना प्रभावी है कि वह सरल, परिष्कृत भाषी में बह उठा है, जिसमें मुहावरे, लोकोक्तियाँ और अलंकारी छटा बिखरी पड़ी है।
संक्षेप में माना जा सकता है कि समूचे कृष्ण काव्य में सूर, रसखान और मीरा को ही लोकप्रियता प्राप्त है, जिसका आधार उनकी भक्ति और काव्य रचना ही है।
प्रश्न 8.
राम काव्यधारा और कृष्ण काव्यधारा के अन्तर को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
दोनों काव्यधाराएँ सगुण उपासना को महत्त्व देती हैं, अत: दोनों में पर्याप्त साम्य होते हुए भी कतिपय भिन्नताएँ भी हैं।
(1) सगुण और निर्गुण दोनों रूपों की मान्यता-इन दोनों ही कवियों ने ब्रह्म के निर्गुण रूप को सर्वथा अस्वीकार नहीं किया; पर इनकी मान्यता थी कि निर्गुण की उपासना के लिए सगुण का माध्यम अनिवार्य है। राम काव्य निर्गुण और सगुण दोनों रूपों को सापेक्ष मानता है
“ज्ञान कहे अज्ञान बिनु, तम बिनु कहै प्रकास।
निर्गुण कहै सगुण बिनु, सो गुरु तुलसीदास।।”
कृष्ण-भक्त कवि सूर की मान्यता है कि सगुण साकार रूप भावगम्य, बुद्धिग्राह्य है। चंचल मन के लिए एक आधार अथवा आलम्बन अनिवार्य है
“अविगत गति कछु कहत न आवै।
रूप रेख-गुन जाति जुगुति बिनु निरालम्ब मन याकृत धावै।।
सब विधि अगम विचारहिं ताते सूर सगुन लीला पद गावै।।”
(2) रूपोपासना-दोनों ही धारा के कवियों की यह विशेषता है कि कवि अपने आराध्य के सौन्दर्य वर्णन का कोई अवसर जाने ही नहीं देता। तुलसी ने युद्ध वर्णन के अवसर पर भी पहले प्रभु की रूप माधुरी का वर्णन किया है
कोदंड कठिन चढ़ाइ सिर जट जूट बाँधत सोह क्यों।
मरकत सयल पर लरत दामिनि कोटि सौं जुगु भुजंग ज्यों।
कटि कस.निषंग बिसाल भुजगहि चाप बिसिख सुधारिौं।
चितवत मनहुँ मृगराज प्रभु गजराज घटा निहारिकै।।”
कृष्ण-काव्य में तो रूप-न्दर्य की विलक्षण मन-मोहक झाँकियाँ चित्रित की गयी हैं
“देखि सखी अधरनि की लाली।
मनि मरकत हैं सुभग केलवर, ऐसे हैं बनमाली।।
मनौं प्रात की घंटी साँवरी, तापर अरुन-प्रकास।
ज्यों दामिनि बिच चमकि रहत है फहरत पीत सुवास।
(3) भक्ति-भावना की प्रधानता-दोनों ही काव्यधारा में भक्ति की महत्ता सर्वोपरि है, क्योंकि तुलसी और सूर दोनों ही उच्च कोटि के भक्त थे।
(4) अवतार भावना-दोनों ही काव्यधारा के कवि अपने-अपने आराध्य को निर्गुण ब्रह्म का अवतार मानते हैं। तुलसी की मान्यता है-
जब-जब होय धरम की हानी। बाढ़हिं असुर अधम अभिमानी।
तब-तब धरि प्रभु मनुज सरीरा। हरहिं कृपानिधि सज्जन पीरा।।
कृष्ण-भक्त कवियों की पुष्टिमार्गी भक्ति के आधार पर यह मान्यता है कि जो भक्त भगवान की कृपा द्वारा पुष्ट हो जाता है, वही उनकी लीलाओं में आनन्द प्राप्त करता है। वृन्दावन भगवान कृष्ण की नित्य-लीला का धाम है।
(5) ज्ञान की अपेक्षा भक्ति की श्रेष्ठता-दोनों ही धारा के कवियों ने ज्ञान की अपेक्षा भक्ति की श्रेष्ठता स्वीकार की है, क्योंकि इस मार्ग को वे अधिक सरल, मनोवैज्ञानिक, व्यावहारिक तथा श्रेष्ठ मानते हैं। तुलसी ने स्पष्ट किया है-
ग्यान अगम प्रत्यूह अनेका। साधन कठिन न मन कहुँ टेका।।
करत कष्ट बहु पावइ कोई। भक्तिहीन मोहि प्रिय नहिं सोई।।
सूर का भ्रमरगीत तो ज्ञान पर भक्ति की विजय का जयघोष ही है
हम को हरि की कथा सुनाव।
अपनी ज्ञान कथा हो, ऊधौ ? मथुरा ही लैजावे।।”
(6) गुरु महिमा-गुरु महिमा को दोनों ही धारा के कवियों ने महत्त्व दिया है। तुलसी ने ‘रामचरितमानस’ में गुरु वन्दना की है, गुरु के महत्त्व को प्रतिपादित किया है। इस सम्बन्ध में सूर का यह पद अत्यन्त प्रसिद्ध है
- श्री वल्लभगुरु तत्व सुनायो लीला भेद बतायौ। तथा
- श्री वल्लभ नख चंद छटा। बिनु सब जग माहि अँधेरा।।
(7) पूर्ण समर्पण-दोनों ही काव्यधारा के कवियों ने अहंकार रहित होकर प्रभु के चरणों में ही अपने आपको समर्पित करना ही जीवन का सर्वस्व माना है।। ये दोनों ही कवि (कृष्ण-राम भक्त) पुरुषार्थ की अपेक्षा प्रभु की कृपा को ही अपने उद्धार का एक साधन मानते हैं। प्रभु की कृपा को लक्ष्य करके दोनों ही वर्ग के कवियों ने मार्मिक उक्तियाँ कही हैं। तुलसी कहते हैं
“यह गुन साधन ते नहिं होई। तुम्हरी कृपा पाउ कोई कोई।”
वहीं सूर कहते हैं।
“सूर पतित तर जाए छनक में जो प्रभु ने ढरै।”
(8) भगवान की लीला का वर्णन-दृश्यमान जगत् की प्रत्येक घटना लीलाधारी परम प्रभु की लीला है। इस रूप में जीवन और जगत् का वर्णन करने में भक्त कवि एक विशेष प्रकार के आनन्द की अनुभूति करते हैं। दोनों ही प्रकार के भक्त कवियों ने अपने आराध्य की लीलाओं के भावपूर्ण वर्णन किये हैं। राम-भक्त कवियों ने राम के पुरुषोत्तम रूप की स्थापना की, तो कृष्ण-भक्त कवियों ने अपने कृष्ण को लीला बिहारी माना। अतः दोनों के लीला वर्णन में अन्तर आ गया है। कृष्ण-भक्त कवियों ने भगवान की माधुरी के चार रूपों को लेकर उनका लीला-वर्णन किया है-विग्रह माधुरी, वेनु माधुरी, क्रीड़ा माधुरी और ऐश्वर्य माधुरी।
कृष्ण-भक्त कवियों ने कृष्ण के बाल और किशोर जीवन तक ही अपने को सीमित रखा है। वात्सल्य, सख्य एवं माधुर्य भावों की प्रधानता इस काव्यधारा की महत्वपूर्ण विशेषता है। अत: कृष्ण की बाल-लीलाओं, गो-चारण, सखा सहित विभिन्न क्रीड़ा और गोपियों के साथ नाना प्रकार की क्रीड़ाओं का सरस चित्रण हो उठा है। इसके अतिरिक्त भी माखन चोरी, गो-चारण, काली-दमन, चोर-हरण, रास लीला आदि न जाने कितनी लीलाएँ वर्णित हैं। नटखट श्याम गो-दोहन करते हुए भी चैन से नहीं बैठ सकते
धेनु दुहत अति ही रति बाढ़ी।
एक धार दोहनि पहुँचावत एक धार जहँ प्यारी ढाढ़ी।।”
(9) भक्ति के रूप-राम काव्य की भक्ति दास्य भाव की है, तो कृष्ण काव्य में सख्य भाव की भक्ति की प्रधानता है।
(10) श्रृंगार वर्णन-रामे काव्य में राम का मर्यादा पुरुषोत्तम रूप जो शील, सौन्दर्य और शक्ति समन्वित था, की प्रधानता के कारण श्रृंगार का वर्णन अत्यन्त मर्यादित रहा है, पर कृष्ण काव्य तो श्रृंगार को रस राजत्व की सीमा तक पहुँचा देता है। कृष्ण काव्य का बाल साहचर्य से विकसित प्रेम संयोग, श्रृंगार की अति तक पहुँचा है, उनका वियोग वर्णन तो अद्वितीय है।
(11) वात्सल्य-राम काव्य में राम की बाल-क्रीड़ाओं का मर्यादित रूप ही चित्रित हुआ है, पर कृष्ण काव्य में वात्सल्य का भव्य रूप उभारा गया है, जिसमें संयोग और वियोग दोनों रूप विद्यमान हैं। इनके वात्सल्य वर्णन ने ही वात्सल्य को एक स्वतन्त्र रस की सत्ता प्रदान की है।
(12) कान्ता भाव की प्रधानता-यह विशेषता कृष्ण कवियों में ही पायी जाती है। राम काव्य इससे अछूता रहा है। इस प्रकार हम देखते हैं कि अनेक क्षेत्रों में दोनों धाराओं के कवियों में जहाँ पर्याप्त समानताएँ हैं, वहीं पर्याप्त भिन्नताएँ भी हैं।
नामकरण-विदेशी आक्रान्ताओं के भारत में स्थापित हो जाने से तथा देशी राजाओं के शक्तिहीन हो जाने के कारण वीर रंसात्मक काव्य की रचना हतोत्साहित हुई। तत्कालीन राजनीतिक, सामाजिक तथा धार्मिक परिस्थितियों ने कवियों को ईश्वरोन्मुख बनाया। इसके अतिरिक्त, देश में एक सार्वदेशिक भक्ति आन्दोलन का भी सूत्रपात हुआ। इन सारी परिस्थितियों ने हिन्दी साहित्य को गहराई से प्रभावित किया और भक्ति प्रधान काव्य की रचना का नया युग प्रारम्भ हुआ। कबीर, जायसी, सूर, तुलसी आदि विभूतियाँ इसी युग में हिन्दी साहित्य की भाव-भूमि पर अवतरित हुईं। इसी कारण इस काल खण्ड को ‘भक्तिकाल’ नाम दिया गया है।
भक्ति की यह अजस्त्र भागीरथी दो धाराओं में प्रवाहित हुई–
- निर्गुण भक्तिधारा तथा
- सगुण भक्ति धारा। ईश्वर की निराकार रूप में उपासना निर्गुण भक्ति है और उसके अवतारों के रूप में उसकी उपासना सगुण भक्ति है।
भक्ति के संप्रदाय-भक्ति के अनेक संप्रदाय हैं, उनमें से चार वैष्णव संप्रदायों और आचार्यों का परिचय संक्षेप में दिया जा रहा है। ये हैं-श्री, ब्राह्म, रुद्र, सनकादि या निम्बार्क।
श्री संप्रदाय-श्री संप्रदाय के आचार्य रामानुजाचार्य हैं। कहा जाता है कि लक्ष्मी ने इन्हें जिस मत का उपदेश दिया उसी के आधार पर इन्होंने अपने मत का प्रवर्तन किया। इसीलिए इनके संप्रदाय को श्री संप्रदाय कहते हैं। इन्होंने आलवारों की भक्ति को दार्शनिक आधार प्रदान किया एवं शंकराचार्य के अद्वैतवाद का खंडन करते हुए जिस मत की स्थापना की उसे विशिष्टाद्वैतवाद के नाम से जाना जाता है।
ब्राह्म संप्रदाय-ब्राह्म संप्रदाय के प्रर्वतक मध्वाचार्य थे। उनका जन्म गुजरात में हुआ था। चैतन्य महाप्रभु पहले इसी संप्रदाय में दीक्षित हुए थे। इस संप्रदाय का सीधा संबंध हिन्दी साहित्य से नहीं है।
रुद्र संप्रदाय-इसके प्रवर्तक विष्णु स्वामी थे। वस्तुत: यह महाप्रभु वल्लभाचार्य के पुष्टि संप्रदाय के रूप में ही हिन्दी में जीवित है। जिस प्रकार रामानंद ने ‘राम’ की उपासना पर बल दिया था, उसी प्रकार वल्लभाचार्य ने ‘कृष्ण’ की उपासना पर। उन्होंने प्रेमलक्षणा भक्ति ग्रहण की। भगवान के अनुग्रह के भरोसे नित्य लीला में प्रवेश करना जीव को लक्ष्य माना। सूरदास एवं अष्टछाप के कवियों पर इसी संप्रदाय का प्रभाव है।
सनकादि संप्रदाय- यह निम्बाकाचार्य द्वारा प्रवर्तित है। हिन्दी भक्ति साहित्य को प्रभावित करने वाले राधावल्लभी संप्रदाय का संबंध इसी से जोड़ा जाता है। राधावल्लभी संप्रदाय के प्रवर्तक हितहरिवंश का जन्म 1502 ई. में मथुरा के पास बाद गाँव में हुआ था। कहा जाता है कि हितहरिवंश पहले मध्वानुयायी थे। इस सम्प्रदाय में राधा की प्रधानता है।
भाषा काव्यरूप और छंद-भक्ति आंदोलन अखिल भारतीय था। इसका परिणाम यह हुआ कि लगभग पूरे देश में मध्यदेश की काव्य भाषा हिन्दी ब्रजभाषा का प्रचार-प्रसार हुआ। नामदेव यदि अपनी भाषा अर्थात मराठी में और नानक देव पंजाबी में रचना करते थे तो ब्रजभाषा में भी। भक्तिकालीन हिन्दी काव्य की प्रमुख भाषा ब्रजभाषा है। भक्तिकाल की दूसरी भाषा अवधी है, यद्यपि यह ब्रजभाषा जितनी व्यापक नहीं। अवधी में काव्य रचना प्रधानतः रामपरक और अवध क्षेत्र के ही कवियों द्वारा हुई है। हिन्दी के सूफी कवि अवध क्षेत्र के ही थे। भक्ति काल में किसी महान कवि ने शुद्ध खड़ी बोली में कोई रचना नहीं की। उसका मिश्रित रूप सधुक्कड़ी अवश्य मिलता है जो वस्तुत: पंजाबी, राजस्थानी, खड़ी बोली, ब्रज और कहीं-कहीं अवधी को भी पंचमेल है।
भक्ति साहित्य अनेक विधाओं और छंदों में लिखा गया है, किन्तु गेयपद और दोहा-चौपाई उनके प्रधान रूप हैं। गेयपदों की परंपरा हिन्दी में सिद्धों से प्रारम्भ होती है। नानक, नामदेव, कबीर, सूर, तुलसी, मीराबाई आदि ने गेयपदों की परंपरा से सम्बद्ध हैं।
दोहा-चौपाइयों में परंपरा भी सरहपा से मिलने लगती है, जायसी पूर्व अवधी कवियों के भी अनेक काव्य चौपाई-दोहों में मिले हैं। किंतु यह रचनारूपे सूफी कवियों विशेषतः जायसी के हाथों अत्यंत परिष्कृत हुआ। तुलसीदास ने इसे चरमोत्कर्ष पर पहुँचा दिया।
दोहे की परंपरा अपभ्रंश में मिलने लगती है। सरहपाद का दोहा-कोष प्रसिद्ध है। दोहा नाम से आदिकाल में ‘ढोला मारू रा दूहा’ जैसी प्रबंध काव्य भी मिलता है। भक्ति काल में कबीर के दोहे ‘साखी’ के नाम से जाने जाते हैं। तुलसी ने रामकथा ‘दोहावली’ में रची। दोहे का ही एक रूप सोरठा है।
छप्पय, सवैया, कवित्त, भुजंग प्रयात, बरवै, हरिगीतिका आदि भक्तिकाव्य के बहुप्रचलित छंद हैं। सवैया, कवित्त, हिन्दी के अपने छंद हैं जो भक्तिकाव्य में दिखलाई पड़ते हैं। इनकी स्पष्ट परंपरा पहले नहीं मिलती। तुलसीदास ऐसे भक्त कवि हैं, जिनके यहाँ मध्यकाल में प्रचलित प्रायः सभी काव्यरूप मिल जाते हैं। तुलसी ने मंगलकाव्य, नहछु, कलेऊ, सोहर जैसे काव्य रूपों का भी उपयोग किया है। नहछु, कलेऊ विवाह के समय गाए जाने वाले और सोहर पुत्र जन्म के समय गाया जाने वाला गीत है।
आदिकाल में विविध छंदों में प्रबंधकाव्य रचने की प्रवृत्ति थी। उदाहरण के लिए; पृथ्वीराज रासों में छंद बहुत जल्दी-जल्दी बदलते हैं। सूरदास और तुलसीदास भी छंद परिवर्तन करते हैं। किन्तु जल्दी-जल्दी नहीं। केशव की रामचंद्रिका में बहुत जल्दी-जल्दी छंद परिवर्तित हुए हैं।
निर्गुण भक्ति धारा-निर्गुण भक्ति की धारा दो प्रमुख शाखाओं में प्रवाहित हुई-
- ज्ञानाश्रयी शाखा
- प्रेमाश्रयी शाखा।
ज्ञानाश्रयी शाखा
ज्ञानाश्रयी शाखा के कवि सन्त थे। इन पर भारतीय अद्वैत दर्शन का गहरा प्रभाव था। इन्होंने जीव और ब्रह्म की एकता पर बल दिया। माया को अविद्या या अज्ञान का रूप माना जो जीवन को ब्रह्म से विमुख किये हुए है। साधन और प्रेम मार्ग से माया मुक्त होकर जीव परमात्मा से मिलकर तद्रूप हो जाता है। इन सन्तों पर पूर्ववर्ती सिद्ध और नाथ सम्प्रदायों का भी प्रभाव था। रामानुज, मध्वाचार्य, निम्बाकाचार्य, रामानन्द तथा वल्लभाचार्य आदि ने जो भक्ति-पथ प्रदर्शित किया, उसका भी ज्ञानमार्गी सन्त कवियों पर प्रभाव पड़ा था।
ज्ञानमार्गी सन्त कवियों में कबीर सबसे प्रमुख हैं। यह रामानन्द के शिष्य थे। उन्होंने वैष्णव-भक्ति को अपने विचारों में आदरपूर्ण स्थान दिया। कबीर के अतिरिक्त रामानन्द, रैदास, नानकदेव, दादू दयाल, मलूकदास तथा सुन्दरदास आदि अन्य कवियों ने ज्ञानमार्गी भक्ति पद्धति अपनाई और काव्य रचनाएँ।
ज्ञानाश्रयी काव्य शाखा की प्रमुख विशेषताएँ-ज्ञानश्रयी शाखा के कवियों ने जाति-पाँति का विरोध, ईश्वर की एकता, मूर्ति पूजा की निरर्थकता, अवतारवाद का खण्डन, रूढ़ियों और आडम्बर का विरोध, माया के प्रति सतर्कता, नाम स्मरण और गुरु के महत्त्व तथा समाज में व्याप्त कुरीतियों के सुधार पर बल दिया।
इनकी कविता में हठयोग साधना के तत्व हैं तथा रहस्यवादी शैली अपनाई गई है। नारी को माया का रूप माना गया है त्था आत्मा-परमात्मा के बीच प्रेममय सम्बन्ध को श्रृंगारिक प्रतीकों द्वारा प्रस्तुत किया गया है।
ज्ञानाश्रयी काव्य शाखा के प्रमुख कवि
ज्ञानाश्रयी काव्य शाखा के प्रमुख कवियों का परिचय निम्न प्रकार है
नामदेव (जन्म 1267 ई.) 13वीं शताब्दी-इनका जन्म 1267 ई. को महाराष्ट्र के सतारा के नरसी वमनी (बहमनी) गाँव में हुआ था। अपने पैतृक व्यवसाय में इनकी रुचि नहीं थी। अतः बचपन से ही साधुसेवा एवं सत्संग में अपना जीवन बिताते रहे। संत विसोवा खेचर इनके गुरु थे तथा प्रसिद्ध संत ज्ञानेश्वर के प्रति भी इनकी गहरी निष्ठा थी। ऐसा कहा जाता है कि नामदेव पहले सगुणोपासक भक्त थे लेकिन नामदेव के प्रभाव में आकर निर्गुण बह्म की उपासना की ओर प्रवृत्त हुए। मराठी में रचित अभंगों के अतिरिक्त हिन्दी भाषा में भी इनकी रचनाएँ उपलब्ध हैं। सधुक्कड़ी भाषा में रचित इनकी रचनाओं में निर्गुणोपासना, कर्मकांड का खंडन तथा ब्रह्म का स्वरूप निरूपण किया गया है।
जल तरंग अरु फेन बुदबुदा, जलते भिन न होई।
इह परपंचु पारबह्म की लीला, विचरत आन न होई॥
मिथिआ भरमु अरु सुपन मनोरथ, सति पदारथु जानियां।
सकित मनसा गुर उपदेसी, जागत ही मनु मानिया।।
कहत नामदेउ हरि की रचना, देषहु रिदै बीचारी।
घट-घट जंतरि सरब निरन्तरि, केवल एक मुरारी॥
संत नामदेव छीपा दर्जी थे। वे गज, कैंची और सुई धागे के माध्यम से ही भक्ति रहस्य उद्घाटित करते थे। सामान्यजन उनकी आजीविका के कार्य से परिचित थे। अतः उनकी रूपक-योजना को सही ढंग से समझने में वे सक्षम थे।
(1) रामानन्द-रामानन्द सन्त मत के प्रचारक माने जाते हैं। अनुमानतः इनका जन्म 1368 ई. तथा अवसान 1468 ई. के। लगभग माना जाता है। इनके जीवन वृत्त के विषय में अधिक जानकारी उपलब्ध नहीं होती। यह कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे और काशी में वास करते थे। रामानन्द उदार विचार वाले महात्मा थे। कबीर, रैदास, धन्ना, पीपा आदि इनके शिष्य माने जाते हैं। रामानन्द की रचनाओं से उनके उदार विचारों और अंधविश्वासों पर प्रहार के प्रमाण मिलते हैं। रामानन्द किसी भी प्रकार के बाहरी कर्मकाण्ड में विश्वास नहीं रखते थे। रामानन्द सम्प्रदाय का मूल मन्त्र ‘राम’ या ‘सीताराम’ है। रामानन्द ने ऊँच-नीच, अस्पृश्यता आदि का विरोध किया।
(2) कबीरदास-कबीरदास सन्त काव्यधारा के प्रमुख कवि हैं। कबीर का जन्म काशी में सन् 1398 ई. के आसपास माना गया है। कबीर पंथियों के अनुसार कबीर सम्वत् 1455 (सन् 1398) सोमवार ज्येष्ठ पूर्णिमा के दिन प्रकट हुए थे। जनश्रुति के अनुसार वह किसी विधवा ब्राह्मणी के पुत्र थे जो उन्हें लोक लज्जा के कारण लहरतारा नामक तालाब के तट पर छोड़ गई थी। इनका लालन-पालन नीरू और नीमा नामक जुलाहा दम्पत्ति ने किया था। कबीर ने कभी अक्षर ज्ञान प्राप्त नहीं किया किन्तु सन्तों की संगति तथा भ्रमण से उन्होंने जो ज्ञान प्राप्त किया वह उनके काव्य में सर्वत्र विद्यमान है।
कबीर हिन्दू और मुसलमान न होकर एक खरी वाणी बोलने वाले सन्त थे। ये रामानन्द के शिष्य थे। कबीर अन्धविश्वासी और सम्प्रदाय भावना के विरोधी थे। उनका ऊँच-नीच, छूत-अछूत, मूर्तिपूजा, बाहरी आडम्बरों से घोर विरोध रहा। उन्होंने खरी वाणी में समाज में व्याप्त विसंगतियों पर प्रहार किये। कबीर गृहस्थ सन्त थे। उनका सहज उपासना में विश्वास था। गुरु प्रशंसा, नाम महिमा, सत्य, सदाचार, प्रेम, अन्धविश्वासों पर प्रहार, ऊँच-नीच, हिन्दू-मुसलमान में भेदभाव, पाखण्ड, कर्मकाण्ड आदि की आलोचना, यही उनकी कविता के प्रमुख विषय हैं।
रचनाएँ-कबीर के नाम से प्रचलित लगभग साठ रचनाएँ प्राप्त होती हैं। इनमें बीजक ही मान्य कृति है। बीजक के तीन खण्ड हैं-
- साखी,
- सबद तथा
- रमैनी।
कबीर के विचार-कबीर पर पूर्ववर्ती नाथ पंथ, सहज यान, योगमार्ग, वैष्णव भक्ति-भाव, सूफी प्रेमोपासना सभी का प्रभाव है। वह निर्गुण ईश्वर के उपासक हैं किन्तु भावनात्मक स्तर पर उनका ईश्वर साकार प्रतीत होने लगता है। उन्होंने सदाचार, अहिंसा, सादा जीवन, सहज उपासना पर बल दिया।
उनके काव्य पर भारतीय अद्वैतवाद, हठयोग तथा आध्यात्मिक रहस्यवाद का प्रभाव भी स्पष्ट देखा जा सकता है। सूफी प्रेम पद्धति भी भारतीय रंग में रंग कर उनके काव्य में प्रकट हुई है।
कबीर सामाजिक क्षेत्र में भी क्रान्तिदृष्टा हैं। वह ऊँच-नीच, छुआछूत, अन्धविश्वास और कर्मकाण्ड के विरोधी हैं। हिन्दू-मुसलमान के बीच कोई भेद नहीं मानते। आडम्बर और अंधविश्वास पर दोनों को ही फटकार लगाते हैं। मुसलमानों से कहते हैं
“कांकर पाथर जोरि कै, मसजिद लई चिनाय।
ता चढ़ि मुल्ला बाँग दे, क्या बहिरा हुआ खुदाय ॥”
तो हिन्दुओं को कहते हैं।
“पाथर पूजे हरि मिलें, तो मैं पूजू पहार।
ताते यह चाकी भली, पीसि खाई संसार॥”
काव्यगत विशेषताएँ-कबीर स्पष्ट घोषणा करते हैं कि-
“मसि कागज छुऔ नहिं, कलम गही ना हाथ।”
अत: उनके काव्य का कलापक्ष के आधार पर मूल्यांकन उनके साथ अन्याय होगा। उनका भावपक्ष अत्यन्त समृद्ध है। वह भले ही। विद्वान न हों किन्तु बहुश्रुत और ज्ञानी हैं। उनकी मार्मिक उक्तियाँ, उनके हृदयस्पर्शी भाव-चित्र उनके सहृदय कवि होने की घोषणा करते हैं। उनके काव्य का भावपक्ष स्वानुभूत है, इसी कारण वह हृदय को छू लेता है। वह स्पष्ट कहते हैं
“तू कहती कागद की लेखी, मैं कहता आँखिम की देखी।”
आत्मा तथा परमात्मा के प्रेम व्यापार को संयोग और वियोग दोनों रूपों का उन्होंने समस्पर्शी रूप में चित्रण किया है।
उनकी भाषा भले ही अटपटी या पंचमेल हो किन्तु वह भावों की अभिव्यक्ति में पूर्ण समर्थ है। शैली भावात्मक, वर्णनात्मक, रहस्यात्मक, आलोचनात्मक तथा व्यंग्यात्मक आदि रूपों में कथा को संप्रेषणीय बनाती है।
सहज रूप से अनेक अलंकार भी उनके काव्य में आये हैं। यमक, रूपक, सांगरूपक, रूपकातिशयोक्ति आदि के प्रयोग में काव्यपटुता का प्रदर्शन न होकर भाव को बल देने का प्रयास हुआ है।
(3) रैदास-रैदास का भी ज्ञानमार्गी कवियों में महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। कबीर की भाँति रैदास भी भक्ति और प्रेम को ईश्वर की प्राप्ति का साधन मानते हैं। इनके जीवनवृत्त के विषय में कुछ विशेष ज्ञात नहीं हो सका है। यह कबीर के समकालीन माने जाते हैं। कुछ लोग इन्हें मीराबाई का गुरु मानते हैं। यह भी गृहस्थ सन्त थे। आजीवन अपने पैतृक व्यवसाय (चर्मकार्य) में रत रहते हुए आपने काव्य साधना की। कबीर की भाँति यह भी शिक्षित नहीं थे किन्तु बहुश्रुत और विचारक थे। इन्होंने भी बाह्म आचारों और आडम्बरों का खण्डन किया है और सहज उपासना पर बल दिया है। आपकी भाषा कबीर की ही भाँति मिश्रित भाषा है। रैदास के भावों में गहराई तथा विचारों में तार्किकता है। वह भी कबीर की भाँति रूपक के प्रयोग में विशेष रुचि लेते हैं।
(4) नानक-गुरु नानक देव का जन्म 1469 ई. में पंजाब के तलवंडी नामक स्थान पर हुआ था। आप गृहस्थ सन्त थे। बचपन से आपकी रुचि भगवत् भक्ति में थी। आपने घर पर ही संस्कृत, पंजाबी, हिन्दी, फारसी आदि भाषाओं की शिक्षाएँ प्राप्त की। आप सिख धर्म के प्रवर्तक थे। आपने त्याग, उदारता, दानशीलता, मानव सेवा आदि पर बल दिया। आपकी रचनाएँ जो हिन्दी, ब्रजभाषा और पंजाबी में हैं ‘गुरु ग्रन्थसाहब’ में संगृहीत हैं। नानक की भाषा और शैली सरल तथा मर्मस्पर्शी है।
(5) दादू दयाल-इनका जन्म गुजरात में सन् 1544 ई. में हुआ था। यह निर्गुण परमात्मा के उपासक थे। इन पर सूफी प्रेम साधना का पर्याप्त प्रभाव था। यह सन्त, कवि, समाज सुधारक तथा आध्यात्मिक साधक के रूप में विख्याते थे। कह्ते हैं अकबर ने भी इनसे धर्म चर्चा सुनी थी। कुछ लोग इनको ब्राह्मण तथा कुछ मुसलमान बताते हैं। राजस्थान के नरेना नामक स्थान फ्रइनका निवास था। इनका सम्प्रदाय ‘दादू-पन्थ’ के नाम से विख्यात हुआ। इनकी काव्य भाषा अरबी, फारसी मिश्रित खड़ी बोली तथा ब्रजभाषा है।
(6) सुन्दरदास-इनका जन्म राजस्थान के ‘दौसा’ नामक स्थान पर सन् 1596 ई. में हुआ था। ये जाति से खंडेलवाल वैश्य थे। यह छोटी अवस्था में ही संसार से विरक्त हो गये। इन्होंने दादू का शिष्यत्व स्वीकार किया। काशी जाकर इन्होंने दर्शन, साहित्य, पुराण तथा व्याकरण आदि का अध्ययन किया। इनकी रचनाओं पर संस्कृत-साहित्य का प्रभाव है।
उदाहरण-
बालू माहि तेल नाहिं निकसत काहू विधि
x x x
उपदेस औसध सो कौन विध लागै ताहि,
‘सुन्दर’ असाध रोग भयौ जाके मन है।
(7) मलूकदास-इनको जन्म सन् 1574 ई. में इलाहाबाद के कड़ा नामक गाँव में हुआ था। ये खत्री जाति के थे। इनके शिष्य न केवल भारत में अपितु नेपाल तथा काबुल तक में सुने जाते हैं। मलूकदास रचित नौ ग्रन्थों का उल्लेख मिलता है। ज्ञान बोध, रतनखान, अनन्त विरुदावली, भक्त वच्छावली, पुरुषविलास, अलखवाणी आदि इनकी रचनाएँ हैं। इनका प्रसिद्ध दोहा इस प्रकार है
“अजगर करे न चाकरी, पंछी करै ना काम
दास मलूका कह गए, सबसे दाता राम॥”
रज्जब (17वीं शताब्दी)-रज्जब दादू के शिष्य थे। ये भी राजस्थान के थे। इनकी कविता में सुंदरदास की शास्त्रीयता का तो अभाव है, किन्तु पं. हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार “रज्जबदास निश्चय ही दादू के शिष्यों में सबसे अधिक कवित्व लेकर उत्पन्न हुए थे। उनकी कविताएँ भाव संपन्न, साफ और सहज हैं। भाषा पर राजस्थानी प्रभाव अधिक है और इस्लामी साधना के शब्द भी अपेक्षाकृत अधिक हैं।” प्रेम रस को रज्जब ने अपनी कविता में विशेष स्थान दिया है
सबसे निर्मल प्रेम रस, पल-पल पोषै प्राण।
जन रज्जब छाक्या रहै, साधु सन्त सुजान॥
निर्गुण संतो की ज्ञानाश्रयी शाखा के अन्य प्रसिद्ध संत कवि अक्षर अनन्य (जन्म 1653 ई.)जंभनाथ (1451 ई.) सिंगा जी (1519 ई.) और हरिदास निरंजनी (17वीं शती) हैं। कबीर के पुत्र कमाल और प्रमुख शिष्य धर्मदास की गणना इसी परंपरा में होती है। इनमें धर्मदास (16वीं शती) की रचनाओं का संतों में बहुत आदर है। इन्होंने कबीर का शिष्य बनने पर अपनी विशाल संपत्ति लुटा दी। इनकी कविताएँ सरल और प्रेम भावापन्न हैं।
ज्ञानाश्रयी शाखा की प्रमुख प्रवृत्तियाँ ज्ञानेश्रयी शाखा के सभी कवि सन्त थे। उनका मुख्य उद्देश्य काव्य रचना करना नहीं था अपितु कविता के माध्यम से ईश्वर भक्ति और सामाजिक जीवन में सदाचार का प्रचार-प्रसार करना था। इस प्रयास में रत सन्त कवियों की रचनाओं में कुछ सामान्य प्रवृत्तियाँ दृष्टिगोचर होती हैं, जो इस प्रकार हैं
(1) ईश्वर में विश्वास-सभी सन्त ईश्वर के अस्तित्व में पूर्ण विश्वास रखने वाले हैं। उसे निर्गुण, निराकार, इन्द्रियों से परे, किन्तु भक्ति और प्रेम से सहज प्राप्य माना है।
(2) एकेश्वरवादी आस्था-संन्त कवियों ने अवतारों और देवी-देवताओं में अनास्था व्यक्त की है। वे अद्वैतवाद में विश्वास करते हैं। उनका ‘राम’ दशरथ पुत्र राम न होकर निर्गुण परमेश्वर है। जैसा कबीर कहते हैं
दसरथ सुत तिहुँ लोक बखाना।
राम नाम का मरम है आना।
(3) माया से सतर्कता का उपदेश-ईश्वर प्राप्ति के मार्ग में माया को सन्तों ने बाधक माना है और उससे सतर्क रहने का उपदेश भी किया है। माया का स्वरूप त्रिगुणात्मक है। यह अनेक रूपों में मनुष्य को ठगने का प्रयास किया करती है। मनुष्य सहज ही में इसके बाह्य रूप-रंग पर मुग्ध हो जाता है। कबीर का कहना है
“माया दीपक, नर पतंग, भ्रमि-भ्रमि उहै पडत।”
(4) गुरु को अत्यन्त महत्त्व दिया गया है-सभी सन्त कवियों के काव्य में गुरु को अत्यन्त आदर के साथ स्मरण किया गया है। उसे ‘गोविन्द’ (ईश्वर) के समकक्ष बताया गया है। गुरु की कृपा से ही मनुष्य ईश्वर का सानिध्य पा सकता है।
(5) हठयोग के सन्दर्भो की प्रस्तुति–अधिकतर ज्ञानमार्गी सन्तों ने हठयोग की क्रियाओं को एवं उसके पारिभाषिक शब्दों का उल्लेख किया है। इड़ा, पिंगला, सुषमन, कमलादत्त, अमृतबिन्दु, शून्य या ब्रहत्तर आदि ऐसे ही शब्द हैं
“झीनी झीनी बीनी चदरिया।
इंगला पिंगला ताना भरनी सुसमन तार से बीनी चदरिया।
अष्ट कमल दल चरखा डोले, पाँच तत्व गुन तीनी चदरिया॥”
(6) जाति-पाँति, आडम्बर आदि का विरोध-सभी सन्त कवियों ने जाति-पाँति, ऊँच-नीच तथा कर्म के नाम पर प्रचलित आडम्बरों का विरोध किया है। सहज.उपासना पर बल दिया गया है। तीर्थ, व्रत, मूर्तिपूजा, रोजा, नमाज आदि को व्यर्थ बताया गया है।
(7) रहस्यवादी अभिव्यक्ति-ज्ञानमार्गी कवियों ने आत्मा-परमात्मा के सम्बन्ध, ईश्वर के स्वरूप आदि को रहस्यवादी शैली में अभिव्यक्त किया है। प्रतीक विधान और उलटबासियों द्वारा भी इस रहस्य की सृष्टि की गई है।
(8) नाम स्मरण पर बल-सभी सन्त ईश्वर के नाम स्मरण को महत्त्व देते हैं। नाम और राम में वे अन्तर नहीं मानते। शुद्ध मन से ईश्वर का नाम लेकर ही मनुष्य मोक्ष पा सकता है। ऐसा सन्त कवियों का विश्वास रहा है।
(9) समाज सुधार की प्रवृत्ति-सन्त स्वयं विरक्त होकर भी समाज के कल्याण को नहीं भूले हैं। उन्होंने सदाचार पर बल देते हुए अन्धविश्वासों और रूढ़ियों पर प्रहार किया है। सभी सन्त कवि गृहस्थ रहे हैं। सन्तों ने धार्मिक और साम्प्रदायिक समरसता का प्रचार किया
(10) भाषा-शैलीगत प्रवृत्ति-सन्तों की भाषा सधुक्कड़ी या पंचमेल है। उसमें अभिव्यक्ति सरस है और भावानुसार वह उपदेशात्मक, व्यंग्यात्मक, आलोचनात्मक एवं खण्डन-मण्डन युक्त होती रही है।
निर्गुण प्रेमाश्रयी शाखा।
भक्ति आंदोलन इतना व्यापक एवं मानवीय था कि इसमें हिन्दुओं के साथ मुसलमान भी आए। सूफी यद्यपि इस्लाम मतानुयायी हैं, किन्तु अपने दर्शन एवं साधना पद्धति के कारण सूफी भक्ति का प्रवेश इस देश में 12 वीं शती में मुईनुद्दीन चिश्ती के समय से माना जाता है।
सूफी साधना के चार संप्रदाय प्रसिद्ध हैं।
- चिश्ती
- सोहरावर्दी
- कादरी
- नक्शबंदी
मुल्ला दाउद (1379 ई.) हिन्दी के प्रथम सूफी कवि हैं। सूफी कवियों की परंपरा 19वीं शती तक मिलती है। हिन्दी का सूफी काव्य अवधी भाषा में रचित है। सूफी मुसलमान थे लेकिन उन्होंने हिन्दू घरों में प्रचलित कथा-कहानियों को अपने काव्य का आधार बनाया। उनकी भाषा और वर्णन में भारतीय संस्कृति रची-बसी है। प्रेम की पीर की व्यंजना इनकी विशेषता है।
हिन्दी में प्रेम मूलक लोक गाथाओं को आधार बनाकर अनेक प्रेमाख्यानों की रचना हुई है। प्रेम को ईश्वर प्राप्ति का साधन मानने के कारण इस काव्य परम्परा को प्रेमाश्रयी शाखा कहा गया है। इसकी मूल कथाएँ भारतीय हैं और उनके पात्र प्रायः प्रतीकात्मक हैं। इन काव्यों पर सूफी प्रेम-पद्धति या उपासना का भी प्रभाव है।
प्रमुख प्रेमाख्यान-प्रेमाख्यान-काव्यों की परम्परा में प्रमुख रचनाएँ इस प्रकार हैं
- हंसावली-इसके रचयिता’ असाइत’ नामक कवि हैं। इसकी कथा ‘वैताल-विक्रम’ की कथा से ली गई है। नायक अनेक कष्टों को सहन करके पाटण की राजकुमारी हंसावली को प्राप्त करता है।
- चन्दायन या चान्दायन-इसके रचयिता मुल्ला दाऊद हैं। इसका नायक. लोरिक और नायिका चन्दा है। यह भारतीय प्रेमाख्यानों की रूढ़ियों से युक्त है।
- मृगावती-इसके रचयिता कुतुबन हैं। दोहा, चौपाई शैली में रचित इस कथा में नायक के साहसिक कार्यों का वर्णन है। नायक की मृत्यु पर नायिका का सती होना दिखाया गया है। भाषा अवधी है।
- माधवानल कामकन्दला-इसमें नायक माधव तथा नर्तकी कामकन्दला की प्रेमकथा वर्णित है। नायक अनेक कठिनाइयों के पश्चात् नायिका को प्राप्त करता है।
- पद्मावत-यह हिन्दी का सर्वश्रेष्ठ प्रेमाख्यान-काव्य है। इसके रचयिता मलिक मोहम्मद जायसी हैं। इसमें चित्तौड़ के राजा रत्नसेन और सिंहल द्वीप की राजकुमारी पद्मावती की प्रेमकथा वर्णित है। हीरामन नामक तोते से पद्मावती के रूप का वर्णन सुनकर रत्नसेन योगी बनकर निकल पड़ता है। अनेक कष्टों और बाधाओं को सहन करके वह पद्मावती को प्राप्त करता है।
काव्य के उत्तरार्द्ध में सुल्तान अलाउद्दीन और रत्नसेन के बीच हुए युद्ध में रत्नसेन वीरगति को प्राप्त होता है और पद्मावती तथा पहली रानी नागमती सती हो जाती हैं। इस महाकाव्य को जायसी ने एक रूपक के रूप में प्रस्तुत किया है। सूफी मत का प्रभाव भी स्थान-स्थान पर दिखाई पड़ता है।
कवित्व की दृष्टि से पद्मावत श्रेष्ठ महाकाव्य है। प्रसंग योजना, प्रकृति वर्णन, रोमांचक युद्ध, विवाह, वियोग वर्णन आदि कवि की बहुश्रुतता प्रमाणित करते हैं।
प्रेमाश्रयी शाखा के प्रमुख कवि
मुल्ला दाउद (14वीं शताब्दी)-मुल्ला दाउद या मौलाना दाउद की रचना ‘चंदायन’ से सूफी प्रेमाख्यानक काव्य परंपरा का आरम्भ माना जाता है। चंदायन का रचना काल 1379 ई. है। मुल्ला दाउद रायबरेली जिले में डलमऊ के थे। वहीं चंदायन की उन्होंने रचना की थी। यह काव्य बहुत लोकप्रिय एवं सम्मानित था। दिल्ली के मखदूम शेख तकीउद्दीन रब्बानी जन-समाज के बीच इसका पाठ किया करते थे। चंदायन पूर्वी भारत में प्रचलित लौरिक, उसकी पत्नी मैना और उसकी विवाहिता प्रेमिका चंदा की प्रेमकथा पर आधारित है। बीच-बीच में चंदा को इस काव्य में भी पद्मावत की भाँति अलौकिक सत्ता का प्रतीक बनाया गया है। चंदायन की भाषा परिष्कृत अवधी है जिससे लगता है कि 14वीं शताब्दी तक अवधी काव्य-भाषा के रूप में परिष्कृत और प्रतिष्ठित हो चली थी। चंदायन के छंद से ऍक दोहा उद्धृत है
पियर पात जस बन जर, रहेउँ काँप कुंभलाई।
विरह पवन जो डोलेउ, टूट परेउँघहराई॥
कुतुबन (15-16वीं शताब्दी)-कुतुबन चिश्ती वंश के शेख बुरहान के शिष्य थे और जौनपुर के बादशाह हुसैनशाह के आश्रित थे। चौपाई-दोहे के क्रम में कुतुबन ने ‘मृगावती’ की रचना 1503-04 ई. में की थी। ये सोहरावर्दी पंथ के ज्ञात होते हैं। इसमें चंदनगर के राजा गणपति देव के राजकुमार और कंचनपुर के राजा रूपमुरारि की कन्या मृगावती की प्रेम कथा का वर्णन है। इसमें नायक मृगी रूपी नायिका पर मोहित हो जाता है और उसकी खोज में निकल पड़ता है। अन्त में शिकार खेलते समय सिंह द्वारा मारा जाता है। यह रचना अनेक कथानक रूढ़ियों से युक्त है। इसकी भाषा प्रवाहमयी है। इस काव्य की परिणति शांत रस में दिखाई गई है-
रूकमिनि पुनि वैसहि मरि गई। कुलवंति सत सो सति भई॥
बाहर वह भीतर वह होई घरे बाहर को रहै न जोई॥
बिधि कर चरित न जानै आनू। जो सिरजा सो जाहि निआनू॥
(2) मलिक मोहम्मद जायसी
जीवन-परिचय-जायसी का पूरा नाम मलिक मुहम्मद जायसी था। जायस में निवास करने के कारण वह ‘जायसी’ उपनाम पा गये। जायसी ने स्वयं भी कहा है
“जायस नगर धरम अस्थानू।।
तहाँ आई कवि कीन्ह बखानू॥”
जायसी का जन्म सन् 1492 ई. में हुआ था। इनका लालन-पालन इनके नाना के यहाँ हुआ था। आपके ग्रन्थों से ज्ञात होता है कि आप शिक्षित और बहुश्रुत थे। शेख मेहदी और मुबारक शाह आपके दीक्षा गुरु रहे। जायसी उदार-हृदय सन्त थे। आपकी दृष्टि में हिन्दू-मुसलमान में कोई भेद न था। आपने हिन्दू आख्यानों को अपने ग्रन्थों का विषय बनाया। आपके शिष्यों और भक्तों में हिन्दू और मुसलमान दोनों ही थे। जायसी बड़े स्वाभिमानी और तेजस्वी सन्त थे। चेचक के कारण आपका एक कान और एक आँख जाती रही थी।
मुख भी कुरूप हो गया था। एक बार ये तत्कालीन बादशाह शेरशाह के दरबार में गये तो बादशाह और दरबारी इनको देखकर हँस पड़े। इस पर जायसी ने पूछा, “मोह कहँ हसेसि कै कोहरहिँ” (मुझ पर हँस रहे हो या मुझे बनाने वाले कुम्हार परमेश्वर पर)। इस पर बादशाह बड़ा लज्जित हुआ और क्षमा माँगी। अमेठी नरेश रामसिंह की आप पर बड़ी श्रद्धा थी। आपके ही आशीर्वाद से राजा को पुत्र-प्राप्ति हुई थी, ऐसा विश्वास है। जायसी ने भविष्यवाणी की थी कि उनकी मृत्यु शिकारी के बाण से होगी। अमेठी नरेश ने काफी सुरक्षा-प्रबन्ध किया परन्तु जायसी शिकारी के बाण से ही परलोकवासी हुए। आपकी मृत्यु सन् 1552 ई. में हुई मानी जाती है।
रचनाएँ-आपकी अनेक रचनाएँ बतायी जाती हैं। सर्वसम्मत रचनाएँ निम्नलिखित हैं
- पद्मावत-यह महाकाव्य जायसी की काव्य-प्रतिभा का सर्वोत्तम प्रतिनिधि है।
- इसमें चित्तौड़ के राजा रत्नसेन और सिंहल द्वीप की राजकुमारी पद्मावती की प्रेमकथा वर्णित है।
- कवि ने कथानक इतिहास से लिया है परन्तु प्रस्तुतीकरण सर्वथा काल्पनिक है।
- भाव और कलापक्ष, दोनों ही दृष्टियों से यह उत्कृष्ट रचना है।
- अखरावट-इसमें सृष्टि की रचना को वर्थ्य-विषय बनाया गया है।
- आखिरी कलाम-इस ग्रन्थ में इस्लामी मान्यता के अनुसार प्रलय का वर्णन है।
- चित्ररेखा-यह भी एक प्रेमकथा है, किन्तु ‘पद्मावत’ की तुलना में यह एक द्वितीय श्रेणी की रचना है।
इनके अतिरिक्त ‘महरी बाईसी’ तथा ‘मसलानामा’ भी आपकी ही रचनाएँ मानी जाती हैं, परन्तु जायसी की प्रसिद्धि का आधार तो ‘पद्मावत’ महाकाव्य ही है।
मंझन (16वीं शताब्दी)-मंझन ने 1545 ई. में मुधमालती की रचना की। मुधमालती नाम की अन्य रचनाओं का भी पता चलता है, लेकिन मंझन कृत मधुमालती जायसी के पद्मावत के पाँच वर्ष बाद रची गई। जायसी ने अपने पूर्ववर्ती सूफी प्रेमाख्यानक ग्रंथों का उल्लेख करते हुए जिस मुधमालती का नाम लिया है, मंझन की रची हुई नहीं है। इस ग्रंथ में कनेसर नगर के राजा सूरजभान के पुत्र राजकुमार मनोहर का महारस नगर की राजकुमारी मधुमालती के साथ प्रेम और पारस्परिक वियोग की कथा है। इसमें इस प्रेम कथा के समानांतर प्रेमा और ताराचंद की भी प्रेमकथा चलती है। मधुमालती में नायक को अप्सराएँ उड़ाकर मधुमालती की चित्रसारी में पहुँचा देती हैं, वहीं नायक, नायिका को देखता है एवं दोनों के बीच प्रेम पनपता है। मंझन ने इस कथा में प्रेम का उच्च आदर्श सामने रखा है। सूफी काव्यों में नायक की प्राय: दो पत्नियाँ होती हैं किन्तु इसमें मनोहर अपने द्वारा उपकृत प्रेमा से बहन का संबंध स्थापित करता है। इसमें जन्म-जन्मांतर के बीच प्रेम की अखंडता प्रकट की गई है। इस दृष्टि से इसमें भारतीय पुनर्जन्मवाद की बात कही गई है, जबकि इस्लाम पुनर्जन्मवाद को नहीं मानता। लोक के वर्णन के द्वारा अलौकिक सत्ता का संकेत सभी सूफी काव्यों के समान इसमें भी पाया जाता है, जैसे-
देखत ही पहिचानेक तोंही। एही रूप जेहि छैदरयों मोहीं॥
एही रूप बुत अहै छपाना। एही रूप रब सृष्टि समाना॥
एही रूप सकती औ सीऊ। एही रूप त्रिभुवन कर जीऊ॥
एही रूप प्रगटे बहु भेसा। एही रूप जग रंक नेरसा॥
उसमान16-17 वीं शताब्दी)-उसमान कवि की चित्रावली’ सन 1613 ई. में लिखी गई थी। ये जहाँगीर के समय में विद्यमान थे और गाजीपुर के रहने वाले थे। इनके पिता का नाम शेख हुसैन था और ये पाँच भाई थे। इन्होंने अपना उपनाम ‘मान’ लिखा है। ये शाह निजामुद्दीन चिश्ती की शिष्य परंपरा में हाजीबाबा के शिष्य थे। चित्रावली का कथानक कल्पनाश्रित है। इसमें नेपाल के राजकुमार सुजान एवं रूपनगर की राजकुमारी चित्रावली के साथ विवाह वर्णन अत्यंत सरस रूप में हुआ है। रचनाकार अपने रचनाविधान में जायसी से प्रभावित रहा है। जायसी की ही पद्धति पर नगर, सरोवर, यात्रा, दान महिमा आदि का वर्णन चित्रावली में भी है। इसमें सूफी और सूफी प्रेमाख्यानक इतर काव्य की परंपराओं और काव्य रूढ़ियों का सुंदर प्रयोग हुआ है। इस काव्य में विरह वर्णन के अंतर्गत षड्ऋतु का वर्णन सरल एवं मनोहर है
ऋतु बसंत नौतन बन फूला। जहँ जहँ भौंर कुसुग रंग भूला॥
आहि कहाँ सो भंवर हमारा। जेहि बिनु बसत बसंत उजारा॥
रात बरन पुनि देखि न जाईं। मानहूँ दवा देहुँ दिसि लाईं॥
रतिपति दूर व ऋतुपति बली। कानन देह आई दलमली॥
इसके अतिरिक्त सूफी काव्य परंपरा के अन्य उल्लेखनीय कवि और काव्य इस प्रकार हैं-शेख नबी ने 1619 ई. में ‘ज्ञानद्वीप नामक काव्य लिखा। कासिम शाह ने 1731 ई. में ‘हंस जवाहिर’ रचा। नूर मुहम्मद ने 1744 ई. में ‘इंद्रावती’ और 1764 ई. में ‘अनुराग
बाँसुरी’ लिखी। अनुराग बाँसुरी में शरीर, जीवात्मा और मनोवृत्तियों को लेकर रूपंक बाँधा गया है। इन्होंने चौपाइयों के बीच में दोहे न रखकर बरवै रखे हैं।
सगुण भक्ति धारा
हिन्दी काव्य की सगुण भक्ति की धारा दो शाखाओं में प्रवाहित हुई है-
- राम भक्ति शाखा तथा
- कृष्णभक्ति शाखा।
रामभक्ति शाखा-राम भक्त कवियों ने इष्टदेव राम के चरित्र को आधार बनाकर काव्य-रचना की है। राम मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। वह धर्म की रक्षा के लिए और असुरों के संहार के लिए अवतार ग्रहण करते हैं। अधिकांश रामभक्त कवियों ने दास्यभाव की भक्ति स्वीकार की है। रामभक्ति शाखा के प्रमुख कवि तुलसीदास हैं। आपका विश्व प्रसिद्ध काव्य-ग्रन्थ ‘रामचरितमानस’ है। अन्य राम भक्त कवि रामानन्द, नाभादास, केशवदास तथा सेनापति हैं।
रामभक्ति शाखा के प्रमुख कवि
रामानंद-रामानंद का जन्म 1300 ई. के आसपस काशी में हुआ था और श्री वैष्णव संप्रदाय के आचार्य राघवानंद से इन्होंने दीक्षा ग्रहण की थी। रामानंद ने भक्ति को शास्त्रीय मर्यादा के बंधन से मुक्त माना। जाति और वर्ण के भेदभाव से ऊपर उठकर भक्ति को जनसामान्य से जोड़ने का प्रयत्न किया। इसलिए रामानंद की शिष्य परंपरा का संबंध रामभक्ति शाखा के तपसी और उदासी संप्रदाय से जोड़ा जाता है, वहीं निर्गुण भक्ति के ज्ञानमार्गी परंपरा से भी उनका संबंध संकेतित किया जाता है। राम को अपना आराध्य स्वीकार करते हुए रामानंद ने गाया-‘जाति-पाँति पूछे नहिं कोई। हरि को भजै सो हरि का होई।’ भक्तमाल में रामानंद के शिष्यों की सूची इस प्रकार दी हुई है-
अनंतानंद कबीर सुखा सुरसुरा पदमावति नरहरि।
पीपा भावानंद रैदास धना सेन सुरसुर की धरहरि।।
विष्णुदास-विष्णु दास ग्वालियर नरेश डूंगरेन्द्र (सन् 1424 ई.) के राजकवि थे। इनकी कई पुस्तकों का उल्लेख मिलता है, किन्तु उनमें से ‘रामायण कथा’ को प्रमाणिक माना जाता है। इसे रामकथा से संबंधित हिन्दी का प्रथम काव्य कहना अत्युक्तिपूर्ण नहीं होगा। इस पुस्तक का रचना काल सन् 1442 ई. है। निम्नलिखित उदाहरण से स्पष्ट होता है कि इसकी भाषा प्रसाद गुणयुक्त है। राम वियोग के कारण सीता की मानसिक-शारीरिक दशा का आलंकारिक वर्णन कवि ने इस प्रकार किया है
रावण सीता देखी ऐसी। वन मँह बेलि फूल बिनु जैसी।
सब अभरण सिंगार विहीन। कंत वियोग दई दुख दीन।
जिसै मेघ मँह पैठहि मेह। तिसै देह यौं टॅकति देह॥
अग्रदास-रामभक्त कवियों में अग्रदास का नाम प्रमुख है। ये रामानंद की शिष्य परंपरा में हुए कृष्णदास पयोहारी के शिष्य थे। कृष्णदास पयोहारी ने जयपुर के समीप गलता नामक स्थान में रामानंद संप्रदाय की जो गद्दी स्थापित की, उससे अग्रदासे जुड़े थे। गलता की गद्दी पर परवर्ती काल में जो शिष्य बैठे, उन्होंने भी भक्ति साहित्य की विपुल मात्रा में रचना की। अग्रदास 1556 ई. के लगभग विद्यमान थे। अग्रदास ने रामभक्ति को कृष्ण भक्ति के लोकानुरंजन के समीप लाने का प्रयत्न किया। रामभक्ति परंपरा में रसिक भावना के समावेश का श्रेय इन्हीं को प्राप्त है।
ईश्वरदास-तुलसी से पूर्व के रामकाव्य परंपरा में ईश्वरदास का नाम भी स्मरणीय है। ये सिकन्दर लोदी के समय में विद्यमान थे। इनकी रचना ‘सत्यवती कथा’ (1501 ई.) के आधार पर ईश्वरदास का जन्मकाल निर्धारित किया जाता है। रामकथा से संबंधित इनकी तीन रचनाएँ मिलती हैं- ‘रामजन्म’, ‘अंगदपैज’ और ‘ भरत मिलाप’। इनके अतिरिक्त स्वर्गारोहिणी कथा एवं एकादशी कथा भी इनकी रचनाएँ हैं। भरत मिलाप इनकी प्रसिद्ध रचना है। भरत की अनुपस्थिति में माता-पिता की आज्ञा से राम का वनगमन, ननिहाल से लौटने पर यह समाचार सुनकर भरत का दु:खी होना एवं प्रजा के साथ राम से मिलने वन में पहुँचना आदि की कथा का करुणापूर्ण वर्णन कवि ने किया है। अंगदपैज’ में कवि ने रावण की सभा में अंगद के पैर जमाकर डट जाने का वीररस पूर्ण वर्णन किया है। इनकी भक्ति से जुड़ी एक पद है जिसमें उन्होंने राम से दया करने की प्रार्थना की है
रामनाम कवि नरक नेवारा। तेहि सेवा मनु लागु हमारा।
संख, चक्र धरू सारंग पानी। दया करहु कछु कहाँ बखानी॥
(3) तुलसीदास
यदि भक्ति काल के काव्य का समस्त वैभव एक साथ देखना हो तो गोस्वामी तुलसीदास के काव्य का अनुशीलन करना होगा। उनका ‘मानस’ भक्ति के रस से तो पूर्ण है ही, साथ ही उसमें लोकाचार, समाज नीति, राजनीति तथा धर्म का आदर्श रूप भी प्रतिबिम्बित हुआ है।
(1) जीवन-परिचय-महाकवि तुलसीदस का जन्म सन् 1497 ई. में राजापुर जिला बाँदा में माना जाता है। कुछ विद्वान इनका जन्म सारों (एटा) में मानते हैं। पिता का नाम श्री ‘आत्माराम’ और माता का नाम ‘हुलसी’ था। कहते हैं कि इनका जन्म अभुक्त मूल नक्षत्र में हुआ था जो अशुभ माना जाता है। अत: माता-पिता ने इन्हें त्याग दिया। इस प्रकार बाल्यकाल में तुलसी को अत्यन्त कष्ट उठाना पड़ा। सौभाग्य से इधर-उधर भटकते हुए इस अनाथ बालक की भेंट बाबा नरहरिदास से हो गयी। तुलसीदास ने इन्हीं बाबा से शिक्षा प्राप्त की और गुरु-मन्त्र लिया। गोस्वामीजी की योग्यता, नम्रता व शिष्ट व्यवहार से प्रभावित होकर ‘दीनबन्धु’ पाठक ने अपनी पुत्री ‘रत्नावली’ का विवाह इनके साथ कर दिया। तुलसीदासजी को अपनी पत्नी से इतना प्यार था कि एक दिन जब वह उनकी अनुपस्थिति में अपने मायके चली गयीं तो वे भी चढ़ी हुई नदी पार कर अपनी पत्नी के पास पहुँच गये। पत्नी ने धिक्कारते हुए इनसे कहा
“अस्थि चर्ममय देह मम, तामें जैसी प्रीति।।
तैसी जो श्री रम में, होति न तौ भवभीति॥”
इस फटकार को सुनकर तुलसी के दिव्य चक्षु खुल गये। वे संसार को छोड़कर रामभक्ति में लीन हो गये और काशी चले गये। वहाँ रहकर शास्त्रों का अध्ययन किया। भारत के प्रमुख तीर्थस्थलों की यात्रा कर विद्वानों से, सन्त पुरुषों से भेंट की। काशी में रहकर आपने अनेक ग्रन्थ लिखे। सन् 1623 ई. (संवत् 1680) में आपका स्वर्गवास हो गया। आपकी मृत्यु के सम्बन्ध में निम्न दोहा प्रसिद्ध है
“सम्वत् सोलह सौ असी, असी गंग के तीर
श्रावण शुक्ला सप्तमी, तुलसी तज्यौ शरीर॥”
कृतियाँ-भक्त-शिरोमणि तुसलीदास ने अनेक काव्य-ग्रन्थों की रचना की है। इनका संक्षिप्त परिचय निम्न प्रकार है
(क) रामचरितमानस-यह तुलसीदासजी का विश्व-प्रसिद्ध महाकाव्य है। इसमें आपने सभी शास्त्रों, पुराणों आदि का सार लेकर भगवान राम की कथा का वर्णन किया है। मानव-जीवन के सभी आदर्श इस ग्रन्थ में प्रस्तुत किये गये हैं। भारतीय संस्कृति, दर्शन और धर्म का यह कोष है।
(ख) विनय-पत्रिका-तुलसी की दूसरी श्रेष्ठ काव्य रचना ‘विनय-पत्रिका’ है। यह छोटा ग्रन्थ है। यह पद शैली में रचा गया है। जगज्जननी सीता को सम्बोधित करके एक पत्रिका के रूप में इसकी रचना हुई है। इसमें तुलसीदासजी की भक्ति-भावना तथा उनके दार्शनिक विचारों का स्वरूप देखने को मिलता है।
(ग) कवितावली-कवित्त तथा सवैया छन्दों में रचित यह रचना संक्षेप में रामचरित को ही प्रस्तुत करती है। इसकी भाषा बड़ी मधुर और ललित ब्रजी है।
(घ) गीतावली-इसकी रचना पदों में हुई है। इसमें भी रामचरित के मार्मिक प्रसंगों का भावुकतापूर्ण शैली में वर्णन है।
(ङ) बरवै रामायण-बरवै छन्द में संक्षिप्त ‘रामकथा’ इस ग्रन्थ में वर्णित है। अवधी भाषा का प्रयोग हुआ है।
अन्य रचनाएँ-इनके अतिरिक्त ‘वैराग्य-संदीपनी’, ‘रामलला नहछू’, ‘दोहावली’, ‘पार्वती-मंगल’ आदि अनेक रचनाएँ तुलसीदास की लेखनी से जन्मी हैं।
रामभक्ति शाखा के अन्य कवि
- नाभादास-नाभादास, तुलसी के समकालीन कवि हैं। आपने भक्तमाल’ की रचना करके अनेक कवियों का परिचय प्रस्तुत किया है। एक कवि पर एक छप्पय की रचना करके उसका पूरा परिचय प्रस्तुत किया है। नाभादास ने ‘अष्टयाम’ तथा रामभक्त सम्बन्धित फुटकर पद भी रचे हैं।
- केशवदास-इनका जन्म सन् 1555 ई. में हुआ था। यह ओरछा के राजा इन्द्रजीत सिंह के राजकवि थे। आपका प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘रामचन्द्रिका’ है। केशव को अनेक विद्वानों ने हृदयहीन कवि कहा है। संवाद लेखन में केशव अत्यन्त पटु हैं। आपकी अन्य रचनाएँ ‘कविप्रिया’, ‘रसिकप्रिया’, ‘विज्ञान गीता’, ‘रतनावली’, ‘जहाँगीर जस चन्द्रिका’ तथा ‘वीरसिंह देव चरित’ हैं।
- सेनापति–इनका जन्म 1589 ई. के लगभग माना गया है। ‘कवित्त रत्नाकर’ में आपने रामचरित से सम्बन्धित सुन्दर कवित्तों की रचना की है। सेनापति प्रकृति वर्णन के लिए भी प्रसिद्ध हैं।
कृष्णभक्ति शाखा,
राम भक्ति के प्रचार-प्रसार के साथ ही कृष्ण के लोक रंजनात्मक स्वरूप की भक्तिधारा भी भक्ति काल में प्रवाहित हो रही थी। कृष्णभक्ति पर आधारित अनेक सम्प्रदाय राधावल्लभ सम्प्रदाय, हरिदासी या सखी सम्प्रदाय तथा चैतन्य महाप्रभु का सम्प्रदाय आदि हैं। कृष्णभक्ति शाखा के सर्वश्रेष्ठ कवि सूरदास हैं। आप पुष्टिमार्ग में दीक्षित थे। आपने श्रीकृष्ण की बाललीलाओं, भक्तिभाव तथा रूप सौन्दर्य का अनुपम वर्णन किया है। आपका प्रसिद्ध काव्य संग्रह ‘सूरसागर’ है। इनके अतिरिक्त नन्ददास भी इस सम्प्रदाय के श्रेष्ठ कवि हैं। अन्य सम्प्रदायों के भक्त कवियों ने जो काव्य रचना की है उनमें साम्प्रदायिक विचारों, सेवा पद्धति तथा नैतिक उपदेशों की प्रधानता है।
इन कवियों के अतिरिक्त मीरा और रसखान कृष्णभक्ति कान की अनन्य विभूतियाँ हैं। इनकी रचनाएँ भक्तिगत तन्मयता एवं भाव विभोरता से अभिसिंचित हैं।
कृष्णभक्ति शाखा के प्रमुख कवि
निम्बार्काचार्य (12-13 वीं शताब्दी)-निम्बार्क देव कृष्ण को अथवा वासुदेव को सर्वोपरि परब्रह्म मानते हैं-सत्, चित और आनन्द से सम्पन्न। जो राधा भागवत में अनुपस्थित हैं वे निम्बार्क में महत्त्वपूर्ण स्थान पर हैं। इससे कृष्णभक्ति काव्य को नई गतिशीलता प्राप्त हुई। प्राय: कहा जाता है कि कृष्णभक्ति काव्य को नई दिशा में अग्रसर करने का श्रेय वल्लभाचार्य को ही है।
वल्लभाचार्य (15-16 शताब्दी)–वल्लभाचार्य ने कृष्णभक्ति धारा की दार्शनिक पीठिका तैयार की और देशाटन करके इस भक्ति को प्रचार किया। श्रीमद्भागवत के व्यापक प्रचार से माधुर्य भक्ति का जो चौड़ा रास्ता खुला उसे वल्लभाचार्य ने अपने दार्शनिक प्रतिपादन और प्रचार से सामान्य जन के लिए सुलभ बनाया। वल्लभाचार्य का जन्म 1477 ई. में और देहांत 1530 ई. में हुआ था।
अष्टछाप-वल्लभाचार्य ने विशिष्टाद्वैतवादी पुष्टिमार्ग की स्थापना की थी। आगे चलकर उनके पुत्र विठ्ठलनाथ ने अष्टछाप कवियों की परिकल्पना की, जिन्हें कृष्णसखा भी कहा गया। इनमें चार वल्लभाचार्य के शिष्य हैं- सूरदास, कुंभनदास, परमानंददास और कृष्णदास। विट्ठलनाथ के शिष्य हैं-नंददास, गोविन्दस्वामी, छीतस्वामी और चतुर्भजदास। वल्लभ संप्रदाय में अष्टछाप कवियों का विशेष स्थान है।
(4) सूरदास
सूर भक्ति-युग की माला के सुमेरु हैं। उन्होंने निराशा से मूर्च्छित समाज को कृष्ण काव्य की मधुर संजीवनी पिलाकर आश्वस्त किया। इस नेत्रहीन कवि ने कृष्ण के मोहक स्वरूप की जो भावमयी झाँकियाँ प्रस्तुत की हैं, वे नेत्रवानों के लिए भी श्रद्धा और विस्मय का विषय बनी हुई हैं।
(1) जीवन-परिचय-महात्मा सूरदास के जन्म आदि के विषय में विद्वान एकमत नहीं हैं किन्तु अनेक विद्वान इनका जन्म सन् 1478 ई. के लगभग मानते हैं। इनके जन्म-स्थान के विषय में मतभेद हैं। कुछ विद्वानों के मतानुसार यह स्थान ‘रुनकता’ (मथुरा-आगरा सड़क के किनारे स्थित एक ग्राम) है। अन्य लोगों के मतानुसार यह स्थान ‘सीही’ है जो दिल्ली के निकट वर्तमान वल्लभगढ़ के पास है। वल्लभाचार्य के शिष्य होने से पूर्व सूरदासजी जन्मान्ध थे परन्तु इसका कोई प्रमाण नहीं मिलता। इतना अवश्यं है कि वे नेत्र विहीन थे। इस महान् कवि की मृत्यु 1583 ई. में हुई। इनका शरीरान्त गोवर्धन (जिला मथुरा) के निकट ‘पारसौली’ में हुआ था। मृत्यु के समय सूरदासजी निम्न पद गा रहे थे
खंजन नैन रूप रस माते।
अतिशय चारु चपल अनियारे, पल पिंजरा न समाते॥”
(2) कृतियाँ-सूरदास की सर्वमान्य रचनाएँ तीन हैं जिनका संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है
(क) सूरसागर-यही सूरदास की सर्वश्रेष्ठ रचना है। इसमें श्रीमद्भागवत के बारहवें स्कन्ध का आधार लेकर श्रीकृष्ण भगवान् की सरल लीलाओं का वर्णन है।’ भ्रमरगीत’ सूरसागर का अति मनोरम प्रसंग है जिसमें वियोगिनी गोपियों के मार्मिक उद्गार व्यक्त हुए।
(ख) सूर-सारावली-इसमें सूरसागर के ही हुछ पदों का संग्रह है। कुछ विद्वान इसे सूरसागर की सूची मानते हैं।
(ग) साहित्य-लहरी-यह रचना सूर के कवित्व-वैभव की परिचायिका है। रस, अंलकार, भाषा और शैली का अद्भूत चमत्कार इनके पदों में मिलता है। सूर के प्रसिद्ध ‘कूट-पद’ इसी रचना में प्राप्त होते हैं।
काव्यगत विशेषताएँ–(क) कलापक्षीय विशेषताएँ
(1) वात्सल्य वर्णन-सूर वात्सल्य रस के सम्राट कहे जाते हैं। बाल जीवन के हर पक्ष की मनोहारी छवियाँ उन्होंने प्रस्तुत की हैं। बाल क्रीड़ाओं, बाल चेष्टाओं, बालहठ आदि का सूक्ष्म पर्यवेक्षण सूर के पदों में पग-पग पर विद्यमान है। पालने में झूलते कृष्ण का एक चित्र दर्शनीय है-
“जसोदा हरि पालने झुलावै।
हलरावै दुलरायै, मल्हावै, जोइ सोइ कछु गावै।
मेरे लाल को आउ निंदरिया, काहे न आनि सुवावै।
कबहुँ पलक हरि मुँदि लेत हैं, कबहुँ अधर फरकावै।”
(2) श्रृंगार-वर्णन-सूर ने श्रृंगार-वर्णन में भी अपनी प्रतिभा का कौशल प्रदर्शित किया है। वैसे श्रृंगार के दोनों ही पक्ष वैविध्य और मनोहारिता से पूर्ण हैं किन्तु विप्रलम्भ श्रृंगार की आयोजना में सूर की वृत्ति अधिक रमी है। राधा और कृष्ण के प्रथम मिलन की झाँकी दर्शनीय है
बूझत स्याम कौन तू गोरी।
कहाँ रहति, काकी है, बेटी, देखी नाहिं कबहुँ ब्रज खोरी॥”
केवल राधा ही नहीं, ब्रज की हर युवती श्रीकृष्ण के रूप-रस की चातकी बनी हुई है। घर से दधि बेचने निकली गोपी की दशा भी रोचक है। वह तो यह भी भूल गयी है कि वह क्या बेचने निकली है
दधि को नाम स्यामसुन्दर रस, बिसरि गयौ ब्रजबालहिं।
उफनत तक्र चहुँ दिसि चितवति, चित लाग्यौ नंदलालहिं॥”
वियोग के तों एक से एक मार्मिक शब्द-चित्र सूर ने अंकित किये हैं। यथा-
“निसि दिन बरसत नैन हमारे।
सदा रहति पावस रितु हम पर, जब तें स्याम सिधारे।”
तथा-
अँखियाँ हरि दरसन की भूखीं।
कैसैं रहतिं रूप-रस राँची, ये बतियाँ सुनि रूखीं।
(3) भक्ति-निरूपण-सूर ने दास्य और सख्य, दोनों भक्ति-पद्धतियों को अपनाया है-
अब कै राखि लेहु भगवान।
हौं अनाथ बैठ्यौ दुम-डरिया, पारधि साधे बान।”
तथा
मो सम कौन कुटिल खल कामी।
भरि-भरि उदर बिसय को धावौं, जैसे सूकर ग्रामी।”
सख्यभाव में वह अपने आराध्य से दो-दो हाथ करने को तत्पर हैं-
आजु हौं एक-एक करि दरिहौं।
कै हौं ही, कै तुम ही माधव, अपुन भरोसे लरिहौं।”
(4) प्रकृति-वर्णन-सूर ने अधिकांशत: प्रकृति को उद्दीपन की भूमिका प्रदान की है। गोपियों को कृष्ण-वियोग में प्रकृति का हर सुन्दर पक्ष विरह-व्यथा को बढ़ाने वाला प्रतीत होता है
“बिनु गुपाल बैरिन भई कुनैं।
तब वै लता लगतिं अति सीतल, अब भई बिसम ज्वाल की पुंजैं।” (उद्दीपक स्वरूप)
आलम्बन रूप में भी प्रकृति के ‘रमणीक’ और ‘भीम’, दोनों पक्षों का वर्णन मिलता है किन्तु अत्यल्प मात्रा में। यथा-
“पंछी बोले, वन-वन फूले मधुप गुंजारन लागे।” (आलम्बन स्वरूप)
(ख) कलापक्षीय विशेषताएँ
- रस-योजना-सूर का काव्यं श्रृंगार और वात्सल्य-प्रधान है। पूरा भ्रमरगीत’ प्रसंग विप्रलम्भ का अद्वितीय कोष है। अन्य रसों का तो स्पर्श मात्र ही दृष्टिगत होता है। शान्त रस भक्तिपरक पदों में, अद्भुत रस बाल-वर्णन में तथा अन्य अलौकिक लीलाओं में उपस्थित है।
- भाषा-सूर-ने ब्रजी को काव्य भाषा का गौरव प्रदान किया था। सरस और समर्थ भाषा के रूप में ब्रजी का विकास सूरसागर’ में ही सर्वप्रथम दृष्टिगत होता है। सूर की भाषा में लालित्य है, भाव-व्यंजना की सामर्थ्य है और शब्दों का विशाल कोष है। लोकोक्ति और मुहावरों का प्रयोग उसके प्रभाव को विस्तार और गहराई देता है।
- शैली-सूर ने मुक्तक काव्य शैली को अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया है। सूक्ष्म कथासूत्र के चलते उसमें प्रबन्धात्मकता का भी संस्पर्श विद्यमान है। रचना की विविध शैलियों का सौन्दर्य काव्य में सर्वत्र विद्यमान है। शब्द चित्र प्रस्तुत करने में सूर बेजोड़ हैं। भावात्मकता तो उनकी अभिव्यक्ति का कलेवर है। आलंकारिकता भी उनकी शैली का प्रमुख गुण है।
- अलंकार-सूरदासजी ने अलंकारों से अपनी कविता ‘कामिनी’ की सुरुचिपूर्ण सज्जा की है। उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, सन्देह, अनन्वय, अतिशयोक्ति, रूपकातिशयोक्ति आदि अलंकारों का कौशलपूर्ण उपयोग उनके काव्य में हुआ है।
यथासुनत जोग लागत है ऐसौ ज्यों करुई ककरी।” (उपमा)
हरि-मुख कमल-कोस बिछुरे ते ठाले कत ठहरात।” (रूपक)
“लट लटकनि मनु मत्त-मुधपगन” (उत्प्रेक्षा)
किंधौ अरुन अम्बुज बिच बैठी सुन्दरताई आइ।” (सन्दे)
(5) छन्द-सूर ने केवल ‘पद’ छन्द को ही अपनी काव्य रचना का आधार बनाया है। पद ‘सूर’ का सिद्ध छन्द है। इन पदों को विभिन्न रागों में भी निबद्ध किया गया है।
कृष्णभक्ति शाखा के अन्य कवि
(1) कुम्भनदास-आप सूरदास के समकालीन कवि थे। ये स्वभाव से विरक्त और कृष्णभक्ति को ही सर्वस्व समझने वाले थे। एक बार अकबर द्वारा फतेहपुर सीकरी बुलाये जाने पर आपने यह पद सुनाया था
“सन्त को कहा सीकरी सों काम।
आवत जात पन्हैयाँ टूटीं, बिसरि गयो हरिनाम॥”
आपने मुक्तक पदों की ही रचना की है।
(2) परमानन्द दास-यह भी अष्टछाप के कवियों में स्थान रखते थे। इन्होंने ‘परमानन्द सागर’, ‘दानलीला’, ‘ध्रुवचरित’ तथा ‘कीर्तन’ आदि के पद रचे हैं। वियोग, वर्णन में आपको सफलता प्राप्त है।
(3) कृष्णदास-यह भी अष्टछाप के आठ कवियों में गिने जाते हैं। ये श्रीनाथजी के मन्दिर में अधिकारी पद पर नियुक्त थे। इनके फुटकर पद ही प्राप्त होते हैं।
(4) नन्ददास-अष्टछाप के कवियों में सूरदास के पश्चात् नन्ददास का ही काव्य-रचना में प्रमुख स्थान है। इन्होंने गोस्वामी विठ्ठलनाथजी से दीक्षा ली। ये विद्वान व्यक्ति थे। इनके प्रमुख ग्रन्थ’ अनेकार्थ मंजरी’, ‘मान मंजरी’, ‘रुक्मणी-मंगल’, ‘भंवरगीत’, ‘रास पंचाध्यायी’, ‘गोवर्धनलीला आदि हैं। नन्ददास को भाषा का जड़िया’ कहा गया है। भंवरगीत’ में आपने उद्धव गोपी संवाद द्वारा निर्गुण उपासना पर साकार भक्ति पद्धति की विजय दिखाई है। नन्ददास की गोपियाँ तर्कपटु और दर्शनशास्त्र की पंडिता हैं। इनके अतिरिक्त गोविन्द स्वामी, छीतस्वामी तथा चतुर्भुजदास भी अष्टछाप के कवि हैं।
अन्य सम्प्रदायों के कृष्णभक्त कवियों में श्री भट्ट, हरिदेव व्यास, परशुराम देव, हितहरिवंश, हरिराम व्यास, हरिदास तथा चैतन्य महाप्रभु हैं। कृष्ण भक्त कवियों में मीरा और रसखान का काव्य भक्ति-माधुर्य से ओतप्रोत है।
(5) मीराबाई
जीवन-परिचय–गिरिधर गोपाल के प्रेम की दीवानी मीरा का भक्त कवियों में सम्माननीय स्थान है। राजस्थान की मरुभूमि को अपने काव्य से सरसता प्रदान करने का श्रेय मीरा को ही जाता है।
मीरा का जन्म सम्वत् 1555 (सन् 1498) में मेवाड़ के ग्राम चौकड़ी में हुआ। इनके पिता राणा रत्नसिंह थे। इनके पिता प्रायः युद्धों में ही व्यस्त रहते थे। अत: मीरा को अपने पितामह का वात्सल्य मिला। मीरा को बचपन से ही कृष्ण के प्रति लगाव था। मीरा को माता का स्नेह बहुत अल्प समय ही प्राप्त हो सका। बचपन में ही माता का देहावसान हो गया। आपका विवाह राणा साँगा के पुत्र भोजराज के साथ हुआ। केवल एक वर्ष बाद ही पति का देहावसान हो गया। मीरा ने इस वज्राघात को भी प्रभुकृपा मानकर स्वीकार किया।
उन्होंने सारे सांसारिक सम्बन्धों से विरक्त होकर एक गिरिधर गोपाल’ को अपना लिया, ‘मेरे तो गिरिधर गोपाल दूसरा ने कोई।’ मीरा का अधिकांश समय अपने इष्ट की उपासना में और साधु-संगति में व्यतीत होता था। मीरा का लोक-लाज को तिलांजलि देकर सत्संग में भाग लेना परिवारीजनों को राजकुल की मर्यादा का उल्लंघन प्रतीत हुआ। मीरा को अनेक प्रकार से उत्पीड़ित किया गया। कहते हैं कि उनको विषपान के लिए भी विवश किया गया। अन्त में मीरा ने घर त्याग दिया। वह वृन्दावन चली गयीं। सम्वत् 1600 के आस-पास मीरा वृन्दावन से द्वारका चली गयीं। सम्वत् 1603 (सन् 1546) में कृष्ण की यह आराधिका द्वारकाधीश में ही विलीन हो गयीं।
रचनाएँ-मीराबाई की प्रमुख रचनाएँ निम्नलिखित हैं
- ‘नरसीजी का मायरा’,
- ‘गीत-गोविन्द की टीका’,
- ‘राग-गोविन्द’ तथा
- ‘राग-सोरठ’ आदि।
ये सभी रचनाएँ कृष्णभक्ति से ओत-प्रोत हैं।
(6) रसखान
जीवन-परिचय-रसखान के जीवन-वृत्त का परिचय उनके काव्य से ही अनुमानित करना पड़ता है। आपका जन्म सं. 1615 (सन् 1558) के आसपास दिल्ली में हुआ, ऐसा माना जाता है। आप पठान थे और आपका सम्बन्ध राजवंश से था, ऐसा संकेत आपके एक दोहे से मिलता है
“देखि सदर हित साहिबी, दिल्ली नगर मसान।
छिनहिं बादसा वंस की, ठसक छाँड़ि रसखान॥”
कहते हैं कि श्रीकृष्ण की छवि को देखकर ये उनके दीवाने हो गये। इन्होंने ब्रज में आकर निवास किया और गोस्वामी विठ्ठलनाथ की शिष्यता ग्रहण की। रसखान को सांसारिक प्रेम के माध्यम से कृष्ण प्रेम का द्वार मिला था। यही कारण है कि उनके काव्य में प्रेमभाव का सहज और हृदयग्राही स्वरूप प्राप्त होता है। रसखान को अपने इष्टदेव की जन्मभूमि, लीलास्थली तथा वहाँ के पशु-पक्षी, वृक्ष तथा पर्वतों तक से गहरा लगाव रहा। आपने ब्रजवास करते हुए सम्वत् 1675 (सन् 1618) में कृष्ण का सानिध्य प्राप्त किया।
रचनाएँ-रसखान की प्रमुख रचनाएँ इस प्रकार हैं
- सुजान रसखान-यह रसखान द्वारा रचित कवित्त और सवैया छन्दों का संग्रह है। रसखान के लोकप्रिय छन्द इसी में संग्रहीत
- प्रेम वाटिका-यह एक लघुकाय छन्द-संग्रह है। कवि ने प्रेम को ही इसके छन्दों का विषय बनाया है। इसकी अनेक उक्तियाँ अत्यन्त मार्मिक हैं।
कृष्णभक्ति काव्य की सामान्य प्रवृत्तियाँ
कृष्णभक्त कवियों के काव्य में कुछ सामान्य प्रवृत्तियाँ दृष्टिगोचर होती हैं जो निम्न प्रकार हैं
- आराध्यदेव-षोडश कलाओं से सम्पन्न विष्णु के अवतार श्रीकृष्ण भक्त कवियों के इष्टदेव हैं। वह सौन्दर्य के अनुपम भण्डार हैं। भक्तजनों को उनकी बाल-लीलाएँ व भक्ति भाव-विभोर कर देती हैं। उनका अवतार भक्तों को आनन्दित करने के लिए हुआ
- लोकरंजक स्वरूप की आराधना-श्रीकृष्ण लीला-पुरुषोत्तम हैं। उनकी मनोहारिणी सरस क्रीड़ाएँ और लीलाएँ ही भक्तजनों को भाती हैं। भगवान राम की भाँति लोक की रक्षा करने वाला स्वरूप कृष्णभक्तों को कम भाया है। सुदर्शन चक्रधारी कृष्ण की अपेक्षा मुरलीधर मोहन की मूर्ति ही कृष्णभक्तों के भाव-जगत में निवास करती है। नन्द के आँगन में खेलने वाले, दधि-माखन लूटने वाले, गोचारण करने वाले, गोपियों के साथ रास-विहार करने वाले श्रीकृष्ण की छवियों का अंकन इस धारा के कवियों ने किया है।
- संख्य-भाव की प्रधानता-रामभक्तों के विपरीत कृष्णभक्त अपने आराध्य को अपना नित्य सहचर मानते हैं। मित्रता के अधिकार से यदा-कदा वह टेढ़ी बात भी कह जाते हैं। उनकी अन्तरंग लीलाओं का वर्णन भी वे सखा-भाव से करते हैं। दीनता, दास्य और याचना इन कवियों को अधिक नहीं सुहाती। यद्यपि दास्य-भाव की रचनाएँ भी कृष्ण-काव्य में प्राप्त होती हैं।
- मधुर लीलाओं का गान-श्रीकृष्ण को परब्रह्म का अवतार मानते हुए अधिकांश कवियों ने उनके बाले तथा किशोर जीवन की मधुर लीलाओं को ही प्रमुखता से काव्य में चित्रित किया है। बाल-क्रीड़ा, माखन चोरी, रास-क्रीड़ा आदि कृष्णभक्त कवियों के प्रिय विषये रहे हैं।
- प्रेम का मार्मिक स्वरूप-गोपियों और श्रीकृष्ण के माध्यम से प्रेम भाव का बड़ा हृदयस्पर्शी वर्णन इस काव्य में हुआ है। मिलन तथा वियोग के अनेकानेक मार्मिक चित्र प्राप्त होते हैं। सूर तो विप्रलम्भ शृंगारे के रससिद्ध कवि हैं।
- अधिकांशतः मुक्तक रचनाएँ-सभी कवियों ने मुक्तक रचनाओं में ही श्रीकृष्ण-चरित्र को प्रस्तुत किया है। ‘सूर साग’ मुक्तक पदों में ही रचा गया है। मीरा तथा रसखान ने भी ‘मुक्तक’ रचनाएँ की हैं।
- भ्रमरगीत की परम्परा-भ्रमर को माध्यम बनाकर गोपियों की मार्मिक विरहोक्तियाँ इन कवियों ने प्रस्तुत की हैं। सूर तथा नन्ददास आदि ने भ्रमरगीत प्रसंग की सुन्दर योजना की है।
- भाषा-कृष्ण-काव्य ब्रजभाषा में ही रचा गया है। इन कवियों ने ब्रजी को निखार कर सरस साहित्यिक भाषा बना दिया है।
- शैली-मुक्तकै काव्य-शैली के अन्तर्गत भावात्मक, चित्रात्मक, संवादात्मक, वर्णनात्मक, आत्मनिवेदनात्मक, उपदेशात्मक आदि विविध रचना शैलियाँ कृष्ण-काव्य में प्राप्त होती हैं। प्रतीक और कूट-शैलियों का भी सूर ने सफल प्रयोग किया है।
- छन्द-पद, दोहा, चौपाई, सवैया, कवित्त आदि छन्दों में कृष्ण काव्य रचा गया है। प्रधानता ‘पद’ की ही है। ये पद अत्यन्त मधुर एवं गेय हैं।
- अलंकार-अलंकार की दृष्टि से भी कृष्णभक्ति काव्य परम समृद्ध है। उपमा, रूपक, सांगरूपक, रूपकातिशयोक्ति, सन्देह तथा उत्प्रेक्षा इन कवियों के प्रिय अलंकार हैं।
- रस-योजना-कृष्णभक्ति काव्य में वात्सल्य और श्रृंगार रसों की प्रधानता है। ‘सूर’ वात्सल्य रस के सम्राट कहे जाते हैं। बाल-मनोविज्ञान के परिचय को प्रमाणित करने वाली अनेक झाँकियाँ ‘सूर’ के साहित्य में भरी पड़ी हैं। श्रृंगार के भी ‘सूर’ सफल कवि हैं। वियोग-वर्णन में तो आप अद्वितीय हैं।
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