Rajasthan Board RBSE Class 12 Political Science Notes Chapter 18 मूल अधिकार, नीति निर्देशक तत्त्व एवं मूल कर्तव्य
- मूल अधिकार अधिकारों का ही एक मुख्य स्वरूप है।
- वे अधिकार जो व्यक्ति के सर्वांगीण विकास के लिए अनिवार्य होने के कारण संविधान द्वारा नागरिकों को प्रदान किए गए हैं, उन्हें मूल अधिकार कहा जाता है।
- मूल अधिकारों में राज्य द्वारा हस्तक्षेप नहीं किया जा सकता है।
मूल अधिकारों की आवश्यकता व महत्व:
- मूल अधिकारों के द्वारा प्रत्येक नागरिक को शारीरिक, मानसिक व नैतिक विकास की सुरक्षा प्रदान की जाती है।
- संविधान में दिए गए मूल अधिकार शासन व विधान मंडल के ऊपर अंकुश लगाने में सहायता प्रदान करते हैं।
- मूल अधिकार शासन के अधिकारों की शक्ति व बहुमंत दल की तानाशाही से नागरिकों को सुरक्षा प्रदान करते हैं।
- मूल अधिकारों का हनन होने की स्थिति में नागरिक न्यायालय की शरण ले सकते हैं।
- संविधान द्वारा राष्ट्र के समस्त नागरिकों को मूल अधिकार प्रदान कर उनमें परस्पर समानता स्थापित की गयी है।
- नागरिकों के मूल अधिकार मानवीय स्वतंत्रता के मापदंड और संरक्षक दोनों ही हैं।
भारत के संविधान में मूल अधिकार:
- राष्ट्र की एकता व आम नागरिकों के हित के लिए किसी भी राज्य द्वारा अब तक बनाए गए मानव अधिकारों के चार्टरों में सर्वाधिक विस्तृत चार्टर संविधान के भाग 3 में सम्मिलित है।
- मूल अधिकारों के संबंध में संविधान में कुल 23 अनुच्छेद हैं। ये अनुच्छेद 12 से 30 व 32 से 35 तक दिए गए। हैं।
- भारतीय संविधान द्वारा भारतीय नागरिकों को 7 मूल अधिकार प्रदान किए थे, किंतु 44 वें संविधान संशोधन द्वारा संपत्ति के अधिकार को मूल अधिकारों की श्रेणी से हटाकर एक कानूनी अधिकार के रूप में ही सम्मिलित किया गया है।
- मूल अधिकारों को छः श्रेणियों के अन्तर्गत गारंटी प्रदान की गयी है-
- समानता का अधिकार (अनुच्छेद 14 से 18)
- स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 19 से 22)
- शोषण के विरुद्ध अधिकार (अनुच्छेद 23 से 24)
- धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 25 से 28)
- संस्कृति तथा शिक्षा का अधिकार (अनुच्छेद 29 से 30)
- संवैधानिक उपचारों का अधिकार (अनुच्छेद 32)
- अनुच्छेद 14 के तहत राज्य क्षेत्र में राज्य किसी भी व्यक्ति को कानून के समक्ष समानता या कानून के समान संरक्षण से वंचित नहीं करेगा।
- अनुच्छेद 15 में राज्यों को यह आदेश दिया गया है कि किसी नागरिक के साथ उसके धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर विभेद न किया जाए।
- अनुच्छेद 16 के तहत देश के सभी नागरिकों को राज्य के अधीन नौकरी में समान अवसर प्रदान करने की गारंटी दी गई है।
- अनुच्छेद 17 में सामाजिक समानता बढ़ाने हेतु संविधान में अस्पृश्यता पूर्ण आचरण का पूर्ण निषेध किया गया है।
- अनुच्छेद 18 में संविधान में सेना तथा विद्या सम्बन्धी उपाधियों के अतिरिक्त राज्य द्वारा किसी भी प्रकार की उपाधि दिया जाना प्रतिबन्धित है। भारतीय संविधान में व्यक्ति को छ: बुनियादी स्वतंत्रताएँ- भाषण व अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, शस्त्ररहित शांति पूर्वक सम्मेलन की स्वतंत्रता, भारत राज्य में अबाध भ्रमण व निवास की स्वतंत्रता एवं आजीविका, व्यापार व कारोबार की स्वतंत्रता प्रदान की गई है।
- निवारक नजरबंदी से आशय बिना किसी न्यायिक प्रक्रिया से नजरबंदी से है। यह अपराधी को दंडित करने की | नहीं बल्कि अपराध करने से रोकने की प्रक्रिया है।किसी व्यक्ति को 3 महीने से अधिक निवारक नजरबंदी के तहत बंदी नहीं रख सकते,जब तक कि परामर्शदात्री समिति जिसमें एक व्यक्ति उच्च न्यायालय का न्यायाधीश हो, उसकी अनुमति प्राप्त न हो चुकी हो।
- संविधान के अनुच्छेद 23 व 24 के द्वारा सभी नागरिकों को शोषण के विरुद्ध अधिकार प्रदान कर शोषण की सभी स्थितियाँ समाप्त करने का प्रयास किया गया है।
- अनुच्छेद 25 के अनुसार व्यक्ति को अंत:करण की स्वतंत्रता तथा कोई भी धर्म ग्रहण करने, उसका अनुसरण व प्रचार करने का अधिकार प्राप्त है।
- अनुच्छेद 26 में प्रत्येक धर्म के अनुयायियों को अनेक अधिकार; जैसे-धार्मिक संस्थाओं के निजी मामलों का प्रावधान, किसी भी व्यक्ति को अपनी शिक्षण संस्थाएँ चलाने का अधिकार आदि प्राप्त हैं।
- अनुच्छेद 28 में यह प्रावधान है कि राज्य की निधि से किसी भी शिक्षण संस्था में किसी प्रकार की धार्मिक शिक्षा नहीं दी जाएगी।
- अनुच्छेद 29 के अनुसार देश के समस्त नागरिकों को संस्कृति व शिक्षा सम्बन्धी स्वतंत्रता का अधिकार प्राप्त है।
- अनुच्छेद 30 के अनुसार अल्पसंख्यक वर्ग को अपनी इच्छानुसार शिक्षण संस्थानों का संचालन सम्बन्धी अधिकार प्राप्त है।
- संविधान के 86 वें संशोधन अधिनियम द्वारा 21-A को धारा 21 के पाश्चात् जोड़कर शिक्षा को मौलिक अधिकार का दर्जा दिया है।
- शिक्षा के अधिकार के अंतर्गत 6 से 14 वर्ष की आयु के समस्त बच्चों को नि:शुल्क व अनिवार्य शिक्षा कानूनी रूप से उपलब्ध करायी जाएगी।
- अनुच्छेद 32 के अनुसार नागरिक अपने अधिकारों को लागू कराने के लिए न्यायपालिका की शरण ले सकता है।
- सर्वोच्च व उच्च न्यायालय द्वारा मूल अधिकारों की रक्षा के लिए पाँच प्रकार के लेख जारी किए जा सकते हैं
- बन्दी प्रत्यक्षीकरण लेख
- परमादेश
- प्रतिषेध लेख
- उत्प्रेषण लेख
- अधिकार पृच्छा।
- बंदी प्रत्यक्षीकरण लेख उस व्यक्ति की प्रार्थना पर जारी किया जाता है जो यह समझता है कि उसे अवैध रूप से बंदी बनाया गया है।
- अगर बन्दी बनाने का कारण अवैध होता है तो न्यायालय तत्काल उसे मुक्त करने की आज्ञा देता है।
- परमादेश द्वारा न्यायालय उस पदाधिकारी को अपने कर्तव्य-निर्वहन के लिए आदेश जारी कर सकता है, जो पदाधिकारी अपने कर्तव्य का समुचित पालन नहीं कर रहे हैं।
- प्रतिषेध लेख सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालय द्वारा अपने अधीनस्थ न्यायालयों को जारी करते हुए निर्देश | दिया जाता है कि इस मामले में कार्यवाही नहीं करें क्योंकि यह उनके क्षेत्राधिकार से बाहर है।
- उत्प्रेषण लेख का उपयोग किसी भी विवाद को निम्न न्यायालय से उच्च न्यायालय में भेजने के लिए जारी किया जाता है।
- अधिकार पृच्छा विषयक मामला तब बनता है जब कोई व्यक्ति गैर-कानूनी तौर पर किसी सरकारी या निर्वाचित पद को सँभालने का प्रयास करे तो उससे यह पूछा जा सकता है कि वह किस आधार पर सम्बन्धित पद पर कार्य कर रहा है।
मूल अधिकारों का मूल्यांकन:
- आपातकाल के समय मूल अधिकार स्थगित किया जाना न्यायोचित है लेकिन शांति काल में भी मूल अधिकारों को स्थगित किया जाना इनके अस्तित्व पर प्रश्न चिन्ह लगा देता है।
- मौलिक अधिकारों को न्यायिक सुरक्षा देने के बावजूद वर्तमान न्यायिक प्रक्रिया लम्बी, जटिल व खर्चीली होने से सामान्य जनता के हितों की रक्षा में सफल नही हो पा रही है।
- मूल अधिकारों के अतिक्रमण की परिस्थिति अल्पकालिक होती है।
नीति निर्देशक तत्व:
- नीति-निर्देशक तत्वों को संविधान निर्माताओं ने आयरलैंड के संविधान से लिया है।
- राज्य के नीति निर्देशक तत्व वे विचार हैं जिन्हें संविधान निर्माताओं ने भविष्य में बनने वाली सरकारों के समक्ष एक पथ प्रदर्शक के रूप में रखा है।
- देश के मौलिक अधिकार परामर्शदात्री समिति ने यह स्वीकार किया था कि नीति निर्देशक तत्वों को प्रशासन संचालन हेतु मूलभूत सिद्धांत माना जाए।
- संविधान के भाग 4 में अनुच्छेद 36 से 51 तक राज्य के नीति निर्देशक तत्वों का उल्लेख किया गया है।
राज्य के नीति निर्देशक तत्व:
- नीति निर्देशक तत्व नागरिकों की शिक्षा, स्वास्थ्य, सामाजिक समता तथा राज्य के लिए अनुसरणीय नीति के विश्लेषण से संबंधित हैं।
- राज्य के नीति निर्देशक तत्वों/सिद्धांतों को निम्नलिखित वर्गों में विभाजित किया जा सकता है-
- आर्थिक सुरक्षा सम्बन्धी निर्देशक तत्व
- सामाजिक सुरक्षा और शिक्षा सम्बन्धी निर्देशक तत्व
- पंचायतीराज, प्राचीन स्मारक एवं न्याय सम्बन्धी निर्देशक तत्व
- अन्तराष्ट्रीय शांति और सुरक्षा सम्बन्धी निर्देशक तत्व।
- नीति-निर्देशक तत्व देश के शासन के मूल हैं, जिसका तात्पर्य यह है कि देश के प्रशासन के लिए उत्तरदायी सभी सत्ताएँ इनके द्वारा निर्देशित होंगी।
नीति निर्देशक तत्वों का महत्व:
नीति निर्देशक तत्वों के महत्व का अध्ययन निम्नलिखित रूपों में किया जा सकता है-
- शासन के लिए आचार संहिता
- लोक कल्याणकारी राज्य की रूपरेखा
- शासन के मूल्यांकन का आधार .
- संविधान के क्रियान्वयन में सहायक
- सामाजिक एवं आर्थिक परिवर्तन में सहायक।
नीति निर्देशक तत्वों के क्रियान्वयन के कुछ महत्वपूर्ण उदाहरण:
- नीति निर्देशक तत्वों के क्रियान्वयन के कुछ महत्वपूर्ण उदाहरण इस प्रकार हैं-
- भूमि सुधार
- पंचायती राज और स्थानीय स्वशासन
- पंचवर्षीय योजनाएँ
- कमजोर वर्गों का कल्याण
- सामाजिक सुरक्षा
- बड़े उद्योगों का राष्ट्रीयकरण
- न्यायिक व्यवस्था में सुधार
- अनिवार्य व निशुल्क प्राथमिक शिक्षा का अधिकार
- समान कार्य हेतु समान वेतन
- सम्पत्ति के अधिकार से सम्बन्धित व्यवस्था में परिवर्तन।
- देश के आर्थिक विकास के लिए नियोजन की प्रक्रिया को अपनाया गया। इस आधार पर योजना आयोग का गठन कर आर्थिक विकास का ढाँचा तैयार किया गया।
- 65 वें संविधान संशोधन अधिनियम के आधार पर 7 सदस्यीय ‘अनुसूचित जाति व जनजाति आयोग’ की स्थापना कर इसे संवैधानिक दर्जा प्रदान किया गया है।
- महिला सशक्तिकरण के लिए 73 वें व 74 वें संविधान संशोधन द्वारा पंचायती राज संस्थाओं व शहरी क्षेत्र की स्थानीय स्वशासन संस्थाओं में
- महिलाओं के लिए 30 प्रतिशत स्थान आरक्षित किए गए हैं।
- आर्थिक समानता के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए जीवन बीमा, परिवहन, कोयला खानों तथा पर्यटन आदि के साथ-साथ प्रमुख बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया जा चुका है।
- आर्थिक व सामाजिक न्याय के मार्ग में बाधा मानते हुए संपत्ति के अधिकार को 44 वें संविधान संशोधन के द्वारा मूल अधिकारों की सूची से हटाकर कानूनी अधिकार बना दिया गया है।
- भारत में पंथ निरपेक्ष समाजवादी व लोक कल्याणकारी राज्य की स्थापना के लिए नीति निर्देशक तत्वों को लागू किया गया है।
मूल अधिकार व नीति निर्देशक तत्व:
- मूल अधिकार और नीति निर्देशक तत्व दोनों ही नागरिकों के कल्याण एवं विकास से सम्बन्धित हैं।
- मौलिक अधिकारों व नीति निर्देशक तत्वों में मूलभूत अंतर यह है कि मूल अधिकार नागरिकों के कानूनी अधिकार हैं जबकि नीति निर्देशक तत्व समाज के नैतिक बंधन हैं।
मूल अधिकारों एवं राज्य के नीति निर्देशक तत्वों में सम्बन्ध:
- भारतीय संविधान के भाग-तीन में मूल अधिकार एवं भाग-चार में राज्य के नीति निर्देशक तत्व वर्णित हैं। दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। 42 वें संविधान संशोधन द्वारा नीति-निर्देशक तत्वों को मूल अधिकारों पर वरीयता प्रदान की गई थी किंतु बाद में ‘मिनर्वा मिल्स’ वाले वाद में उच्चतम न्यायालय ने मूल अधिकारों पर नीति निर्देशक तत्वों की सर्वोच्चता को समाप्त कर यह स्पष्ट कर दिया कि संविधान में संशोधन करने की संसद की शक्ति असीमित नहीं है।
- नीति निर्देशक तत्व समाज के एक महत्वपूर्ण नैतिक बंधन हैं।
अध्याय में दी गई महत्वपूर्ण तिथियाँ एवं संबंधित घटनाएँ:
सन् 1950 ई. — संविधान में 1950 में भारतीय नागरिकों के लिए केवल मूल अधिकारों का ही उल्लेख किया गया था, मूल कर्तव्यों का नहीं।
सन् 1951 ई. — 9वीं अनुसूची में 1951 में भूमि सुधारों के अंतर्गत भूमि जोतने वाले का अधिकार लागू करने से किसानों को सुरक्षा प्राप्त हुई है।
सन् 1955 ई. — अस्पृश्यता निवारण अधिनियम 1955 को संशोधित कर नागरिक अधिकार संरक्षण अधिनियम 1955 कर दिया गया है।
सन् 1959 ई. — 2 अक्टूबर 1959 से पंचायती राज की व्यवस्था सम्पूर्ण देश में लागू की गई।
सन् 1967 ई. — सन् 1967 में गोलकनाथ वाले मामले में न्यायपालिका ने अधिकारों को सर्वोच्च एवं संसद द्वारा असंशोधनीय घोषित कर दिया था। 6.
सन् 1973 ई. — सन् 1973 में केशवानंद भारती वाले वाद में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा यह घोषित किया गया कि संसद द्वारा संविधान के किसी भी भाग में परिवर्तन या संशोधन तो किया जा सकता है। किंतु संविधान के मूल ढाँचे में कोई परिवर्तन नहीं किया जा सकता।
सन् 1974 ई. — आर्थिक क्षेत्र में राष्ट्रीय सुरक्षा कानून की श्रेणी का एक कानून “विदेशी मुद्रा संरक्षण व तस्करी निरोधक अधिनियम 1974 से लागू है।
सन् 1976 ई. — 1976 में 42 वाँ संविधान संशोधन करते हुए इसमें नागरिकों के मूल कर्तव्यों का उल्लेख किया गया तथा संविधान के भाग 4-क’ में 10 कर्तव्यों को जोड़ा गया।
सन् 1979 ई. — 44 वे संविधान संशोधन (अप्रैल 1979) द्वारा एक और तत्व जोड़ा गया है कि राज्य विभिन्न क्षेत्रों में रहने वाले और विभिन्न व्यवसायों में लगे हुए व्यक्तियों के समुदायों के बीच विद्यमान आय, सामाजिक स्तर, सुविधाओं और अवसरों संबंधी भेदभाव को भी कम से कम करने का प्रयत्न करेगा।
सन् 1980 ई. — दिसंबर 1980 को सरकार ने राष्ट्रीय सुरक्षा अध्यादेश लागू किया जो बाद में कानून बन गया।
सन् 1984 ई. — जून 1984 को राष्ट्रीय सुरक्षा कानून से सम्बन्धित दूसरा संशोधन अध्यादेश जारी किया गया।
सन् 1989 ई. — अनुसूचित जनजाति निरोधक अधिनियम 1989 पारित किया गया।
सन् 1993 ई. —1993 में 73 वें संविधान संशोधन अधिनियम के आधार पर पंचायती राज को संवैधानिक दर्जा दिया गया।
सन् 2002 ई. — 86 वें संवैधानिक संशोधन (2002) के आधार पर अनुच्छेद 51 (क) को संशोधित करते हुए 11 वाँ मूल कर्तव्य जोड़ा गया है कि माता-पिता या संरक्षक का कर्तव्य होगा कि वे 6 से 14 वर्ष के अपने बच्चों को शिक्षा के लिए अवसर प्रदान करें।”
सन् 2004 ई. — पोटा कानून को समाप्त करने के बावजूद राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर आतंकवाद से निपटने के लिए कठोर कानून की आवश्यकता अनुभव करते हुए सितंबर 2004 में गैर-कानूनी गतिविधियाँ निरोधक अध्यादेश जारी किया गया। इसमें पोटा के कई प्रावधानों को सम्मिलित किया गया है।
सन् 2005 ई. — नागरिकों के सामाजिक उत्थान के लिए महात्मा गाँधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम 2005 कार्यक्रम राष्ट्रीय स्तर पर संचालित किया जा रहा है।
RBSE Class 12 Political Science Notes Chapter 18 प्रमुख पारिभाषिक शब्दावली
- मौलिक अधिकार — वे अधिकार जो व्यक्ति के जीवन के लिए मौलिक तथा अनिवार्य होने के कारण संविधान द्वारा नागरिकों को प्रदान किए जाते हैं और जिन अधिकारों में राज्य द्वारा भी हस्तक्षेप नहीं किया जा सकता, ऐसे अधिकार मौलिक अधिकार कहलाते हैं।
- नियोजन— नियोजन संसाधनों के संगठन की एक ऐसी विधि है जिसके माध्यम में साधनों का अधिकतम लाभप्रद उपयोग निश्चित सामाजिक उद्देश्यों की पूर्ति हेतु किया जाता है।
- पंथनिरपेक्षता — यह एक ऐसी विचारधारा है जो घटनाओं/वस्तुस्थितियों का विश्लेषण करने में धर्म, परम्परा अथवा प्रथाओं को महत्व नहीं देती।
- सामाजिक न्याय — यह वह स्थिति है जिसमें समाज के सभी वर्गों को समान-अवसर प्राप्त हों तथा किसी प्रकार का भेदभाव न किया जाए। इस प्रकार सामाजिक न्याय का सीधा-सा अभिप्राय यह है कि समाज में सभी व्यक्तियों की अपनी गरिमा हो तथा उन्हें अपने विकास के समान अवसर बिना किसी भेदभाव के प्राप्त हों । वस्तुत: एक अच्छे समाज का निर्माण सामाजिक न्याय द्वारा ही किया जा सकता है।
- अनुसूचित जनजाति – एक जनजाति परिवारों अथवा परिवार समूहों का एक ऐसा संकलन है जिसका एक सामान्य नाम, विशिष्ट भाषा, समाज व्यवस्था, संस्कृति व उत्पति संबंधी एक पुराकथा होती है तथा जो एक निश्चित भौगोलिक क्षेत्र में निवास करती है। एक जनजाति के लोग किसी एक ही पूर्वज की संतान के रूप में अपने आपको परस्पर संबंधित मानते
- नागरिकता — राजनीतिक और वैधानिक सिंद्धात के संदर्भ में नागरिकता से तात्पर्य किसी राष्ट्र, राज्य या नगर के सदस्य के अधिकारों और कर्तव्यों से है। राजनीतिक नागरिकता किसी समुदाय में राजनीतिक सत्ता में सहभागिता करने के अधिकार की गारंटी देती है। यह सहभागिता मतदान करने तथा किसी राजनीतिक पद को प्राप्त करने के रूप में हो सकती है।
- नागरिक अधिकार — ऐसे अधिकार जो किसी समाज के सभी सदस्यों से संबंधित तथा मान्य होते हैं, जिन्हें कानूनी जगत में (न्यायालयों में) याचिका (अपील) के द्वारा उचित ठहराया जा सकता है तथा जिन्हें व्यक्तियों अथवा राज्य के द्वारा मनमाने ढंग से नकारा नहीं जा सकता है, नागरिक अधिकार कहलाते हैं। सामान्यत: ऐसे अधिकारों द्वारा व्यक्ति की राज्य से रक्षा की जाती है। ऐसे अधिकारों की दूसरे के अधिकारों और सार्वजनिक हितों के संदर्भ में स्पष्ट सीमाएँ होती हैं।
- पिछड़ा वर्ग — हिंद वर्ण व्यवस्था में कुछ ऐसी जातियाँ भी हैं जिन्हें अति निम्न माना गया है तथा जो सामाजिक, आर्थिक एवं शैक्षणिक दृष्टि से समाज के संपन्न वर्गों की तुलना में कमजोर और निम्न स्तर पर हैं, उन्हें भारतीय संविधान में ‘पिछड़े वर्ग” के नाम संबोधित किया गया है। इन वर्गों की प्रमुख विशेषता संस्कृति, शिक्षा व सामाजिक-आर्थिक दृष्टि से इनका पिछड़ापन है।
- अल्पसंख्यक — यह वह समूह है, जिनकी अपनी एक भाषा अथवा धर्म होता है। पूरे देश में संख्या के आधार पर यह किसी अन्य समूह से छोटा होता है।
- सपू — देश के विख्यात न्यायाधीश। इनका मत है कि भारतीय संविधान में मूल अधिकारों को रखने का उद्देश्य नागरिकों को समानता, न्याय, स्वतंत्रता और सुरक्षा प्रदान करना था। ये वायसराय की कार्यकारिणी परिषद के न्यायिक सहकर्मी रहे।
- डा. भीमराव अम्बेडकर — भारतीय संविधान की निर्मात्री सभा के सदस्य एवं उसकी प्रारूप समिति के अध्यक्ष । यह दलितों के मसीहा के नाम से विख्यात हैं। 1947 से 1951 तक भारत सरकार में विधि मंत्री रहे। भारत सरकार ने इन्हें मरणोपरांत भारत रत्न से सम्मानित किया। इन्होंने संविधान के अनुच्छेद 32 (संवैधानिक उपचारों का अधिकार) को संविधान का हृदय व आत्मा माना।
- डॉ. राजेन्द्र प्रसाद — बिहार के प्रसिद्ध कांग्रेसी नेता एवं भारतीय संविधान सभा के अध्यक्ष। ये स्वतंत्र भारत के प्रथम राष्ट्रपति बने। इनका मत था कि संविधान के नीति निर्देशक सिद्धांतों का उद्देश्य जनता के कल्याण को प्रोत्साहित करने वाली सामाजिक व्यवस्था का निर्माण करना है।
- हरि विष्णु कामथ — भारतीय संविधान सभा के सदस्य। इन्होंने शांतिकाल में मूल अधिकारों के स्थगन का विरोध किया तथा कहा कि संविधान में इस व्यवस्था को करके हम तानाशाही राज्य और पुलिस राज्य की स्थापना कर रहे हैं।
- केशवानंद भारती — मौलिक अधिकारों के सम्बन्ध में एक मुकद्दमें में चर्चित ।
- गोलकनाथ — मौलिक अधिकारों के सम्बन्ध में एक मुकद्दमें में चर्चित। 1967 में इनके मामले में न्यायपालिका ने अधिकारों को सर्वोच्च तथा संसद द्वारा असंशोधनीय घोषित कर दिया था।
- के. सुब्बाराव — भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश। इन्होंने मौलिक अधिकारों को परम्परागत प्राकृतिक अधिकारों का दूसरा नाम माना।
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