These comprehensive RBSE Class 9 Science Notes Chapter 15 खाद्य संसाधनों में सुधार will give a brief overview of all the concepts.
RBSE Class 9 Science Chapter 15 Notes खाद्य संसाधनों में सुधार
→ सामान्य परिचय-सभी जीवधारियों को भोजन की आवश्यकता होती है। भोजन से प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट, वसा, विटामिन तथा खनिज लवण प्राप्त होते हैं। ये सभी हमारे विकास, वृद्धि व स्वास्थ्य के लिए आवश्यक हैं। अधिकांश भोज्य पदार्थों का स्रोत कृषि तथा पशुपालन है। हमारे देश में अधिक जनसंख्या होने के कारण हमारे कृषि के सीमित क्षेत्र में उत्पादन बढ़ाना आवश्यक है। इसके लिए हरित क्रान्ति व श्वेत क्रान्ति जैसे प्रयास किए हैं। इसके लिए यह भी आवश्यक है कि प्राकृतिक संसाधनों की सुरक्षा भी की जाये। भारत एक कृषि प्रधान देश है। कृषि कार्य के साथ अन्य कार्य जैसे पशुपालन, मत्स्य पालन, मधुमक्खी पालन आदि कार्यों द्वारा आय को बढ़ाया जा सकता है।
→ फसल उत्पादन में उन्नति-अनाजों से कार्बोहाइड्रेट, दालों से प्रोटीन, तेल वाले बीजों से वसा, फलों से खनिज लवण और अन्य पौष्टिक तत्व प्राप्त होते हैं। भिन्न फसलों के लिए भिन्न जलवायवीय परिस्थितियों, तापमान तथा दीप्तिकाल की आवश्यकता होती है। दीप्तिकाल सूर्य के प्रकाश से सम्बन्धित होता है। खरीफ फसलें जून से अक्टूबर तक और रबी फसलें नवंबर से अप्रैल तक होती हैं। भारत में 1960 से 2004 तक कृषि भूमि में 25% वृद्धि हुई है जबकि अन्न की पैदावार में चार गुनी वृद्धि हुई है। फसल सुधार में निम्न प्रक्रियाएँ अपनाई गई हैं, जिससे पैदावार में वृद्धि हुई है – (i) फसल की किस्मों में सुधार (ii) फसल-उत्पादन प्रबन्धन (iii) फसल सुरक्षा प्रबन्धन।
(i) फसल की किस्मों में सुधार-इसके लिए यह देखा जाता है कि किस्में रोग प्रतिरोधक क्षमता वाली हों, उत्पादन की गुणवत्ता व उत्पादन अधिक हो। फसल की किस्मों में ऐच्छिक गुणों को संकरण द्वारा डाला जा सकता है। संकरण अंतराकिस्मीय, अन्तरास्पीशीज तथा अंतरावंशीय हो सकता है। जीन परिवर्तन भी फसल सुधार की एक विधि है। कृषि प्रणाली तथा फसल उत्पादन मौसम, मिट्टी की गुणवत्ता तथा पानी की उपलब्धता पर निर्भर करती है। उच्च उत्पादन, उन्नत किस्में, जैविक और अजैविक प्रतिरोधिता, परिपक्वन काल में परिवर्तन, व्यापक अनुकूलता, ऐच्छिक सस्य विज्ञान किस्मों के सुधार के लिए कुछ कारक हैं।
(ii) फसल उत्पादन प्रबंधन-आर्थिक आधार पर उत्पादन प्रणालियाँ भिन्न-भिन्न हो सकती हैं, जैसे-बिना लागत उत्पादन, अल्प लागत उत्पादन, अधिक लागत उत्पादन आदि।
(A) पोषक प्रबंधन-पौधों को वृद्धि के लिए पोषक तत्व आवश्यक हैं। ऑक्सीजन, हाइड्रोजन व कार्बन के अतिरिक्त 13 पोषक तत्व पौधे मिट्टी से प्राप्त करते हैं। इसमें 6 वृहत् पोषक तत्व तथा 7 सूक्ष्म पोषक तत्व होते हैं। को जन्तु के अपशिष्ट तथा पौधे के कचरे के अपघटन से तैयार किया जाता है। कंपोस्ट, वर्मी कंपोस्ट लथा हरी खाद मिट्टी को उपजाऊ बनाते हैं। उर्वरक-यह व्यावसायिक रूप से तैयार पादप पोषक है। उर्वरक नाइट्रोजन, फॉस्फोरस तथा पोटैशियम प्रदान करते हैं। उर्वरकों के प्रयोग से जल प्रदूषण होता है और इनके सतत प्रयोग से मिट्टी की उर्वरता कम होती है तथा सूक्ष्म जीवों का जीवन चक्र अवरुद्ध होता है। कार्बनिक खेती में रासायनिक उर्वरक, पीड़कनाशी, शाकनाशी आदि का उपयोग नहीं होता है। इसमें कृषि अपशिष्ट का पुनर्चक्रण, जैविक उर्वरक का उपयोग होता है। साथ ही इसमें मिश्रित खेती, अंतरा फसलीकरण तथा फसल चक्र अपनाया जाता है।
(B) सिंचाई-भारत में अधिकांश खेती वर्षा पर आधारित है। अतः यदि वर्षा कम या नहीं हो तो उत्पादन प्रभावित होता है। भारत में पानी के अनेक स्रोत हैं, इनमें कुएं, नहरें, नदी, तालाब मुख्य हैं। पानी के स्रोतों के आधार पर विभिन्न सिंचाई विधियाँ अपनाई जाती हैं। पानी की उपलब्धता बढ़ाने के लिए आजकल वर्षा जल संग्रहण किया जा रहा है।
(C) फसल पैटर्न-अधिक लाभ प्राप्ति के लिए फसल उगाने की विभिन्न विधियाँ काम में ली जाती हैं। मिश्रित फसल में दो या दो से अधिक फसलों को एक साथ उगाते हैं। अंतरा फसलीकरण में दो से अधिक फसलों को एक साथ एक ही खेत में निर्दिष्ट पैटर्न पर उगाया जाता है। किसी खेत में क्रमवार पूर्व नियोजित कार्यक्रम के अनुसार विभिन्न फसलों के उगाने को फसल चक्र कहते हैं।
(iii) फसल सुरक्षा प्रबंधन-खेतों में फसल खरपतवार, कीट, पीड़क तथा रोग से प्रभावित होती है। कीट पीड़क पौधों पर तीन प्रकार से आक्रमण करते हैं – (a) ये मूल तने तथा पत्तियों को नष्ट कर देते हैं । (b) पौधों के विभिन्न भागों से कोशिकीय रस चूस लेते हैं। (c) ये तने तथा फलों में छिद्र कर देते हैं।
पौधों के रोग बैक्टीरिया कवक तथा वायरस जैसे रोग कारकों से होते हैं। खरपतवार को रोकने के लिए पीड़कनाशी रसायन काम में लेते हैं। यांत्रिक विधि तथा निरोधक विधि का उपयोग भी खरपतवार हटाने में किया| जाता है। अनाज का भंडारण-जैविक तथा अजैविक कारक कृषि उत्पाद के भण्डारण को हानि पहुँचाते हैं। भण्डारण के स्थान पर उपयुक्त नमी और ताप का अभाव गुणवत्ता को खराब कर देते हैं । भण्डारण से पहले निरोधक तथा नियंत्रण विधियों का उपयोग करना चाहिए।
→ पशुपालन-पशुधन के प्रबन्धन को पशुपालन कहते हैं । इसके अन्तर्गत बहुत से कार्य, जैसे- भोजन देना, प्रजनन तथा रोगों पर नियंत्रण करना आता है।
(i) पशु कृषि-पशुपालन के दो उद्देश्य हैं – (a) दूध देने वाले पशु पालना (b) कृषि कार्य (हल चलाना, सिंचाई तथा बोझा ढोने) के लिए पशु पालना।
(ii) कुक्कुट (मुर्गीपालन)-अण्डे व कुक्कुट मांस के उत्पादन को बढ़ाने के लिए मुर्गीपालन किया जाता है। कुक्कुट पालन में मुर्गी की उन्नत नस्लें विकसित की जाती हैं। अण्डों के लिए अण्डे देने वाली (लेअर) मुर्गी तथा मांस के लिए ब्रोलर को पाला जाता है। मुर्गीपालन से अच्छा उत्पादन प्राप्त करने के लिए अच्छी प्रबन्धन प्रणाली बहुत आवश्यक है। जीवाणु, विषाणु, कवक, परजीवी तथा पोषकहीनता के कारण मुर्गियों को अनेक प्रकार
के रोग हो जाते हैं । अतः सफाई तथा स्वच्छता का विशेष ध्यान रखना चाहिए।
(iii) मत्स्य उत्पादन (मछली उत्पादन)-हमारे भोजन में मछली प्रोटीन का एक समृद्ध स्त्रोत है। मछली उत्पादन में पंखयुक्त मछलियाँ, कवचीय मछलियाँ जैसे प्रॉन तथा मोलस्क सम्मिलित हैं। मछली प्राप्त करने की दो विधियाँ हैं – (a) प्राकृतिक स्रोत (मछली पकड़ना) (b) मछली पालन (मछली संवर्धन)। मछलियों के जल स्रोत समुद्री जल तथा ताजा जल हैं।
(a) समुद्री मत्स्यकी-समुद्री क्षेत्रों में किये जाने वाले मछली उत्पादन को समुद्री मत्स्यकी कहते हैं। सर्वाधिक प्रचलित मछलियाँ पॉमफ्रेट, मैकर्ल, टुना, सारडाइन तथा बांबेडक हैं। कुछ आर्थिक महत्त्व की मछलियों का संवर्धन भी समुद्र में किया जाता है।
(b) अंतःस्थली मत्स्यकी-इसमें अधिकतर मछलियों का संवर्धन किया जाता है तथा मिश्रित मछली संवर्धन के लिए भी यह माध्यम उत्तम है। मछली संवर्धन कभी-कभी धान की फसल के साथ भी किया जाता है। मछलियाँ साथ-साथ रहते हुए भी बिना स्पर्धा के अपना-अपना आहार लेती हैं।
(iv) मधुमक्खी पालन-मधु या शहद का सर्वत्र उपयोग होता है। अतः इसके लिए मधुमक्खी पालन का उद्यम एक कृषि उद्यम बन गया है। इससे कृषक को धनार्जन भी अधिक होता है। शहद के अतिरिक्त मधुमक्खी के छत्ते से मोम भी प्राप्त करते हैं जो औषधि के लिए उपयोगी है। व्यावसायिक स्तर पर मधुमक्खी की देशी किस्म ऐपिस सेरना इंडिका, ऐपिस डोरसेटा, ऐपिस फ्लोरी का उपयोग करते हैं । इटली की मधुमक्खी ऐपिस मेलीफेरा का उपयोग भी इसमें करते हैं। इटेलियन मक्खी की मधु एकत्र करने की क्षमता बहुत अधिक होती है और वह डंक भी कम मारती है। मधु की गुणवत्ता मधुमक्खी को उपलब्ध फूलों पर निर्भर करती है।
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