Rajasthan Board RBSE Class 11 Biology Chapter 39 पर्यावरणीय कारक
RBSE Class 11 Biology Chapter 39 पाठ्यपुस्तक के प्रश्न
RBSE Class 11 Biology Chapter 39 वस्तुनिष्ठ प्रश्न
प्रश्न 1.
निम्नलिखित में से कौनसा कारक प्रथमतः किसी स्थान की वनस्पति को निर्धारित करता है?
(अ) जलवायवीय
(ब) स्थलाकृतिक
(स) जैविक
(द) मृदीय
प्रश्न 2.
पादप वृद्धि के लिए सबसे उपयुक्त है
(अ) बलुई मृदा
(ब) दोमट मृदा
(स) मृण्मय मृदा
(द) बजरी
प्रश्न 3.
पौधे किस प्रकार का जल अवशोषित करते हैं?
(अ) गुरुत्वीय जल
(ब) आर्द्रता जले
(स) केशिका जल।
(द) वाह जल।
प्रश्न 4.
मूलगोप सामान्यतः अनुपस्थित होती है
(अ) शैलोभिद्
(ब) मरुभिद्
(स) जलोभिद्
(द) समोभिद्
प्रश्न 5.
गर्मी के मौसम में अनेक जलोभिद् तालाब से लुप्त हो जाते हैं, क्योंकि
(अ) प्रकाश की मात्रा अधिक होती है।
(ब) पौधे छायादार स्थानों की तरफ पहुंच जाते हैं।
(स) जल वाष्पीकृत हो जाता है, जिससे पौधे मर जाते हैं।
(द) उच्च तापक्रम के कारण जल में CO2 की मात्रा कम हो जाती है, जिससे पौधों में पर्याप्त प्रकाश संश्लेषण नहीं होता है।
उत्तर तालिका
1. (अ)
2. (ब)
3. (स)
4. (स)
5. (द)
RBSE Class 11 Biology Chapter 39 अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
प्रकाश संश्लेषी सक्रिय विकिरण (PAR) किसे कहते हैं?
उत्तर-
सूर्य विकिरण का 390nm से 760nm तक का दृश्यमान वर्णक्रम ही दृश्य प्रकाश होता है। इसे ही प्रकाश संश्लेषी सक्रिय विकिरण (Photo-synthetically active radiation = PAR) कहते हैं।
प्रश्न 2.
ह्रास दर किसे कहते हैं?
उत्तर-
ऊंचाई के साथ-साथ तापमान में गिरावट आने की दर को ह्रास दर (lapse rate) कहते हैं।
प्रश्न 3.
किन्हीं तीन कीट भक्षी पादपों के वानस्पतिक नाम लिखिए।
उत्तर-
नेपेन्थस (Nephenthus), ड्रॉसेरा (Drosera) तथा यूट्रीकुलेरिया (Utricularia) ।
प्रश्न 4.
किन्हीं चार पादपों के वानस्पतिक नाम लिखिए, जिनमें मूल कोटरिकाएं पाई जाती हैं।
उत्तर-
लेम्ना (Lend), वोल्फिया (Wolffid), पिस्टिया (Pisted) एवं स्पाइरोडिला (Spirodela) इत्यादि।।
प्रश्न 5.
फ्रियटोफाइट (Phreatophytes) किसे कहते हैं?
उत्तर-
ऐसे पादप जिनकी जड़े भूमि में अधिक गहराई तक जाती हैं तथा ये भौम जलस्तर (Ground water lable) से जल को प्राप्त करते हैं, उन्हें फ्रियटोफाइट कहते हैं।
प्रश्न 6.
मृदुपर्णी पादप किसे कहते हैं? इनमें सरसता का कारण बताइये ।
उत्तर-
मांसल मरुद्भिद पौधों को मृदुपर्णी पादप कहते हैं। इनमें जल संचय करने के लिए विशेष प्रकार की पतली भित्ति वाली मृदूतकीय कोशिकाएं विकसित हो जाती हैं, इस कारण ये सरसता या मांसल प्रवृत्ति की हो जाती हैं, जैसे-नागफनी (Opuntia), ग्वारपाठा (Aloe) इत्यादि।
RBSE Class 11 Biology Chapter 39 लघूत्तरात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
जलवायु तथा मौसम में भेद कीजिये।
उत्तर-
किसी क्षेत्र विशेष की जलवायु से तात्पर्य उस क्षेत्र के जलवायवीय कारकों (प्रकाश, तापमान, वर्षण, पवन, वायुमण्डलीय गैसे, आर्द्रता आदि) की मात्रा में वर्षभर के औसत से होता है। जब इन्हीं कारकों की मात्रा का निर्धारण अल्पावधि के लिए नियत जगह पर किया जाए तो मौसम कहलाता है। इस प्रकार मौसम में साप्ताहिक, दैनिक परिवर्तन होतेहैं, जबकि जलवायु का निर्धारण दीर्घकालिक ऋतुओं और वर्षों के आधार पर होता है।
प्रश्न 2.
आतपोभिद तथा अतपोभिद में अन्तर लिखिये।
उत्तर-
आतपोभिद और अतपोभिद पादपों में अन्तर
आतपोभिद (Heliophytes) | अतपोद्भिद (Sciophytes) |
1. जड़ें विकसित, संख्या में अधिक तथा पूर्ण शाखित होती हैं। | जड़े छोटी, संख्या में कम और अल्प शाखित होती हैं। |
2. तना सुदृढ़ तथा जाइलम पूर्ण विकसित होता है। | तना पतला, दुर्बल तथा जाइलम अल्प विकसित होता है। |
3. पत्तियां छोटी, हल्की हरी तथा मोटी होती हैं। | पत्तियां बड़ी, गहरी हरी तथा पतली होती हैं। |
4. पर्णरंध्रों (Stomata) की संख्या अधिक होती है। पर्णरंध्र निचली सतह पर ऊपरी सतह की अपेक्षा अधिक होते हैं। | पर्णरंध्रों की संख्या अपेक्षाकृत कम होती हैं तथा दोनों सतहों पर समान रूप से वितरित होते हैं। |
5. पर्णमध्योतक (Mesophyll tissue) में खंभ ऊतक (Pali-sade tissue) अधिक विकसित तथा अन्तराकोशिकीय अवकाश काफी छोटे होते हैं | पर्णमध्योतक में स्पंजी ऊतक (Spongy tissue) अधिक विकसित तथा अन्तराकोशिकीय अवकाश (Inter-cellular space) अपेक्षाकृत अधिक होते हैं |
6. यांत्रिक ऊतक (Mechanical tissues) पूर्ण विकसित होते हैं। | यांत्रिक ऊतक अल्प विकसित या अनुपस्थित होते हैं। |
7. पुष्प एवं फल उत्पन्न करने की क्षमता अधिक होती है। | पुष्प तथा फल उत्पन्न करने की क्षमता अपेक्षाकृत बहुत कम होती है। |
8. खनिज लवणों की मात्रा अधिक होती है। इस कारण कोशिकाओं का परासरण दाब अधिक होता है। | खनिज लवणों की मात्रा कम होती है। अतः कोशिकाओं का परासरण दाब कम होता है। |
प्रश्न 3.
ह्यूमस के प्रकार और निर्माण को समझाइये।
उत्तर-
मृदा के मृत अपघटित अवशेषों को छूमस कहते हैं। यह मृदा की उर्वरकता के लिए अति आवश्यक है। यह मुख्य रूप से पौधों तथा जन्तुओं के अवशेषों तथा उनके उत्सर्जी पदार्थों के अपघटन से बनता है। केंचुए ह्यूमस निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान देते हैं। मृत कार्बनिक पदार्थों का अपघटन मृदा सूक्ष्म जीवों, जैसे- जीवाणुओं, कवकों आदि द्वारा होता है। ह्यूमस निर्माण प्रक्रिया को छूमीफिकेशन (Humification) कहते हैं तथा ह्यूमस का खनिज लवणों में परिवर्तन खनिजीकरण (Mineralization) कहलाता है। ह्यूमस दो प्रकार के होते हैं
- मोर ह्यूमस (Mor Humus)- यह ह्यूमस अपरिपक्व अवस्था में होता है। इसमें लवण अपेक्षाकृत कम होते हैं। मृदा में केंचुओं का अभाव होता है। इसकी pH 3.8-4.0 होती है। अपघटन धीरे-धीरे होता है।
- मूल ह्यूमस (Mull Humus)- यह परिपक्व ह्यूमस होता है। इसमें केंचुओं की बाहुल्यता होती है। मृदा की pH 5.0 होती है। अपघटन तेजी से होता है।
प्रश्न 4.
निम्नलिखित परे टिप्पणी लिखिये
(i) वसन्तीकरण
(ii) दीप्तिकालिकता।
उत्तर-
(i) वसन्तीकरण (Vermalization) – कुछ पौधों में पुष्पीकरण न्यून ताप मिलने पर होता है। बीज पर न्यून तापक्रम प्रयोग द्वारा पुष्पीकरण शीघ्र प्राप्त करने की क्रिया को वसन्तीकरण कहते हैं। इसके लिए ऑक्सीजन की उपस्थिति आवश्यक होती है। वसन्तीकरण में वर्नेलिन (Vermalin) नामक पदार्थ बनता है जो फ्लोरीजन (Florigen) या जिबरेलिन में परिवर्तित हो जाता है, जो पुष्पीकरण को समय से पूर्व प्रारम्भ करने के लिए उत्तरदायी होता है।
(ii) दीप्तिकालिकता (Photoperiodisun) – पौधों के पुष्पीकरण तथा फलन क्रियाओं पर दैनिक प्रकाश की अवधि का प्रभाव पड़ता है, इसे दीप्तिकालिता कहते हैं। दैनिक प्रकाश अवधि के प्रभाव के अनुसार पुष्पी पादपों को तीन वर्गों में बांटा गया है
- दीर्घ-प्रकाशीय (दीप्तिकाली) पौधे
- अल्पे-प्रकाशीय (दीप्तिकाली) पौधे
- प्रकाश या दिवस निरपेक्ष पौधे
तापमान दीप्तिकालिकता को सबसे अधिक प्रभावित करता है।
RBSE Class 11 Biology Chapter 39 निबन्धात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
पौधों को प्रभावित करने वाले जलवायवीय कारकों का संक्षिप्त वर्णन कीजिये।
उत्तर-
जलवायवीय कारकों के अन्तर्गत
- प्रकाश
- तापमान
- वायु
- जल
- वायुमण्डलीय आर्द्रता तथा
- वायुमण्डलीय गैसों (अर्थात् वायवी प्रभाव से सम्बन्धित कारकों) का अध्ययन किया जाता है। इस प्रकार के अध्ययन को जलवायु विज्ञान (Climatology) कहते हैं। पौधों की वृद्धि एवं वितरण में जलवायवीय कारकों की भूमिका सर्वाधिक होती है।
1. प्रकाश (Light) –
प्रकाश का स्रोत सूर्य है। सूर्य विकिरण का 390 nm से 790 nm तक का दृश्यमान वर्णक्रम ही दृश्य प्रकाश है । इसे ही प्रकाशसंश्लेषी सक्रिय विकिरण (Photosynthetically Active Radiation= PAR) कहते हैं। प्रकाश ऊर्जा की तीन विभिन्न अवस्थाएं जीवों को प्रभावित करती हैं
2. तापमान (Temperature) –
ताप का मुख्य स्रोत सूर्य से निकलने वाली प्रकाश किरणें हैं। इसके अतिरिक्त पृथ्वी के अन्दर की गर्मी (ज्वालामुखी के रूप में) मृदा में रहने वाले सूक्ष्मजीव तथा जैवमण्डल में विद्यमान समस्त जीवों के श्वसन इत्यादि भी ताप के स्रोत हैं। पृथ्वी के विभिन्न अक्षांशों पर तापक्रम अलग-अलग प्रकार का होता है। जैसे विषवत् रेखा पर अधिक तथा ध्रुवों की ओर कम होता जाता है। विभिन्न अक्षांशों पर विभिन्न तापक्रम, वनस्पति के विभिन्न अनुक्षेत्रों (zones) को निर्धारित करता है। वैसे तापक्रम समुद्र तट की ऊंचाई, अक्षांश (latitude), पादप आवरण (plant cover) तथा पर्वत की दिशा व ढलान की प्रवणता (gradient) के आधार पर प्रभावित होता है।
समस्त जीवों की जैविक क्रियाएं एक निश्चित तापक्रम अर्थात् 0°C से 50°C) के परास (range) में होती है। 40°C ताप पर जीवद्रव्य की सजीव क्रियाएं न्यूनतम हो जाती हैं तथा 700-80°C तक जीवद्रव्य मृत हो जाता है। हिमांक से कम तापमान पर जीवद्रव्य के जल का क्रिस्टलीकरण हो जाता है। पृथ्वी पर वनस्पति सामान्यत: 26°C से 66°C तापमान तक पायी जाती है। अतः प्रत्येक जीव को जैविक क्रिया हेतु एक अनुकूलतम तापमान की आवश्यकता होती है। अतः तापक्रम के एक निश्चित परास (range) में ही पौधों की वृद्धि एवं इनका सामान्य जीवन-यापन सम्भव है। विभिन्न पौधों के लिए आवश्यक तापक्रम परास भी अलग-अलग होता है। प्रायः पौधे उसी स्थान पर पर्याप्त वृद्धि करते हैं जहां उनके अनुकूल तापक्रम परास पाया जाता है।
प्रत्येक जीव के लिए तापमान की न्यूनतम एवं अधिकतम सीमा होती है। जिसे उस जीव विशेष या समुदाय की सहनशीलता की सीमा (Range of tolerance) कहते हैं। तापमान की वह सीमा जिसके परे उस जाति की जीवन क्रियाएं समाप्त हो जाती हैं, उसे घातक सीमा (Lethal limit) कहते हैं तथा वह तापमान जिस पर पौधों या जीवों की उपापचयी क्रियाएं सक्रिय रहती हैं, उसे सक्रियता सीमा (Activity limit) कहते हैं। प्रायः यह पाया जाता है कि प्रत्येक पादप समुदाय । में जैविक क्रियाओं के संचालन, वृद्धि एवं इनके विकास के लिए तापक्रम
की न्यूनतम (minimum), उच्चतम (maximum) एवं अनुकूलतम (optimum) सीमा होती है। उपरोक्त तीनों सीमा कारकों को निम्न प्रकार से समझाया जा सकता है।
- अनुकूलतम तापक्रम (Optimum temperature) – वह तापक्रम जिस पर वृद्धि के लिए आवश्यक जैविक क्रियाएं अधिकतम स्तर पर संचालित होती हैं।
- न्यूनतम तापक्रम (Minimum temperature) – वह तापक्रम जिस पर जैविक क्रियाएं अपने सबसे कम या न्यूनतम स्तर पर होती हैं। यदि इस सीमा से भी तापक्रम कम हो जावे तो ये जैविक या कार्यिकी क्रियाएं रुक जाती हैं। यह अनुकूलतम तापक्रम से नीचे की सीमा होती है।
- उच्चतम तापक्रम (Maximum temperature) – वह उच्चतम तापक्रम जिसे पौधे सहन करने में समर्थ होते हैं। तथा पौधों को जैविक क्रियाएं निम्नतम स्तर पर ही सही, परन्तु संचालित होती रहती हैं। यह तापक्रम की उच्चतम सीमा है, इस सीमा से अधिक तापक्रम बढ़ते ही जैविक क्रियाएं रुक जाती हैं।
3. पवन (Wind) –
पवन तथा पवन गति का पादप जीवन पर प्रत्यक्ष तथा परोक्ष दोनों प्रकार से प्रभाव होता है। पृथ्वी के धरातल पर वायुदाब की भिन्नता के कारण वायु में गति उत्पन्न हो जाती है। इस गतिशील वायु को पवन (wind) कहते हैं। पवन सदैव उच्च दाब से निम्न दाब की ओर चलती है। वायु दाब की भिन्नता के आधार पर पवन की गति निर्भर करती है। वायुदाब में जितना अधिक अन्तर होता है। पवन उतनी ही तीव्र गति से चलती है। वायु गति का मापन एनिमोमीटर (Anemometer) से करते हैं।
पवन की गति अनुसार पौधों पर होने वाले लाभकारी व हानिकारक प्रभाव निम्न प्रकार से है-
- धीमी व तेज गति की हवाएं पौधों की विभिन्न क्रियाओं हेतु आवश्यक हैं, जैसे सूक्ष्म जीवाणुओं, जीवाणुओं, कवक बीजाणुओं, परागकणों, फलों तथा बीजों को दूर तक पहुंचाने में सहायक है अर्थात् पौधों की प्रकीर्णन क्रिया हेतु आवश्यक है। जिन पौधों में बीजों का प्रकीर्णन हवा द्वारा होता है, उनमें बीज वजन में हल्के तथा संख्या में अधिक बनते हैं तथा कुछ पौधों के बीजों में रोम या पंख बन जाते हैं व कभी-कभी ऐसी रचनाएं निर्मित हो जाती हैं जिसके फलस्वरूप बीज हवा में सुगमता से उड़कर दूरी तक पहुंच सकते हैं।
- अधिकांशतः पौधों में परागण (Pollination) वायु द्वारा ही होता है तथा ऐसे परागण को वायु-परागण (Anemophilous) कहते हैं।
- तेज गति से चलने वाले पवन के कारण पौधे जड़ सहित उखड़ जाते हैं, सूखी व हरी शाखाएं टूट जाती हैं।
- तेज वायु के कारण पौधों में वाष्पोत्सर्जन दर बढ़ जाती है तथा वाष्पोत्सर्जन क्रिया के बढ़ने के फलस्वरूप पत्तियां मुरझा जाती हैं। निरन्तर शुष्क हवा के बढ़ने से मुरझाई हुई पत्तियां पुनः सामान्य अवस्था में नहीं लौट पातीं । इसी कारण से रेगिस्तान में उगने वाली वनस्पति की पत्तियां छोटी, रोमयुक्त या कांटों में रूपान्तरित हो जाती हैं।
- पवन का पौधों पर केवल बाहरी प्रभाव ही नहीं होता वरन् संरचना (Anatomy) की दृष्टि से आन्तरिक रचना में परिवर्तन आ जाता है। पवन के प्रभाव फलस्वरूप स्तम्भ में यांत्रिक ऊतक अधिक निर्मित हो जाती है और वह भी एक तरफ अत्यधिक विकसित होती है। इन पौधों में द्वितीयक वृद्धि (Secondary growth) व वार्षिक वलय की उत्केन्द्र वृद्धि (Eccentric growth) के कारण तथा यांत्रिक ऊतकों के निर्माण से स्तम्भ तेज पवन में भी आसानी से टूट नहीं पाते। कुछ वृक्षों के स्तम्भ में तो तेज पवन के कारण घनी (Dense), लाल रंग की दारु (Xylem) विकसित हो जाती है जिसे संपीडक दारु (Compression Wood) कहते हैं। छोटे शाकीय पौधों में तेज हवा के प्रभाव से स्थूलकोण ऊतक (Collenchyma) का अधिक निर्माण हो जाता है।
- तेज हवा के फलस्वरूप मैदानी क्षेत्रों में उगने वाली वनस्पति व खाद्यान्न फसलों के पौधे भूमि पर गिर जाते हैं, इसे पतन (Lodging) कहते हैं, जैसे- गेहूं, मक्का , चावल, जौ इत्यादि।
- पर्वतों के उच्चतम शिखरों व समुद्रतट के आसपास प्रायः एक ही दिशा में तेज गति से हवाएं चलती रहती हैं। अतः ऐसे स्थानों पर उगने वाली वनस्पति की शाखाएं व पौधे के अन्य भागों का विस्तार केवलं हवा की दिशा की ओर ही होता है तथा हवा की तरफ वाले भागों में कलिकाएं विकसित नहीं हो पातीं। इसके फलस्वरूप पौधों की बाह्य आकृति बिगड़ जाती है व पौधों का स्वरूप इस प्रकार का बन जाता है कि जिससे कम से कम हवा का प्रतिरोध हो।
- अत्यधिक ऊंचाई वाले स्थानों पर तेज हवाएं नियमित रूप से बहती रहती हैं, इसके कारण शीर्षस्थ कलिकाएं विकसित नहीं हो पातीं। परिणामतः पौधे, बौने तथा शाखित (branched) हो जाते हैं।
- तेज वेग से बहने वाली हवाओं के स्थानों की वनस्पति की पत्तियां छोटी रोमिल, मोमयुक्त व संयुक्त पिच्छाकार (pinnate) तथा अधिक काष्ठीय (Woody) प्रकृति की होती हैं।
- अधिक गति से बढ़ने वाला पवन अपने साथ मिट्टी को उड़ाकर ले जाता है। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण मरुस्थलों में देखने को मिलता है। गर्मियों के समय धूलभरी आंधियों व तूफान के कारण मृदा का अपरदन (Soil erosion) होता है।
4. वर्षण (Precipitation) –
सबसे अधिक महत्वपूर्ण जलवायवी कारक वर्षण है। इसके द्वारा जैव क्रियाएं प्रभावित होती हैं। यह मृदा-जल का मुख्य स्रोत है। मृदा में पाये जाने वाले पोषक, जल में घुलकर ही पादप को उपलब्ध होते हैं। यह पौधों की आकारिकी व शरीर क्रिया दोनों को प्रभावित करता है। अन्य कारकों के साथ वर्षण, पादप संरचना व पादप समुदायों के वितरण को प्रभावित करता है।
भूमि सतह व वायुमण्डल में जल विनिमय होता रहता है। इसको जलीय चक्र (Hydrologic cycle) कहते हैं।
वर्षण फुहारों, जल की मोटी बूंदों (वर्षा), हिमपात, ओंस, ओले, तुषार (पाला) व हिमवृष्टि (Sleet) के रूप में होता है। मृदा जल का प्रमुख स्रोत वर्षा है। यह वायुमण्डल की आर्द्रता को प्रभावित करती है। कुल वर्षा का 45% जल नदियों में बह जाता है, 20% भूमि में रिस जाता है तथा 35% वाष्पित हो जाता है। वनस्पति के तीन मुख्य प्ररूप हैं-वन, घासस्थल तथा मरुस्थल ।
निम्नांकित तालिका वर्षा की मात्रा तथा वनस्पति के प्रकार के मध्य सम्बन्धों को दर्शाती है
वर्षा की मात्रा (प्रति वर्ष ) | वनस्पति का प्रकार |
0.0 सेमी से 25.0 सेमी | मरुस्थल (Desert) |
25.0 सेमी से 75.0 सेमी | घास स्थल (Grassland) |
75.0 सेमी से 125.0 सेमी | सघन वन (Dense forest) |
125.0 सेमी से अधिक | वर्षा वन (Rain forest) |
5. वायुमण्डलीय आर्द्रता (Atmospheric humidity) –
वायुमण्डल में विद्यमान अदृश्य जल वाष्प की मात्रा को वायुमण्डल आर्द्रता कहते हैं। वायु में उपस्थित जल वाष्प की वास्तविक मात्रा को निरपेक्ष आर्द्रता (Absolute humidity) कहते हैं। वायुमण्डलीय आर्द्रता को प्रायः आपेक्षिक आर्द्रता (Relate humidity) द्वारा दर्शाया जाता है। अतः वायु में निरपेक्ष आर्द्रता की मात्रा व किसी विशेष तापमान पर जलवाष्प की वह मात्रा जो संतृप्त करने के लिए आवश्यक होती है, इसके अनुपात को आपेक्षिक आर्द्रता कहते हैं। इसका मापन नम और शुष्क बल्ब तापमापी (Wet and dry thermometer) से करते हैं। जब वायुमण्डल को संतृप्त करने के लिए नमी की आवश्यकता होती है तो पौधों के वायव भाग से वाष्पोत्सर्जन क्रिया होती है तथा वायुमण्डल के पूर्ण संतृप्त होते ही जल संघनन प्रारम्भ होने से इसका कुछ अंश वर्षा, ओस, ओले या बर्फ के रूप में गिरने लगता है।
आर्द्रतायुक्त वायुमण्डलीय क्षेत्रों में अधिपादप अधिक पाए जाते हैं। अधिपादप आर्किड्स, लाइकेन्स, मॉसेज आदि सीधे ही वायुमण्डलीय आर्द्रता को अवशोषित कर लेते हैं। वाष्पोत्सर्जन की दर भी वायुमण्डलीय आर्द्रता से प्रभावित होती है। संतृप्त वायु में यह कम तथा असंतृप्त वायु में अधिक होती है। अधिक वायुमण्डलीय आर्द्रता व ताप अनेक जीवाणु व कवक जनित रोगों को बढ़ाती है।
6. वायुमण्डलीय गैसें (Atmospheric gases) –
पृथ्वी की सतह से लगभग 300 किमी या इससे भी ऊपर तक गैसों का एक आवरण होता है। वायुमण्डल में गैसों का घनत्व तथा वायुदाब ऊंचाई के साथ कम होता जाता है। इन गैसों में नाइट्रोजन (78.08%), ऑक्सीजन (20.94%), CO2 (0.32%) तथा जलवाष्प (0.10%) मुख्य घटक के रूप में होते हैं। अन्य गैसों में आर्गन, नीओन, हीलियम, क्रिप्टोन, जीनोन, हाइड्रोजन, मीथेन, नाइट्रस ऑक्साइड तथा ओजोन सूक्ष्म मात्रा में पाई जाती। हैं। इसके अतिरिक्त वायु में धूल के कण, धुआं, सूक्ष्मजीवी, परागकण, कवक, बीजाणु इत्यादि निलम्बित अवस्था में रहते हैं तथा अनेक प्रदूषित गैसें (SO2, NH3, CO, H2S आदि) भी पाई जाती हैं।
प्रश्न 2.
मृदीय कारक पौधों को किस प्रकार प्रभावित करते हैं?
उत्तर-
मृदा शब्द की उत्पत्ति लेटिन भाषा के ‘सोलम’ (Solum) से हुई है जिसका तात्पर्य है, भू-सामग्री अर्थात् जिसमें पौधे उगते हैं। मृदा के अध्ययन को मृदा विज्ञान या पीडोलोजी (Pedology; Pedos = पृथ्वी) या इडेफोलोजी (Edaphology; Edaphos = मृदा) कहते हैं। मृदा विज्ञान की नींव प्रसिद्ध रूसी वैज्ञानिक दोक्याचेव (Dokuyachew, 1889) ने डाली थी। मृदा को परिभाषित करते हुए यह कहा जा सकता है कि ”भू-पर्पटी का वह भाग जिस पर पौधे उगे हुए हों व इसमें मूले प्रवेश कर पोषक तत्व तथा जल ग्रहण करती हो।” मृदा में मुख्य रूप से खनिज पदार्थ कार्बनिक पदार्थ या ह्यूमस (humus), मृदाजल, मृदा वायुमण्डल तथा मृदा जीव घटक होते हैं। अतः मृदा विभिन्न घटकों को एक जटिल सम्मिश्र (comple) है।
(i) मृदा का निर्माण (Formation of soil)-
मृदा के निर्माण की सम्पूर्ण क्रिया को दो भागों
(अ) अपक्षय (weathering) तथा
(ब) मृदाजनन (pedogenesis) में बांट सकते हैं।
(अ) अपक्षय (Weathering)-
निरन्तर पत्थर की बड़ी-बड़ी चट्टानें अपक्षय द्वारा छोटे-छोटे खनिज कणों में परिवर्तित होती रहती हैं। अपक्षयन की क्रिथा भौतिक, रासायनिक व जैविक विधियों द्वारा होती है।
- भौतिक अपक्षय (Physical weathering) में तूफानी हवाओं, आंधियों, जल के घर्षण, ताप का परिवर्तन, हिमनद इत्यादि के प्रभाव से बड़े टुकड़े छोटे कणों में बदल जाते हैं।
- रासायनिक अपक्षय (Chemical weathering) में जल अपघटन (hydrolysis), जलयोजन (hydration), ऑक्सीकरण अपचयन (oxidation-reduction), कार्बोनेशन (carbonation) तथा किटीकरण (chelation) इत्यादि की क्रियाओं से चट्टानें बारीक कणों में बदल जाती हैं।
- जैविक अपक्षय (Biological weathering) में अनेक जीव लाइकेन, केंचुए (earthworms), मूलाभास (rhizoids), जड़े इत्यादि भी जैविक अपक्षय करती हैं।
(ब) मृदाजनन (Pedogenesis)-
इसे मृदा परिवर्धन (soil development) या मृदा परिपक्वन (soil maturation) भी कहते हैं। चट्टानों को अपक्षय होने पर खनिज कणों का निर्माण होता है। जीवों के मृत भागों के अपघटन होने से बना हुआ ह्यूमस (humus) जब इन खनिज कणों के साथ मिश्रित होता है तब इसे मृदा कहा जाता है।
उपरोक्त दोनों प्रक्रियाओं के प्रकृति में निरन्तर चलते रहने से मृदा, परतों के रूप में एकत्रित होती जाती है व धीरे-धीरे वनस्पति उगने लगती है। इस प्रकार कालान्तर में मृदा स्तरीकरण (soil profile) हो जाती है।
मृदा निर्माण तथा खनिजों के उद्गम के आधार पर मृद्राओं को दो भागों में बांटा जाता है
- अवशिष्ट मृदा (Residual soil)-
जिन चट्टानों के अपक्षय से मृदा कण बनते हैं, यदि वह मृदा उसी स्थान पर रहती है तो उसे अवशिष्ट मृदा कहते हैं। - वाहित मृदा (Transported soil)-
निर्माण स्थल से जब मृदा किन्हीं कारकों द्वारा अन्य स्थानों पर पहुंच जाती है तो उसे वाहित मृदा कहते हैं। हवा द्वारा लाई गई मृदा इओलियन मृदा (Eolian soil), गुरुत्व द्वारा लाई गई मृदा कोल्युवियल मृदा (Colluvial soil), जल द्वारा बहाकर लाई गई मृदा को एल्युवियले मृदा (Alluvial soil) तथा ग्लेशियरों के पिघलने से लाई गई मृदा को ग्लेसियल मृदा (Glacial soil) कहते हैं।
(ii) मृदा परिच्छेदिका (Soil profile)-
चट्टानों के अपक्षय व मृदाजनन की प्रक्रिया के फलस्वरूप मृदा का निर्माण प्रकृति में निरन्तर होता रहता है। परन्तु ह्यूमस निर्माणकारी क्रियायें भूमि की ऊपरी सतह पर अधिक तथा गहराई पर कम होने से मृदा के रूप, रंग तथा बनावट में अन्तर आ जाता है। यदि किसी स्थान पर भूमि में एक चौड़ी, सीधी खाई (trench) खोदी जावे तो मृदा की विभिन्न सुस्पष्ट परतें या संस्तर देखने को मिलते हैं। मोटे तौर पर इन संस्तरों का विभेदन रंग के आधार पर भी किया जा सकता है। मृदा को इस तरह विभिन्न संस्तरों या परतों में जमा होने को मृदा परिच्छेदिका या प्रोफाइल (Soil Profile) कहा जाता है। मृदा में निम्नलिखित संस्तर होते हैं
(अ) ‘अ’ संस्तरण (A Horizon)-
यह मृदा की सबसे ऊपरी परत होती है जिसे ‘अ’ संस्तर या शीर्ष मृदा (top soil) कहते हैं। इसमें बालू (sand) और ह्यूमस (humus) होता है। पौधों की जड़े प्रायः इसी संस्तर में रहती हैं। इसका निर्माण शैल अपक्षय व जीवों की सक्रियता के सम्मिलित प्रभावों से होता है। इसका रंग प्रायः गहरा भूरा होता है क्योंकि इसमें ह्यूमस की अधिक मात्रा होती है।
(ब) ‘ब’ संस्तरण (‘B’ Horizon)-
शीर्ष मृदा के नीचे वाले स्तर पर उपमृदा (sub-soil) होती है जिसे ‘ब’ संस्तर कहते हैं। इसका रंग हल्का भूरे रंग का होता है। इसमें चिकनी मिट्टी होती है। वर्षा का जल रिसकर इस स्तर में एकत्रित होता रहता है। इसमें ह्यूमस व वायु की मात्रा कम होती है तथा इस संस्तरण में जीव भी नहीं पाये जाते हैं। बाद में यही जल केशिका क्रिया (Capillary action) द्वारा। शीर्ष मृदा की ओर चढ़ता रहता है।
(स) ‘स’ संस्तरण (‘C’ Horizon)-
यह संस्तर ‘B’ के नीचे होता है। इसमें अपूर्ण क्षरित चट्टानें होती हैं तथा ह्यूमस एवं सूक्ष्मजीवों का अभाव होता है। इस संस्तर के नीचे बिना अपक्षयित मातृ चट्टानें होती हैं। (चित्र 39.5)
(iii) मृदा का संघठन (Composition of soil)-
संगठन की दृष्टि से मृदा में निम्न अवयव होते हैं
(अ) खनिज पदार्थ – कुल आयतन का 40%
(ब) कार्बनिक पदार्थ – कुल आयतन का 10%
(स) जल – कुल आयतन का 25%
(द) वायु – कुल आयतन का 25%,
उपर्युक्त संघठन प्रायः सभी प्रकार की मृदा में पाये जाते हैं। केवल इन संघठनों के आयतन में कमी या अधिकता अवश्य हो सकती है। मृदा के भौतिक व रासायनिक गुण तथा विभिन्न प्रकार के संघठन, वहां पर उगने वाली वनस्पति पर प्रभाव डालते हैं। विस्तृत रूप से मृदा के समस्त कारकों का वर्णन अधोलिखित है
(iv) खनिज संघटक तथा मृदा गठन (Mineral components and soil texture)-
मृदा का गठन (Texture) उसके खनिज कणों पर निर्भर करता है तथा प्रत्येक मृदा में ये कण विभिन्न प्रकार के आकार के होते हैं। खनिज कणों के आकार (size) की दृष्टि से मृदा निम्न प्रकार की होती है तथा इन कणों को आकार के आधार पर मृदा विज्ञान की अंतर्राष्ट्रीय संस्था ने निम्न नाम सुझाये हैं
मृदा के प्रकार | कणों का व्यास (Diameter) |
(i) बजरी (Gravel) | 5.000 मिमी. से अधिक |
(ii) बारीक बजरी (Fine sand) | 2.000 मिमी. से 5.000 मिमी. तक |
(iii) मोटी बालू (Coarse sand) | 0.200 मिमी. से 2,000 मिमी. तक |
(iv) बारीक बालू (Fine sand) | 0.020 मिमी. से 0.200 मिमी. तक |
(v) गाद (Silt) | 0.002 मिमी. से 0.020 मिमी. तक |
(vi) चिकनी मिट्टी (Clay) | 0.002 मिमी. से कम |
शैल कणों के आपेक्षिक अनुपात के आधार पर मृदा छः प्रकार की होती है
- बलुई मृदा (Sandy soil) – इसमें बालू कणिकाओं की अधिकता होती है। इसमें पर्याप्त मृदा वायु होती है, परन्तु पोषक तत्व तथा जल धारण क्षमता कम होती है।
- चिकनी या मृण्मय मृदा (Clay soil) – इसमें मुख्य घटक मृत्रिका (clay) होता है। जल धारण क्षमता सर्वाधिक होती है, परन्तु वातायन (Aeration) कम होता है। इस प्रकार की मृदा पादप वृद्धि के लिए उपयुक्त नहीं होती
- दोमट मृदा (Loam soil) – इसमें बालू, गाद (Silt) तथा मृण्मय के कणों की बराबर मात्रा होती है। इसकी जल धारण क्षमता उपयुक्त होती है तथा वातायन भी बराबर बना रहता है। इसलिए इस प्रकार की मिट्टी पौधों के लिए सर्वाधिक उपयुक्त होती है।
- बलुई दोमट मृदा (Sandy Loam soil) – जिसमें दोमट मृदा की कणिकाएं अधिक हों।
- पांशु दोमट मृदा (Silt loam soil) – इसमें सिल्ट कणिकाओं का आधिक्य होता है।
- मृतिका दोमट मृदा (Clay loan soil) – जिसमें चिकनी मिट्टी के कण अधिक होते हों।
(v) मृदा कार्बनिक पदार्थ या ह्यूमस (Soil organic matter or humus)-
मृदा में पौधों तथा जन्तुओं के मृत भागों के अपघटन पश्चात् कार्बनिक पदार्थों का निर्माण होता है । यह अपघटन कार्य मुख्यतः जीवाणुओं, कवकों आदि जीवों द्वारा होता है। अपघटन प्रक्रिया व ह्यूमस निर्माण में लीटर, डफ व ह्यूमस की अवस्थायें आती हैं।
भूमि की सतह पर सूखे मृत या टूटे वनस्पति के भागों की जो तह या पर्त बन जाती है व जिनका अपघटन न हुआ हो, ऐसी पर्त को लीटर (Litter) कहते हैं । इस लीटर के नीचे जो पूर्व में एकत्रित हुए पौधों के भाग होते हैं उनका सूक्ष्म जीवाणुओं से आंशिक अपघटन हो जाता है, किन्तु इन पौधों के भागों को पहचाना जा सकता है, इसे डफ (Duff) कहते हैं, परन्तु इससे भी नीचे की परत में पौधों के भागों का अधिक अपघटन हुआ होता है और अब पौधों के प्रारम्भिक रूप को नहीं पहचाना जा सकता, इसे ह्यूमस परत कहते हैं। ह्यूमस एक कार्बनिक पदार्थ है जो रंग में काला तथा भूरा व भार में हल्का बारीक चूर्ण होता है। ह्युमस का और अधिक अपघटन होने से खनिज लवण मुक्त हो जाते हैं। अतः वनस्पति व जन्तुओं के मृत भागों का अपघटन होकर ह्यूमस में परिवर्तन को छूमीफिकेशन (Humification) कहते हैं तथा ह्युमस का खनिज लवणों में परिवर्तन को खनिजीकरण (Mineralization) कहा जाता है।
ह्यूमस का निर्माण वहां की वनस्पति व जलवायु पर निर्भर होता है। वैज्ञानिक मूलर (Muller) के अनुसार मोर (Mor) व मल्ल (Mull) दो प्रकार के छूमंस होते हैं
मोर ह्यूमस (Mor humus) ऐसे स्थानों पर मृदा से वर्षा के जल द्वारा क्षारीय पदार्थों के निक्षालित हो जाने से मिट्टी की ऊपरी तहें अम्लीय हो जाती हैं जिससे अपघटनकारी जीव बहुत ही कम संख्या में रहते हैं। भूमि की अम्लीय अवस्था हो जाने से इनका अपघटन बहुत देरी से हो पाती है। इस ह्युमस में केंचुए भी नहीं पाए जाते हैं। इसलिए मोर ह्यूमस को कच्चा ह्यूमस भी कहते हैं।
मल्ल ह्युमस (Mull humus) यहां की मृदा का रंग भूरा या काला होता है। मृदा में अपघटन करने वाले व केंचुएँ प्रचुर मात्रा में होते हैं। अतः मृत पौधों के भागों का अपघटन तेजी से होता है। यहां की मृदा ढीली व रंध्रमय होती है तथा ह्यूमस परिपक्व होते हैं।
(vi) मृदा जल (Soil water)-
मृदा जल का मुख्य स्रोत वर्षा है। वर्षा जल का कुछ भाग बहकर नदी, झील, समुद्र व तालाबों में चला जाता है। इसे वाह जल (run off) कहते हैं तथा पौधों को उपलब्ध नहीं होता है। शेष जल मृदा में रिसकर (percotate) निम्न रूपों में पाया जाता है|
(अ) आर्द्रताग्राही जल (Hygroscopic water)-
जो जल ससंजन (cohesion) तथा आसंजन (adhesion) बलों के कारण मृदा कण के चारों ओर पतली परत (thin film) के रूप में दृढ़ता से आबंधित रहता है, उसे आर्द्रताग्राही जल कहते हैं। इस जल का पौधे उपयोग नहीं कर पाते हैं।
(ब) केशिका जल (Capillary water)-
जो जल मृदा कणों के बीच रंध्र स्थलों में केशिका बल के कारण अटका रहता है, उसे केशिका जल कहते हैं। पौधों के लिए यही जल महत्वपूर्ण है तथा ये इसी जल का अवशोषण करते हैं।
(स) गुरुत्वीय जल (Gravitational water)-
गुरुत्वाकर्षण बल के कारण कुछ जल की मात्रा मृदा में गहराई तक जाकर भौम जल (ground water) में मिल जाती है। भौम जल की ऊपर की सतह को भौम जल स्तर (ground water) कहते हैं ।
(द) रसायनतः संयुक्त जल (Comically combined water)-
मृदा कणों में रसायन यौगिकों जैसे-लौह, एल्युमीनियम व सिलिका के जलयोजित (hydrated) ऑक्साइड में आबंधित रहता है। पौधे इस आबंधित जल का उपयोग नहीं करते हैं।
मृदा में गुरुत्वीय जल के निकास पश्चात् जो जल शेष बचा रहता है उसे क्षेत्र क्षमता (field capacity) कहते हैं अर्थात्
क्षेत्र क्षमता = केशिका जल + आर्द्रता जल + रासायनिक संयुक्त जल + जलवाष्प
आर्द्रता जल तथा केशिका जल के योग को मृदा की जल धारण क्षमता कहते हैं। आर्द्रता की वह प्रतिशतता जो मृदा में उस समय होती . है, जब पौधों में पहली बार स्थायी म्लानि (permanent witting) उत्पन्न होती है, म्लानि गुणांक कहलाता है।
पौधों को उपलब्ध होने वाले जल को प्राप्य जल (Available water) तथा उपलब्ध न होने वाले जल को अप्राप्य जल (Unavailable water) कहा जाता है। मृदा वैज्ञानिकों ने भूमि में पाये जाने वाले जल की कुल मात्रा को होलार्ड (Holard), पौधों को उपलब्ध होने वाले जल को चिसार्ड (Chesard) तथा पौधों को उपलब्ध नहीं होने वाले जल को इकार्ड (Echard) कहा है। इस सम्बन्ध को निम्न प्रकार से दर्शाया जा सकता है
Holard = Chesard + Echard
Chesard = Holard – Echard
Echard = Holard – Chesard
पौधों की सुचारु वृद्धि के लिए जल की पर्याप्त मात्रा आवश्यक होती है। मृदा में जल की अधिकता या जलाक़ान्ति (Water logging) से जड़ों को ऑक्सीजन के अभाव तथा कार्बन डाई ऑक्साइड के अधिक संचयन के कारण हानि होती है। इससे श्वसन क्रिया तथा जल का अवशोषण प्रभावित होता है, जिससे पौधों में क्षीण वृद्धि होती है। इस प्रकार की भूमि कार्यिकी दृष्टि से शुष्क (Physiologically dry) होती है।
(vii) मृदा वायु (Soil air)-
खनिज कणों के मध्य पाये जाने वाले सूक्ष्मस्थल, रंध्र स्थल (pore space) कहलाते हैं। इन स्थलों में या तो जल होता है या फिर वायु भरी होती है। यह वायु, मृदा का वायुमण्डल बनाती है। विभिन्न गठन प्रकारों में इन स्थलों का परिमाप व संख्या भिन्न होती है। उदाहरणार्थ अपेक्षाकृत मोटे कणों वाली बलुई मृदा में, सिल्ट मृदा की तुलना में रंध्र स्थल बड़े होते हैं परन्तु संख्या में कम होते हैं।
मृदा वायुमण्डल में वे ही गैसें मिलती हैं जो कि वायुमण्डल में पाई जाती हैं। लेकिन मृदा वायु में ऑक्सीजन की सांद्रता कुछ कम व CO2 की सांद्रता कुछ अधिक होती है। जलाक्रांत (water logged) मृदा में ऑक्सीजन की कमी होती है। क्षीण वातायन के कारण पौधों में अनेक आकारिक एवं शारीरिकी. गुणों में परिवर्तन आ जाते हैं, जैसे मेन्ग्रोव पादपों में न्यूमेटोफोर (pneumatophore) का पाया जाना। मृदा का उपयुक्त वातन, मूल की वृद्धि, बीजों के अंकुरण व सूक्ष्मजीवों की सक्रियता के लिए महत्वपूर्ण है। मृदा में वातन की कमी होने पर मूल रोम परिवर्धित नहीं होते हैं और जल व घुलित पोषकों का अवशोषण भी कम होता है।
प्रश्न 3.
सजीवों में पायी जाने वाली धनात्मक तथा ऋणात्मक अन्योन्यक्रियाओं पर एक निबन्ध लिखिए।
उत्तर-
सजीवों के समस्त जैविक क्रियाओं तथा अन्योन्यक्रियाओं के प्रभाव को जैविक कारक कहते हैं। ओडम ने समस्त जैविक सम्बन्धों को धनात्मक तथा ऋणात्मक अन्योन्यक्रियाओं में बांटा है।
(i) धनात्मक अन्योन्यक्रियाएँ (Positive interactions)-
इस प्रकार की क्रियाओं में एक या दोनों जातियों को लाभ पहुंचता है। ये तीन प्रकार की होती हैं
(अ) सहोपकारिता (Mutualism)-
इसमें दोनों जातियों को लाभ पहुंचता है तथा जीवनयापन हेतु दोनों का साथ आवश्यक है। उदाहरण- शैक, सहजीवी नाइट्रोजन स्थिर कारक, कवकमूल साहचर्य आदि। कुछ उच्च श्रेणी के पौधों की मूलों व कवक में साहचर्य होता है, इसे कवकमूल साहचर्य कहते हैं। उदाहरण- पाइनस, ओक, हिकरी, बीच आदि। इनमें कवक जल व खनिज लवणों का अवशोषण कर पौधे को उपलब्ध करवाता है तथा मूल कवक को भोजन प्रदान करते हैं। इस प्रकार के पौधों की मूल में मूलरोमों का अभाव होता है।
(ब) प्राक् सहयोगिता (Protocooperation)-
इसमें दोनों समष्टियों को लाभ होता है परन्तु जीवनयापन हेतु साथ रहना आवश्यक नहीं होता है। उदा. समुद्री एनिमोन तथा हर्मिट केंकड़े के बीच इसी प्रकार का सम्बन्ध होता है। समुद्री एनिमोन केंकड़े के कवच से चिपका रहता है जो इसे भोजन के लिए एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाता है तथा समुद्री एनिमोन अपनी दंश कोशिकाओं के हर्मिट केंकड़े को शत्रुओं से सुरक्षा प्रदान करता है।
(स) सहभोजिता (Commensalism)-
इस साहचर्य में दोनों में से केवल एक को लाभ होता है लेकिन हानि किसी को नहीं होती है। अधिपादप तथा कंठलताएं इसका उपयुक्त उदाहरण हैं। अधिपादप स्वपोषी होते हुए भी अन्य पौधों पर उगते हैं। ये वेलामेन (Velamen) मूल द्वारा आर्द्रता को ग्रहण करते हैं तथा प्रकाश संश्लेषण द्वारा अपना भोजन बनाते हैं (चित्र 39.10)। उदा.- वैन्डा तथा आर्किड्स। हरित शैवाल बेसीक्लेडिया (Basicladia) अलवणीय जल में पाए जाने वाले कछुए के कवच पर उगता है, यह अधिजन्तु का उदाहरण है।
कंठलताएं (Lianas)-काष्ठीय आरोही पौधे हैं जो पृथ्वी पर उगकर अन्य पेड़ों का सहारा लेकर ऊपर चढ़ते हैं तथा उनके शीर्ष भागों पर फैल जाते हैं ताकि उन्हें उचित प्रकाश प्राप्त हो। उदा.- टीनोस्पोरा, बिग्नोनिया, बोगेनविलिया आदि।
(ii) ऋणात्मक अन्योन्यक्रियाएं (Negative interactions)-
इस प्रकार का सहजीवन जिसमें एक या दोनों जीवों को हानि पहुंचती है। इन्हें ऋणात्मक अन्योन्यक्रियाएं या विरोध (antagonism) कहते हैं। ऐसे सम्बन्धों को तीन वर्गों में विभक्त किया गया है
(अ) शोषण (Exploitaion)-
इसमें एक जीव अन्य जीव को आधार, आश्रय या भोजन हेतु प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से उपभोग करके हानि पहुंचाता है। भोजन के लिए शोषण दो प्रकार का होता है
(क) परजीविता (Parasitisin)-
वे जीव जो भोजन के लिए अन्य जीव पर निर्भर रहते हैं, उन्हें परजीवी कहते हैं तथा जिससे भोजन प्राप्त करते हैं उसे परपोषी (host) कहते हैं। परजीवी, परपोषी से चूषकांग (haustoria) की सहायता से भोजन चूसते हैं। परजीवी दो प्रकार के होते हैं
- बाह्य परजीवी (Ectoparasite)-ऐसे परजीवी, परपोषी के बाहर रहते हैं, किन्तु चूषकांगों को परपोषी की कोशिका में प्रवेश करा देते हैं। उदा.-अमरबेल, कसाईथा (Cassytha) आदि। ऐसे परजीवी जब परपोषी की मूलों से भोजन प्राप्त करते हैं तो मूल परजीवी कहलाते हैं। ये आंशिक या पूर्ण मूल परजीवी हो सकते हैं, जैसे चंदन, शीशम, सीरस की जड़ों पर आंशिक परजीवी होता है। स्ट्राइगा घासों पर तथा ऑरोबैंकी, सोलेनेसी व क्रूसीफेरी कुल के पादपों की जड़ों पर पूर्ण मूल परजीवी होते हैं। वे परजीवी जो परपोषी के स्तम्भ से अपना भोजन प्राप्त करते हैं, जैसे अमरबेल, बेर, आक आदि पर पूर्ण स्तम्भ परजीवी होता है। कसाईथा, नीम पर पूर्ण स्तम्भ परजीवी तथा लोरेन्थस व विस्कस क्रमशः बोसविलीया (Boswellia) व पाइनस पर आंशिक स्तम्भ पर परजीवी होता है।
- अन्तःपरजीवी (Endoparasasite)-इसमें परजीवी, परपोषी की कोशिकाओं के अन्दर रहते हैं, जैसे-विषाणु, जीवाणु, माइकोप्लाज्मा आदि।
(ख) परभक्षिता (Predation)-
कुछ जीव अन्य जीवों को भोजन के लिए उपयोग करते हैं। प्रायः परभक्षी जन्तु होते हैं जो शाकाहारी या मांसाहारी हो सकते हैं। कवक डेक्टिलेला (Dactylella) तथा जुफेगस (Zoophagus) आदि कीटों, गोलकृमि आदि को खाते हैं। कुछ कीटभक्षी पादप जैसे नेपेन्थीज, ड्रोसेरा, यूट्रीकुलेरिया, डायोनिया आदि प्रायः नाइट्रोजन की कमी व जलाक्रांत मृदा में उगते हैं। ये पौधे अपने विशेष अंगों की सहायता से कीटों को खाते हैं।
(ब) प्रतिजीविता (Antibiosis)-
इसमें एक जीव द्वारा कुछ रासायनिक पदार्थों का स्रवण किया जाता है जिससे दूसरे जीव की वृद्धि पूर्ण या आंशिक रूप से अवरुद्ध हो जाती है या उसकी मृत्यु हो जाती है, इसे प्रतिजीविता कहते हैं। कुछ उच्च श्रेणी पादपों की जड़ों से ऐसे रसायनों का स्रवण होता है जिससे दूसरे जाति के पौधों के बीजों के अंकुरण संदमित हो जाते हैं, इसे एलीलोपैथी (Allelopathy) कहते हैं। उदा.एरिस्टिडा घास फीनोल जैसे पदार्थों का स्रवण करे नाइट्रोजन स्थिरीकरण करने वाले जीवाणु व शैवालों की वृद्धि को रोक देती है। पार्थिनियम (गाजर घास), लैण्टाना, यूकेलिप्टस आदि भी एलीलोपथी प्रदर्शित करते हैं।
(स) स्पर्धा (Competition)-
पर्यावरण की समान आवश्यकताओं को प्राप्त करने के लिए जीवों में स्पर्धा उत्पन्न होती है। यह स्पर्धा मुख्यतः जल, प्रकाश, पोषक तत्वों व आश्रय के लिए होती है। यह स्पर्धा जब एक ही जाति के पादपों के बीच होती है तो उसे अन्तराजातीय स्पर्धा कहते हैं। दो भिन्न जातियों के बीच होने वाली स्पर्धा को अन्तरजातीय स्पर्धा कहा जाता है।
अन्तराजातीय पारस्परिक क्रियाएं एक जाति या दोनों जातियों के लिए हितकारी, हानिकारक या उदासीन (न हानिकारक न लाभदायक) हो सकती हैं। लाभदायक पारस्परिक क्रियाओं के लिए ‘+’ चिह्न तथा हानिकारक के लिए ‘-‘ चिह्न और उदासीन के लिए ‘0’ चिह्न दर्शाए, तथा अन्तराजातीय पारस्परिक क्रियाओं के सभी संभावित परिणाम निम्न सारणी में दिए जा रहे हैं-
सारणी- समष्टियों की पारस्परिक क्रिया
जाति अ | जाति ब | पारिस्परिक क्रिया का नाम |
+ | + | सहोपकारिता (Mutualism) |
– | – | स्पर्धा (Competition) |
+ | – | परभक्षण (Predation) |
+ | – | परजीविता (Parasitism) |
+ | 0 | सहभोजिता (Commensalism) |
– | 0 | अंतरजातीय परजीविता (Amensalisin) |
एक-दूसरे से पारस्परिक क्रिया में सहोपकारिता में दोनों जातियों को लाभ होता है और स्पर्धा में दोनों को हानि होती है। परजीविता और परभक्षण दोनों में केवल एक जाति को लाभ होता है। (क्रमशः परजीवी और परभक्षी को) और पारस्परिक क्रिया दूसरी जाति (क्रमशः परपोषी और शिकार) के लिए हानिकारक है। ऐसी पारस्परिक क्रिया जिसमें एक जाति को लाभ होता है और दूसरी को न लाभ होता है और न हानि। उसे सहभोजिता कहते हैं। दूसरी ओर, अंतरजातीय परजीविता में एक जाति को हानि होती है जबकि दूसरी जाति अप्रभावित रहती है। परभक्षण, परजीविता और सहभोजिता इन तीनों की एक साझा विशेषता है- पारस्परिक क्रिया करने वाली जातियां निकटता से साथ-साथ रहती हैं।