Rajasthan Board RBSE Class 11 Biology Chapter 45 वन व वन्यजीव नियम (संक्षिप्त)
RBSE Class 11 Biology Chapter 45 पाठ्यपुस्तक के प्रश्न
RBSE Class 11 Biology Chapter 45 वस्तुनिष्ठ प्रश्न
प्रश्न 1.
भारतीय वन अधिनियम 1927 में प्रावधान है।
(अ) वन कटाई पर रोक
(ब) जल प्रदूषण पर रोक
(स) पशु चराने पर रोक
(द) उपरोक्त सभी
प्रश्न 2.
किस वन संरक्षण अधिनियम में केन्द्र सरकार की पूर्व अनुमति आवश्यक है
(अ) भारतीय वन अधिनियम 1927
(ब) भारतीय वन संरक्षण अधिनियम 1980
(स) राजस्थान वन अधिनियम 1953
(द) राष्ट्रीय वन अधिनियम 1988
प्रश्न 3.
राष्ट्रीय वन्य अभयारण्य व राष्ट्रीय उद्यान बनाने का प्रावधान किस अधिनियम के अन्तर्गत किया गया?
(अ) भारतीय वन अधिनियम 1927
(ब) भारतीय वन अधिनियम 1980
(स) वन्य जीव संरक्षण अधिनियम 1972
(द) राजस्थान वन अधिनियम 1953
प्रश्न 4.
प्रदूषण नियन्त्रण से संबंधित प्रथम अधिनियम बनाया गया।
(अ) 1948 में
(ब) 1929 में
(स) 1974 में
(द) 1962 में
प्रश्न 5.
मोटर वाहन कानून में किस गैस का स्तर सही रखना चाहिए?
(अ) ऑक्सीजन गैस
(ब) कार्बन-डाई-ऑक्साइड गैस
(स) क़ार्बन मोनो ऑक्साइड
(द) नाइट्रोजन गैस
प्रश्न 6.
निम्न में से किस पदार्थ का प्रयोग प्रतिबन्धित है।
(अ) पोटेशियम परमैंगनेट
(ब) कॉपर सल्फेट
(स) बेन्जीडीन
(द) सोडियम क्लोराइड
प्रश्न 7.
भारत में किस पादप को घर का वैद्य कहा जाता है।
(अ) तुलसी
(ब) गुलाब
(स) पीपल
(द) केला
उत्तरमाला
1. (द)
2. (ब)
3. (स)
4. (स)
5. (स)
6. (स)
7. (अ)
RBSE Class 11 Biology Chapter 45 अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
वन सम्पदा के मुख्य घटक क्या-क्या हैं?
उत्तर-
इसमें वनस्पति तथा वन्य जीव होते हैं।
प्रश्न 2.
रियासत काल में वन संरक्षण कैसे किया जाता था?
उत्तर-
रियासत काल में राज परिवार व शाही अतिथियों के अतिरिक्त शिकार करना निषेध था। वनों व वन्य जीवों को पूर्ण सुरक्षा प्राप्त थी।
प्रश्न 3.
संविधान के अनुच्छेद 48(क) में क्या कहाँ गया है?
उत्तर-
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 48(क) में पर्यावरण सुधार व वन्य जीवों के संरक्षण के लिए लिखा गया है।
प्रश्न 4.
भारतीय वन अधिनियम 1927 के उल्लंघन पर सजा का क्या प्रावधान है?
उत्तर-
उल्लंघन होने पर छः मास की अवधि का कारावास या पांच सौ रुपये का जुर्माना या दोनों से दण्डित किया जा सकता है।
प्रश्न 5.
वन संरक्षण अधिनियम 1980 कब लागू किया गया?
उत्तर-
25 अक्टूबर, 1980 को।
प्रश्न 6.
वन संरक्षण अधिनियम 1980 भारत के किस राज्य पर लागू नहीं होता है।
उत्तर-
जम्मू-कश्मीर।
प्रश्न 7.
आरक्षित वन को अनारक्षित घोषित करने का प्रावधान किस कानून में है?
उत्तर-
वन संरक्षण अधिनियम 1980 में ।
प्रश्न 8.
वन भूमि को गैर वन भूमि के रूप में काम में लाने के लिये किसकी पूर्व अनुमति आवश्यक है?
उत्तर-
वन संरक्षण अधिनियम 1980
प्रश्न 9.
राष्ट्रीय वन्य अधिनियम 1988 में कौन से अधिनियम को संशोधित किया गया?
उत्तर-
वन संरक्षण अधिनियम 1980 को।
प्रश्न 10.
वन्य जीव संरक्षण अधिनियम 1972 कब लागू किया गया?
उत्तर-
9 सितम्बर, 1972
प्रश्न 11.
विलुप्त होने वाले जीवों की जातियों के संरक्षण के प्रयास किस अधिनियम में करने का प्रावधान रखा गया है?
उत्तर-
वन्य जीव (संरक्षण) अधिनियम, 1972
प्रश्न 12.
जल प्रदूषण अधिनियम 1974 में दोषी व्यक्ति को क्या सजा दी जा सकती है?
उत्तर-
तीन मास का कारावास या दस हजार रु. जुर्माना या दोनों से दण्डनीय होगा।
प्रश्न 13.
पर्यावरण रक्षण कानून कब बनाया गया?
उत्तर-
पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, 1986
प्रश्न 14.
हानिकारक व प्रतिबंधित रसायनों के नाम बताइये।
उत्तर-
DDT, BHC, CFCs, मर्करा, सीसा युक्त पीड़कनाशी, कवकनाशी, शाकनाशी, जीवाणुनाशी आदि।
प्रश्न 15.
वायु प्रदूषण नियन्त्रण के लिए कौनसा अधिनियम लागू किया गया?
उत्तर-
वायु (प्रदूषण निवारण तथा नियन्त्रण) अधिनियम, 1981
प्रश्न 16.
प्रदूषण नियन्त्रण से संबंधित प्रथम अधिनियम कब बनाया गया?
उत्तर-
जल (प्रदूषण निवारण एवं नियंत्रण) अधिनियम, 1974
प्रश्न 17.
वैदिक युग में वातावरण शुद्धि किस प्रकार की जाती थी?
उत्तर-
यज्ञ करके।
प्रश्न 18.
पर्यावरण के मूलभूत घटक कौन-कौन से हैं?
उत्तर-
जैविक (पादप व जन्तु) तथा अजैविक (वायु, प्रकाश, तापक्रम, आर्द्रता, वर्षा, मृदा) ।।
प्रश्न 19.
वसुधैव कुटुम्बकम् का क्या अर्थ है?
उत्तर-
सभी ही भगवान की सन्तान हैं एक कुटुम्ब है, इसमें मानव मात्र के कल्याण की भावना है।
प्रश्न 20.
हम सभी को नैतिक दायित्व क्या है?
उत्तर-
प्रकृति ने जो सम्पदा हमें प्रदत्त की है उसकी रक्षा व संरक्षण करना।
RBSE Class 11 Biology Chapter 45 लघूत्तरात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
”वन मानव के लिये सम्पदा है” स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-
वन एक अनूठी सम्पदा है जिसे प्रकृति द्वारा मानव को उपहारस्वरूप प्रदान किया गया है। इस सम्पदा में वनस्पति तथा वन्य जीव आते हैं । वन्यजीव वनों में रहकर आश्रय व भोजन प्राप्त करते हैं। वनों से मानव तरह-तरह के उत्पाद प्राप्त करता है। वन हमारे पर्यावरण को संतुलन में रखते हैं तथा वायु को शुद्ध रखते हैं। वर्षा लाते हैं।
प्रश्न 2.
हमारे संविधान में वन तथा वन्य जीवों के संरक्षण के लिये क्या व्यवस्था की गई है?
उत्तर-
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 48(क) में यह व्यवस्था की गई है कि पर्यावरण में सुधार किया जाए तथा वन व वन्यजीवों की सुरक्षा की जाए।
अनुच्छेद 51(क) में नागरिकों से अपेक्षा की गई है कि वे वन, झीलें, नदियाँ और वन्य प्राणियों की रक्षा करे तथा सभी जीवित प्राणियों के प्रति सहानुभूति रखें।
इसके अतिरिक्त भारतीय वन अधिनियम, 1927, वन संरक्षण अधिनियम, 1980, राष्ट्रीय वन्य अधिनियम 1988 (संशोधित 1980 अधिनियम) तथा वन तथा प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्र संरक्षण नियम, 1994, बनाया गया।
प्रश्न 3.
भारतीय वन अधिनियम 1927 को समझाइये।
उत्तर-
भारतीय वन अधिनियम, 1927 (Indian Forest Act, 1927) के प्रावधानों के अनुसार निम्न कार्यों पर प्रतिबन्ध लगाया गया
- धारा 5 के अन्तर्गत वनस्पति को काटना व सफाई करना अपराध है।
- आरक्षित वन में आग लगाना या जलता छोड़ देना।
- वनों में पशुओं को चराना या पशुओं का अतिचारण (Overgrazing) करने देना ।।
- वृक्ष को काटना, गिराना, छांगना (छांटना), लकड़ी काटना, छाल उतारना, पत्तियाँ तोड़ना व जलाना आदि।
- वन उपज का संग्रह करना, पत्थर की खुदाई करना तथा लकड़ी का कोयला जलाना ।।
- खेती या अन्य कार्य हेतु भूमि को साफ करना।
- शिकार खेलना, गोली चलाना, मछली पकड़ना, जल को विषैला करना, पक्षियों के लिये जाल बिछाना।
- हाथियों का वध करना।
- वन से प्राप्त उत्पादों का व्यापार करना।
अपराधी का दोष सिद्ध होने पर न्यायालय छः मास की अवधि का कारावास या पाँच सौ रुपये का जुर्माना या दोनों से दण्डित किया जा सकता है।
प्रश्न 4.
वन संरक्षण अधिनियम 1980 के मुख्य उद्देश्य बताइए।
उत्तर-
वन संरक्षण अधिनियम, 1980 (Forest Conservation Act, 1980)-वन संरक्षण अधिनियम 25 अक्टूबर, 1980 को लागू किया गया है। यह अधिनियम जम्मू-कश्मीर को छोड़कर सम्पूर्ण भारत पर प्रभावी है। अधिनियम के निम्न उद्देश्य है
- वन नष्ट करने व वन कटाई से पारिस्थितिक असंतुलन को रोकना।
- किसी आरक्षित वन को अनारक्षित घोषित करने के लिए केन्द्र सरकार की पूर्व अनुमति आवश्यक है।
- वन भूमि को गैर कार्यों के उपयोग में लाने के लिए केन्द्र सरकार की पूर्व अनुमति आवश्यक है।
- वन भूमि को गैर वन भूमि के कार्य हेतु लेने के साथ यह भी प्रावधान है कि उतनी ही अथवा उसके बराबर क्षेत्र में वन (पेड़) लगाने होंगे।
प्रश्न 5.
वन संरक्षण अधिनियम 1988 किसको संशोधन है? इसके उद्देश्य बताइये।
उत्तर-
3. राष्ट्रीय वन्य अधिनियम, 1988 ( संशोधित 1980 अधिनियम ) (National Wild Act, 1988-Amended 1980 Act)-इस अधिनियम के उद्देश्य इस प्रकार हैं
- पारिस्थितिकी संतुलन को बनाए रखना।
- पर्यावरण की स्थिरता को कायम रखना।
प्रश्न 6.
वन्य जीव संरक्षण अधिनियम 1972 कब लागू किया गया? इसके मुख्य उद्देश्य लिखिए।
उत्तर-
भारत में वन्य जीवन को सुरक्षा प्रदान करने की दृष्टि से 9 सितम्बर 1972 को वन्य जीवन सुरक्षा अधिनियम” लोकसभा में पारित किया गया। इस अधिनियम का मुख्य उद्देश्य वन्य प्राणियों, पेड़पौधों एवं पक्षियों की सुरक्षा सुनिश्चित करना है। यह अधिनियम जम्मू एवं कश्मीर को छोड़कर सम्पूर्ण भारतवर्ष में समान रूप से लागू है। इस अधिनियम में समय एवं परिस्थिति की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए कई संशोधन किये गये। प्रथम संशोधन सन् 1982 के बाद सन् 1986, 1991 एवं 2002 में संशोधन किये गये । नवीनतम संशोधन के अनुरूप प्रधानमंत्री के सान्निध्य में वन्य जीवों के राष्ट्रीय बोर्ड (National Board for Wild Life) के गठन का प्रावधान है।
प्रश्न 7.
किस कानून के द्वारा राष्ट्रीय उद्यान व अभयारण्य बनाने का प्रावधान रखा गया है?
उत्तर-
वन्य जीव (संरक्षण) अधिनियम, 1972
प्रश्न 8.
राजस्थान सरकार द्वारा वन्य जीवों के संरक्षण के कौन-कौन से अधिनियम बनाये गये हैं?
उत्तर-
इसके लिये वन्य जीव संरक्षण अधिनियम, 1972 लागू किया गया है। परिस्थितियों के अनुसार 1982, 1986 व 1991 में कुछ संशोधन भी किये गये। इस अधिनियम का एक लक्ष्य ऐसी दीर्घकालीन राष्ट्रीय वन्य जीव संरक्षण योजना तैयार करना है जिससे वन्य जीव संरक्षण संवर्द्धन की नीतियों और परियोजनाओं को कार्यरूप में परिणित किया जाए और ऐसे संरक्षित वन्य क्षेत्रों में वृद्धि करना, जिसमें मानव और उसकी आर्थिक गतिविधियों को हस्तक्षेप न्यूनतम हो ।
प्रश्न 9.
प्रदूषण किसे कहते हैं? प्रदूषण का पर्यावरण पर क्या प्रभाव पड़ रहा है?
उत्तर-
भूमि की ऊपरी सतह को मृदा कहते हैं। मृदा के भौतिक, रासायनिक तथा जैविक गुण होते हैं जिससे जीव-जन्तुओं के लिए पोषक तत्व उत्पन्न होते हैं। लेकिन जब इन गुणों (भौतिक, रासायनिक तथा जैविक) में ऐसा कोई परिवर्तन होता है जिसका दुष्प्रभाव मानव व अन्य जीवों पर पड़ता है, उसे मृदा प्रदूषण कहते हैं।
प्रश्न 10.
प्रदूषण से होने वाली समस्यायें बताइये।
उत्तर-
भूमि की ऊपरी सतह को मृदा कहते हैं। मृदा के भौतिक, रासायनिक तथा जैविक गुण होते हैं जिससे जीव-जन्तुओं के लिए पोषक तत्व उत्पन्न होते हैं। लेकिन जब इन गुणों (भौतिक, रासायनिक तथा जैविक) में ऐसा कोई परिवर्तन होता है जिसका दुष्प्रभाव मानव व अन्य जीवों पर पड़ता है, उसे मृदा प्रदूषण कहते हैं।
प्रश्न 11.
जल (प्रदूषण निवारण एवं नियंत्रण) अधिनियम 1974 में क्या कहा गया है? इसका संशोधन नियम भी लिखिए।
उत्तर-
इस अधिनियम के प्रमुख लक्ष्य जल प्रदूषण निवारण, जल प्रदूषण नियन्त्रण, जल की गुणवत्ता बनाये रखने और ज़ल को पुनर्चक्रित करना है। इसके लिये केन्द्र व राज्य स्तर पर बोर्ड बनाये गये हैं। अपवाह, मल अपवाह, औद्योगिक अपशिष्ट उत्सर्जन व भूमिगत जल की गुणवत्ता की जांच के लिये प्रयोगशालायें स्थापित की हैं। जल प्रदूषण एवं नियन्त्रण अधिनियम उपकर (cess) 1977 में जल उपभोक्ता उद्योगों पर जल उपभोग हेतु उपकर लगाने का प्रावधान है। जल प्रदूषण एवं नियन्त्रण अधिनियम, 1974 में एक संशोधन द्वारा 1988 में केन्द्रीय व राज्य प्रदूषण नियन्त्रण बोर्ड को अधिकार दिया गया था कि नियमों का उल्लंघन करने वाले किसी भी प्रतिष्ठान की बिजली व पानी की आपूर्ति को बन्द कर दें।
प्रश्न 12.
पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम 1986 बताइए।
उत्तर-
इसके निम्नलिखित उद्देश्य हैं
- पर्यावरण संरक्षण और संवर्द्धन,
- स्टाकहोम सम्मेलन के निर्णयों का क्रियान्वयन,
- जीव-वनस्पति-मानव और उसकी सम्पत्ति को सुरक्षा प्रदान करना।
इसमें पर्यावरण की सुरक्षा व गुणवत्ता बढ़ायी जा सकती है, पर्यावरण प्रदूषण से बचाव, नियन्त्रण और प्रतिबन्ध, उत्सर्जन के मापदण्ड तय करना, उद्योगों पर निगरानी रखना, पर्यावरणीय दुर्घटनाओं से बचने के उपाय, विषाक्त व हानिकारक पदार्थों का उत्सर्जन सरकार द्वारा निर्धारित नियमानुसार हो, कच्चे माल का परीक्षण, पर्यावरण प्रदूषण पर उपलब्ध सूचनाओं का संकलन व प्रचार, पर्यावरण प्रदूषण निषेध, नियन्त्रण और उन्मूलन से सम्बन्धित नियमावली, आचार संहिता व निर्देशिकाएं तैयार करना, पर्यावरण संरक्षण अधिनियम, 1986 के अन्तर्गत सरकार का अधिकार
इस अधिनियम के अतिरिक्त प्रदूषण के विभिन्न प्रकारों के नियन्त्रण के लिये, जल प्रदूषण निवारण एवं नियन्त्रण अधिनियम, 1974, मोटर वाहन अधिनियम 1988 भी पर्यावरण प्रदूषण पर नियन्त्रण हेतु लागू किये। गए हैं।
प्रश्न 13.
नदियों को साफ, निर्मल व सुप्रवाही किस प्रकार रख सकते हैं?
उत्तर-
शहरी अपशिष्ट पदार्थों, मल-मूत्र विसर्जन आदि सीधे ही जलाशय या नदियों में विसर्जित न किये जावें अधिकांश उद्योग-धंधे नदियों के आस-पास स्थापित हैं, इन उद्योगों के अपशिष्ट सीधे नदियों में न डाले जावें सभी प्रकार के अपशिष्टों को नदियों में डालने से पूर्व उपचारित करना आवश्यक है। गंगा नदी के किनारे अनेक उद्योग-धन्धों की यही हालत थी जिससे यह नदी अत्यधिक प्रदूषित हो गयी थी किन्तु गंगा एक्शन प्लान के पश्चात् इस पर रोक लगी है।
प्रश्न 14.
बड़ी प्राकृतिक दुर्घटनाओं के मुख्य कारण क्या है?
उत्तर-
पर्यावरण के असंतुलन से प्रकृति में अनेक दुर्घटनाएं घटित होती हैं जिन्हें प्राकृतिक आपदाएं कहते हैं। मानव अपने क्रियाकलापों से भी इन दुर्घटनाओं को आमंत्रित करता है, जैसे हरित गृह प्रभाव, ओजोन परत का क्षरण पृथ्वी के तापमान में वृद्धि हो रही है। यद्यपि अनेक ग्रहीय आपदायें (भूकम्प, सूखा, बाढ़, चक्रवात, भूस्खलन) भी हैं। अनेक औद्योगिक आपदायें हैं जैसे स्मोग (Smog), मोटर वाहनों से उत्सर्जित धुएँ, जीवाश्मी ईंधन का अंधाधुंध दहन, अम्ल वर्षा, क्लोरोफ्लोरो कार्बन अनेक उद्योग जैसे रासायनिक खाद व अन्य रसायनों के निर्माण आदि से रिसाव होने पर भी यह दुर्घटनाएं होती हैं, जैसे भोपाल त्रासदी की घटना। नाभिकीय बिजलीघरों से भी खतरा बना रहता है जैसे चेर्नोबिल की। घटना ।।
प्रश्न 15.
पर्यावरण नैतिकता किसे कहते हैं?
उत्तर-
मानव के सभी ओर एक आवरण (कवच) है, जिसे पर्यावरण कहते हैं। यह अजैविक, जैविक, सांस्कृतिक, आर्थिक, राजनैतिक, धार्मिक प्रकार का होता है। कवच उसमें रहने वाली गिरी (मानव) का सर्वांगीण विकास करता है। इसका अर्थ यह हुआ कि बिना कवच गिरी (मानव) की रक्षा असम्भव है। अतः हमें अपने चारों ओर उपस्थित आवरण के प्रति पूर्ण समर्पित रहना चाहिए अर्थात् उसको संरक्षण करना चाहिए, प्रदूषण को रोकना व कम करना चाहिए। यही हमारा पर्यावरण के प्रति नैतिक दायित्व है।
प्रश्न 16.
पेड़-पौधे पर्यावरण को स्वस्थ वे संतुलित बनाने में क्या योगदान देते हैं?
उत्तर-
पेड़-पौधे सूर्य के प्रकाश की उपस्थिति में भोजन निर्माण का कार्य करते हैं अर्थात् ये उत्पादक हैं। समस्त शाकाहारी जीव, यहाँ तक की मानव भी भोजन आपूर्ति पौधों से ही प्राप्त करते हैं। इस क्रिया में पेड़-पौधे CO2 गैस को लेते हैं व उसके स्थान पर वायुमण्डल में O2 का निष्कासन करते हैं अर्थात् वायुमण्डल को O2, से युक्त रखते हैं। इस प्रकार वायुमण्डल में CO2 व O2, का संतुलन बना रहता है। यही नहीं पौधे वाष्पोत्सर्जन की क्रिया कर वायुमण्डल में वाष्प भी छोड़ते हैं। पेड़ पौधों के कारण ही वर्षा होती है। पर्यावरण की सुन्दरता का कारण भी वनस्पति है। अतः पेड़-पौधे ही ऐसे जीव हैं जो प्राकृतिक रूप से भोजन व O2, देने में सक्षम हैं।
प्रश्न 17.
संसाधनों का उपयोग किस प्रकार किया जाना चाहिए?
उत्तर-
संसाधन नवीकरणीय (प्राणी, वनस्पति, मृदा) तथा अनवीकरणीय (जीवाश्म, ईंधन, पेट्रोल, डीजल) प्रकार के होते हैं । अनेक संसाधन पृथ्वी पर या अन्दर सीमित अवस्था में हैं। अतः हम इन संसाधनों का संरक्षण इस प्रकार करें कि मानव को उनका अभाव महसूस न हो तथा साथ ही साथ वे निरापद भी बने रहें राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के शब्दों में, प्रकृति में सभी की आवश्यकताओं की पूर्ति करने की क्षमता है।” हम प्रकृति से उतना ही ग्रहण करें, जितना हमारे लिये। आवश्यक हो अर्थात् इस प्रकृति का दोहन तो अवश्य करें, परन्तु शोषण किसी भी कीमत पर नहीं करें क्योंकि प्राकृतिक संसाधनों पर सिर्फ हमारा ही हक नहीं है, बल्कि ये आने वाली पीढ़ियाँ (सन्तानों) की धरोहर भी है। फलस्वरूप, प्राकृतिक संसाधनों की सीमितता को ध्यान में रखते हुए ही उनको बुद्धिमत्तापूर्ण उपयोग करने में ही हमारा सुनहरा भविष्य तथा भलाई दोनों ही हैं।
RBSE Class 11 Biology Chapter 44 निबन्धात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
भारत सरकार द्वारा वन संरक्षण हेतु कौन-कौनसे वन अधिनियम बनाये गये हैं? प्रत्येक का वर्णन कीजिए।
उत्तर-
भारत सरकार ने वन संरक्षण अधिनियम 1980 को 24 अक्टूबर, 1980 से लागू किया था परन्तु यह अधिनियम केवल जम्मू कश्मीर में प्रभावी नहीं है। इसका मूल उद्देश्य था
- वन नष्ट करने व वन कटाई से पारिस्थितिक असंतुलन को रोकना।
- किसी आरक्षित वने को अनारक्षित घोषित करने के लिये केन्द्र सरकार की पूर्व अनुमति आवश्यक है।
- वन भूमि को गैर कार्यों के उपयोग में लाने के लिये केन्द्र सरकार की पूर्व अनुमति आवश्यक है।
यह कानून मूलतः इसलिए लाया गया था ताकि वन भूमि के। ‘गैर-वानिकी’ कार्यों में आवंटन का नियमन किया जा सके। वन संरक्षण कानून उन सारे क्षेत्रों पर लागू होता है, जिन्हें सरकारी रिकॉर्ड में वन के रूप में दिखाया गया है। अतः इसके दायरे में सरकारी व निजी दोनों तरह। के वन आते हैं। बम्बई हाईकोर्ट की गोआ बैंच ने हाल ही में एक फैसला दिया, जिसमें कहा गया है कि मात्र घोषित ‘वन’ ही नहीं अपितु वे क्षेत्र भी इस कानून के दायरे में आते हैं, जिन पर जंगल सदृश वनस्पति आच्छादन मौजूद हो।
वन संरक्षण कानून की आलोचना विकास विरोधी कह कर की गई है परन्तु तथ्य यह है कि इसी की बदौलत गैर वानिकी कार्यों में वन भूमि के उपयोग पर कारगर रोक लग पाई है। इसके चलते देश में जैव विविधता के विनाश की रफ्तार थमी है। यह सही है कि क्षतिपूर्ति वनीकरण के द्वारा जैव विविधता के विनाश को रोका नहीं जा सकता मगरे कम-से-कम नए वनीकृत क्षेत्रों में जैव विविधता के विकास की गुंजाइश बनती है। मोनो कल्चर सम्बन्धी नियमादि हालाँकि प्राकृतिक रूप से संरक्षण का महत्त्व कम कर देते हैं मगर कम-से-कम इनका जैव विविधता के संरक्षण के लिहाज से कुछ सकारात्मक योगदान तो है ही।
प्रश्न 2.
राजस्थान सरकार द्वारा वन संरक्षण हेतु कौन-कौन से वन कानून बनाये गये हैं? प्रत्येक का विस्तार से वर्णन कीजिए।
उत्तर-
1. भारतीय वन अधिनियम, 1927 (Indian Forest Act, 1927) के प्रावधानों के अनुसार निम्न कार्यों पर प्रतिबन्ध लगाया गया
- धारा 5 के अन्तर्गत वनस्पति को काटना व सफाई करना अपराध है।
- आरक्षित वन में आग लगाना या जलता छोड़ देना।
- वनों में पशुओं को चराना या पशुओं का अतिचारण (Overgrazing) करने देना ।
- वृक्ष को काटना, गिराना, छांगना (छांटना), लकड़ी काटना, छाल उतारना, पत्तियाँ तोड़ना व जलाना आदि।
- वन उपज का संग्रह करना, पत्थर की खुदाई करना तथा लकड़ी का कोयला जलाना ।
- खेती या अन्य कार्य हेतु भूमि को साफ करना।
- शिकार खेलना, गोली चलाना, मछली पकड़ना, जल को विषैला करना, पक्षियों के लिये जाल बिछाना।
- हाथियों का वध करना।
- वन से प्राप्त उत्पादों का व्यापार करना।
अपराधी का दोष सिद्ध होने पर न्यायालय छः मास की अवधि का कारावास या पाँच सौ रुपये का जुर्माना या दोनों से दण्डित किया जा सकता है।
2. वन संरक्षण अधिनियम, 1980 (Forest Conservation Act, 1980)-
वन संरक्षण अधिनियम 25 अक्टूबर, 1980 को लागू किया गया है। यह अधिनियम जम्मू-कश्मीर को छोड़कर सम्पूर्ण भारत पर प्रभावी है। अधिनियम के निम्न उद्देश्य है
- वन नष्ट करने व वन कटाई से पारिस्थितिक असंतुलन को रोकना।
- किसी आरक्षित वन को अनारक्षित घोषित करने के लिए केन्द्र सरकार की पूर्व अनुमति आवश्यक है।
- वन भूमि को गैर कार्यों के उपयोग में लाने के लिए केन्द्र सरकार की पूर्व अनुमति आवश्यक है।
- वन भूमि को गैर वन भूमि के कार्य हेतु लेने के साथ यह भी प्रावधान है कि उतनी ही अथवा उसके बराबर क्षेत्र में वन (पेड़) लगाने होंगे।
3. राष्ट्रीय वन्य अधिनियम, 1988 ( संशोधित 1980 अधिनियम ) (National Wild Act, 1988-Amended 1980 Act)-
इस अधिनियम के उद्देश्य इस प्रकार हैं
- पारिस्थितिकी संतुलन को बनाए रखना।
- पर्यावरण की स्थिरता को कायम रखना।
4. वन तथा प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्र संरक्षण अधिनियम, 1994 (Conservation of Forest and Natural Ecosystem Act, 1994)-
वनों का संरक्षण करने में स्थानीय लोगों की भागीदारी बढ़ाने के लिए गांव के व्यक्तियों द्वारा संचालित वनों के सामूहिक प्रबंधन व इनसे प्राप्त उत्पादों का उपयोग करने के अधिकार को इस अधिनियम में रखा गया है।
प्रश्न 3.
वन्य जीव संरक्षण अधिनियम 1972 को विस्तार से लिखिये।
उत्तर-
भारत में वन्य जीवन को सुरक्षा प्रदान करने की दृष्टि से 9 सितम्बर 1972 को वन्य जीवन सुरक्षा अधिनियम” लोकसभा में पारित किया गया। इस अधिनियम का मुख्य उद्देश्य वन्य प्राणियों, पेड़पौधों एवं पक्षियों की सुरक्षा सुनिश्चित करना है। यह अधिनियम जम्मू एवं कश्मीर को छोड़कर सम्पूर्ण भारतवर्ष में समान रूप से लागू है। इस अधिनियम में समय एवं परिस्थिति की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए कई संशोधन किये गये। प्रथम संशोधन सन् 1982 के बाद सन् 1986, 1991 एवं 2002 में संशोधन किये गये । नवीनतम संशोधन के अनुरूप प्रधानमंत्री के सान्निध्य में वन्य जीवों के राष्ट्रीय बोर्ड (National Board for Wild Life) के गठन का प्रावधान है। इसके निम्नलिखित कार्य हैं
- बोर्ड के द्वारा बनाये गये नियमों एवं योजनाओं के द्वारा वन्य जीवन एवं वनों का संरक्षण एवं विकास करना।
- वन्य जीवों को प्रोत्साहित एवं संरक्षित करने के साथ-साथ वन्य जीवों के उत्पादों का व्यापार व अवैध शिकार को नियंत्रित करने हेतु केन्द्र एवं राज्य सरकारों को आवश्यक सुझाव प्रेषित करना।
- राष्ट्रीय उद्योनों, अभयारण्यों तथा सुरक्षित क्षेत्रों के प्रबन्धीकरण हेतु दिशा-निर्देश प्रदान करना।
- वन्य जीवों के आवासों एवं उनके जीवन पर किये जाने वाले अध्ययन की प्रोजेक्ट रिपोर्ट का मूल्यांकन कर इन्हें प्रस्तुत करना।
- दो वर्षों में कम से कम एक बार देश के वन्य जीवन की रिपोर्ट प्रकाशित करना।
इसी प्रकार वन्य जीवन संशोधन अधिनियम 2002 के अन्तर्गत राष्ट्रीय बोर्ड की तरह राज्यों में राज्य बोर्ड (State Board for Wild Life) गठित करने का प्रावधान है। इसके निम्नलिखित कार्य हैं
(अ) संरक्षित क्षेत्र घोषित करने हेतु उचित वन क्षेत्रों को चुनाव करना तथा उनका प्रबन्धीकरण करना।
(ब) वन्य जीवन एवं निर्दिष्ट पेड़-पड़ों की सुरक्षा एवं संरक्षण हेतु नीति निर्धारण।
(स) वन्य जीवन संरक्षण की नीतियों एवं वनवासियों की आवश्यकताओं के बीच सामंजस्य बिठाना।
वन्य जीवन संरक्षण के प्रावधान निम्न हैं-
- वन जीवन सुरक्षा के लिये प्राधिकारों की नियुक्ति ।
- सूची में निर्दिष्ट पेड़-पौधों की सुरक्षा करना।
- वन्य जीवों के शिकार पर प्रतिबंध लगाना।
- अभयारण्य, राष्ट्रीय पार्क एवं निषेध क्षेत्र घोषित करने का प्रावधान।।
- चिड़ियाघरों को मान्यता देना।
- पशुओं के चमड़े से निर्मित वस्तुओं के व्यापार पर रोक।
- कानून तोड़ने वालों के लिये सजा एवं जुर्माने का प्रावधान ।
- वैज्ञानिक प्रबन्धों के लिये शिकार की अनुमति देना (धारा 12)।
- अधिनियम की अभयारण्यों एवं राष्ट्रीय पार्को से लगने वाले क्षेत्रों को संरक्षित रिजर्व का दर्जा दिये जाने का प्रावधान है।
इस अधिनियम में विशिष्ट पादप प्रजातियों (Specified Plant Species) की सुरक्षा एवं संरक्षण को सुनिश्चित किया गया है। इन विशिष्ट पादप प्रजातियों का कोई भी व्यापार नहीं कर सकेगा न ही सरकार की अनुमति के बिना कोई खेती कर सकेगा।
अभयारण्यों में केवल वे ही व्यक्ति प्रवेश कर सकते हैं जो वहाँ सरकारी रूप से तैनात कर्मचारी हैं या जिनकी जमीन या आवास उन क्षेत्रों में स्थित है। अभयारण्यों में हथियार या विस्फोटक ले जाने पर प्रतिबंध है।
वन्य जीव अधिनियम में चिड़ियाघरों (Zoo) की स्थापना का प्रावधान है। यहाँ पर उन प्रजातियों के लिये जो लुप्त होने के कगार पर है, के लिये प्रजनन कार्यक्रम (Beeding Programme) की समुचित व्यवस्था का प्रावधान है। इन्हीं चिड़ियाघरों में अनुसंधान एवं कर्मचारियों को प्रशिक्षण की भी व्यवस्था की जाती है।
इस अधिनियम का उल्लंघन करने वाले दोषी व्यक्ति को 6 माह से 7 वर्ष का कारावास व 500 रुपये से 5000 रुपये तक का आर्थिक दण्ड अथवा दोनों प्रकार का दण्ड दिया जा सकता है।
प्रश्न 4.
राजस्थान सरकार द्वारा वन्य जीव संरक्षण हेतु बनाये गये अधिनियम का वर्णन कीजिये।
उत्तर-
भारत में वन्य जीवन को सुरक्षा प्रदान करने की दृष्टि से 9 सितम्बर 1972 को वन्य जीवन सुरक्षा अधिनियम” लोकसभा में पारित किया गया। इस अधिनियम का मुख्य उद्देश्य वन्य प्राणियों, पेड़पौधों एवं पक्षियों की सुरक्षा सुनिश्चित करना है। यह अधिनियम जम्मू एवं कश्मीर को छोड़कर सम्पूर्ण भारतवर्ष में समान रूप से लागू है। इस अधिनियम में समय एवं परिस्थिति की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए कई संशोधन किये गये। प्रथम संशोधन सन् 1982 के बाद सन् 1986, 1991 एवं 2002 में संशोधन किये गये । नवीनतम संशोधन के अनुरूप प्रधानमंत्री के सान्निध्य में वन्य जीवों के राष्ट्रीय बोर्ड (National Board for Wild Life) के गठन का प्रावधान है। इसके निम्नलिखित कार्य हैं
- बोर्ड के द्वारा बनाये गये नियमों एवं योजनाओं के द्वारा वन्य जीवन एवं वनों का संरक्षण एवं विकास करना।
- वन्य जीवों को प्रोत्साहित एवं संरक्षित करने के साथ-साथ वन्य जीवों के उत्पादों का व्यापार व अवैध शिकार को नियंत्रित करने हेतु केन्द्र एवं राज्य सरकारों को आवश्यक सुझाव प्रेषित करना।
- राष्ट्रीय उद्योनों, अभयारण्यों तथा सुरक्षित क्षेत्रों के प्रबन्धीकरण हेतु दिशा-निर्देश प्रदान करना।
- वन्य जीवों के आवासों एवं उनके जीवन पर किये जाने वाले अध्ययन की प्रोजेक्ट रिपोर्ट का मूल्यांकन कर इन्हें प्रस्तुत करना।
- दो वर्षों में कम से कम एक बार देश के वन्य जीवन की रिपोर्ट प्रकाशित करना।
इसी प्रकार वन्य जीवन संशोधन अधिनियम 2002 के अन्तर्गत राष्ट्रीय बोर्ड की तरह राज्यों में राज्य बोर्ड (State Board for Wild Life) गठित करने का प्रावधान है। इसके निम्नलिखित कार्य हैं
(अ) संरक्षित क्षेत्र घोषित करने हेतु उचित वन क्षेत्रों को चुनाव करना तथा उनका प्रबन्धीकरण करना।
(ब) वन्य जीवन एवं निर्दिष्ट पेड़-पड़ों की सुरक्षा एवं संरक्षण हेतु नीति निर्धारण।
(स) वन्य जीवन संरक्षण की नीतियों एवं वनवासियों की आवश्यकताओं के बीच सामंजस्य बिठाना।
वन्य जीवन संरक्षण के प्रावधान निम्न हैं-
- वन जीवन सुरक्षा के लिये प्राधिकारों की नियुक्ति ।
- सूची में निर्दिष्ट पेड़-पौधों की सुरक्षा करना।
- वन्य जीवों के शिकार पर प्रतिबंध लगाना।
- अभयारण्य, राष्ट्रीय पार्क एवं निषेध क्षेत्र घोषित करने का प्रावधान।।
- चिड़ियाघरों को मान्यता देना।
- पशुओं के चमड़े से निर्मित वस्तुओं के व्यापार पर रोक।
- कानून तोड़ने वालों के लिये सजा एवं जुर्माने का प्रावधान ।
- वैज्ञानिक प्रबन्धों के लिये शिकार की अनुमति देना (धारा 12)।
- अधिनियम की अभयारण्यों एवं राष्ट्रीय पार्को से लगने वाले क्षेत्रों को संरक्षित रिजर्व का दर्जा दिये जाने का प्रावधान है।
इस अधिनियम में विशिष्ट पादप प्रजातियों (Specified Plant Species) की सुरक्षा एवं संरक्षण को सुनिश्चित किया गया है। इन विशिष्ट पादप प्रजातियों का कोई भी व्यापार नहीं कर सकेगा न ही सरकार की अनुमति के बिना कोई खेती कर सकेगा।
अभयारण्यों में केवल वे ही व्यक्ति प्रवेश कर सकते हैं जो वहाँ सरकारी रूप से तैनात कर्मचारी हैं या जिनकी जमीन या आवास उन क्षेत्रों में स्थित है। अभयारण्यों में हथियार या विस्फोटक ले जाने पर प्रतिबंध है।
वन्य जीव अधिनियम में चिड़ियाघरों (Zoo) की स्थापना का प्रावधान है। यहाँ पर उन प्रजातियों के लिये जो लुप्त होने के कगार पर है, के लिये प्रजनन कार्यक्रम (Beeding Programme) की समुचित व्यवस्था का प्रावधान है। इन्हीं चिड़ियाघरों में अनुसंधान एवं कर्मचारियों को प्रशिक्षण की भी व्यवस्था की जाती है।
इस अधिनियम का उल्लंघन करने वाले दोषी व्यक्ति को 6 माह से 7 वर्ष का कारावास व 500 रुपये से 5000 रुपये तक का आर्थिक दण्ड अथवा दोनों प्रकार का दण्ड दिया जा सकता है।
प्रश्न 5.
जल व वायु प्रदूषण किसे कहते हैं? सरकार द्वारा जल व वायु प्रदूषण संबंधी कौन-कौनसे अधिनियम बनाए गए हैं? समझाइये।
उत्तर-
प्राकृतिक जल में किसी अवांछित बाह्य पदार्थ व प्रवेश जिससे जल की गुणवत्ता में कमी आती हैं, उसे जल प्रदूषण कहते हैं।
जब वायुमण्डल में विभिन्न प्रदूषक जैसे धूल, धुआँ, विषैली गैसे, धुन्ध, राख आदि इतनी अधिक मात्रा में हो जाए कि वायु के नैसर्गिक गुण में अन्तर आ जाए कि मनुष्य के अन्य जीवों के स्वास्थ्य, पर्यावरण तथा सांस्कृतिक सम्पत्ति को हानि होने लगे तो उसे वायु प्रदूषण कहते हैं।
जल प्रदूषण ( निवारण एवं नियन्त्रण) अधिनियम, 1974
औद्योगिक, ठोस, द्रव्य और गैस अपशिष्टों के कारण जल चक्र से जुड़ी विभिन्न पर्यावरणीय समस्याएँ गम्भीर हो गयी थीं अतः जल की। गुणवत्ता को सुरक्षित रखने के लिए जल प्रदूषण (निवारण एवं नियन्त्रण) अधिनियम, 1974 लागू किया गया। इस अधिनियम के प्रमुख लक्ष्य जल प्रदूषण निवारण, जल प्रदूषण नियन्त्रण, जल की गुणवत्ता बनाए रखना और जल को पुनर्चक्रित करना है। इस अधिनियम के प्रावधानों की क्रियान्विति के लिए केन्द्र और राज्य स्तर पर बोर्डों की स्थापना की गई है। केन्द्रीय बोर्ड केन्द्र सरकार का परामर्शदाता है, जो उसे पर्यावरण प्रदूषण नियन्त्रण सम्बन्धी सलाह देने के साथ-साथ राज्य के बोर्डो को भी निर्देशित करता है। अपवाह, मल अपवाह, औद्योगिक अपशिष्ट उत्सर्जन और भूमिगत जल की गुणवत्ता की जाँच हेतु प्रयोगशालाओं को स्थापित करना अथवा मान्यता देना नियन्त्रण बोर्ड का अधिकार है। राज्य बोर्ड के मानदण्डों से अधिक विषैले और हानिकारक प्रदूषक अपशिष्टों को धरातलीय अपवाह, कुओं में मल-जल छोड़ना इस अधिनियम के अंतर्गत एक आपराधिक कृत्य है ।
यह अधिनियम पर्यावरणीय विधि के क्षेत्र में पहला विस्तृत प्रयास है। इस अधिनियम के अनुसार जल प्रदूषण का अर्थ जल का दूषण, जल के रासायनिक, भौतिक और जैविक गुणों में ह्रास तथा जल पारिस्थितिकी में असन्तुलन पैदा करने वाले कारकों की उपस्थिति से है। जल प्रदूषण एवं नियन्त्रण हेतु प्रस्तावित योजना अनुमति और सहमति प्रणाली पर आधारित है। जल प्रदूषण एवं नियन्त्रण अधिनियम उपकर (Cess) 1977 में जल उपभोक्ता उद्योगों पर जल उपभोग के लिए उपकर लगाने का प्रावधान है । संकलित उपकर राज्य के प्रदूषण नियन्त्रण मण्डलों में वितरित किया जाता है। जल प्रदूषण एवं नियन्त्रण अधिनियम, 1974 में एक संशोधन द्वारा 1988 में केन्द्रीय व राज्य प्रदूषण नियन्त्रण बोर्ड को अधिकार दिया गया था कि नियमों का उल्लंघन करने वाले किसी भी प्रतिष्ठान की बिजली व पानी की आपूर्ति को बन्द कर दे।
वायु प्रदूषण ( निवारण एवं नियन्त्रण) अधिनियम, 1981
बढ़ते हुए औद्योगीकरण और पेट्रोल वाहनों की बढ़ती संख्या के कारण विश्व में सभी जगह और मेट्रो नगरों में विशेषतः वायु की गुणवत्ता कम होती जा रही है। इसका कारण उद्योगों में अत्यधिक ऊर्जा का उपभोग है। इस अवनयन पर नियन्त्रण के लिए अधिनियम में जैव जगत के लिए हानिकारक ठोस, तरल अथवा गैसीय पदार्थों को वायु प्रदूषक माना है। ऐसे हानिकारक तत्त्वों का वायुमण्डल में उपस्थित होना ही वायु प्रदूषण है।
1987 में एक संशोधन द्वारा इस अधिनियम को अधिक प्रभावी बनाया गया। इस संशोधन के तहत अधिनियम के प्रावधानों के उल्लंघन परं अधिक कठोर सजा और जुर्माने का प्रावधान रखा गया है। इसी संशोधन में ध्वनि प्रदूषण को भी वायु प्रदूषण में सम्मिलित किया गया। है।
- इस अधिनियम का लक्ष्य वायुमण्डल के प्रदूषण से जो उत्पन्न हो रही पारिस्थितिक एवं पर्यावरण सम्बन्धी समस्याओं पर कड़ा नियन्त्रण और कड़ी निगरानी है।
- आर्थिक प्रगति के साथ-साथ उद्योगों और मानव गतिविधियों में ईंधन के अधिकाधिक दहन के कारण तेजी से बढ़ते वायुमण्डलीय प्रदूषण और प्रदूषण को नियन्त्रित करने के लिए ही इस अधिनियम की आवश्यकता महसूस की गई।
- विश्व में जनसंख्या समान रूप से फैली हुई नहीं है। औद्योगिक व आर्थिक गतिविधियों के कुछ स्थानों पर संकेन्द्रण के कारण नगरों व महानगरों में जनसंख्या के बड़े संकुल (Agglomeration) पाए जाते हैं। औद्योगिक गतिविधि के कारण विकसित होने के कारण वायुमण्डलीय प्रदूषण घनी आबादी वाले इन संकुलनों में जीवन की गुणवत्ता को कम कर देता है। औद्योगिक एवं पेट्रोल/डीजल वाहनों के उत्सर्जनों पर कड़ी निगरानी और नियन्त्रण भी इस अधिनियम का एक उद्देश्य है।
- इस अधिनियम के व्यावहारिक क्रियान्वयन के लिए एक केन्द्रीय प्रदूषण नियन्त्रण बोर्ड गठित किया गया है।
प्रश्न 6.
पर्यावरण प्रदूषण नियन्त्रण के लिये भारत सरकार द्वारा कौन-कौन से पर्यावरण कानून बनाए गये हैं। विस्तार से स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-
वायु प्रदूषण (Air pollution)-
वे हानिकारक पदार्थ व कारक जो वायु को प्रदूषित करते हैं तथा इससे प्राणियों, पौधों व मानव पर हानिकारक प्रभाव पड़ता है, उसे वायु प्रदूषण कहते हैं। मुख्यतः यह प्रदूषण वातावरण में विषैली गैसों के फैलने से होता है।
(अ) वायु प्रदूषण के स्रोत (Sources of air pollution)-
वायु प्रदूषण के कुछ स्रोत निम्न प्रकार से हैं
(i) मोटर वाहनों के द्वारा (Vehicular sources) – मोटर वाहनों की संख्या दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। वाहनों में पेट्रोल या डीजल ईंधन का उपयोग किया जाता है तथा दोनों के जलने पर एक ही प्रकार के प्रदूषक उत्पन्न होते हैं किन्तु इनकी मात्रा में अन्तर होता है। डीजल के जलने से निकलने वाला धुआँ काला होता हैं व इसमें बारीक कार्बन के कण (µ के आकार) होते हैं। ये चिड़चिड़ाहट व क्षोभ उत्पन्न करते हैं । डीजल से निकले धुएँ में कार्बन मोनोऑक्साइड (CO), कार्बन आईऑक्साइड (CO2), हाइड्रोकार्बन्स, नाइट्रोजन व गंधक के विभिन्न यौगिक होते हैं। ये वायु को प्रदूषित कर मानव स्वास्थ्य पर हानिकारक प्रभाव उत्पन्न करते हैं।
(ii) ईंधन के जलने से (Fuel combustion) – घरों व कारखानों में उपयोग होने वाले ईंधन से अनेक प्रकार की घातक गैसें। जैसे- CO, SO2, CO2 आदि निकलती हैं, ये गैसें वायु से मिलकर हानिकारक प्रभाव उत्पन्न करती हैं। तेल शोधक कारखानों (refineries) व ताप बिजली घरों में उपयोग किये जाने वाले ईंधन से तो निरन्तर धुआँ निकलता रहता है। इस धुएँ में भी SO2, CO2, H2S आदि गैसे होती हैं जो स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से अधिक हानिकारक होती हैं। जो कारखाने रसायन पर आधारित होते हैं, उनसे निकलने वाली वाष्प में हाइड्रोक्लोरिक अम्ल (HCL), क्लोरीन, नाइट्रोजन ऑक्साइड, तांबा, सीसा, आर्सेनिक, जिंक इत्यादि घातक तत्व होते हैं, जो मानव व प्राणियों पर हानिकारक प्रभाव उत्पन्न करते हैं।
(iii) परमाणु परीक्षणों द्वारा (Nuclear tests) – अमेरिका, जर्मनी, फ्रांस, रूस आदि द्वारा समय-समय पर परमाणु परीक्षण किये जाते रहते हैं। अभी कुछ समय पूर्व पाकिस्तान तथा भारत द्वारा भी परमाणु परीक्षण किये गये हैं। परीक्षणों के कारण वायुमण्डल में रेडियोधर्मी कणों की मात्रा बढ़ जाती है। ये कण सजीवों पर हानिकारक प्रभाव के साथ जीनों पर भी घातक प्रभाव डालते हैं। जीन विकृति के फलस्वरूप विशिष्ट प्रकार के रोग उत्पन्न हो जाते हैं। 1979 में संयुक्त राज्य अमेरिका में श्री माइल आईसलैंड (Three mile Island) नाभिकीय शक्ति संयंत्र रिसाव और 1986 में USSR में चेरनोबिल (Chernobyl) नाभिकीय संयंत्र का मेल्ट डाउन (meltdown) नाभिकीय संयंत्र । दुर्घटनाओं के उदाहरण हैं। इन दुर्घटनाओं से वायु प्रदूषण का खतरा उत्पन्न हो गया था।
(iv) बिजली के जेनरेटरों द्वारा (Power Generators) – शहरीकरण, उद्योग-धंधों तथा घरों में विद्युत की खपत निरन्तर बढ़ती जा रही है। मांग की तुलना में विद्युत का उत्पादन कम हो रहा है। अतः शहरों में विद्युत आपूर्ति के लिए घरेलू जेनरेटरों का उपयोग दिन प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है। इस कारण ध्वनि तथा वायु दोनों प्रकारे के प्रदूषण उत्पन्न हो रहे हैं। जेनरेटरों से निकले धुआँ से श्वांस क्रिया प्रभावित होती है तथा चिड़चिड़ापन की प्रवृत्ति भी बढ़ती है।
(ब) वायु प्रदूषण के मुख्य कारक (Main factors of air Pollution)-
मुख्यरूप से अधिक जनसंख्या वाले तथा औद्योगिक शहरों में वायु प्रदूषण पाया जाता है। वायु प्रदूषक दो प्रकार के होते हैं
(i) गैसीय प्रदूषक (Gaseous pollutants) – वायु में मिश्रित वे प्रदूषक जो सामान्य ताप तथा दबाव पर गैसीय अवस्था में रहते हैं, जैसे CO, CO2, SO2 क्लोरीन व हाइड्रोकार्बन इत्यादि।
(ii) कणिकीय प्रदूषक (Particulate pollutants) – वायु में मिश्रित ठोस या द्रव्यों के कण होते हैं जैसे धूम (Fumes), धुआँ (Smoke), ऐरोसोल (Aerosol) इत्यादि।
इन प्रदूषकों का मुख्य स्रोत स्वचालित वाहन, लकड़ी, कोयला तथा कारखानों से निकलने वाला धुआँ होता है। घरों तथा कारखानों में ईंधन के जलने से CO, CO2, हाइड्रोकार्बन, NO (नाइट्रोजन मोनो। ऑक्साइड, NO2 (नाइट्रोजन डाई ऑक्साइड), H2S आदि हैं जो वायु को प्रदूषित कर हानिकारक प्रभाव उत्पन्न करती है।
कुछ रसायन गैसीय अवस्था में नहीं होते परन्तु विभिन्न उद्योगों से निकलने वाले रसायन जैसे- आर्सेनिक, बैन्जीन, क्लोरीन, कैडमीयम, फ्लोराइड, फारमेल्डिहाइड, हाइड्रोजन फ्लोराइड, मैंगनीज, निकल, लैड आदि वायु प्रदूषण के मुख्य कारक हैं।
- वाहनों में उपयोग लिए जाने वाले पेट्रोल में टेट्रामिथाइल लेड व टेट्राईथाइल लेड होता है जो कणिकीय प्रदूषकों के रूप में बाहर आते हैं।
- हाइड्रोकार्बन के अपूर्ण ज्वलन (unburnt hydrocarbon) से बनने वाला 3, 4 बैन्जिपायरिन मुख्य प्रदूषक है जो फेफड़ों के केन्सर का कारण है।
- ग्रीन हाउस प्रभाव उत्पन्न करने वाले मुख्य प्रदूषक CO2, CH4, Chlorofluoro carbons (CFCs) नाइट्रम ऑक्साइड (N2O) इत्यादि हैं।
- पेट्रोरसायन (Petro-chemical) उद्योगों से निकलने वाले प्रदूषकों में CO, CO2, NH3 व गैसोलीन होते हैं।
- कुहरा (fog), धूम कोहरा (smoke + fog = smog), कज्जल (soot), कुहासा (mist) इत्यादि वायु प्रदूषक हैं जो वायु प्रदूषकों का प्रकीर्णन या फैला करे प्रदूषकों की क्रियाओं को उत्प्रेरित करते हैं।
- कणिकीय प्रदूषकों के अन्तर्गत धूल (dust), धुआँ (smoke), धूम (fumes)-विभिन्न क्रियाओं में वाष्प के संघनन के फलस्वरूप ठोस कण, धुन्ध (smog)-धुएँ व कोहरे के संयोग से धुन्ध बनती है (Smoke + Fog = Smog), तथा ऐरोसोल (Aerosols) होते हैं।
- जब वायु में कणिकीय प्रदूषक निलिम्बित (suspended) होते हैं। तब ये ऐरोसोल (aerosol’s) का निर्माण करते
जेट विमानों व रेफ्रिजिरेटर से ऐरोसोल का विमोचन होता है। यह फ्ल्यूरोकार्बन यौगिक होता है जो हानिप्रद होता है ।
(स) वायु प्रदूषण के दुष्प्रभाव (Harmful effects of air pollution) –
वायु प्रदूषण के दुष्प्रभाव निम्न प्रकार से हैं –
- वायु प्रदूषकों में मुख्य प्रदूषक कार्बन मोनो ऑक्साइड होती है। इस गैस से श्वांस लेने में कठिनाई, शिथिलता (lassitude) वे चक्कर (dizziness) आने लगते हैं। CO गैस श्लेष्मक झिल्ली को प्रभावित करती है तथा रक्त के हीमोग्लोबिन में घुलकर रुधिर की O2 वहन क्षमता को कम कर देती है जिससे अन्त में श्वासवरोध (asphyxiation) होने से मृत्यु हो जाती है।
- वायुमण्डल में CO2 की मात्रा 0.03% ही होती है परन्तु कोयला व ईंधन तथा औद्योगिक क्षेत्रों में धुएँ के कारण CO2 की मात्रा बढ़ने पर यह प्रदूषक हो जाता है। पर्यावरण में CO2 की सामान्य मात्रा सूर्य किरणों को पृथ्वी पर पहुंचने देती है किन्तु अधिक मात्रा की अवस्था में यह गैस का एक मोटा आवरण बनाकर पृथ्वी से वापस लौटने वाली ऊष्मा को रोकती है। इस कारण पृथ्वी का तापमान या उस क्षेत्र का तापमान बढ़ने लगता है, इसे ही ग्रीन हाउस प्रभाव (green house effect)कहते हैं। पर्यावरण में पाये जाने वाले अन्य प्रदूषक (NO2, SO2, CFC) भी ग्रीन हाउस प्रभाव को बढ़ाने में सहायक होते हैं।
- फ्ल्यु ओराइड (fluoride) की अधिक मात्रा के फलस्वरूप ऊतक क्षय (necrosis) होता है। इससे फ्ल्यु ओरोसिस रोग हो जाता है जिससे अतिसार (diarrhea), वजन में कमी आना तथा कुबड़ापन हो जाता है।
- कोयला व अन्य ईंधनों में पाए जाने वाले सल्फर का ऑक्सीकरण होने से SO2, व SO3 का निर्माण होता है। जो वायुमण्डल के जल से संयोग कर सल्फ्यूरिक अम्ल (H2SO4) बनाते हैं तथा वर्षा के जल के साथ पृथ्वी पर अम्ल वर्षा (Acid rain) करते हैं।
- सल्फ्यूरिक अम्ल से भवनों के पत्थर, रंग रोशन, लोह सामग्री इत्यादि संक्षारित (corrode) हो जाती है। मथुरा तेलशोधक कारखाने से निकलने वाला धुआं आगरा में स्थित ताजमहल के संगमरमर के पत्थरों को क्षति पहुंचा रहा है।
- SO2 की प्रत्यक्ष दुष्प्रभाव सजीव कोशिकाओं के झिल्ली तन्त्र (membrane system) पर पड़ता है। SO2 प्रदूषक के प्रति जौ, गेहूँ, कपास व सेव (apple) इत्यादि संवेदनशील पौधे हैं।
- लाइकेन तथा मॉसेज (Mosses) SO2 प्रदूषक के सूचक (indicator) हैं। इन पर SO2 को अतिशीघ्र प्रभाव होता हैं।
- O3 की अधिकता के कारण मोतियाबिन्द (cataract), खांसी, नेत्रों में जलन, त्वचा कैंसर तथा DNA के खण्ड हो जाते हैं। पादपों में श्वसन व वाष्पोत्सर्जन की दर अधिक हो जाती है।
- पराबैंगनी विकरणों (Ultraviolet rays) को वायुमण्डल में विद्यमान ओजोन परत पृथ्वी पर पहुंचने से रोकती है। किन्तु अनेक प्रदूषकों के कारण तथा विशिष्ट रूप से एयरकण्डीशनर, रेफ्रिजिरेटर वे वायुयानों में उपयोग किये जाने वाले ऐरोसोल क्लोरफल्यूरोकार्बन (CFC’s) निरन्तर ओजोन परत को कम करते हुये पतली परत में बदल रहे हैं। इस पतली परत को कृष्ण छिद्र (black hole) या ओजोन छिद्र (Ozone hole) कहते हैं। इन्हीं स्थलों से पराबैंगनी किरणें पृथ्वी पर पहुंचकर तापमान बढ़ा रही हैं।
- इथाईलीन (ethylene) के प्रभाव से पत्तियाँ व कलियाँ समय से पूर्व गिर जाती हैं।
- प्रदूषकों में नाइट्रोजन के ऑक्साइड का मुख्य प्रभाव आँख व नाक पर होता है।
- धूम्र कुहरे (smog) में नाइट्रोजन के ऑक्साइड तथा हाइड्रोकार्बनिक यौगिक पराबैगनी किरणों (ultraviolet rays) के प्रभाव से ओजोन (O3) तथा कार्बनिक कण परॉक्जीएसिटिल नाइट्रेट (PAN) का निर्माण करते हैं। इसे प्रकाश-रासायनिक धूम्र कोहरा (Photo mechanical smog) कहते हैं। PAN की अधिकता से त्वचा, नेत्रों में जलन, नाक व गले में संक्रमण हो जाता है व पौधों की वृद्धि तथा विकास अवरुद्ध हो जाता है।
- PAN व O3 की अधिकता से फेफड़ों में पानी एकत्रित होना, फेफड़ों का केन्सर, फेफड़े फूलना (Pulmonary emphysema), श्वसन रोग व श्वसनी दमा (bronchial asthima) हो जाता है।
- पर्यावरण अर्थात् वायुमण्डल में पाये जाने वाले पॉलिन्युक्लियर ऐरोमेटिक हाइड्रोकार्बन (poly nuclear aromatic hydrocarbons or PAH) मानव में कैन्सर उत्पन्न करता है।
- PAN के कारण प्रकाश-संश्लेषण की हिल अभिक्रिया (Hill reaction) में जल के प्रकाश अपघटन (Photosynthesis of water) को अवरुद्ध करता है तथा प्रकाश तन्त्र ॥ (Photo system II) का संदमन (inhibition) करता है।
- उद्योगों से विमोचित CFCS SO2 व NO2 भी ग्रीन हाउस प्रभाव को बढ़ाते हैं।
- NEERI (National environmental engineering research institute) संस्थान, नागपुर अनुसार SO2 प्रदूषक से सर्वाधिक प्रभावित कलकत्ता महानगर है तथा इसके पश्चात क्रमशः बम्बई, दिल्ली, अहमदाबाद व कानपुर इत्यादि हैं।
- 2-3 दिसम्बर, 1984 की मध्य रात्रि में भोपाल गैस त्रासदी (Bhopal gas tragedy) मिथाइल आइसो-सायनेट गैस के रिसाव के कारण दो हजार व्यक्तियों की मृत्यु हो गई थी।
- जुलाई, 1970 में धूम्र कोहरे (smog) की अत्यधिक मात्रा के कारण टोक्यो न्यूयार्क, रोम व सिडनी में त्रासदी घटी। इस घटना के कारण उस क्षेत्र के व्यक्तियों में श्वसनी दमा (bronchial asthma) हो गया था।
- 1946 में घटित टोक्यो-योकोहामा दमा (Tokyo yokohama asthma)-घटना भी धूम्र कोहरे के कारण हुई थी । जापान के योकोहामी के वायुमण्डल में उपस्थित धूम्र कोहरे से वहां रहने वाले अमेरिकन सिपाही व उनके परिवार वाले प्रभावित हुये थे।
(द) वायु प्रदूषण का नियंत्रण (Control of air pollution)-
- पुराने व जर्जर हालात के वाहकों पर रोक लगा देनी चाहिये क्योंकि ये ज्यादा प्रदूषण उत्पन्न करते हैं।
- वाहनों में प्रतिलोमी उत्प्रेरकों (catalytic inventors) का उपयोग होना चाहिये जिससे निकलने वाली धुआँ की मात्रा कम की जा सके।
- वाहनों में संपीड़ित प्राकृतिक गैस (compressed Natural Gas = C.N.G.) का ईंधन के रूप में उपयोग किया जाए। दिल्ली में इसके प्रयोग से वायु प्रदूषण में अधिक कमी देखी गई है। अन्य वाहनों जैसे रेल, बस को विद्युत ऊर्जा से संचालित करने का प्रयास किया जाए।
- सड़कों पर दो-स्ट्रोक इंजन के स्थान पर चार स्ट्रोक वाले इंजन युक्त वाहकों को चलाना चाहिये, क्योंकि ये कम प्रदूषण उत्पन्न करते हैं।
- शहरों में जेनेरेटर्स के उपयोग की अनुमति नहीं दी जानी चाहिये।
- नाभिकीय परीक्षणों पर प्रतिबन्ध लगा देना चाहिये।
- कारखानों को सूचित कर कम प्रदूषण के लिये बाध्य करना व घरों में गैस चूल्हों के उपयोग का बढ़ावा देना चाहिये।
- वायु में कणिकीय प्रदूषकों को स्थिर वैद्युत अवक्षेपित्र (electronic precipitate) की सहायता से प्रभावी रूप से पृथक किया जा सकता है।
जल प्रदूषण (Water pollution)-
स्वच्छ जल ही जीवन का आधार है। जीवद्रव्य का अधिकांश भाग जल है। अनेक कारणों से जल में अनावश्यक अकार्बनिक, कार्बनिक वे जैविक तत्वों की उपस्थिति जल प्रदूषण कहलाता है। वर्तमान में सम्पूर्ण विश्व में पेयजल का संकट बढ़ता जा रहा है। शुद्ध पेयजल भौतिक रूप से स्वच्छ, शीतल, निर्मल, गंध व स्वाद रहित तथा pH मान 7-8.5 के बीच व मिश्रित अपदृव्यता की सीमा मानकों अनुसार होनी चाहिये।
(अ) जल प्रदूषण के स्रोत एवं प्रकार (Sources and types of water pollution) –
अधिकांश गांव, कस्बे, शहर व औद्योगिक नगर जल के स्रोतों के आस-पास में स्थित होते हैं। क्योंकि जल जीवन की मुख्य आवश्यकता है। घनी आबादी व उद्योगों के अपशिष्ट निरन्तर जल में प्रवाहित होने से प्रदूषण उत्पन्न होता जा रहा है। जल के मुख्यतः दो स्रोतभूमिगत तथा धरातलीय (तालाब, झील, नदी व समुद्र) हैं। जल में विभिन्न प्रकार के पदार्थ आसानी से घुल जाते हैं। अतः जब कोई भी बाहरी सामग्री जल में एकत्रित या घुल जाती है तो इससे जल के भौतिक व रासायनिक गुणों में परिवर्तन आ जाता है। इस प्रकार का प्रदूषित जल स्वास्थ्य के लिये हानिप्रद होता है। जल प्रदूषक के मुख्य स्रोत निम्न हैं
(i) घरेलू अपमार्जक (Household detergents),
(ii) वाहित मल व अन्य अपशिष्ट (Sewage and other wastes),
(iii) औद्योगिक अपशिष्ट (Industrial wastes),
(iv) कृषि अपशिष्ट व रासायनिक उर्वरक (Agriculture wastes and chemical fertilizers) तथा
(v) रेडियोधर्मी अपशिष्ट (Radioactive wastes)।
(i) घरेलू अपमार्जक (Household detergents)-
- घरों में कपड़े धोने व बर्तन साफ करने के लिये विभिन्न प्रकार के साबुन, सर्फ, विम इत्यादि अपमार्जकों का उपयोग किया जाता है। ये अपमार्जक घरों से निकलकर नालों के द्वारा तालाब, नदियों में एकत्रित होकर प्रदूषण उत्पन्न करते हैं।
- इन अपमार्जकों के द्वारा नाइट्रेट, फॉस्फेट, अमोनिया के यौगिक तथा ऐल्किल बेन्जीन सल्फोनेट (alkyl benzene sulphonate = ABS)जल में एकत्रित हो जाते हैं।
- अकार्बनिक फॉस्फोरस तथा नाइट्रोजन की अधिक मात्रा से शैवालों की अधिक वृद्धि होने लगती है, इसे जल प्रस्फुटन (water bloom) कहते हैं।
- शैवालों की मृत्यु उपरान्त अपघटन हेतु O2 की अधिक आवश्यकता होती है, उससे जल में O2 कम होने लगती है व जल में विद्यमान प्राणियों की मृत्यु होने लगती है।
- निरन्तर इस प्रक्रिया से जलाशय में जल कम हो जाता है। परन्तु कार्बनिक पदार्थों की मात्रा अधिक होती जाती है। इसे सुपोषण (eutrophication) कहते हैं।
(ii) वाहित मल (Sewage)-
- जनसंख्या में वृद्धि होने के कारण नगरों से निकलने वाले मल मूत्र, कूड़ा करकट व व्यर्थ सामग्री की अत्यधिक मात्रा विसर्जित होकर जल को प्रदूषित करती है।
- वाहित मल में कार्बनिक पदार्थों की अधिक मात्रा होती है तथा इसमें अकार्बनिक फॉस्फोरस, अमोनिया, निलम्बित ठोस, फीनॉल, भारी धातुयें, सायनाइड व तेल आदि होते
- वाहित मेल की अधिक मात्रा से अपघटकों या सूक्ष्मजीवों की आबादी अधिक हो जाती है व उनकी श्वसन क्रिया में जल में घुलित ऑक्सीजन समाप्त सी होने लगती है। किन्तु CO2 की मात्रा बढ़ जाती है।
- O2 के अभाव से जल में रहने वाले प्राणी व पौधे मृत हो जाते हैं तथा जलाशय में दुर्गन्ध उत्पन्न हो जाती है। व संक्रामक रोग उत्पन्न होने की संभावना बढ़ जाती है।
- जल प्रदूषक को मापने हेतु बायोकेमिकल ऑक्सीजन डिमाण्ड (BOD)की परीक्षा की जाती है। प्रदूषित जल की बी.ओ.डी. (BOD = Biochemical Oxygen demand) अधिक हो जाती है। BOD प्रदूषकों की मात्रा के साथ बढ़ती है। यह जीवाणुओं द्वारा अपघटन के लिये O2 की आवश्यक मात्रा होती है। पीने के स्वच्छ जल की BOD 1ppm से भी कम होती है।
- जल प्रदूषण हेतु डेफ्निया (Daphnia) वे ट्राऊट (Trout) आदि मछलियां जल प्रदूषण के लिये संवेदनशील होती हैं।
(iii) औद्योगिक अपशिष्ट (Industrial wastes)-
- विभिन्न प्रकार के उद्योगों जैसे उर्वरक, पेट्रो रसायन, तेल शोधन, कागज, रेशे, रबर, औषधि व प्लास्टिक इत्यादि के कारखाने से निकलने वाले अपशिष्ट पदार्थ जल में प्रवाहित कर जलाशयों को प्रदूषित करते हैं।
- इन अपशिष्ट पदार्थों में धूल, कोयला, अम्ल, क्षार, (alkalies), सायनाइड, फीनोल, जिन्क, पारा, कापर, फेरस, लवण, तेल, कागज, रबर व गरम जल इत्यादि होते हैं।
- क्लोरीन व कास्टिक सोड़ा के उद्योगों से जल में पारा (Mercury) आता है। जल के द्वारा पारा जन्तुओं में खाद्य श्रृंखला के द्वारा मानव तक पहुंच जाता है। जिससे तन्त्रिका तन्त्र (Nervous system) को अव्यवस्थित कर स्वास्थ्य हेतु घातक (lethal) होता है।
- स्वचालित नौकाओं, स्टीमर के विरेचन में पारा व सीसा होता है जो जल में मिलकर अत्यधिक विषाक्त मिथाइल पारा बनाता है।
(iv) कृषि अपशिष्ट व रासायनिक उर्वरक (Agriculture wastes and chemical fertilizers )-
वर्तमान में फसल को हानि पहुंचाने वाले नाशक जीवों (pests)को नष्ट करने हे तु शाकनाशी (herbicides), खरपतवारनाशी (weedicides), कीटनाशी (insecticides), पीड़कनाशी (pesticides) तथा जीवनाशी (biocides) इत्यादि का प्रयोग बहुतायत रूप से किया जा रहा है। इसी के साथ फसल ऊपज को बढ़ाने के लिये रासायनिक उर्वरकों जैसे यूरिया, फॉस्फेट, पोटाश आदि का प्रयोग किया जाता है। ये सभी रसायन प्रदूषण की समस्या उत्पन्न कर रहे हैं।
- पीड़कनाशी व कीटनाशी के रूप में उपयोग किये जाने वाले रसायन तीन प्रकार के होते हैं
(क) अकार्बनिक लवण जैसे आर्सेनिक लवण,
(ख) DDT, आर्गेनोक्लोरीन, आर्गेनोफॉस्फेट इत्यादि तथा,
(ग) हार्मोन व जैविक नियन्त्रण वाले जैव रसायन। - इन सभी में से तीव्र प्रदूषक DDT (Dichloro diphenyl trichloroethanes) तथा पॉलिक्लोरिने टेड डाइफिनाइल (Polychlorinated diphenyle) हैं।
- ये रसायन खाद्य श्रृंखला के माध्यम से मानव तक निरन्तर रूप से पहुंचते रहते हैं।
- DDT व अन्य क्लोरीनयुक्त हाइड्रोकार्बन पीड़कनाशी अविघटनीय (non-degradable) यौगिक होते हैं। ये रसायन पौधों व जन्तुओं में एकत्रित होते रहते हैं तथा खाद्य श्रृंखला के साथ मानव में पहुंच जाते हैं । अतः ये रसायने जैविक आवर्धन (Biological magnification) प्रदर्शित करते हैं।
- पीड़नाशक (DDT) जीवों की जनन कोशिकाओं में उत्परिवर्तन कर देते हैं वे पादपों में प्रकाश संश्लेषण की दर को कम करते हैं।
- खरपतवारनाशी (Weedicides) 2,4-D, 2,4,5-T कोशिकाओं में अधिक विभाजन कर ट्यूमर (Tumor) बनाते हैं।
(ब) जल प्रदूषकों के दुष्प्रभाव (Harmful effects of water pollutants)-
- जल में O2 की कमी होने से पादप व प्राणियों की मृत्यु हो जाती है।
- अशुद्ध जल से टाइफॉइड, पेचिस, पीलिया व मलेरिया रोग उत्पन्न हो जाते हैं।
- मानव मलमूत्र द्वारा संदूषित मिट्टी के संसर्ग में आने पर हुकवर्म (Hookworm) का संक्रमण हो सकता है।
- प्रदूषित जल से नहाने पर अनेक प्रकार के त्वचा रोग तथा वाईल रोग (Weil’s disease), सिस्टोसोम का रोग हो। सकता है।
- DDT व BHC से संक्रमित जल को पीने से गर्भवती महिला का गर्भपात हो सकता है, गर्भस्थ शिशु में विकृतियाँ उत्पन्न हो सकती हैं। ये अविघटनीय प्रदूषके एक बार खाद्य श्रृंखला में प्रवेश करने के उपरान्त इसकी मात्रा प्रत्येक आगामी स्तर में सघनता से बढ़ती जाती है। इस परिघटना को जैवआवर्धक (Bio magnification) कहते हैं।
- औद्योगिक कचरे से प्रदूषित जल के कारण यकृत, गुर्दे व मस्तिष्कं सम्बन्धी रोग हो सकते हैं।
उपरोक्त वर्णित रोगों के अतिरिक्त प्रदूषित जल से मानव में अन्य रोग भी हो सकते हैं जैसे-
- पारा या मर्करी मीनामाटा (Minamata) महामारी के लिए जिम्मेदार है, जिससे कई मृत्यु जापान तथा स्वीडन में हुई। यह घटना अत्यधिक मर्करी संदूषित मछलियों के उपयोग से हुई। इसके कारण व्यक्तियों में दृष्टि विक्षोभ, मंद प्रकाश (dysphasia), पैर, होठ वे जीभ में सुन्नता, लकवी व मिर्गी रोग हो गए थे।
- सीसा (Lead) युक्त जल से मांसपेशियाँ व केन्द्रीय नाड़ी तंत्र या CNS सिंड्रोम के रोग होते हैं।
- फ्लोराइड युक्त जल से हड्डियों व दांतों के रोग होते हैं। पैर घुटने से बाहर की ओर मुड़ जाते हैं, इसे नोक नी सिन्ड्रोम (Knock Knee syndrome) कहते हैं।
- केडमियम युक्त जल से हड्डियों का रोग आउच-आउच (Ouch-Ouch or Itai-Itai) हो जाता है।
- देश में प्रदूषण पर नियंत्रण रखने हेतु केन्द्रीय जन स्वास्थ्य इंजीनियरी अनुसंधान संस्थान (संक्षिप्त में सिफेरी=CEFERI) कार्यरत है।
ध्वनि या शोर प्रदूषण (Sound or noise pollution)-
- अवांछित ध्वनि ही शोर है। शोर की तीव्रता को डेसीबल (decibals = db) में मापा जाता है। इस मापक इकाई को ग्रेहम बेल (Graham bell) ने दिया था। इसका मापन ध्वनि मापन यंत्र (Decibal meter) या लार्म बेरोमीटर से किया जाता है।
- ध्वनि की आवृत्ति को हर्ट्ज (Hertz) कहते हैं। मानव में सुनने की क्षमता 20 से 20,000 हर्ट्ज होती है।
- मनुष्य के कान 0 से 180 dB तक की ध्वनि तीव्रता के प्रति संवेदी होते हैं। 80 dB की ध्वनि मानव में बेचैनी व 100 dB के ऊपर पीड़ा उत्पन्न कर देती है। प्रायः
प्रतिदिन सुनी जाने वाली ध्वनियों का मान निम्न प्रकार से है –
केवल सुनाई देने योग्य 15 dB से कम
शांत….. 30 dB
सामान्य बातचीत… 60 dB
राजमार्ग यातायात… 60-80 dB
चिल्लाने की आवाज… 90 dB
कारखाने में मशीनों से आवाज…. 110 dB
असहनीय शोर (DJ आदि)…. 130 dB
जेट प्लेन की ध्वनि… 150 dB
राकेट इंजन की ध्वनि… 180 dB
(अ) ध्वनि प्रदूषण के स्रोत (Sources of noise pollution)-
ध्वनि प्रदूषण के स्रोत निम्न प्रकार से हैं
- कारखानों द्वारा शोर – मशीनीकरण से उत्पादन अवश्य बढ़ रहा है किन्तु मशीनों से ध्वनि प्रदूषण भी बढ़ रही है और अप्रत्यक्ष रूप से हमारे स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। मशीनीकरण से 120 dB से भी अधिक का शोर होता है अतः उद्योगों के आस-पास रहने वाले व्यक्तियों की श्रवण शक्ति कम होने या खोने का डर बना रहता है।
- विमानों द्वारा शोर – वायुयान 150 dB से भी अधिक का शोर उत्पन्न करते हैं। हवाई अड्डों के पास की इमारतों में दरारें आ जाती हैं व व्यक्तियों की श्रवण शक्ति प्रभावित होती है। जिससे उनमें चिड़चिड़ापन का लक्षण हो जाता है।
- मोटर वाहनों द्वारा शोर – सड़कों पर दौड़ने वाले वाहनों की संख्या निरन्तर बढ़ती जा रही है। जो शोर प्रदूषण को बढ़ा रहे हैं। बड़े शहरों जैसे- दिल्ली, मुम्बई, चेन्नई, कोलकाता आदि में यह समस्या गंभीर है।
- लाउड – स्पीकरों तथा जैनरेटरों द्वारा शोर-शहरों के विभिन्न कार्यक्रमों में लाउडस्पीकरों का प्रयोग अधिक होता है। धर्म अनुष्ठानों, शादी विवाह में डीजे का उपयोग, राजनीतिक कार्यक्रमों आदि में तो लम्बे समय तक शोर प्रदूषण होता है। शहरों में विद्युत आपूर्ति के लिए जैनरेटरों के उपयोग से भी शोर होता है।
(ब) शोर प्रदूषण के दुष्प्रभाव (Effects of noise pollution)-
शोर प्रदूषण से होने वाले दुष्प्रभाव निम्न प्रकार से हैं
- 80 dB से अधिक की कोई भी ध्वनि एक प्रदूषक है।
- 100 dB के शोर से विचलन तथा बेचैनी हो जाती है। 120 dB से अधिक का शोर सिर में वेदना उत्पन्न कर देता है। अधिक तेज चलने वाले सुपरसोनिक जैट अपने पीछे ध्वनि तरंगों को छोड़ता जाता है। इसे ‘ध्वनि धूम’ (Sonic boom) कहते हैं।
- ध्वनि बूम जब भूमि सतह से टकराते हैं इससे इमारतों में धड़धड़ाहट पैदा हो जाती है, खिड़कियाँ हिल जाती हैं। तथा इमारतें कमजोर हो जाती है। गर्भपात हो जाता है।
- अकस्मात होने वाली उच्च ध्वनि स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होती है। इससे श्रवण शक्ति नष्ट हो जाती है या मानव मूर्छित भी हो सकता है। वस्तुतः अधिक शोर मानसिक शांति को विक्षोभित करता है। मानव की कार्यकुशलता कम हो जाती है।
- घनी आबादी वाले शहरों तथा औद्योगिक नगरों के शोर वाले पर्यावरण में रहने वाले व्यक्तियों को कम आयु में ही कम सुनाई देता है। इनमें मानसिक तनाव, हृदय गति अधिक, उच्च रक्त दाब, यकृत व मस्तिष्क रोग हो जाते
- अधिक शोर के कारण नेत्र पुतलियाँ (pupils) प्रसारित हो जाती हैं। एच्छिक पेशियाँ संकुचित हो जाती हैं तथा त्वचा पीली पड़ जाती हैं।
- शोर चिन्ता, बेचैनी व क्रुद्धता बढ़ाता है तथा स्वभाव में चिड़चिड़ापन हो जाता है। शोर से सुनने की क्षमता कम हो जाती है तथा सिर में। दर्द रहता है व निद्रा न आने का रोग हो जाता है।
- निरन्तरे शोर से हृदय रोग, उच्च रक्त दाब व अल्सर हो जाता है तथा एड्रिनल हार्मोनों का अधिक स्राव होता है। भूख कम लगती है व छोटी आंत में गैस्ट्रिक अल्सर हो जाते हैं। अधिक एड्रीनेलिन (adermalin) स्राव होने से उत्तेजनशीलता, तनाव वे थकान तथा तंत्रिका पर प्रभाव होती है।
(स) शोर प्रदूषण का निवारण या नियंत्रण (Control of noise pollution) –
- उद्योगों को शहर के बाहर स्थापित किया जाए, हवाई अड्डे भी बाहर बनाये जावें ।
- सघन वृक्षारोपण से ध्वनि प्रदूषण कम किया जा सकता है।
- लाउड स्पीकरों के उपयोग हेतु कम ध्वनि व निश्चित समय तक उपयोग या पाबन्दी लगाई जावे।।
- शोर प्रदूषण के प्रति जन चेतना उत्पन्न की जानी चाहिए।
मृदा प्रदूषण तथा इसके स्रोत (Soil pollution and its Sources) –
- वायु तथा जल प्रदूषण से ही मृदा का प्रदूषण होता है। समस्त प्रकार के अपशिष्ट या प्रदूषक जल के द्वारा मृदा को प्रदूषित करते हैं।
- अम्लीय वर्षा का जल, उर्वरक, कीटनाशी, खरपतवारनाशी, कवकनाशी, पीड़कनाशी इत्यादि समस्त रसायन जल से बहकर मृदा में प्रवेश कर जाते हैं।
- समस्त घरेलू व उद्योगों के अपशिष्ट पदार्थ तथा व्यर्थ सामग्री, खानों से निकले विभिन्न पदार्थ जैसे जस्ता, सीसा, कैडमियम, ताम्बा, आर्सेनिक इत्यादि मृदा को प्रदूषित कर देले हैं।
- अनेक अविघटनकारी पदार्थ जैसे प्लास्टिक की सामग्री तथा न्यूक्लियर रियेक्टरों के अपशिष्ट व अनेक ठोस अपशिष्ट पदार्थ ।
- कृषि जनित कचरा- इससे जैव अपघटनीय कचरा उत्पन्न होता है जो ज्यादा हानिकारक नहीं होता किन्तु अन्य जैव अनअपघटनीय जैसे DDT, BHC, एल्ड्रिन, हेप्टाक्लोर कीटनाशक अधिक हानिकारक हैं क्योंकि ये लम्बे समय तक मिट्टी में बने रहते हैं तथा वर्षा के जल के साथ खाद्य श्रृंखला में पहुंच जाते हैं।
(अ) मृदा प्रदूषण के दुष्प्रभाव (Effects of soil pollution)-
- घरेलू मक्खी, कॉकरोच आदि से खाद्य सामग्री संदूषित होकर डायरिया, पेचिस, हैजा, पीलिया, मियादी बुखार हो जाता है।
- मल जल के उपयोग से मृदा की उर्वरक क्षमता कम हो जाती है।
- धूल के उड़ने से व इसे ग्रहण करने से एलर्जी (Allergy), दमा (Asthma), आंत्रशोथ (Enteritis), संधिशोथ (Arthritis), TB तथा त्वचा सम्बन्धी रोग हो जाते हैं।
(ब) मृदा प्रदूषण को नियंत्रण (Control of soil pollution)-
- कचरे का समुचित निस्तारण करना चाहिए।
- उद्योगों को लाइसेंस देने से पूर्व कचरा निस्तारण हेतु प्रमाण पत्र ले लेना चाहिए।
- स्वच्छ शौचालयों का निर्माण करवाना चहिए।
- कृषि में कीटनाशक रसायनों के स्थान पर जैविक नियंत्रण को प्रोत्साहन देना चाहिए।
- स्कूलों व कॉलेजों में स्वच्छ पर्यावरण के विषय में जागरूकता उत्पन्न करनी चाहिए।
नाभिकीय प्रदूषण या रेडियोधर्मी अपशिष्ट (Nuclear pollution or Radiation wastes) –
- नाभिक रियेक्टरों (Nuclear reactors) से निकलने वाले अपशिष्ट पदार्थ, जलाशयों व नदियों में विसर्जित कर दिये जाते हैं। वैसे इससे निकलने वाले विकिरण जल व वायु दोनों को ही प्रदूषित करते हैं तथा ये खाद्य श्रृंखला में प्रवेश कर सभी जीवों को प्रभावित करते हैं।
- परमाणु भट्टियों में ईंधन के रूप में यूरेनियम तथा प्लूटोनियम का उपयोग होता है।
- अमेरिका, जर्मनी, रूस परमाणु शक्ति संम्पन्न देश हैं। 1945 में अमेरिका ने जापान के नागासाकी तथा हिरोशिमा शहरों पर परमाणु बम गिरा कर विनाश कर दिया था। यद्यपि परमाणु ऊर्जा का उपयोग चिकित्सा, शोध, विद्युत निर्माण में किया जाता है परन्तु परमाणुघरों से सदैव दुर्घटनाओं की आशंका रहती है।
(अ) नाभिकीय प्रदूषण के दुष्प्रभाव (Harmful effects of nuclear pollution) –
- अल्फा, वीय, गामा विकिरणों का कोशिकाओं पर हानिकारक प्रभाव होता है। इनके प्रभाव कायिक व आनुवांशिक हो सकते हैं।
- विकिरण के प्रभाव से त्वचा को नष्ट होना, मोतियाबिन्द, यकृत, थायरॉयड व तिल्ली पर हानिकारक प्रभाव होता है तथा अनेक प्रकार के कैन्सर भी होते हैं।
- सीसियम (Cesium) शरीर की पेशियों, स्ट्रॉन्शियम (Strontium) अस्थियों वे आयोडीन (iodine) थायरॉयड में एकत्रित होता जाता है। इससे केन्सर, जन्मजात शरीर विकृति तथा अस्वाभाविक अंग परिवर्धन, जीन उत्परिवर्तन होता है।
- इन प्रदूषकों का प्रभाव लम्बे समय तक बना रहता है। इनका प्रभाव आने वाली पीढ़ियों तक चलता रहता है। यही नहीं वनस्पति भी इससे प्रभावित होती है।
- न्यूक्लीयर रियेक्टर संयंत्र की अधिकतम सक्रिय आयु 30 वर्ष की होती है। इस पश्चात् न तो इन्हें नष्ट किया जा सकता तथा न ही इन्हें अन्यत्र स्थानान्तरित किया जा सकता है। इन अनुपयोगी रियेक्टरों से आने वाले अनेक वर्षों तक जल, वायु व मृदा में रेडियोऐक्टिविटी रिसती रहती है।
- भारत में भाभा परमाणु अनुसंधान केन्द्र, ट्रॉम्बे में इस प्रदूषण को कम करने, रियेक्टरों में सावधानी रखने तथा रियेक्टरों के आस-पास के क्षेत्रों के जीवों में रेडियो सक्रियता को मॉनिटर करने का कार्य होता है।
(ब) नाभिकीय अपशिष्टों का निस्तारण (Disposal of nuclear Wastes) –
नाभिकीय अपशिष्टों के निस्तारण की एक गम्भीर समस्या है। किन्तु इनके विकिरणीय के प्रभाव को निम्न प्रकार से कम किया जा सकता है
- परमाणु विस्फोटों पर पाबन्दी लगा देनी चाहिए किन्तु इस दिशा में सभी देशों को मिलकर यह कदम उठाना होगा। परमाणु विद्युत संयंत्रों से होने वाली दुर्घटना के सुरक्षा उपाय किये जाने चाहिए।
- रेडियो सक्रिय पदार्थों का रिसाव एक निश्चित सीमा में ही हो व आपातकालीन स्थिति में जनता को उस स्थल से हटा देना चाहिए।
- परमाणु विद्युत संयंत्र आबादी से दूर हो तथा वहां पर सघन वृक्षारोपण होना चाहिए।
- यदि नाभिकीय अपशिष्टों का निस्तारण करना भी हो तो इस प्रकार के उपाय करने चाहिए जिससे पर्यावरण दूषित न हो।
प्रश्न 7.
पर्यावरण प्रदूषण रोकने में नागरिकों का क्या दायित्व है? वे इस कार्य में किस प्रकार सहयोग कर सकते हैं? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-
पर्यावरण प्रदूषण एक गम्भीर समस्या है। वर्तमान में वायु, जल, मृदा, शोर तथा नाभिकीय प्रदूषण की समस्यायें हैं। हम जानते हैं। कि पृथ्वी पर भौतिक एवं जैविक संसाधन सीमित हैं। वायु की गुणवत्ता में प्रदूषण के कारण भारी गिरावट आती जा रही है। कोयला, पेट्रोलियम, प्राकृतिक गैस एवं अन्य खनिज भी सीमित मात्रा में हैं। संसाधनों का अधिक दोहन एवं अनुचित उपयोग होने के कारण पर्यावरण का संतुलन बिगड़ रहा है। पर्यावरण बहुत अधिक प्रदूषित हो रहा है। जनसंख्या भी। तेजी से बढ़ रही है। अतः आवश्यकता इस बात की है कि पर्यावरण अवनयन, प्रदूषण एवं इनके प्रभाव से उत्पन्न होने वाले खतरों की जानकारी आम व्यक्ति को भी होनी चाहिये पर्यावरण पर पड़ने वाले दुष्प्रभावों से कैसे बचा जा सकता है। पर्यावरण संरक्षण किस प्रकार सम्भव है। यह जानकारी जन-जन तक पहुंचाने की आवश्यकता है। आवश्यकता है, जन जागरूकता उत्पन्न करने वाले अभियानों की ।
राष्ट्र-स्तरीय पर्यावरण चेतना कार्यक्रम के अन्तर्गत पर्यावरण एवं वन मंत्रालय द्वारा राष्ट्रीय पर्यावरण चेतना अभियान चलाया जा रहा है। इसके साथ ही पर्यावरण क्लब, पर्यावरण वाहिनी, शोध परियोजनाएं, कानून की भूमिका, प्रदूषण नियन्त्रण मण्डल, राज्य एवं समाज द्वारा चेतना प्रसार कार्यक्रम चल रहे हैं।
वायु प्रदूषण के लिये जीवाश्मी ईंधन, कोयला कम जलाकर इनके स्थान पर LPG, CNG का उपयोग करना चाहिये ताकि धुएँ से प्रदूषण न हो। विभिन्न प्रकार के कृषि रसायनों के स्थान पर जैविक नियन्त्रण, कम्पोस्ट खाद का उपयोग किया जाना चाहिए। घरों से निकले। कचरा, मल-मूत्र तथा उद्योगों के अपशिष्ट सीधे ही जलाशयों में विसर्जित नहीं किये जाने चाहिये कचरे का एकत्रिकरण करके उसमें से निम्नीकरण व अनिम्नीकरण वस्तुओं को छांटना चाहिये। ऊर्जा के क्षेत्र में सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा, जलीय ऊर्जा, समुद्री ऊर्जा का अधिक प्रयोग करना चाहिये। पर्यावरण को सुधारने हेतु हमें अपनी आदतों में तीन R अर्थात् कम उपयोग (Reduce), पुन:चक्रण (Recycle) तथा पुन:उपयोग (Reduse) के सिद्धांत का अनुसरण करना चाहिये। शोर को भी एक सीमा तक रखना चाहिये। नाभिकीय परीक्षण पर प्रतिबन्ध होना चाहिए। यद्यपि उपाय अनेक हैं परन्तु मानव में जब तक नैतिक बोध नहीं होगा तब तक समस्या का निवारण नहीं होगा।
प्रश्न 8.
पर्यावरण नैतिकता एवं संसाधनों के उपयोग के बारे में विभिन्न धर्मों में क्या-क्या कहा गया है? सविस्तार समझाइए।
उत्तर-
पर्यावरण नैतिकता (Environmental ethics)-
धर्म तथा पर्यावरण के बीच प्रगाढ़ सम्बन्ध रहा है। भारत में सभी धर्मों का आदर किया जाता है। सभी धर्मों का एकमात्र आदर्श है“जिओ और जीने दो”। हमारे शास्त्रों व पुराणों के अनुसार सदैव सूर्य, अग्नि, जल, वायु, पृथ्वी की पूजा का प्रावधान रखा गया है। इसी प्रकार पीपल, वट वृक्ष (बरगद), तुलसी, केला आदि पादपों को देवतुल्य मानकर पूजा की जाती है। कल्पवृक्ष के लिये तो यह माना जाता है कि यह सभी कामनाओं की पूर्ति करने वाला है। यज्ञ से मनोवांछित लक्ष्य की प्राप्ति होती है।
हमारी संस्कृति वन प्रधान रही है। लगभग सभी ग्रन्थों की रचना वनों में ही हुई है। मुनियों की तपोस्थली भी वन रहे हैं। वनों में ही कला के उत्कृष्ट नमूने अजन्ता, एलोरा की गुफाएँ इत्यादि पायी जाती है। अत: वन भारत की आत्मा हैं।
महिलायें विभिन्न. त्योहारों पर बरगद, आंवला, केला, तुलसी, खेजड़ी, पीपल आदि की पूजा करती हैं व इन्हें सुरक्षित व संरक्षित रखने का प्रयास करती हैं। यही नहीं जीवों के विषय में भी सोचें तो ये विभिन्न देवताओं के वाहन के रूप में पूजनीय हैं जैसे-कार्तिकेय का मोर, भैरव का कुत्ता, शंकर का नंदी, दुर्गामाती का सिंह, लक्ष्मी का उल्लू, गणेश का चूहा, विष्णु का गरुड़, पृथ्वी का शेषनाग, सरस्वती को हंस आदि। हाथी तो स्वयं गणेश का प्रतीक है। देवता के साथ इनके वाहन के प्रति भी हमारी वही भावना रहती है।
हम नदियों को भी देवी स्वरूप मानकर पूजा-अर्चना करते हैं। सभी प्रकार के जल स्रोत बावड़ी, कुआँ, तालाब को भी धार्मिक दृष्टि से कहीं न कहीं पूजा करते हैं। एक समय था जब इन जलाशयों को पूर्णतः पवित्र रखा जाता था व मल-मूल का विसर्जन एक नैतिक अपराध माना जाता था। अनेक वृक्षों में धार्मिक मान्यतानुसार देवताओं का वास माना जाता है व देवता की जैसे ही प्रतिदिन तुलसी, केला, पीपल की पूजा करते हैं।
भगवान शिव के बेल के वृक्ष के पत्तों (बीलपत्र) को चढ़ाया। जाता है। नीम के वृक्ष को ”सर्वरोगहरो निम्बेः” कहकर प्रणाम करते हैं। हरे वृक्षों को काटना तथा संध्या उपरान्त पत्तों को तोड़ना निषेध था। भारतीय प्राचीन सभ्यता व संस्कृति में वनों का महत्व बताया गया है, जैसे पीपल वृक्ष में विष्णु का वास होता है, कदम्ब का वृक्ष भगवान कृष्ण को प्रिय था, अशोक शुभ व मंगलकारी है। सीताजी को लंका में अशोक वृक्ष के नीचे (अशोक वाटिका) ही रखा गया था और वहां माता सीता ने ‘तरुअशोक मम करुहु अशोका” कहकर अशोक वृक्ष से प्रार्थना की थी। तंत्र-मंत्र, ज्योतिष व औषध दृष्टि से जब भी वनस्पति को तोड़ते हैं। तो सर्वप्रथम उसे अपनी कामना कहकर, प्रार्थना करने के उपरान्त ही ग्रहण करते हैं।
मत्स्यपुराण में यह वर्णित है कि ”दस कुएं एक तालाब के बराबर हैं । दस तालाब एक झील के बराबर हैं। दस झीलें एक पुत्र के बराबर हैं एवं दस पुत्र एक वृक्ष के बराबर हैं।” आर्यों ने प्रकृति की सदैव पूजा की है तो आर्यों ने यज्ञ पद्धति को स्वीकारा। यज्ञ से पर्यावरण शुद्ध होता है। यदि कुल मिलाकर देखें तो सभी धर्मों ने मानव मात्र के कल्याण की भावना को स्वीकारा है, जैसे कहते हैं, “वसुदेव कुटुम्बकम्’, “सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया” इत्यादि।
प्रकृति का दोहन करने से पर्यावरण के सभी अंश प्रदूषित होते हैं। मृदा, जल, वायु, पेड़-पौधे, जीव-जन्तु इत्यादि सभी पर्यावरण के घटक हैं। इन सभी के तालमेल से पर्यावरण स्वस्थ व संतुलित रहता है। परन्तु मानव अपनी अभिलाषाओं की पूर्ति के लिये पर्यावरण के सभी घटकों को प्रदूषित कर रहा है। खाद्य सामग्री, फल-सब्जी, दूध, नदियां, मृदा, वायु लगभग सभी प्रदूषित हैं। अत: पर्यावरण में असंतुलन हो रहा है जिससे ओजोन परत का ह्रास, मौसम परिवर्तन, भू-क्षरण, मिट्टी अपरदन, बाढ़ व अकाल, पृथ्वी का तापक्रम, भूकम्प, बंजर क्षेत्रों का विकास आदि की घटनाएं बढ़ती जा रही हैं। उत्पादन बढ़ रहा है किन्तु यह ”हरितक्रान्ति” ”रक्तक्रान्ति में बदलती जा रही है। वन समाप्त हो रहे हैं, पशुओं की संख्या भी कम होती जा रही है। आनुवंशिक संग्रहण में भारी कमी होती जा रही है।
संसाधनों का उपयोग (Use of resources)-
प्राकृतिक संसाधनों के उचित उपयोग करने के कुछ बिन्दु निम्न प्रकार हैं
- प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग हमें पर्यावरणीय स्थितियों को ध्यान में रखकर ही करना चाहिए जिससे पर्यावरण विकृत अथवा प्रदूषित न हो।
- प्राकृतिक संसाधनों के उपयोग से दूसरे को हानि नहीं पहुँचनी चाहिए।
- नवीकरणीय (Renewable) प्राकृतिक संसाधनों का इस प्रकार उपयोग करना चाहिए जिससे उनके पुनः प्राप्ति की संभावना बनी रहे।
- अनवीकरणीय (Non-renewable) प्राकृतिक संसाधनों का कम से कम और आवश्यकतानुसार उचित तरीके से उपयोग करना चाहिए। जिससे वह प्रकृति में लम्बे समय तक उपलब्ध होते रहें।
अंत में प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग करते समय हमें केवल अपने लिये ही नहीं बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए भी सोचना होगा। प्रकृति से विरासत में मिले बहुमूल्य संसाधनों को पूरी तरह समाप्त करने का हक हमें नहीं है। यह हमारे आने वाली पीढ़ियों की धरोहर है अतः इसका उचित तरीके से उपयोग किया जाना चाहिए।
प्रश्न 9.
भारतीय धर्म ग्रन्थों में वनस्पति व जन्तुओं को संरक्षित रखने के लिए क्या-क्या कहा गया है व इसे धर्म से किस प्रकार संबंधित किया गया है? समझाइए।
उत्तर-
पर्यावरण नैतिकता (Environmental ethics)-
धर्म तथा पर्यावरण के बीच प्रगाढ़ सम्बन्ध रहा है। भारत में सभी धर्मों का आदर किया जाता है। सभी धर्मों का एकमात्र आदर्श है“जिओ और जीने दो”। हमारे शास्त्रों व पुराणों के अनुसार सदैव सूर्य, अग्नि, जल, वायु, पृथ्वी की पूजा का प्रावधान रखा गया है। इसी प्रकार पीपल, वट वृक्ष (बरगद), तुलसी, केला आदि पादपों को देवतुल्य मानकर पूजा की जाती है। कल्पवृक्ष के लिये तो यह माना जाता है कि यह सभी कामनाओं की पूर्ति करने वाला है। यज्ञ से मनोवांछित लक्ष्य की प्राप्ति होती है।
हमारी संस्कृति वन प्रधान रही है। लगभग सभी ग्रन्थों की रचना वनों में ही हुई है। मुनियों की तपोस्थली भी वन रहे हैं। वनों में ही कला के उत्कृष्ट नमूने अजन्ता, एलोरा की गुफाएँ इत्यादि पायी जाती है। अत: वन भारत की आत्मा हैं।
महिलायें विभिन्न. त्योहारों पर बरगद, आंवला, केला, तुलसी, खेजड़ी, पीपल आदि की पूजा करती हैं व इन्हें सुरक्षित व संरक्षित रखने का प्रयास करती हैं। यही नहीं जीवों के विषय में भी सोचें तो ये विभिन्न देवताओं के वाहन के रूप में पूजनीय हैं जैसे-कार्तिकेय का मोर, भैरव का कुत्ता, शंकर का नंदी, दुर्गामाती का सिंह, लक्ष्मी का उल्लू, गणेश का चूहा, विष्णु का गरुड़, पृथ्वी का शेषनाग, सरस्वती को हंस आदि। हाथी तो स्वयं गणेश का प्रतीक है। देवता के साथ इनके वाहन के प्रति भी हमारी वही भावना रहती है।
हम नदियों को भी देवी स्वरूप मानकर पूजा-अर्चना करते हैं। सभी प्रकार के जल स्रोत बावड़ी, कुआँ, तालाब को भी धार्मिक दृष्टि से कहीं न कहीं पूजा करते हैं। एक समय था जब इन जलाशयों को पूर्णतः पवित्र रखा जाता था व मल-मूल का विसर्जन एक नैतिक अपराध माना जाता था। अनेक वृक्षों में धार्मिक मान्यतानुसार देवताओं का वास माना जाता है व देवता की जैसे ही प्रतिदिन तुलसी, केला, पीपल की पूजा करते हैं।
भगवान शिव के बेल के वृक्ष के पत्तों (बीलपत्र) को चढ़ाया। जाता है। नीम के वृक्ष को ”सर्वरोगहरो निम्बेः” कहकर प्रणाम करते हैं। हरे वृक्षों को काटना तथा संध्या उपरान्त पत्तों को तोड़ना निषेध था। भारतीय प्राचीन सभ्यता व संस्कृति में वनों का महत्व बताया गया है, जैसे पीपल वृक्ष में विष्णु का वास होता है, कदम्ब का वृक्ष भगवान कृष्ण को प्रिय था, अशोक शुभ व मंगलकारी है। सीताजी को लंका में अशोक वृक्ष के नीचे (अशोक वाटिका) ही रखा गया था और वहां माता सीता ने ‘तरुअशोक मम करुहु अशोका” कहकर अशोक वृक्ष से प्रार्थना की थी। तंत्र-मंत्र, ज्योतिष व औषध दृष्टि से जब भी वनस्पति को तोड़ते हैं। तो सर्वप्रथम उसे अपनी कामना कहकर, प्रार्थना करने के उपरान्त ही ग्रहण करते हैं।
मत्स्यपुराण में यह वर्णित है कि ”दस कुएं एक तालाब के बराबर हैं । दस तालाब एक झील के बराबर हैं। दस झीलें एक पुत्र के बराबर हैं एवं दस पुत्र एक वृक्ष के बराबर हैं।” आर्यों ने प्रकृति की सदैव पूजा की है तो आर्यों ने यज्ञ पद्धति को स्वीकारा। यज्ञ से पर्यावरण शुद्ध होता है। यदि कुल मिलाकर देखें तो सभी धर्मों ने मानव मात्र के कल्याण की भावना को स्वीकारा है, जैसे कहते हैं, “वसुदेव कुटुम्बकम्’, “सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया” इत्यादि।
प्रकृति का दोहन करने से पर्यावरण के सभी अंश प्रदूषित होते हैं। मृदा, जल, वायु, पेड़-पौधे, जीव-जन्तु इत्यादि सभी पर्यावरण के घटक हैं। इन सभी के तालमेल से पर्यावरण स्वस्थ व संतुलित रहता है। परन्तु मानव अपनी अभिलाषाओं की पूर्ति के लिये पर्यावरण के सभी घटकों को प्रदूषित कर रहा है। खाद्य सामग्री, फल-सब्जी, दूध, नदियां, मृदा, वायु लगभग सभी प्रदूषित हैं। अत: पर्यावरण में असंतुलन हो रहा है जिससे ओजोन परत का ह्रास, मौसम परिवर्तन, भू-क्षरण, मिट्टी अपरदन, बाढ़ व अकाल, पृथ्वी का तापक्रम, भूकम्प, बंजर क्षेत्रों का विकास आदि की घटनाएं बढ़ती जा रही हैं। उत्पादन बढ़ रहा है किन्तु यह ”हरितक्रान्ति” ”रक्तक्रान्ति में बदलती जा रही है। वन समाप्त हो रहे हैं, पशुओं की संख्या भी कम होती जा रही है। आनुवंशिक संग्रहण में भारी कमी होती जा रही है।
प्रश्न 10.
पर्यावरण नैतिकता किसे कहते हैं? पर्यावरण शुद्ध करने के हमारे नैतिक दायित्व क्या हैं? समझाइए।
उत्तर-
पर्यावरण नैतिकता (Environmental ethics)-
धर्म तथा पर्यावरण के बीच प्रगाढ़ सम्बन्ध रहा है। भारत में सभी धर्मों का आदर किया जाता है। सभी धर्मों का एकमात्र आदर्श है“जिओ और जीने दो”। हमारे शास्त्रों व पुराणों के अनुसार सदैव सूर्य, अग्नि, जल, वायु, पृथ्वी की पूजा का प्रावधान रखा गया है। इसी प्रकार पीपल, वट वृक्ष (बरगद), तुलसी, केला आदि पादपों को देवतुल्य मानकर पूजा की जाती है। कल्पवृक्ष के लिये तो यह माना जाता है कि यह सभी कामनाओं की पूर्ति करने वाला है। यज्ञ से मनोवांछित लक्ष्य की प्राप्ति होती है।
हमारी संस्कृति वन प्रधान रही है। लगभग सभी ग्रन्थों की रचना वनों में ही हुई है। मुनियों की तपोस्थली भी वन रहे हैं। वनों में ही कला के उत्कृष्ट नमूने अजन्ता, एलोरा की गुफाएँ इत्यादि पायी जाती है। अत: वन भारत की आत्मा हैं।
महिलायें विभिन्न. त्योहारों पर बरगद, आंवला, केला, तुलसी, खेजड़ी, पीपल आदि की पूजा करती हैं व इन्हें सुरक्षित व संरक्षित रखने का प्रयास करती हैं। यही नहीं जीवों के विषय में भी सोचें तो ये विभिन्न देवताओं के वाहन के रूप में पूजनीय हैं जैसे-कार्तिकेय का मोर, भैरव का कुत्ता, शंकर का नंदी, दुर्गामाती का सिंह, लक्ष्मी का उल्लू, गणेश का चूहा, विष्णु का गरुड़, पृथ्वी का शेषनाग, सरस्वती को हंस आदि। हाथी तो स्वयं गणेश का प्रतीक है। देवता के साथ इनके वाहन के प्रति भी हमारी वही भावना रहती है।
हम नदियों को भी देवी स्वरूप मानकर पूजा-अर्चना करते हैं। सभी प्रकार के जल स्रोत बावड़ी, कुआँ, तालाब को भी धार्मिक दृष्टि से कहीं न कहीं पूजा करते हैं। एक समय था जब इन जलाशयों को पूर्णतः पवित्र रखा जाता था व मल-मूल का विसर्जन एक नैतिक अपराध माना जाता था। अनेक वृक्षों में धार्मिक मान्यतानुसार देवताओं का वास माना जाता है व देवता की जैसे ही प्रतिदिन तुलसी, केला, पीपल की पूजा करते हैं।
भगवान शिव के बेल के वृक्ष के पत्तों (बीलपत्र) को चढ़ाया। जाता है। नीम के वृक्ष को ”सर्वरोगहरो निम्बेः” कहकर प्रणाम करते हैं। हरे वृक्षों को काटना तथा संध्या उपरान्त पत्तों को तोड़ना निषेध था। भारतीय प्राचीन सभ्यता व संस्कृति में वनों का महत्व बताया गया है, जैसे पीपल वृक्ष में विष्णु का वास होता है, कदम्ब का वृक्ष भगवान कृष्ण को प्रिय था, अशोक शुभ व मंगलकारी है। सीताजी को लंका में अशोक वृक्ष के नीचे (अशोक वाटिका) ही रखा गया था और वहां माता सीता ने ‘तरुअशोक मम करुहु अशोका” कहकर अशोक वृक्ष से प्रार्थना की थी। तंत्र-मंत्र, ज्योतिष व औषध दृष्टि से जब भी वनस्पति को तोड़ते हैं। तो सर्वप्रथम उसे अपनी कामना कहकर, प्रार्थना करने के उपरान्त ही ग्रहण करते हैं।
मत्स्यपुराण में यह वर्णित है कि ”दस कुएं एक तालाब के बराबर हैं । दस तालाब एक झील के बराबर हैं। दस झीलें एक पुत्र के बराबर हैं एवं दस पुत्र एक वृक्ष के बराबर हैं।” आर्यों ने प्रकृति की सदैव पूजा की है तो आर्यों ने यज्ञ पद्धति को स्वीकारा। यज्ञ से पर्यावरण शुद्ध होता है। यदि कुल मिलाकर देखें तो सभी धर्मों ने मानव मात्र के कल्याण की भावना को स्वीकारा है, जैसे कहते हैं, “वसुदेव कुटुम्बकम्’, “सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया” इत्यादि।
प्रकृति का दोहन करने से पर्यावरण के सभी अंश प्रदूषित होते हैं। मृदा, जल, वायु, पेड़-पौधे, जीव-जन्तु इत्यादि सभी पर्यावरण के घटक हैं। इन सभी के तालमेल से पर्यावरण स्वस्थ व संतुलित रहता है। परन्तु मानव अपनी अभिलाषाओं की पूर्ति के लिये पर्यावरण के सभी घटकों को प्रदूषित कर रहा है। खाद्य सामग्री, फल-सब्जी, दूध, नदियां, मृदा, वायु लगभग सभी प्रदूषित हैं। अत: पर्यावरण में असंतुलन हो रहा है जिससे ओजोन परत का ह्रास, मौसम परिवर्तन, भू-क्षरण, मिट्टी अपरदन, बाढ़ व अकाल, पृथ्वी का तापक्रम, भूकम्प, बंजर क्षेत्रों का विकास आदि की घटनाएं बढ़ती जा रही हैं। उत्पादन बढ़ रहा है किन्तु यह ”हरितक्रान्ति” ”रक्तक्रान्ति में बदलती जा रही है। वन समाप्त हो रहे हैं, पशुओं की संख्या भी कम होती जा रही है। आनुवंशिक संग्रहण में भारी कमी होती जा रही है।
पर्यावरण प्रदूषण एक गम्भीर समस्या है। वर्तमान में वायु, जल, मृदा, शोर तथा नाभिकीय प्रदूषण की समस्यायें हैं। हम जानते हैं। कि पृथ्वी पर भौतिक एवं जैविक संसाधन सीमित हैं। वायु की गुणवत्ता में प्रदूषण के कारण भारी गिरावट आती जा रही है। कोयला, पेट्रोलियम, प्राकृतिक गैस एवं अन्य खनिज भी सीमित मात्रा में हैं। संसाधनों का अधिक दोहन एवं अनुचित उपयोग होने के कारण पर्यावरण का संतुलन बिगड़ रहा है। पर्यावरण बहुत अधिक प्रदूषित हो रहा है। जनसंख्या भी। तेजी से बढ़ रही है। अतः आवश्यकता इस बात की है कि पर्यावरण अवनयन, प्रदूषण एवं इनके प्रभाव से उत्पन्न होने वाले खतरों की जानकारी आम व्यक्ति को भी होनी चाहिये पर्यावरण पर पड़ने वाले दुष्प्रभावों से कैसे बचा जा सकता है। पर्यावरण संरक्षण किस प्रकार सम्भव है। यह जानकारी जन-जन तक पहुंचाने की आवश्यकता है। आवश्यकता है, जन जागरूकता उत्पन्न करने वाले अभियानों की ।
राष्ट्र-स्तरीय पर्यावरण चेतना कार्यक्रम के अन्तर्गत पर्यावरण एवं वन मंत्रालय द्वारा राष्ट्रीय पर्यावरण चेतना अभियान चलाया जा रहा है। इसके साथ ही पर्यावरण क्लब, पर्यावरण वाहिनी, शोध परियोजनाएं, कानून की भूमिका, प्रदूषण नियन्त्रण मण्डल, राज्य एवं समाज द्वारा चेतना प्रसार कार्यक्रम चल रहे हैं।
वायु प्रदूषण के लिये जीवाश्मी ईंधन, कोयला कम जलाकर इनके स्थान पर LPG, CNG का उपयोग करना चाहिये ताकि धुएँ से प्रदूषण न हो। विभिन्न प्रकार के कृषि रसायनों के स्थान पर जैविक नियन्त्रण, कम्पोस्ट खाद का उपयोग किया जाना चाहिए। घरों से निकले। कचरा, मल-मूत्र तथा उद्योगों के अपशिष्ट सीधे ही जलाशयों में विसर्जित नहीं किये जाने चाहिये कचरे का एकत्रिकरण करके उसमें से निम्नीकरण व अनिम्नीकरण वस्तुओं को छांटना चाहिये। ऊर्जा के क्षेत्र में सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा, जलीय ऊर्जा, समुद्री ऊर्जा का अधिक प्रयोग करना चाहिये। पर्यावरण को सुधारने हेतु हमें अपनी आदतों में तीन R अर्थात् कम उपयोग (Reduce), पुन:चक्रण (Recycle) तथा पुन:उपयोग (Reduse) के सिद्धांत का अनुसरण करना चाहिये। शोर को भी एक सीमा तक रखना चाहिये। नाभिकीय परीक्षण पर प्रतिबन्ध होना चाहिए। यद्यपि उपाय अनेक हैं परन्तु मानव में जब तक नैतिक बोध नहीं होगा तब तक समस्या का निवारण नहीं होगा।
प्रश्न 11.
प्राकृतिक संसाधनों के उपयोगों पर विस्तार से लिखिए।
उत्तर-
हमें संसाधनों के प्रबंधन की बहुत आवश्यकता है क्योंकि केवल सड़कें एवं इमारतें ही नहीं वरन् वे सारी वस्तुएँ जिनका हम उपयोग करते हैं, जैसे-भोजन, कपड़े, पुस्तकें, फर्नीचर, औजार, वाहन
आदि सभी हमें पृथ्वी पर उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों से प्राप्त होती हैं। हमें केवल एक ही वस्तु पृथ्वी के बाहर से प्राप्त होती है, वह है ऊर्जा, जो हमें सूर्य से प्राप्त होती है। परन्तु यह ऊर्जा भी हमें पृथ्वी पर उपस्थित जीवों के द्वारा प्रक्रमों से तथा विभिन्न भौतिक एवं रासायनिक प्रक्रमों द्वारा ही प्राप्त होती है।
अतः हमें अपने संसाधनों की सावधानीपूर्वक अर्थात् विवेकपूर्ण ढंग से उपयोग करने की आवश्यकता है क्योंकि ये संसाधन सीमित हैं। स्वास्थ्य-सेवाओं में सुधार के कारण हमारी जनसंख्या में तीव्र गति से वृद्धि हो रही है । जनसंख्या में वृद्धि के कारण सभी संसाधनों की माँग भी कई गुना तेजी से बढ़ी है। प्राकृतिक संसाधनों का प्रबंधन करते समय दीर्घकालिक दृष्टिकोण को ध्यान में रखना होगा कि ये अगली कई पीढ़ियों तक उपलब्ध हो सकें। संसाधनों के प्रबंधन में इस बात को भी सुनिश्चित करने की आवश्यकता है कि इनका वितरण सभी वर्गों में समान रूप से हो, न कि कुछ अमीर और शक्तिशाली लोगों को इनका लाभ मिले।
संसाधनों का दोहन करते समय हम पर्यावरण को क्षति भी पहुँचाते हैं । उदाहरण के लिए, खनन से प्रदूषण होता है, क्योंकि धातु के निष्कर्षण के साथ-साथ बड़ी मात्रा में धातुमल भी निकलता है। अतः संपोषित प्राकृतिक संसाधनों के प्रबंधन में अपशिष्टों के सुरक्षित निपटान की भी व्यवस्था होनी चाहिए।