Rajasthan Board RBSE Class 11 Hindi अपरा Chapter 17 भारतीय जीवन-दर्शन एवं संस्कृति
RBSE Class 11 Hindi अपरा Chapter 17 पाठ्यपुस्तक के प्रश्नोत्तर
RBSE Class 11 Hindi अपरा Chapter 17 वस्तुनिष्ठ प्रश्न
प्रश्न 1.
भारतीय दर्शन में जीवन की रचना है –
(क) पूरक
(ख) चक्रीय
(ग) पूरक एवं चक्रीय
(घ) असत्
उत्तर:
(ख) चक्रीय
प्रश्न 2.
जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य माना गया है –
(क) धर्म
(ख) अर्थ
(ग) काम
(घ) मोक्ष
उत्तर:
(घ) मोक्ष
RBSE Class 11 Hindi अपरा Chapter 17 अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
‘सर्वभूतहितेरता’ से क्या आशय है?
उत्तर:
आशय यह है कि भारत में मान्यता है कि हमें सभी प्राणियों की भलाई में लगे रहना चाहिए।
प्रश्न 2.
‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ से क्या भावना ध्वनित होती है ?
उत्तर:
‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ से व्यक्त होता है कि यह सम्पूर्ण धरती एक परिवार है। अर्थात् सभी पृथ्वीवासी एक ही परिवार के सदस्य हैं। उनमें भेद नहीं है।
प्रश्न 3.
मनुष्य और पशु में कौन-सा तत्व समान है ?
उत्तर:
मनुष्य और पशु में आत्मतत्व समान है।
प्रश्न 4.
सृष्टि का सृजन किस तत्व से हुआ है ?
उत्तर:
सृष्टि का सृजन ब्रह्म अर्थात् परमात्मतत्व से हुआ है।
RBSE Class 11 Hindi अपरा Chapter 17 लघूत्तरात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
सृष्टि निर्माण का क्रम क्या बताया गया है ?
उत्तर:
ब्रह्म ने अपने में से ही सृष्टि की रचना की, उसी सृष्टि में से चित्त, मन, बुद्धि, अहंकार, ज्ञानेन्द्रियाँ, कर्मेन्द्रियाँ, पंचतन्मात्र तथा पंचमहाभूत उत्पन्न हुए। उन्हीं में से सूर्य, वायु, पृथ्वी, जल आदि बने तथा उन्हीं में से वृक्ष, वनस्पति, पर्वत, वन तथा मनुष्य बने।
प्रश्न 2.
भारत की चिरंजीविता का रहस्य क्या है ?
उत्तर:
संसार में अनेक देश और संस्कृतियाँ आईं और चली गईं परन्तु भारत आज भी जीवित है। भारत की जीवन को देखने की एक समग्र दृष्टि है तथा जीवन को धारण करने की व्यवस्था सर्वजन के लिए हितकारक है। अपने जीवन-दर्शन और संस्कृति के कारण भारतू चिरंजीवी है।
प्रश्न 3.
धर्म से क्या आशय है ?
उत्तर:
मनुष्य जीवन के चार पुरुषार्थों में धर्म भी एक है। मानव जीवन का लक्ष्य है- मोक्ष प्रप्ति। मोक्षप्राप्ति के माध्यम काम और अर्थ हैं। धर्म एक नियंत्रक शक्ति है। धर्म से नियंत्रित काम और अर्थ ही मनुष्य को मोक्ष तक पहुँचाते हैं।
प्रश्न 4.
‘कर्मवाद’ वैज्ञानिक सिद्धान्त कैसे है ? समझाइए।
उत्तर:
‘कर्मवाद’ वैज्ञानिक सिद्धान्त है। मनुष्य दूसरों के प्रति अच्छा अथवा बुरा जैसा-जैसा मन में सोचता है, वाणी से बोलता है और कार्यक्षेत्र में करता है, उसका वैसा ही प्रतिफल उसको प्राप्त होता है। अच्छाई के बदले अच्छाई और बुराई के बदले बुराई ही मिलती है। हमारी स्थिति और गति हमारे ही कर्मों के अधीन है।
प्रश्न 5.
संयम को उपभोग से श्रेष्ठ क्यों माना गया है ?
उत्तर:
भारतीय संस्कृति में लेने से देने का महत्त्व अधिक है। देने में जो आनन्द है वह लेने में नहीं है। दूसरों की सेवा ऑनन्ददायक है। हम पहले दूसरों के बारे में सोचते हैं फिर अपने बारे में। संयम उपभोग की अपेक्षा श्रेष्ठ है क्योंकि उसमें परहित और दूसरों के लिए त्याग का भाव है। उसमें परार्थ दान की भावना है।
प्रश्न. 6.
सभी मनुष्यों की एकात्मता का रहस्य क्या है ?
उत्तर:
सभी मनुष्यों में एक ही आत्मतत्व विद्यमान है। सभी देश-प्रदेशों; जातियों और धर्मों के मनुष्यों में एक ही आत्मतत्व है। सम्पूर्ण सृष्टि मूलत: एक है। अतः सभी मनुष्यों में एकात्मता विद्यमान है।
प्रश्न 7.
मानव की पूर्णता से क्या आशय है ?
उत्तर:
भारतीय जीवन में चार पुरुषार्थ बताए गए हैं, उनमें एक धर्म है। धर्म, अर्थ और काम को नियमन करने की शक्ति है। धर्म से नियंत्रित अर्थ और काम मनुष्य को मोक्ष तक पहुँचाते हैं। मोक्ष जीवन का लक्ष्य है। भारतीय संस्कृति का यह पुरुषार्थ चतुष्ट्य की रचना मनुष्य को पूर्णता की ओर ले जाती है।
RBSE Class 11 Hindi अपरा Chapter 17 निबन्धात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
भारतीय जीवन-दर्शन क्या है ? समझाइए।
उत्तर:
भारतीय ऋषियों-मुनियों ने आत्मकेन्द्रित एवं ध्यानस्थ होकर जीवन को देखा। उनको जीवन जैसा दृष्टिगोचर हुआ, वही भारतीय जीवन दर्शन है, यह सम्पूर्ण सृष्टि परमतत्व ब्रह्म की रचना है। वही इसमें व्याप्त है। उसी से पशु-पक्षी, मनुष्य, वनस्पतियाँ आदि बने हैं। वही आत्मतत्व सबमें व्याप्त है। समस्त सृष्टि मूलरूप में एक है और आत्मतत्व का ही विस्तार है। मनुष्यों, जीव-जन्तुओं आदि के अनेक भेद दिखाई देते हैं। इस भिन्नता के मूल में स्थित जीवन एक ही है और अखण्ड भी है। सभी भेद ऊपरी तथा आभासी हैं। संसार में सबका एक दूसरे से सम्बन्ध एकात्मकता का ही है। मनुष्य, पशु, जड़, चेतन-सब में एक ही आत्मतत्व है। भारतीय, विदेशी, हिन्दी, मुस्लिम, ईसाई, बौद्ध, जैन शैव-शाक्त सबमें वही है। सबमें एक ही आत्मतत्व है। अतः मनुष्यों का आपसी सम्बन्ध प्रेम का है। आत्मतत्व का सम्बन्ध प्रेम है। प्रेम का सम्बन्ध होने के कारण एक-दूसरे को कुछ देने, सेवा करने, त्याग करने आदि में आनन्द आता है। वृद्ध, गुरु, रोगी, दरिद्र आदि की सेवा को धर्म कहा गया है। सेवा को प्रकट रूप ही पूजा। है। दूसरों के लिए त्याग करने के उद्देश्य से ही संयम की शिक्षा दी जाती है।
भारतीय जीवन दर्शन के अनुसार सम्पूर्ण जीवन गतिमान है। यह गति चक्रीय है। जीवन जहाँ से आरम्भ होता है, घूमकर वहीं पहुँच जाता है। आत्मतत्व अजर, अमर, अविनाशी है। अतः जीवन भी अधिक ही है, जीवन का अन्त नहीं होता, केवल रूपान्तरण होता है। इस चक्रीय गति से ही व्यवहार बना है। मनुष्य मन, वचन, कर्म से दूसरों का भला अथवा बुरा जो भी करता है, उसका वैसा ही फल उसको प्राप्त होता है। भले कर्म का फल भला और बुरा होता है। इसको कर्मवाद कहते हैं। कर्मफल के अनुसार मनुष्य के जीवन में अधिकार नहीं कर्तव्य का महत्व है। यह कर्तव्य समस्त प्राणियों के प्रति है। पश्चिमी विचारधारा में केवल योग्य व्यक्ति ही जीता है। (Survival of the fettest) किन्तु भारतीय दर्शन में शक्तिशाली निर्बल का संरक्षक होता है। जीवन का लक्ष्य मोक्ष-प्राप्ति है। अर्थ और काम भी जीवन के पुरुषार्थ हैं किन्तु धर्म के नियंत्रण द्वारा वे व्यक्ति की मोक्ष प्राप्ति में सहायक होते हैं। आत्मा की अनुभूति होना ही सभी बन्धनों से मुक्ति है। इसके बाद मनुष्य का व्यवहार प्रेम, संयम, दान, संरक्षण, कृतज्ञता और कर्तव्यनिष्ठा का होगा। मोक्ष का यही अभिप्रेत अर्थ है।
प्रश्न 2.
चारों पुरुषार्थ किस प्रकार हमें पूर्णता की ओर ले जाने वाले हैं ?
उत्तर:
भारतीय दर्शन में मानव जीवन के चार पुरुषार्थ बताये गये हैं। ये पुरुषार्थ हैं- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। मनुष्य जीवन की प्रथम दो अवस्थाएँ बचपन एवं युवावस्था अर्जन की अवस्थाएँ हैं विद्योपार्जन तथा धनोपार्जन इसका उद्देश्य है। ये ‘अर्थ’ से जुड़े हैं। उपार्जन से प्राप्त वस्तुएँ ही अर्थ हैं। जीवन का लक्ष्य है-मोक्ष प्राप्ति। मोक्ष अर्थात् आत्मस्थित स्वरूप का ज्ञान होने पर मनुष्य समस्त बन्धनों से मुक्त हो जाता है। उसको अपूर्णता का जो आभास होता है, वह समाप्त हो जाता है और उसको पूर्णता की प्राप्ति हो जाती है। पूर्णता की प्राप्ति आत्मस्वरूप को ज्ञान – यही मोक्ष है। जीवन के दो अन्य पुरुषार्थ अर्थ’ और ‘काम’ हैं। ‘काम’ जीवन के लिए प्राकृतिक अवस्था है। काम के अन्तर्गत समस्त इच्छाएँ हैं। सभी मनोदशाएँ अर्थात् राग, द्वेष, लोभ, मोह, मद, मत्सर, क्रोध इत्यादि काम के ही रूप हैं। इसकी प्राप्ति का साधन ‘अर्थ’ है। सभी प्रकार के उद्यमों, क्रियाओं और व्यवसायों से प्राप्त होने वाली सम्पत्ति, पद-प्रतिष्ठा, मान-सम्मान सबको अर्थ कहते हैं। धर्म ‘काम’ और ‘अर्थ’ के नियमन की शक्ति का नाम है। व्यक्ति के जीवन से लेकर समस्त विश्व को धर्म ही नियंत्रित करता है। धर्म के नियंत्रण और नियमन को स्वीकार करके ‘अर्थ’ और ‘काम’ हमें ‘मोक्ष’ तक पहुँचाते हैं।’अर्थ’ और ‘काम’ धर्म से नियंत्रित होकर मोक्ष प्राप्ति के साधन बनते हैं। मोक्ष की प्राप्ति ही मानव जीवन की पूर्णता है।
RBSE Class 11 Hindi अपरा Chapter 17 अन्य महत्वपूर्ण प्रश्नोत्तर
RBSE Class 11 Hindi अपरा Chapter 17 वस्तुनिष्ठ प्रश्न
प्रश्न 1.
एक से अनेक होने की कामना किसने की ?
(क) ब्रह्म ने
(ख) मनुष्यों ने
(ग) देवताओं ने
(घ) पशुओं ने
उत्तर:
(क) ब्रह्म ने
प्रश्न 2.
सृष्टि में दिखाई देने वाले सभी भेद –
(क) उचित हैं।
(ख) ऊपरी और आभासी हैं।
(ग) वास्तविक और सच्चे हैं।
(घ) प्राकृतिक हैं।
उत्तर:
(ख) ऊपरी और आभासी हैं।
प्रश्न 3.
भारतीय, जापानी, जर्मन, अमेरिकी, मुस्लिम, ईसाई, यहूदी, पारसी सब समाहित हैं –
(क) देश में
(ख) जाति में
(ग) धर्म में
(घ) आत्मतत्व में।
उत्तर:
(घ) आत्मतत्व में।
प्रश्न 4.
अमर तत्व नहीं हैं –
(क) अजर
(ख) अमर
(ग) मनोरंजक
(घ) अविनाशी
उत्तर:
(ग) मनोरंजक
प्रश्न 5.
सबके साथ व्यवहार अपेक्षित है –
(क) मधुर
(ख) विवेकयुक्त
(ग) हँसी-मजाक का
(घ) धर्मसम्मत
उत्तर:
(ख) विवेकयुक्त
RBSE Class 11 Hindi अपरा Chapter 17 अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
सम्पूर्ण सृष्टि की रचना किसने की ?
उत्तर:
सम्पूर्ण सृष्टिं की रचना ब्रह्मा ने अपने में से की।
प्रश्न 2.
‘सोऽकामयत् एकोऽहम् बहुस्याम्’ का क्या अर्थ है ?
उत्तर:
इसका अर्थ है कि उसने (ब्रह्म) इच्छा की कि मैं एक से अनेक हो जाऊँ।
प्रश्न 3.
सृष्टि में दिखाई देने वाले भेदों की विशिष्टता क्या है ?
उत्तर:
सृष्टि में दिखाई देने वाले भेदों की विशेषता है कि वे ऊपरी और आभासी हैं।
प्रश्न 4.
सभी प्राणियों के साथ हमारा व्यवहार कैसा होना चाहिए ?
उत्तर:
समस्त प्राणियों के साथ हमारा व्यवहार प्रेम का होना चाहिए।
प्रश्न 5.
सेवा को क्या माना गया है और उसका प्रकट रूप क्या है ?
उत्तर:
सेवा को धर्म माना गया है तथा उसका प्रकट रूप पूजा है।
प्रश्न 6.
जीवन की गति चक्रीय होने का क्या तात्पर्य है ?
उत्तर:
चक्र अर्थात् गोल पहिया जिस प्रकार घूमता है उस प्रकार की गति को चक्रीय कहते हैं। जहाँ से गति आरम्भ होती है, वहीं पर पूर्ण भी होती है।
प्रश्न 7.
‘मनसा, वाचा, कर्मणा’ का क्या अर्थ है ?
उत्तर:
मनुष्य का दूसरों के साथ व्यवहार तीन प्रकार का होता है – मन से, वचन से और कर्म से। जैसे किसी का हित सोचना, अहितकारी बात बोलना तथा अहित के काम करना।
प्रश्न 8.
भारत में कथा-कहानियों, गीतों, कहावतों आदि के द्वारा किस बात को सामान्य जन को बताया गया है ?
उत्तरं:
भारत में कथा-कहानियों, गीतों-भजनों, कहावतों आदि के माध्यम से जन-साधारण को बताया गया है कि जो जैसा करता है, उसका वैसा ही परिणाम भुगतना पड़ता है।
प्रश्न 9.
जो सबसे अधिक शक्तिशाली है, योग्यतम है, वही पाएगा’ कथन में किस पश्चिमी सिद्धान्त की ओर संकेत है ?
उत्तर:
इसमें प्रसिद्ध वैज्ञानिक डार्विन के सिद्धान्त (Survival of the fettest) की ओर संकेत है। इसी की ओर संकेत करते हुए निराला ने लिखा है-योग्यजन जीता है/ पश्चिम की उक्ति नहीं, गीता है, गीता है ?
प्रश्न 10.
मानव जीवन का लक्ष्य क्या है ?
उत्तर:
मानव जीवन का लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति है।
प्रश्न 11.
‘पुरुषार्थ चतुष्ट्य क्या है ?
उत्तर:
मानव जीवन के चार पुरुषार्थ कहे गये हैं-धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष।
प्रश्न 12.
भारत एवं भारतीय संस्कृति के अक्षय होने का क्या कारण है ?
उत्तर:
भारत की जीवन को ओर देखने की समग्र दृष्टि तथा जीवन को धारण करने की सर्वहित कारक व्यवस्था भारत और उसकी संस्कृति के अक्षय होने के कारण हैं।
RBSE Class 11 Hindi अपरा Chapter 17 लघूत्तरात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
हमारा सौभाग्य क्या है ?
उत्तर:
हम परम भाग्यशाली हैं कि हमारा जन्म मनुष्य के रूप में हुआ है। हमारा सौभाग्य है कि हम भारत में जन्मे हैं। भारत वह भूमि है जिसमें सभी प्राणियों के हित की कामना की गई है। भारत में सबके सुखी होने की प्रार्थना की जाती है। विश्व को एकै परिवार माना जाता है तथा उसकी श्रेष्ठता के लिए काम करने की बात कही जाती है।
प्रश्न 2.
सृष्टि की रचना के सम्बन्ध में भारतीय मत क्या है ?
उत्तर:
भारत में माना जाता है कि परमतत्व अर्थात् ब्रह्म से यह सम्पूर्ण सृष्टि हुई है तथा वह इसमें व्याप्त है। उपनिषदों में बताया गया है-सोऽकामयत् एकोऽहम् बहुस्याम्। इस प्रकार यह सृष्टि ब्रह्म अर्थात् आत्मतत्व का विस्तार है। इसकी रचना ब्रह्म ने अपने में से ही की है तथा वह इसमें व्याप्त भी है।
प्रश्न 3.
संसार में दिखाई देने वाले भेद कैसे हैं ?
उत्तर:
संसार में विविध प्रकार के भेद दिखाई देते हैं। सृष्टि के सभी पदार्थ एक दूसरे से भिन्न हैं किन्तु उनमें ऊपर से दिखाई देती इस भिन्नता के होते हुए भी मूल में जीवन एक है। ये समस्त भेद ऊपरी हैं तथा आभासी हैं।
प्रश्न 4.
सम्पूर्ण सृष्टि में कैसा आन्तरिक सम्बन्ध है ?
उत्तर:
इस सम्पूर्ण सृष्टि में आन्तरिक सम्बन्ध एकात्मता का है। पूरी सृष्टि मूलतः एक है। इसमें जो आत्मतत्व है वह सभी प्राणियों में एक जैसा है। एक ही आत्मतत्त्र सभी जड़-चेतन पदार्थों, पशुओं, पक्षियों और मनुष्यों में है। जापान, भारतीय, अमेरिकी, हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई, यहूदी, पारसी जैन, बौद्ध आदि में वही आत्मतत्व है।
प्रश्न 5.
मनुष्य को दूसरों की सेवा करने में आनन्द क्यों आता है ?
उत्तर:
सभी मनुष्य के अन्दर समान आत्मतत्व है। आत्मतत्व का स्वभाव प्रेम का है। जिससे हम प्रेम करते हैं उसकी सेवा करने से हमें आनन्द आता है। सभी मनुष्यों में प्रेम का स्वाभविक सम्बन्ध होने के कारण दूसरों की सेवा करने में आनन्द आता है।
प्रश्न 6.
सेवा कितने प्रकार की होती है ? उसका प्रकट रूप क्या है ?
उत्तर:
सेवा अनेक प्रकार की होती है। वृद्ध सेवा, गुरु सेवा, रोगी की सेवा, दरिद्र सेवा और सृष्टि सेवा को भारत में श्रेष्ठ धर्म माना गया है। सेवा का प्रकट रूप पूजा है। किसी की सेवा करना ईश्वर की पूजा करना है।
प्रश्न 7.
‘सम्पूर्ण जीवन गतिमान है और यह गति चक्रीय है’- उदाहरण देकर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
सम्पूर्ण जीवन निरन्तर चलता रहता है। इसकी गति चक्रीय है अथति यह चक्र के समान घूमता रहता है। आशय यह है कि यह जहाँ से आरम्भ होता है वहाँ पर ही पूर्ण होता है। सागर के पानी से बादल, बादल से वर्षा, वर्षा से नदियाँ बनती हैं तथा नदियाँ पुनः सागर से जाकर मिल जाती हैं।
प्रश्न 8.
जीवन की क्या विशेषता है ?
उत्तर:
चक्रीय गति के कारण जीवन अजर, अमर और अविनाशी है। उसका कहीं भी अन्त नहीं होता। उसका केवल रूप परिवर्तन होता है। मूल तत्व सदैव एक समान रहता है। सभी प्राणियों में परमात्म तत्व का अंश आत्मतत्व है। परमतत्व अविनाशी है अतः जीवन अविनाशी है।
प्रश्न 9.
चक्रीय गति मानव के व्यवहार से कैसे सम्बन्धित है ?
उत्तर:
चक्रीय गति का सम्बन्ध मानव व्यवहार से भी है। मनुष्य मन से, वाणी से तथा कर्म से दूसरों के साथ अच्छा अथवा बुरा जैसा व्यवहार करता है, उसको वैसा प्रतिफल प्राप्त होता है। जैसी करनी वैसी भरनी। अच्छा व्यवहार का फल अच्छा और बुरे व्यवहार का फल बुरा प्राप्त होता है। .
प्रश्न 10.
‘कर्मवाद’ का सिद्धान्त क्या है ?
उत्तर:
कर्म का विचार ही कर्मवाद है। भला सोचने, बोलने और करने वाले का भला ही होता है। किसी के विषय में बुरा सोचने, बोलने और करने का परिणाम भी बुरा होता है। किसी का अहित करने वाले का भी अहित होगी। यह विचार ही कर्मवाद कहलाता है। मनुष्य की स्थिति और गति उसके कर्मों के अधीन है।
प्रश्न 11.
भारत में लौकिक जीवन में कर्म पर विश्वास किस प्रकार प्रगट हुआ है ?
उत्तर:
भारत में लौकिक जीवन में कर्म पर विश्वास का संदेश कथा-कहानियों में भजन और गीतों, कहावतों और मुहावरों के माध्यम से दिया गया है। अनपढ़ किसान भी कहता है-‘जैसा बोओगे वैसा काटोगे।’ भिखारी कहता है-एक पैसा दोगे वह दस लाख देगा।’। सभी कहते हैं-जैसी करनी वैसी भरनी।
प्रश्न 12.
कर्म के सिद्धान्त का मनुष्य के व्यवहार पर क्या प्रभाव होता है ?
उत्तर:
कर्मफल के सिद्धान्त से मनुष्य का व्यवहार प्रभावित होता है। इसी सिद्धान्त के प्रभाव के कारण हमारे व्यवहार में कर्त्तव्य महत्वपूर्ण हैं, अधिकार नहीं देना महत्त्वपूर्ण है, लेना नहीं। हमारे व्यवहार में समन्वय, त्याग, पोषण, संरक्षण, कृतज्ञता, प्रेम आदि भावों, को इसी के कारण महत्त्व प्राप्त है।
प्रश्न 13.
मोक्ष क्या है ? इसका मानव जीवन में क्या स्थान है?
उत्तर:
‘मोक्ष’ पुरुषार्थ चतुष्ट्य का एक महत्त्वपूर्ण अंग है। मोक्ष का अर्थ है-रामस्त सांसारिक बंधनों से मुक्ति। मनुष्य का परम कर्तव्य है कि वह ‘मोक्ष’ प्राप्त करने को हरसंभव प्रयास करे।’अर्थ’ और ‘काम’ नामक पुरुषार्थ जब’ धर्म’ से नियमित होते हैं तो वे मोक्ष तक पहुँचने के साधन बन जाते हैं। मोक्ष का मानव जीवन में महत्वपूर्ण स्थान है।
प्रश्न 14.
‘यही रचना हमें पूर्णत्व की ओर ले जाती है’ कथन पर विचारपूर्ण टिप्पणी कीजिए।
उत्तर:
भारतीय संस्कृति में मानव जीवन के चार पुरुषार्थ बताये गये हैं। ये हैं-धर्म, अर्थ काम और मोक्ष। चारों पुरुषार्थों का सिद्ध करना ही मानव जीवन है। अन्तिम पुरुषार्थ मोक्ष बड़ा महत्त्वपूर्ण है। मोक्ष की प्राप्ति से मानव-आत्मा समस्त बंधनों से मुक्त हो जाती है। यह बन्धन, मुक्ति की पूर्णता को प्राप्त करना है। धर्म नियामक शक्ति है। ‘अर्थ’ और ‘काम’ ‘धर्म’ के नियंत्रण में रहकर मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करते हैं।
RBSE Class 11 Hindi अपरा Chapter 17 निबन्धात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
‘जैसी करनी वैसी भरनी’ का क्या आशय है ? कर्म के सिद्धान्त के सन्दर्भ में इसे स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
भारत में कर्म का बहुत महत्त्व है। कर्म के तीन रूप हैं। एक, मन में सोचना। दो, वाणी से कहना तथा तीन, कार्य रूप में परिणत करना। भारतीय जीवन दर्शन में मान्यता है कि किसी प्राणी का अहित सोचना, उससे अप्रिय बात कहना तथा अनुचित काम करना पाप है। इसका दुष्परिणम कर्ता को भुगतना पड़ता है। जीवन का स्वरूप और उसकी गति कर्मानुसार ही है। दूसरों के लिए अहितपूर्ण बातें सोचने वाले का भी अहित हेता। दूसरे से कटु और अप्रिय बात कहने वाले को कटुतापूर्ण बातें सुननी ही पड़ती हैं। किसी का बुरा करने वाले कर्ता को भी बुरे काम का प्रतिफल भुगतना पड़ता है। इसके विपरीत दूसरों का हित सोचना, मधुर भाषण करना तथा परोपकार करना प्रशंसनीय होता है तथा करने वाले को भी अपने, जीवन में वैसा ही अच्छा प्रतिफल मिलता है। इसी को कर्मवाद कहते हैं।
कर्म को यही सिद्धान्त है। दैनिक व्यवहार इसी कर्म-सिद्धान्त पर आधारित है। भारत में सामान्य मनुष्य भी अपने व्यवहार में इस बात का ध्यान रखता है तथा पराया अहित करने से बचता है। वह सोच-समझकर बोलता है। किसी का अहित सोचना हिंसा है, कटु भाषण करना भी हिंसा है और किसी को चोट पहुँचाना भी हिंसा है। अनपढ़ मनुष्य भी इसे जानता है। वह कहता है-‘जैसा बोओगे, वैसा काटोगे।’ भिक्षुक कहता है-“तुम एक पैसा दोगे, वह दस लाख देगां ।’ प्राय: सभी भारतीय मानते हैं-जैसी करनी, वैसी भरनी।’ गोस्वामी तुलसीदास ने लिखा है-‘जो जस करहिं, सो तस फल चाखा।’
प्रश्न 2.
“अपने मूल स्वरूप को सर्वार्थ में जानना और उसी में स्थित होना ही जीवन का सर्वश्रेष्ठ लक्ष्य है” -कथन के आधार पर बताइए कि मानव जीवन का मूल स्वरूप तथा लक्ष्य क्या है ?
उत्तर:
मानव का जन्म ‘परमात्म तत्व’ से हुआ है। ‘परमात्म तत्व’ का एक अंश ‘आत्मतत्व’ मानव ही नहीं प्रत्येक प्राणी के अन्दर स्थित है। इस प्रकार परम तत्व मनुष्य में व्याप्त है। जो भेद दिखाई देता है, वह ऊपरी है तथा आभासी है। मनुष्य के भीतर जो आत्मा है, वह परम तत्व या परमात्मा का ही अंश है। परमतत्व अजर, अमर, अविनाशी है। उसी प्रकार उसका अंश आत्मतत्व भी अविनाशी है। जीवन अजर, अमर और अविनाशी है। अपने में व्याप्त परमतत्व को पहचानकर ही अपने को जाना जा सकता है। परमतत्व ही मनुष्य का मूल रूप है।
जब मनुष्य अपने इस रूप को जान लेता है तो संसार के समस्त बंधनों से वह मुक्त हो जाता है। बन्धनों से इस मुक्ति को ही मोक्ष कहते हैं। ‘मोक्ष’ मनुष्य जीवन के चार पुरुषार्थों में से एक है। यह सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण पुरुषार्थ है।’अर्थ’ और ‘काम’ धर्म से नियंत्रित होकर मोक्ष पाने में सहायक होते हैं। मोक्ष अथवा मुक्ति प्राप्त होने पर मनुष्य जान जाता है कि वह शुद्ध बुद्ध आत्मा है। इस ज्ञान के साथ ही वह परमतत्व के साथ जाकर मिल जाता है। इसी मिलन को अपने मूलरूप में स्थित होना कहा गया है। संसार के समस्त बन्धनों से मुक्त होकर वह परमात्म तत्व से मिल जाता है। अतः मोक्ष को मानव जीवन का चरम लक्ष्य कहा गया है।
प्रश्न 3.
भारत और उसकी संस्कृति अनेक संकट आने पर भी जीवित है-इसका आपकी दृष्टि में क्या कारण है ?
उत्तर:
पुराने इतिहास को पढ़ने से ज्ञात होता है कि भारत विश्व का एक बहुत प्राचीन देश है तथा उसकी संस्कृति भी बहुत फैली है। संसार में मिश्र, यूनान, रोम आदि अनेक प्राचीन देश तथा संस्कृतियाँ रही हैं। समय की गति के अनुसार वे सभी काल के गाल में समा चुके हैं किन्तु भारत और उसकी संस्कृति आज भी जीवित है। भारत को विदेशी बर्बर आक्रमणों का शिकार होना पड़ा है और हजारों वर्ष की पराधीनता झेलनी पड़ी है। इन सभी संकटों पर विजयी होता हुआ भारत अपनी संस्कृति के साथ जीवित है। प्रश्न उठता है कि भारत और उसकी संस्कृति में ऐसा क्या है कि वह जीवित रही, जबकि विश्व की प्राचीनतम संस्कृतियाँ नष्ट हो गईं? भारत की चिरंजीविता का रहस्य क्या है ? भारत की जीवन को देखने की दृष्टि तथा जीवन को धारण करने की व्यवस्था इतनी अधिक सर्वहितकारक है कि उनके रहते भारत नष्ट नहीं हो सकता।
भारत में माना जाता है कि मनुष्य ही नहीं सभी प्राणी उसी परमतत्व के रूप हैं। अतः भारतीयों का धर्म सबके प्रति प्रेम है। उसी के फलस्वरूप अनेक विदेशी जातियाँ भारत में आकर दूध-शक्कर की तरह घुल-मिल गई हैं। भारत की पाचन शक्ति अत्यन्त प्रबल है। सभी संस्कृतियों को भारतीय संस्कृति में स्थान है। भारत सबका कल्याण चाहता है, ‘सर्वभूत हितेरताः’ उसको लक्ष्य है। वह ‘सर्वे भवन्तु सुखिन’ की प्रार्थना करता है। ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ कहकर पूरी धरती को एक परिवार मानता है। ‘कृण्वन्तो विश्वमार्यम्’ का निश्चय व्यक्त करके वह सभी को अपनी तरह श्रेष्ठ बनाना चाहता है। भारत की यह जीवन दृष्टि संघर्ष की नहीं समन्वय की है। यही उसके जीवित रहने का कारण है।
भारतीय जीवन दर्शन एवं संस्कृति लेखिका-परिचय
जीवन-परिचय-
इंदुमति काटदरे गुजरात निवासी हैं। आपकी शिक्षा गुजरात में ही सम्पन्न हुई। बाद में आप विसनगर महाविद्यालय में अंग्रेजी की प्राध्यापिका हो गईं। आपने पुनरुत्थान विद्यापीठ की स्थापना की, जिसकी आप संस्थापक कुलपति हैं। आपको गुजराती, मराठी, संस्कृत, हिन्दी तथा अंग्रेजी भाषाओं पर समान अधिकार है।
साहित्यिक परिचय-इंदुमति लेखिका, अनुवादक, सम्पादक तथा कुशल वक्ता हैं। आपने धर्मपाल साहित्य (दस खण्ड) को गुजराती और हिन्दी में अनुवाद किया है। आप ‘पुनरुत्थान संदेश’ नामक मासिक पत्र निकालती हैं। आपने परिवार विषयक पाँच ग्रन्थों का निर्माण किया है। ‘पुण्यभूमि भारत संस्कृति वाचनमाला’ के अन्तर्गत आपने एक सौ लघु पुस्तकों का संग्रह भी प्रकाशित किया है।
कृतियाँ-शिशुवाटिका तत्व एवं व्यवहार, आत्म-तत्व का विस्तार, शिक्षा का समग्र विकास प्रतिमान, शिक्षा का भारतीय प्रतिमान, समग्र शिक्षा योजना, वर-वधूचयन एवं विवाह संस्कार, अर्थशास्त्रः भारतीय दृष्टि, धर्म शिक्षा-कर्म शिक्षा एवं शास्त्र शिक्षा आपकी प्रमुख रचनायें हैं।
पाठ-सार
प्रस्तुत पाठ’ भारतीय जीवन दर्शन एवं संस्कृति’ ‘शिशु वाटिका तत्व एवं व्यवहार’ नामक पुस्तक से लिया गया है। इसमें भारतीय चिन्तन की समग्रता और श्रेष्ठता को सरल ढंग से प्रस्तुत किया गया है।
उपनिषदों में ब्रह्म को परमतत्व कहते हैं, ब्रह्म से समस्त सृष्टि हुई है। इस सृष्टि के विविधंरूपों के वही सृजक हैं। सम्पूर्ण सृष्टि एक है और अमरतत्व का विस्तार है। इसमें ऊपर से भेद दिखाई देते हैं परन्तु मूल में एक ही जीवन है, जो अखण्ड है। सम्पूर्ण सृष्टि का आन्तरिक सम्बध एकात्मता से है। एक ही आत्मतत्व सभी मनुष्यों, पशुओं, पक्षियों आदि में है। आत्मतत्व ही प्रकृति प्रेम है। अतः सभी मनुष्यों और जीवों में स्वाभाविक संबंध प्रेम का है। प्रत्येक देश, जाति, धर्म के मनुष्य इसी सम्बन्ध से जुड़े हैं। इसी कारण दूसरों की सेवा करने में आनन्द आता है। वृद्ध, रोगी, गुरु, दरिद्र के दु:ख दूर करने में सुख मिलता है। प्रेम, सेवा, त्याग, संयम आदि का आत्मीयपूर्ण व्यवहार इसी कारण होता है।
भारतीय दर्शन में जीवन की रचना पूरक एवं चक्रीय है। जीवन की गति चक्रीय होने का तात्पर्य है कि यह जहाँ से आरम्भ होता है। वहाँ इसका अन्त होता है। सागर के पानी से बादल, वर्षा, नदी बनते हैं फिर नदी सागर में मिल जाती है। मनुष्य का जीवन गंभ, शिशु बाल, किशोर, युवा, प्रौढ़ और वृद्ध होकर मृत्यु तक पहुँचता है फिर एक जन्म से दूसरे जन्म की यात्रा का चक्र चलता है, इस चक्रीय गति का कारण नाश नहीं होंता, आत्म-तत्व अजर, अमर और अविनाशी है। अतः सम्पूर्ण सृष्टि भी अविनाशी है। इसका केवल रूप बदलना है। जड़-चेतन सब में मूल तत्व ‘आत्म’ है। सभी जीव परमात्मा तत्व के एक अंश आत्मतत्व हैं।
इस चक्रीय गति का हमारे व्यवहार से सम्बन्ध है। हम जैसा करेंगे, वैसे ही उसका फल मिलेगा। यह व्यवहार सोचने, बोलने और करने से जुड़ा है। किसी के लिए बुरा सोचने, बोलने या करने वाले को वैसा ही फल प्राप्त होता है। अत: सबसे विवेकयुक्त व्यवहार अपेक्षित है।
हमारे यहाँ अधिकार नहीं कर्तव्ये अपेक्षित हैं। हमारी सोच लेने की नहीं देने की है, संघर्ष नहीं समन्वय की है। हमारे यहाँ सबल निर्बल का शोषण नहीं संरक्षण करता है। शक्तिशाली और योग्यतम ही जीवित रहेगा-यह पाश्चात्य विचार है। निर्बल का संरक्षण और पोषण भारतीय जीवन दृष्टि है। भारतीय मनीषियों ने व्यवहार के चार आयाम बताये हैं, इनको पुरुषार्थ कहते हैं। पुरुषार्थ चार हैं-धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष।
‘मोक्ष’ जीवन का लक्ष्य है।’काम’ का अर्थ है-सभी प्रकार की इच्छाएँ। इनकी सिद्धि के लिए ‘अर्थ’ अपेक्षित है। अर्थ अर्थात धन साधन है। सभी प्रक़ार के उद्यम, व्यापार आदि के द्वारा प्राप्त सम्पत्ति, मान-सम्मान, पद-प्रतिष्ठा अर्थ हैं। धर्म इनको नियंत्रण में रखने वाली व्यवस्था है। धर्म की व्यवस्था के अन्तर्गत चलक़र ही अर्थ और काम मोक्ष का माध्यम बनते हैं। जीवन का लक्ष्य मोक्ष प्राप्त करना है। आत्मा की अनुभूति होना ही मोक्ष. अर्थात् समस्त बंधनों से मुक्ति है। संसार में अनेक राष्ट्रों और संस्कृतियों का उदय हुआ और वे काल के गाल में समा गईं, भारत पहले था, आज भी है। जीवन को देखते ही भारतीय दृष्टि ही भारत के अस्तित्व का कारण है। भारतभूमि पर मनुष्य रूप में जन्म ग्रहण करना हमारा सौभाग्य है। भारत में ‘सर्वभूतहितेरता’, ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’, ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की भावना को मान्यता मिली हुई है। भारतीय जीवन दर्शन के अनुरूप चलकर ही हम अपना जीवन सार्थक कर सकते हैं।
शब्दार्थ-
(पृष्ठ सं. 103)-
‘सोऽकामयत् एकोऽहम् बहुस्याम् इति’ = उसने इच्छा की मैं एक हूँ अनेक हो जाऊँ। समग्र = सम्पूर्ण। सृजन = रचना। अहंकार = घर्मण्ड। ज्ञानेन्द्रियाँ = पाँच हैं-आँख, कान, नाक, जिह्वा, त्वचा। कर्मेन्द्रियाँ = पाँच हैं- हाथ, पैर, वाक्, गुदा, उपस्थ। पंचतन्मात्रा = रूप, रस, गंध, स्पर्श, शब्द। पंचमहाभूत = पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश। अरण्य = वन। अनुस्यूत = मिला हुआ। सृजक रचयिता। कृति = रचना। कीट = कीड़ा। पतंग = उड़ने वाले कीट। आभासी = दिखावटी। जड़-चेतन = स्थावर-जंगम। शैव = शिवजी के उपासक। शक्ति = शक्ति की पूजा करने वाले। संयम = इन्द्रिय-निग्रह।
(पृष्ठ सं. 104)-
मान्यता = विश्वास, मानना। चक्रीय = गोल घेरे जैसा। पर्ण = पत्ते. परस्पर = आपस में। अजर = वृद्धावस्था से रहित। अविनाशी = अमर। रूपान्तर = रूप परिवर्तन। मनसा-वाचा-कर्मणा = मन, वचन, कर्म से। कृति = रचना। अंततः = अन्तु में। अहित = बुरा। भरनी = परिणाम। अपेक्षित है = आशा की जाती है।
(पृष्ठ सं. 105)–
छोर = सिरा। संघर्ष = टकराव। समन्वय = मेल। चतुष्य = चौकड़ी। अनुरूप = अनुसार। मनीषी = विचारक, विद्वान। मनस्थिति = मनोदशी। मत्सर = क्रोध। साधन = माध्यम। नियमन = नियंत्रण। वैश्विक = विश्व का। सर्वार्थ = समस्त रूपों में। मोक्ष = मुक्ति। सहज = स्वाभाविक। कृतज्ञता = उपकार मानना। कृतघ्नता = अहसान फरामोशी। अभिप्रेत = इच्छित, जानने योग्य।
(पृष्ठ सं. 106)-चिरंजीविता = सदा जीवित रहना, अमरता। सर्व हितकारक = सबके लिए लाभदायक। सर्वभूत हितेरता = सभी प्राणियों का भला चाहना। सर्वे भवन्तु सुखिनः = सभी सुखी हों। अलख जगाना = लक्ष्य पाने का प्रयास करना। वसुधैव कुटुम्बकम् = पूरी पृथ्वी एक परिवार है। घोष = नाद, आवाज। कृण्वन्तो विश्वमार्यम् = पूरे संसार को आर्य बनाना है। वत्सल = प्रेम करने वाली। सार्थकता = उपयोगिता॥
महत्वपूर्ण गद्यांशों की सप्रसंग व्याख्याएँ
1. उपनिषदों में वर्णन आता है कि ब्रह्म जिसे हम परमात्म तत्त्व भी कहते हैं, उसने एक से अनेक होने की कामना की-‘सोऽकामयत् एकोऽहम् बहुस्याम् इति।’ इस प्रकार उस ब्रहम ने अपने में से ही समग्र सृष्टि का सृजन किया। उसी सृष्टि में से चित्त बना, मन बना, बुद्धि बनी, अहंकार बना तथा ज्ञानेन्द्रियाँ, कर्मेन्द्रियाँ, पंचतन्मात्रा.एवं पंचमहाभूत आदि की उत्पत्ति हुई। उन्हीं में से सूर्य, वायु, पृथ्वी, जल आदि बने। उन्हीं में से वृक्ष, वनस्पति, पर्वत, अरण्य तथा मनुष्य बने। इन सबमें वह आत्मतत्त्व स्वयं अनुस्यूत ही है। स्वयं के इन विविध स्वरूपों का सृजक भी वह स्वयं ही है।
(पृष्ठसं. 103)
सन्दर्भ एवं प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक अपरा में संकलित ‘ भारतीय जीवन-दर्शन एवं संस्कृति’ शीर्षक निबन्ध से लिया गया है। इसकी लेखिका इन्दुमति काटदरे हैं।
भारतीय संस्कृति में सृष्टि के सम्बन्ध में गहन विचार किया गया है। उपनिषदों में इस विषय में जो बताया गया है, लेखिका उस पर विचार कर रही है।
व्याख्या-लेखिका कहती है कि उपनिषदों में सृष्टि के बारे में विचार किया गया है। बताया गया है कि ब्रह्म को परमात्म तत्व कहते हैं। ब्रह्म के मन में इच्छा उत्पन्न हुई कि मैं अकेला हूँ, अनेक हो जाऊँ–एकोऽहम् बहुस्याम्। तब ब्रह्म ने अपने में से इस समस्त सृष्टि को उत्पन्न किया। उस ब्रह्म की सृष्टि में से ही चित्त, मन, बुद्धि और अहंकार बने। उसमें से ही पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ (नेत्र, कान, नासिका, जिह्वा और त्वचा) और पाँच कर्मेन्द्रियाँ (हाथ, पैर, वाक्, गुदा और उपस्थ) बनीं। पंचतन्मात्रा एवं पंचमहाभूतों की उत्पत्ति भी हुई। उन्हीं से सूर्य, वायु, पृथ्वी, जल आदि बने। उन्हीं में से वृक्ष, वनस्पतियाँ, पहाड़, वन तथा मनुष्यों की भी रचना हुई। इन सभी में वह आत्मतत्व स्वयं ही मिला हुआ है। सृष्टि के ये अनेक रूपे उसी परमात्म तत्व की रचना हैं तथा वह स्वयं भी इनमें समाया हुआ है।
विशेष-
(i) सृष्टि की उत्पत्ति की भारतीय विचारधारा का वर्णन किया गया है।
(ii) सम्पूर्ण सृष्टि की रचना परमात्मा ने की है तथा वह स्वयं भी सभी में व्याप्त है।
(iii) भाषा संस्कृतनिष्ठ तथा प्रवाहपूर्ण है।
(iv) शैली विचार-विश्लेषणात्मक है।
2. जब सब में एक ही आत्मतत्व है तो हमारा सबके साथ स्वाभाविक संबंध प्रेम का है क्योंकि आत्मतत्व का स्वभाव ही प्रेम है। जब हम एक-दूसरे के साथ प्रेम से जुड़ते हैं तो हमें दूसरे को देने में आनंद आता है, दूसरों की सेवा करने में आनन्द आता है। हम पहले दूसरों का विचार करते हैं, बाद में स्वयं का विचार करते हैं। दूसरों के दुःख से दुखी होते हैं और उनका दुःख दूर करने की हमारी स्वाभाविक इच्छा होती है।
(पृष्ठसं. 103)
सन्दर्भ एवं प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक अपरा में संकलित ‘भारतीय जीवन-दर्शन एवं संस्कृति’ शीर्षक पाठ से लिया गया है। इसकी लेखिका इन्दुमति काटदरे हैं।
लेखिका ने भारतीय संस्कृति की विचारधारा के अनुसार सृष्टि की रचना के बारे में बताया है कि ब्रह्म ने इसको रचा है तथा वह स्वयं भी इसमें व्याप्त है। उसके रूप को आत्मतत्व कहा गया है।
व्याख्या-लेखिका ने कहा है कि समस्त सृष्टि में परमात्मा स्वयं व्याप्त है। और यह उसी को प्रकट रूप है। परमात्मा के इस स्वरूप को आत्मतत्व कहा गया है। आत्मतत्व का स्वभाव प्रेम है। सभी जीवों में एक ही आत्मतत्व व्याप्त है। अतः सभी के बीच प्रेम का सम्बन्ध में होना स्वाभाविक है। जब हमारा एक-दूसरों के साथ प्रेम का संबंध है तो एक दूसरे को कुछ देने में आनन्द आता है। हमें दूसरों की सेवा करने में प्रसन्नता प्राप्त होती है, पहले हम दूसरों के हित की बात सोचते हैं फिर अपना हित सोचते हैं। हम दूसरों को दुःखी देखकर दु:खी होते हैं और उसका दु:ख दूर करना चाहते हैं। ऐसा होना मनुष्य का स्वभाव है क्योंकि यही स्वभाव आत्मतत्व का है।
विशेष-
(i) परमात्मा का स्वभाव प्रेम है। सभी प्राणी उसका ही स्वरूप हैं। अत: उनका स्वभाव भी प्रेम करना है।
(ii) भाषा संस्कृतनिष्ठ है तथा विषयानुरूप है।
(iii) शैली विचारात्मक है।
3. इस चक्रीय गति का सम्बन्ध हमारे व्यवहार से भी है। हम मनसा-वाचा-कर्मणा जो व्यवहार करेंगे उसका फल हमें ही मिलेगा अर्थात् जब हम विचार के रूप में-भावना के रूप में, कृति के रूप में अथवा केवल बोलकर दूसरों के साथ जो व्यवहार करेंगे उसके परिणाम अंततः हमें ही भुगतने पड़ेंगे। किसी के विषय में बुरा सोचा तो हमारा ही बुरा होगा, भला सोचा तो हमारा ही भला होगा। किसी का अहित किया तो हमारा भी अहित होगा, इसी को कर्मवाद कहा गया है।
(पृष्ठ सं. 104)
सन्दर्भ एवं प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक अपरा में संकलित ‘भारतीय जीवन दर्शनं एवं संस्कृति’ शीर्षक पाठ से लिया गया है। इसकी रचना इन्दुमति काटदरे ने की है। लेखिका ने बताया है कि सृष्टि की गति चक्रीय अर्थात चक्र के समान है। यह जहाँ से आरम्भ होती है अन्त में वहीं पहुँच जाती है। चक्रीय गति के कारण सृष्टि में पूर्ण विनाश नहीं होता, केवल रूप परिवर्तन होता है।
व्याख्या-लेखिका ने बताया है कि सृष्टि की चक्रीय गति हमारे व्यवहार से भी जुड़ी हुई है। मनुष्य मन से, वचन से और कर्म से जैसा दूसरों के प्रति सोचता, कहता या करता है, वैसा ही प्रतिफल उसको प्राप्त होता है। विचार और भावना का सम्बन्ध मन से, कृति का सम्बन्ध कर्म से तथा बोलने का वचन से है, यदि किसी के बारे में बुरी बात सोचेंगे तो हमारा बुरा होगा, यदि भला सोचेंगे तो हमारा भला होगा। किसी से बुरा बोलना और किसी को हानि पहुँचाने का काम करने का वैसा ही परिणाम हमको भुगतना पड़ता है। इसी को कर्मवाद का सिद्धान्त कहा जाता है।
विशेष-
(i) लेखिका ने संसार में कर्मवाद के सिद्धान्त की व्याख्या की है।
(ii) दूसरों के लिए बुरा सोचने, उनसे बुरा बोलने तथा उनका बुरा करने का वैसा ही फल सोचने वाले, बोलने वाले तथा कर्ता को भुगतना पड़ता है। यही कर्मवाद है।
(iii) भाषा तत्सम शब्दावली युक्त तथा विषयानुरूप है।
(iv) शैली विचारात्मक है।
4. ‘मोक्ष’ जीवन का लक्ष्य है, उसे पाने के लिए मनुष्य को हर संभव प्रयास करने चाहिए। ‘काम’ प्रत्येक मनुष्य के लिए प्राकृतिक अवस्था है। काम का अर्थ है- सभी प्रकार की इच्छाएँ और सभी प्रकार की मनःस्थिति अर्थात् राग, द्वेष, लोभ, मोह, मद, मत्सर, क्रोधादि ये काम के ही रूप हैं। इस सबकी प्राप्ति के लिए ‘अर्थ’ साधन है। सभी प्रकार के उद्यम, क्रियाएँ, व्यवसाय आदि के माध्यम से प्राप्त होने वाली सम्पत्ति, मान-सम्मान, पद-प्रतिष्ठा आदि सब अर्थ हैं।’धर्म’ इन सबको नियमन में रखने वाली व्यवस्था है।
(पृष्ठसं. 105)
सन्दर्भ एवं प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक अपरा में संकलित ‘ भारतीय जीवन दर्शन एवं संस्कृति’ शीर्षक पाठ से अवतरित है। इसके लेखिका इन्दुमति काटदरे हैं।
लेखिका ने भारतीय जीवन-दर्शन के अनुसार चार पुरुषार्थों का उल्लेख किया है। ये चार पुरुषार्थ धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष बताए गए हैं॥
व्याख्या-लेखिका कहती हैं कि भारतीय संस्कृति में मोक्ष को जीवन का लक्ष्य बताया गया है। मनुष्य का कर्तव्य है कि वह मोक्ष प्राप्त करने के लिए हरसंभव उपाय करे। ‘काम’ भी जीवन का एक पुरुषार्थ है। यह एक प्राकृतिक दृश्य है। ‘काम’ के अन्तर्गत सभी इच्छाएँ सम्मिलित हैं। सभी प्रकार की मनोदशायें यथा राग, द्वेष, लोभ, मोह, मद, मत्सर और क्रोध के ही रूप हैं। इन सभी की प्राप्ति के लिए ‘अर्थ’ की आवश्यकता होती है। अर्थ अर्थात् धन इनको पाने का माध्यम है। विभिन्न प्रकार के उद्यम, व्यवसाय तथा काम करने से अर्थ प्राप्त होता है। इन कार्यों से जो सम्पत्ति, मान-सम्मान, पद-प्रतिष्ठा आदि मिलते हैं, वे सभी अर्थ के अन्तर्गत आते हैं। धर्म वह पुरुषार्थ है जो इन सब पर नियंत्रण रखता है। धर्म के नियंत्रण से ही अर्थ और काम मोक्ष प्राप्ति का माध्यम बनते हैं।
विशेष-
(i) भारतीय संस्कृति में मानव जीवन का उद्देश्य चार पुरुषार्थों की सिद्धि है।
(ii) इनमें चरम उद्देश्य मोक्ष प्राप्त ही है।
(iii) भाषा संस्कृतनिष्ठ, विषयानुकूल तथा प्रवाहपूर्ण है।
(iv) शैली विचारात्मक है।
5. हमारा यह भाग्य है कि हमें मनुष्य जन्म मिला, उससे भी बड़ा अहोभाग्य यह है कि हमें ईश्वर ने भारत भूमि में पैदा किया। उस भारत भूमि में, जिसने सर्वभूतहितेरता’ की कामना की, जिसने ‘सर्वे भवन्तु सुखिन’ की अलख जगाई, जिसने ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ का घोष कर संपूर्ण विश्व के साथ एकात्मता का संबंध स्थापित किया, जिसने संपूर्ण विश्व को अपने जैसा श्रेष्ठ बनाने हेतु कृण्वन्तो विश्वमार्यम्’ का निश्चय किया। ऐसी वत्सल भारत भूमि के समग्र जीवन दर्शन के अनुरूप हम सब अपना जीवन जीकर इस मनुष्य जन्म की सार्थकता सुनिश्चित कर सकते हैं।
(पृष्ठसं, 106)
सन्दर्भ एवं प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक अपरा में संकलित ‘भारतीय जीवन दर्शन एवं संस्कृति’ शीर्षक पांठ से • लिया गया है। इसकी लेखिका इन्दुमति काटदरे हैं।
लेखिका ने कहा है कि अपनी समग्र जीवन दृष्टि के कारण भारत और उसकी संस्कृति आज भी जीवित है और आगे भी रहेगी। इस देश में जन्म लेना हमारा सौभाग्य है। व्याख्या-लेखिका कहती है कि मनुष्य के रूप में जन्म लेना हमारा सौभाग्य है। इससे भी अधिक सौभाग्य की बात यह है कि हम भारत में पैदा हुए हैं। भारत वह देश है जिसमें सभी प्राणियों के कल्याण की कामना की जाती है। यह वही देश है, जहाँ सभी सुखी हों-युह प्रार्थना ईश्वर से की जाती है। भारत में वसुधैव कुटुम्बकम् अर्थात् पूरी धरती ही एक परिवार है, यह उदार विचार स्वीकार किया जाता है।
और इस प्रकार समस्त संसार के साथ एकता और अपनापन स्थापित किये जाते हैं। भारत श्रेष्ठ है और सम्पूर्ण संसार में इस श्रेष्ठता का विस्तार करना चाहता है, वह घोषित करता है-कृण्वन्तो विश्वमार्यम्। ऐसी स्नेहमयी भूमि भारत के जीवन-दर्शन के अनुरूप हम अपना जीवन जी सकते हैं और देख सकते हैं कि भारत में हमारा जीवन जीना सार्थक हो गया है।
विशेष-
(i) भाषा संस्कृतनिष्ठ तथा विषयानुरूप है।
(ii) शैली विचारात्मक है।
(iii) भारत और उसकी जीवन दृष्टि की विशेषताओं का परिचय दिया गया है।
(iv) भारत में मनुष्य रूप में जन्म लेना सार्थक कहा गया है,