Rajasthan Board RBSE Class 11 Hindi प्रज्ञा प्रवाह पद्य Chapter 5 मैथिलीशरण गुप्त
RBSE Class 11 Hindi प्रज्ञा प्रवाह पद्य Chapter 5 पाठ्यपुस्तक के प्रश्न
RBSE Class 11 Hindi प्रज्ञा प्रवाह पद्य Chapter 5 वस्तुनिष्ठ प्रश्न
प्रश्न 1.
मैथिलीशरण गुप्त को जिस नाम से जाना जाता है, वह है –
(क) महाकवि
(ख) राष्ट्रकवि
(ग) राजकवि
(घ) ओजकवि
उत्तर:
(ख) राष्ट्रकवि
प्रश्न 2.
गुप्तजी की अक्षय कीर्ति का आधार-स्तम्भ है –
(क) रेणुका
(ख) कुरुक्षेत्र
(ग) भारत भारती
(घ) हुँकार
उत्तर:
(ग) भारत भारती
प्रश्न 3.
खड़ी बोली हिन्दी के उन्नायक कवि के रूप में जो प्रतिष्ठित हैं –
(क) सुमित्रानन्दन पंत
(ख) हरिवंश राय बच्चन
(ग) मैथिलीशरण गुप्त
(घ) धर्मवीर भारती
उत्तर:
(ग) मैथिलीशरण गुप्त
प्रश्न 4.
गुप्तजी द्वारा रचित महाकाव्य है –
(क) नहुष
(ख) किसान
(ग) जयद्रथ वध
(घ) साकेत
उत्तर:
(घ) साकेत
RBSE Class 11 Hindi प्रज्ञा प्रवाह पद्य Chapter 5 अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
कवि मानस-भवन में किसकी आरती उतारने की बात कह रहा है?
उत्तर:
कवि मानस-भवन में वाणी की अधिष्ठातृ देवी सरस्वती तथा अपनी रचना की आरती उतारने की बात कह रहा है।
प्रश्न 2.
चाहे लक्ष्मी चली जाए, लेकिन भारत जन को किसका साथ नहीं छोड़ने के लिए कहा गया है?
उत्तर:
चाहे लक्ष्मी या सर्वस्व चला जाए, लेकिन भारत जन को सत्य का एवं वचन-पालन का साथ नहीं छोड़ने के लिए कहा गया है।
प्रश्न 3.
‘आदर्शों के नाम पर केवल गीत रह गये हैं’ – पंक्ति में कवि ने ऐसा क्यों कहा है?
उत्तर:
वर्तमान काल में आर्यों के प्राचीन आदर्श लुप्त हो रहे हैं, अब न तो आर्यजन रहे और न उनके आदर्श। अब केवल उनके गीत शेष रह गये हैं।
प्रश्न 4.
“आमिष दिया अपना जिन्होंने श्येन-भक्षण के लिए।” किसने अपना आमिष काटकर श्येन को खाने को दिया?
उत्तर:
राजा शिबि ने शरणागत कबूतर की रक्षा के लिए अपना आमिष काटकर श्येन (बाज) को खाने को दिया था।
RBSE Class 11 Hindi प्रज्ञा प्रवाह पद्य Chapter 5 लघूत्तरात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
‘वाल्मीकि-वेदव्यास-से गुण-गान-गायक थे यहाँ। – पृथु, पुरु, भरत, रघु-से अलौकिक लोकनायक थे यहाँ।।” उपर्युक्त पंक्तियों के कला-सौन्दर्य को लिखिए।
उत्तर:
इसमें कवि ने भारत के प्राचीन काल के आदर्श पुरुषों का उल्लेख किया। है। वाल्मीकि एवं वेदव्यास को कवि ने आदर्श मानवों के चरित्र का गुणगान करने वाला बताया है, तो राजा पृथु, पुरु, भरत एवं रघु आदि को अनुपम लोकनायक अर्थात् जनता के प्रिय राजा बताया गया है। इसमें कवि ने आदर्श आर्यजनों के उदाहरण रूप में ये नाम दिये हैं। इसमें तत्सम-प्रधान खड़ी बोली प्रयुक्त है। अनुप्रास और उदाहरण अलंकार के साथ ओज गुण का समावेश हुआ है। शब्दावली सरल है, छन्द सुगेय हरिगीतिका है।
प्रश्न 2.
अपने पुत्र का मरण किसने स्वीकार किया और क्यों?
उत्तर:
ऐसी पौराणिक कथा है कि राजा त्रिशंकु के पुत्र राजा हरिश्चन्द्र की कोई सन्तान नहीं थी। तब नारद के उपदेश से उन्होंने वरुण देव की प्रार्थना की कि मुझे पुत्र-प्राप्ति का वर दीजिए। वरुण ने सहसा प्रार्थना स्वीकार नहीं की। तब राजा हरिश्चन्द्र ने वचन दिया कि यदि मेरा वीर पुत्र होगा, तो उसी से मैं आपका यजन करूंगा, अर्थात् यज्ञपशु के रूप में आपको समर्पित कर दूंगा। तब वरुण देव की कृपा से हरिश्चन्द्र का रोहित नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। इस प्रकार हरिश्चन्द्र ने ही वंश-परम्परा की खातिर पुत्र-मरण स्वीकार किया था।
प्रश्न 3.
हमारे देश में सुकुमारियों को अर्धांगिनी क्यों कहा गया? अर्धांगिनी का तात्पर्य क्या है?
उत्तर:
हमारे देश में धार्मिक कार्यों में नारियाँ अपने-अपने पति के साथ समान रूप से सहभागी बनती हैं। वे सदा पति की अनुगामिनी बनती हैं तथा अनुरागपूर्वक पति के कार्य में सहयोग करती हैं। इसी कारण पत्नी या नारी को पति की अर्धांगिनी कहा जाता है। ‘अद्भगिनी’ का तात्पर्य पुरुष का आधा अंग अर्थात् उसकी पत्नी माना जाता है। समस्त धर्मकार्यों में पत्नी अपने पति के आधे अंग की तरह सहयोग करती है। तभी वह धर्मकार्य परिपूर्ण माना जाता है।
प्रश्न 4.
द्विज पुत्रों की रक्षार्थ अपने पुत्रों को मृत्यु-पथ पर अग्रसर कर दिया? ऐसी कौनसी वीर माता थी तथा प्रसंग क्या था?
उत्तर:
महाभारत एवं भागवत आदि में ऐसी कथा आयी है कि अश्वत्थामा ब्राह्मण-पुत्र था। महाभारत युद्ध के अन्त में उसने द्रोपदी के पाँच पुत्रों को सोते हुए मार दिया था। तब अर्जुन ने उसका वध करना चाहा, तो अश्वत्थामा ने ब्रह्मास्त्र चला दिया। उसका सामना करने के लिए कुन्ती ने अपने अन्य पुत्रों को भी आदेश दिया, परन्तु द्रोपदी की इच्छा के अनुसार उसे न मारने का निर्देश दिया। इस प्रकार कुन्ती ने अपने पुत्रों को मृत्यु-पथ पर अग्रसर कर दिया। बाद में श्रीकृष्ण ने उनकी रक्षा की। इसी प्रकार एक अन्य कथा है, जिसमें राक्षस से ब्राह्मण-पुत्रों की रक्षा के लिए कुन्ती ने अपने पुत्रों को भेज दिया था। उन्होंने उस राक्षस को मार दिया था।
RBSE Class 11 Hindi प्रज्ञा प्रवाह पद्य Chapter 5 निबन्धात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
मंगलाचरण का भाव अपने शब्दों में लिखिए।
उत्तर:
भारतीय संस्कृति में किसी भी कार्य को प्रारम्भ करने से पहले मंगलाचरण किया जाता है। उसमें अपने इष्टदेव या देवी का स्तवन-चन्दन कर कार्य में सफलता का आशीर्वाद माँगा जाता है। प्रस्तुत मंगलाचरण भी ‘भारत भारती’ काव्य के प्रारम्भ में इसी दृष्टि से किया गया है। वैसे काव्य के प्रारम्भ में मंगलाचरण करना एक पवित्र परम्परा है। मंगलाचरण तीन तरह के होते हैं –
- आशीर्वादात्मक, जिसमें इष्टदेवता से आशीर्वाद माँगा गया हो।
- नमस्क्रियात्मक, जिसमें केवल नमस्कार किया गया हो और
- वस्तुनिर्देशात्मक, जिसमें वर्थ्य-विषय का सीधा निर्देश किया गया हो।
‘भारत भारती’ का यह मंगलाचरेण आशीर्वादात्मक है। प्रस्तुत मंगलाचरण में कवि ने कामना की है कि भारतवर्ष में उनकी भारती, अर्थात् काव्य-वाणी ऐसी गूंजे कि सब उसकी आरती करने, प्रशंसा करने लगे। वह भारती जन-कल्याण एवं राष्ट्रहित के भावों को व्यक्त करने वाली हो, सभी भारतीयों को शुभकामना देने वाली हो। कवि सीतापति श्रीराम एवं गीतापति श्रीकृष्ण से इसे कामना को लक्ष्य कर आशीर्वाद पाना चाहता है। इस प्रकार इस मंगलाचरण का भाव लोकमंगल की भावना पर आधारित है।
प्रश्न 2.
भारतीय वाङ्मय में कौन-कौन-सी आर्य नारीरल हुई हैं? संस्कार व ज्ञान की दृष्टि से उनके वैशिष्ट्य का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
भारतीय इतिहास में अनेक ऐसी नारी-रत्न हुई हैं, जिनका ज्ञान एवं शील सर्वोत्तम आदर्श माना गया है। यहाँ ऐसी नारी-रत्नों का संक्षेप में उल्लेख किया जा रहा है –
- अनसूया – ये महर्षि अत्रि की पत्नी थीं। इन्होंने गृहस्थ जीवन को तपस्वियों की तरह पुनीत कर्मों से बिताया।
- विदुला – यह राजकुमार संजय की माता थी। इन्होंने सिन्धुराज से पराजित अपने पुत्र में शौर्य, उत्साह, जोश एवं कर्तव्यनिष्ठा का संचार किया और उसे विजयश्री दिलवायी।
- सुमित्रा – राजा दशरथ की छोटी रानी और लक्ष्मण की माता सुमित्रा ने त्याग भावना का परिचय दिया। उसने लक्ष्मण को श्रीराम की सेवार्थ वनवास में भेजा।
- कुन्ती – यह पाण्डवों की तथा कर्ण की माता थीं। महाभारत एवं भागवत में इनके उज्ज्वल चरित्र का विस्तार से निरूपण हुआ है।
- सावित्री – नारद ऋषि से सत्यवान की अल्पायु का पता चलने पर भी सावित्री ने उसी से विवाह किया और अपनी तपस्या के बल पर यमराज को प्रसन्न कर सत्यवान को पुनर्जीवित किया।
- सुकन्या – यह राजा शर्याति की पुत्री थी, जिसने अनजाने में ऋषि च्यवन की आँखें फोड़ दीं। परन्तु बाद में उसी ऋषि की पत्नी बनकर आजीवन सेवा की।
- अंशुमती – यह सुव्रत नामक मुनीश्वर की पत्नी थीं, जो आजीवन लोगों की सेवा करती रहीं।
- दमयन्ती – यह निषध देश के राजा नल की पत्नी थीं। इन्होंने वनवास में पति का साथ दिया, फिर पति को उसका राज्य वापिस दिलाया।
प्रश्न 3.
भारतीय ऋषि-परम्परा के आलोक पुंज ऋषि-मुनि तथा मनस्वी तपस्वी कौन हुए हैं? उनका आदर्श स्थापना में क्या योगदान रहा?
उत्तर:
भारतीय ऋषि परम्परा में अनेक ऐसे मनस्वी एवं तपस्वी ऋषि-मुनि हुए, जिनके आख्यानों से हमारे पौराणिक ग्रन्थ भरे पड़े हैं। उदाहरण के लिए ‘धर्मसूत्र’ के व्याख्याता तथा न्यायशास्त्र’ के रचयिता महर्षि गौतम रघुवंशी राजाओं के कुलगुरु वसिष्ठ, ‘मनुस्मृति’ नामक धर्मशास्त्र के रचयिता मनु, याज्ञवल्क्य-स्मृति’ नामक आचार-ग्रन्थ के निर्माता महर्षि याज्ञवल्क्य, रामकथा को सर्वप्रथम काव्य-रूप देने वाले महर्षि वाल्मीकि एवं वेदों के संग्रहकर्ता व अनेकानेक पुराणों के रचयिता वेदव्यास का नाम आज भी भारतीय संस्कृति में अमर है।
इसी प्रकार देवताओं के कल्याण के लिए अपनी अस्थियों का दान करने वाले महर्षि दधीचि आर्य संस्कृति के पुरोधा माने जाते हैं। देवव्रत भीष्म भी एक तपस्वी ऋषि जैसे ही थे, उन्होंने इन्द्रियदमन एवं धीरता-वीरता से इतिहास-पुरुष होने का गौरव प्राप्त किया। इस प्रकार उक्त सभी ऋषियों ने विभिन्न आदर्श स्थापित किये। समाज को अच्छे संस्कार देने में, समाज को धार्मिक नियमों के अनुसार चलाने में, सत्कर्म एवं सत्यता का श्रेष्ठ आचरण बताने और लोकहित को सर्वोपरि मानने में इन ऋषियों का विशेष योगदान रहा है। भारतीय संस्कृति के इतिहास अथवा पुराणेतिहास में इनके पवित्र जीवन का परिचय अनेक प्रसंगों से मिल जाता है।
प्रश्न 4.
पठित पाठ में आये पौराणिक प्रसंगों का वर्णन अपने शब्दों में कीजिए।
उत्तर:
प्रस्तुत पाठ में सभी प्रसंग पौराणिक रूप में प्रसिद्ध हैं। जैसे अत्रिअनसूया, गौतम, वसिष्ठ, मनु, याज्ञवल्क्य, शिबि, दधीचि, राजा हरिश्चन्द्र, भीष्म आदि की अन्तर्कथाएँ महाभारत, भागवत तथा अन्य पुराणों में आयी हैं। राजा पृथु, पुरु, भरत, रघु तथा प्रहलाद, ध्रुव, कुश, लव, अभिमन्यु आदि वीरों की कथाएँ भी पुराणों में प्रसिद्ध हैं। सावित्री, कुन्ती, सुकन्या, अंशुमती, विदुला, नल-दमयन्ती, सुमित्रा, कुन्ती, गांधारी आदि के प्रसंग भी पौराणिक हैं। पाठ की सप्रसंग, व्याख्या करते समय इन सभी की कथाओं को संक्षेप में दिया गया है। अतः वहाँ देखकर प्रत्येक अन्तर्कथा को लिखा जा सकता है।
व्याख्यात्मक प्रश्न –
1. आदर्श जन संसार ……………….. हमारे हो रहें।
2. लक्ष्मी नहीं सर्वस्व …………………. शील की सीमा कहे?
3. बँदे रही दोनों नयन ………………. दिव्यबल उनको दिया।
उत्तर:
सप्रसंग व्याख्या भाग देखकर लिखिए।
RBSE Class 11 Hindi प्रज्ञा प्रवाह पद्य Chapter 5 अन्य महत्त्वपूर्ण प्रश्न
RBSE Class 11 Hindi प्रज्ञा प्रवाह पद्य Chapter 5 वस्तुनिष्ठ प्रश्न
प्रश्न 1.
मैथिलीशरण गुप्त का जन्म हुआ था
(क) चिरगाँव, झाँसी में
(ख) मझगाँव, आगरा में
(ग) नया गाँव, ग्वालियर में
(घ) गुड़गाँव में
उत्तर:
(क) चिरगाँव, झाँसी में
प्रश्न 2.
परमार्थ के लिए अपनी हड्डियों का दान किसने किया था?
(क) महर्षि वसिष्ठ ने
(ख) महर्षि गौतम ने
(ग) महर्षि दधीचि ने
(घ) महर्षि अत्रि ने
उत्तर:
(ग) महर्षि दधीचि ने
प्रश्न 3.
‘मँदी रही दोनों नयन आमरण’-ऐसी आदर्श नारी थी
(क) गान्धारी
(ख) कुन्ती
(ग) दमयन्ती
(घ) अनसूया
उत्तर:
(क) गान्धारी
प्रश्न 4.
‘साकेत’ महाकाव्य में गुप्तजी ने किसे त्यागमयी नारी बताया है?
(क) सुमित्रा को
(ख) उर्मिला को
(ग) कैकेयी को
(घ) सीता को
उत्तर:
(ख) उर्मिला को
प्रश्न 5.
गुप्तजी की किस रचना में राष्ट्रीय स्वाभिमान एवं गौरव का स्वर व्यक्त हुआ?
(क) साकेत
(ख) सिद्धराज
(ग) यशोधरा
(घ) भारत भारती
उत्तर:
(घ) भारत भारती
RBSE Class 11 Hindi प्रज्ञा प्रवाह पद्य Chapter 5 अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
मैथिलीशरण गुप्त के दो प्रबन्ध काव्यों के नामोल्लेख कीजिए।
उत्तर:
मैथिलीशरण गुप्त द्वारा रचित दो प्रबन्ध काव्यों के नाम हैं-‘साकेत’ और ‘यशोधरा’।
प्रश्न 2.
‘आदर्श-स्त्रियाँ’ काव्यांश गुप्तजी की किस रचना से संकलित है?
उत्तर:
‘आदर्श-स्त्रियाँ’ काव्यांश गुप्तजी की ‘भारत भारती’ रचना से संकलित है।
प्रश्न 3.
प्राचीनकाल में भारत में ज्ञान-दायक मुनिवर कौन थे?
उत्तर:
प्राचीनकाल में भारत में ज्ञान-दायक अनेक मुनिवर हुए, जिनमें महर्षि गौतम एवं वसिष्ठ प्रमुख थे।
प्रश्न 4.
मनु एवं याज्ञवल्क्य को किस कारण आदर्श महापुरुष बताया गया है?
उत्तर:
महर्षि मनु एवं याज्ञवल्क्य ने धार्मिक-सामाजिक विधि-विधानों एवं स्मृति-शास्त्र की रचना की, इस कारण उन्हें आदर्श महापुरुष बताया गया है।
प्रश्न 5.
चाण्डाल के हाथों कौन और किस कारण बिक गया था?
उत्तर:
चाण्डाल के हाथों राजा हरिश्चन्द्र बिक गये थे, क्योंकि वे अपने सत्यवचन का पालन करना चाहते थे।
प्रश्न 6.
सती के तेज के सम्मुख कौन मुनि निष्प्रभ रह गया था?
उत्तर:
जिस ऋषि की क्रुद्ध दृष्टि से आकाश से जलता हुआ पक्षी जमीन पर गिर गया था, उस मुनि का तेज भी सती के सम्मुख निष्प्रभ रह गया था।
प्रश्न 7.
“सत्पुत्र पुरु-से थे जिन्होंने तात-हित सब कुछ सहा?” पुरु ने ऐसा कौन-सा कार्य किया था?
उत्तर:
पुरु ने तपोबल के सहारे अपना यौवन अपने पिता को दे दिया था और स्वयं वृद्धों की तरह रहे और पुत्रत्व का निर्वाह किया।
प्रश्न 8.
“है एक जन के अनुकरण में सबे गुणों की एकता।” कवि ने ऐसा महापुरुष किसे बताया है और क्यों?
उत्तर:
कवि ने ऐसा महापुरुष भीष्म पितामह को बताया है, क्योंकि वे इन्द्रियविजयी, महावीर, ज्ञानसम्पन्न एवं धीर-वीर व्यक्ति थे।
RBSE Class 11 Hindi प्रज्ञा प्रवाह पद्य Chapter 5 लघूत्तरात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
पठित पाठ की कविताओं का केन्द्रीय भाव क्या है? लिखिए।
उत्तर:
मैथिलीशरण गुप्त द्वारा रचित ‘भारत भारती’ काव्य में राष्ट्रीय गौरव एवं जातीय स्वाभिमान का स्वर सांस्कृतिक गरिमा के उल्लेख के साथ व्यक्त हुआ है। पठित पाठ ‘भारत भारती’ से ही संकलित है। इसका केन्द्रीय भाव यह है कि भारत के निवासी आर्यजन अनेक आदर्शों से मण्डित थे। वे ज्ञान-गरिमा, तपश्चर्या, दानशीलता, उदारता, परोपकार, सत्यनिष्ठा, वीरता, धीरता आदि अनेक गुणों एवं विशेषताओं से सम्पन्न थे। प्राचीनकाल में भारत में नारियाँ भी आदर्श चरित्र वाली थीं। वे अर्धांगिनी रूप में पतिधर्म का पालन करती थीं। उनकी सत्यनिष्ठा एवं आचरणगत पवित्रता से असाध्य कार्य भी साध्य हो जाते थे। भारत ऐसे आदर्श नरनारियों से सम्पन्न रहा है।
प्रश्न 2.
“सर्वस्व करके दान जो चालीस दिन भूखे रहे।” इससे सम्बन्धित अन्तर्कथा लिखिए।
उत्तर:
राजा भरत के बाद चन्द्रवंश की छठी पीढ़ी के राजा का नाम रन्तिदेव था। वह अत्यन्त उदार एवं धर्मात्मा राजा था। उसने बड़े-बड़े यज्ञ करके अपना सारा धन-वैभव दान कर दिया था। वह अतिथि-सेवा को पुण्यकार्य मानता था। सब कुछ। दान करने पर वह सपरिवार चालीस दिन तक भूखा रहा। चालीसवें दिन बाद कहीं से कुछ भोजन मिला, परन्तु तभी कोई भूखा भिखारी आ गया। रन्तिदेव ने अपनी भूख की और प्राणों की चिन्ता किये बिना वह अन्न उस याचक को दे दिया। इस प्रकार अतिथि-याचक की सेवा करना तथा उदारता दिखाना अपना परम धर्म मानकर रन्तिदेव ने अपरिमित यश अर्जित किया।
प्रश्न 3.
”दे दीं जिन्होंने अस्थियाँ परमार्थ-हित जानी जहाँ।” किसने और क्यों अपनी अस्थियों का दान किया था?
उत्तर:
महर्षि दधीचि ने अपनी अस्थियों का दान कर दिया था। एक बार देवता वृत्रासुर आदि राक्षसों से पराजित हो गये। तब ब्रह्मा ने बताया कि यदि महर्षि दधीचि की हड्डियों से वज्र बनाया जावे, तो उससे राक्षसों का विनाश हो सकता है। तब देवताओं ने महर्षि दधीचि से निवेदन किया, तो वे स्वयं मरने को उद्यत हो गये। उन्होंने अपनी हड्डियाँ देवराज इन्द्र को दे दीं, जिससे विश्वकर्मा ने वज्र बनाया और इन्द्र ने उस वज्र से वृत्रासुर आदि सभी राक्षसों का संहार किया। इस प्रकार दधीचि ने परमार्थ में अपनी अस्थियों का दान किया था।
प्रश्न 4.
“आश्चर्य क्या फिर ईश ने जो दिव्य-बल उनको दिया।” इस पंक्ति का आशय स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
कवि कहता है कि स्त्रियों को अबला कहा जाता है। वस्तुतः स्त्रियाँ स्वभाव से और हृदय से भी कोमल-कमजोर होती हैं। परन्तु भारत में ऐसी आदर्श नारियाँ हुई हैं, जिन्होंने अनोखी आत्मशक्ति का परिचय दिया और जो संकल्प लिया, वह पूरा कर दिखाया। उदाहरण के लिए गांधारी ने अपने अन्धे पति का अनुगमन करने के लिए जीवनभर आँखों को पट्टी बाँधकर बन्द रखा। दमयन्ती अपने पति का साथ देती हुई वन-वन में भटकीं। इसलिए कवि कहता है कि भारतीय नारियाँ अपने पतिव्रत धर्म का पालन करने में सदा दिव्य बल से सम्पन्न रहीं। ईश्वर ने भी उन्हें ऐसा बता दिया, जिससे वे जीवन में सफल रहीं।
प्रश्न 5.
“बदली न जो, अल्पायु वर भी वर लिया सो वर लिया।” इस पंक्ति में किस आदर्श नारी की ओर संकेत किया गया है? बताइए।
उत्तर:
इससे सावित्री की ओर संकेत किया गया है। सावित्री अश्वपति राजा की इकलौती सन्तान थी। उसने पिता की आज्ञा पर अपने वर का स्वयं चुनाव किया। उसने शाल्वदेश के राजकुमार सत्यवान को वर चुना। परन्तु नारद ने आकर कहा कि इस युवक की आयु अब केवल एक वर्ष शेष है। इसे पति रूप में चुनने पर जीवन भर विधवा रहना पड़ेगा। परन्तु सावित्री ने नारद की बात सुनकर अपना निश्चय नहीं बदला। सत्यवान से सावित्री का विवाह हुआ। उस पतिव्रता ने यमराज को तपस्या द्वारा प्रसन्न किया और वरदान रूप में अपने पति का सुखमय जीवन माँगा। इस तरह सावित्री ने पतिव्रत-धर्म का उच्चतम आदर्श प्रस्तुत किया।
प्रश्न 6.
‘हारे मनोहत पुत्र को फिर बल जिन्होंने था दिया’, ऐसी आदर्श नारी कौन थी? लिखिए।
उत्तर:
ऐसी आदर्श नारी विदुला थी। उसका पुत्र संजय नामक राजकुमार सिन्धु राज से हार गया था। हार जाने से वह उत्साहरहित होकर निश्चेष्ट बैठ गया था। तब विदुला ने अपने पुत्र को अनेक तरह से समझाया तथा उसे सिन्धुराज से युद्ध करने के लिए उत्साहित किया। इसके लिए उसने अनेक वीर पुरुषों के उदाहरण देकर उसमें आत्म-बल एवं शौर्य का संचार किया। उसके प्रभाव से संजय युद्ध में गया और अपने शत्रु पर उसे विजयश्री मिली। इस प्रकार विदुला के द्वारा प्रोत्साहित । होने से संजय में शौर्य का संचार हुआ।
RBSE Class 11 Hindi प्रज्ञा प्रवाह पद्य Chapter 5 निबन्धात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
संकलित कवितांश का प्रतिपाद्य एवं सन्देश स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
कवितांश का प्रतिपाद्य-मैथिलीशरण गुप्त की संकलित कविता उनके ‘भारत भारती’ काव्य से ली गई है। इसमें उन्होंने यह प्रतिपादित किया है कि भारत प्राचीनकाल में संस्कृति एवं आदर्शों की दृष्टि से गौरव-गरिमामय रहा। यहाँ पर अनेक ऋषि-महर्षि एवं महापुरुष हुए, जिन्होंने अपने ज्ञान-विज्ञान, आचार-व्यवहार आदि से आर्य जाति का उत्कर्ष बढ़ाया यहाँ पर ऐसी अनेक आदर्श नारियाँ हुईं, जिन्होंने पतिव्रत धर्म का पालन किया और वीरता, साहस एवं त्याग-भावना का परिचय दिया। भारतीय नारियाँ सतीत्व की रक्षा में सदैव अग्रणी रही हैं। ऐसे आदर्श पुरुषों एवं नारियों से भारत का गौरव उस काल में भी था तो आज भी वह हमारे लिए स्वाभिमान और गौरव को बढ़ाने वाला है।
इस प्रकार कवितांश का प्रतिपाद्य भारतीयों के सांस्कृतिक आदर्शों को गरिमामय उल्लेख करना रहा है। कविता में सन्देश-प्रस्तुत कविता में प्राचीन आदर्शों का पालन करने और देश का गौरव बढ़ाने का सन्देश व्यक्त हुआ है। ‘भारत भारती’ पराधीनता काल की रचना है। इसलिए इससे स्वतन्त्रता-प्राप्ति हेतु प्राचीन स्वाभिमान का ध्यान रखने और विविध क्षेत्रों में श्रेष्ठता रखने का सन्देश दिया गया है। साथ ही मानवता के हितार्थ या परमार्थ हेतु अपना सर्वस्व न्यौछावर करने की प्रेरणा दी गई है।
प्रश्न 2.
संकलित काव्यांश के भावगत एवं कलात्मक सौन्दर्य का विश्लेषण कीजिए।
उत्तर:
मैथिलीशरण गुप्त की काव्य-साधना भारतीयता से ओत-प्रोत और प्रतिभा-प्रसूत है। पठितांश उनके ‘भारत भारती’ काव्य से उद्धत है। इसका भावगत एवं कलात्मक सौन्दर्य इस प्रकार है –
भावगत सौन्दर्य – प्रस्तुत अंश में प्राचीनकाल में भारत में जो आदर्श पुरुष हुए, उन्होंने जो विशिष्ट कार्य किये और मानवता का जो सन्देश दिया, उसका भावपूर्ण निरूपण हुआ है। प्राचीनकाल में न्यायशास्त्र व स्मृतिशास्त्र के निर्माता, प्रजा का पुत्रवत् पालनकर्ता, परमार्थ के लिए आत्म-त्याग करने वाले सन्त इत्यादि अनेक आदर्श पुरुषों का सांकेतिक चित्रण बड़ी उदात्तता से किया गया है। इसी प्रकार पतिव्रता, सतीसाध्वी एवं सबला नारियों का निरूपण भावात्मक शैली में किया गया है। भावगत सौन्दर्य की दृष्टि से प्रस्तुत काव्यांश अत्यधिक प्रभावपूर्ण है।
कलात्मक सौन्दर्य – गुप्तजी ने खड़ी बोली हिन्दी का परिष्कृत रूप प्रयुक्त करने में विशेष रुचि ली है। उनके संकलितांश में तत्सम शब्दावली से युक्त सहज-सरल भाषा का प्रयोग हुआ है। इसमें आदर्श पुरुषों के चरित्र का निरूपण यद्यपि वर्णनात्मक शैली में हुआ है, फिर भी उसमें पर्याप्त अलंकृति है। आदर्श स्त्रियों के चरित्रांकन में अलंकारों का स्वाभाविक प्रयोग हुआ है। हरिगीतिका छन्द की गति-यति एवं पदयोजना सुन्दर है। भाव-सम्प्रेषणीयता की दृष्टि से यह काव्यांश अतीव मनोरम है।
रचनाकार का परिचय सम्बन्धी प्रश्न –
प्रश्न 1.
मैथिलीशरण गुप्त के साहित्यिक व्यक्तित्व का परिचय दीजिए।
उत्तर:
द्विवेदी युग के प्रमुख कवि मैथिलीशरण गुप्त का जन्म झाँसी जिले के चिरगाँव में एक वैष्णव परिवार में हुआ था। काव्य-रचना की प्रेरणा इन्हें अपने पिता से प्राप्त हुई और द्विवेदीजी के सम्पर्क में आने से इनकी काव्य-प्रतिभा का उत्तरोत्तर विकास हुआ। भारतीय संस्कृति एवं देश-प्रेम का स्वर प्रमुखता से व्यक्त करने के कारण इन्हें ‘राष्ट्रकवि’ रूप में सम्मान मिला। ये गाँधीवाद के समर्थक वैष्णव भक्त थे तथा भारत की राष्ट्रीय चेतना के अमर गायक थे। ‘भारत भारती’ काव्य से इनकी साहित्यिक यात्रा प्रारम्भ हुई। प्रारम्भ में इनकी रचनाओं में इतिवृत्तात्मकता की प्रधानता रही, परन्तु बाद में ‘साकेत’ आदि रचनाओं में नये युग के परिवर्तनों का स्वर भी इन्होंने व्यक्त किया। तत्कालीन राष्ट्रीय हलचलों की छाया के साथ छायावादी युग की प्रवृत्तियों से भी ये काफी प्रभावित रहे।
गुप्तजी ने अपने जीवनकाल में विपुल मात्रा में साहित्य-रचना की। इनकी मौलिक काव्य-कृतियों की सूची काफी लम्बी है। उनमें प्रमुख हैं-जयद्रथ वध, शकुन्तला, तिलोत्तमा, भारत भारती, किसान, अनघ, पंचवटी, साकेत, यशोधरा, सिद्धराज, द्वापर, काबा और कर्बला, जयभारत एवं विष्णुप्रिया। इनकी अनूदित कृतियाँ भी हैं, जिनमें प्रमुख हैं-विरहिणी, ब्रजांगना, वीरांगना, मेघनाद-वध, गृहस्थ गीता आदि। इन्होंने खण्डकाव्य, महाकाव्य एवं लघु-कविताओं की भी रचना की है।
मैथिलीशरण गुप्त कवि-परिचय-
भारतीय संस्कृति के अनन्य गायक मैथिलीशरण गुप्त का जन्म उत्तर प्रदेश के झाँसी जिले के चिरगाँव में सन् 1886 ई. में हुआ। ये महावीरप्रसाद द्विवेदी युग के प्रमुख कवि थे। इनकी रचनाएँ प्रारम्भ में कोलकाता से निकलने वाले ‘वैश्योपकारक’ पत्र में प्रकाशित होती थीं। बाद में द्विवेदीजी से परिचय होने पर ‘सरस्वती’ पत्रिका में प्रकाशित होने लगीं। इन्हें खड़ी बोली में रचित कविताओं से असीम लोकप्रियता मिली। स्वतन्त्र भारत में इन्हें ‘राष्ट्रकवि’ की पदवी से सर्वप्रथम सम्मानित किया गया। द्विवेदी युग आदर्शवाद, नैतिकता, राष्ट्रीय नवजागरण एवं भाषा के विकास का युग था। गुप्तजी ने अपनी कविताओं में आर्यजातीय संस्कार, मर्यादा और मूल्यों का प्रखर स्वर व्यक्त किया तथा साहित्य एवं समाज में उपेक्षित नारी-पात्रों को गौरव प्रदान करने का स्तुत्य प्रयास किया। राष्ट्रीय जागरण, साम्राज्यवादी शासन से मुक्ति एवं जन-चेतना के प्रसारण में इनका स्वर प्रखर रहा। सन् 1964 ई. में इनका जीवनान्त हुआ।
पाठ-परिचय-
पाठ में संकलित दोनों कविताएँ गुप्तजी की प्रसिद्ध कृति ‘भारत भारती’ से ली गई हैं। इनमें मंगलाचरण रूप में माँ भारती की वन्दना की गई है। ‘आदर्श’ शीर्षक कविता में भारत के सन्तों, महर्षियों एवं महापुरुषों के उदाहरण देकर उनके जीवनादर्शों का गौरवमय चित्रण किया गया है। ‘आदर्श स्त्रियाँ’ शीर्षक कविता में भारतीय नारियों के विविध आदर्शों का उल्लेख कर उनके तप, तेज, त्याग एवं सतीत्व का सुन्दर निरूपण किया गया है। संकलित कविताओं से गुप्तजी की भारतीय संस्कृति के प्रति गहरी निष्ठा व्यक्त हुई है।
सप्रसंग व्याख्याएँ।
मंगलाचरण
(1)
मानस-भवन में आर्थ्यजन जिसकी उतारें आरती
भगवान! भारतवर्ष में गूंजे हमारी भारती।
हो भद्रभावोद्भाविनी वह भारती हे भगवते।
सीतापते! सीतापते! गीतापते ! गीतापते॥
कठिन शब्दार्थ-भारती = वाणी, सरस्वती। भद्रभावोद्भाविनी = भद्र भावों को व्यक्त करने वाली। गीतापते = हे कृष्ण।
प्रसंग-प्रस्तुत अवतरण मैथिलीशरण गुप्त द्वारा रचित ‘भारत भारती’ कृति का मंगलाचरण है। इसमें कवि ने भारतवर्ष में आर्यजनों की भारती के प्रसार की कामना व्यक्त की है।
व्याख्या-कवि कहती है कि भारतीय आर्य लोग अपने मन रूपी मन्दिर में जिसकी आरती उतारते हैं, हे भगवान् ! इसी भारतवर्ष में हमारी वाणी सर्वत्र पूँजे, भारती का सर्वत्र प्रसार हो। हे भगवान् ! हे सीतापति श्रीराम! हे गीतापति श्रीकृष्ण ! वह हमारी भारती सुखद-शुभ भावों को व्यक्त करने वाली होवे। अर्थात् हमारी वाणी कविता-रचना में शुभ-भावों को व्यक्त करे और वाणी की देवी सरस्वती हमें भद्रभावों को व्यक्त करने की क्षमता दे।।
विशेष-
(1) प्राचीन परम्परा के अनुसार काव्य-रचना के प्रारम्भ में मंगलाचरण का विधान किया गया है। यह आशीर्वादात्मक मंगलाचरण है।
(2) शब्दावली तत्सम-प्रधान एवं भावनानुकूल है। हरिगीतिका छन्द है।
(2) आदर्श जन संसार में इतने कहाँ पर हैं हुए?
सत्कार्थ्य-भूषण आर्म्यगण जितने यहाँ पर हैं हुए।
हैं रह गये यद्यपि हमारे गीत आज रहे सहे।
पर दूसरों के भी वचन साक्षी हमारे हो रहे।
कठिन शब्दार्थ-आदर्श = श्रेष्ठ प्रतिमान। साक्षी = गवाह॥
प्रसंग-यह अवतरण मैथिलीशरण गुप्त की ‘भारत भारती’ से संकलित ‘आदर्श’ शीर्षक कवितांश से उद्धृत है। इसमें कवि ने सामान्य रूप से भारतीय आदर्श पुरुषों का उल्लेख किया है।
व्याख्या-कवि कहता है कि श्रेष्ठ कार्यों से सम्मानित आर्यजन जितने यहाँ पर अर्थात् भारत भूमि पर हुए हैं, उतने आदर्श जन संसार में कहाँ पर हुए हैं? अर्थात् अन्य देशों में इतने आर्यजन नहीं हुए हैं। यद्यपि आज भारतीय संस्कृति एवं गौरवमय परम्परा के परिचायक गीत कम ही शेष रह गये हैं, हमारी गौरवशाली गाथाएँ कमजोर पड़ गयी हैं, तथापि अन्य लोगों से वचन अर्थात् विदेशी यात्रियों एवं इतिहासकारों के कथन इस बात के गवाह रहे हैं, हमारी श्रेष्ठता के पुष्ट प्रमाण रहे हैं।
विशेष-
(1) भारतीय श्रेष्ठ पुरुषों की गौरव-परम्परा का उल्लेख हुआ है।
(2) शब्दावली भावानुकूल एवं छन्द सुगेय है। हरिगीतिका छन्द की मात्रिक योजना गेयानुरूप है।
(3)
गौतम, वसिष्ठ समान मुनिवर ज्ञानदायक थे यहाँ,
मनु, याज्ञवल्क्य-समान सप्तम विधि-विधायक थे यहाँ।
वाल्मीकि-वेदव्यास-से गुण-गान-गायक थे यहाँ,
पृथु, पुरू, भरत, रघु-से अलौकिक लोक-नायक थे यहाँ।
कठिन शब्दार्थ-सप्तम = सातवाँ। विधि-विधायक = धार्मिक-सामाजिक नियमों के रचयिता। अलौकिक = अनोखे, दिव्य। लोकनायक = नेतृत्व करने वाले।
प्रसंग-यह अवतरण मैथिलीशरण गुप्त द्वारा रचित ‘भारत भारती’ काव्य से संकलित ‘आदर्श’ शीर्षक काव्यांश से उद्धत है। इसमें कवि ने भारत के प्राचीन मनस्वियों का उल्लेख किया है।
व्याख्या-कवि कहता है कि इस भारत भूमि पर गौतम एवं वसिष्ठ जैसे जनता। को ज्ञान देने वाले श्रेष्ठ मुनि हुए थे। यहीं पर मनु, याज्ञवल्क्य जैसे धार्मिक-सामाजिक विधि-विधानों एवं नियमों-कर्त्तव्यों को बनाने वाले महर्षि हुए थे। वाल्मीकि एवं वेदव्यास जैसे गुणों के गायक महामुनि भी यहीं पर हुए थे। इसी प्रकार यहीं पर राजा पृथु, राजा पुरू, भरत, रघु आदि अनुपम एवं दिव्य-चेतना वाले हुए थे। जो कि संसार का नेतृत्व करने वाले थे।
विशेष-
(1) महर्षि गौतम ने ‘धर्मसूत्र’ तथा ‘न्यायशास्त्र’ की रचना की। महर्षि मनु एवं याज्ञवल्क्य ने धर्मशास्त्र एवं स्मृति-ग्रन्थ रचे, जो कि उस समय धार्मिक-सामाजिक नियमों तथा आचारों के विधायक थे। स्मृतिशास्त्र को वेद का सातवाँ अंग माना जाता है।
(2) महर्षि वेदव्यास ने वैदिक सूक्तों का विभाजन किया, पुराणों के साथ ही महाभारत की रचना की। पृथु एक राजा था, जिसने धरती को उपजाऊ बनाने का प्रयास किया तथा उसी के नाम से धरती का नाम ‘पृथ्वी’ पड़ा। भरत राजा दुष्यन्त एवं शकुन्तला का पुत्र था, जिसके नाम पर हमारे देश को ‘भारत’ कहा जाने लगा।
(3) प्राचीनकाल के यशस्वी राजाओं को लोकनायक बताया गया है।
(4)
लक्ष्मी नहीं, सर्वस्व जावे, सत्य छोड़ेंगे नहीं,
अन्धे बनें पर सत्य से सम्बन्ध तोड़ेंगे नहीं।
निज सुत-मरण स्वीकार है पर वचन की रक्षा रहे,
है कौन जो उनं पूर्वजों के शील की सीमा कहे?
कठिन शब्दार्थ-लक्ष्मी = धन-वैभव। शील = सदाचरण, मर्यादा॥
प्रसंग-यह अवतरण मैथिलीशरण गुप्त द्वारा रचित ‘भारत भारती’ के ‘आदर्श’ काव्यांश से उद्धृत है। इसमें कवि ने पूर्वजों के सदाचरण का उल्लेख किया है।
व्याख्या-कवि वर्णन करता है कि हम भारतीयों के पूर्वज ऐसे सदाचारी एवं सत्यवादी थे कि वे प्रतिज्ञापूर्वक कहते थे—चाहे धन-दौलत सब कुछ चली जाये, परन्तु हम सत्याचरण को नहीं छोड़ेंगे। चाहे हम अन्धे हो जावें, परन्तु सत्य के निर्वाह से पीछे नहीं हटेंगे। हमें अपने वचन का पालन करने में यदि पुत्र का मरण भी देखना पड़े, तो भी वह हमें स्वीकार है। इस प्रकार हमारे पूर्वजों के सदाचरण की कोई सीमा नहीं थी। उनके शील की सीमा का पूरा बखान कौन कर सकता है? अर्थात् कोई नहीं।
विशेष-
(1) इसमें कवि ने राजा हरिश्चन्द्र की सत्यवादिता की ओर संकेत किया है। उन्होंने सत्य-वचन के निर्वाह हेतु अपना राज्य त्याग दिया था, अपने पुत्र के मरण पर भी सत्य-वचन का निर्वाह किया था।
(2) भारतीय आर्यों के पूर्वज सत्यवादी, सदाचारी एवं मर्यादापालक थे, अतः हमें भी उनसे प्रेरणा लेनी चाहिए, यही कवि का कथ्य है।
(5)
सर्वस्व करके दानं जो चालीस दिन भूखे रहे,
अपने अतिथि-सत्कार में फिर भी न जो रूखे रहे।
पर-तृप्ति कर निज तृप्ति मानी रन्तिदेव नरेश ने,
ऐसे अतिथि-सन्तोष कर पैदा किये किस देश ने?
कठिन शब्दार्थ-पर-तृप्ति = दूसरों को तृप्त या सन्तुष्ट करना।
प्रसंग-प्रस्तुत अवतरण राष्ट्रकवि गुप्तजी की ‘भारत भारती’ से संकलित अंश से लिया गया है। इसमें राजा रन्तिदेव की दानशीलता का वर्णन किया गया है।
व्याख्या-कवि कहता है कि जो राजा रन्तिदेव अपना सबकुछ दान करके चालीस दिनों तक भूखे रहे, फिर भी अपने अतिथि-सत्कार के व्रत से वे जरा भी विमुख नहीं हुए। वे दूसरों को तृप्त करना ही अपनी तृप्ति मानते थे और दूसरों की भूख शान्त करने में सुख का अनुभव करते थे। ऐसे अतिथि-सत्कार से सन्तोषी स्वभाव वाले महापुरुष अन्य किस देश में पैदा हुए? अर्थात् ऐसे दानशील और : अतिथि-सत्कार वाले आर्यजन इसी भारतभूमि में हुए, अन्यत्र नहीं।
विशेष-
(1) चालीस दिनों तक भूखा रहने पर राजा रन्तिदेव को भोजन मिला था। लेकिन ज्यों ही खाने लगे, तभी कोई भूखा अतिथि आ गया था। रन्तिदेव स्वयं भूखे रहे और वह सारा भोजन उस अतिथि को दे दिया।
(2) पौराणिक कथानक से भारतीय संस्कृति की उदात्तता व्यक्त की गई है।
(6) आमिष दिया अपना जिन्होंने श्येन-भक्षण के लिए,
जो बिक गए चाण्डाल के घर सत्य-रक्षण के लिए।
दे दीं जिन्होंने अस्थियाँ परमार्थ-हित जानी जहाँ,
शिबि, हरिश्चन्द्र, दधीचि-से होते रहे दानी यहाँ॥
कठिन शब्दार्थ-आमिष = मांस। श्येन = बाज। अस्थियाँ = हड्डियाँ। परमार्थहित = दूसरों की भलाई के लिए।
प्रसंग-यह अवतरण मैथिलीशरण गुप्त द्वारा रचित ‘भारत भारती’ से संकलित ‘आदर्श’ शीर्षक कवितांश से उद्धृत है। इसमें भारत के परोपकारी, सत्यवादी एवं दानी महापुरुषों का उल्लेख किया गया है।
व्याख्या-कवि वर्णन करता है कि भारत भूमि पर राजा शिवि ऐसे दानी हुए, जिन्होंने एक कबूतर की रक्षा के लिए भूखे बाज को अपने शरीर का मांस खाने के लिए दे दिया था। यहाँ राजा हरिश्चन्द्र ऐसे सत्यवादी हुए, जिन्होंने सत्य-वचन की रक्षा के लिए स्वयं को चाण्डाल के हाथों बेच दिया था, अर्थात् चाण्डाल के सेवक बन गये थे। इसी प्रकार महर्षि दधीचि ने दूसरों अर्थात् देवों की भलाई के लिए अपनी हड्डियों का दान कर दिया था, अर्थात् असुर-वध के लिए वज्र बनाने हेतु अपनी हड़ियाँ देवराज इन्द्र को दान कर दी थीं। इस तरह के दानी इस भारतभूमि पर समय-समय पर होते रहे हैं। अतएव यह भूमि आर्यजनों की जन्मभूमि होने से धन्य है।
विशेष-
(1) राजा शिवि, हरिश्चन्द्र एवं महर्षि दधीचि के पौराणिक चरित्र के माध्यम से भारतीय संस्कृति की आदर्श गरिमा व्यक्त की गई है।
(2) उक्त प्रसंग दानशीलता एवं सत्यवादिता की दृष्टि से बेजोड़ हैं।
(7) सत्पुत्र पुरू-से थे जिन्होंने तात-हित सब कुछ सहा,
भाई भरत से थे जिन्होंने राज्य भी त्यागा अहा।
जो धीरता के, वीरता के प्रौढ़ तम पालक हुए,
प्रह्लाद, ध्रुव, कुश, लव तथा अभिमन्यु-सम बालक हुए।
कठिन शब्दार्थ-तात-हित = पिता की भलाई हेतु। प्रौढ़तम = सर्वश्रेष्ठ।
प्रसंग-यह अवतरण मैथिलीशरण गुप्त द्वारा रचित ‘भारत भारती’ के संकलितांश से उद्धृत है। इसमें कवि ने पुरू, भरत आदि का उल्लेख कर भारतीय महापुरुषों के त्याग, वीरता, धीरता आदि को अनुपम बताया है।
व्याख्या-कवि वर्णन करता है कि इस धरती पर पुरू ऐसे सत्पुत्र हुए, जिन्होंने अपने पिता की इच्छापूर्ति एवं उनके सुख के लिए सबकुछ सहा। भरत ऐसे भाई हुए, जिन्होंने भाई की खातिर अयोध्या का राज्य भी त्यागा। इसी भारत-भूमि पर प्रहलाद, ध्रुव, कुश, लव तथा अभिमन्यु जैसे अनेक बालक हुए, जो धीरता और वीरता का पालन करने में सर्वश्रेष्ठ आदर्श प्रस्तुत करते रहे।
विशेष-
(1) ययाति ऋषि शुक्राचार्य के शाप से जब असमय ही वृद्ध हो गये, तब उनके पुत्र पुरू ने उन्हें अपना यौवन दिया, जिससे राजा ययाति वर्षों तक यौवन-सुख भोगते रहे और उस अवधि तक युवा पुरू वृद्धों की तरह रहे।
(2) श्रीराम को वनवास मिलने पर भरत ने राज्य-सिंहासन स्वीकार नहीं किया और बड़े भाई के सेवक रूप में नन्दिग्राम में रहकर शासन-व्यवस्था का भार वहन किया। इस तरह राज्य एवं राज्य-सुख दोनों का त्याग किया।
(3) प्रह्लाद, ध्रुव आदि को भारत में उत्पन्न वीर-धीर बालक बताया गया है। इससे भारतभूमि की गरिमा व्यक्त हुई है।
(8)
वह भीष्म का इन्द्रिय-दमन, उनकी धरा-सी धीरता,
वह शील उनका और उनकी वीरता, गम्भीरता।
उनकी सरलता और वह विशाल विवेकता,
है एक जन के अनुकरण में सब गुणों की एकता॥
कठिन शब्दार्थ-इन्द्रिय-दमन = इन्द्रियों को वश में रखना। धरा = धरती। विवेकता = अच्छे-बुरे का पूर्ण ज्ञान॥
प्रसंग-यह अवतरण गुप्तजी की प्रसिद्ध कृति ‘भारत भारती’ से संकलितांश ‘आदर्श’ शीर्षक से लिया गया है। इसमें कवि ने भीष्म पितामह के अनुपम चरित्र का वर्णन आदर्श रूप में किया है।
व्याख्या-कवि वर्णन करता है कि इस भारत भूमि पर देवव्रत भीष्म ऐसे धीरवीर और इन्द्रियों का दमन करने वाले, अर्थात् आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करने वाले हुए, जो धरती के समान अडिग रहते थे। उनकी सदाचरणशीलता, मर्यादापालनपरता एवं वीरता-गम्भीरता अनुपम थी। वे सरलता और कर्तव्य-अकर्तव्य के ज्ञान से विशाल थे। एक ही व्यक्ति में ये सब गुण एकत्व रूप में विद्यमान थे। अर्थात् भीष्म पितामह एक ऐसे आदर्श महापुरुष थे, जिनमें सारे श्रेष्ठ गुणों की एकता थी और सारे आदर्शों के प्रतिमान थे।।
विशेष-
(1) भारतीय पुराणेतिहास में भीष्म को विश्व-ज्ञान, धर्माधर्म एवं कर्तव्याकर्तव्य का भण्डार बताया गया है। सारे गुण उनके व्यक्तित्व में समाविष्ट माने गये हैं। कवि ने यही भाव व्यक्त किया है।
(2) भारतीय महापुरुषों के आदर्शों की व्यंजना हुई है।
आर्य-स्त्रियाँ।
(9) केवल पुरुष ही थे न वे जिनका जगतं को गर्व था,
गृह-देवियाँ भी थीं हमारी देवियाँ ही सर्वथा।
था अत्रि-अनसूया-सदृश गार्हस्थ्य दुर्लभ स्वर्ग में,
दाम्पत्य में वह सौख्य था जो सौख्य था अपवर्ग में॥
कठिन शब्दार्थ-अत्रि = एक ऋषि। गार्हस्थ्य = गृहस्थ जीवन। दाम्पत्य = पति-पत्नी रूप। सौख्य = सुख। अपवर्ग = मोक्ष, परमगति।
प्रसंग-यह अवतरण मैथिलीशरण गुप्त द्वारा रचित ‘भारत भारती’ से लिया गया अंश है। इसका शीर्षक ‘आर्य-स्त्रियाँ’ है। इसमें भारत की आदर्श नारियों के गरिमामय आचरण का उल्लेख किया गया है।
व्याख्या-कवि वर्णन करते हुए कहता है कि भारत में केवल ऐसे आदर्श पुरुष ही नहीं हुए, जिनको लेकर संसार में महापुरुषत्व पर गर्व होता है, अपितु यहाँ पर नारियाँ भी ऐसी गृहिणियाँ हुई थीं, जो कि देवियों की तरह सदा पूज्या और सब तरह से समादरणीया रहीं। उदाहरण के लिए यहाँ पर महर्षि अत्रि और अनसूया जैसे गृहस्थ पति-पत्नी हुए, ऐसे स्त्री-पुरुष के जोड़े हुए, जिनका गृहस्थ-सुख स्वर्ग में भी दुर्लभ है। अत्रि-अनसूया के दाम्पत्य-जीवन में जो सुख था, वैसी सुख मोक्ष या परमगति में मिलता है। आशय यह है कि भारतभूमि पर गृहस्थ जीवन को सुख लौकिक भी था तो पारलौकिक या मोक्ष का साधक भी था। वह परमगति से प्राप्त होने वाला सुख था।
विशेष-
(1) अत्रि कई वेद-सूक्तों के द्रष्टा महर्षि थे। अत्रि की पत्नी अनसूया थी, जिसे भारतीय पुराणेतिहास में पति-भक्ति और सतीत्व का सर्वोत्तम नमूना माना गया है।
(2) कवि ने भारतीय आर्य-नारियों की महिमा का उल्लेख किया है।
(10) निज स्वामियों के कार्य्य में समभाग जो लेतीं न वे,
अनुरागपूर्वक योग जो उसमें सदा देतीं न वे॥
तो फिर कहातीं किस तरह ‘अद्भगिनी’ सुकुमारियाँ?
तात्पर्य्य यह-अनुरूप ही थी नरवरों के नारियाँ॥
कठिन शब्दार्थ-समभाग = बराबरी का हिस्सा। योग = सहयोग। अर्धांगिनी = पुरुष को आधा अंग, पत्नी।
प्रसंग-प्रस्तुत अवतरण मैथिलीशरण गुप्त द्वारा रचित ‘भारत भारती’ से संकलितांश ‘आर्य-स्त्रियाँ’ शीर्षक से लिया गया है। इसमें आर्य-नारियों के आचरणगत श्रेष्ठता का उल्लेख किया गया है।
व्याख्या-कवि कहता है कि यदि भारतीय आदर्श नारियाँ अपने-अपने पति के कामों में बराबरी का सहयोग नहीं देतीं, यदि वे प्रेमपूर्वक सदा पति को पूरा सहयोग नहीं देतीं, तो उनके पतियों के कार्य कैसे सरलता से पूर्ण हो जाते? और वे सुन्दरी नारियाँ किस तरह अर्धांगिनी कहला पातीं? इसका आशय यही है कि यहाँ की आदर्श नारियों का आचरण सदा ही पति के अनुरूप रहा और वे सही रूप में नरवरों की श्रेष्ठ नारियाँ थीं। पति का प्रत्येक काम में पूरा सहयोग करना एवं प्रेमपूर्वक अनुरूप आचरण करना ही आदर्श पत्नी का धर्म माना गया है। यहाँ की नारियाँ ऐसी ही थीं।
विशेष-
(1) ‘अर्धांगिनी’ शब्द की निष्पत्ति कर नारी को नर का आधा शरीर बताया गया है। इसी से नारी अपने पति के कामों में उचित सहयोग करती है।
(2) भारतीयों के दाम्पत्य-जीवन में नारियों की गरिमा का उल्लेख किया गया है।
(11)
हारे मनोहत पुत्र को फिर बल जिन्होंने था दिया,
रहते जिन्होंने नव-वधू के सुत-विरह स्वीकृत किया।
द्विज-पुत्र-रक्षा-हित जिन्होंने सुत-मरण सोचा नहीं,
विदुला, सुमित्रा और कुन्ती-तुल्य माताएँ रहीं।
कठिन शब्दार्थ-मनोहत = उदास, निराश। सुत-विरह = पुत्र-वियोग। द्विजपुत्र = ब्राह्मण-पुत्र, अश्वत्थामा। तुल्य = समान॥
प्रसंग-यह अवतरण गुप्तजी की ‘भारत भारती’ से संकलितांश ‘आर्य-स्त्रियाँ’ शीर्षक से लिया गया है। इसमें कवि ने विदुला आदि भारतीय नारियों के मातृत्व को प्रशंसनीय बताया है।
व्याख्या-कवि पौराणिक आख्यानों के अनुसार वर्णन करता है कि अपने शत्रु सिन्धुराज से हारकर निश्चेष्ट-निराश पड़े हुए पुत्र संजय को उसकी माता विदुला ने युद्ध के लिए उत्साहित करने का बल दिया था, विजयश्री होने का जोश भरा था। नव-वधू उर्मिला के रहते हुए भी पुत्र लक्ष्मण को बड़े भाई श्रीराम के साथ वन में भेजकर सुमित्रा ने पुत्रवधू को पति-वियोग में डाल दिया था। ब्राह्मण-पुत्र अश्वत्थामा की रक्षा के लिए माता कुन्ती ने अपने पुत्र के अनिष्ट का जरा भी विचार नहीं किया था। इस प्रकार भारत में विदुला, सुमित्रा और कुन्ती जैसी माताएँ हुईं, जिनसे आर्य नारियों के गौरव का विस्तार ही हुआ।
विशेष-
(1) महाभारत में विदुलोपाख्यान’ समाविष्ट है तदनुसार राजकुमार संजय को उसकी माता विदुला ने अपने शत्रु सिन्धुराज से युद्ध करने और विजयी होने की सत्प्रेरणा दी थी।
(2) अश्वत्थामा की कथा भी महाभारत से ही गृहीत है। इससे कवि ने आदर्श माताओं का उल्लेख किया है।
(12)
बदली न जो, अल्पायु वर भी वर लिया सो वर लिया,
मुनि को सताकर भूल से, जिसने उचित प्रतिफल दिया।
सेवार्थ जिसने रोगियों के था विराम लिया नहीं,
थीं धन्य सावित्री, सुकन्या और अंशुमती यहीं॥
कठिन शब्दार्थ-अल्पायु = कम आयु। वर = पति। प्रतिफल = परिणाम। सेवार्थ = सेवा के लिए। विराम = विश्राम।
प्रसंग-प्रस्तुत अवतरण राष्ट्रकवि गुप्तजी की प्रसिद्ध कृति ‘भारत भारती’ से संकलित काव्यांश से लिया गया है। इसमें कवि ने पतिव्रता आर्य नारियों का सोदाहरण निरूपण किया है।
व्याख्या-कवि कहता है कि जिसे पति रूप में स्वीकार करने का एक बार निश्चय किया, उस राजकुमार सत्यवान की आयु अल्प होने का ज्ञान होने पर भी जिस सावित्री ने अपना निश्चय नहीं बदला और जिसे एक बार वर लिया, उसे ही अन्त तक स्वीकारा। पहले तो राजा शर्याति की पुत्री सुकन्या ने तपस्यारत ऋषि। च्यवन को सताया (च्यवन की आँखें फोड़ दीं), परन्तु बाद में उसी सुकन्या ने अपने कृत्य का परिणाम स्वीकार किया और मुनि-च्यवन की पत्नी बनकर उनकी आजीवन सेवा की। रोगियों एवं दीन-दुखियों की सेवा से जिस सुव्रत नामक मुनीश्वर की पत्नी अंशुमती ने कभी भी विश्राम नहीं लिया, अर्थात् निरन्तर सेवा करती रहीं। ऐसी ही सावित्री, सुकन्या एवं अंशुमती नामक नारियाँ इसी भारत भूमि पर हुईं और आर्य-नारियों का गौरव बढ़ाती रहीं।
विशेष-
(1) सावित्री-सत्यवान् की कथा प्रसिद्ध है। शाल्वदेश का राजकुमार सत्यवान् सर्वगुण सम्पन्न था, परन्तु जिस दिन सावित्री ने उसे वर रूप में स्वयं चुना, उस दिन उसके जीवन की आयु एक वर्ष ही शेष थी। नारद से यह जानकर भी सावित्री ने अपना निश्चय नहीं बदला और सत्यवान् से विवाह कर अन्तिम समय यमराज की प्रार्थना की। यमराज ने प्रसन्न होकर सत्यवान् के प्राण लौटा दिये।
(2) सुकन्या राजा शर्याति की पुत्री थी। उसने अनजाने में तपस्यारत ऋषि च्यवन की आँखें फोड़ दी थीं। परन्तु बाद में उनकी पत्नी बनकर सुकन्या ने आजीवन ऋषि की सेवा की।
(3) कवि ने भारतीय पतिव्रता नारियों की गरिमा का उल्लेख कर आर्य संस्कृति का गौरव-गान किया है।
(13)
दे रही दोनों नयन आमरण ‘गान्धारी’ जहाँ,
पति-संग दमयन्ती, स्वयं वन-वन फिर मारी जहाँ।
यों ही जहाँ की नारियों ने धर्म का पालन किया,
आश्चर्य क्या फिर ईश ने जो दिव्य-बल उनको दिया॥
कठिन शब्दार्थ-आमरण = मृत्युपर्यन्त। ईश = ईश्वर॥ प्रसंग-प्रस्तुत अवतरण मैथिलीशरण गुप्त द्वारा रचित ‘भारत भारती’ से लिया। गया है। इसमें भारत की आर्य नारियों की गरिमा का उल्लेख।कया गया है।
व्याख्या-कवि वर्णन करता है कि अन्धे धृतराष्ट्र की पत्नी र धारी मृत्युपर्यन्त अपनी दोनों आँखें मूंदी रहीं, अर्थात् पति की खातिर आँखों पर पट्टी बाँधकर अपना प्रण निभाया। दमयन्ती अपने पति नल के साथ वन-वन में मारी फिरी, अर्थात् पति का अनुगमन किया। इस प्रकार जिस भारत-भूमि की नारियों ने अपने पतिव्रत-धर्म का दृढ़ता से पालन किया, यदि उन्हें ईश्वर ने पतिधर्म के निर्वाह हेतु दिव्य-शक्ति दी हो, तो इसमें आश्चर्य की क्या बात है! अर्थात् ईश्वर भी ऐसी नारियों का सहायक रहा है।
विशेष-
(1) गांधारी एवं दमयन्ती का उदाहरण देकर भारतीय नारियों के द्वारा पति-धर्म का पालन करने की परम्परा व्यंजित की गई है।
(2) सहज आस्था का स्वरे व्यक्त हुआ है।
(14)
अबला जनों का आत्मबल संसार में था वह नया,
चाहा उन्होंने तो अधिक क्या, रवि-उदय भी रुक गया?
जिस क्षुब्ध मुनि की दृष्टि से जलकर विहग भू पर गिरा,
वह भी सती के तेज-सम्मुख रह गया निष्प्रभ निरा॥
कठिन शब्दार्थ-क्षुब्ध = दु:खी। विहग = पक्षी। सती = पतिव्रता। निष्प्रभ = कान्ति था तेज से रहित। निरा = बिल्कुल॥
प्रसंग-प्रस्तुत अवतरण मैथिलीशरण गुप्त द्वारा रचित ‘भारत भारती’ से संकलित ‘आर्य-स्त्रियाँ’ शीर्षक काव्यांश से लिया गया है। इसमें कवि ने भारतीय नारियों के आत्मबल का महत्त्व निरूपित किया है।
व्याख्या-कवि वर्णन करते हुए बताता है कि भारतीय नारियों में जो आत्मबल था, वह संसार में अनोखा था। उसी आत्मबल के सहारे यहाँ की अबलाओं ने यदि चाहा कि सूर्य का उदय रुक जावे, तो वह भी घटित हुआ। उनके आत्मबल का। इससे बड़ा प्रमाण क्या हो सकता है? जिस तपोनिष्ठ मुनि की क्रोधपूर्ण दृष्टि से उस पर विष्ठा करने वाला पक्षी जलकर गिर गया था, वह मुनि भी एक पतिव्रता नारी के तेज के सामने एकदम कान्ति या तेज से रहित हो गया था। अर्थात् सती नारी के तेज के सामने मुनियों का तपोबल भी कमतर दिखाई दिया। ऐसी नारियों से यह देश गौरवमय रहा है।
विशेष-
(1) एक पौराणिक कथा है कि आकाश में उड़ते हुए पक्षी ने मुनि पर विष्ठा कर दी। तब उस मुनि ने क्रोधपूर्ण दृष्टि से उस पक्षी को देखा, तो वह जलकर तुरन्त भूमि पर गिर गया। वही मुनि तब अहंकार से भर गया और एक पतिव्रता नारी के सामने जाकर भिक्षा माँगने लगा। भिक्षा लाने में देरी करने से मुनि उस नारी पर क्रोध करने लगा, परन्तु वह पतिव्रता नारी थी, उस समय पति की सेवा कर रही थी। इस कारण मुनि के क्रोध का उस सती नारी पर कोई बुरा प्रभाव नहीं पड़ा।
(2) तत्सम-प्रधान शब्दावली, सांस्कृतिक गरिमा का स्वर, उदात्त भावाभिव्यक्ति तथा सुगेय छन्द योजना उचित है।