Rajasthan Board RBSE Class 11 Political Science Chapter 6 राज्य का कार्यक्षेत्र
RBSE Class 11 Political Science Chapter 6 पाठ्यपुस्तक के प्रश्नोत्तर
RBSE Class 11 Political Science Chapter 6 अति लघूत्तरात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
पुलिस राज्य में विश्वास करने वाली विचारधारा का नाम लिखिए।
उत्तर:
अहस्तक्षेपवादी विचारधारा
प्रश्न 2.
अहस्तक्षेपवादी राज्य का एक कार्य लिखिए।
उत्तर:
शान्ति व व्यवस्था की स्थापना करना
प्रश्न 3.
राज्य को साध्य मानने वाले दो विचारकों के नाम लिखिए।
उत्तर:
- प्लेटो
- अरस्तू
प्रश्न 4.
राज्य को साधन मानने वाले दो विचारकों के नाम लिखिए।
उत्तर:
- जे. एस. मिल
- हरबर्ट स्पेंसर
प्रश्न 5.
लोक कल्याणकारी राज्य के दो समर्थक विचारकों के नाम लिखिए।
उत्तर:
- प्रो. हेराल्ड लास्की
- जे. एस. मिले।
प्रश्न 6.
लोक कल्याणकारी राज्य के मार्ग में आने वाली दो बाधाएँ लिखिए।
उत्तर:
- नौकरशाही
- प्रेरणा का अभाव।
प्रश्न 7.
19वीं सदी में किस विचारधारा का प्राधान्य था?
उत्तर:
अहस्तक्षेपवादी विचारधारा
प्रश्न 8.
भारतीय संविधान के किस अध्याय में लोक कल्याणकारी प्रावधानों का उल्लेख किया गया है?
उत्तर:
चतुर्थ अँध्याय के नीति-निर्देशक तत्वों में।
प्रश्न 9.
राज्य की किन्हीं दो सीमाओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
- लोकमत
- धर्म।
प्रश्न 10.
राज्य के कार्यक्षेत्र सम्बन्धी कौन-कौन सी विचारधाराएँ हैं?
उत्तर:
- अहस्तक्षेपवादी विचारधारा
- लोक कल्याणकारी राज्य की अवधारणा
- राज्य की गाँधीवादी विचारधारा।
RBSE Class 11 Political Science Chapter 6 लघूत्तरात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
अहस्तक्षेपवादी राज्य के दो मूल सिद्धान्त लिखिए।
उत्तर:
अहस्तक्षेपवादी राज्य के मूल सिद्धान्त – अहस्तक्षेपवादी राज्य के दो मूल सिद्धान्त अग्रलिखित हैं
(i) राज्य एक आवश्यक बुराई है – अहस्तक्षेपवादियों के अनुसार व्यक्ति के जीवन में सुरक्षा, शान्ति एवं व्यवस्था, स्थापित करने के लिए राज्य आवश्यक है किन्तु व्यक्ति की स्वतन्त्रताओं में हस्तक्षेप करने से व्यक्ति के चहुमुँखी विकास में बाधा पहुँचती है। अत: अहस्तक्षेपवादी राज्य को एक आवश्यक बुराई मानते हैं।
(ii) व्यक्ति को पूर्ण स्वतन्त्रता – अहस्तक्षेपवादी समर्थक व्यक्ति को अधिकतम स्वतन्त्रता प्रदान करने के पक्षधर हैं। अहस्तक्षेपवादी लैसेजफेयर’ अर्थात् हस्तक्षेप न करने की नीति में विश्वास करते थे। वे व्यक्तियों को अपने हाल पर छोड़ दो के सिद्धान्त में विश्वास करते हैं। वे यह मानते हैं कि राज्य को व्यक्ति की स्वतन्त्रता में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए।
प्रश्न 2.
अहस्तक्षेपवादी राज्य के विपक्ष में दो तर्क लिखिए।
उत्तर:
अहस्तक्षेपवादी राज्य में विपक्ष के तर्क-अहस्तक्षेपवादी राज्य के विपक्ष में दो तर्क निम्नलिखित हैं
(i) व्यक्ति सदैव अपने हित का सर्वोत्तम निर्णायक नहीं होता – अहस्तक्षेपवादी विचारकों का मत है कि व्यक्ति अपने हित का सर्वोत्तम निर्णायक है, इसलिए राज्य को उसके कार्यों में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। लेकिन आलोचकों का मत है कि प्रत्येक व्यक्ति अपना हित को अच्छी तरह नहीं समझता है तथा उसमें अपने हित-साधन की पूरी क्षमता भी नहीं होती है। इसलिए राज्य को उसकी भलाई की दृष्टि से हस्तक्षेप करना चाहिए।
(ii) राज्य एक कल्याणकारी संस्था है – अहस्तक्षेपवादी विचारक राज्य को एक आवश्यक बुराई मानते हैं, जबकि राज्य एक कल्याणकारी संस्था है। सभी देशों में प्रगति और विकास राज्य के माध्यम से ही हुआ है। राज्य व्यक्ति के कल्याण के लिए विभिन्न क्षेत्रों में कार्य करता है। ऐसी स्थिति में राज्य को एक बुराई कहना ठीक नहीं है।
प्रश्न 3.
लोक कल्याणकारी राज्य के दो उद्देश्य लिखिए।
उत्तर:
लोक कल्याणकारी राज्य के उद्देश्य-लोक कल्याणकारी राज्य के दो प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित हैं
- व्यक्ति की स्वतन्त्रताओं के उपभोग को सम्भव बनाना – लोक कल्याणकारी राज्य का उद्देश्य नागरिकों द्वारा वास्तविक स्वतन्त्रता के उपभोग को सम्भव बनाना एवं राज्य के कार्यक्षेत्र के विस्तार से व्यक्ति की स्वतन्त्रताओं को सुनिश्चित करना है।
- कल्याणकारी योजनाएँ बनाना तथा नागरिकों को मूलभूल सुविधाएँ उपलब्ध कराना – लोक कल्याणकारी राज्य का दूसरा प्रमुख उद्देश्य जनता के सभी वर्गों के कल्याण के लिए योजनाएँ बनाना एवं सभी नागरिकों को मूलभूत सुविधाएँ उपलब्ध करवाना है।
प्रश्न 4.
लोक कल्याणकारी राज्य के दो कार्य लिखिए।
उत्तर:
लोक कल्याणकारी राज्य के कार्य – लोक कल्याणकारी राज्य के कार्यों को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है
- अनिवार्य कार्य – अनिवार्य कार्य के अन्तर्गत राज्य की सुरक्षा सम्बन्धी कार्य आते हैं, जैसे – आन्तरिक शान्ति एवं व्यवस्था बनाए रखना, प्रतिरक्षा तथा न्यायिक कार्य।
- ऐच्छिक कार्य – ऐच्छिक कार्य वे होते हैं, जिन्हें नागरिकों की भलाई हेतु राज्य द्वारा सम्पादित किया जाता है, जैसे-समाज सुधार, श्रम का नियमन, कृषि, उद्योग एवं व्यापार का नियमन, असहाय और पीड़ितों की सहायता, शिक्षा, स्वास्थ्य रक्षा एवं परिवार नियोजन आदि।
प्रश्न 5.
गाँधीवादी राज्य के दो लक्ष्य लिखिए।
उत्तर:
गाँधीवादी राज्य – यद्यपि आदर्श राज्य के रूप में गाँधीजी ने राज्यविहीन समाज की स्थापना पर बल दिया, तथापि व्यवहार में उन्होंने विकेन्द्रीकृत ग्राम स्वराज्य तथा अहिंसक लोकतन्त्र की धारणा में राज्य के दो लक्ष्यों का उल्लेख किया है जो अग्रलिखित हैं
(1) विकेन्द्रीकृत ग्राम स्वराज्य – गाँधीजी ने विकेन्द्रीकृत ग्राम स्वराज्य के रूप में, राजनीतिक व्यवस्था का उप आदर्श प्रस्तुत किया। वे यह समझते थे कि विकेन्द्रित ग्राम स्वराज्य के आदर्श राज्य को भी क्रमिक सुधारों तथा लोगों के दृष्टिकोण में मौलिक परिवर्तन लाकर ही प्राप्त किया जा सकता था। इसकी स्थापना के लिए एक समयबद्ध कार्यक्रम की आवश्यकता थी।
(2) अहिंसक लोकतन्त्र – तात्कालिक सुधारवादी लक्ष्य के रूप में गाँधीजी ने अहिंसक लोकतन्त्र की परिकल्पना की। अहिंसक लोकतन्त्र में राज्य अहिंसा के प्रचार-प्रसार द्वारा जनता के जीवन में अहिंसा को प्रतिष्ठित करेगा। इसमें बल प्रयोग को न्यूनतम किया जायेगा। पुलिस व सेना जनता के सेवक के रूप में कार्य करेगी। शान्तिकाल में सेना व पुलिस रचनात्मक कार्यों में लगे रहेंगे।
प्रश्न 6.
रामराज्य को परिभाषित कीजिए।
उत्तर:
रामराज्य – गाँधीजी के रामराज्य से आशय भगवान् राम के समय की शासन व्यवस्था से नहीं है, बल्कि राज्यहीन समाज की परिकल्पना से है। यह एक ऐसी पवित्र व्यवस्था है जिसमें व्यक्ति की अन्तरात्मा पर बाह्य नियन्त्रण पूर्णतः समाप्त कर दिये जायेंगे। गाँधीजी की मान्यता है कि जब व्यक्ति अपने जीवन में अहिंसा के आदर्श को पूर्णतः स्वीकार कर लेगा और स्वार्थ को परम सत्य के प्रति समर्पित कर लेगा, तो उसका उचित विवेक और उसकी जागृत अन्तरात्मा उसके सम्पूर्ण व्यवहार को ऐसे नैतिक प्रभाव से ढक लेंगे कि उसके आचरण पर बाहरी नियन्त्रण की आवश्यकता ही नहीं रहेगी। ऐसी अवस्था में व्यक्ति अपना शासक स्वयं हो जायेगा। गाँधीजी ने इसी राज्यविहीन समाज की स्थिति को ‘प्रबुद्ध अराजकता’ नाम दिया है। यही उनका रामराज्य है।
प्रश्न 7.
राज्य की सीमाओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
राज्य की सीमाएँ – राज्य की प्रमुख सीमाएँ निम्नलिखित हैं
(1) लोकमत – लोकमत के सम्बन्ध में मोरिस गिंसबर्ग ने लिखा है कि, “जब अनेक व्यक्तियों के मन परस्पर क्रिया करते हैं तो उससे जिस सामाजिक तत्व का निर्माण होता है, वह लोकमत है। राज्य को किसी भी स्थिति में लोकमत के विरुद्ध कार्य नहीं करना चाहिए।
राज्य का निर्माण ही व्यक्तियों की सुरक्षा एवं कल्याण हेतु किया गया है। अतः राज्य को जनता की स्वतन्त्रताओं, विचार तथा अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता को अनावश्यक रूप से प्रतिबन्धित नहीं करना चाहिए, अन्यथा जनता का आक्रोश विद्रोह का रूप ले लेगा।
(2) धर्म – राज्य द्वारा प्रत्येक व्यक्ति को धार्मिक स्वतन्त्रता प्रदान करनी चाहिए। साथ ही यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि किसी व्यक्ति या संस्था द्वारा व्यक्ति को धर्म विशेष मानने के लिए बाध्य न किया जाये।
(3) नैतिकता – राज्य द्वारा इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि वह अपनी कोई नैतिक संहिता व्यक्तियों पर बलपूर्वक न थोपे।
(4) व्यक्ति का व्यक्तिगत दैनिक व्यवहार – राज्य को व्यक्ति की दैनिक गतिविधियों की स्वतन्त्रता में बाधा नहीं डालनी चाहिए।
(5) फैशन – फैशन का सम्बन्ध व्यक्तिगत रुचियों से होता है। राज्य को इस क्षेत्र में अनावश्यक प्रतिबन्ध नहीं लगाने चाहिए। उसे इस क्षेत्र में युक्तियुक्त तथा विवेक सम्मत प्रतिबन्ध ही लगाने चाहिए।
प्रश्न 8.
“राज्य साध्य है।” इस कथन को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
“राज्य साध्य है इस सन्दर्भ में कुछ विद्वानों – प्लेटो, अरस्तू, बोसांके, हीगल आदि विचारक राज्य को मानव जीवन का उच्चतम लक्ष्य और अपने आप में एक साध्य मानते हैं प्लेटो और अरस्तू के मतानुसार समाज एवं राज्य एक महान् नैतिक संस्था हैं जिसका उद्देश्य व्यक्ति का नैतिक विकास करना है।
प्लेटो के शब्दों में, “राज्य वृक्षों या चट्टानों से उत्पन्न नहीं होते। ये उन व्यक्तियों के चरित्र से उत्पन्न होते हैं जो उसमें निवास करते हैं।” अरस्तू का मत है कि राज्य का उद्भव जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए हुआ है तथा अच्छे जीवन के लिए विद्यमान है।
ट्रिश्के मानते हैं कि राज्य व्यक्ति है तथा हमारा यह कर्तव्य है कि हम सिर झुका कर उसकी पूजा करें। वहीं हीगल राज्य को स्वयं में साध्य मानता है और राज्य को पृथ्वी पर ईश्वरीय अवतार मानता है जो बिचारक राज्य को स्वयं में साध्य मानते हैं।
उन्होंने व्यक्ति की इच्छा को राज्य की इच्छा के साथ एकाकार कर दिया। इस सिद्धान्त का परिणाम फासीवाद है। फासीवादी मानते हैं कि “सब कुछ राज्य के लिए है, राज्य के विरुद्ध कुछ भी नहीं ।” आदर्शवादी विचारक राज्य को एक साध्य मानते हैं।
प्रश्न 9.
“राज्य साधन है।” इस कथन को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
‘राज्य साधन है’ इस मत को मानने वाले विचारक राज्य को मानव के हितों की पूर्ति को साधन मानते हैं। उनका मत है कि समस्त संस्थाएँ व्यक्ति के कल्याण और समृद्धि के लिए हैं न कि व्यक्ति उन संस्थाओं के लिए है। राज्य का एकमात्र उद्देश्य व्यक्तियों का कल्याण करना है। व्यक्तिवादी, अराजकतावादी एवं बहुलवादी विचारक राज्य को एक साधन मानते हैं। व्यक्तिवादी विचारक राज्य के अस्तित्व को तो स्वीकार करते हैं किन्तु राज्य को साध्य नहीं मानते।
जे. एस. मिल एवं हर्बर्ट स्पेन्सर राज्य को आवश्यक बुराई मानते हैं। वे राज्य के कार्यों को पुलिस कार्यों तक ही सीमित रखना चाहते हैं। अराजकतावादी यह मानते हैं कि व्यक्ति का कल्याण राज्य की सत्ता की समाप्ति में निहित है। उनके लिए राज्य अनावश्यक, अवांछनीय एवं अस्वाभाविक संस्था है। बहुलवादी विचारक राज्य को अन्य समुदायों के समान एक समुदाय मानते हैं।
RBSE Class 11 Political Science Chapter 6 निबन्धात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
अहस्तक्षेपवादी राज्य की धारणा को स्पष्ट करते हुए उसके लक्षणों पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
अहस्तक्षेपवादी राज्य की धारणा। अहस्तक्षेपवादी विचारधारा व्यक्ति की स्वतन्त्रता परे सर्वाधिक बल देती है तथा व्यक्ति को स्वयं के हितों की सर्वोत्तम संरक्षक मानती है। इसी कारण यह विचारधारा राज्य के कार्यक्षेत्र को सीमित करने पर बल देती है। इस विचारधारा का मूलमन्त्र है “व्यक्ति राज्य के लिए नहीं है बल्कि राज्य व्यक्ति के लिए है।”
राज्य तथा अन्य संस्थाओं का लक्ष्य व्यक्ति का विकास करना है न कि व्यक्ति का उद्देश्य राज्य की सेवा करना। राज्य को चाहिए कि वह व्यक्ति को अधिक से अधिक स्वतन्त्रता प्रदान करे एवं उसके कार्यों में कम-से-कम हस्तक्षेप करे। अहस्तक्षेपवादी राज्य की धारणा का विकास – आधुनिक काल में 18वीं सदी में होने वाली औद्योगिक क्रान्ति के परिणामस्वरूप आर्थिक क्षेत्र में अहस्तक्षेपवाद तथा व्यक्तिवाद का विकास हुआ।
एडम स्मिथ, रिकार्डो तथा थॉमस, माल्थस आदि अर्थशास्त्रियों ने यह मत प्रतिपादित किया कि राज्य को आर्थिक क्षेत्र में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। राजनीतिक दर्शन के रूप में यह विचारधारा 19वीं सदी की देन है। सर्वप्रथम बेंथम और जेम्स मिल द्वारा इसका प्रवर्तन किया गया जिसकी पूर्ण अभिव्यक्ति 19वीं सदी के मध्य में जॉन स्टुअर्ट मिले तथा हर्बर्ट स्पेन्सर की रचनाओं में दृष्टिगत होती है।
जॉन स्टुअर्ट मिल का सिद्धान्त यह है कि यदि राज्य व्यक्तियों के मामलों में न्यूनतम हस्तक्षेप करे तो वह व्यक्ति को अधिकाधिक सुख दे सकता है। अहस्तक्षेपवाद व्यक्तिवाद के बीज यूनान के सोफिस्ट विचारकों में भी पाये जाते हैं। सोफिस्ट विचारकों ने व्यक्ति को राज्य से श्रेष्ठ स्थान दिया था। यूनान के एपीक्यूरियन विचारकों ने व्यक्तिगत स्वार्थों से पृथक् राज्य का कोई महत्त्व नहीं बताया। आधुनिक व्यक्तिवाद औद्योगिक क्रान्ति का ही परिणाम है।
अहस्तक्षेपवादी राज्य के लक्षण: अहस्तक्षेपवादी राज्य के प्रमुख लक्षण निम्नलिखित हैं
(1) राज्य एक आवश्यक बुराई है – व्यक्ति के जीवन की सुरक्षा, शान्ति एवं व्यवस्था स्थापित करने के लिए राज्य आवश्यक है, किन्तु व्यक्ति की स्वतन्त्रताओं में हस्तक्षेप करने से व्यक्ति का चहुँमुखी विकास बाधित होता है। अतः अहस्तक्षेपवादी विचारक राज्य को एक आवश्यक बुराई मानते हैं।
(2) व्यक्ति साध्य है तथा राज्य साधन – अहस्तक्षेपवादी धारणा के अनुसार, राज्य का कार्य व्यक्ति की सेवा करना है। राज्य व्यक्ति के लिए है, न कि व्यक्ति राज्य के लिए। राज्य व्यक्तियों का समूह मात्र है तथा व्यक्तियों के विकास में ही राज्य की उन्नति सम्भव है।
(3) व्यक्ति को पूर्ण स्वतन्त्रता – यह सिद्धान्त व्यक्ति को अधिकतम स्वतन्त्रता प्रदान करने का पक्षधर है। अहस्तक्षेपवादी राज्य लैसेजफेयर’ अर्थात् व्यक्तियों को अपने हाल पर छोड़ दो’ के सिद्धान्त में विश्वास करता है तथा इस बात पर बल देता है कि राज्य को व्यक्ति की स्वतन्त्रता में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए।
(4) वह सरकार श्रेष्ठ है, जो न्यूनतम शासन करती है – अहस्तक्षेपवादियों के अनुसार, राज्य का कार्यक्षेत्र जितना सीमित रहे, उतना ही अच्छा है। राज्य को केवल निषेधात्मक कार्य ही करना चाहिए, कोई कल्याणकारी कार्य नहीं करना चाहिए। शिक्षा, सार्वजनिक स्वास्थ्य और जनहित के कार्यों को राज्य द्वारा किया जाना उचित नहीं है। फ्रीमैन के अनुसार, “वही सरकार सबसे अच्छी है। जो कम – से – कम शासन करती है।”
(5) राज्य का कार्यक्षेत्र सीमित – अहस्तक्षेपवादियों के अनुसार राज्य केवल सुरक्षात्मक कार्य करता है। अतः उसका कार्यक्षेत्र सीमित है।
प्रश्न 2.
राज्य के लोक कल्याणकारी स्वरूप के लक्षण एवं सफलता हेतु आवश्यक शर्तों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
राज्य के लोक कल्याणकारी स्वरूप के लक्षण राज्य के लोक कल्याणकारी स्वरूप के प्रमुख लक्षण निम्नलिखित हैं
(1) लोकतन्त्रीय शासन व्यवस्था – कल्याणकारी राज्य एक लोकतन्त्रीय व्यवस्था है। यह लोकतन्त्र में ही विकसित होता है। लोक कल्याणकारी राज्य का लक्ष्य होता है, राज्य के कार्यक्षेत्र का इस प्रकार विस्तार करना कि व्यक्ति की स्वतन्त्रता पर अनावश्यक प्रतिबन्ध नहीं लगाये जायें। कल्याणकारी राज्य वैयक्तिक स्वतन्त्रता और अधिकारों का सम्मान करता है तथा सामाजिक परिवर्तन के लिए लोकतान्त्रिक साधनों को अपनाता है।
(2) सामाजिक सुरक्षा प्रदान करना – कल्याणकारी राज्य नागरिकों को अधिक-से-अधिक सुरक्षा प्रदान करता है। बेरोजगारों को रोजगार के अवसर, निर्बलों एवं कमजोर वर्गों को सहायता एवं बीमारी तथा वृद्धावस्था में आवश्यक सुरक्षा प्रदान करता है।
(3) आर्थिक न्याय प्रदान करना – कल्याणकारी राज्य आर्थिक न्याय के सिद्धान्त पर न्याय करता है। यह राज्य धनिक वर्ग पर अधिक कर लगाकर समाज में मौजूद सामाजिक एवं आर्थिक विषमताओं को दूर करने का प्रयत्न करता है।
(4) सामाजिक न्याय की स्थापना करना – लोक कल्याणकारी राज्य समाज में विद्यमान सामाजिक विषमताओं, कुरीतियों, अन्धविश्वासों को दूर कर समाज के पिछड़े व दलित वर्ग को सामान्य धारा में लाने का प्रयास कर सामाजिक न्याय की स्थापना करता है।
(5) व्यक्तिवाद तथा समाजवाद का मध्य मार्ग – लोक कल्याणकारी राज्य दो अतिवादी धारणाओं यथा व्यक्तिवाद एवं समाजवाद के मध्य सामंजस्य स्थापित करता है। इस प्रकार के राज्य में राज्य के कार्यों में वृद्धि होती है, किन्तु व्यक्ति के महत्त्व को भी स्वीकार किया जाता है तथा उसकी स्वतन्त्रता बनी रहती है।
(6) अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग की भावना – कल्याणकारी राज्य का विचार केवल राष्ट्रीय ही न होकर अन्तर्राष्ट्रीय भी है। राष्ट्रीय लोककल्याण के साधनों को स्थायी बनाने के लिए आवश्यक है कि किसी राज्य विशेष के हित साधन के साथ-साथ अन्तर्राष्ट्रीय हित साधन का भी ध्यान रखा जाए।
लोक कल्याणकारी राज्य की सफलता हेतु आवश्यक शर्ते:
लोक कल्याणकारी राज्य की सफलता के लिए यह आवश्यक है कि वह निम्नलिखित कार्यों को पूरा करे या निम्नलिखित शर्तों को पूरा करे
(1) अनिवार्य कार्य – लोक कल्याणकारी राज्य की सफलता के लिए पहली शर्त यह है कि वह. निम्नलिखित अनिवार्य कार्यों को पूरा करे
- आन्तरिक शान्ति और व्यवस्था बनाए रखना
- देश की सीमाओं की रक्षा करना
- न्याय का समुचित प्रबन्ध तथा व्यवस्था करना
(2) ऐच्छिक कार्य – लोक कल्याणकारी राज्य की सफलता के लिए यह आवश्यक है कि वह नागरिकों की भलाई से सम्बन्धित निम्नलिखित दायित्वों को पूरा करे
(i) समाज सुधार – कल्याणकारी राज्य की सफलता के लिए यह आवश्यक है कि वह मद्य निषेध, बाल विवाहों की रोकथाम, छुआछूत, जाति-प्रथा आदि सामाजिक कुरीतियों के समापन का प्रयास करे।
(ii) कृषि, उद्योग तथा व्यापार का नियमन – लोक कल्याणकारी राज्य को कृषि, उद्योग और व्यापार को इस प्रकार नियमन करना चाहिए जिससे किसी का शोषण न हो। कृषि के विकास के लिए अच्छे बीज, सिंचाई आदि की सुविधा भी राज्य को प्रदान करनी चाहिए।
(iii) श्रम का नियमन – कल्याणकारी राज्य को श्रमिकों की दशा सुधारने के लिए प्रयत्नशील रहना चाहिए। उसे उचित पारिश्रमिक, पेन्शन, स्वास्थ्य, बीमा, शिक्षा, असहाय अवस्था में मजदूरों की सहायता आदि का प्रबन्ध करना चाहिए।
(iv) शिक्षा की व्यवस्था करना – लोक कल्याणकारी राज्य का दायित्व है कि वह नागरिकों की शिक्षा की व्यवस्था करे। इस दृष्टि से उसे प्रारम्भिक शिक्षा, महिला एवं प्रौढ़ शिक्षा की व्यवस्था करनी चाहिए। राज्य के द्वारा वाचनालयों तथा पुस्तकालयों की व्यवस्था की जानी चाहिए।
(v) असहाय एवं पीड़ितों की सहायता – कल्याणकारी राज्य को असहाय तथा पीड़ित व्यक्तियों के लिए आवास गृह, वृद्धावस्था पेन्शन, नि:शुल्क चिकित्सा तथा रैनबसेरों आदि की व्यवस्था करनी चाहिए।
(vi) स्वास्थ्य रक्षा – स्वच्छता एवं रोगों की रोकथाम के लिए राज्य को पूर्ण प्रयत्न करना चाहिए। जन स्वास्थ्य के लिए चिकित्सालय तथा चिकित्सा अनुसन्धान केन्द्र खोलने चाहिए। श्रमिकों, स्त्रियों, बालकों आदि के लिए चिकित्सीय सुविधाएँ उपलब्ध करवानी चाहिए।
(vii) नैतिक उन्नति के साधनों का विकास – राज्य को भौतिक उन्नति के साथ-साथ नैतिक उन्नति हेतु व्यवस्थाएँ करनी चाहिए। इसके लिए व्याख्यान मालाएँ, रेडियो, टेलीविजन, पत्र-पत्रिकाओं आदि का सहारा लिया जा सकता है।
(viii) परिवार नियोजन सम्बन्धी कार्य – राज्य को जनसंख्या को सीमित करने के लिए परिवार नियोजन कार्यक्रम की आम जनता तक पहुँच सुनिश्चित करनी चाहिए।
(ix) आर्थिक सुरक्षा – राज्य सभी व्यक्तियों की आर्थिक सुरक्षा हेतु रोजगार की व्यवस्था करे तथा ऐसा न कर पाने पर उनके लिए जीवन निर्वाह भत्ते का प्रबन्ध करे।
प्रश्न 3.
राज्य के गाँधीवादी स्वरूप पर एक लेख लिखिए।
उत्तर:
राज्य का गाँधीवादी स्वरूप राज्य के सम्बन्ध में गाँधी जी के प्रमुख विचार निम्नलिखित हैं
(1) राज्य संगठित हिंसा का प्रतीक है – गाँधीजी राज्य की आलोचना करते थे। उनके अनुसार राज्य संगठित हिंसा का प्रतीक है। यह दमनकारी शक्ति के द्वारा व्यक्ति के आचरण पर नियन्त्रण स्थापित करके मनुष्य की आत्मा का बलपूर्वक हनन करता है। गाँधीजी के अनुसार राज्य एक अनावश्यक बुराई है।
(2) राज्य की सम्प्रभुता हिंसा का दूसरा नाम है – गाँधीजी राज्य की दमनकारी शक्ति संरचना के घोर विरोधी थे। उनका मत था कि राज्य की सम्प्रभु शक्ति हिंसा का ही दूसरा नाम है। राज्य की सम्प्रभुता का समर्थन अपनी नियति को स्वयं निर्धारित करने के मनुष्य के नैतिक अधिकार का स्पष्ट निषेध है अत: गाँधीजी राज्य की सत्ता को किसी भी अर्थ में वैध नहीं मानते।
वे राज्य की सत्ता के प्रति समर्पण को पाप की संज्ञा देते हैं। उनके अनुसार संगठित हिंसा पर आधारित राजकीय आदेशों को कानून की संज्ञा देना, प्रेम और अहिंसा के बल के शाश्वत महत्त्व का अवमूल्यन करना है।
(3) त्रि – स्तरीय व्यवस्थ – गाँधीजी ने अन्तिम साध्य के रूप में एक राज्यविहीन समाज’ की कल्पना की, लेकिन यह भी स्वीकार किया कि राज्यविहीन समाज की स्थापना एक अत्यन्त कठिन कार्य है। अतः उन्होंने ‘विकेन्द्रित ग्राम एवं राज्य के रूप में राजनीतिक व्यवस्था का उप आदर्श प्रतिपादित किया।
लेकिन इसकी स्थापना के लिए समयबद्ध कार्यक्रम की आवश्यकता थी। अतः तात्कालिक सुधारवादी आदर्श के रूप में एक ‘अहिंसक लोकतन्त्र’ की परिकल्पना की। इस प्रकार गाँधीजी के आदर्श राजनीतिक व्यवस्था के तीन प्रतिमान हैं
(i) आदर्श राजनीतिक व्यवस्था: राज्यविहीन समाज – गाँधीजी ने इसे ‘रामराज्य’ की भी संज्ञा दी हैं लेकिन उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि वह रामराज्य ‘हिन्दू राज्य’ का पर्यायवाची नहीं है, बल्कि यह एक पवित्र व्यवस्था की ओर संकेत करता है जिसमें व्यक्ति की अन्तरात्मा पर बाह्य नियन्त्रण पूर्णतः समाप्त कर दिए जाएँ। इस व्यवस्था को गाँधीजी ने ‘प्रबुद्ध अराजकता’ का नाम दिया।
(ii) उप आदर्श: विकेन्द्रीकृत ग्राम स्वराज्य – गाँधीजी ने राजनीतिक शक्ति के केन्द्रीकरण को हिंसा की संज्ञा दी। उन्होंने प्रतिपादित किया कि एक विकेन्द्रीकृत राजनीतिक प्रणाली ही अहिंसा के आदर्श के अनुरूप मानी जा सकती है। गाँधीजी ने ग्राम को राजनीतिक इकाई बनाने पर बल दिया।
(iii) अहिंसक लोकतन्त्र की धारणा: तात्कालिक सुधारवादी प्रतिमान – गाँधीजी के अहिंसक लोकतन्त्र की धारणा, एक ऐसी स्थिति पर बल देती है। जिसमें राज्य के मौजूद ढाँचे को स्थापित रखते हुए उसके स्वरूप और उद्देश्यों में क्रान्तिकारी परिवर्तन कर दिये जायेंगे।
अहिंसक लोकतन्त्र में विकेन्द्रीकरण, सत्य और अहिंसा शासन के निर्देशक सूत्र होंगे। निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि गाँधीजी के अनुसार रामराज्य तथा उप आदर्श विकेन्द्रीकृत ग्राम स्वराज्य की तत्काल प्राप्ति संम्भव न होने के कारण उन्होंने तात्कालिक सुधार के रूप में अहिंसक लोकतन्त्र का प्रतिमान रखा।
प्रश्न 4.
राज्य के अनिवार्य और आवश्यक (ऐच्छिक) कार्यों में क्या भेद हैं?
राज्य के अनिवार्य और ऐच्छिक कार्यों में भेद:
उत्तर:
अनिवार्य कार्य |
आवश्यक (ऐच्छिक) कार्य |
1.राज्य के अनिवार्य कार्यों से आशय उन कार्यों से है। उन जिनको करना प्रत्येक सरकार के लिए अत्यावश्यक हो। अर्थात् जिनके न करने से राज्य का अस्तित्व ही खतरे में पड़ सकता है। | 1.राज्य के आवश्यक (ऐच्छिक) कार्यों से आशय कार्यों से है जो राज्य के अस्तित्व और व्यक्ति की स्वतन्त्रता तथा सुरक्षा के लिए अनिवार्य नहीं होते हैं। ये कार्य देश, काल एवं परिस्थिति के अनुसार बदलते रहते हैं। इन कार्यों को राज्य के लोक कल्याणकारी कार्यों के नाम से जाना जाता है। सामाजिक कल्याण की भावना से इन कार्यों में स्वतः ही वृद्धि होती रहती है। |
2. राज्य के अनिवार्य कार्य हैं | 2. राज्य के ऐच्छिक कार्य हैं |
(i) बाह्य आक्रमणों से देश की रक्षा करना। | (i) सामान्य जनता की शिक्षा की व्यवस्था करना। |
(ii) आन्तरिक शान्ति और व्यवस्था की स्थापना करना। | (ii) सफाई एवं सार्वजनिक स्वास्थ्य की व्यवस्था करना। |
(iii) राजस्व एकत्रित करना। | (iii) व्यापार एवं उद्योगों पर यथोचित नियन्त्रण रखना। |
(iv) राज्य द्वारा अपराध एवं दण्ड सम्बन्धी नियमों का | (iv) सार्वजनिक महत्त्व के उद्योगों का संचालन करना। निर्माण करना। |
(v) न्याय का समुचित प्रबन्ध व व्यवस्था करना। | (v) राज्य के नागरिकों के मनोरंजन हेतु पार्को, आकाशवाणी, चलचित्र एवं वाचनालयों आदि की व्यवस्था करना। |
(vi) विधि निर्माण करना। विधियों के द्वारा ही राज्य | (vi) सामाजिक कुरीतियों का समापन कर मनुष्यों को अपनी सम्प्रभुता को यथार्थ रूप प्रदान करता है। सर्वांगीण विकास के अवसर प्रदान करना। |
(vii) अन्य राज्यों के साथ सम्बन्ध स्थापित करना तथा | (vii) आम जनता के परिवहन हेतु यातायात के साधनों अन्तर्राष्ट्रीय सन्धियाँ करना। की व्यवस्था करना। |
RBSE Class 11 Political Science Chapter 6 वस्तुनिष्ठ प्रश्न
प्रश्न 1.
‘राज्य एक आवश्यक बुराई है’ यह कथन किस विचारधारा से सम्बन्धित है ?
(अ) व्यक्तिवाद
(ब) पूँजीवाद
(स) समाजवाद
(द) लोक कल्याणकारी।
उत्तर:
(अ) व्यक्तिवाद.
प्रश्न 2.
गाँधी ने आदर्श राज्य व्यवस्था को नाम दिया है
(अ) विकेन्द्रित ग्राम स्वराज्य
(ब) अहिंसक लोकतन्त्र
(स) रामराज्य
(६) लोकतन्त्र
उत्तर:
(स) रामराज्य
प्रश्न 3.
निम्नांकित में से कौन-सी राज्य की सीमा नहीं है?
(अ) नैतिकता
(ब) परम्परा
(स) रीति-रिवाज
(द) औचित्यपूर्णता
उत्तर:
(द) औचित्यपूर्णता
प्रश्न 4.
निम्न में से कौन-सा उद्देश्य लोक कल्याणकारी राज्य का नहीं है?
(अ) आर्थिक सुरक्षा
(ब) सामाजिक सुरक्षा
(स) राजनीतिक न्याय
(द) जनमत का उल्लंघन
उत्तर:
(द) जनमत का उल्लंघन
प्रश्न 5.
निम्न में से कौन-सा लक्षण कल्याणकारी राज्य से सम्बन्धित नहीं है?
(अ) लोकतन्त्रीय शासन
(ब) सामाजिक न्याय
(स) सामाजिक सुरक्षा
(द) राज्यविहीन व्यवस्था
उत्तर:
(द) राज्यविहीन व्यवस्था
प्रश्न 6.
निम्न में से कौन – सा राज्य का अनिवार्य कार्य है?
(अ) विदेशी आक्रमणों से रक्षा।
(ब) स्वास्थ्य सुविधाएँ उपलब्ध कराना
(स) शिक्षा का विस्तार
(द) कृषि की उन्नति
उत्तर:
(अ) विदेशी आक्रमणों से रक्षा
प्रश्न 7.
निम्न में से कौन – सा राज्य का ऐच्छिक कार्य है?
(अ) शान्ति व्यवस्था बनाए रखना
(ब) विदेशी आक्रमणों से रक्षा
(स) न्याय प्रबन्ध करना
(द) बैंकिंग सुविधाएँ उपलब्ध कराना
उत्तर:
(द) बैंकिंग सुविधाएँ उपलब्ध कराना
RBSE Class 11 Political Science Chapter 6 अन्य महत्त्वपूर्ण प्रश्नोत्तर
RBSE Class 11 Political Science Chapter 6 वस्तुनिष्ठ प्रश्न
प्रश्न 1.
एडम स्मिथ के अनुसार राज्य का उद्देश्य है
(अ) विदेशी आक्रमणों अथवा आन्तरिक हिंसा से बचाव
(ब) व्यक्ति की अन्याय एवं दूसरे सदस्यों के अत्याचारों से रक्षा
(स) जन संस्थाओं का निर्माण करना
(द) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(द) उपर्युक्त सभी
प्रश्न 2.
निम्न में से राज्य को साध्य मानने वाले विचारक हैं
(अ) प्लेटो
(ब) अरस्तू
(स) हीगल
(द) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(द) उपर्युक्त सभी
प्रश्न 3.
“राज्य वृक्षों या चट्टानों से उत्पन्न नहीं होते। ये उन व्यक्तियों के चरित्र से उत्पन्न होते हैं जो उसमें निवास करते हैं।” यह कथन किस विद्वान का है?
(अ) प्लेटो
(ब) अरस्तू
(स) हीगल
(द) बोसांके
उत्तर:
(अ) प्लेटो
प्रश्न 4.
यह कथन किसका है-“राज्य का उद्भव जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए हुआ है तथा वह अच्छे जीवन के लिए विद्यमान है।”
(अ) हर्बर्ट स्पेंसर का
(ब) ब्लंटशाली का
(स) हीगल का
(द) अरस्तू का
उत्तर:
(द) अरस्तू का
प्रश्न 5.
“राज्य व्यक्तियों की यथार्थ इच्छा का प्रतीक है।” इस कथन का सम्बन्ध है
(अ) आदर्शवादियों से
(ब) अराजकतावादियों से
(स) व्यक्तिवादियों से
(द) हस्तक्षेपवादियों से।
उत्तर:
(अ) आदर्शवादियों से
प्रश्न 6.
“सब कुछ राज्य के लिए, राज्य के विरुद्ध कुछ नहीं।” यह मानते हैं
(अ) व्यक्तिवादी
(ब) बहुलवादी
(स) फासीवादी
(द) अराजकतावादी।
उत्तर:
(स) फासीवादी
प्रश्न 7.
अहस्तक्षेपवादी सिद्धान्त के अनुसार राज्य
(अ) राज्य साधन है व्यक्ति साध्य है।
(ब) साधन और साध्य दोनों है।
(स) राज्य साध्य है, व्यक्ति साधन है।
(द) न साध्य है और न साधने
उत्तर:
(अ) राज्य साधन है व्यक्ति साध्य है।
प्रश्न 8.
“राज्य एक आवश्यक बुराई है।” इस कथन का सम्बन्ध है
(अ) लोकतन्त्रवादी राज्य की अवधारणा से
(ब) गाँधीवाद से
(स) अहस्तक्षेपवादी सिद्धान्त से
(द) उपर्युक्त सभी से
उत्तर:
(स) अहस्तक्षेपवादी सिद्धान्त से
प्रश्न 9.
“वह सरकार श्रेष्ठ है, जो न्यूनतम शासन करती” है। राज्य के कार्यक्षेत्र के सम्बन्ध में जिस विचारधारा ने इस मत का प्रतिपादन किया है, वह है
(अ) गाँधीवादी विचारधारा
(ब) लोक कल्याणकारी विचारधारा
(स) अहस्तक्षेपवादी विचारधारा
(द) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(स) अहस्तक्षेपवादी विचारधारा
प्रश्न 10.
व्यक्ति को अधिकतम स्वतन्त्रता देने का पक्षधर सिद्धान्त है
(अ) गाँधीवाद
(ब) लोक कल्याणकारी सिद्धान्त
(स) अहस्तक्षेपवाद
(द) साम्यवाद
उत्तर:
(स) अहस्तक्षेपवाद
प्रश्न 11.
निम्न में से किस विद्वान ने प्राणी विज्ञान से नई धारणाएँ लेकर अहस्तक्षेपवाद का समर्थन किया
(अ) हर्बर्ट स्पेंसर
(ब) एडम स्मिथ
(स) रिकार्डो
(द) माल्थस
उत्तर:
(अ) हर्बर्ट स्पेंसर
प्रश्न 12.
सर्वप्रथम किस राज्य ने मजदूरों के हितों के लिए कानून बनाए-
(अ) जर्मनी
(ब) इंग्लैण्ड
(स) भारत
(द) फ्रांस
उत्तर:
(ब) इंग्लैण्ड
प्रश्न 13.
निम्न में से किस वर्ष कार्ल मार्क्स और ऐंजिल ने साम्यवादी घोषणा पत्र ‘ प्रकाशित किया
(अ) वर्ष 1856
(ब) वर्ष 1947
(स) वर्ष 1948
(द) वर्ष 1917
उत्तर:
(स) वर्ष 1948
प्रश्न 14.
कल्याणकारी राज्य का लक्षण है-
(अ) लोकतन्त्रीय शासन
(ब) आर्थिक न्याय को सुनिश्चित करना
(स) सामाजिक सुरक्षा
(द) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(द) उपर्युक्त सभी
प्रश्न 15.
लोककल्याणकारी राज्य के नागरिकों का कर्तव्य नहीं है
(अ) राज्य के प्रति निष्ठा रखना
(ब) राज्य की आज्ञा पालन करना
(स) राज्य को कर अदा करना
(द) समाज सेवा से दूर हटना
उत्तर:
(द) समाज सेवा से दूर हटना
प्रश्न 16.
आधुनिक राज्य की दमनकारी शक्ति संरचना के घोर विरोधी थे\
(अ) महात्मा गाँधी
(ब) गार्नर
(स) हीगल
(द) हर्बर्ट स्पेंसर
उत्तर:
(अ) महात्मा गाँधी
प्रश्न 17.
निम्न में से किस राजनीतिक विचारक ने ‘अहिंसक लोकतन्त्र’ की कल्पना की
(अ) जवाहरलाल नेहरू
(ब) लेनिन
(स) महात्मा गाँधी
(द) कार्ल मार्क्स
उत्तर:
(स) महात्मा गाँधी
प्रश्न 18.
राज्यहीन समाज को गाँधीजी ने नाम दिया.
(अ) रामराज्य
(ब) उदारवादी राज्य
(स) लोकतन्त्र
(द) मार्क्सवाद।
उत्तर:
(अ) रामराज्य
प्रश्न 19.
निम्न में से भारत के किस स्वतन्त्रता सेनानी ने राजनीतिक शक्ति के केन्द्रीकरण को हिंसा की संज्ञा दी
(अ) बाल गंगाधर तिलक
(ब) महात्मा गाँधी
(स) गोपाल कृष्णा गोखले
(द) भगत सिंह
उत्तर:
(ब) महात्मा गाँधी
प्रश्न 20.
राज्य की सीमा है
(अ) लोकमत
(ब) धर्म
(स) नैतिकता
(द) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(ब) धर्म
RBSE Class 11 Political Science Chapter 6 अति लघूत्तरात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
अरस्तु के अनुसार राज्य को परिभाषित कीजिए।
उत्तर:
अरस्तु के अनुसार, “राज्य परिवारों तथा ग्रामों का एक संघ होता” है। जिसका उद्देश्य एक पूर्ण एवं आत्मनिर्भर जीवन की स्थापना है, जिससे हमारा अभिप्राय सुखी और सम्मानीय जीवन से है।”
प्रश्न 2.
एडम स्मिथ के अनुसार राज्य के तीन उद्देश्य कौन से हैं?
उत्तर:
- राज्य का विदेशी आक्रमणों अथवा आन्तरिक हिंसा से बचाव करना।
- व्यक्ति की अन्याय एवं दूसरे सदस्यों के अत्याचारों से रक्षा करना।
- विभिन्न कार्यों तथा जन संस्थाओं का निर्माण करना एवं उन्हें बनाये रखना।
प्रश्न 3.
गिर्डिस के अनुसार राज्य का उद्देश्य बताइए।
उत्तर:
गिर्डिस के अनुसार, राज्य का उद्देश्य ऐसा वातावरण बनाए रखना है, जिससे समस्त प्रजाजन सर्वोच्च एवं आत्मनिर्भर जीवन व्यतीत कर सके।
प्रश्न 4.
गार्नर के अनुसार राज्य का उद्देश्य क्या है?
उत्तर:
गार्नर के अनुसार, राज्य का उद्देश्य व्यक्ति का हित – साधन है, राष्ट्र का हित साधन एवं मानव सभ्यता का .विकास करना है।
प्रश्न 5.
राज्य के विषय में फासीवादियों का क्या विचार है?
उत्तर:
राज्य के विषय में फासीवादी मानते हैं कि सब कुछ राज्य के लिए है, राज्य के विरुद्ध कुछ नहीं है।
प्रश्न 6.
राज्य के सन्दर्भ में व्यक्तिवादी विचारकों का क्या मत है?
उत्तर:
राज्य के सन्दर्भ में व्यक्तिवादी विचारक राज्य के अस्तित्व को तो स्वीकार करते हैं किन्तु राज्य को साध्य नहीं मानते हैं।
प्रश्न 7.
राज्य को आवश्यक बुराई मानने वाले किन्हीं दो विचारकों का नाम लिखिए।
उत्तर:
- जे. एस. मिल
- हर्बर्ट स्पेंसर।
प्रश्न 8.
व्यक्ति का कल्याण राज्य की सत्ता की समाप्ति में निहित है। ये किस विचारधारा का प्रतीक है?
उत्तर:
अराजकतावादी विचारधारा का।
प्रश्न 9.
“राज्य अनावश्यक, अवांछनीय एवं अस्वाभाविक संस्था है।” यह कथन किस राजनीतिक विचारधारा से सम्बन्ध रखता है?
उत्तर:
अराजकतावादी विचारधारा से।
प्रश्न 10.
यह किस विद्वान का कथन है कि “राज्य एक साधन भी है और साध्य भी।”
उत्तर:
ब्लंटशली का
प्रश्न 11.
आधुनिक राज्य के कोई दो अनिवार्य कार्य बताइए
उत्तर:
- बाह्य आक्रमणों से देश की रक्षा करना
- विदेशी राज्यों के साथ सम्बन्ध स्थापित करना
प्रश्न 12.
आधुनिक राज्य के कोई दो कार्य बताइए।
उत्तर:
- शिक्षा की व्यवस्था करना
- सफाई और सार्वजनिक स्वास्थ्य की व्यवस्था करना।
प्रश्न 13.
अहस्तक्षेपवादी विचारधारा का क्या उद्देश्य है?
उत्तर:
राज्य के कार्यक्षेत्र को सीमित करना
प्रश्न 14.
अहस्तक्षेपवाद का क्या अर्थ है?
उत्तर:
अहस्तक्षेपवाद का अर्थ है – व्यक्ति को अपनी इच्छानुसार कार्य करने दिया जाए क्योंकि वह अपने व्यक्तिगत हितों का सर्वोत्तम संरक्षक है। यह व्यक्ति की प्रधानता को स्वीकार करता है और व्यक्ति को अधिकतम स्वतन्त्रता देने का पक्षधर है।
प्रश्न 15.
‘लैसेफेयर’ सिद्धान्त का मूलमन्त्र क्या है?
उत्तर:
‘लैसेफेयर’ सिद्धान्त का मूलमन्त्र है कि “व्यक्ति राज्य के लिए नहीं है अपितु राज्य व्यक्ति के लिए है।”
प्रश्न 16.
अहस्तक्षेपवाद के प्रवर्तक कौन हैं?
उत्तर:
- बेन्थम
- जेम्स मिल
प्रश्न 17.
व्यक्तिवाद का प्रारम्भिक उद्देश्य क्या था?
उत्तर:
राज्य का आर्थिक जीवन में हस्तक्षेप का विरोध करना।
प्रश्न 18.
राजनीतिक विचारधारा के रूप में व्यक्तिवाद के संस्थापक कौन हैं?
उत्तर:
- बेन्थम
- जेम्स मिल
- स्पेंसर।
प्रश्न 19.
व्यक्तिवाद के सन्दर्भ में जेम्स मिल का सिद्धान्त क्या है?
उत्तर:
जेम्स मिल का सिद्धान्त है कि यदि राज्य व्यक्तियों के मामलों में न्यूनतम हस्तक्षेप करे, तो वह व्यक्ति को अधिकतम सुख दे सकता है।
प्रश्न 20.
अहस्तक्षेपवादी राज्य के कोई दो मूल सिद्धान्त लिखिए।
उत्तर:
- राज्य एक आवश्यक बुराई है
- व्यक्ति की पूर्ण स्वतन्त्रता।
प्रश्न 21.
न्यूनतम शासन और अधिकाधिक स्वतन्त्रता किस विचारधारा को प्रतीक है?
उत्तर:
अहस्तक्षेपवादी विचारधारा का।
प्रश्न 22.
अहस्तक्षेपवादी राज्य को एक आवश्यक बुराई क्यों मानते हैं?
उत्तर:
क्योंकि व्यक्ति की स्वतन्त्रताओं में राज्य द्वारा हस्तक्षेप करने से उसका चहुमुंखी विकास बाधित होता है।
प्रश्न 23.
“वही सरकार सबसे अच्छी है, जो कम-से-कम शासन करती है।” यह किस राजनीतिक विचारक का कथन है?
उत्तर:
फ्रीमैन का।
प्रश्न 24.
अहस्तक्षेपवादी राज्य के समर्थन में आर्थिक तर्क देने वाले किन्हीं दो विद्वानों के नाम बताइए।
उत्तर:
- एडम स्मिथ
- माल्थस।
प्रश्न 25.
अहस्तक्षेपवादी राज्य के समर्थन में क्या आर्थिक तर्क देते हैं?
उत्तर:
- प्रत्येक मनुष्य अपने लाभ – हानि को अच्छी तरह समझता है।
- आर्थिक विकास के लिए राज्य का आर्थिक क्षेत्र में नियन्त्रण नहीं होना चाहिए।
- राज्य का हस्तक्षेप होने पर व्यक्ति के कार्य करने का उत्साह एवं प्रेरणा शिथिल पड़ जाती है।
प्रश्न 26.
अहस्तक्षेपवादी व्यक्तिवाद के समर्थन में क्या नैतिक तर्क देते हैं?
उत्तर:
अहस्तक्षेपवादी व्यक्तिवाद के समर्थन में यह नैतिक तर्क देते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति का अपना अलग व्यक्तित्व होता है। अतः राज्य का दायित्व है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपने तरीके से अपने व्यक्तित्व का विकास करने दिया जाए।
प्रश्न 27.
अहस्तक्षेपवादी राज्य के विरोध में कोई तर्क दीजिए।
उत्तर:
- व्यक्ति सदैव अपने हित का सर्वोत्तम निर्णायक नहीं होता।
- राज्य कल्याणकारी संस्था है।
प्रश्न 28.
वर्तमान युग में कौन – कौन – सी धारणाएँ अहस्तक्षेपवादी राज्य का परिष्कृत स्वरूप हैं?
उत्तर:
- उदारीकरण
- निजीकरण
- वैश्वीकरण
प्रश्न 29.
लोक कल्याणकारी राज्य की एक परिभाषा दीजिए।
उत्तर:
डॉ. अब्राहम के अनुसार, “कल्याणकारी राज्य। अपनी आर्थिक व्यवस्था का संचालन आय के अधिकाधिक समान वितरण के उद्देश्य से करता है।”
प्रश्न 30.
राज्य के कार्यक्षेत्र का एक आधुनिक सिद्धान्त का नाम बताइए।
उत्तर:
लोक कल्याणकारी राज्य की अवधारणा।
प्रश्न 31.
लोक कल्याणकारी राज्य की धारणा किसका मिश्रण है?
उत्तर:
लोक कल्याणकारी राज्य की धारणा व्यक्तिवाद और समाजवाद का मिश्रण है।
प्रश्न 32.
लोक कल्याणकारी राज्य का एक उद्देश्य बताइए।
उत्तर:
राज्य के कार्यक्षेत्र के विस्तार से व्यक्ति की स्वतन्त्रताओं को सुनिश्चित करना।
प्रश्न 33.
लोक कल्याणकारी राज्य की अवधारणा के विकास में किस देश का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है?
उत्तर:
इंग्लैण्ड का।
प्रश्न 34.
किन – किन विद्वानों के उपयोगितावादी चिन्तन में कल्याणकारी राज्य को दर्शन सम्मिलित है?
उत्तर:
- बेन्थम,
- जे. एस. मिल।
प्रश्न 35.
कल्याणकारी राज्य की अवधारणा के विकास में कहाँ के फेबियन सामाजिक दार्शनिकों ने परोक्ष रूप से योगदान दिया?
उत्तर:
इंग्लैण्ड के।
प्रश्न 36.
लोक कल्याणकारी राज्य के प्रमुख प्रतिपादक कौन हैं?
उत्तर:
हेराल्ड लास्की।
प्रश्न 37.
लोक कल्याणकारी राज्य की धारणा के उदय के कोई दो कारण बताइए।
उत्तर:
- व्यक्तिवाद के विरुद्ध प्रतिक्रिया
- माक्र्सवादी साम्यवाद के प्रभाव का भय।
प्रश्न 38.
गार्नर के अनुसार लोक कल्याणकारी राज्य का क्या उद्देश्य है?
उत्तर:
गार्नर के अनुसार, लोक कल्याणकारी का उद्देश्य राष्ट्रीय जीवन, राष्ट्रीयता एवं जीवन के अभौतिक व नैतिक तत्वों का विकास करना है।
प्रश्न 39.
कौन – सा राज्य ऐसी परिस्थितियों का निर्माण करता है जिनमें प्रत्येक व्यक्ति के व्यक्तित्व को स्वस्थ रूप से सर्वांगीण विकास सम्भव होता है?
उत्तर:
लोक कल्याणकारी राज्य।
प्रश्न 40.
लोक कल्याणकारी राज्य के कोई दो लक्षण (विशेषताएँ बताइए।
उत्तर:
- लोकतान्त्रिक शासन व्यवस्था का होना
- अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग की भावना।।
प्रश्न 41.
लोक कल्याणकारी राज्य आर्थिक न्याय को किस प्रकार सुनिश्चित करता है?
उत्तर:
लोक कल्याणकारी राज्य समाज में विद्यमान सामाजिक एवं आर्थिक विषमताओं को धनिक वर्ग की आय पर अधिक कर लगाकर कम करने का प्रयत्न करता है।
प्रश्न 42.
व्यक्तिवाद और समाजवाद के मध्य सामंजस्य स्थापित करने का कार्य कौन – सा राज्य करता है?
उत्तर:
लोक कल्याणकारी राज्य।
प्रश्न 43.
लोक कल्याणकारी राज्य के कार्यों को कितने भागों में बाँटा जा सकता है?
उत्तर:
- अनिवार्य कार्य
- ऐच्छिक कार्य।
प्रश्न 44.
लोक कल्याणकारी राज्य के कोई दो ऐच्छिक कार्य लिखिए।
उत्तर:
- समाज सुधार
- स्वास्थ्य रक्षा।
प्रश्न 45.
राज्य का क्या कर्तव्य है?
उत्तर:
अपने नागरिकों हेतु उन समस्त सुविधाओं को उपलब्ध कराना जिनके माध्यम से उनकी भलाई व उन्नति सम्भव हो सके।
प्रश्न 46.
लोक कल्याणकारी राज्य की कोई दो आलोचनाएँ लिखिए।
उत्तर:
- व्यक्ति की स्वतन्त्रता का सीमित होना
- राज्य की बाध्यकारी शक्ति का प्रयोग।
प्रश्न 47.
किस भारतीय राजनीतिक विचारक ने राज्य की आलोचना की है?
उत्तर:
महात्मा गाँधी ने।
प्रश्न 48.
गाँधीजी ने राज्य की आलोचना क्यों की?
उत्तर:
गाँधीजी मानते थे कि राज्य किसी नैतिक उद्देश्य की पूर्ति नहीं करता, यह संगठित हिंसा का प्रतीक है। यह दमनकारी शक्ति के माध्यम से व्यक्ति के आचरण पर नियन्त्रण स्थापित करके मनुष्य की आत्मा का बलपूर्वक हनन करता है।
प्रश्न 49.
आदर्श राजनीतिक व्यवस्था के सम्बन्ध में गाँधीजी के तीन प्रतिमान कौन – कौन से हैं?
उत्तर:
- राज्यहीन समाज
- विकेन्द्रीकृत ग्राम स्वराज्य
- अहिंसक लोकतन्त्र।
प्रश्न 50.
किस विचारधारा ने आत्मनिर्भर गाँवों की कल्पना की है?
उत्तर:
गाँधीवादी विचारधारा ने।
प्रश्न 51.
तात्कालिक राजनीतिक आदर्श के रूप में गाँधीजी ने किसकी कल्पना की?
उत्तर:
अहिंसक लोकतन्त्र की।
प्रश्न 52.
गाँधीजी के राजनैतिक दर्शन का क्या लक्ष्य है?
उत्तर:
मानव की परिपूर्णता को सुनिश्चित करना।
RBSE Class 11 Political Science Chapter 6 लघूत्तरात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
राज्य के अनिवार्य कार्यों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
राज्य के अनिवार्य कार्य – अनिवार्य कार्यों से आशय उन कार्यों से है। जिनको करना प्रत्येक सरकार के लिए अति आवश्यक हो अर्थात् जिनके न करने से राज्य का अस्तित्व ही खतरे में पड़ सकता है। राज्य के अनिवार्य कार्य निम्नलिखित हैं
- बाह्य आक्रमणों से देश की रक्षा करना
- आन्तरिक शान्ति और व्यवस्था बनाए रखना
- राज्य द्वारा अपराध तथा दण्ड सम्बन्धी नियमों का निर्माण और न्याय का समुचित प्रबन्ध व व्यवस्था करना।
- विधि निर्माण करना, क्योंकि विधियों के द्वारा ही राज्य अपनी सम्प्रभुता को यथार्थ रूप प्रदान करता है।
- राजस्व एकत्रित करना
प्रश्न 2.
आधुनिक राज्य के किन्हीं चार ऐच्छिक कार्यों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
आधुनिक राज्य के ऐच्छिक कार्य-आधुनिक राज्य के चार प्रमुख ऐच्छिक कार्य निम्नलिखित हैं
- शिक्षा की व्यवस्था करना – एक अच्छे राज्य में जन साधारण में शिक्षा और राजनैतिक चेतना होनी चाहिए। अतः राज्य का यह कर्तव्य है कि वह सामान्य जनता की शिक्षा का उचित प्रबन्ध करे।
- सफाई और सार्वजनिक स्वास्थ्य – राज्य को बीमारी की रोकथाम तथा चिकित्सालयों की व्यवस्था करनी चाहिए। स्वास्थ्य की दृष्टि से उसे खाने – पीने की वस्तुओं को शुद्ध रखने का भी प्रयास करना चाहिए।
- व्यापार एवं उद्योग पर नियन्त्रण – राज्य को व्यापार और उद्योग पर पर्याप्त नियन्त्रण रखनी चाहिए, ताकि व्यापारियों की अधिकतम भलाई और देश की प्रगति हो। उद्योग के सम्बन्ध में कानून बनाते समय राज्य को इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि श्रमिकों के साथ किसी भी प्रकार का अन्याय न हो।
- मनोरंजन की सुविधाएँ प्रदान करना – राज्य नागरिकों के मनोरंजन के लिए पार्को, आकाशवाणी केन्द्र चलचित्रालय, वाचनालय आदि की व्यवस्था करनी चाहिए।
प्रश्न 3.
राज्य के कार्यक्षेत्र सम्बन्धी अहस्तक्षेपवादी विचारधारा पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
राज्य के कार्यक्षेत्र सम्बन्धी अहस्तक्षेपवादी विचारधारा – हस्तक्षेपवाद का अर्थ है – व्यक्ति को अपनी इच्छा के अनुसार कार्य करने दिया जाए क्योंकि वह अपने व्यक्तिगत हितों का सर्वोत्तम रक्षक है। यह व्यक्ति की प्रधानता को स्वीकार करता है एवं व्यक्ति को अधिकतम स्वतन्त्रता देने का पक्षधर है।
अहस्तक्षेपवादी विचारधारा का उद्देश्य राज्य के कार्यक्षेत्र को सीमित करना है। इस सिद्धान्त को हस्तक्षेप न करने की नीति भी कहा गया है। यह सिद्धान्त व्यक्ति को अधिक महत्व प्रदान करता है। इस सिद्धान्त को मूल मन्त्र है कि व्यक्ति राज्य के लिए नहीं है; अपितु राज्य व्यक्ति के लिए है। राज्य तथा अन्य संस्थाओं का लक्ष्य व्यक्ति का विकास करना है, न कि व्यक्ति का उद्देश्य राज्य की सेवा करना।
राज्य को चाहिए कि वह व्यक्ति को अधिक – से – अधिक स्वतन्त्रता प्रदान करे तथा उसके कार्यों में कम – से – कम हस्तक्षेप करे। राजनीतिक दर्शन के रूप में यह विचारधारा 19वीं शताब्दी की देन है। इस विचारधारा का सर्वप्रथम प्रवर्तन बेन्थम व जेम्स मिल द्वारा किया गया। इसकी पूर्ण अभिव्यक्ति जॉन स्टुअर्ट एवं हर्बर्ट स्पेंसर ने की।
प्रश्न 4.
अहस्तक्षेपवादी व्यक्तिवाद के विकास को संक्षेप में समझाइए।
उत्तर:
अहस्तक्षेपवादी व्यक्तिवाद का विकास – अहस्तक्षेपवादी व्यक्तिवाद के विकास का क्रम निम्न प्रकार से है
- अहस्तक्षेपवादी व्यक्तिवाद के बीज यूनान के सोफिस्ट विचारकों में भी पाये जाते हैं। उन्होंने व्यक्ति को राज्य से श्रेष्ठ स्थान दिया।
- यूनान के एपीक्यूरियन दार्शनिकों के अनुसार व्यक्तिगत स्वार्थों से पृथक राज्य का कोई महत्त्व नहीं है।
- अठारहवीं सदी में औद्योगिक क्रान्ति के परिणामस्वरूप आर्थिक क्षेत्र में व्यक्तिवाद का विकास हुआ। थॉमस माल्थस, रिकार्डो, एडम स्मिथ आदि अर्थशास्त्रियों ने यह मत प्रतिपादित किया कि राज्य को आर्थिक क्षेत्र में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए।
- राजनीतिक दर्शन में आधुनिक काल में व्यक्तिवाद उन्नीसवीं शताब्दी की देन है। सर्वप्रथम बेंथम और जेम्स मिल ने इसका प्रवर्तन किया। इसकी पूर्ण अभिव्यक्ति उन्नीसवीं सदी के मध्य में जॉन स्टुअर्ट मिल एवं हर्बर्ट स्पेंसर की रचनाओं में मिलती है।
प्रश्न 5.
अहस्तक्षेपवादी राज्य के समर्थन में कोई दो तर्क दीजिए।
उत्तर:
अहस्तक्षेपवादी राज्य के समर्थन में तर्क – अहस्तक्षेपवादी राज्य के समर्थन में प्रमुख दो तर्क निम्नलिखित
हैं
(i) वैज्ञानिक तर्क – हर्बर्ट स्पेन्सर नामक वैज्ञानिक ने प्राणी विज्ञान से नई धारणाएँ लेकर अहस्तक्षेपवाद का समर्थन किया है। उनके अनुसार जीवन संघर्ष में जो व्यक्ति योग्य होते हैं। वे आगे बढ़ जाते हैं और अयोग्य एवं दुर्बल व्यक्ति नष्ट हो जाते हैं। यह प्रकृति का नियम है, जो समाज में लागू होना चाहिए तथा समाज में यह तभी लागू हो सकता है। जब हम व्यक्तियों को स्वतन्त्र छोड़ दें। इस सिद्धान्त के अनुसार राज्य को प्रत्येक व्यक्ति को स्वतन्त्रतापूर्वक अपनी विकास करने का अवसर प्रदान करना चाहिए।
(ii) आर्थिक तर्क – एडम स्मिथ, थॉमस, माल्थस, रिकार्डो तथा मिल आदि अर्थशास्त्रियों के अनुसार प्रत्येक मनुष्य अपने लाभ-हानि को अच्छी तरह समझता है। आर्थिक विकास के लिए राज्य का आर्थिक क्षेत्र में नियन्त्रण नहीं होना चाहिए। राज्य का हस्तक्षेप होने पर व्यक्ति के कार्य करने का उत्साह एवं प्रेरणा कमजोर पड़ जाती है। अतः सरकार को व्यापार के क्षेत्र में अहस्तक्षेप की नीति का पालन करना चाहिए।
प्रश्न 6.
अहस्तक्षेपवादी राज्य का महत्त्व बताइए।
उत्तर:
अहस्तक्षेपवादी राज्य का महत्त्व:
राजनीतिक दर्शन के रूप में अहस्तक्षेपवाद 19वीं शताब्दी की देन है। सर्वप्रथम बेन्थम एवं जेम्स मिल ने इसका प्रवर्तन किया। अहस्तक्षेपवादी राज्य का महत्त्व निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत प्रस्तुत है
- राज्य के अनावश्यक हस्तक्षेप को कम करने में अहस्तक्षेपवादी विचारधारा का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है।
- आधुनिक युग में विकसित उदारीकरण, निजीकरण एवं वैश्वीकरण की धारणाएँ राज्य के अहस्तक्षेपवादी स्वरूप को ही परिष्कृत स्वरूप है।
- ‘व्यक्ति साध्य है और राज्य साधन’ यह विचारधारा समस्त लोकतान्त्रिक देशों का मार्ग प्रशस्त करती रहेगी।
- राज्य की अहस्तक्षेपवादी धारणा के प्रतिक्रियास्वरूप समाजवादी एवं साम्यवादी विचारधाराओं का उदय हुआ और आज व्यक्तिवाद इतिहास का एक विषय बन गया है।
प्रश्न 7.
लोक कल्याणकारी राज्य की अवधारणा को बताईए।
उत्तर:
लोक कल्याणकारी राज्य की अवधारणा-यह राज्य के कार्यक्षेत्र का एक आधुनिक सिद्धान्त है। यह शब्द मुख्य रूप से उस राज्य के लिए अपनाया जाता है जो अपने नागरिकों के लिए मात्र न्याय, सुरक्षा तथा आन्तरिक व्यवस्था करके ही सन्तोष नहीं कर लेता, बल्कि उनके कल्याण की अभिवृद्धि के लिए जीवन के समस्त आयामों के विकास पर बेल देता है। लोक कल्याणकारी राज्य की धारणा व्यक्तिवाद तथा समाजवाद का मिश्रण है।
यह व्यक्तिवाद की तरह व्यक्ति की स्वतन्त्रता का अपहरण नहीं करती एवं समाजवाद की तरह अधिक से अधिक कार्यों का निष्पादन करती है। लोक कल्याणकारी राज्य की धारणा के पीछे यह उद्देश्य है कि व्यक्ति को सुखी एवं समृद्ध बनाया जाए और इस हेतु राज्य : द्वारा आवश्यक सेवा – कार्यों का निष्पादन किया जाए।
लोक कल्याणकारी राज्य की अवधारणा के विकास में इंग्लैण्ड का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। जे. एस. मिल और बेन्थम नामक राजनैतिक विचारकों के उपयोगितावादी चिन्तन में कल्याणकारी राज्य का दर्शन सम्मिलित है। इंग्लैण्ड की महारानी एलिजाबेथ प्रथम के समय जिस ‘निर्धन कानून’ का जन्म गरीबों एवं शारीरिक दृष्टि से अयोग्य व्यक्तियों को लाभ देने के लिए हुआ था, उसमें जनहित की भावना निहित थी।
इंग्लैण्ड के फेबियन समाजवादी दार्शनिकों ने कल्याणकारी राज्य की अवधारणा की प्रगति में परोक्ष रूप से योगदान दिया है। इंग्लैण्ड की मजदूर दल की सरकार ने उद्योगों के राष्ट्रीयकरण द्वारा अनेक प्रगतिशील नीतियाँ अपनायीं। आधुनिक युग में प्रो. हेराल्ड लास्की को कल्याणकारी राज्य की अवधारणा को प्रतिपादित करने वाले विचारकों में प्रमुख माना जाता है।
प्रश्न 8.
लोक कल्याणकारी राज्य की अवधारणा के उदय के कोई दो कारण लिखिए।
उत्तर:
लोक कल्याणकारी राज्य की अवधारणा के उदय के कारण: लोक कल्याणकारी राज्य की अवधारणा के उदय के कारण निम्नलिखित थे
(i) व्यक्तिवाद के विरुद्ध प्रतिक्रिया – व्यक्तिवादी सिद्धान्त के अनुसार राज्य के कार्यक्षेत्र को सीमित कर दिया गया था तथा राज्य ने अहस्तक्षेप की नीति अपना ली थी। इससे औद्योगिक क्रान्ति के युग में मजदूरों की दशा दयनीय हो गयी, उनका शोषण होने लगा। इसके विरुद्ध प्रतिक्रिया के रूप में लोक-कल्याणकारी विचारधारा का उदय हुआ।
(ii) मार्क्सवादी साम्यवाद के प्रभाव का भय – 1848 ई. में साम्यवादी घोषणा पत्र के प्रकाशन के बाद 1917 ई. में सोवियत रूस में साम्यवादी क्रान्ति हुई जिसने कार्ल मार्क्स की विचारधारा को ठोस आधार प्रदान किया। साम्यवाद के प्रसार को रोकने के लिए अब पाश्चात्य देशों ने पूँजीवादी लोकतान्त्रिक व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन करना प्रारम्भ कर दिया। इसके परिणामस्वरूपे, लोक कल्याणकारी अवधारणा का विकास हुआ।
प्रश्न 9.
लोक कल्याणकारी राज्य के प्रमुख उद्देश्यों को बताइए।
उत्तर:
लोक कल्याणकारी राज्य के प्रमुख उद्देश्य: लोक कल्याणकारी राज्य वह राज्य है जो राज्य द्वारा किये जाने वाले साधारण कार्यों के अतिरिक्त लोक कल्याणकारी गतिविधियाँ, जैसे – बेरोजगारी दूर करना, बीमा योजनाएँ, वृद्धावस्था पेंशन एवं अन्य सुरक्षा प्रदान करना आदि सम्पन्न करता है।
- लोक कल्याणकारी राज्य का उद्देश्य नागरिकों द्वारा वास्तविक स्वतन्त्रता के उपयोग को सम्भव बनाना है।
- राज्य के कार्यक्षेत्र के विस्तार से व्यक्ति की स्वतन्त्रताओं को सुनिश्चित करना।
- सभी नागरिकों को मूलभूत सुविधाएँ उपलब्ध करवाना।
- जनता के सभी वर्गों के कल्याण हेतु योजना बनाना।
- सामाजिक कार्यों को सम्पन्न करना आदि।
प्रश्न 10.
लोक कल्याणकारी राज्य के कोई दो लक्षण बताइए।
उत्तर:
लोक कल्याणकारी राज्य के लक्षण: लोक कल्याणकारी राज्य के दो प्रमुख लक्षण निम्नलिखित हैं
(i) सामाजिक न्याय – लोक कल्याणकारी राज्य समाज में मौजूद विभिन्न विषमताओं, कुरीतियों, अन्धविश्वासों को दूर कर समाज के पिछड़े व दलित वर्ग को सामान्य धारा में लाने का प्रयास करता है। वस्तुत: कल्याणकारी राज्य एक समाज-सेवी राज्य होता है। यह निरक्षरता एवं गरीबी को दूर करने के साथ-साथ आम जनता के लिए सड़क, पेयजल की व्यवस्था, आवास, बाग-बगीचा, अस्पताल, वाचनालय आदि की व्यवस्था करता है।
(ii) अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग की भावना-कल्याणकारी राज्य राष्ट्रीय सहयोग के साथ – साथ अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग की भावना भी रखता है। राष्ट्रीय लोक कल्याण के साधनों को स्थायी बनाने के लिए आवश्यक है कि किसी राज्य विशेष के हित साधन के साथ-साथ अन्तर्राष्ट्रीय हित साधन का भी ध्यान रखा जाये।
प्रश्न 11.
लोक कल्याणकारी राज्य के कोई चार ऐच्छिक कार्यों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
लोक कल्याणकारी राज्य के ऐच्छिक कार्य-ऐच्छिक कार्यों से आशय ऐसे कार्यों से है। जिन्हें राज्य द्वारा अपनी जनता की भलाई हेतु संचालित किया जाता है। लोक कल्याणकारी राज्य के चार प्रमुख ऐच्छिक कार्य निम्नलिखित हैं
- शिक्षा की व्यवस्था करना – लोक कल्याणकारी राज्य का दायित्व है कि वह अपने नागरिकों की शिक्षा की व्यवस्था करे। इस दृष्टि से उसे प्रारम्भिक शिक्षा, महिला एवं प्रौढ़ शिक्षा की व्यवस्था करनी चाहिए। राज्य के द्वारा वाचनालयों एवं पुस्तकालयों की व्यवस्था की जानी चाहिए।
- समाज सुधार – लोक कल्याणकारी राज्य मद्य निषेध, बाल – विवाहों की रोकथाम, छुआछूत, जाति-प्रथा आदि सामाजिक कुरीतियों की समाप्ति का प्रयास करता है।
- श्रम का नियमन – लोक कल्याणकारी राज्य श्रमिकों की दशा सुधारने के लिए प्रयत्नशील रहता है। वह उचित पारिश्रमिक, पेंशन, स्वास्थ्य, बीमा एवं शिक्षा, असहाय अवस्था में श्रमिकों की मदद आदि का प्रबन्ध करता है।
- परिवार नियोजन सम्बन्धी कार्य – कल्याणकारी राज्य को जनसंख्या सीमित करने का प्रयास करना चाहिए, जिससे वर्तमान जनसंख्या के जीवन स्तर को उन्नत किया जा सके। परिवार नियोजन कार्यक्रम का विस्तार करने के लिए लोगों की सुविधाएँ बढ़ायी जानी चाहिए।
प्रश्न 12.
लोक कल्याणकारी राज्य की आलोचना के कोई दो आधार लिखिए।
उत्तर:
लोक कल्याणकारी राज्य की आलोचना के आधार – लोक कल्याणकारी राज्य की आलोचना के दो आधार निम्नलिखित हैं
(1) व्यक्ति की स्वतन्त्रता का हनन होना – लोक कल्याणकारी राज्य की प्रणाली द्वारा व्यक्ति की स्वतन्त्रता का हनन होता है। यह इन कार्यों को केवल अपने ही नियन्त्रण तथा तत्वावधान में करता है। ऐसी परिस्थिति में राज्य की शक्ति में वृद्धि हो जाती है और व्यक्ति की स्वतन्त्रता सीमित हो जाती है। राज्य की बाध्यकारी शक्ति का उपयोग बढ़ जाता है और उसी अनुपात में व्यक्ति की स्वतन्त्रता भी कम हो जाती है।
(2) नौकरशाही का शक्तिशाली होना – लोक कल्याणकारी राज्य के अन्तर्गत अधिकांश कार्य नौकरशाही द्वारा किए जाते हैं। सरकार के कार्यों एवं दायित्वों में वृद्धि के कारण प्रशासन का ढाँचा बहुत विस्तृत हो जाता है तथा शासन की शक्ति सरकारी कर्मचारियों के हाथों में केन्द्रित हो जाती है जिससे नौकरशाही की निरंकुशता बढ़ने का भय रहता है। कई बार नौकरशाही अपने व्यक्तिगत स्वार्थों के लिए जन कल्याण की अनेक योजनाओं को असफल बना देती है।
प्रश्न 13.
राज्य सम्बन्धी गाँधीवादी धारणा को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
राज्य सम्बन्धी गाँधीवादी धारणा – महात्मा गाँधीजी भारत के महान स्वतन्त्रता सेनानी एवं राजनैतिक विचारक थे। उनके राज्य सम्बन्धी विचारों को गाँधीवाद के नाम से जाना जाता है। गाँधीजी के मतानुसार राज्य किसी भौतिक उद्देश्य की पूर्ति नहीं करता और वस्तुतः संगठित हिंसा का प्रतीक है। यह दमनकारी शक्ति द्वारा मनुष्य की आत्मा का बलपूर्वक हनन करता है। अतः राज्य न केवल एक बुराई, बल्कि अनावश्यक भी है। गाँधीजी के अनुसार राज्य व्यक्ति पर बाध्यकारी नियन्त्रणों के द्वारा उसकी स्वतन्त्र चेतना को प्रतिबन्धित कर देता है।
राज्य की सम्प्रभु शक्ति हिंसा का ही दूसरा नाम है और गाँधीजी प्रत्येक प्रकार की हिंसा का विरोध करते थे। उनके अनुसार संगठित हिंसा पर आधारित राजकीय आदेशों की कानून को संज्ञा देना, वास्तव में प्रेम तथा अहिंसा के बल के शाश्वत महत्व का अवमूल्यन करना है। गाँधीजी राज्य के विरोधी होते हुए भी यह स्वीकार करते थे कि राज्य की तत्काल समाप्ति सम्भव नहीं है। इसके अतिरिक्त उन्होंने ‘विकेन्द्रित ग्राम-स्वराज्य’ एवं ‘अहिंसक लोकतन्त्र’ के सुधारवादी आदर्श की कल्पना भी की थी।
प्रश्न 14.
आदर्श राजनीतिक व्यवस्था के सम्बन्ध में गाँधी जी के आदर्श व्यवस्था प्रतिमान को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
आदर्श राजनीतिक व्यवस्था के सम्बन्ध में गाँधीजी का आदर्श व्यवस्था प्रतिमान राज्यहीन समाज अथवा रामराज्य है। गाँधीजी ने यह स्पष्ट किया है कि यह रामराज्य ‘हिन्दू राज्य’ को पर्यायवाची नहीं है। बल्कि यह एक पवित्र व्यवस्था की ओर संकेत करता है जिसमें व्यक्ति की अन्तरात्मा पर बाह्य नियन्त्रण पूर्णत: समाप्त कर दिए जाएँ। इस व्यवस्था को गाँधीजी ने ‘प्रबुद्ध अराजकता’ का नाम दिया है।
गाँधीजी की मान्यता है कि जब व्यक्ति अपने जीवन में अहिंसा के आदर्श को पूर्णतः चरितार्थ कर लेगा और स्वार्थ को परम सत्य के प्रति समर्पित कर लेगा तो उसका उचित विवेक और जाग्रत अन्तरात्मा उसके समस्त व्यवहार को ऐसे नैतिक प्रभाव से ढक लेंगे कि उसके आचरण पर बाहरी नियन्त्रण की आवश्यकता ही नहीं रहेगी।
ऐसी अवस्था में व्यक्ति अपना शासक स्वयं हो जाएगा। गाँधीजी यह भी मानते थे कि इस प्रकार के राजनैतिक आदर्श को प्राप्त करना लगभग असम्भव प्रतीत होता है क्योंकि व्यक्ति मानव शरीर को धारण करने के पश्चात् अपने जीवन में अहिंसा के आदर्श को पूर्णत: ढोल नहीं सकता।
प्रश्न 15.
गाँधीजी के विकेन्द्रीकृत ग्राम स्वराज्य प्रतिमान को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
गाँधीजी ने विकेन्द्रीकृत ग्राम – कर स्वराज्य को स्पष्ट करते हुए बताया कि राजनैतिक शक्ति का केन्द्रीयकरण हिंसा के समान है। उन्होंने माना कि एक विकेन्द्रीकृत राजनीतिक प्रणाली अहिंसा के आदर्श के अनुरूप मानी जा सकती है। गाँधीजी ने ग्राम को राजनीतिक इकाई बनाने पर बल दिया। इस व्यवस्था का अर्थ यह नहीं है कि उस ग्राम का दूसरे ग्रामों से कोई सम्बन्ध ही नहीं होगा।
ये स्वायत्त, स्वशासी तथा आत्मनिर्भर ग्राम, अपनी उन आवश्यकताओं के लिए, जिनकी पूर्ति ग्राम में नहीं की जा सकती, उनकी पूर्ति दूसरे ग्रामों के सहयोग से करेंगे और दूसरे ग्रामों को ऐसा सहयोग उपलब्ध कराने के लिए हमेशा तत्पर रहेंगे। एक राष्ट्रीय राज्य के रूप में देश स्वतन्त्र गणराज्यों का एक संघ होगा। प्रत्येक ग्राम उसके निवासियों की इच्छा के अनुसार संगठित किया जायेगा। ग्राम, जिला प्रशासन के लिए प्रतिनिधियों का चुनाव करेंगे। इस चुनाव में प्रत्येक ग्राम का एक वोट होगा।
जिलों के प्रतिनिधि प्रान्तीय प्रशासन का निर्वाचन करेंगे और प्रान्तीय प्रतिनिधि राष्ट्रपति का निर्वाचन करेंगे जो कि राष्ट्र का मुख्य कार्यकारी होगा। गाँधीजी ने अनुभव किया विकेन्द्रीकृत ग्राम स्वराज्य की योजना को क्रियान्वित करना एक समय साध्य प्रक्रिया है। अतः उन्होंने तात्कालिक राजनीतिक आदर्श के रूप में ‘अहिंसक लोकतन्त्र’ की कल्पना की।
प्रश्न 16.
गाँधीजी की अहिंसक लोकतन्त्र की अवधारणा को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
गाँधीजी अहिंसा में विश्वास करते थे। वे देश में अहिंसा पर आधारित लोकतन्त्र की स्थापना करना चाहते थे। उनके अनुसार अहिंसक लोकतन्त्र में विकेन्द्रीकरण, सत्य और अहिंसात्मक शासन के निर्देशक सूत्र होगा। अहिंसक लोकतन्त्र अपने आप में कोई लक्ष्य नहीं है, बल्कि अन्तिम राजनीतिक लक्ष्य की प्राप्ति का प्रथम चरण है। वह ये स्वीकारते हैं कि इस व्यवस्था में राज्य के पूर्णतः अहिंसक होने की कल्पना नहीं कर सकते।
अहिंसक लोकतन्त्र में राज्य अहिंसा के प्रचार – प्रसार द्वारा जनता के जीवन में अहिंसा को प्रतिष्ठित करने के लिए प्रयत्नशील रहेगा। अहिंसक लोकतन्त्र में बल प्रयोग को न्यूनतम करने का प्रयत्न किया जायेगा। इस अवस्था में राज्य के लिए सेना एवं पुलिस की आवश्यकता होगी, जो जनता के सेवक के रूप में कार्य करेंगे। इन्हें अहिंसक आचरण करने हेतु राज्य द्वारा प्रशिक्षण दिया जायेगा । शान्तिकाल में यह दोनों रचनात्मक कार्यों का सम्पादन करेंगे।
RBSE Class 11 Political Science Chapter 6 निबन्धात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
राज्य के कार्यक्षेत्र सम्बन्धी विभिन्न राजनीतिक दृष्टिकोणों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
राज्य के कार्यक्षेत्र सम्बन्धी विभिन्न राजनीतिक दृष्टिकोण:
राज्य के कार्यक्षेत्र के विषय में अनेक राजनीतिक दृष्टिकोण विद्यमान हैं। कुछ राजनीतिक विचारधाराएँ राज्य को समस्त अधिकार प्रदान कर व्यक्ति को पूरी तरह उनके अधीन बना देती हैं। कुछ राजनीतिक विचारधाराएँ राज्य के कार्यक्षेत्र को सीमित कर व्यक्ति अधिकतम स्वतन्त्रताओं की पक्षधर हैं। राज्य के कार्य सम्बन्धी विभिन्न दृष्टिकोण निम्नलिखित हैं
(1) राज्य स्वयं में साध्य है एवं व्यक्ति साधन – कुछ विद्वान राज्य को साध्य मानते हैं-प्लेटो अरस्तू, हीगल, बोसांके आदि विचारक राज्य को मानव जीवन का उच्चतम लक्ष्य और अपने आप में एक साध्य मानते हैं। प्लेटो और अरस्तु के अनुसार, समाज एवं राज्य एक महान् नैतिक संस्था है जिसका उद्देश्य व्यक्ति का नैतिक विकास करना है। प्लेटो के मतानुसार, “राज्य वृक्षों या चट्टानों से उत्पन्न नहीं होते, ये उन व्यक्तियों के चरित्र में उत्पन्न होते हैं जो उनमें निवास करते हैं।”
अरस्तु के मतानुसार राज्य का जन्म जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए हुआ है तथा वह अच्छे जीवन के लिए विद्यमान है।” ट्रीट्श्की मानते हैं कि “राज्य व्यक्ति है तथा हमारा यह कर्तव्य है कि हम सिर झुकाकर उसकी पूजा करें।” वहीं हीगल राज्य को स्वयं में साध्य मानता है और राज्य को पृथ्वी पर ईश्वरीय अवतार मानता है।”
जो विचारक राज्य को स्वयं में साध्य मानते हैं उन्होंने व्यक्ति की इच्छा को राज्य की इच्छा के साथ मिला दिया है। इस सिद्धान्त का परिणाम फासीवाद है। फासीवाद विचारक मानते हैं कि “सब कुछ राज्य के लिए है, राज्य के विरुद्ध कुछ नहीं।” इस प्रकार आदर्शवादी और समष्टिवादी विचारक राज्य को एक साध्य मानते हैं।
(2) राज्य एक साधन है एवं व्यक्ति साध्य – राज्य को साधन मानने वाले विचारक राज्य को मानव के हितों की पूर्ति का साधन मानते हैं। उनका मत है कि समस्त संस्थाएँ व्यक्ति के कल्याण और समृद्धि के लिए हैं न कि व्यक्ति उन संस्थाओं के लिए है। राज्य का एकमात्र उद्देश्य व्यक्तियों का कल्याण करना है। व्यक्तिवादी, अराजकतावादी एवं बहुलवादी विचारक राज्य को एक साधन मानते हैं।
व्यक्तिवादी विचारक राज्य के अस्तित्व को तो स्वीकार करते हैं किन्तु राज्य को साध्य नहीं मानते। जे. एस. मिल एवं हर्बर्ट स्पेन्सर राज्य को आवश्यक बुराई मानते हैं। वे राज्य के कार्यों को पुलिस कार्यों तक ही सीमित रखना चाहते हैं। अराजकतावादी यह मानते हैं कि व्यक्ति का कल्याण राज्य की सत्ता की समाप्ति में निहित है। उनके लिए राज्य अनावश्यक, अवांछनीय एवं स्वाभाविक संस्था है। बहुलवादी विचारक राज्य को अन्य समुदायों के समान एक समुदाय मानते हैं।
(3) राज्य साध्य व साधन दोनों है – ब्लंटशली के मतानुसार, राज्य एक साधन भी है एवं साध्य भी। एक ओर वह नागरिकों के हित साधन की एक संस्था है तो दूसरी ओर वह स्वयं एक साध्य है, क्योंकि राज्य के अस्तित्व पर ही व्यक्ति की सुख सुविधा निर्भर करती है।
प्रश्न 2.
आधुनिक राज्य के कार्यों का विस्तार से वर्णन कीजिए।
उत्तर:
आधुनिक राज्य के कार्य:
राज्यों के कार्यों के लिए निश्चित नियम निर्धारित नहीं किए जा सकते, राज्य के कार्य समय, परिस्थिति, विचारधारा एवं आवश्यकता के अनुसार, घटते – बढ़ते रहते हैं। राज्य के कार्य आर्थिक स्रोतों, प्राकृतिक साधनों, लोगों की जागरूकता एवं राजनीतिक चेतना के विकास पर निर्भर हैं। आधुनिक राज्य के कार्यों को मुख्यत: निम्न दो भागों में विभाजित किया जा सकता है।
- अनिवार्य कार्य
- ऐच्छिक कार्य।
(1) अनिवार्य कार्य – अनिवार्य कार्यों से आशय उन कार्यों से है जिनको करना प्रत्येक सरकार के लिए आवश्यक हो अर्थात् जिनके न करने से राज्य का अस्तित्व ही खतरे में पड़ सकता है। राज्य के अनिवार्य कार्य निम्नलिखित हैं
- बाह्य आक्रमणों से देश की रक्षा करना,
- आन्तरिक शान्ति और व्यवस्था बनाए रखना।
- राज्य द्वारा अपराध तथा दण्ड सम्बन्धी नियमों का निर्माण और न्याय की समुचित प्रबन्ध व व्यवस्था करना।
- विधि निर्माण करना, क्योंकि विधियों के द्वारा ही राज्य अपनी सम्प्रभुता को यथार्थ रूप प्रदान करता है।
- राजस्व एकत्रित करना।
(2) ऐच्छिक कार्य – ऐच्छिक कार्यों से आशय उन कार्यों से है। जो राज्य के अस्तित्व और व्यक्ति की स्वतन्त्रता तथा सुरक्षा के लिए अनिवार्य नहीं होते। ये कार्य देश, काल तथा परिस्थिति के अनुसार परिवर्तित होते रहते हैं। इन कार्यों को लोक कल्याणकारी कार्यों के नाम से जाना जाता है। राज्य के ऐच्छिक कार्य निम्नलिखित हैं
(i) शिक्षा की व्यवस्था करना – एक अच्छे राज्य के जन साधारण में शिक्षा और राजनैतिक चेतना होनी चाहिए। अतः राज्य का यह कर्तव्य है कि वह सामान्य जनता की शिक्षा का उचित प्रबन्ध करे।
(ii) सफाई और सार्वजनिक स्वास्थ्य – राज्य को बीमारी की रोकथाम के लिए चिकित्सालयों की व्यवस्था करनी चाहिए। स्वास्थ्य की दृष्टि से उसे खाने-पीने की वस्तुओं को शुद्ध रखने का भी प्रयास करना चाहिए।
(iii) व्यापार एवं उद्योग पर नियन्त्रण – राज्य को व्यापार एवं उद्योगों पर यथोचित नियन्त्रण रखना चाहिए, जिससे व्यापारियों की अधिकतम भलाई और देश की प्रगति हो। उद्योग के सम्बन्ध में कानून बनाते समय राज्य को इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि श्रमिकों के साथ किसी भी प्रकार का अन्याय न हो।
(iv) सार्वजनिक महत्त्व के उद्योगों का संचालन – सार्वजनिक महत्व के बड़े-बड़े उद्योगों एवं व्यापार का संचालन सामाजिक हित की दृष्टि से राज्य को करना चाहिए।
(v) समाज सुधार – सामाजिक कुरीतियों का उन्मूलन कर मनुष्यों को सर्वांगीण विकास के अवसर प्रदान करना राज्य का कर्तव्य है। राज्य का कर्तव्य है कि अपाहिजों, अन्धों, गैंगों, पागलों आदि के उपचार तथा सुरक्षा की समुचित व्यवस्था करे।
(vi) परिवहन के साधनों का प्रबन्ध – परिवहन के साधनों की व्यवस्था करना भी राज्य का ही कर्तव्य है। सड़क, रेल, बस, जल एवं वायु परिवहन आदि सभी साधनों की व्यवस्था राज्य को करनी चाहिए क्योंकि आवागमन के साधनों द्वारा सभ्यता और संस्कृति का विकास होता है।
(v) मनोरंजन की सुविधा – राज्य को नागरिकों के मनोरंजन के लिए पार्को, आकाशवाणी, चलचित्र एवं वाचनालय आदि की व्यवस्था करनी चाहिए।
प्रश्न 3.
अहस्तक्षेपवादी राज्य के समर्थन एवं विरोध में तर्क प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर:
अहस्तक्षेपवादी राज्य के समर्थन एवं विरोध में तर्क समर्थन में तर्क: अहस्तक्षेपवादी राज्य के समर्थन में निम्नलिखित तर्क दिए जा सकते हैं
(1) वैज्ञानिक तर्क – हर्बर्ट स्पेन्सर नामक वैज्ञानिक ने प्राणी विज्ञान से नयी धारणाएँ लेकर अहस्तक्षेपवाद का समर्थन किया है। उसके अनुसार जीवन संघर्ष में जो व्यक्ति योग्य होते हैं वे आगे बढ़ जाते हैं और अयोग्य एवं दुर्बल व्यक्ति नष्ट हो जाते हैं।
यह प्रकृति का नियम है जो समाज में लागू होना चाहिए तथा समाज में यह तभी लागू हो सकता है हम व्यक्ति को स्वतन्त्र छोड़ दें। इस सिद्धान्त के अनुसार राज्य को प्रत्येक व्यक्ति को स्वतन्त्रतापूर्वक अपना विकास करने का अवसर प्रदान करना चाहिए।
(2) आर्थिक तर्क – एडम स्मिथ, थॉमस माल्थस, रिकॉर्डी तथा मिल आदि अर्थशास्त्रियों के अनुसार प्रत्येक मनुष्य अपने हानि-लाभ को भली-भाँति समझता है। आर्थिक विकास के लिए राज्य का आर्थिक क्षेत्र में नियन्त्रण नहीं होना चाहिए। राज्य का हस्तक्षेप होने पर व्यक्ति के कार्य करने का उत्साह एवं प्रेरणा कमजोर पड़ जाती है। अतः सरकार को उद्योग व व्यापार के क्षेत्र में अहस्तक्षेप नीति का पालन करना चाहिए।
(3) नैतिक तर्क – व्यक्तिवाद के समर्थन में नैतिक तर्क यह है कि प्रत्येक व्यक्ति का अपना अलग व्यक्तित्व और अपनी अलग विशेषता होती है। अत: राज्य का दायित्व है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपने तरीके से अपने व्यक्तित्व का विकास करने दिया जाय।
(4) व्यावहारिक तर्क – राज्य की कार्यशक्ति और दक्षता वैयक्तिक कार्यशक्ति एवं दक्षता से उत्कृष्ट नहीं होती है। अत: व्यक्ति की दक्षता का विकास कर उसका लाभ लिया जाना चाहिए।
अहस्तक्षेपवादी राज्य के विरोध में तर्क: अहस्तक्षेपवादी राज्य के विरोध में निम्नलिखित तर्क दिये जा सकते हैं
(1) राज्य कल्याणकारी संस्था है-सभी देशों में विकास राज्य के माध्यम से ही हुआ है। राज्य द्वारा व्यक्ति के कल्याण के लिए विभिन्न क्षेत्रों में अनेक कार्य किये जा रहे है। ऐसी स्थिति में राज्य बुराई न होकर एक कल्याणकारी संस्था के रूप में दिखाई देता है।
(2) राज्य एवं स्वतन्त्रता परस्पर विरोधी नहीं हैं – अहस्तक्षेपवादी धारणा के समर्थक राज्य और स्वतन्त्रता को परस्पर विरोधी मानते हैं। किन्तु आज यह सैद्धान्तिक रूप में स्वीकार किया जाने लगा है कि राज्य का उद्देश्य विभिन्न व्यक्तियों और वर्गों के हितों में सामंजस्य स्थापित करना है जिससे समाज उन्नति की पथ पर चल सके।
(3) व्यक्ति सदैव अपने हित का सर्वोत्तम निर्णायक नहीं होता – व्यक्ति हमेशा अपना हित अच्छी तरह नहीं समझता है और उसमें अपना हित साधन की पूरी क्षमता भी नहीं होती है। अत: राज्य को उनकी भलाई की ओर विशेष रूप से ध्यान देना पड़ता है। राज्य का सुधार सम्भव है-कार्यक्षेत्र में वृद्धि से राज्य अकुशल, खर्चीला, भ्रष्ट एवं नौकरशाही की बुराइयों से व्याप्त हो जाता है।
किन्तु बुराइयों पर रोक लगाई जा सकती है और आवश्यक सुधार भी किये जा सकते हैं। अनेक बार राज्य लाभ ही नहीं वरन् घाटा उठाकर भी जनसेवा के कार्य करता है। प्राणिशास्त्र की दोषपूर्ण धारणा-प्राणिशास्त्र की तार्किक व्यक्तिवादी धारणा मनुष्यों पर लागू नहीं की जा सकती। मनुष्य पशु न होकर मानवीय दायित्वों और नैतिक कर्तव्यों को समझने वाला प्राणी है। उसका यह कर्तव्य है कि निर्बलों और असहायों की सेवा व सहायता करे।
प्रश्न 4.
लोक कल्याणकारी राज्य क्या है? लोक कल्याणकारी राज्य की धारणा के उदय के प्रमुख कारणों पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
लोक कल्याणकारी राज्य से आशय लोक कल्याणकारी राज्य वह राज्य है जो राज्य द्वारा किये जाने वाले साधारण कार्यों के अतिरिक्त लोक कल्याणकारी गतिविधियों, जैसे-बेकारी दूर करना, बीमा योजनाएँ, वृद्धावस्था पेंशन व अन्य सुरक्षा प्रदान करना आदि सम्पन्न करता है। लोक कल्याणकारी राज्य को विभिन्न राजनीतिक विचारकों ने अलग – अलग प्रकार से परिभाषित किया है, यथा गार्नर के अनुसार, “लोक कल्याणकारी राज्य का उद्देश्य राष्ट्रीय जीवन, राष्ट्रीयता तथा जीवन के भौतिक, अभौतिक तथा नैतिक तत्वों का विकास करना है।”
जवाहर लाल नेहरू के अनुसार, “लोक कल्याणकारी राज्य का मूल आधार समान अवसर की व्यवस्था, गरीब तथा अमीर का भेद दूर करना तथा जीवन का स्तर ऊँचा उठाना है।” लोक कल्याणकारी राज्य की धारणा के उदय के प्रमुख कारण लोक कल्याणकारी राज्य की धारणा के उदय के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं
(1) व्यक्तिवाद के खिलाफ प्रतिक्रिया का आगमन – लोक कल्याणकारी राज्य आदर्श व्यक्तिवाद के विरुद्ध एक प्रतिक्रिया के रूप में सामने आया। व्यक्तिवादी सिद्धान्त के अनुसार राज्य के कार्यक्षेत्र को सीमित कर दिया गया था तथा राज्य ने अहस्तक्षेप की नीति अपना ली थी इससे औद्योगिक क्रान्ति के युग में श्रमिकों की दशा दयनीय हो गई, उनका शोषण होने लगी।
कारखानों के मालिक उन्हें कम वेतन देकर अधिक काम कराते थे। राज्य इन मामलों में किसी प्रकार का कोई हस्तक्षेप नहीं करता था। फलस्वरूप स्थिति खराब होती गई और व्यक्तिवादी विचारधारा का विरोध होने लगा। सर्वप्रथम इंग्लैण्ड में श्रमिकों के हितों के लिए राज्य ने कानून बनाए और इस प्रकार राज्य की लोक कल्याणकारी अवधारणा का उदय हुआ।
(2) मार्क्सवादी साम्यवाद के प्रभाव का भय -1848 ई. में साम्यवादी घोषणा – पत्र के प्रकाशन के बाद 1917 ई. में सोवियत रूस में साम्यवादी क्रान्ति हुई जिसने मार्क्स की विचारधारा को ठोस आधार प्रदान किया। साम्यवाद के प्रसार को रोकने के लिए पाश्चात्य देशों ने पूँजीवादी लोकतान्त्रिक व्यवस्था में आमूल – चूल परिवर्तन करना प्रारम्भ किया। इसके परिणामस्वरूप लोक कल्याणकारी धारणा का विकास हुआ।
(3) लोकतान्त्रिक समाजवाद की धारणा का उदय एवं विकास – मार्क्सवादी साम्यवाद के समर्थक हिंसा एवं क्रान्ति के उपायों से समाज में परिवर्तन लाना चाहते थे, उनके इन प्रयासों से लोकतान्त्रिक समाजवाद की धारणा का जन्म हुआ। लोकतान्त्रिक समाजवाद की यह धारणा शांतिपूर्ण और कानूनी तरीकों से समाज में परिवर्तन लाना चाहती थी। इस विचारधारा के समर्थक राज्य को एक लोक कल्याणकारी संस्था मानते थे। उनकी यह धारणा राज्य के सहयोग से समाजवाद की स्थापना करना चाहती थी।
प्रश्न 5.
लोक कल्याणकारी राज्य का आलोचनात्मक मूल्यांकन कीजिए।
उत्तर:
लोक कल्याणकारी राज्ये लोक कल्याणकारी राज्य की अवधारणा राज्य के कार्यक्षेत्र का एक आधुनिक सिद्धान्त है। यह अवधारणा व्यक्तिवाद एवं समाजवाद का मिश्रण है। लोक कल्याणकारी राज्य की धारणा के पीछे यही उद्देश्य छिपा है कि व्यक्ति को सुखी एवं समृद्ध बनाया जाए तथा इस हेतु राज्य द्वारा आवश्यक सेवा कार्यों का निष्पादन किया जाये। लोक कल्याणकारी राज्य की अवधारणा के विकास में इंग्लैण्ड का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। लोक कल्याणकारी राज्य की आलोचना लोक कल्याणकारी राज्य की निम्नलिखित आधारों पर आलोचना की जाती है
(1) व्यक्ति की स्वतन्त्रता का सीमित होना – लोक कल्याणकारी राज्य की प्रणाली द्वारा व्यक्ति की स्वतन्त्रता का हनन होता है। अनेक कार्य राज्य केवल अपने ही नियन्त्रण एवं तत्वावधान में करता है। ऐसी परिस्थिति में राज्य की शक्ति में वृद्धि हो जाती है और व्यक्ति की स्वतन्त्रता सीमित हो जाती है। राज्य की बाध्यकारी शक्ति का उपयोग बढ़ जाता है और उसी मात्रा में व्यक्ति की स्वतन्त्रता का हनन होता है।
(2) राज्य की बाध्यकारी शक्ति का प्रयोग – लोक कल्याणकारी राज्य की आलोचना करने वाले विद्वानों का मत है कि कल्याण राज्य में धनी वर्ग से कर के माध्यम से धन लेकर समाज में समानता स्थापित करने के लिए राज्य की बाध्यकारी शक्ति का प्रयोग किया जाता है, जो ठीक नहीं है।
(3) नौकरशाही का अत्यधिक हस्तक्षेप – लोक कल्याणकारी राज्य के अन्तर्गत अधिकांश कार्य नौकरशाही द्वारा किये जाते हैं। नौकरशाही कार्यकुशल, प्रशिक्षित एवं कर्तव्यपरायण कर्मचारियों को विशिष्ट संगठन होता है, जिसमें पद सोपान व आज्ञा की एकता के सिद्धान्त को कठोरता से पालन किया जाता है।
सरकार के कार्यों एवं दायित्वों में वृद्धि के कारण प्रशासन का ढाँचा बहुत विस्तृत हो जाता है। शासन शक्ति सरकारी कर्मचारियों के हाथों में केन्द्रित हो जाती है। जिससे नौकरशाही की निरंकुशता बढ़ने का भय रहता है। जन कल्याण की अनेक महत्त्वपूर्ण योजनाओं को ये नौकरशाही अपने स्वार्थों के कारण असफल बना देती है।
(4) खर्चीला शासन – लोक कल्याणकारी राज्य बहुत खर्चीला होता है। इसके अतिरिक्त समस्त कार्य राज्य द्वारा संपादित किये जाते हैं। फलस्वरूप जैसे-जैसे राज्य का नियन्त्रण बढ़ता है, वैसे-वैसे महँगाई एवं लागत बढ़ती चली जाती
(5) प्रेरणा का अभाव – लोक कल्याणकारी राज्य द्वारा प्रदान की गयी सेवाएँ समस्त जनता को प्राप्त होती हैं। इसमें ऐसे लोग भी सम्मिलित होते हैं, जो स्वयं अपनी समस्या का निवारण करने की क्षमता रखते हैं। बहुत से ऐसे व्यक्ति भी होते हैं जो आत्मनिर्भरता की आवश्यकता नहीं समझते हैं तथा राज्य पर निर्भर हो जाते हैं।
(6) उत्पादन में कमी – कल्याणकारी राज्य में आम जनता के लाभ के लिए राज्य को अनेक कार्य करने पड़ते हैं। इसके लिए सरकार को भी धनवान व्यक्तियों पर बड़े स्तर पर कर लगाने होते हैं। इससे धनवान व्यक्ति हतोत्साहित होकर उत्पादन तथा विकास के प्रति उदासीन हो जाते हैं।
(7) समग्रवादी प्रवृत्तियों का उदय – लोक कल्याणकारी शासन में वस्तुत: जनतन्त्र की आड़ में समग्रवादी प्रवृत्तियों का विकास होने लगता है। ऐसा राज्य ‘राज्यवाद’ को बढ़ावा देकर निरंकुश राज्य का शासन स्थापित करता है।