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RBSE Solutions for Class 12 Hindi सरयू Chapter 1 कबीर

RBSE Solutions for Class 12 Hindi सरयू Chapter 1 कबीर

July 23, 2019 by Safia Leave a Comment

Rajasthan Board RBSE Class 12 Hindi सरयू Chapter 1 कबीर

RBSE Class 12 Hindi सरयू Chapter 1 पाठ्यपुस्तक के प्रश्नोत्तर

RBSE Class 12 Hindi सरयू Chapter 1 वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न 1.
कबीर के अनुसार सद्गुरु ने हाथ में क्या दिया ?
(क) ज्ञान का दीपक
(ख) वेदशास्त्र का दीपक
(ग) लोक मान्यताओं का दीपक
(घ) मिट्टी का दीपक
उत्तर:
(क) ज्ञान का दीपक

प्रश्न 2.
कबीर के अनुसार सतगुरु कैसे प्राप्त होता है ?
(क) ज्ञान प्रकाशित होने पर
(ख) भगवान की कृपा होने पर
(ग) शास्त्रों का अध्ययन करने पर
(घ) तीर्थ भ्रमण करने पर
उत्तर:
(क) ज्ञान प्रकाशित होने पर

प्रश्न 3.
कबीर दास ने किस प्रकार की आँधी आने की बात कही है?
(क) धूल भरी आँधी
(ख) ज्ञान की आँधी
(ग) तेज आँधी-पानी।
(घ) कूड़ा-कर्कट उड़ाने वाली आँधी
उत्तर:
(ख) ज्ञान की आँधी

प्रश्न 4.
कबीर भक्ति काल की किस भक्ति धारा के प्रतिनिधि भक्त कवि माने जाते हैं
(क) राम भक्ति धारा
(ख) कृष्ण भक्ति
(ग) ज्ञानाश्रयी निर्गुण धारा
(घ) प्रेमाश्रयी (सूफी)
उत्तर:
(ग) ज्ञानाश्रयी निर्गुण धारा

RBSE Class 12 Hindi सरयू Chapter 1 अति लघु उत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
कबीर ने किसका चिंतन करने को कहा है ?
उत्तर:
कबीर ने केवल हरिनाम का चिंतन करने को कहा है।

प्रश्न 2.
कबीर ने इस संसार को किसके फूल के समान बताया है?
उत्तर:
कबीर ने इस संसार को सेवल के फूल के समान बताया है।

प्रश्न 3.
‘संतो आई ज्ञान की आँधी रे।’ में कौन-सा अलंकार है। लिखिए।
उत्तर:
इस पंक्ति में रूपक अलंकार है। ज्ञान के आगमन को आँधी का रूप प्रदान किया गया है।

प्रश्न 4.
कवि नेत्रों के भीतर किसके आने पर नेत्र बंद करना चाहता है?
उत्तर:
कबीर अपने प्रियतम ईश्वर के नेत्रों में आने पर अपने नेत्र बंद कर लेना चाहते हैं।

RBSE Class 12 Hindi सरयू Chapter 1 लघु उत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
कबीर के अनुसार मूर्ख का साथ क्यों नहीं करना चाहिए?
उत्तर:
मनुष्य जिसकी भी संगति में रहता है उसी जैसा हो जाता है। संगति के प्रभाव से बच पाना बहुत कठिन हुआ करता है। कोई अहंकारवश यह सोचे कि वह मूर्ख की संगति करके उसे सुधार देगा तो यह अपने आप को धोखा देना है। कोई कितना भी प्रयास करे, लोहे का टुकड़ा पानी पर नहीं तैर सकता। संगति के प्रभाव का प्रमाण स्वाति नक्षत्र में बरसने वाली बँद के परिणाम में देखा जा सकता है। एक ही बूंद केले, सीपी और सर्प के मुख में पड़ने पर क्रमश: कपूर, मोती और विष बन जाती है। अत: मूर्ख को सुधारने का प्रयास करोगे, तो स्वयं मूर्ख हो जाओगे।

प्रश्न 2.
जीवात्मा किससे मिलने के लिए रात-दिन तड़पती है?
उत्तर:
कबीर यद्यपि ज्ञानमार्गी भक्त हैं किन्तु उनके हृदय की भावुकता के दर्शन जीवात्मा और परमात्मा के सहज सम्बन्ध को प्रकाशित करते सक्षम होते हैं। वह स्वयं परमात्मारूपी प्रियतम की विरहिणी पत्नी मानते हैं। यही कारण है कि वह दिन-रात अपने प्रियतम परमेश्वर से मिलने के लिए तड़पती और तरसती रहती है। अपने प्रिय के वियोग में उसका मन पलभर के लिए भी चैन नहीं पाता।

प्रश्न 3.
कबीर की दृष्टि में कौन-से लोग कभी नहीं मरते ?
उत्तर:
जीवात्मा को ज्ञानियों और दार्शनिकों ने परमात्मा का ही अंश माना है। वह हर पल परमात्मा में ही निवास करती है। किन्तु जब वह जीव रूप में सांसारिक विषयों और विकारों के सम्पर्क में आती है तो भ्रमवश स्वयं को परमात्मा से भिन्न समझ बैठती है और उसके वियोग में दु:खी रहा करती है। कबीर ने आत्मा और परमात्मा की नित्य एकता को ‘काहे री नलिनी तू कुम्हिलानी’ पद द्वारा स्पष्ट किया है। कमलिनी जैसे जल से उत्पन्न होती है और उसी में सदा निवास करती है, उसी प्रकार आत्मा भी परमात्मा से प्रकट होकर सदैव उसी में स्थित रहती है। कबीर के अनुसार जो ज्ञानी लोग आत्मा और परमात्मा के इस सम्बन्ध को जानते हैं, वे कभी मृत्यु को प्राप्त नहीं होते।

RBSE Class 12 Hindi सरयू Chapter 1 निबन्धात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
पठित दोहों के आधार पर गुरु के महत्व का वर्णन अपने शब्दों में कीजिए।
उत्तर:
हमारी पाठ्यपुस्तक में संकलित संत कबीर दास के दोहों में गुरु की महिमा का प्रभावशाली वर्णन हुआ है। भारतीय संस्कृति सद्गुरु को ब्रह्मा, विष्णु, शिव यहाँ कि साक्षात् परब्रह्म के तुल्य मानती है। कबीर ने भी पूरी श्रद्धा और आस्था के साथ गुरु की इस अपार महत्ता को स्वीकार किया है। कबीर गुरु और गोविन्द (ईश्वर) में कोई अंतर ही नहीं मानते हैं। यदि व्यक्ति अहंकार से मुक्त होकर गुरु की शरण में जाये तो उसे अवश्य ही ईश्वर की प्राप्ति हो सकती है। गुरु केवल ईश्वर की कृपा होने पर ही प्राप्त होता है। अतः ज्ञान के भण्डार और प्रभु से मिलाने वाले गुरु को कभी भूलना नहीं चाहिए। सद्गुरु शिष्य को अंधविश्वास और भेड़चाल से बचाकर उसे ज्ञान का मार्ग दिखाता है। गुरु ही थोथे अहंकार में लिप्त शिष्य को भवसागर में डूबने से बचाता है। कबीर ने तो यहाँ तक कहा है कि परमात्मा रूठ जाएँ तो गुरु शिष्य की रक्षा कर सकता है। किन्तु गुरु के रूठने पर ईश्वर भी उसकी रक्षा नहीं करता।

प्रश्न 2.
“जल में उतपति जल में वास, जल में नलिनी तोर निवास।” पंक्ति का मूलभाव लिखिए।
उत्तर:
उपर्युक्त पंक्ति कबीर के पद “काहे री नलिनी तू कुम्हिलानी” से उद्धृत है। इस पद में कवि ने नलिनी (कमलिनी) को जीवात्मा का और सरोवर के जल को परमात्मा का प्रतीक बनाया है। वह कमलिनी रूपिणी आत्मा से प्रश्न करते हैं-अरी नलिनी ! तू क्यों मुरझाई हुई है। तेरे चारों ओर तथा तेरे नाल में सरोवर को जल (परमात्मा) है। तेरी उत्पत्ति तथा निवास भी इसी सरोवर से है और निरंतर इसी सरोवर रूपी परमात्मा में तू स्थित है। भाव यह है कि कमलिनी को यदि जल न मिले तो वह कुम्हला जाएगी। परन्तु जब भीतर-बाहर दोनों ओर जल ही हो तो कमलिनी के मुरझाने का क्या कारण हो सकता है। इसका एकमात्र कारण यही हो सकता है। कमलिनी का किसी अन्य से प्रेम हो गया है और उसी के वियोग में वह दु:खी और मुरझाई हुई है। पंक्ति का मूल भाव यही है कि जीवात्मा और परमात्मा अभिन्न हैं। जीवात्मा की उत्पत्ति और स्थिति उसी सर्वव्यापी परब्रह्म में है। वह उससे कदापि अलग नहीं है।

प्रश्न 3.
“माषी गुड़ में गड़ि रही हैं, पंख रही लपटाय।
ताली पीटै सिर धुने, मीठे बोई माइ”।।
दोहे में निहित काव्य सौन्दर्य उद्घाटित कीजिए।
उत्तर:
इस दोहे में संत कबीर मनुष्य को सांसारिक सुख भोगों के जाल में फंसने से सावधान कर रहे हैं। जीव स्वभाव से मधुरता (सुख-चैन) का लोलुप रहा है। वह सांसारिक विषयों से प्राप्त झूठे सुखों को ही सबसे बड़ा सुख मानकर उनमें लिप्त हो जाता है। एक बार इस काल के जाल में फंसने के बाद इससे दूर निकलना असम्भव हो जाता है। संत कबीर ने अन्योक्ति के माध्यम से मनुष्यों को चेताया है। इस दोहे का भाव पक्ष बड़ा गम्भीर और लोहित की भावना से पूर्ण है। शैली की दृष्टि से भी यह दोहा कवि की अन्योक्ति प्रयोग की कुशलता प्रमाणित कर रहा है। मक्खी पर रख कर कवि ने मनुष्य को ही सम्बोधित किया है। गुड़ में चिपकी असहाय मक्खी की छूटने के लिए की जा रही छटपटाहट को बड़ा सजीव चित्र कबीर ने प्रस्तुत किया है। मुक्त होने के लिए पैरों का रगड़ना, सिर पर पैरों का चलाना स्वाभाविक चेष्टाएँ हैं किन्तु कवि ने उन्हें ताली पीटना और सिर धुनना बताकर अपने संदेश को उदाहरण सहित सही सिद्ध किया है।

प्रश्न 4.
“परब्रह्म के तेज का कैसा है उनमान।”दोहे में कबीर ने परब्रह्म के तेज के सम्बन्ध में क्या कहा है?
उत्तर:
इस दोहे में कवि ने परब्रह्म (परमात्मा) के स्वरूप के विषय में अपना मत प्रकट किया है। कबीर ईश्वर को निराकार और निर्गुण मानते हैं। निर्गुण ईश्वर का कोई रूप, रंग, जाति या आधार नहीं हो सकता। कबीर कहते हैं कि संत, ज्ञानी और भक्त आदि अपने-अपने अनुसार परमात्मा के स्वरूप यो तेज का वर्णन करते आए हैं। परन्तु वास्तव में उसका स्वरूप क्या है ? इस बारे में लोग केवल अनुमान के आधार पर ही अपना मत व्यक्त करते रहे हैं। सच तो यह है कि निर्गुण-निराकार ईश्वर के स्वरूप का वास्तविक वर्णन करने की सामर्थ्य अक्षरों अर्थात वाणी में है ही नहीं। वह अनंत-अरूप शब्दों की सीमा से परे है। वाणी द्वारा उसका वर्णन किया ही नहीं जा सकता। अतः भक्तों, साधकों और योगियों ने अपनी-अपनी साधना के बल पर अपने अंत:करण में जो ईश्वर का साक्षात्कार किया है, वही प्रामाणिक हैं। कोई कितनी ही कुशल वक्ता। क्यों न हो, वह वाणी द्वारा ईश्वर के स्वरूप को नहीं समझ सकता।

प्रश्न 5.
निम्नलिखित पद्यांशों की सप्रसंग व्याख्या कीजिए
(क) “गुरु-‘गोविन्द…………”पावै करतार।।”
(ख) बूढ़ा था पै ……. पड़े फरंकि।
(ग) “संतो भाई ………. ” कुबुधि का भाँडा फूटा।”
(घ) “ना तलि तपति ………. हमारे जान।।”
उत्तर:
इन अंशों की व्याख्या के लिए ‘पद्यांशों की सप्रसंग व्याख्याएँ’ प्रकरण को ध्यान से पढ़कर छात्र स्वयं व्याख्याएँ लिखें।

RBSE Class 12 Hindi सरयू Chapter 1 अन्य महत्वपूर्ण प्रश्नोत्तर

RBSE Class 12 Hindi सरयू Chapter 1 वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न 1.
कबीर के अनुसार करतार’ को पाने का एकमात्र उपाय है
(क) मन लगाकर माला फेरना
(ख) तीर्थयात्राएँ करना
(ग) योग साधना करना
(घ) “आपा’ अर्थात् अहंकार त्याग देना।
उत्तर:
(घ) “आपा’ अर्थात् अहंकार त्याग देना।

प्रश्न 2.
कबीर ने ‘काल की पास’ बताया है
(क) सांसारिक सुखों को .
(ख) जप-तप-आराधना को
(ग) राम के अतिरिक्त किसी अन्य के चिंतन को
(घ) मृत्यु को
उत्तर:
(ग) राम के अतिरिक्त किसी अन्य के चिंतन को

प्रश्न 3.
“काहे री नलिनी तू कुम्हिलानी” पंक्ति में नलिनी प्रतीक है|
(क) कमल के सभी फूलों की
(ख) जल में उगने वाले फूलों की
(ग) दु:खी लोगों की
(घ) जीवात्मा की
उत्तर:
(घ) जीवात्मा की

प्रश्न 4.
ज्ञान की आँधी’ का आशय है
(क) ढेर सारा ज्ञान प्राप्त होना
(ख) ज्ञानियों की बाढ़ आ जाना
(ग) आँधी आने का पूर्व ज्ञान हो जाना।
(घ) चित्त में ज्ञान का उदय होना।
उत्तर:
(घ) चित्त में ज्ञान का उदय होना।

RBSE Class 12 Hindi सरयू Chapter 1 अतिलघु उत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
कबीर ने गुरु और गोविन्द में क्या सम्बन्ध माना है?
उत्तर:
कबीर की मान्यता है कि गुरु और गोविन्द अर्थात ईश्वर में कोई भेद नहीं, दोनों एक ही हैं।

प्रश्न 2.
कबीर किसके पीछे लगे जा रहे थे ?
उत्तन:
कबीर लोक प्रचलित मान्यताओं और वैदिक आचार-विचार का अनुकरण कर रहे थे।

प्रश्न 3.
कबीर किस की कृपा से डूबने से बचे ?
उत्तर:
कबीर गुरु कृपा से भवसागर में डूबने से बच गए।

प्रश्न 4.
चारों ओर लगी त्रये तापों (सांसारिक कष्टों) की आग से कबीर के अनुसार कैसे बचा जा सकता है ?
उत्तर:
कबीर के अनुसार ईश्वर के स्मरण रूपी घड़े के जल से आग को बुझाकर बचा जा सकता है।

प्रश्न 5.
राम अर्थात् ईश्वर के चिन्तन के अतिरिक्त किसी और का चिन्तन करने का क्या परिणाम होता है ?
उत्तर:
ईश्वर के अतिरिक्त किसी और के चिंतन में लीन होने पर मनुष्य जन्म-मृत्यु के जाल में फंस जाता है।

प्रश्न 6.
कबीर अपने प्रियतम को नेत्रों में क्यों बंद कर लेना चाहते हैं ?
उत्तर:
वह चाहते हैं कि उन दोनों के बीच कोई तीसरा न आए। न वह किसी और को देखे, न प्रिय ही किसी और को देखें (अथवा प्रिय को कोई और न देखे।)।

प्रश्न 7.
‘लोहा जल न तिराई।’ यह बात किस सन्दर्भ में कही गई है ?
उत्तर:
यह बात मूर्खा की संगति ने करने के सम्बन्ध में कही गई है।

प्रश्न 8.
‘दिनदस का व्यवहार’ किसे बताया गया है?
उत्तर:
सांसारिक जीवन को दस दिन का व्यवहार अर्थात् बहुत ओटा समय बताया गया है।

प्रश्न 9.
‘ताली पीटै सिर धुनै’ यह किसके बारे में कहा गया है ?
उत्तर:
यह गुड़ में सने गई, उड़ने में असमर्थ मक्खी के बारे में कहा गया है।

प्रश्न 10.
“तेरे ही नालि सरोवर पानी में तेरे किसके लिए कहा गया है ?
उत्तर:
‘तेरे’ शब्द का प्रयोग नलिनी’ अर्थात् जीवात्मा के लिए किया गया है।

प्रश्न 11.
ज्ञानोदय का क्या परिणाम होता है ?
उत्तर:
ज्ञानोदय होने पर मन के सारे विकार नष्ट हो जाते हैं।

RBSE Class 12 Hindi सरयू Chapter 1 लघु उत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
गुरु की प्राप्ति के विषय में कबीर ने संकलित दोहों में क्या कहा है ?
उत्तर:
कबीर के अनुसार गुरु और ईश्वर में कोई अंतर नहीं। सद्गुरु की प्राप्ति यों ही नहीं हो जाती है। ज्ञान का प्रकाश उत्पन्न करने वाले गुरु तभी प्राप्त होते हैं जब व्यक्ति पर ईश्वर की कृपा होती है। गुरु की प्राप्ति होना मनुष्य का परम सौभाग्य होता है। उसे पलभर के लिए भी हृदय से दूर नहीं होने देना चाहिए। गुरु की प्राप्ति एक प्रकार से ईश्वर की प्राप्ति के ही समान है क्योंकि गुरु-गोविन्द तो एक है तथा गुरु द्वारा प्रदत्त ज्ञान से ही जीव को ईश्वर की प्राप्ति होती है।

प्रश्न 2.
पीछे लागा जाइ था, लोकवेद के साथ। इस पंक्ति का आशय स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
इस पंक्ति में कबीर ने गुरु के महान उपकार के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट की है। जब तक गुरु का सम्पर्क प्राप्त नहीं हुआ था तो कबीर भी बिना सोचे-समझे लोकाचार और वैदिक मान्यताओं के पिछलग्गू बने हुए थे, जब गोविन्द की कृपा से उन्हें गुरु को सान्निध्य प्राप्त हुआ और गुरु ने उनके हाथ में ज्ञानरूपी दीपक थमाया तब उन्हें दिखाई दिया कि वह तो अंधविश्वास के मार्ग पर चले जा रहे थे। गुरु ने ही उन्हें उद्धार का मार्ग प्रदर्शित किया।

प्रश्न 3.
संकलित दोहों में कबीर दास जी ने गुरु के किन-कन उपकारों का स्मरण किया है ? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
कबीर ने इन दोहों में गुरु के अनेक उपकारों को गिनाया है। सद्गुरु सर्वसमर्थ होता है। वह सदैव शिष्य की हित कामना किया करता है। गुरु ने कबीर को ज्ञान का प्रकाश प्रदान किया है। इसी प्रकाश के सहारे वह ईश्वर प्राप्ति के पथ पर चलने में समर्थ हुए। हैं। गुरु कृपा से ही कबीर सांसारिक अंधविश्वासों से मुक्त हुए हैं। गुरु ने ही कबीर को भवसागर में डूबने से बचाया है। इस प्रकार कबीर ने स्वीकार किया है कि उन पर गुरु के अनंत उपकार हैं।

प्रश्न 4.
कबीर दास जी ने संकलित दोहों में हरि के स्मरण और चिंतम को क्या प्रभाव दिखाया है ?
उत्तर:
कबीर कहते हैं यह जगत नाना प्रकार के मनोविकारों तथा संतापों की आग में जल रहा है। यह आग साधारण जल से नहीं बुझाई जा सकती। यदि तुम्हारे हाथ में हरि स्मरण रूपी जल से भरा घड़ा है तो तुम इसे सहज ही बुझा सकते हो। इसी प्रकार कबीर कहते हैं कि उन्हें यदि कोई चिन्ता है तो केवल हरि का चिन्तन किए जाते रहने की है। हरि का स्मरण नहीं छूटना चाहिए। क्योंकि इसके छूटते ही जीव काल के जाल-जन्म मृत्यु के चक्र में फंस जाता है। अतः हरि का स्मरण और चिंतन करते रहने में ही मनुष्य का कल्याण निहित है।

प्रश्न 5.
परब्रह्म के सम्बन्ध में कबीर ने ‘कहिबे कें सोभा नहीं, देख्या ही परमान’ ऐसा क्यों कहा है ? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
कबीर निर्गुण भक्ति धारा के कवि हैं। उनकी मान्यता है कि ब्रह्म सर्वव्यापक और तेज स्वरूप है जो निराकार है, गुणरहित है, उसका वर्णन कर पाना सम्भव नहीं है। कबीर ने इस पंक्ति द्वारा यही बात इस पंक्ति में कही है। यदि कोई ब्रह्म के स्वरूप के बारे में बताना चाहेगा तो दूसरी कोई ऐसी वस्तु या स्वरूप नहीं है, जिसके समान ब्रह्म को बताया जा सके। अत: परमात्मा के स्मरण, चिंतन और भक्ति से उसका जो भी रूप साधक के अंत:करण में प्रकट हो, वही परब्रह्म का प्रामाणिक रूप है।

प्रश्न 6.
ना हों देखों और कें, ना तुझ देख न देउँ। यह बात कबीर ने किस प्रसंग में कही है। पठित दोहों के आधार पर लिखिए।
उत्तर:
एक अक्खड़ संत के अतिरिक्त कबीर के व्यक्तित्व का एक मृदुल और हृदयस्पर्शी पक्ष भी है। वह स्वयं को प्रियतम ‘राम’ (ईश्वर) की बहुरिया और विरहिणी के रूप में में प्रस्तुत करते हैं। उपर्युक्त पंक्ति कबीर ने इसी संदर्भ में कही है। वह अपने प्रियतम को अपनी आँखों में बसाना चाहते हैं, ताकि कोई और वहाँ न आ बसे । नेत्र बंद करके वह किसी और को नहीं देख पाएँगे, और उनके प्रियतम को भी किसी की नजर न लगेगी।

प्रश्न 7.
कबीर ने संसार की तुलना ‘सेंबल’ के फल से क्यों की है ? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
सेंबल (शाल्मली) के वृक्ष पर लाल रंग के फूल या बौंडी आते हैं। ये देखने में सुन्दर होते हैं। कहा जाता है कि तोता इसे कोई मधुर फल समझकर इनके पकने की प्रतीक्षा करता है। पकने पर तोता जब इसे चखने को चोंच चलाता है तो इसके अन्दर से रूई जैसी नीरस पदार्थ निकल पड़ता है। बेचारा तोता ठगा सा रह जाता है और उड़ जाता है। कबीर के अनुसार सांसारिक सुख भी बाहर से बड़े आकर्षक और प्रिय लगते हैं, पर इनका परिणाम निराशाजनक और दु:खदायी होता है।

प्रश्न 8.
नलिनी के कुम्हलाने का कारण कबीर को क्या प्रतीत होता है ? पद के आधार पर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
इस पद में कबीर ने नलिनी और सरोवर के जल के परस्पर सम्बन्ध द्वारा जीवात्मा और परमात्मा के तात्विक सम्बन्ध अर्थात् नित्य एकता पर प्रकाश डाला है। जब नलिनी सरोवर में उगी हुई है, उसके नाल में भी सरोवर का जल है, न उसे कोई ताप तले से तपा रहा है और न ऊपर से ही कोई आग उसे तप्त कर ही है, फिर उसके मुरझाने का कोई स्पष्ट कारण समझ में नहीं आता। अतः कबीर शंका करते हैं कि उसका हेत (प्रेम) किसी और (सांसारिक सुख) से हो गया है। उसी के विरह में वह कुम्हला रही है। कबीर के अनुसार अज्ञानवश जीवात्मा स्वयं को ईश्वर से भिन्न समझकर दु:खी रहती है, जबकि वह ईश्वर को ही अंश है और नित्य उसी में निवास करती है।

प्रश्न 9.
“संतो भाई आई ग्यान की आँधी रे !” पद के कलापक्ष की विशेषताओं पर संक्षेप में प्रकाश डालिए।
उत्तर:
इस पद में कबीर ने साधक के मन में ज्ञानोदय होने पर घटित होने वाले परिवर्तनों को, रूपक के माध्यम से प्रस्तुत किया है। उन्होंने ज्ञान उत्पन्न होने का और मनोविकारों को नष्ट होने का आँधी आने की प्रक्रिया द्वारा बड़े रोचक ढंग से वर्णन किया है। इस पद की भाषा मिश्रित शब्दावली से युक्त है। भाषा में तद्भव शब्दों का सहज प्रयोग हुआ है, शैली आलंकारिक और प्रतीकात्मक है। सम्पूर्ण पद में सांगरूपक की सफल निर्वाह हुआ है। आँधी आने पर उपस्थित होने वाले दृश्य का सजीव चित्रण है। एद में शांतरस की सृष्टि हुई है।

प्रश्न 10.
कबीर ने ‘माया का कूड़-कपट’ किसे कहा है और इससे कैसे मुक्ति मिल सकती है ? संकलित पाठ के आधार पर लिखिए।
उत्तर:
“संतो भाई आई रे ग्यान की आँधी।” पद में काया अर्थात मन संहिते शरीर का कूड़ा-करकट भ्रम, मायाग्रस्त होना, द्विविधा, मोह तृष्णा, कुबुद्धि आदि विकारों को काया को कूड़े-कपट कहा है। इससे छुटकारा पाने का उपाय भी कबीर ने पद में बताया है। वह कहते हैं- जब व्यक्ति ईश्वर की गति अर्थात् परमात्मा के स्वरूप और स्वभाव को ज्ञान प्राप्त कर लेता है, तो उसके सारे दुर्गुण नष्ट हो जाते हैं। मेन निर्मल हो जाता है। उसका हृदय ईश्वर-प्रेम में सरोबार हो जाता है। ईश्वर की गति ज्ञान के आगमन से ही सम्भव है। अत: ज्ञानोदय से ही समस्त मनोविकार नष्ट हो सकते हैं।

RBSE Class 12 Hindi सरयू Chapter 1 निबंधात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
संकलित दोहों के आधार पर कबीर की प्रेम-परक उक्तियों पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
कबीर को प्रायः एक उपदेशक, समाज सुधारक और मूर्तिपूजा के विरोधी के रूप में जाना जाता है। उन्होंने सामाजिक कुरीतियों और अंधविश्वासों पर बड़े तीखे व्यंग्यबाण चलाए हैं। कबीर का एक और भी रूप है जो उनके हृदय में निवास करती व्याकुल विरहिणी की हृदयस्पर्शी उक्तियों में व्यक्त हुआ है। निराकार ईश्वर के उपासक, अक्खड़ आलोचक संसार के सुखों से दूर रहने के उपदेशक के मुख से प्रियतम परमात्मा के प्रति विरहिणी आत्मा की व्याकुल प्रकार हम को चकित कर देती है। हमारी पाठ्यपुस्तक में संकलित दो दोहे, कबीर दास जी के हृदय की कोमलता का परिचय कराते हैं।

पहले दोहे में कबीर रूपिणी विरहिणी प्रियतम परमात्मा से अनुरोध कर रही है-हे प्रियतम ! तुम मेरे नेत्रों में आकर बस जाओ। मैं तुम्हें अपने पलकों में बंद कर लेना चाहती हैं। तुम्हें पाकर मैं किसी अन्य की ओर देखना भी नहीं चाहती और साथ ही चाहती हैं कि तुम्हें मेरे अतिरिक्त कोई और न देख पाए। दूसरे दोहे में विरहिणी आत्मा परमात्मा के पधारने की बाट जोह रही है। उसे बाट देखते हुए बहुत दिन हो चुके हैं। उसकी अभिलाषा पूरी नहीं हो पा रही है। उसका व्याकुल हदय प्रिय-दर्शन के लिए तरस रहा है। मन को कैसे भी चैन नहीं मिल पा रही है। उपर्युक्त कथनों में कवि के हृदय का प्रेम रस, सहज और मर्मस्पर्शी रूप में प्रवाहित हो रहा है।

प्रश्न 2.
संतो, भाई आई ज्ञान की आँधी रे। पद में कबीर क्या संदेश देना चाहते हैं? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
कबीर भले ही घोषणा करते हों कि उन्होंने मसि-कागद तौ छुओ नहिं, कलम गही ना हाथ’ परन्तु उन्होंने अपनी बात सटीक प्रतीकों और रूपकों द्वारा कहने में पूर्ण निपुणता दिखाई है। उपर्युक्त पद में कवि कबीर ने ज्ञान की महत्ता को अलंकारिक शैल में प्रस्तुत किया। उनकी मान्यता है स्वभावगत सारे दूषणों से मुक्ति पाने के लिए ज्ञान से बढ़कर और कोई औषध नहीं है। जब हृदय में ज्ञानरूपी आँधी आती है तो सारे दुर्गुण एक-एक करके धराशायी होते चले जाते हैं और अंत में साधक को हृदय प्रेम की रिमझिम से भीग उठता है। ज्ञान-सूर्य का उदय होते ही अज्ञान की अंधकार विलीन हो जाता है। यही ज्ञान-प्राप्ति की साधना का संदेश इस पर पद द्वारा कबीर ने दिया है।

प्रश्न 3.
ज्ञान की आँधी आने पर मन के विकार किस प्रकार गिरते चले जाते हैं? संकलित पद के आधार पर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
कबीर दास जी ने आँधी के रूपक द्वारा हृदय में ज्ञानोदय से होने वाले परिवर्तनों का बड़ा रोचक वर्णन प्रस्तुत किया है। मन में सारे दुर्गुणों का निवास अज्ञान के संरक्षण में ही होता है, परन्तु जब साधु या साधक की साधना से ज्ञान की प्रवेश होता है तो सारे दुर्गुण स्वतः ही हृदये से दूर हो जाते हैं। जब ज्ञान की आँधी ने साधक की मनोभूमि में प्रवेश किया तो भ्रमरूपी टाट का पर्दा उड़ गया। भ्रम के दूर होते ही भला माया कैसे टिक पाती ! माया के बंधन भी छिन्न-भिन्न हो गए। अज्ञान की कुटिया अब कैसे बच पाती ? हित और चित अर्थात् द्विविधा रूपी जिन दो खम्भों पर इसकी छावन टिकी थी, वे भी नीचे आ गिरे और इन पर टिकी हुई मोहरूपी बल्ली भी दो टुकड़े हो गई। अब भला ‘छानि’ अर्थात् छप्पर किस पर टिका रहता ? वह भी नीचे गिरा और उसके नीचे सम्हाल कर रखे कुबुद्धि रूपी बर्तन-भाँड़े भी फूट गए।

इस प्रकार भ्रम से आरम्भ होकर कुबुद्धि पर्यन्त जितने भी मनोविकार थे, सभी एक-एक करके मन से बाहर हो गए। अज्ञान-कुटी ध्वस्त हो गई अब ज्ञानी कबीर द्वारा अपनी ज्ञान कुटी का योग और युक्ति के बंधन द्वारा नव निर्माण किया गया है। इस अचूक ज्ञान कुटी पर कितनी भी विकारों की वर्षा हो, एक बूंद भी नहीं छू पाएगी। इस प्रकार कवि कबीर ने संकलित पद में रूपक के माध्यम से ज्ञान और योग की महत्ता का प्रतिपादन किया है।

प्रश्न 4.
संकलित दोहों में कबीर दास ने किन-किन विषयों पर अपना मत प्रस्तुत किया है ? लिखिए।
उत्तर:
संकलित दोहों में कबीर दास जी ने गुरु महिमा, परमात्मा की प्रेम-परक भक्ति भावना, सत्संगति, संसार की नश्वरता तथा सांसारिक विषयों की सारहीनता आदि का वर्णन किया है। कबीर गुरु और परमेश्वर को एक समान मानते हैं। दोनों में कोई छोटा या बड़ा नहीं है। गुरु कृपा से जब साधक के हृदय की अहंकार नष्ट होता है तभी उसे ‘करतार’ (ईश्वर) की प्राप्ति होती है। जब ईश्वरीय कृपा होगी तो सद्गुरु से मिलान होता है और गुरु-कृपा ईश्वर की प्राप्ति कराती है। अत: कबीर का यह कथन सत्य है कि गुरु गोविन्द तो एक हैं।’ गुरु ही शिष्य को ज्ञानरूपी दीपक प्रदान करता है। इस ज्ञान-दीप के प्रकाश में ही शिष्य लोक-वेद के अंधानुकरण से मुक्त होकर ईश्वर प्राप्ति के सही मार्ग पर चलने में समर्थ होता है।

परमात्मा को केवल ज्ञान अथवा योग की कठिन साधना से प्राप्त नहीं किया जा सकता, उसे प्रेम योग की मधुर विकलता से भी अपना बनाया जा सकता है। नैना अंतर आव तू, नैन झाँपि तोहि लेउँ, तथा बहुत दिनन की जोहती बाट तिहारी राम। जैसी उक्तियाँ इसी प्रेम साधना की महत्ता की ओर संकेत कर रही हैं। सत्संगति की महिमा सभी संतों ने बखानी है, किन्तु कबीर के अनुसार सत्संगति की भी एक सीमा है। उसका प्रभाव सचेत और संवेदनशील हृदय पर ही पड़ता है। ईश्वर विमुख वज्र मूढ़ों पर नहीं पड़ता। स्वाति की बूंद के रूप परिवर्तन से स्वयं सिद्ध होता है। कबीर ने संसार की नश्वरता का ‘सेंबल के फूल’ के उदाहरण से तथा विषयों के प्रति आसंक्ति के दुष्परिणाम को ‘गुड़ में फंसी व्याकुल मक्खी’ के द्वारा परिचय कराया है। इस प्रकार संकलित दोहों में कबीरदास जी ने मनुष्य के कल्याण का मार्ग प्रदर्शित करते हुए, सन्मार्ग पर चलने का संदेश दिया है।

कवि – परिचय :

भक्तिकालीन संत काव्यधारा के प्रारम्भकर्ता, निर्गुण ज्ञानाश्रयी शाखा के लोकप्रिय कवि, संत कबीर का जन्म सन् 1455 विक्रम (1398 ई.) में काशी में हुआ था। इनका पालन नीरू और नीमा नामक जुलाहा दम्पत्ति के यहाँ हुआ। कबीर यद्यपि पढ़े-लिखे नहीं थे किन्तु संतों के मुख से सुन-सुनकर और निजी अनुभव से अपने बहुत ज्ञान प्राप्त किया। कबीर स्वामी रामानंद को अपना गुरु मानते थे। कबीर एकेश्वरवाद में विश्वास रखते थे। उनकी दृष्टि में हिन्दू-मुसलमान, ब्राह्मण-अछूत सब एक ही ईश्वर की संतान थे। उन्होंने धार्मिक कट्टरता, छुआछूत, आडंबर, अंधविश्वास और मूर्तिपूजा आदि पर अपनी सीधी-सपाट वाणी से प्रहार किया। कबीर की दृष्टि में मनुष्य के लिए सर्वोच्च और पूज्य स्थान गुरु का है। गुरुकृपा से ही जीव को ईश्वर की प्राप्ति या मोक्ष मिलता है।

कबीर हिन्दू तथा मुसलमान दोनों के पूज्य तथा प्रिय थे। कबीर को 120 वर्ष की आयु प्राप्त हुई। आपने मगहर नामक स्थान पर भौतिक शरीर त्याग दिया और परमात्मा से एकाकार हो गए। साहित्यिक परिचय-कबीर ने स्वयं ही घोषित किया है – “मसि कागद छुऔ नहिं, कलम गही ना हाथ।” अनपढ़ होते हुए भी उनका ज्ञान, अनुभव और कथन शैली, बड़े-बड़े शिक्षितों को नतमस्तक कर देती है। काव्य रचना तो उनकी ईश्वरप्रदत्त प्रतिभा का परिणाम है। कबीर की भाषा को पंचमेल खिचड़ी और सधुक्कड़ी भाषा कहा जाता है। इसमें खड़ी बोली, पूर्वी, हिन्दी, ब्रजी, राजस्थानी तथा पंजाबी आदि भाषाओं के शब्दों का प्रयोग हुआ है। कबीर ने अपनी बात विविध शैलियों के माध्यम से कही है। उन्होंने प्रतीकात्मक, व्यंग्यात्मक, आलंकारिक, वर्णनात्मक, आलोचनात्मक, उपदेशात्मक तथा कूट आदि शैलियों का सहज भाव से प्रयोग किया है। अनुप्रास, यमक, रूपक, उपमा, सांगरूपक, दृष्टांत, अतिशयोक्ति आदि अलंकार सहज भाव से आए हैं। शान्त, श्रृंगार, अद्भुत आदि रसों की योजना में कहीं कृत्रिमता या प्रयास नहीं दिखाई देता। रचनाएँ-कबीर की रचनाओं का संग्रह ‘बीजक’ नाम से प्रसिद्ध है। इसके तीन भाग हैं- साखी, सबद और रमैनी। कबीर ने दोहा और पद छन्दों में काव्य रचना की है।

पाठ – परिचय :

प्रस्तुत पाठ में कबीर के 12 दोहे और 2 पद संकलित हैं। दोहों में सद्गुरु की महिमा वर्णित है। कबीर गुरु और परमात्मा में कोई अन्तर नहीं मानते। सद्गुरु ही शिष्य के अज्ञान से आवृत हृदय में ज्ञान का दीप जलाता है। हरि या ईश्वर के स्मरण से सांसारिक तापों की अग्नि शांत होती है। कबीर ने स्वयं को परमेश्वररूपी पति की विरहिणी आत्मा माना है। दोनों में सत्संगति, संसार की नश्वरता और विषयों के आकर्षण आदि पर भी कबीर ने अपना मत प्रस्तुत किया है। प्रथम पद में कबीर ने आत्मा और परमात्मा की नित्य एकता का वर्णन किया है। इसमें प्रतीकात्मक शैली का प्रयोग किया है। . दूसरे पद में आँधी के रूपक से ज्ञान की महत्ता दर्शायी गई है। ज्ञान की आँधी मनुष्य के माया, मोह, तृष्णा, द्विविधा आदि समस्त दुर्गुणों को उड़ा ले जाती है और तब प्रभु-प्रेम की वर्षा से भक्त का तन-मन निर्मल हो जाता है।

पद्यांशों की सन्दर्भ एवं प्रसंग सहित व्याख्याएँ 

दोहो

1. गुरु गोविन्द तौ एक है, दूजा यहु आकार।।
आपा मेटि जीवित मरै, तौ पावै करतार।।
ज्ञान प्रकासा गुरु मिला, सों जिनि बीसरि जाइ।
जब गोविन्द क्रिया करी, तब गुरु मिलिया आइ।

कठिन शब्दार्थ – गोविन्द = ईश्वर। दूजा = दूसरा, भिन्न आकार = मानव शरीर। आपा = अहंकार। मेटि = मिटाकर, त्याग कर। जीवित परै = शरीर का मोह त्याग दे। करतार = ईश्वर।प्रकाशा = प्रकाशित हुआ, प्राप्त हुआ। जिनि = नहीं। बीसरि जाइ = भूल जाये। क्रिपा = कृपा, दया। मिलिया = मिला।
संदर्भ तथा प्रसंग – प्रस्तुत दोहे हमारी पाठ्यपुस्तक में संकलित कबीर के दोहों से लिए गए हैं। इनमें कबीर ने गुरु की महिमा का परिचय कराया है।

व्याख्या – कबीर गुरु की महत्ता का वर्णन करते हुए कहते हैं कि गुरु और ईश्वर में कोई अन्तर नहीं। दोनों को एक ही समझना चाहिए। यह हमारा शरीर स्थित मन ही इनमें अज्ञानवश भेद कराने वाला है। यदि मनुष्य अपने अहंकार को त्याग दे, जीते जी ही शरीर के मोह से मुक्त हो जाये तभी वह ईश्वर को प्राप्त कर सकता है। कबीर कहते हैं कि जब मेरे हृदय में ज्ञान का प्रकाश हुआ तभी मेरा सद्गुरु से मिलन हो पाया अथवा गुरु की शरण में जाने पर ही मेरे हृदय में ज्ञान का प्रकाश हुआ। ऐसे कृपालु गरु और उसके द्वारा प्रदत्त ज्ञान को मैं कहीं भूल ना जाऊँ, इसका मुझे निरंतर ध्यान रखना है। जब ईश्वर कृपा करते हैं तभी जीव को गुरु की प्राप्ति होती है।

विशेष –

  1. भारतीय संस्कृति में गुरु को बहुत उच्च स्थान प्राप्त रहा है। “गुरु साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्री गुरुवे नमः यही मान्यता कबीर ने प्रथम दोहे में व्यक्त की है।
  2. अज्ञान और अहंकार के कारण ही मनुष्य गुरु और ईश्वर में भेद माना करता है। अहंकार त्यागने पर ही गुरुकृपा से परमात्मा की प्राप्ति होती है।
  3. गुरु की प्राप्ति ईश्वर की कृपा का परिणाम हुआ करती है। अतः हृदय से गुरु का ध्यान न हटने पाए, इसी में मनुष्य का कल्याण है।
  4. भाषा सरल है। शैली उपदेशात्मक है और गूढ़ अर्थ वाली है।
  5. कबीर की गुरु भक्ति का परिचय इन दोहों की पंक्ति-पंक्ति से मिल रहा है।

2. पीऊँ लागा जाइ था, लोक वेद के साथि।
आगै मैं सत्गुरु मिल्या, दीपक दीया हाथ।
बूढ़ा था पै ऊबरा, गुरु की लहरि चमकि।
भेरा देख्या जरजरा,(तब) उतरि पड़े फरंकि।।

कठिन शब्दार्थ – पाछै = पीछे। लागा जाइ था = (पीछे-पीछे) चला जा रहा था, अंधानुकरण कर रहा था। लोक वेद = लौकिक और वैदिक परम्पराएँ। आगै मैं = आगे चलकर।मिल्या = मिला। दीपक = ज्ञानरूपी दीपक। बूढ़ा (बूड़ा) = डूबने वाला था। ऊबरा = बच गया। गुरु की लहरि = गुरु की कृपारूपी लहर। चमंकि = चमकने पर, चौंकने पर। भेरा = बेड़ा या नाव। जरजरा = जर्जर, टूटा-फूटा। उतरि पड़े = उतर पड़ा। फरंकि = फुर्ती से, तुरंत।।

संदर्भ तथा प्रसंग – प्रस्तुत दोहे हमारी पाठ्यपुस्तक में संकलित कबीर के दोहों से लिए गए हैं। इन दोहों में कबीर, गुरु को ज्ञान प्रदाता स्वीकार करते हुए उनकी कृपा से सही मार्ग प्राप्त होने की बात स्वीकार रहे हैं। गुरु कृपा से ही वह संसार-सागर में डूबने से बचे हैं। व्याख्या-कबीर कहते हैं कि वह भी सामान्य लोगों की तरह, सांसारिक और वैदिक परम्पराओं का आँख बंद करके अनुसरण कर रहे थे। परन्तु आगे चलने पर उन्हें सद्गुरु मिले। उन्होंने कृपा करके उनके हाथ में ज्ञानरूपी दीपक पकड़ा दिया। ज्ञानदीप के प्रकाश में ही वह जान पाए कि वह तो अज्ञान के मार्ग पर जा रहे थे।

इस प्रकार गुरुकृपा से ही वह ईश्वर भक्ति के सीधे-सादे मार्ग का दर्शन पा सके। कबीर कहते हैं कि वह भी अज्ञानी जनों की भाँति अहंकार रूपी बेड़े पर सवार होकर संसार-सागर से पार होने की चेष्टा कर रहे थे। अहंकार का जर्जर बेड़ा उन्हें भवसागर-माया-मोह आदि में डुबोने ही वाला था, परन्तु गुरुकृपा रूपी लहर ने टक्कर देकर उन्हें चौंका दिया, सचेत कर दिया। गुरु कृपा के प्रकाश में ही उनको ज्ञात हुआ कि वह अन्धकार का बेड़ा तो नितान्त जर्जर स्थिति में था और वह डूबने ही वाले थे। अत: वह तुरन्त उस पर से उतर पड़े। उन्होंने अहंकार का परित्याग करके गुरु द्वारा प्रदर्शित मोक्ष मार्ग को अपना लिया।

विशेष –

  1. भाषा में विभिन्न भाषाओं के शब्दों को मुक्त भाव से प्रयोग हुआ है।
  2. शैली उपदेशात्मक है।
  3. गुरु के बिना ज्ञान तथा संसार से मुक्ति मिलना सम्भव नहीं है, यह बताया गया है।
  4. लोकाचार और वैदिक कर्मकाण्ड से ऊपर उठकर, परमात्मा की सहज भक्ति करने से ही मनुष्य का उद्धार हो सकता है। यह मत व्यक्त किया गया है।
  5. दीपक दीया हाथ में लक्षणा शक्ति का सौन्दर्य है।

3. कबीर चित्त चमंकिया, चहुँ दिसि लागी लाई।
हरि सुमिरन हाथ घड़ा, बेगे लेहु बुझाई।।
पारब्रह्म के तेज का, कैसा है उनमान।
कहिबे के सोभा नहीं, देख्या ही परमान।।

कठिन शब्दार्थ – चित्त = मन। चमंकियो = चकित हो गया, शंकित हो गया। चहुँदिस = चारों ओर। लाइ = आग। सुमिरन = स्मरण, भजन। बेगे = शीघ्र। पारब्रह्म = ईश्वर।उनमान = अनुमान, कल्पना। सोभा = रूप। देख्या = देखा, दर्शन प्राप्त किया। परमान = प्रमाण।
संदर्भ तथा प्रसंग – प्रस्तुत दोहे हमारी पाठ्यपुस्तक में संकलित कबीर के दोहों से लिए गए हैं। प्रथम दोहे में कबीर भगवद-भजन का महत्व बता रहे हैं और दूसरे दोहे में परमात्मा के स्वरूप के विषय में अपना मत प्रकट कर रहे हैं।

व्याख्या – कबीर कहते हैं कि जगत में चारों ओर विविध तापों की आग लगी देखकर उनका मन चौंक कर सशंकित हो गया। उनसे बचने का उपाय सोचने लगा। तब उन्हें ध्यान आया कि उनके हाथों में तो प्रभु के स्मरण रूपी जल से भरा घड़ा है। तब क्या चिंता थी। शीघ्र ही वह आग बुझाई जा सकती थी। कबीर कहते हैं कि परब्रह्म तेज स्वरूप है किन्तु उस तेज का शब्दों में वर्णन कर पाना सम्भव नहीं है। केवल उसके बारे में अनुमान ही किया जा सकता है। उसके तुल्य कोई दूसरा रूप नहीं दिखता, जिससे तुलना करके उसका ज्ञान कराया जा सके, जिसने उसे देखा है। – उसी का कथन प्रामाणिक माना जा सकता है अथवा उसे देखने पर ही वास्तविक ज्ञान हो सकता है।

विशेष –

  1. सांसारिक ताप या विषयों के भोग की लालसा अग्नि के समान संतापित करने वाली है। इससे केवल परमात्मा का स्मरण करने वाला भक्त ही बच सकता है, यह मते व्यक्त किया गया है।
  2. परब्रह्म के स्वरूप को वाणी द्वारा नहीं समझाया जा सकता। उसका तो ज्ञानरूपी नेत्रों से ही दर्शन प्राप्त हो सकता है। ऐसा कबीर का मत है।
  3. ‘चित्त चमंकिया’ और ‘लागी लाइ’ में अनुप्रास तथा ‘हरि सुमिरन हाथों घड़ा’ में रूपक अलंकार है।
  4. भाषा सरल तथा मिश्रित शब्दावली युक्त है।
  5. शैली उपदेशात्मक है।

4. चिंता तौ हरि नाँव की, और न चितवै दास।
जे कछु चितवें राम बिन, सोइ काल की पास।।
नैनां अंतर आव तू नैन झाँपि तोहि लेउँ।
नी हौं देख और कें, ना तुझ देखन देउँ।।

कठिन शब्दार्थ – चिंता = चिंतन ध्यान। नाँव = नाम। चितवै = चिंतन करता है। दास = कबीर। काल की पास = काल के जाल में फंसना। अंतर = भीतर। आव = आओ। तू = ईश्वर। झाँपि = बंद करके। तोहि = तुझे। लेउँ = ले लें, बंद कर लें। = मैं। कें = को।।
संदर्भ तथा प्रसंग – प्रस्तुत दोहे हमारी पाठ्य-पुस्तक में संकलित कबीर के दोहों से लिए गए हैं। प्रथम दोहे में कबीर कह रहे हैं। कि ईश्वर के नाम का स्मरण करने के अतिरिक्त किसी सांसारिक विषय का चिंतन बंधन में डालने वाला है। दूसरे दोहे में कबीर परमात्मा रूपी प्रियतम से अनुरोध कर रहे हैं कि वह उनके नेत्रों में आकर बस जाय।

व्याख्या – कबीर कहते हैं कि उन्हें केवल प्रभु के नाम का स्मरण करते रहने की चिंता है और कोई अन्य सांसारिक चिंतन वह नहीं करते। उन्हें सदा यह चिंता रहती है कि वह कहीं प्रभु के नाम का स्मरण न भूल जाएँ। हरिनाम के अतिरिक्त जब व्यक्ति किसी सांसारिक विषय का चिंतन करने लगता है तो उसका काल के जाल में फंसना, जन्म-मृत्यु के चक्र में जाना निश्चित है। कबीर स्वयं को प्रियतम राम या ईश्वर की प्रेमिका के रूप में प्रस्तुत करते हुए कहते हैं-प्रियतम। आप मेरे नेत्रों में आकर बस जाइए और मैं नेत्रों को बंद कर लें। ऐसा करने से न तो मैं किसी और (सांसारिक विषय) को देख सकेंगा और न आप को ही किसी और के द्वारा देखे जाने का अवसर मिलेगा। मेरे और आपके बीच कोई तीसरा आए, यह मुझ से सहन नहीं होगा।

विशेष –

  1. सांसारिक बंधनों से मुक्त होने के लिए प्रभु के नाम का चिंतन ही एकमात्र उपाय है। यह संदेश दिया है।
  2. लौकिक प्रेम और आध्यात्मिक साधना का मधुर संगम द्वितीय दोहे में साकार हो गया है। एक विरहिणी के रूप में स्वयं को प्रस्तुत करके अक्खड़ कबीर पाठकों को चकित कर रहे हैं।
  3. “ना हों देखौं ……. देखन देउ” पंक्ति आत्मा और परमात्मा की अनन्य एकता का संकेत कर रही है दोनों के बीच किसी तीसरे (संसार) की उपस्थिति भला कैसे सहज हो सकती है।
  4. उपदेशात्मक तथा भावात्मक शैली का प्रयोग हुआ है।

5. बहुत दिनन की जोवती, बाट तुम्हारी राम।
जिव तरसै तुझ मिलन कें, मनि नाहीं विश्राम।।
मूरिख संग न कीजिए, लोहा जल न तिराह।
कदली सीप भुवंग मुख, एक बूंद तिहूँ भाइ।।

कठिन शब्दार्थ – जोवती = देखती हूँ, प्रतीक्षा करती हूँ। बाट = मार्ग। राम = परमात्मा। जिव = जीव, प्राण, मन। तुझ = तुमसे। विश्राम= चैन, धैर्य। मूरिख = मूर्ख। तिराइ = तैरता है। कदली = केले का वृक्ष।सीप = सीपी, जिसमें मोती बनता है। भुजंग = सर्प। तिहूँ = तीन। भाइ = प्रकार, रूप।

संदर्भ तथा प्रसंग – प्रस्तुत दोहे हमारी पाठ्यपुस्तक में संकलित कबीर के दोहों से लिए गए हैं। प्रथम दोहे में कबीर परमात्मारूपी प्रियतम के वियोग में व्याकुल विरहिणी आत्मा बनकर अपनी अधीरता का वर्णन कर रहे हैं। द्वितीय दोहे में कबीर मूर्खा का संग न करने का संदेश दे रहे हैं। संगति के प्रभाव को टाला नहीं जा सकता। अत: अज्ञानियों से दूर रहना ही अच्छा है।

व्याख्या – परमात्मारूपी प्रियतम से आत्मारूपिणी प्रेयसी या पत्नी बिछुड़ी हुई है। वह निवेदन कर रही है कि उसे प्रियतम की बाट देखते-देखते बहुत दिन बीत गए हैं। किन्तु अभी तक प्रिय-मिलन की पावन घड़ी नहीं आई। आत्मा कहती है-हे राम! मेरा मन बड़ा व्याकुल और अधीर हो रहा है। वह तुमसे मिलने को तरस रहा है। अत: आप मुझे अपनाकर विरह वेदना से मुक्त कर दीजिए। संगति का प्रभाव पड़ना अनिवार्य है। अत: साधक या भक्त को उन लोगों से दूर रहना चाहिए जो मूर्खतावश मनुष्य जीवन को सांसारिक सुखों-विषयों के भोग में नष्ट कर रहे हैं। जैसे लोहा कभी जल पर नहीं तैर सकता, उसी प्रकार हठी अज्ञानियों को भी परमात्मा का प्रेमी नहीं बनाया जा सकता। संगति का फल स्वाति नक्षत्र की बूंद से प्रमाणित होता है। जब वह केले पर पड़ती है तो कपूर बन जाती है। सीप में गिरने पर मोती बन जाती है और सर्प के मुख में पड़ने पर वही बूंद प्राणघातक विष बन जाती है। अत: कदली और सीप जैसे सज्जनों और प्रभु भक्तों की संगति करना ही कल्याणकारी हो सकता है।

विशेष –

  1. आत्मा और परमात्मा के नित्य संबंध को लौकिक प्रेम में ढालकर कबीर ने प्रेम को ज्ञान और योग साधना से सुगम और सुखदायी मार्ग बताया है।
  2. कुसंग से बचने और ईश्वर प्रेमियों की संगति करने का संदेश दिया गया है।
  3. प्रथम दोहे में सांगरूपक अलंकार है।
  4. विविध भाषाओं के शब्दों का सहज मेल कथन को प्रभावी बना रहा है।
  5. वियोग शृंगार रस की हृदयस्पर्शी छवि अंकित हुई है।
  6. द्वितीय दोहे में उपदेशात्मक शैली का प्रयोग हुआ है।

6. यहु ऐसा संसार है, जैसा सेवल फूल।।
दिन दस के व्यौहार कौं, झूठेरंग न भूलि।।
माघी गुड़ में गड़ि रही पंष रही लपटाई।
ताली पीटै, सिर धुनें, मीठु बोई माई।

कठिन शब्दार्थ – यहु = यह। सेवल फूल = एक फूल जो ऊपर से बड़ा सुन्दर होता है, अंदर रूई जैसी पदार्थ भरा रहता है। दिन दस = थोड़ा समय। व्यौहार = व्यवहार, जीवन। माषी = मक्खी, जीव। गड़ि रही = धंस गई है। पंष = पंख। लपटाई = लिपट गए हैं, सन गए हैं। ताली पीटै = पैरों को परस्पर रगड़ती है। सिर धुनै = सिर पीटती है, पछताती है। मीठे = मीठे में, सांसारिक सुखों में। बोई = फंस गई।

संदर्भ तथा प्रसंग – प्रस्तुत दोहे हमारी पाठ्यपुस्तक में संकलित कबीर के दोहों से लिए गए हैं। प्रथम दोहे में कवि ने संसार की असारता का परिचय कराते हुए उसके ऊपरी आकर्षण से भ्रम में न पड़ने की चेतावनी दी है। दूसरे दोहे में कबीर अन्योक्ति के माध्यम से, मधुर लगने वाले सांसारिक सुखों में न फंसने का संदेश दे रहे हैं।

व्याख्या – कबीर कहते हैं कि यह संसार सेंबल के फूल की तरह है। सेंबल का फूल ऊपर से बड़ा लुभावना होता है। उसके बाहरी लाल रंग और रूप के कारण तोता उसे मधुर फल समझ बैठता है और उसके पकने की प्रतीक्षा करता है। किन्तु पकने पर उसमें से रूई जैसा नीरस पदार्थ निकल पड़ता है। तोता बेचारा निराश होकर उड़ जाता है। इसी प्रकार संसार भी मनुष्य को बड़ा सुखद और सुंदर प्रतीत होता है। परंतु सांसारिक भोगों का परिणाम अंतत: एक धोखा सिद्ध होता है। मनुष्य पछताता संसार से विदा हो जाता है। कबीर कहते हैं कि इस दस दिन के अत्यंत छोटे मानव जीवन को सांसारिक सुखों में नष्ट मत करो। इसके बाहरी रूप-रंग के धोखे में पड़कर इस दुर्लभ मानव जीवन को व्यर्थ मत करो। इसे परमेश्वर के स्मरण में लगाओ।

दूसरे दोहे में कबीर ने अन्योक्ति द्वारा मनुष्य को सांसारिक सुखों में फंसने से सावधान किया है। मक्खी मीठे गुड़ का स्वाद पाने के लालच में गुड़ में चिपक जाती है और फिर निकल नहीं पाती। उसके पंख गुड में सनकर बेकार हो जाते हैं। वह अपने अगले पैरों को मलती है। सिर को धुनकर पछताती प्रतीत होती है। लेकिन मीठे के लोभ में फंस गई वह बेचारी उस जकड़ से कभी नहीं निकल पाती और वह गुड़ ही उसकी मृत्यु का कारण बन जाता है। सांसारिक सुखों की मिठास में जो जीव एक बार फँस जाता है वह फिर कभी उनसे मुक्त नहीं होता। अत: कबीर मनुष्य को सावधान कर रहे हैं कि वह ईश्वर से प्रेम करे, उसका स्मरण करे और अपने कल्याण का मार्ग प्रशस्त करे।

विशेष –

  1. पहले दोहे में सांसारिक सुखों को भ्रम बताते हुए ईश्वर की आराधना का संदेश दिया गया है।
  2. द्वितीय दोहे में अन्योक्ति अलंकार के माध्यम से मनुष्य को सावधान किया गया है कि सांसारिक विषयों के भोग से मिलने वाला सुख एक धोखा है। जो एक बार इनमें फँसा, वह पछताता हुआ ही संसार से विदा होता है।
  3. “यहु ऐसा ……… सेंबल फूल।’ में उपमा अलंकार है।
    “दिन दस’ में अनुप्रास अलंकार है।
  4. शैली आलंकारिक तथा उपदेशात्मक है।

पद

1. काहे री नलिनी हूँ कुम्हलानी।
तेरे ही नालि सरोवर पानी।।
जल में उतपत्ति जल में बास, जल में नलिनी तोर निवास।
ना तलि तपतिन उपरि आगि, तोर हेत कहुकासनि लागि।।
कहै कबीर जे उदकि समान, ते नंहि मुए हमारे जान।

कठिन शब्दार्थ – काहे = क्यों।नलिनी = कमलिनी, जीवात्मा। कुम्हिलानी = मुरझा रही है। नालि = नली, कमल के फूल की डंडी, तुम में ही (प्रतीकार्थ) सरोवर = तालाब, परमात्मा।उतपत्ति = उत्पत्ति, प्रकटीकरण (प्रतीकार्थ) जल = पानी, परमात्मा (प्रतीकार्थ)।बास = रहना, स्थिति (प्रतीकार्थ)।तोर = तेरा।निवास = स्थायी रूप से रहना। तलि = तला, नीचे से। ऊपरी = ऊपर से। आगि = कष्ट। हेत = प्रेम, मोह। कहु = बता।कासन = किससे।लाग = लगा है। उदकि = जल। मुए = मरे।जान = समझ से।

संदर्भ तथा प्रसंग – प्रस्तुत पद हमारी पाठ्यपुस्तक में संकलित कबीर के पदों से लिया गया है। इस पद के द्वारा कबीर आत्मा और परमात्मा की एकता के सिद्धान्त पर बल दे रहे हैं। कबीर के मतानुसार आत्मा और परमात्मा एक ही है। सांसारिक विषयों के सम्पर्क में आकर जीवात्मा स्वयं को परमात्मा से भिन्न समझ बैठती है और स्वयं को नाशवान समझते हुए मृत्यु के भय से दु:खी रहती है। इसी तथ्य को कबीर ने नलिनी और सरोवर के प्रतीकों द्वारा इस पद में स्पष्ट किया है।

व्याख्या – (सामान्य अर्थ) “अरी ! कमलिनी तू क्यों मुरझाई हुई है?” तेरे नाल (डंडी) में तो तालाब का जल विद्यमान है। जल मिलते . रहने पर भी तेरे कुम्हलाने का क्या कारण है? हे कमलिनी ! तेरी उत्पत्ति जल में ही हुई है और तू जल में ही सदा से निवास कर रही है। कभी इससे अलग नहीं हुई है, निरंतर जल में रहते हुए भी तेरे मुरझाने का क्या कारण है। न तो तेरा तला तप रहा है न ऊपर से कोई आग तुझे तपा रही है। यह बता कि तेरा किसी से प्रेम तो नहीं हो गया है। जिसके वियोग के दु:ख से तू मुरझा रही है। कबीर कहते हैं कि जो ज्ञानी पुरुष अपने भीतर के और बाहर के जल की एकता का ज्ञान रखते हैं। वे हमारे मतानुसार कभी मृत्यु के भय से पीड़ित नहीं होते। आत्मा की और परमात्मा की एकता जानने और मानने वाला कभी मृत्यु से भयभीत नहीं होता।

(प्रतीकार्थ) हे जीवात्मा ! तू इतनी दु:खी क्यों है ? तेरा मन मुरझाया हुआ सा क्यों हो रहा है। तू प्रतिपल परब्रह्म के संपर्क में रहती है। तेरी उत्पत्ति परमात्मा से ही हुई है और तू सदा परमात्मा के मध्य ही स्थित रहती है। कोई भी सांसारिक दु:ख (ताप) तुझे कष्ट नहीं पहुँचा सका।लगता है तू उस परब्रह्म से भिन्न किसी और के प्रति (सांसारिक विषयों में) आसक्त है। इसके अतिरिक्त तेरे दु:खी होने का और क्या कारण हो सकता है ? कबीर का कहना है कि कमलदण्ड में स्थित जल और सरोवर का जल जैसे एक है, उसी प्रकार आत्मा और परमात्मा भी अभिन्न है। इस तत्व को जो ज्ञानी लोग जान चुके हैं वे स्वयं को अजर-अमर मानते हुए, मृत्यु के भय से सदा मुक्त रहते हैं।

विशेष –

  1. कबीर ने अन्योक्ति के माध्यम से आत्मा और परमात्मा की तात्विक एकता के सिद्धान्त को सरल भाषा और सुपरिचित प्रतीकों द्वारा व्यक्त किया है।
  2. पद में नलिनी जीवात्मा को और जल परमात्मा का प्रतीक है।
  3. जब तक आत्मा सांसारिक विषयों पर आसक्त रहती है। वह स्वयं को नाशवान समझते हुए दु:खी रहती है। जब उसे परब्रह्म से नित्य एकता का ज्ञान होता है तो सारे कष्टों से मुक्त हो जाती है, यह सत्य प्रकाशित किया गया है।
  4. सम्पूर्ण पद में रूपकातिश्योक्ति अलंकार है। इसके अतिरिक्त अनुप्रास तथा अन्योक्ति अलंकार भी है।
  5. भाषा सधुक्कड़ी या पंचमेल है और शैली प्रतीकात्मक है।

2. संतौ भाई आई ग्यान की आँधी. रे!
भ्रम की टाटी सबै उड़ाणी, माया रहै न बाँधी रे।।
हितचित की दोउ थुनी गिरानी, मोह बलींडा टूटा।
त्रिस्न छाँनि परी घर ऊपर, कुबुधि का भांडा फूटा।।
ज़ोग जुगति करि संतौ बाँधी, निरचू चुवै न पाणीं।
कूड़-कपट काया का निकस्या, हरि की गति जब जाँणी।।
आँधी पीछे जल बूठा, प्रेम हरी जन भीना।
कहै कबीर भांन के प्रगटे, उदित भयो तम घीनाँ।

कठिन शब्दार्थ – टाटी = टटिया, टाटा का परदा।उड़ाणी = उड़ गईं। हित चित = चित्त की दो अवस्थाएँ, (विषयों में आसक्ति और बाहरी आचरण), द्विविधि या अनिश्चय की अवस्था। थूनि = खम्भा। गिरानी = गिर गई। बलींडा = बल्ली (छाजन को साधने वाला बीच का बेड़ा)।त्रिस्ना = तृष्णा, चाह। छाँनि = छप्पर।कुबुधि = कुबुद्धि, कुविचार।भाँडा = बर्तन।जोग जुगति = योग की युक्ति, सोच-विचार, योग साधना।निरचू = निश्चिंत, बेफिक्र।चुवै = चूना, टपकना। पाणीं = पानी।कूड़ = कूड़ा, छल-कपटे।काया = शरीर और मन। निकस्या = निकल गया। हरि की गति = ईश्वर का स्वरूप या कृपा।बूढ़ा = उमड़ा या बरसा। जने = भक्त। भीना = भीग गया, मग्न हो गया। भांन = सूर्य, ज्ञान।तम = अंधकार, अज्ञान।षीनाँ = क्षीण, नष्ट।

संदर्भ तथा प्रसंग – प्रस्तुत पद हमारी पाठ्यपुस्तक में संकलित कबीर के पदों से लिया गया है। इस पद में कबीर मनुष्य के हृदय में ज्ञान का उदय होने पर, उसके समस्त दुर्गुणों के नष्ट हो जाने का उल्लेख कर रहे हैं।

व्याख्या –
कबीर कहते हैं। हे संतो ! हमारे अंतर्मन में ज्ञान की आँधी आई हुई है। इस आँधी ने हमारे मन की भ्रमरूपी टटिया को उड़ा दिया है। माया बंधन भी उसे रोक नहीं पा रहे हैं। भाव यह है कि ज्ञानोदय होने पर हमारे मन का भ्रम और माया का प्रभाव समाप्त हो गया है। हमारे मनरूपी घर पर तृष्णारूपी छप्पर पड़ा था और द्विविधा या अनिश्चयरूपी दो खम्भे इसे साधे हुए थे। ज्ञान की प्रबल आँधी ने इनको गिरा दिया है। इससे इन खम्भों पर टिकी हुई मोहरूपी बल्ली भी टूट गई है। भाव यह है कि ज्ञानोदय होने से हमारे मन की द्विविधा और मोह भी नष्ट हो गया।

यह बल्ली के टूटते ही तृष्णारूपी छप्पर (छान) भी गिर पड़ी और वहाँ स्थित कुबुद्धि रूपी सारे बर्तन, भाँड़े फूट गए अर्थात् सारे कुविचार नष्ट हो गए। हे संतो ! अबकी बार हमने घर पर संतोषरूपी नया छप्पर बड़े यत्न से ढका और बाँधा है। अब हम पूर्णत: निश्चिन्त हैं, क्योंकि अब इसमें से एक बूंद भी वर्षा का पानी नहीं टपक सकता अर्थात् सांसारिक विषय विकार अब हमारे हृदय को लेश मात्र भी प्रभावित नहीं कर सकते। मन में ज्ञान के आगमन से मुझे हरि’ के स्वरूप का ज्ञान हो गया है और मन . का सारा कूड़ा-करकट (दुर्गुण) साफ हो गया है। ज्ञानोदय के पश्चात् मेरा भक्त हृदय प्रभु प्रेम की वर्षा में भीग ग.. है। ज्ञानरूपी सूर्य के उदय से अज्ञानरूपी अंधकार पूर्णतः नष्ट हो चुका है।

विशेष –

  1. स्वभाव के दुर्गुणों से मुक्ति पाने का कबीर एक ही उपाय मानते हैं, वह है हृदय में ज्ञान-सूर्य का उदय होना। ज्ञान के आने पर किस प्रकार सारे विकार एक-एक करके विदा हो जाते हैं। यही इस पद में कबीर ने वर्णित किया है।
  2. कबीर स्वयं को राम की दुलहिन और परमात्मा की विरहिणी के रूप में प्रस्तुत करते हैं साथ ही वह प्रेम और भक्ति के साथ ज्ञान का प्रकाश भी आवश्यक मानते हैं। ज्ञानी अर्थात् निर्मल हृदय भक्त ही परमात्मा की कृपा का पात्र हो सकता है। एद में यही संकेत है।
  3. पद में सांगरूपक, रूपक तथा अनुप्रास अलंकार है।
  4. प्रतीकात्मक शैली का भी प्रयोग हुआ है।
  5. भाषा में तद्भव शब्दों का प्रयोग है और साहित्यिक झलक विद्यमान है।

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