Rajasthan Board RBSE Class 12 Biology Chapter 24 मानव का रक्त परिसंचरण तंत्र
RBSE Class 12 Biology Chapter 24 पाठ्य पुस्तक के प्रश्न एवं उत्तर
RBSE Class 12 Biology Chapter 24 बहुविकल्पीय प्रश्न
प्रश्न 1.
मानव के हृदय की उत्पत्ति होती है-
(अ) एन्डोडर्मल
(ब) एक्टोडर्मल
(स) मीसोडर्मल
(द) एन्डोमीसोडर्मल
उत्तर:
(स) मीसोडर्मल
प्रश्न 2.
रक्त-
(अ) एक ऊतक है
(ब) एक ऊतक नहीं है।
(स) तरल आधात्री ऊतक है
(द) तरल संयोजी ऊतक है।
उत्तर:
(द) तरल संयोजी ऊतक है।
प्रश्न 3.
अधिक ऊँचाई पर मनुष्य के रक्ताणु में होगी-
(अ) संख्या में वृद्धि
(ब) आकार में वृद्धि
(स) आकार में कमी
(द) संख्या में कमी
उत्तर:
(अ) संख्या में वृद्धि
प्रश्न 4.
हृदय में संकुचन प्रारम्भ होता है-
(अ) बायें निलय से
(ब) दायें अलिन्द से
(स) बायें अलिन्द से
(द) दायें निलय से
उत्तर:
(ब) दायें अलिन्द से
प्रश्न 5.
रक्त का थक्का बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं-
(अ) न्यूट्रोफिल्स
(ब) थ्रोम्बोसाइट्स
(स) एरिथ्रोसाइट्स
(द) मोनोसाइट्स
उत्तर:
(ब) थ्रोम्बोसाइट्स
प्रश्न 6.
निलय संकुचन किसके नियंत्रण में होता है ?
(अ) AVN
(ब) पुर्किंजे तन्तु
(स) SAN
(द) पैपिलरी पेशियाँ
उत्तर:
(स) SAN
प्रश्न 7.
रुधिर स्कंदन के लिए आवश्यक आयन है|
(अ) K+
(ब) Na+
(स) Fe2+
(द) Ca2+
उत्तर:
(द) Ca2+
प्रश्न 8.
लसीका कार्य करता है-
(अ) मस्तिष्क को O2 देना
(ब) CO2 का परिवहन
(स) लसीका ग्रन्थि को श्वेताणु वापस करना
(द) रुधिर को अंतराली तरल वापस देना
उत्तर:
(द) रुधिर को अंतराली तरल वापस देना
प्रश्न 9.
स्वस्थ मनुष्य का रक्तचाप सामान्यतः होता है-
(अ) 140/90
(ब) 120/80
(स) 110/70
(द) 130/60
उत्तर:
(ब) 120/80
RBSE Class 12 Biology Chapter 24 अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
लाल रुधिर कणिकाओं का निर्माण कहाँ होता है ?
उत्तर:
लाल रुधिर कणिकाओं का निर्माण अस्थिमज्जा में होता है।
प्रश्न 2.
रक्त स्कंदन के लिए आवश्यक प्रोटीन कौन-सी है ?
उत्तर:
रक्त स्कंदन के लिए आवश्यक प्रोटीन फाइब्रिनोजन (Fibrinogen) तथा प्रोथ्रोम्बिन (Prothrombin) है।
प्रश्न 3.
किस रुधिर समूह के व्यक्ति को सार्वत्रिक ग्राही कहते हैं ?
उत्तर:
AB रुधिर समूह को सार्वत्रिक ग्राही कहते हैं।
प्रश्न 4.
गति निर्धारक किसे कहते हैं ?
उत्तर:
SAN हृदय के गति निर्धारक का कार्य करता है। इसमें आवेग उत्पन्न करने की दर 72-80 प्रति मिनट होती है।
प्रश्न 5.
हृदय चक्र किसे कहते हैं ?
उत्तर:
हृदय के एक स्पंदन प्रारम्भ होने से लेकर अगले स्पंदन के प्रारम्भ होने तक हृदय के भिन्न-भिन्न भागों में होने वाले परिवर्तनों का क्रम हृदय चक्र कहलाता है।
RBSE Class 12 Biology Chapter 24 लघूत्तरात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
खुला व बन्द रक्त परिसंचरण तन्त्र में अन्तर लिखो।
उत्तर:
प्रश्न 2.
रुधिर के कार्य लिखो।
उत्तर:
रुधिर के कार्य (Functions of Blood)
- आहारनाल (Elementary canal) में पचे हुए और अवशोषित किए गए पोषक पदार्थों को शरीर के विभिन्न भागों में पहुँचाना।
- श्वसनांगों से ऑक्सीजन को लेकर शरीर की विभिन्न कोशिकाओं में पहुँचाना ।
- कोशिकीय श्वसन (Cellular respiration) क्रिया में उत्पन्न कार्बन-डाईऑक्साइड को श्वसनांगों में छोड़ना।
- अमोनिया, यूरिया, अम्ल आदि हानिकारक पदार्थों को उत्सर्ज। अंगों (वृक्कों) तक पहुँचाना।
- हॉरमोन्स, एन्जाइम्स एवं एन्टीबॉडीज (Antibodies) का स्थानान्तरण करना।
- हानिकारक जीवाणुओं, विषाणुओं (Viruses) व रोगाणुओं के आदि का भक्षण करके शरीर की रोगों से सुरक्षा प्रदान करना।
- शरीर के सभी भागों में तापमान का नियंत्रण करना और उसे एकसमान बनाए रखना।
- चोट लगने पर रुधिर बहकर बाहर जाने से रोकने के लिए थक्का जमाने का कार्य करना।
- आवश्यक पदार्थ पहुँचाकर आहत भागों में घावों (Wounds) को भरने में मदद करना।
- मृत वे टूटी-फूटी कोशिकाओं को यकृत एवं प्लीहा में ले जाकर नष्ट करना।
- शरीर के विभिन्न अंगों के बीच समन्वय स्थापित करना और शरीर के अन्त:वातावरण का नियंत्रण करना।
प्रश्न 3.
मानव के रुधिर वर्ग बताइए।
उत्तर:
लाल रक्ताणुओं की सतह पर पाए जाने वाले विभिन्न प्रकार के प्रतिजन (या एन्टीजन) के आधार पर रक्त समूह दो प्रकार के होते हैं, जिन्हें ABO तंत्र तथा Rh तंत्र कहा जाता है।
(i) ABO तंत्र (समूह)-इस तंत्र में दो प्रकार के एन्टीजन (Antigen) होते हैं। इनकी खोज लैण्डस्टीनर (Lnadsteiner) ने की थी। एन्टीजन A तथा एन्टीजन B लाल रक्ताणुओं की सतह पर पाये जाते हैं। प्लाज्मा में दो प्रकार की एण्टीबॉडी या प्रतिरक्षी पायी जाती हैं-एण्टीबॉडी ‘a’ तथा एण्टीबॉडी ‘b’ । एण्टीजन तथा एण्टीबॉडी (Antigenrand Antibodies) की उपस्थिति के आधार पर रक्त समूह चार प्रकार के होते हैं-A, B, AB तथा O।
- रुधिर वर्ग A (Blood group-A)-इसकी लाल रक्त कणिकाओं (RBCs) में एण्टीजन A (Antibodies) होता है।
- रुधिर वर्ग B (Blood group-B)-इसकी लाल कणिकाओं में एण्टीजन B (Antigen-B) होता है।
- रुधिर वर्ग AB (Blood group-AB)-इसकी लाल रक्त कणिकाओं में एण्टीजन A तथा B दोनों होते हैं।
- रुधिर वर्ग O (Blood group-0)- इसकी लाल रक्त कणिकाओं में कोई भी एण्टीजन नहीं होता है।
उपर्युक्त सारणी से स्पष्ट है कि रुधिर वर्ग (रक्त समूह) O एक सार्वत्रिवॐ दाता (Universal donar) है जो सभी वर्गों को रक्त प्रदान कर सकता है। रुधिर वर्ग AB सार्वत्रिक ग्राही (Universal Receptor) है जो सभी प्रकार के रक्त वर्गों से रक्त ले सकता है।
(ii) Rh तन्त्र-यह रक्त तन्त्र रक्ताणु की सतह पर Rh एण्टीजन की उपस्थिति एवं अनुपस्थिति पर आधारित है। इसकी खोज लैण्डस्टीनर एवं बीनर ने की थी। जिन व्यक्तियों के रक्ताणुओं पर Rh एण्टीजन पाया। जाता है, उन्हें Rh धनात्मक (Rh + ve) तथा जिनमें नहीं पाया जाता है। उन्हें Rh ऋणात्मक (Rh – ve) कहते हैं।
प्रश्न 4.
आर. एच. तन्त्र को समझाओ।
उत्तर:
यह रक्त तन्त्र रक्ताणुओं (Blood carpuscles) की सतह पर Rh एण्टीजन की उपस्थिति एवं अनुपस्थिति पर आधारित है। इसकी खोज लैण्डस्टीनर एवं बीनर द्वारा की गयी थी।
एक अन्य प्रतिजन/एण्टीजन Rh होता है जो लगभग 80% मनुष्यों में पाया जाता हैं। यह Rh एण्टीजन रीसस बन्दर में पाए जाने वाले एण्टीजन के समान होता है। ऐसे व्यक्ति को जिसमें Rh एण्टीजन होता हैं, Rh सहित (Rh + ve) और जिसमें यह नहीं होता है, उसे Rh हीन (Rh – ve) कहते हैं। यदि Rh – ve व्यक्ति के रक्त को Rh +ve के साथ मिलाया जाता है, तो व्यक्तियों में Rh प्रतिजन विरुद्ध विशेष प्रतिरक्षी बन जाती है। अतः रक्त आदान-प्रदान करने से पहले Rh समूह को मिलाना आवश्यक होता है।
प्रश्न 5.
शिरा व धमनी में अन्तर लिखो।
उत्तर:
प्रश्न 6.
दोहरा रक्त परिसंचरण का महत्व समझाओ।
उत्तर:
दोहरे रक्त परिसंचरण का महत्व
(Significance of Double Blood Circulation)
सभी स्तनियों की धमनियों में प्रवाहित होने वाला रक्त शिराओं में प्रवाहित होने वाले रक्त से सदैव पृथक रहता है। ऐसा निलय के पूर्ण विभाजन के कारण सम्भव होता है। इस व्यवस्था से दो प्रमुख लाभ होते हैं-
- शुद्ध (Oxygenated) तथा अशुद्ध (Deoxygenated) रक्त कभी भी आपस में मिश्रित नहीं हो पाते हैं।
- इस व्यवस्था के द्वारा हृदय की प्राकुंचन (Systole) प्रावस्था में धमनियों द्वारा विभिन्न अंगों तक शुद्ध रक्त का वितरण तथा प्रसारण प्रावस्था में शरीर के विभिन्न अंगों से शिराओं द्वारा हृदय तक अशुद्ध रक्त का पहुँचना आसान हो जाता है।
प्रश्न 7.
रुधिर व लसीका में अन्तर लिखो।
उत्तर:
RBSE Class 12 Biology Chapter 24 लघूत्तरात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
मानव हृदय की बाह्य संरचना का सचित्र वर्णन कीजिए।
उत्तर:
मनुष्य के हृदय की बाह्य संरचना
(External Structure of Human Heart)
हृदय पम्पिंग स्टेशन (Pumping Station) की भाँति कार्य करता है। यह रुधिर को सम्पूर्ण शरीर में पम्प करता है। हृदय एक पेशीय अंग है, जिसका आकार मानव की मुट्ठी के लगभग बराबर होता है। हृदय की उत्पत्ति मध्यजन स्तर (Mesoderm) से होती है।
मानव हृदय वक्षगुहा (Thoracic cavity) के मध्यावकाश में दायी फुफ्फस शिरा अधरतल की ओर दोनों फेफड़ों (Lungs) के मध्य कुछ बार्थी ओर स्थित रहता है। यह सीलोमिक एपिथीलियम (Coelomic epithelium) में बन्द रहता है। इसकी भीतरी झिल्ली जो हृदय से चिपकी रहती है, एपीकार्डियम (Epicardium) कहलाती है। इसकी बाहरी झिल्ली को हृदयावरण या पेरीकार्डियम (Pericardium) कहते हैं। इन दोनों झिल्लियों के बीच की सँकरी गुहा को हृदयावरणी गुहा (Pericardial cavity) कहते हैं। इस गुहा में हृदयावरणी द्रव (Peri cardial Fluid) भरा रहता है।
यह द्रव हृदय को नम बनाये रखता है। तथा बाहरी आघातों से इसकी रक्षा करता है। इसे स्पन्दन में होने वाले घर्षण के दुष्प्रभाव से बचाता है तथा स्पन्दन में इसे सिकुड़ने तथा फैलने में सहयोग करता है। हृदय की दीवारें अनैच्छिक हृदय पेशियों (Cardiac Muscles) की बनी होती हैं। ये पेशियाँ स्वतः ही सिकुड़ती और फैलती हैं तथा कभी भी नहीं थकती हैं। हृदय की दीवार के बाहरी स्तर को एपीकार्डियम (Epicardium) तथा भीतरी स्तर को एण्डोकार्डियम (Endocardium) कहते हैं। इन दोनों के मध्य अनैच्छिक (Involuntry) तथा कभी न थकने वाले स्तर को मायोकार्डियम (Myocardium) कहते हैं, जो हृदय पेशियों की बनी होती है।
प्रश्न 2.
मानव हृदय की आन्तरिक संरचना का सचित्र वर्णन कीजिए।
उत्तर:
मानव हृदय की आन्तरिक संरचना
(Internal Structure of Human Heart)
मानव के हृदय में चार कक्ष (Chamber) होते हैं। दो ऊपरी कक्ष जो पतली भित्ति के होते हैं अलिन्द (Auricles) तथा दो निचले कक्ष निलय (Ventricles) कहलाते हैं अलिन्द (Auricles)- हृदय में दो अलिन्द होते हैं जो एक खाँच द्वारा दाहिने अलिन्द (Right auricle) तथा बायें अलिन्द (Left auricle) में विभाजित होते हैं। इनमें दाहिना अलिन्द बायें अलिन्द से बड़ा होता है। प्रत्येक अलिन्द पीछे की ओर एक मोटा उभार बनाता है जिसे अलिन्द परिशेषिका (Auricular appendix) कहते हैं।
यह अपनी ओर के निलय (Ventricle) के कुछ भाग को ढके रहता है। सम्पूर्ण अलिन्द भाग चौड़ा किन्तु छोटा और गहरे रंग का होता है। इसकी दीवारें पतली होती हैं निलय (Ventricles)-निलय भाग बड़ा, माँसल तथा हल्के रंग का होता है। हृदय में दो निलय होते हैं जो तिरछी अन्तरानिलय पट्टी (Inter ventricular septum) द्वारा दाहिने निलय (Right ventricle) तथा बायें निलय (Left ventricle) में विभाजित रहते हैं। इनमें बायाँ निलय दाहिने निलय से अधिक पेशीय होता है।
अलिन्दों एवं निलयों को एक पतली हल्की दरार पृथक करती है। इसे कोरोनरी सल्कंस (Coronary sulcus) कहते हैं। दायें एवं बायें निलय के मध्य अग्र तथा पश्च अन्तरनिलय सल्कस (Intra-ventricular sulcus) पाये जाते हैं। शरीर के विभिन्न भागों से रुधिर अलिन्दों में आता है। फेफड़ों से ऑक्सीजनित शुद्ध रक्त (Oxygenated blood) फुफ्फुस शिराओं द्वारा बाएँ अलिन्द में लाया जाता है। शरीर के सभी भागों से अनॉक्सीजनित अशुद्ध रुधिर ऊर्ध्व महाशिरा (Superior vena cava) तथा निम्न महाशिरा (Inferior vana cava) द्वारा दायें अलिन्द में लाया जाता है।
हृदय के चारों कक्ष अन्दर के कपाटों (Valves) एवं पटों (Septa) द्वारा पृथक रहते हैं। दायें एवं बायें अलिन्दों के मध्य अन्तर अलिन्द पट (Inter auricular septum) होता है। इसे पट पर एक अण्डाकार खाँच पायी जाती है।
दोनों निलयों के मध्य अन्तरनिलय पट (Interventricular septum) होता है। बायें अलिन्द एवं बायें निलय के मध्य द्विवलनी या मिटूल कपाट (Bicuspid or mitral valve) पाया जाता है। बायें अलिन्द एवं बायें निलय के मध्य उपस्थित कपाट (Semilunar valve) को त्रिवलन कपाट (Tricuspid valve) कहते हैं। फुफ्फुसीय तथा महाधमनी काण्डों (Pulmonary and aorta trunk) के अन्दर तीन-तीन अर्धचन्द्राकार कपाट (Semilunar valves) पाये जाते हैं जो रुधिर को वापस हृदय में, जाने से रोकते हैं। महाशिराओं एवं फुफ्फुसीय शिराओं (Pulmonary veins) के हृदय में खुलने वाले छिद्रों पर पेशीय वलय (Muscular folds) पाये जाते हैं। ये वलय संकुचित होकर वापस शिराओं में जाने वाले रुधिर को रोकते हैं।
निलयों की भित्तियाँ अधिक मोटी होती हैं तथा इनकी पेशियाँ निलय में अन्दर की ओर उभकर पैपिलरी पेशियाँ बनाती हैं। बायें निलय की भित्ति दायें निलय की भित्ति की तुलना में लगभग तीन गुना मोटी होती है।
प्रश्न 3.
मानव हृदय की कार्यप्रणाली समझाओ।
उत्तर:
हृदय की कार्य प्रणाली
(Working of the Heart)
हृदय एक पेशीय पम्प (Muscular pump) है। हृदय अपनी पेशियों द्वारा नियिमित (Regular) एवं क्रमबद्ध (Rhythmic) रूप से संकुचित,
और अनुशिथिलित होता रहता है। इसी को हृदय की धड़कन या स्पंदन (Heart beat) कहते हैं। प्रत्येक धड़कन में हृदय एक बार सिकुड़ता है और फिर सामान्य अवस्था में आ जाता है। हृदय की संकुचन प्रावस्था को प्रकुंचन या सिस्टोल (Systole) तथा प्रसारण की प्रावस्था को अनुशिथिलन या डायस्टोल (Diastole) कहते हैं। प्रकुंचन द्वारा रुधिर हृदय से धमनियों में होकर शरीर के विभिन्न अंगों में जाता है, जबकि प्रसारण के समय रुधिर शरीर के विभिन्न अंगों में शिराओं द्वारा हृदय में वापस आता है। हृदय स्पन्दन की इस पुनरावृत्ति को हृदय चक्र (Cardiac cycle) कहते हैं। मनुष्य में स्पन्दन दर 72 प्रति मिनट है। एकं हृदय चक्र पूरा होने में लगा समय हृद् चक्र (Cardiac cycle) कहलाता है।
हृद् चक्र (Cardiac Cycle)
हृदय के एक स्पन्दन प्रारम्भ होने से लेकर अगले स्पन्दन (Pulsation) के प्रारम्भ होने तक हृदय के विभिन्न भागों में होने वाले परिवर्तनों के क्रम को हृद् चक्र (Cardiac Cycle) कहते हैं। एक हृदय चक्र 0.8 सेकण्ड में पूरा होता है।
एक चक्र में दो प्रावस्थाएँ होती हैं। विश्रांति की अवस्था को अनुशिथिलन (Diastole) कहते हैं तथा संकुचन की अवस्था प्रकुंचन (Systole) कहलाती है। हृदय चक्र की प्रमुख घटनाएँ महाधमनियों निलयों एवं अलिन्दों के दाब में परिवर्तन, निलयों के आयतन में परिवर्तन, विभिन्न कपाटों का बन्द होना एवं खुलना तथा हृदय के कक्षों का रुधिर से भरना तथा रिक्त होना है।
यह चक्र निम्न प्रावस्थाओं में पूरा होता है-
(1) अलिन्दों का अनुशिथिलन (Artrial Diastole)-इस प्रावस्था में अलिन्द एवं निलय (Auricle and Ventricle) अधिक समय तक विश्रान्त अवस्था (Resting stage) में रहते हैं। अलिन्द लगभग 0.7 सेकण्ड विश्रान्त अवस्था में रहता है। इस समय फेफड़ों से शुद्ध रुधिर फुफ्फुसीय शिराओं (Pulmonary Veins) द्वारा बायें अलिन्द में तथा शरीर के अन्य भागों से अशुद्ध रुधिर महाशिराओं द्वारा दायें अलिन्द में आता है। अब द्विवलन एवं त्रिवलन कपाट (Bicuspid and Tricuspid valve) अलिन्दों के भरने की प्रारम्भिक अवस्था में बन्द रहते हैं परन्तु जैसे-जैसे रुधिर इनमें भरता जाता है, दाब बढ़ने के कारण इनका दाब विश्रान्त निलयों के दाब से बढ़ जाता है तब दोनों कपाट (Valve) खुल जाते हैं तथा अलिन्दों के संकुचन से पूर्व ही अधिकांश रुधिर निष्क्रिय प्रवाह द्वारा निलयों में भर जाता है।
(2) अलिन्दों का प्रकुंचन (Atrial Systole)- जैसे ही अलिन्दों का अनुशिथिलन समाप्त होता है, दोनों अलिन्द एक साथ संकुचित होते हैं। यह अवस्था अलिंद प्रकुचन कहलाती है जो लगभग 0.1 सेकण्ड तक रहती है। इस संकुचन के फलस्वरूप लगभग 25% ही रुधिर जो अलिन्दों में बचा रहता है, निलयों में आता है। इस प्रकार दोनों निलय रुधिर से पूर्णतया भर जाते हैं।
(3) निलयों का प्रकुंचन (Ventricular Systole)–अलिन्दों का प्रकुंचन समाप्त होने के तुरन्त बाद निलय संकुचित होता है। यह 0.3 सेकण्ड की प्रावस्था निलय प्रकुंचन कहलाती है। संकुचन के कारण निलयों में दाब बढ़ता है। अतः रुधिर पुनः लौटकर अलिन्दों में प्रवाहित नहीं हो पाता है। निलयों में दाब महाधमनी एवं फुफ्फुसीय काण्ड (Pulmonary trunk) के दाब से अधिक होते ही इन दोनों के अर्धचन्द्राकार कपाट (Semilunar valve) खुल जाते हैं और रुधिर दाब से इन वाहिकाओं में प्रवाहित हो जाता है। निलयों से अधिकांश रुधिर, धमनियों में चला जाता है।
(4) निलयों का अनुशिथिलन (Ventricular Diastole)- प्रकुचन के पश्चात् निलय विश्रान्त अवस्था में आ जाता है। यह प्रावस्था अनुशिथिलन की होती है। इनमें दाब कम हो जाता है। अब रुधिर को विपरीत दिशा में प्रवाहित होने से रोकने के लिए अर्धचन्द्राकार कपाट (Semilunar Valve) तुरन्त बन्द हो जाते हैं। निलयों के संकुचन के समय से ही अलिन्दों में लगातार आ रहे रुधिर का दाब धीरे-धीरे निलयों की तुलना में अधिक हो जाता है। जिससे अलिन्द निलय कपाट खुल जाते हैं और निलयों में रुधिर भर जाता है। इस प्रावस्था को निलयों की अनुशिथिलन प्रावस्था कहते हैं। यह प्रावस्था 0.5 सेकण्ड तक रहती है।
हृदय की गति का उद्गम एवं संचरण
(Origin and Transmission of Heart beat)
चालन-सभी स्तनधारियों (mammals) में दाहिने अलिन्द की पृष्ठ भित्ति में अन्दर की ओर दार्टी अग्र महाशिरा (Anterior Vana cava) के छिद्र के निकट एक छोटी-सी रचना के रूप में एक संकुचन केन्द्र होता है जिसे शिरा अलिन्द घुण्डी (Sino-auricular node : S.A. node) कहते हैं। यह घुण्डी हृदय की गति पर नियन्त्रण रखती है। अतः इसे गति निर्धारक या पेसमेकर (Pace maker) कहते हैं। इस S.A. Node में विशेष प्रकार की हृद्-पेशियाँ, तन्त्रिका तन्तु एवं तन्त्रिकाएँ होती हैं। इनमें वेगस तन्त्रिका तथा अनुकम्पी या सिम्पैथैटिक तन्त्रिकाओं (Vagus nerve and Sympathetic nerves) के तन्तु होते हैं। वेगस तन्त्रिका तन्तु हृदय की गति को कम करने तथा अनुकम्पी या सिम्पथैटिक तन्त्रिकाओं के तन्तु हृदय की गति में वृद्धि करने का कार्य करते हैं।
इसी प्रकार एक अलिन्द-निलयी घुण्डी (Auriculo-ventricular node : A. V. node) अन्तरालिन्दपट पर भी स्थित होती है। यह दूसरा निर्धारक या पेसमेकर (Pace-maker) होता है। इस A.V. node से विशेष प्रकार के तन्तुओं का एक पुल प्रारम्भ हो जाता है। इसे हिस का पूल (Bundle of His) कहते हैं। यह शीघ्र ही शाखाओं में विभाजित होकर दोनों निलयों की पार्श्व दीवारों में सूक्ष्म तन्तुओं के जाल के रूप में प्रवेश करता है। इस जाल को पुरकिंजे तन्त्र (Purkinje system) कहते हैं।
हृदय के स्पन्दन का प्रारम्भ S.A Node में होता है। अत: संकुचन की लहरें हृदय पेशियों में प्रसारित होकर अलिन्दों में होते हुए दूसरी घुण्डी, अलिन्द-निलय घुण्डी (Auriculo-ventricular node : A.V. node) में पहुँचती है। फलतः सर्वप्रथम दोनों अलिन्द संकुचित होते हैं। जिससे रुधिर त्रिवलनी तथा द्विवलनी कपाटों (Tricuspid and bicuspid valves) को खोलकर निलयों में पहुँच जाता है। निलयों का संकुचन केन्द्र A.V. node में होता है। इसे संकुचन प्रेरण S.A. node से मिलती है। अतः अब संकुचन प्रेरण A.V. node के हिस के समूह (Bundle of His) तथा पुरकिंजे तन्तुओं (Purkinje fibres) द्वारा निलयों की दीवार में जाती है, जिससे दोनों निलय संकुचित होते हैं और रुधिर अर्द्धचन्द्राकार कपाटों को खोलकर धमनी चापों में चला जाता है। इस समय अलिन्द-निलय कपाट (Atrio-venticular valve) बन्द हो जाते हैं। S.A. Node द्वारा नये स्पन्दन की प्रेरणा प्रारम्भ होने तक हृदय पूर्ण विश्रामावस्था (Diastasis) में रहता है। इस प्रकार हृदय चक्र निरन्तर गतिमान रहता है।
प्रश्न 4.
रुधिर के थक्का बनने की क्रियाविधि को समझाओ।
उत्तर:
रुधिर का थक्का बनना या रुधिर स्कंदन
(Blood Clotting or Blood Coagulation)
रुधिर के अवयव रुधिर पट्टिकाओं से बाहर आते हैं एवं एक जैल सदृश संरचना में परिवर्तित हो जाते हैं, जिसे थक्का (Clot) कहा जाता है। थक्का बनने की क्रिया स्कंदन (Clotting) कहलाती है। रुधिर का थक्का जमनी एक सुरक्षात्मक क्रिया प्रणाली है जो घाव से रोगाणुओं के शरीर में प्रवेश को रोकती है तथा रक्त की क्षति को भी रोकती है। स्कंदन की क्रिया रक्त में उपस्थित अनेक स्कंदन कारकों पर निर्भर करती है।
रक्त को स्कंदन के लिए प्रेरित करने वाले कारकों को प्रेरक कारक तथा इसे रोकने वाले कारकों को प्रतिस्कन्दन (Anticoagulant) कहा जाता है। जब कोई रुधिरवाहिनी क्षतिग्रस्त होती है तो स्कंदन कारक सक्रिय हो जाते हैं तथा एन्जाइमों की तरह कार्य करते हैं तथा स्कंदन हो जाता है। स्कंदन क्रिया में फाइब्रिनोजन, श्रोम्बिन, पट्टिकाणु एवं कुछ अन्य कारक महत्वपूर्ण होते हैं।
रक्त के जमने में होने वाली रासायनिक क्रियाएँ निम्नलिखित हैं-
(1) पहली अवस्था (Step-I)- शरीर के किसी स्थान पर चोट लगते ही वहाँ की घायल कोशिकाएँ तथा रुधिर वाहिनियाँ फट जाती हैं, जिससे रुधिर बाहर निकलने लगता है। ऐसी दशा में उस स्थान की घायल कोशिकाएँ तथा रक्त की रुधिर प्लेटलेट्स (Platelets) वायु के सम्पर्क में आते ही टूट-टूटकर प्रोथोम्बोप्लास्टिन (Prothromboplastin) नामक द्रव्य स्रावित करती हैं। प्रोथ्रोम्बोप्लास्टिन प्लाज्मा में उपस्थित कैल्सियम आयन (Ca) से मिलकर थ्रोम्बोप्लास्टिन (Thromboplastin) में परिवर्तित हो जाता है।
प्रोथ्रोम्बोप्लास्टिन + Ca++ ➝ थ्रोम्बोप्लास्टिन
रुधिर में फाइब्रिनोजन (Fibrinogen) तथा प्रोथोम्बिन (Prothrombin) नामक दो प्रोटीन होते हैं, जिनका निर्माण यकृत (Liver) में होता है। ये दोनों पदार्थ रुधिर को जमाने में सहायक होते हैं। प्रोथ्रोम्बिन रुधिर में सदैव निष्क्रिय अवस्था में रहता है। इसका कारण यह है कि रुधिर में उपस्थित एक और पदार्थ एण्टीप्रोथ्रोम्बिन (या हिपेरिन) प्रोथ्रोम्बिन को | निष्क्रिय बनाये रखता है। इसीलिए रुधिर वाहिनियों में रुधिर जमता नहीं है।
(2) दूसरी अवस्था (Step-II) थ्रोम्बोप्लास्टिन (Thromboplastin) के कैल्सियम आयन तथा ट्रिप्टेज (Tryptase) एन्जाइम की सहायता
से एण्टीप्रोथोम्बिन (Antiprothrombin) के प्रभाव को नष्ट कर देता है। परिणामस्वरूप निष्क्रिय प्रोथ्रोम्बिन सक्रिय श्रोम्बिन में परिवर्तित हो जाता है।
निष्क्रिय प्रोथ्रोम्बिन → सक्रिय श्रोम्बिन ।
(3) तीसरी अवस्था (Step III)– श्रोम्बिन (Thrombin) रुधिर में उपस्थित फाइब्रिनोजन (Fibrinogen) नामक तरल प्रोटीन को ठोस रेशेदार फाइब्रिन (Fibrin) में बदल देता है।
इस प्रकार बने फाइब्रिन (Fibrin) के रेशे घायल स्थान के ऊपर जाल बना लेते हैं। इस जाल में अनेक रुधिर कणिकाएँ उलझ जाती हैं। और जाल थक्के (Clot) का रूप ले लेता है, जिससे रुधिर का बहाव रुक जाता है। थक्के के सिकुड़ने पर हल्के पीले रंग का निकला तरल पदार्थ सीरम(serum) होता हैं | अतः रक्त का जमना एक रासायनिक क्रिया (Chemical reaction) है।
कुछ लोगों में रुधिर का थक्का (Clot) न जमने से रुधिर का बहना बन्द नहीं होता है। अत: अधिक रुधिर बह जाने से मनुष्य की मृत्यु हो जाती है। यह एक रोग है जिसे हीमोफीलिया (Haemophilia) कहते हैं। यह आनुवंशिक (Hereditary) होता है।
रक्त के थक्का बनने में निम्न कारकों की आवश्यकता होती है-
कारक I – फाइब्रिनोजन (Fibrinogen)
कारक II – ऊतक प्रोथ्रोम्बिन (Tissue Prothrombin)
कारक III – थ्रोम्बोप्लास्टिन (Thromboplastin)
कारक IV – कैल्शियम आयन (Calcium ion)
कारक V – प्रोएक्सीलेरिन या लेबाइल कारक (Proaccylarin or Labile Factor)
कारक VI – एक्सिलरिन (Accylarin)
कारक VII – प्रोकनवर्टिन या स्टेबल कारक (Proaconvrtin or stable Factor)
कारक VIII – एण्टीहीमोफिलिक ग्लोबिन (Antihaemophilic globin)
कारक IX – क्रिस्मस कारक या थ्रोम्बोप्लास्टिन अवयव (Crismas Factor)
कारक X – स्टुअर्ट-पॉवर कारक (Stuart Power Factor)
कारक XI – प्लाज्मा थ्रोम्बोप्लास्टिन एन्टीसीडेन्ट (Thromboplastin anticident)
कारक XII – हेगमेन, कारक या सम्पर्क कारक (Hagmen Factor)
कारक XIII — फाइब्रिन स्थायीकारी कारक (Fibrin Stablizing Factor)
रक्त जमने से जीव को लाभ-रक्त जमने से जीव को निम्नलिखित लाभ हैं-
- चोट या कटे स्थान से रक्त बहना बन्द हो जाता है, जिससे रक्त व्यर्थ नहीं जाता है।
- वायु से हानिकारक जीवाणुओं का प्रवेश थक्का (Clot) बनने के कारण रुक जाता है, जिससे शरीर की सुरक्षा होती है।
- नष्ट कोशिकाएँ शरीर से बाहर निकल जाती हैं एवं उनके स्थान पर नयी कोशिकाओं का निर्माण हो जाता है।
प्रश्न 5.
लसीका तन्त्र का वर्णन करो।
उत्तर:
मनुष्य का लसीका तन्त्र
(Lymphatic System in Human)
मनुष्य का लसीका तन्त्र लसीका (Lymph) लसीका वाहिनियों (lymph vessels) तथा लसीका पर्व (Lymph nodes) से मिलकर बना होता है।
(1) लसीका (Lymph) लसीका तन्त्र (Lymphatic System) में लसीका प्रवाहित होता रहता है। रुधिर केशिकाओं (Blood Capillaries) से रक्त दाब से छन जाता है। यह छना हुआ द्रव लसीका (Lymph) कहलाता है। यह रंगहीन, अल्प पारदर्शक, क्षारीय संवहन ऊतक (Vascular tissue) है। यह रक्त के प्लाज्मा जैसा ही होता है, अन्तर केवल इतना होता है कि इसमें प्रोटीन, कैल्सियम तथा फॉस्फोरस रक्त प्लाज्मा से कम मात्रा में होते हैं। किन्तु उत्सर्जी पदार्थों (Excretory substances) की मात्रा अधिक होती है। लसिका में थ्रोम्बोसाइट्स (Thrombocytes) तथा लाल रुधिर कणिकाएँ (RBCs) नहीं होती हैं। इसमें लसीका कोशिकाएँ या लसिकाणु (Lymph Cells) पायी जाती हैं तथा इसमें श्वेत रुधिर कणिकाएँ (W.B.Cs) रुधिर की अपेक्षा अधिक होती हैं।
(2) लसीका वाहिनियाँ (Lymph Vessels)-रुधिर के समान ही लसीका (Lymph) भी शरीर में प्रवाहित होता रहता है। शरीर में विभिन्न ऊतक लसीका में डूबे रहते हैं। गैसों तथा अन्य पदार्थों का विनिमय रक्त व कोशिकाओं के मध्य लसीका द्वारा होता है। लसीका वाहिनियाँ (Lymph Vessels) शिराओं के समान होती हैं, क्योंकि लसीका वाहिनियों में लसीका सदैव अंगों से हृदय की ओर प्रवाहित होता है। शिराओं की अपेक्षा इनमें दाब कम होता है। लसीका का बहाव लसीका वाहिनियों की भित्ति एवं इधर-उधर उपस्थित पेशीयों के संकुचन (Constriction) के कारण होता है। इस तन्त्र में अनेक छोटी-छोटी वाहिनियाँ होती हैं। इस तन्त्र की बड़ी वाहिनियाँ निम्नलिखित हैं-
(क) बायीं वक्षीय वाहिनी (Left Thoracic Vesels)—यह सिर के दाहिने भाग ग्रीवा (Carvies) एवं वक्ष (Thorax) के अतिरिक्त पश्चपादों, श्रोणीय क्षेत्र (Pelvic region), उदर एवं शरीर के अग्र एवं बायें भाग सिर, गर्दन व अग्रपादों से लसिका को लाती है। यह बाय अधोजत्रुक शिरा (Left subclavian vein) एवं अन्तः ग्रीवा शिरा (Intermal jugular vein) से प्रारम्भ होकर वक्ष में खुलती है।
(ख) दायीं लसीका वाहिनी (Right Lymphatic Vessels)-यह ग्रीवा में स्थित छोटी वाहिका है और शरीर के अग्र भाग तथा दायें सिर, गर्दन व अग्र पाद एवं वक्ष लसीका को एकत्रित करके लाती है। यह दायीं अधोजत्रुक शिरा (Right subclavianvein) तथा दायीं आन्तरिक ग्रीवा शिरा (Right jugular Vein) के सन्धि स्थल पर शिरा तन्त्र (Vein System) में खुलती है।
(3) लसीका में पर्व सन्धियाँ (Lymph Nodes)-लसीका वाहिनियों में जगह-जगह लसीका गाँठे (Nodes) स्थित होती हैं। इन गाँठों में लसीका कोशिकाओं का जाल व लिम्फोसाइट कणिकाएँ स्थित होती हैं। लसीका गाँठे, सिर, गर्दन, बगलों व रानों (Groin) आदि में बड़ी रुधिर वाहनियोंके के समीप स्थित होती हैं | टॉन्सिल्स(Tonsils) भी लसीका गाँठे(Lymph nodes) ही हैं |
रुधिर में मिलने से पहले लसीका में से मृत कोशिकाओं तथा बाह्य कणों को हटाने का कार्य लसीका ग्रन्थियाँ ही करती हैं। इसमें लसीकाणु का निर्माण भी होता है। ये प्रतिरक्षा का कार्य करते हैं।
लसीका तन्त्र के कार्य (Functions of lymphatic System)
लसीका तन्त्र के कार्य निम्नलिखित हैं-
(1) लसीका रक्त व ऊतकों के मध्य मध्यस्थ का कार्य करता है। यह रक्त से पाचित भोज्य पदार्थों व ऑक्सीजन को लेकर ऊतकों को तथा ऊतकों से उत्सर्जी पदार्थों, हॉर्मोन्स आदि को लेकर रक्त में लाता है।
(2) लसीका तन्त्र अवशोषित पोषक पदार्थों, विशेष रूप से वसा (ग्लिसरॉल एवं वसा अम्लों) के परिवहन में सहायक है।
(3) आन्त्र में अवशोषित वसा आक्षीर वाहिकाओं (Lecteals) के माध्यम से पहले लसीका तन्त्र (Lymphatic System) में जाती है और वहाँ से शिरा तन्त्र में जाती है।
(4) लसीका में उपस्थित श्वेत रुधिर कणिकाएँ (WBCs) रोगाणुओं को भक्षण करती हैं।
(5) लसीका अंगों व गाँठों में प्रतिरक्षी (एन्टीबॉडीज) बनते हैं जो . प्रतिरक्षा तन्त्र का मुख्य भाग हैं और प्रतिरक्षण में भाग लेते हैं।
प्रश्न 6.
मानव में रक्त परिसंचरण तन्त्र सम्बन्धी रोगों का वर्णन करो।
उत्तर:
रुधिर एवं परिसंचरण सम्बन्धी रोग (Disease Realted to Blood and Circulatory System)
1. उच्च रक्त दाब (High Blood Pressure) या अति तनावे-उच्च रक्त दाब (High B.P) वह अवस्था है जिसमें रक्तचाप सामान्य (120/80) से अधिक होता है। इस मापदंड में 120 mm. Hg (मिमी में पारे का दबाव) को प्रकुंचन (Systole) या पंपिंग दाब और 80 mm Hg को अनुशिथिलन (Diastole) दाब या विराम काल (सहज) रक्त दाब (B.P) कहते हैं। यदि किसी व्यक्ति का रक्त दाब बार-बार मापने पर 140/90 या इससे अधिक होता है तो वह अति तनाव प्रदर्शित करता है। उच्च रक्त चाप (High B.P) हृदय की बीमारियों को जन्म देता है तथा अन्य महत्वपूर्ण अंगों, जैसे–मस्तिष्क तथा गुर्दे (Kidney) जैसे अंगों को प्रभावित करता है।
2. हृद्-धमनी रोग (Cardiac-Artery Disease:CAD)–हृद्-धमनी रोग को प्रायः एथिरोकाठिन्य (Atherosclerosis) कहते हैं। इस रोग में हृदय पेशी के रक्त की आपूर्ति करने वाली वाहिनियाँ प्रभावित होती हैं। यह रोग धमनियों के अन्दर कैल्सियम, वसा तथा अन्य पेशीय ऊतकों के संचित होने से होता है। इससे धमनी की अवकाशिका (Lumen) सँकरी हो जाती है तथा कभी-कभी बंद भी हो सकती है। इसके कारण रुधिर प्रवाह धीमा हो जाता है या रुक जाता है।
3. हृद् शूल (Angina; एन्जाइना)-इसे एन्जाइना पेक्टोरिस (Angina | Pactoris) भी कहते हैं। हृद् पेशी में जब पर्याप्त ऑक्सीजन नहीं पहुँचती है, तब सीने में दर्द (वक्ष पीड़ा) होता है, जो एन्जाइना (हृदशूल) की पहचान है। एन्जाइना (Angina) स्त्री या पुरुष दोनों में, किसी भी आयु में हो सकता है, लेकिन मध्यावस्था तथा वृद्धावस्था में यह सामान्यतः होता है। यह अवस्था रक्त बहाव के प्रभावित होने से होती है।
4. हृदय आघात (Heart Shock or Attack)- हृदय आघात (Heart shock) के कई कारण होते हैं। इनमें से मुख्य कारण है-कोरोनरी धमनी (Coronary artery) में थक्का बन जाना या रुधिर वाहिका में रुकावट आ जाना यदि व्यक्ति अत्यधिक मोटा है, वह धूम्रपान (Smoking) करता है। उच्च रुधिर दाब, कम व्यायाम, रुधिर में कोलेस्ट्रॉल (Cholestrol) का बढ़ना आदि कारकों से हृदय आघात का खतरा बढ़ जाता है।
5. रक्ताल्पता (Anaemia)- सामान्यतः RBCs या हीमोग्लोबिन की कमी रक्ताल्पता या एनीमिया (Anaemia) कहलाती है। यह विटामिन B,,, फोलिक अम्ल, आयरन की कमी के कारण होता है।
6. वेरिकोस शिराएँ (Vericose Veins) वे व्यक्ति जो अधिकांश समय खड़े होकर काम करते हैं, उनके पैरों की शिराओं में खिंचाव आ जाता है और वे टेड़ी-मेड़ी हो जाती हैं और सही प्रकार से कार्य नहीं कर पाती हैं। इस स्थिति को वेरिकोस शिराएँ (Vericose Veins) कहते हैं।
7. हिमोलाइसिस (Heamolysis)- रुधिर में RBCs या अन्य रुधिर कणिकाओं के फट जाने को रुधिर लयन या हीमोलाइसिस (Haemolysis) कहते हैं।
8. हृदयपात (Heart failure)- हृदय की पेशियों को अचानक रक्त आपूर्ति कम हो जाने पर हृदय को अचानक क्षति पहुँचती है जिसे हृदयपात कहते हैं। इसके कारण हृदय शरीर में विभिन्न भागों में आवश्यकतानुसार रक्त आपूर्ति नहीं कर पाता है। इसे कभी-कभी संकुचित हृदयपात (Congestive heart failure) भी कहते हैं। फेफड़ों का संकुचित (congestion) होना इसका एक बड़ा लक्षण है। यह हृदयघात (Cardiac arrest) से अलग बीमारी है, क्योंकि हृदयघात में हृदय की धड़कनें बन्द हो जाती हैं।
9. हीमोफीलिया या शाही रोग (Haemophilia) यह एक आनुवंशिक रोग है जिसका जीन ‘X’ लिंग गुणसूत्र (Sex chromosome) पर होता है। यह रोग केवल पुरुषों में होता है। मादा इसकी वाहक (Carrier) होती है। इस रोग में चोट लगने पर रक्त का थक्का (Clot) नहीं बन पाता है और शरीर में रुधिर निरन्तर बहता रहा है। इसे सबसे पहले इंग्लैण्ड की महारानी विक्टोरिया के वंशजों वाले शाही परिवार में देखा गया, इसलिए इसे ‘शाही रोग’ कहते हैं।
10. ल्यूकोपीनिया (Lucopenia)- रुधिर में WBC का सामान्य से कम संख्या में पाया जाना ल्यूकोपोनिया (Lucopenia) कहलाता है।
11. टेकीमार्डिया (Techimardia)- हृदय स्पंदन की तीव्र गति हो जाना।
12. ब्रेडीकार्डिया (Bradycardia)- हृदय स्पंदन दर का कम हो जाना।
13. एरीथीमिया (Arrythemia)- हृदय स्पंदन दर अनियमित हो जाना।
14. अधिश्वेत रक्तता (Leukemia)- रुधिर में WBC की संख्या अत्यधिक बढ़ जाने के कारण एक प्रकार का कैंसर।
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