Rajasthan Board RBSE Class 12 Hindi सरयू Chapter 11 सुमित्रानंदन पंत
RBSE Class 12 Hindi सरयू Chapter 11 पाठ्यपुस्तक के प्रश्नोत्तर
RBSE Class 12 Hindi सरयू Chapter 11 वस्तुनिष्ठ प्रश्न
प्रश्न 1.
भारतमाता है –
(क) ग्रामवासिनी
(ख) नगर-वासिनी
(ग) पाताल-वासिनी
(घ) महल-वासिनी
उत्तर:
(क) ग्रामवासिनी
प्रश्न 2.
कविता लिखते समय भारतमाता की संतानों की संख्या कितनी थी
(क) 20 करोड़
(ख) 30 करोड़
(ग) 40 करोड़
(घ) 120 करोड़
उत्तर:
(ख) 30 करोड़
RBSE Class 12 Hindi सरयू Chapter 11 अतिलघु उत्तरात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
कविता में भारतमाता का आँचल कैसा दिखता है?
उत्तर:
कविता में भारतमाता का आँचल श्यामल, धूलभरा और मैला-सा दिखता है।
प्रश्न 2.
भारतमाता को किसकी प्रकाशिनी बताया गया है ?
उत्तर:
भारतमाता को गीता की प्रकाशिनी बताया गया है।
प्रश्न 3.
धरती कितना देती है’ में कवि ने बचपन में क्या बोए थे ?
उत्तर:
‘धरती कितना देती है’ कविता में कवि ने पैसे बोए थे।
प्रश्न 4.
ऊपर बढ़ती बेलों की तुलना लेखक ने किससे की है ?
उत्तर:
लेखक (कवि) ने ऊपर की ओर बढ़ती बेलों की तुलना झरने से की है।
प्रश्न 5.
नए उगे सेम के पौधे कवि को कैसे लगे?
उत्तर:
नए उगे सेम के पौधे कवि को छाता ताने खड़े नवागतों के समान तथा चिड़ियों के अंडे तोड़कर निकले बच्चों के जैसे लगे।
RBSE Class 12 Hindi सरयू Chapter 11 लघूत्तरात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
पैसे बोकर कवि ने क्या कल्पना की ?
उत्तर:
पैसे बोकर कवि ने कल्पना की कि पैसों के सुन्दर पेड़ उगेंगे। उन पर रुपयों के कलदार मूल्यवान खनकती फसलें पैदा होंगी। उससे कवि के पास बहुत सारे पैसे आ जायेंगे और वह धनवान हो जायेगा तथा मोटा ताजा सेठ बन जायेगा।
प्रश्न 2.
ग्रामवासिनी भारत माता किस हालात में दिखती है?
उत्तर:
ग्रामवासिनी भारत माता की आँचल धूलभरी और मटमैला है, उसकी आँखों में गंगा-जमुना, के आँसू हैं। वह दीन है तथा नीचे को आँखें झुकाए है। उसके होठों पर रुदन तथा मन में विषाद है। वह अपने घर में ही प्रवास कर रही है। वह मिट्टी की मूर्ति के समान। दरिद्र है।
प्रश्न 3.
भारत माता का संयम किस प्रकार से सफल रहा है ?
उत्तर:
भारत माता ने कष्टों को संयमपूर्वक सहन किया है। उसने पराधीनता की पीड़ा को धैर्यपूर्वक सहन किया है। अब उसकी तपस्या तथा संयम सफल हो गया है। उसकी पराधीनता तथा पीड़ा का अन्त होने वाला है। उसको महात्मा गाँधी की अहिंसा का बल मिल गया है।
प्रश्न 4.
कवि ने सेम की फलियाँ किस-किस को बाँटीं?
उत्तर:
कवि ने सेम की फलियाँ अपने मित्रों, बंधु-बान्धवों, अभ्यागतों तथा भिखारियों को बाँटीं। उसने अपने पास पड़ोस में रहने वालों को फलियाँ दीं। उसके परिचित-अपरिचित सभी लोगों को कवि से सेम की फलियाँ मिलीं। दिन-रात सभी ने उन फलियों को खाकर उनका आनन्द लिया।
प्रश्न 5.
कवि लोभवश क्या नहीं समझ पाया था ?
उत्तर:
केवि ने लोभवश बचपन में पैसे बोये थे। अब वह समझा कि उसने गलती की थी। यह धरती माता बहुत देने वाली है। यह अपनी संतान की हर आवश्यकता के लिए चीजें पैदा करती है। यह रत्न पैदा करने वाली है। कवि पैसों के पेड़ न उगने से धरती को बंजर समझ बैठा था। वह उसकी उदारता तथा अपार उर्वरता को समझ नहीं पाया था।
RBSE Class 12 Hindi सरयू Chapter 11 निबन्धात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
भारत माता की स्थिति कविता में कैसी है ? क्यों ?
उत्तर:
कविता में भारत माता को ग्रामवासिनी कहा है। वह दरिद्रता की मूर्ति है तथा उदास है। उसका आँचल मटमैला तथा धूल से भरा है। खेत उसका आँचल है तथा गंगा-यमुना नदियाँ उसके नेत्रों से बहते आँसू हैं। उसकी आँखों में दीनता है। निगाह नीचे को ओर झुकी है। उसके होठों पर रुदन तथा मन में दुख भरा है। अपने घर में ही निर्वासित है। उसकी तीस करोड़ संतानें नंगी, आधी भूखी, असुरक्षित, शोषित, अज्ञानी, अशिक्षित, निर्धन तथा अपमानित हैं। घर न होने से वह पेड़ के नीचे रहने को मजबूर हैं। मूल्यवान फसलें पैदा करके भी वह पददलित है। वह सृजनशील है। उसका मन निराशाग्रस्त है। उसके काँपते होंठों के पीछे हँसी छिपी है। उसकी दशा राहुग्रस्त चन्द्रमा जैसी है। उसकी भौंहें चिन्ताग्रस्त हैं। आँखें आँसुओं में डूबी हैं। भारत माता पराधीन है। इस पराधीनता के कारण वह निर्धनता, निराशा और पीड़ा के गर्त में पड़ी है।
प्रश्न 2.
पैसे एवं सेम की बिजाई के माध्यम से कवि कविता में क्या संदेश देना चाहता है?
उत्तर:
कवि ने बचपन में लोभ में पड़कर कुछ पैसे जमीन में बो दिये थे। उनके अंकुरित होने की उसने बहुत दिनों तक प्रतीक्षा की परन्तु उनमें से एक भी अंकुर नहीं फूटा। उसने मान लिया कि धरती बंजर है। तब से पचास वर्ष बीत गए। वह उस घटना को भूल गया। उसमें याद रखने योग्य कोई बात थी भी नहीं। एक बार वर्षा के जल से भीगी भूमि में उसने सेम के बीज रोप दिए। कुछ दिन बाद उसने देखा कि आँगन में सेम के छोटे-छोटे पौधे उग आए हैं। वे पौधे बड़े हुए। सेम की बेलें फल गईं। उन पर असंख्य फलियाँ लगीं। कवि ने उन फलियों को अपने मित्रों, बंधु-बांधवों, अभ्यागतों तथा भिखारियों को बाँटा। उसने पास-पड़ोस के लोगों को भी सेम की फलियाँ दीं। पूरे मुहल्ले के लोगों ने सुबह-शाम सेम की फलियाँ पकाकर खाईं।
अब कवि की समझ में आया कि बचपन में वह गलत था। उसने गलत बीज बोए थे। पैसे बोए थे, जो नहीं उगे परन्तु सेम की भारी फसल पैदा हुई। उसने माना कि धरती बंध्या नहीं रत्न प्रसविनी है। उसमें मानवों के बीच समानता, ममता तथा क्षमता के बीज बोने हैं। पैसे बोने तथा सेम के बीज बोने के माध्यम से कवि यह संदेश देना चाहता है कि दोष धरती का नहीं, उसमें बीज बोने वालों का होता है। पैसे बोने पर उनका न उगना कवि के बचपने का नतीजा था। सेम के बीज बोना उसकी समझदारी थी। समझदारी से किया गया कार्य सफल होता है। सेम के बीज उगे और ढेर सारी फलियाँ उत्पन्न हुईं। हम जैसा काम करते हैं, उसका वैसा ही परिणाम हमें प्राप्त होता है। हमें चाहिए कि धरती पर लोगों में प्रेम, ममता, समानता, कार्य-क्षमता आदि पैदा करें। तभी यह धरती अपनी संतान की सच्ची माता बन सकेगी।
प्रश्न 3.
पंत जी के रचना कर्म पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
पंत हिन्दी की छायावादी काव्यधारा के कवि हैं। उन पर गाँधीवाद तथा मार्क्सवाद का प्रभाव भी है। पन्त के विचार बदलते रहे हैं। वे एक वाद से बंधे नहीं हैं। उनकी काव्य साधनों को निम्नलिखित चरणों में बाँटा जा सकता है प्रथम चरण में उच्छवास से गुंजन तक की कविताएँ भाव एवं सौन्दर्य चेतना भरपूर हैं। इन कविताओं में जीवन के विकास की सच्चाई पर कवि का विश्वास दिखाई देता है। इन कविताओं में छायावाद सौन्दर्य चित्रण तथा कोमलता है। द्वितीय चरण में युगान्त, युगवाणी, ग्राम्या आदि काव्य कृतियाँ हैं। इनकी कविताएँ मार्क्सवादी दर्शन से प्रभावित हैं। इनको हिन्दी की प्रगतिवादी धारी की कविताएँ कही जाती हैं। इनमें सामाजिक असमानता तथा शोषण के विरुद्ध विद्रोह दिखाई देता है। कवि ने ‘ताजमहल’ के बारे में लिखा है हाय ! मृत्यु का ऐसा अमर अपार्थिव पूजन जब विषण्ण निर्जीव पड़ा हो जग का जीवन।
तीसरे चरण में स्वर्ण धूलि, स्वर्ण किरण, युगपथ, अतिमा, उत्तरा आदि शामिल हैं। इन रचनाओं पर कवि की मूल धारा का प्रभाव है। चौथे चरण में कला और बूढ़ा चाँद से लोकायतन (महाकाव्य) तक की रचनाएँ रखी जा सकती हैं। लोकायतन पर गाँधीवादी प्रभाव है। मानवतावाद तथा लोकमंगल इन रचनाओं का प्रयुक्त स्वर है। ‘चिदम्बरा’ उनकी कविताओं का संकलन है। पन्त प्रकृति के चित्रकार हैं। उनकी प्रकृति मनोरम तथा कोमल है। प्राकृतिक सौन्दर्य का उनके द्वारा प्रस्तुत चित्रण अत्यन्त सजीव है। पन्त ने काव्य के विचारों और भावों का भी ध्यान रखा है। शिल्प को कवि ने महत्वपूर्ण माना है। उनका काव्य सजीव तथा चित्रमयी है। पुरानों के साथ ही नवीन, मानवीकरण आदि अलंकारों को कवि ने अपनाया है। अतुकान्त मुक्त छन्द का प्रयोग भी किया है। पंत समन्वयवादी हैं। उन्होंने अपने काव्य में भौतिकवाद के साथ अरविन्द की आध्यात्मिकता का समन्वय किया है। कला तथा भवि- दोनों पक्षों की दृष्टि से पंत का काव्य हिन्दी का उत्कृष्ट काव्य है।
प्रश्न 4.
निम्नलिखित पद्यांशों की सप्रसंग व्याख्या कीजिए
(क) तीस कोटि ……….. शरदेन्दुहासिनी।।
(ख) सफल मान ………… जीवन विकासिनी।
(ग) पर बंजर धरती …… तृष्णा को सींचा था।
(घ) यह धरती कितना ………. अब समझ सका हूँ।
उत्तर:
इनकी व्याख्या के लिए ‘पद्यांशों की सन्दर्भ एवं प्रसंग सहित व्याख्याएँ’ शीर्षक देखें।
RBSE Class 12 Hindi सरयू Chapter 11 अन्य महत्वपूर्ण प्रश्नोत्तर
RBSE Class 12 Hindi सरयू Chapter 11 वस्तुनिष्ठ प्रश्न
प्रश्न 1.
सुमित्रानन्दन पंत का मूल नाम था –
(क) गुसाईं दत्त
(ख) रामदत्त
(ग) हरिदत्त
(घ) प्रयागदत्त
उत्तर:
(क) गुसाईं दत्त
प्रश्न 2.
पन्त जी के किस कविता संग्रह पर ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त हुआ –
(क) ग्राम्या
(ख) युगान्त
(ग) चिदम्बरा चिदम्बेरा
(घ) वीणा
उत्तर:
(ग) चिदम्बरा चिदम्बेरा
प्रश्न 3.
“भारत माता’ कविता किस संग्रह से ली गई है –
(क) चिदम्बरा
(ख) ग्रन्थि
(ग) उत्तरा
(घ) ग्राम्या
उत्तर:
(घ) ग्राम्या
प्रश्न 4.
‘धरती कितना देती है-‘ कविता में कवि ने संदेश दिया है –
(क) यह धरती कितना देती है।
(ख) हम जैसी बोयेंगे वैसा ही पायेंगे।
(ग) समझ नहीं पाया था मैं उसके महत्व को
(घ) और फूल फल कर मैं मोटा सेठ बनूंगा।
उत्तर:
(ख) हम जैसी बोयेंगे वैसा ही पायेंगे।
प्रश्न 5.
भारतमाता कविता में प्रयुक्त विशेषण नहीं है –
(क) शरदेन्दुधारिनी
(ख) गीता प्रकाशिनी
(ग) विंध्यवासिनी
(घ) ग्रामवासिनी
उत्तर:
(ग) विंध्यवासिनी
RBSE Class 12 Hindi सरयू Chapter 11 अतिलघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1.
सुमित्रानन्दन पंत की काव्य भाषा कैसी है ?
उत्तर:
सुमित्रानन्दन पंत की काव्य भाषा संस्कृतनिष्ठ साहित्यिक खड़ी बोली है।
प्रश्न 2.
पंतजी के काव्य पर किनका प्रभाव है ?
उत्तर:
पंतजी के काव्य पर अरविन्द, महात्मा गाँधी, कार्लमार्क्स आदि का प्रभाव है।
प्रश्न 3.
पंत जी को प्रकृति का चितेरा क्यों कहा जाता है?
उत्तर:
पंत जी ने प्रकृति के कोमल, सुन्दर, सजीव चित्र अपनी कविताओं में अंकित किए हैं।
प्रश्न 4.
पंत को हिन्दी की किस काव्यधारा का कवि माना जाता है ?
उत्तर:
पन्त जी को हिन्दी के छायावादी काव्यधारा को कवि माना जाता है।
प्रश्न 5.
पन्त जी द्वारा रचित महाकाव्य का क्या नाम है ?
उत्तर:
पन्त जी द्वारा रचित महाकाव्ये लोकायतन है।
प्रश्न 6.
भारत माता को ग्रामवासिनी क्यों कहा गया है ?
उत्तर:
भारत माता को ग्रामवासिनी कहा गया है, क्योंकि भारत के अधिकांश लोग गाँवों में रहते हैं।
प्रश्न 7.
भारत माता को गीता प्रकाशिनी कहने को क्या कारण है ?
उत्तर:
भारत माता को गीता प्रकाशिनी कहा गया है क्योंकि श्रीमद्भागवत गीता भारतवर्ष में ही लिखी गई थी।
प्रश्न 8.
कवि ने भारत माता के तप संयम को सफल क्यों कहा है ?
उत्तर:
भारतमाता को गाँधी जी की अहिंसा का बल प्राप्त हो चुका है। इसलिए वह परतंत्रता तथा दुख-दरिद्रता से मुक्त होगी।
प्रश्न 9.
‘चिंतित-भृकुटि’ – क्षितिज तिमिरांकित’ में कौन-सा अलंकार है?
उत्तर:
‘चिंतित-भृकुटिं’ – क्षितिज तिमिरांकित’ में रूपक अलंकार है।
प्रश्न 10.
‘धरती कितना देती है’ कविता में कवि ने किसको अपनी भूल माना है?
उत्तर:
कवि ने पैसे बोने के काम को अपनी भूल माना है।
प्रश्न 11.
‘धरती कितना देती है’ कविता से पंक्ति छाँटकर लिखिए जिसमें कवि ने अपनी भूल स्वीकार की है?
उत्तर:
जिसमें कवि ने अपनी भूले मानी है, वह पंक्ति है – मैं अबोध था, मैंने गलत बीज बोये थे।
प्रश्न 12.
‘ग्रीष्म तपे वर्षा फूली, शरदें मुसकाईं’ में किसका वर्णन है?
उत्तर:
‘ग्रीष्म तपे वर्षा फूली, शरदें मुसकाई, में छ: ऋतुओं का वर्णन कवि ने किया है।
प्रश्न 13.
कवि क्या देखकर विस्मय से हर्ष-विमूढ़ हो गया ?
उत्तर:
कवि ने अपने आँगन में छोटे-छोटे सेम के नए उगे हुए पौधे देखे थे।
प्रश्न 14.
‘डिम्ब तोड़कर निकले चिड़ियों के बच्चों से’ किनको कहा गया है?
उत्तर:
सेम के छोटे पौधों को तोड़कर निकले चिड़ियों के बच्चों से कहा गया है।
प्रश्न 15.
“रत्न प्रसविनी है वसुधा अबे समझ सका हूँ।’ कहने का क्या आशय है ?
उत्तर:
सेम के बीजों को उगा हुआ तथा उन पर लदी फलियों को देखकर कवि ने माना कि धरती बहुमूल्य फसलें पैदा करती है।
प्रश्न 16.
कवि धरती पर किसकी फसल उगाना चाहता है ?
उत्तर:
कवि धरती पर मानव प्रेम, समान व्यवहार तथा मानव की कार्यक्षमता की फसल उगाना चाहता है।
प्रश्न 17.
‘धरती कितना देती है’ कविता का क्या संदेश है?
उत्तर:
‘धरती कितना देती है’ कविता का संदेश है कि हमें अच्छे काम करने चाहिए, जिससे धरती पर सब कोई सुख, प्रेम और। शांति से रह सकें।
प्रश्न 18.
कवि ने बचपन में धनवान बनने के लिए पैसे बोए थे। आज धनवान बनने के लिए लोग क्या करते हैं ?
उत्तर:
लोग नौकरी या कोई व्यवसाय करते हैं या कल-कारखाना चलाते हैं। कुछ लोग भ्रष्टाचार भी करते हैं। कुछ लोग व्यभिचार से धन कमाते हैं।
RBSE Class 12 Hindi सरयू Chapter 11 लघु उत्तरात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
भारत माता’ कविता की दो विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर:
‘भारत माता’ कविता पंत जी के ग्राम्या’ नामक कविता संग्रह में संकलित है। यह कविता प्रगतिवाद से प्रेरित तथा प्रभावित है। इसकी दो विशेषताएँ निम्नलिखित हैं
- कवि ने भारत माता के माध्यम से भारत के दीन और शोषित जनों का चित्रण किया है। भारत गाँवों में बसता है। अत: कवि ने भारत माता को ग्राम वासिनी कहा है।
- भारत माता की दरिद्रता का वर्णन करके भी कवि निराश नहीं है। उसमें आशा की भावना प्रखर है। वह गाँधीवादी अहिंसा में भारत की मुक्ति के दर्शन करता है। यह कविता दरअसल तब लिखी गई थी जब भारतवर्ष स्वतंत्र नहीं था।
प्रश्न 2.
ज्ञान गूढ़ गीता प्रकाशिनी’- कहकर पन्त जी भारत माता की किन दो विशेषताओं के बारे में बता रहे हैं ?
उत्तर:
‘ज्ञान गूढ़ गीता प्रकाशिनी’ कहकर कवि पन्त ने भारत माता के दो परस्पर विरोधी गुणों का चित्रण किया है। भारत माता ज्ञान गूढ़ है। अर्थात् भारत में अशिक्षा और अज्ञान फैला हुआ है। चारों तरफ अन्धविश्वास का बोलबाला है। भारत माता को कवि ने गीता प्रकाशिनी कहा है। भारत सदैव अज्ञानग्रस्त नहीं था। इस देश में श्रीमद्भगतवगीता जैसे महान् तथा विश्व प्रसिद्ध ग्रन्थ की रचना हुई थी। यह देश जगद्गुरु के नाम से विख्यात था।
प्रश्न 3.
भारत माता किसका प्रतीक है? इस कविता में चित्रण को मूल बिन्दु क्या है ?
उत्तर:
भारत माता भारत के जनों का प्रतीक है। इस कविता में कवि ने भारत माता के माध्यम से भारत के ग्रामीण जीवन का सजीव वर्णन किया है। भारत के अधिकांश जन गाँवों में बसते हैं। वे निर्धन तथा अभावग्रस्त और अशिक्षित हैं। भारतीयों की इसी दुर्दशा का वर्णन कवि ने भारत माता कविता में किया है।
प्रश्न 4.
धरती कितना देती है?’ कविता का केन्द्रीय भाव लिखिए।
उत्तर:
‘धरती कितना देती है। कविता में कवि ने मनुष्य के जीवन में सत्कर्म के महत्व को प्रतिपादन किया है। कवि बताना चाहता है कि अच्छे काम करने से ही मानव जीवन तथा समाज का हित होना सम्भव है। कवि भाग्यवाद से प्रभावित है अथवा यह भी कह सकते हैं कि कवि गीता के कर्मवाद का संदेश दे रहा है। कवि के शब्दों में कहना चाहें तो कहा जा सकता है-हम जैसा बोयेंगे वैसा ही पायेंगे। तात्पर्य यह है कि अच्छे कर्म का फल अच्छा तथा बुरे कर्म का फल बुरा मिलता है। अत: मनुष्य को अच्छे काम करने चाहिए।
प्रश्न 5.
मैं अबोध था मैंने गलत बीज बोये थे’ कवि ने बचपन में क्या गलती की थी ?
उत्तर:
कवि ने बचपन में जमीन में पैसे बोए थे। वह तब अबोध था। उसने सोचा था कि पैसे के पेड़ उगेंगे। उन पर रुपयों के फल लगेंगे वह खूब धनवान हो जाएगा। कवि का ऐसा सोचना ही उसकी भूल थी। रुपये पेड़ों पर नहीं लगा करते। अत: बहुत प्रतीक्षा के बाद भी पैसों से एक भी अंकुर नहीं फूटा। कवि ने भूमि को अनुर्वर मान लिया।
प्रश्न 6.
‘अर्ध शती लहराती निकल गई है तब से’ कवि के आधी शदी के जीवन में आई ऋतुओं का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
कवि के जीवन की आधी सदी व्यतीत हो गई है। इस बीच छः ऋतुएँ बारी-बारी से अनेक बार उसके जीवन में आईं और गई हैं। अनेक बार बसन्त आने पर वृक्ष पुष्पित-पल्लवित हुए हैं और पतझड़ में उनके पत्ते सूखकर झड़ गए हैं। भयंकर ग्रीष्मकालीन ताप ने उनको तपाया है। उसके बाद वर्षा ऋतु ने आकर वृक्षों को नया जीवन दिया है। शरद के बाद शिशिर और हेमन्त ऋतुओं का आगमन हुआ है, तेज सर्दी के कारण मुँह से ‘सीसी’ की आवाज निकली है।
प्रश्न 7.
वर्षा ऋतु के आने पर कवि ने क्या किया है ?
उत्तर:
एक बार वर्षा ऋत आने पर भूमि गीली हो गई। कवि ने कौतूहलवश अपने उँगली से गीली मिट्टी को कुरेदा। उसने मिट्टी के नीचे सेम के कुछ बीज रोप दिए। फिर कवि इसको भूल गया। इसमें ऐसी कोई बात भी नहीं थी कि वह उसको याद रखता। एक दिन संध्या के समय अपने आँगन में उगे हुए नए पौधों को देखकर उसे विस्मय हुआ।
प्रश्न 8.
देखा आँगन के कोने में कई नवागत। छोटा-छोटा छाता ताने खड़े हुए हैं।-पंक्ति में कवि ने किसका वर्णन किया है।
उत्तर:
कवि ने इन पंक्तियों में अपने आँगन में नए-नए उगे छोटे-छोटे सेम के पौधों का वर्णन किया है। ये पौधे नए आगन्तुक थे जो छोटे-छोटे छाते तानकर कर खड़े थे। कवि को सेम के ये पौधे अण्डों को फोड़कर निकले चिड़ियों के बच्चों के समान लगे। उसको ऐसा प्रतीत हुआ कि वे अपने पंख फड़-फड़ाकर हवा में उड़ जाएँगे।
प्रश्न 9.
‘छाता कहूँ कि विजय पताकाएँ जीवन की या हथेलियाँ खोले थे। वे नन्हीं प्यारी’- में कौन-सा अलंकार है? तथा क्यों ?
उत्तर:
छाता कहूँ विजय-पताकाएँ जीवन की या हथेलियाँ खोले थे वे नन्हीं प्यारी – पंक्तियों में संदेह अलंकार है। कवि ने सेम के छोटे पौधों के चंदोवे को छाता, विजय पताकाएँ तथा नन्हीं हथेलियाँ बताया है। वे इनमें से क्या हैं, यह निश्चित न होकर संदेह बने रहने के कारण इनमें संदेह अलंकार है। जहाँ समानता के कारण एक वस्तु में अनेक वस्तुओं के होने का संदेह बना रहता है और निश्चय एक को भी नहीं होता तो वहाँ संदेह अलंकार होता है। या, अथवा, कि, किंधो आदि इसके वाचक शब्द हैं।
प्रश्न 10.
मैं अवाक् रह गया वंश कैसे बढ़ता है-कवि अवाक् क्यों रह गया?
उत्तर:
कवि ने देखा कि सेम के पौधे तेजी से बढ़ने लगे। उन पर मखमली चॅदोबे लग गए। बेलें बल खाकर आँगन में लहरा उठीं। बाड़े की टटिया का सहारा लेकर वे तेजी से ऊपर की ओर बढ़ने लगीं। किसी के वंश अथवा परिवार की वृद्धि इसी प्रकार होती है। सेम के पौधों के परिवार को तेजी से बढ़ता देखकर कवि इतना विस्मित हुआ कि वह कुछ बोल न सका।
प्रश्न 11.
“ओह ! समय पर उनमें कितनी फलियाँ टूटी पंक्ति में कवि ने सेम की फलियों के बारे में क्या बताया है ?
उत्तर:
कवि ने बताया कि जब बेलें खूब फैल गईं तो उन पर सेम की फलियाँ लगीं। ये फलियाँ असंख्य थीं। उनकी गिनती करना सम्भव नहीं था। ये फलियाँ देखने में पतली और चौड़ी लगती थीं। कवि ने देखा कि वे छोटी-छोटी तलवारों जैसी थीं। वे पन्ने के बने गले के हारों के समान र्थी। जैसे अमावस्या के बाद पूर्णिमा तक चन्द्रमा की कलाएँ बढ़ती हैं। वैसे ही वे भी बढ़ रही थीं। सच्चे मोती के समान तथा पूर्व दिशा के आकाश में उगे कचपचिया तारों के समूह जैसी थी।
प्रश्न 2.
“रत्न प्रसविनी’ किसको कहा गया है तथा क्यों ?
उत्तर:
कवि ने पृथ्वी को रत्न प्रसविनी कहा है। रत्न प्रसविनी का अर्थ है-रत्न पैदा करने वाली। कवि ने सेमे के बीज बोये थे। समय आने पर उन पर असंख्य सेम की फलियाँ लगीं। उन फलियों को कवि तथा उसके परिचित-अपरिचित लोगों ने जाड़े भर जी खोल कर खाया। बचपन में पैसे बोकर कवि ने धरती को बंजर समझा था। सेम की बीज बोने पर यह भ्रम टूट गया। उसने माना कि धरती रत्न प्रसविनी है।
प्रश्न 13.
कवि की दृष्टि में पृथ्वी पर किसकी फसलें उगाना आवश्यक है तथा क्यों ?
उत्तर:
कवि चाहता है कि हमारी धरती सुख-सुविधा सम्पन्न हो। इसके लिए वह चाहता है कि लोग मनुष्यों के बीच ममता पैदा। करने का काम करें। मनुष्यों में काम करने की क्षमता का विकास हो। सभी मनुष्यों से समानता का व्यवहार किया जाए। उनमें भेदभाव न किया जाए। इसके लिए कवि चाहता है कि पृथ्वी पर मानव ममता, समता और क्षमता की फसलें उगाये।
प्रश्न 14.
‘धरती कितना देती है। – कविता की ‘हम जैसा बोंयेंगे वैसा ही पायेंगे’ -पंक्ति का आशय स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
‘हम जैसा बोयेंगे वैसा ही पायेंगे’ -पंक्ति में ‘धरती कितना देती है’ कविता का सार निहित है। कवि ने पैसे बोये तो उसका प्रयत्न निष्फल रहा। सेम के बीज बोए तो सफलता मिली। किसी कार्य का सफल होना इस बात पर निर्भर करता है कि सही प्रयत्न किया गया है अथवा नहीं। कार्य में सफलता सही रास्ता अपनाने से मिलती है। यदि हमारी कार्य-पद्धति सही है तो हम अवश्य सफल होंगे।
प्रश्न 15.
“यह धरती कितना देती है, धरती माता’ – धरती को कवि ने माता कहा है। आपकी दृष्टि से इसका कारण क्या हो सकता है ?
उत्तर:
कवि ने धरती कितना देती है, धरती माता कहकर पृथ्वी की तुलना माँ से की है। माँ अपने पुत्रों का पालन-पोषण करती है तथा उनको समर्थ बनाती है। वह उनसे बहुत स्नेह करती है और उनका भला चाहती है। धरती पर रहने वाले मनुष्य तथा अन्य जीव उसकी संतान हैं। अपने अनेक पदार्थ उनकी जरूरतें पूरा करने के लिए पैदा करती है। पृथ्वी पर उगी चीजों से ही मनुष्यों का पालन-पोषण होता है। पृथ्वी पर अनेक तरह की फसलें पैदा होती हैं तथा उनमें असंख्य चीजें उत्पन्न होती हैं। यह देखकर ही कवि ने कहा है- धरती माता कितना देती है अपने प्यारे पुत्रों को।
RBSE Class 12 Hindi सरयू Chapter 11 निबन्धात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
“सच्ची ममता, जन की क्षमता तथा मानव क्षमता शब्द ‘धरती कितना देती है।’ कविता में आए हैं। यह किस उद्देश्य के लिए प्रयुक्त हुए हैं ? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
धरती कितना देती है-कविता में कवि ने बताया है कि बचपन में पैसे बोना उसकी भूल थी। बाद में उसको सेम के बीज बोने पर पृथ्वी के रत्न–प्रसविनी होने का प्रमाण मिला। उसने माना कि अच्छे काम का परिणाम ही अच्छा होता है। कविता के अन्त में कवि ने प्रेरणा दी कि पृथ्वी पर ‘सच्ची ममता’ ‘जन की क्षमता तथा ‘मानव क्षमता’ के दाने बोने हैं। प्रतीकात्मक रूप से इसका अर्थ यह है कि धरती पर रहने वाले मनुष्यों को एक-दूसरे से प्रेम करना चाहिए तथा उनके मन में एक-दूसरे के लिए ममता की भावना होनी चाहिए। पृथ्वी के निवासियों में कार्य करने की क्षमता होनी चाहिए। उनमें ऐसी योग्यता उत्पन्न की जाए कि वे किसी कार्य को करने में अक्षम सिद्ध न हों। धरती पर रहने वाले मनुष्यों के साथ समानता का व्यवहार हो।
उनमें जाति, धर्म, प्रदेश, रंग, लिंग आदि के आधार पर भेदभाव न हो। इन शब्दों का प्रयोग करने का उद्देश्य यह है कि कवि संसार को एक ऐसा स्थान बनाना चाहता है कि जिसमें रहने वाले मनुष्यों को सुख-सुविधा प्राप्त हो सके। वे इस धरती पर एक-दूसरे के साथ प्रेम से रह सकें। वे अपने कार्य सफलतापूर्वक कर सकें तथा बिना भेद-भाव के जीवन बिता सकें। इस प्रकार हम देखते हैं कि ‘धरती कितना देती है. एक संदेशपरक रचना है जिसमें आदर्श जीवन का चित्र प्रस्तुत किया गया है।
प्रश्न 2.
“धरती कितना देती है” पंत के भाग्यवादी दर्शन पर आधारित है-क्या आप इस कथन से सहमत हैं ? तर्कपूर्ण उत्तर दीजिए।
अथवा
धरती कितना देती है” कविता में कवि ने कर्मवाद का संदेश दिया है। स्पष्ट कीजिए।
अथवा
धरती कितना देती है कविता का अन्त हम जैसा बोयेंगे वैसा ही पायेंगे” कहने के साथ हुआ है। क्या इसका अर्थ यह निकाला जा सकता है कि पंत भाग्यवादी थे और अपनी रचना से भाग्यवादी दर्शन का प्रचार कर रहे थे।”
उत्तर:
पंत की विचारधारा परिवर्तनशील रही है। वह महर्षि अरविन्द, महात्मा गाँधी, कार्ल मार्क्स आदि के विचारों से प्रभावित रहे है। इनमें से किसी भी महापुरुष को हम भाग्यवाद का समर्थक नहीं कहते। पंत प्रगतिवादी हैं। प्रगतिवाद पर मार्क्स के दर्शन का प्रभाव है। पंत की आरम्भिक रचनाएँ छायावाद के अन्तर्गत आती हैं। छायावाद में पलायन की प्रवृत्ति दिखाई देती है। किन्तु वह प्रबल नहीं है। ने पलायन को भाग्यवाद कहा जा सकता है। छायावाद सौन्दर्य और प्रेम के चित्रण में डूबा है।
पन्त प्रकृति के चितेरे हैं तथा उसके सौन्दर्य के प्रेमी है। ‘छोड़ द्रुमों को मृदु छाया, तोड़ प्रकृति से भी माया, बाले तेरे बाल जाल में कैसे उलझा दें लोचन ? कहने वाला प्रकृति प्रेमी भाग्यवादी नहीं हो सकता।’ ‘धरती कितना देती है’ कविता भाग्यवाद की प्रेरणा नहीं देती। उसमें सत्कर्म की प्रेरणा दी गई है। सत्कर्म से ही धरती को मनुष्य के रहने योग्य बनाया जा सकता है। कवि ने सब कुछ भाग्य पर छोड़ने का संदेश कविता में कहीं नहीं दिया है। अतः पन्त को भाग्यवादी दर्शन का उपदेशक नहीं कहा जा सकता।
प्रश्न 3.
“मैं अबोध था मैंने गलत बीज बोये थे’ कवि ने बचपन में क्या गलती की थी ? कवि की गलती को आप किस। प्रकार सुधारना चाहेंगे ?
उत्तर:
पन्त ने बचपन में धनवान होने की लालसा में पैसे बोये थे। बहुत समय तक प्रतीक्षा करने पर उनमें से एक अंकुर भी नहीं फूटा तो कवि ने दोष धरती को दिया और उसको बंध्या (बंजर) मान लिया। जब बड़े होने पर उसने सेम के बीज बोये थे। उन पर अगणित फलियाँ उत्पन्न हुईं तो कवि ने समझा उसने गलत बीज बोये थे। पैसा बोकर फसल नहीं उगाई जा सकती। पैसा पेड़ों पर नहीं होता। पैसा बोना ही कवि की गलती थी। उसने धनवान सेठ बनने के लिए पैसे बोये थे। पैसों की आवश्यकता सबको होती है। संसार में लोगों की आवश्यकताएँ पूरा करने के लिए यह जरूरी है। अतः मैं भी पैसा पैदा करना चाहूँगा, किन्तु मैं वह गलती नहीं करूंगा। मैं खेती करूगा, व्यापार करूंगा अथवा कारखाना लगाकर किसी चीज का निर्माण करूंगा। इस प्रकार समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति करके मैं धनोपार्जन करूंगा। मैं अपना तथा समाज का जीवन सुखदायक बनाऊँगा।
प्रश्न 4.
“यह धरती कितना देती है’ – कविता का प्रतिपाद्य क्या है ? लिखिए।
अथवा
यह धरती कितना देती है” – कविता में कवि ने क्या संदेश दिया है ?
उत्तर:
कवि ने अपने बचपन की एक घटना का उदाहरण देकर बताया है कि गलत प्रयत्न फलदायी नहीं होते। यदि मनुष्य सही दिशा में प्रयत्नशील हो, यदि अच्छे काम करे तो उनका परिणाम अवश्य प्राप्त होता है तथा वह परिणाम भी अच्छा ही होता है।” मनुष्य जैसा बोता है वैसा ही काटता भी है। यदि वह सत्कर्म करता है तो उसको उसका अच्छा फल मिलता है। इसमें असफलता का संकट नहीं होता है। मिट्टी में यदि सेम की तरह अच्छा बीज बोया जायगा तो उसका फल अच्छा ही होगा। तुलसी ने भी कहा है – जो जस करहिं सो तस फल चाखा’ अर्थात् मनुष्य को अपने काम का फल काम के अनुसार ही प्राप्त होता है।
पन्त जी ने यही बात यह धरती कितना देती है, कविता के अन्त में इन शब्दों में कही है हम जैसा बोयेंगे, वैसा ही पायेंगे। अच्छे काम का परिणाम अच्छा होता है। अत: मनुष्य को अपने जीवन में अच्छे कर्म ही करने चाहिए। अच्छे काम करके ही संसार को सुखदायक बना सकते हैं। हमको इस धरती पर मनुष्य मनुष्य में प्रेम की, मानव की समता की तथा मनुष्यों में समानता की फसल पैदा करनी चाहिए। संसार में प्रेम, ममता, समानता और कार्यकुशलता का वातावरण बनेगा तो यह धरती स्वर्ग के समान सुखदायक हो जायेगी। यही इस कविता का प्रतिपाद्य है तथा यही इसकी प्रेरणा है। कवि ने इस कविता द्वारा सत्कर्म करने का संदेश दिया है।
प्रश्न 5.
आपने धरती कितना देती है कविता पढ़ी है। इसके अनुसार आप भारत के उज्ज्वल भविष्य के लिए क्या कार्य योजना प्रस्तुत करेंगे ?
उत्तर:
“धरती कितना देती है’ कविता में कवि ने बताया है कि यह धरती माता अपने पुत्रों की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए अनेक वस्तुएँ पैदा करती है और उनका जीवन सुखद बनाती है। हमको इस धरती पर मानवों के प्रति प्रेम, ममता तथा समानता के भाव विकसित करने चाहिए। हमको उनमें कार्य – कुशलता उत्पन्न करनी चाहिए। इसी से यह धरती सुख-सम्पन्नता से पूर्ण होगी। यह कविता हमें प्रेरणा देती है कि हम पृथ्वी पर लोगों रहने के लिए उपयुक्त वातावरण उत्पन्न करें, मैं इसके उज्ज्वल भविष्य के लिए निम्नलिखित कार्य करना चाहूँगा। धरती पर रहने वाले लोगों को समान समझेंगा तथा उनसे भी कहूँगा कि वे सबको समान समझें। मैं चाहूँगा कि पृथ्वीवासियों में देश, प्रान्त, जाति, धर्म, रंग, रूप, लिंग, धनी, निर्धन आदि का कोई भेद-भाव न किया जाय।
मैं प्रयत्न करूंगा कि सभी पृथ्वीवासी भाई-भाई की तरह मिलकर रहें। वे एक-दूसरे से प्रेम करें तथा सबके प्रति ममता की भावना अपने मन में रखें। मैं सभी मनुष्यों को कार्य-कुशल देखना चाहूँगा। सभी लोग काम करने में सक्षम होंगे तो उनको सफलता मिलेगी, इससे इस धरती पर सुख-सम्पन्नता का वातावरण बनेगा और सभी लोग सुखपूर्वक रह सकेंगे। धन सुख का सपना है। मैं चाहूंगा कि सभी लोग उचित साधन अपनाकर धन कमायें। धन से सुख मिलता है। धनाभाव में मनुष्य अनेक दु:ख उठाता है। कहा है-धनात् धर्मः ततः सुखम्। मैं चाहूँगा कि लोग धन कमायें किन्तु मैं यह कदापि नहीं चाहूँगा कि लोग धनोपार्जन के लिए अनुचित उपाय अपनाएँ तथा एक-दूसरे का शोषण करें।
कवि – परिचय :
जीवन – परिचय – सुमित्रानन्दन पंत को जन्म उत्तराखण्ड के जिला अल्मोड़ा के कौसानी नामक ग्राम में सन् 1900 ई. में हुआ था। आपके पिता का नाम पं. गंगादत्त पंत था। जन्म के कुछ समय बाद ही इनकी माता चल बसीं। आपका मूल नाम गुसाईं दत्त था। बाद में आपने अपना नाम सुमित्रानन्दन पंत रखी। आपकी प्रारम्भिक शिक्षा अल्मोड़ा में हुई। सन् 1918 ई. में काशी के क्वींस कॉलेज से मैट्रिक परीक्षा उत्तीर्ण की। जब आप इलाहाबाद म्योर सेंट्रल कॉलेज में पढ़ रहे थे, तभी सन् 1921 में महात्मा गाँधी के असहयोग आन्दोलन से प्रभावित होकर कॉलेज छोड़ दिया। बाद में आपने स्वाध्याय द्वारा अंग्रेजी, संस्कृत, बँगला भाषाओं का गहन अध्ययन किया। आप इलाहाबाद में आकाशवाणी के अधिकारी रहे। पंत आजीवन अविवाहित रहकर हिन्दी की सेवा में लगे रहे। आपकी साहित्य सेवा के लिए भारत सरकार ने सन् 1961 में आपको ‘पद्म भूषण’ से अलंकृत किया। 28 दिसम्बर, सन् 1977 को आपका देहावसान हो गया।
साहित्यिक परिचय – हिमालय के प्राकृतिक सौन्दर्य का पंत पर गहरा प्रभाव पड़ा। आपने बाल्यावस्था से ही काव्य-साधना आरम्भ कर दी थी। पन्त छायावाद के प्रमुख कवि हैं। आपके साहित्य पर गाँधी जी तथा मार्क्स का भी प्रभाव है। आप प्रकृति के अनुपम चितेरे हैं। आपको प्रकृति का सुकुमार कवि कहा जाता है। आपको अपनी कला और बूढ़ा चाँद’, रचना पर ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार तथा ‘लोकायतन’ महाकाव्य पर उत्तर प्रदेश सरकार तथा सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार प्राप्त हुए हैं। आपकी (1968) ‘चिदम्बरा’ रचना। पर ज्ञानपीठ पुरस्कार भी मिल चुका है।
कृतियाँ – पंत जी की प्रमुख रचनाएँ निम्नलिखित हैंमहाकाव्य-लोकायतन।
काव्य – संग्रह-वीणा, पल्लव, गुंजन (छायावादी प्रभाव ), युगान्त, युगवाणी, ग्राम्या (प्रगतिवादी प्रभाव), स्वर्ण किरण, स्वर्ण धूलि, युगपथ, उत्तरा, अतिमा, रजत रश्मि, कला और बूढ़ी चाँद तथा चिदम्बरा।
सम्पादन – रूपाभ।
कविताओं का सारांश :
भारत माता
पंतजी की ‘भारत माता’ कविता उनकी ‘ग्राम्या’ नामक कविता-संग्रह से ली गई है। इसमें स्वतंत्रता से पूर्व के भारत के ग्रामीण-जीवन का चित्रण हुआ है। भारतमाता ग्रामवासिनी है। हरे-भरे खेत उसका मटमैला आँचल है। गंगा-यमुना उसकी अश्रुधारा हैं। वह मिट्टी की बनी उदास प्रतिमा है। उसकी चितवन में दीनता, अधरों पर रोदन और मन में दु:ख व्याप्त है। उसकी तीस करोड़ संतानें नंगी, भूखी, अशिक्षित, निर्धन तथा शोषित हैं। वह पददलित, कुंठित मन वाली तथा काँपते मौन होठों वाली है। वह राहुग्रस्त चन्द्रमा के समान है। उसकी भौंहें चिन्ताग्रस्त तथा नेत्र आँसुओं से भरे हैं। गीता का उपदेश देने वाली भारत माता अज्ञान से ग्रस्त है। आज अहिंसा का सहारा पाकर उसका तप और संयम सफल हो गया है। भारतीयों को भय, अज्ञान और श्रम की थकान दूर हो गई है। भारतमाता जग-जननी तथा जीवन विकासिनी है। वह ग्रामों में रहने वाली है। धरती कितना देती है।
‘धरती कितना देती है’ पन्त जी की सत्कर्म की प्रेरणा देनी वाली रचना है। मनुष्य यदि सही दिशा में प्रयत्न करे तो उसको सफलता अवश्य मिलती है। बचपन में कवि ने छिपकर पैसे बोए थे, सोचा था कि उनके पेड़ उगेंगे और रुपयों की फसलें उत्पन्न होंगी। वह खूब धनवान बन जाएगा। किन्तु ऐसा नहीं हुआ वह पेड़ों के उगने का इंतजार ही करता रहा। उसने बचपन में अबोधावस्था में गलत बीज बो दिए थे। तब से पचास साल बीत गए। अनेक ऋतुएँ आईं और गईं। एक बार बरसात में गीली मिट्टी में कवि ने सेम का बीज बो दिया। वह इस घटना को भूल भी गया किन्तु एक दिन संध्या समय उसने अपने घर के आँगन में सेम के पौधे उगे हुए देखे। धीरे-धीरे पौधे बढ़ने लगे। और वे पत्तों और फूलों-फलियों से लद गए। उन पौधों पर असंख्य फलियाँ उत्पन्न हुईं। कवि ने जोड़ों भर उनको खाया। उसने सेम की फलियों को अपने बन्धु-बांधवों, इष्ट-मित्रों तथा पड़ोसियों में बाँटा। घर-घर सेम की सब्जी बनी।
इस घटना से कवि की समझ में यह बात आ गई कि यदि हमें ऐसी दिशा में प्रयत्न करें तो सफलता अवश्य प्राप्त होती है। मनुष्य को अच्छे काम करने चाहिए उसका प्रयत्न बेकार नहीं जाएगा। धरती रत्न प्रसविनी है। हम जैसे बीज बोते हैं, वैसे ही फल उत्पन्न होते हैं। इस धरती पर मनुष्य को प्रेम, मानवता, सक्षमता, ममता के बीज बोने चाहिए। इनकी सुनहरी फसलें उगेंगी तो संसार में सुखसुविधा तथा प्रेमपूर्ण वातावरण उत्पन्न होगा। हम जैसा बीज बोयेंगे वैसे ही फल हमको मिलेंगे।
पद्यांशों की सन्दर्भ एवं प्रसंग सहित व्याख्याएँ।
भारत माता
भारत माता
ग्रामवासिनी।।
खेतों में फैला है श्यामल,
धूल भरा मैला सा आँचल,
गंगा यमुना में आँसू जल,
मिट्टी की प्रतिमा
उदासिनी!
दैन्य जड़ित अपलक नत चितवन,
अधरों में चिर नीरव रोदन,
युग-युग के तम से विषण्ण मन,
वह अपने घर में।
प्रवासिनी!
शब्दार्थ – श्यामल = हरा-भरा। प्रतिमा = मूर्ति। उदासिनी = दु:खी। दैन्य = दीनता। जड़ित = जड़ा हुआ। अपलक = बिना पलकें झपकाये। चितवन = निगाह, दृष्टि। अधर = होंठ। नीरव = मौन, शान्त। विषण्ण = दु:खी, व्याकुल। प्रवासिनी = अपने देश से बाहर रहने वाली।
सन्दर्भ तथा प्रसंग – उपर्युक्त पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक में संकलित ‘भारत माता’ शीर्षक कविता से लिया गया है। इसके रचयिता सुमित्रानन्दन पन्त हैं। कवि ने भारत की स्वतन्त्रता से पूर्व गाँवों में व्याप्त दीनता और निर्धनता का चित्रण किया है। उसने बताया है कि भारत माता ग्रामों में रहने वाली है।
व्याख्या – कवि ने भारत के गाँवों की स्वतंत्रता से पूर्व की दशा का वर्णन कर रहा है। वह कहता है कि भारत माता गाँवों की रहने वाली है अर्थात् भारत गाँवों में रहता है। हरे-भरे खेत भारत माता की आँचल है, जो धूल से सना हुआ और मैला है। गंगा और यमुना नदियाँ उसके नेत्रों से बहने वाले आँसू हैं। वह मिट्टी की बनी हुई नारी उदास और शान्त है। भारत माता के नेत्रों से दीनता प्रकट हो रही है। वह बिना पलक झपकाये एकटक देख रही है। इससे उसकी उदासी प्रकट हो रही है। उसके होठों में चिरस्थायी रुदन स्थित है, उसके होठों की ओर देखने से लगता है कि मन में लम्बे समय से विषाद छाया रहा है। वह अपने घर में रहते हुए भी जैसे विदेश में रह रही है।
विशेष –
- भारतमाता के चित्रण के माध्यम से भारत के गाँवों की दुर्दशा का वर्णन हुआ है।
- विता पर गाँधीवाद तथा प्रगतिवाद का प्रभाव है।
- मानवीकरण, रूपक, अनुप्रास अलंकार है।
- भाषा साहित्यिक, प्रवाहपूर्ण खड़ी बोली है।
2. तीस कोटि संतान नग्न तन,
अर्ध क्षुधित, शोषित, निरस्त्र जन,
मूढ़, असभ्य, अशिक्षित, निर्धन,
नत-मस्तक
तरु तल निवासिनी!
स्वर्ण शस्य पर-पदतल कुंठित,
धरती सा सहिष्णु मन कुंठित,
क्रंदन कंपित अधर मौन स्मित, राहु-ग्रसित
शरदेन्दु हासिनी
शब्दार्थ – कोटि = करोड़। क्षुधित = भूखा। शोषित = शोषण की शिकार। निरस्त्र = अरक्षित। मूढ़ = मूर्ख। नतमस्तक = पराधीन। शस्य = पौधा। कुंठित = रोती हुई। सहिष्णु = सहनशील। कुंठित = कुंठाग्रस्त, निराश। क्रंदन = चीख, रोना। स्मित = मुस्कान। राहु-ग्रसित = राहु से ग्रस्त। शरदेन्दु = शरदकालीन चन्द्रमा।
सन्दर्भ तथा प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक में संकलित ‘भारत माता’ शीर्षक से उद्धृत है। इसके रचयिता कविवर सुमित्रानन्दन पन्त हैं। कवि भारत माता की रक्षा का वर्णन कर रहा है। भारतमाता ग्रामीण भारत की प्रतीक है। पराधीनता की अवस्था में उसकी स्थिति दयनीय है।
व्याख्या – कवि कहता है कि भारत माता पराधीन है। उसकी तीस करोड़ संताने अर्थात् भारतीय जन वस्त्रों के अभाव में नंगे रहते हैं। उनको भरपेट भोजन नहीं मिलता, वे शोषण के शिकार हैं तथा असुरक्षित हैं। वे भूखे, असभ्य तथा बिना पढ़े-लिखे हैं। वे गरीब हैं। तथा पराधीनता के कारण उनका माथा नीचे झुका हुआ है। बे बेघर हैं तथा वृक्षों के नीचे रहते हैं। भारत माता पेड़ों की छाँव में रहने को विवश है।
भारत माता सुनहरी फसलें पैदा करने वाली है किन्तु उसको दूसरों के पैरों पर लेटना पड़ता है। वह पराधीन है। इस कारण धरती के जैसा सहनशील मन होने पर भी उसका मन कुंठा और निराशा से भरा रहता है। उसके चीख-पुकार से काँपते हुए होठों के नीचे शान्त मुस्कराहट छिपी रहती है। राहु से ग्रस्त शरदकालीन चन्द्रमा जिस प्रकार निस्तेज हो जाता है, उसी प्रकार उसकी हँसी फीकी पड़ गई है।
विशेष –
- भारतमाता के माध्यम से पराधीन ग्रामीण भारत का चित्र अंकित किया गया है।
- भाषा संस्कृतनिष्ठ, विषयानुकूल तथा प्रवाहपूर्ण खड़ी बोली है।
- अनुप्रास, रूपक तथा उपमा अलंकार है।
- ‘राहु-ग्रस्त, शरदेन्दु हासिनी’ में पराधीन भारत की तेजहीनता की ओर संकेत है।
3. चिंतित भृकुटि-क्षितिज तिमिरांकित
नमित नयन तन वाष्पाच्छादित
आनन श्री छाया शशि उपमित,
ज्ञान मूढ़
गीता प्रकाशिनी।
सफल आज उसका तप संयम,
पिला अहिंसा स्तन्य सुधोपम,
हरती जन-मन-भय, भव-तम-श्रम,
जग जननी
जीवन विकासिनी।
भारतमाता।
ग्रामवासिनी।
शब्दार्थ – भृकुटि = भौंहें। तिमिरांकित = अन्धकारपूर्ण। वाष्पाच्छादित = भाप से ढके हुए, अश्रुपूर्ण। आनन = मुख। उपमित = तुल्य। ज्ञान मूढ़ = अज्ञानी। स्तन्य = दूध। भव = संसार। जग जननी = समस्त संसार की माता।
सन्दर्भ तथा प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक में संकलित ‘भारत माता’ शीर्षक कविता से लिया गया है। इसके रचयिता सुमित्रानन्दन पन्त हैं। कवि ने पराधीनता के कारण पीड़ा भोग रही मातृभूमि का चित्रण किया है। अब उसको गाँधीजी की अहिंसा का सहारा प्राप्त हो गया है और इस कारण अब उसको पराधीनता से मुक्ति की आशा है।
व्याख्या – कवि कहता है कि भारत माता की भौंहें अंधकार से ढके हुए क्षितिज के समान चिन्ताग्रस्त हैं। बादलों से ढके आसमान के समान उसके नेत्र आँसुओं में डूबे हैं। उसके मुख की शोभा छायाग्रस्त चन्द्रमा के समान है। गीता का ज्ञान विश्व को कराने वाली भारतमाता आज अज्ञान से ग्रस्त है। आज उसका वर्षों का तप तथा संयम सफल हो गया है। वह गाँधीजी की अहिंसा का अमृत के समान मधुर दुग्ध अपनी सन्तान को पिला रही है। इससे भारतीय लोगों के मन से भय दूर हो रहा है, उनका अज्ञान और थकावट नष्ट हो रही है। भारत माता जगत की जननी है। वह जीवन को विकसित करने वाली है। भारतमाता गाँवों में रहने वाली हैं।
विशेष –
- कवि ने पराधीनता से दु:खी भारतभूमि का वर्णन किया है।
- गांधीजी का अहिंसा का सहारा पाकर वह स्वाधीनता का सुख पाने की आशा करती है।
- भाषा संस्कृतनिष्ठ, साहित्यिक खड़ी बोली है।
- अनुप्रास और रूपक अलंकार के प्रयोग हुए हैं। धरती कितना देती है।
1. आः धरती कितना देती है।
मैंने छुटपन में छिपकर पैसे बोए थे,
सोचा था पैसों के प्यारे पेड़ उगेंगे।
रुपयों की कलदार मधुर फसलें खनकेगी,
और फूल फलकर मैं मोटा सेठ बनूंगा
पर बंजर धरती में एक न अंकुर फूटा,
बंध्या मिट्टी ने न एक भी पैसा उगला।
सपने जाने कहाँ मिटे, कब धूल हो गए।
मैं हताश हो, बाट जोहता रहा दिनों तक,
बाल कल्पना के अपलक पाँवड़े बिछाकर।
मैं अबोध था, मैंने गलत बीज बोये थे,
ममता को रोपा, तृष्णा को सींचा था।
शब्दार्थ – छुटपन = बचपन। कलदार = मशीन से बना हुआ सिक्का, रुपया। खनकेंगी = सिक्कों के टकराने से उत्पन्न आवाजें। बंजर = अनुपजाऊ। अंकुर फूटना = बीज उगाना। बंध्या = अनुपजाऊ, हताश, अधीर। बाट जोहना = प्रतीक्षा करना। पाँवडे = पैरों के नीचे बिछाया जाने वाला कपड़ा, पायदान। अपलक = दृष्टि गड़ाकर। तृष्णा = लालसा।
सन्दर्भ तथा प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक में संकलित ‘ धरती कितना देती है’ शीर्षक कविता से लिया गया है। इसके रचयिता छायावादी कवि सुमित्रानन्दन पन्त हैं। कवि अपने बचपन की एक घटना का उल्लेख कर रहा है। उसने अबोध अवस्था में जमीन में पैसे बोये थे। उसका यह कार्य ठीक ही था।
व्याख्या – कवि कहता है कि धरती से हमको बहुत-सी चीजें प्राप्त होती हैं। बचपन में कवि ने छिपकर जमीन में पैसे बो दिए थे। उसने सोचा था कि इन पैसों से पेड़ उगेंगे। इन पेड़ों पर रुपयों की खनकदार फसलें पैदा होंगी। तब उसके पास बहुत-सा धन हो जायेगा और वह फल-फूलकर मोटा हो जायेगा तथा धनवान सेठ बन जायेगा।
किन्तु ऐसा नहीं हुआ। अनुपजाऊ भूमि में बोए गए रुपयों में से एक से भी रुपया नहीं उगा। उस अनुपजाऊ मिट्टी से एक भी रुपया नहीं उपजा। कवि ने जो सेठ बनने की कल्पना की थी वह फलीभूत नहीं हुआ। उसके सपने साकार नहीं हुए। कवि निराश हो गया। वह कुछ दिन तक प्रतीक्षा करता रहा कि पैसे उगेंगे। जिस प्रकार किसी सम्माननीय मनुष्य के आने पर उसके रास्ते में कपड़ा बिछाकर उसका स्वागत किया जाता है, उसी प्रकार कवि अपनी बचपन की कल्पना में डूबकर रुपयों के उगने और पौधे बनने की प्रतीक्षा करता रहा। कवि बच्चा था और उसको ज्ञान नहीं था। रुपये उगकर पौधे नहीं बनते। उसने गलत बीज बोये थे। रुपयों के रूप में उसने ममता और तृष्णा को बोया था।
विशेष –
- कवि ने बचपन में पैसे बोकर उनके उगने की कल्पना की थी। इसके पीछे उसका धनवान बनने का विचार था।
- कवि बच्चा था और उसको ज्ञान नहीं था कि रुपये उगकर पौधे नहीं बना करते।
- भाषा सरस और साहित्यिक है।
- अनुप्रास, रूपक अलंकार के प्रयोग हुए हैं।
2. अर्धशती हहराती निकल गई तब से,
कितने ही मधु पतझर बीत गए अनजाने,
ग्रीष्म तपे, वर्षा फूली, शरदें मुसकाई
सी-सी कर हेमन्त कपे, तरु झरे खिले वन,
औ, जब फिर से गाढ़ी ऊदी लालसा लिए,
गहरे कजरारे बादल बरसे धरती पर
मैंने कौतूहलवश आँगन के कोने की
गीली तह में यों ही उँगली से सहलाकर
बीज सेम के दबा दिये मिट्टी के नीचे
भू के अंचल में मणि-माणिक बाँध दिए हों।
शब्दार्थ – अर्धशती = पचास वर्ष, आधा जीवन। मधु = बसन्त। शरदें = वर्षा के बाद की हल्की सर्दी की ऋतु। हेमन्त = पौष के महीने की जमाने वाली सर्दी। ऊदी = काला-बैंगनी रंगे। लालसा = लालच। कजरारे = काजल जैसे। कौतूहल = जिज्ञासा। तह = मिट्टी की परत। मणि माणिक्य = बहुमूल्य रत्न।
सन्दर्भ तथा प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक में संकलित ‘ धरती कितना देती है’ शीर्षक कविता से उद्धृत है। इसके रचयिता सुमित्रानन्दन पंत हैं। कवि ने बचपन में अज्ञानवश भूमि में पैसों के बीज बोये थे। वे अंकुरित नहीं हुए। कवि इस घटना को भूल गया। तब से उसके जीवन के पचास वर्ष बीत गए। अनेक ऋतुएँ आईं और चली गईं।
व्याख्या – कवि कहता है कि बचपन की उस घटना को हुए जीवन के पचास वर्ष बीत गए हैं। अनेक बार वसन्त और पतझड़ की ऋतुएँ आईं और चली गई हैं। अनेक बार ग्रीष्म ऋतु में खूब गर्मी पड़ी है। वर्षा ऋतु भी अनेक बार आई और पेड़-पौधे फूले-फले हैं। वर्षा ऋतु के उपरान्त शरद् का हल्का-फुल्का ठंडा मौसम आया-गया है। हेमन्त ऋतु भी अनेक बार आई-गई है, जब तेज सर्दी के कारण मुँह से ‘सी-सी’ की आवाजें निकलती हैं। हेमन्त ऋतु भी अनेक बार आई और शरीर बर्फीली ठंड से काँप उठा था। इस प्रकार अनजाने ही पिछले पचास वर्ष बीत गये, फिर एक बार काले बादल पृथ्वी पर जल बरसाने लगे। उनके कारण धरती पर घना अंधकार छा गया। धरती की सतह गीली हो गई। कवि ने जिज्ञासापूर्वक अपने आँगन की गीली मिट्टी को उँगली से कुरेदा और उसके नीचे सेम के बीज दबा दिए। उन बीजों के के रूप में उसने धरती के आँचल में मूल्यवान रत्न बाँध दिए थे।
विशेष –
- कवि ने वसन्ते, ग्रीष्म, वर्षा, शरद तथा हेमन्त ऋतुओं का सुन्दर चित्रण किया है।
- काव्य में छ: ऋतुओं का वर्णन होता रहा है। कवि ने शिशिर ऋतु को भुला दिया है।
- भाषा संस्कृतनिष्ठ, साहित्यिक खड़ी बोली है।
- मानवीकरण पुनरुक्ति, अनुप्रास, उपमा अलंकार आदि के प्रयोग हुए हैं। अतुकान्त छन्द भी लिया गया है।
3. मैं फिर भूल गया इस छोटी सी घटना को,
और बात भी क्या थी याद जिसे रखता मन!
किन्तु, एक दिन जब मैं संध्या को आँगन में
टहल रहा था,-तब सहसा मैंने जो देखा।
उससे हर्ष-विमूढ़ हो उठा मैं विस्मय से।
देखा-आंगन के कोने में कई नवागत
छोटा-छोटा छाता ताने खड़े हुए हैं।
छाता कहूँ कि विजय-पताकाएँ जीवन की,
या हथेलियाँ, खोले थे वे नन्ही प्यारी
जो भी हो, वे हरे-हरे उल्लास से भरे
पंख मार कर उड़ने को उत्सुक लगते थे
डिम्ब तोड़कर निकले चिड़ियों के बच्चों से।
शब्दार्थ – हर्ष-विमुख = प्रसन्नता के कारण सुध-बुध खोना। विस्मय = आश्चर्य। नवागत = नए आगन्तुक, पौधे। पताको = झंडा। उल्लास = प्रसन्नता। उत्सुक = इच्छुक। डिम्ब= झण्डी।।
सन्दर्भ तथा प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक में संकलित ‘धरती कितना देती है’ शीर्षक कविता से लिया गया है। इसके रचयिता सुमित्रानन्दन पंत हैं। कवि ने बरसात में अपने घर के आँगन की गीली मिट्टी में सेम के बीज दबा दिये थे। इसके बाद उसको इसके बारे में कुछ याद नहीं रहा।
व्याख्या – पंतजी कहते हैं कि वह यह भूल गए कि उन्होंने अपने घर के आँगन में सेम के बीज बो दिए थे। घटना बहुत मामूली थी तथा इसमें स्मरण रखने योग्य कोई बात नहीं थी। एक दिन शाम के समय वह आँगन में टहल रहे थे। अचानक उन्होंने जो देखा उससे वह अत्यधिक प्रसन्न हुए, सुध-बुध खो बैठे तथा आश्चर्यचकित हो उठे, उन्होंने देखा कि आँगन में अनेक नए छोटे पौधे उग आए हैं। वे पौधे उनके छोटे-छोटे छाते लगाए हुए आगन्तुकों के समान प्रतीत हुए। कवि उनको छाते अथवा विजय की घोषणा करने वाले झण्डे भी कह सकते थे अथवा इन्होंने अपनी छोटी-छोटी प्यारी हथेलियाँ फैला रखी थीं। कुछ भी कहें किन्तु वे हरे-भरे तथा प्रसन्नता से भरे पौधे चिड़ियों के अंडे फोड़कर बाहर निकले और पंख फैलाकर उड़ने के लिए उत्सुक बच्चों जैसे प्रतीत हो रहे थे।
विशेष –
- सेम के नए उगे पौधों का काव्यमय चित्रण हुआ है।
- भाषा सरल, प्रवाहपूर्ण तथा विषयानुरूप है।
- पुनरुक्ति, संदेह, उपमा अलंकार के प्रयोग हुए हैं।
- मुक्त छंद अतुकान्त है।
- पैसे तो नहीं उगे किन्तु सेम के बीज उग आए। कवि बताना चाहता है कि सही ढंग से प्रयत्न करने पर ही सफलता मिलती है।
4. निर्निमेष, क्षणभर में उनको रहा देखता
सहसा मुझे स्मरण हो आया-कुछ दिन पहले
बीज सेम के रोपे थे मैंने आँगन में,
और उन्हीं से बौने पौधों की यह पलटन
मेरी आँखों के सम्मुख अब खड़ी गर्व से
नन्हें नाटे पैर पटक, बढ़ती जाती है।
तब में उनको रहा देखता, धीरे-धीरे।।
अनगिनत पत्तों से लद, भर गईं झाड़ियाँ,
हरे-भरे टॅग गए कई मखमली चॅदोवे।
बेलें फैल गईं बल खा आँगन में लहरा,
और सहारा लेकर बाडे सी ट्टटी का
हरे-हरे सौ झरने फूट पड़े ऊपर को।
शब्दार्थ – निर्निमेष = अपलक, बिना पलकें झपकाए। रोपे थे = बोये थे। बौने = कम लम्बे। पलटन = सेना का दस्ता। नाटे = ठिगने। अनगिनत = असंख्य। मखमली = कोमल। चंदोवे = तम्बू। बल खा = टेढ़ी-मेढ़ी होकर। बाड़े सी टट्टी = सुरक्षा के लिए लगाई गई पौधों के लिए जालियों की दीवार। हरे-हरे सौ झरने = अनेक हरी-भरी लताएँ।
सन्दर्भ तथा प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक में संकलित ‘धरती कितना देती है’ शीर्षक कविता से उद्धृत है। इसके रचयिता सुमित्रानन्दन पंत हैं। कवि ने देखा कि उसके आँगन में अनेक नए पौधे उग आये हैं। उनको दखकर वह विस्मित हो उठा। वे पौधे छाते लगाये नवीन आगन्तुकों की तरह प्रतीत हो रहे थे।
व्याख्या – कवि अपने आँगन में उगे हुए सेम के नए पौधों को कुछ देर तक एकटक देखता रहा। अचानक उसको याद आया कि कुछ दिन पहले उसने आँगन में सेम के बीज बोये थे। वे ही आज छोटे-छोटे पौधों के रूप में उग आए थे। छोटे पौधों की यह सेना कवि के नेत्रों के सामने गर्व के साथ खड़ी थी और अपने छोटे नाटे पैर पटककर मानो कह रही थी। कवि उनको देखता रहा। धीरे-धीरे वे पौधे असंख्य पत्तियों से लद गए और अनेक झुरमुट छोटे-छोटे तम्बुओं की तरह तन गए। सेम की बेलें एक-दूसरे से लिपटकर आँगन में फैल गईं और लहराने लगीं। वे सुरक्षा के लिए लगाई गई पेड़-पौधों की दीवार का सहारा लेकर ऊपर की ओर बढ़ने लगीं। वे हरे रंग के सैकड़ों ऊपर की ओर फूटने वाले झरनों के समान प्रतीत हो रही थीं।
विशेष –
- कवि ने सेम के बीज बोये थे। उनसे उत्पन्न बेलें आँगन में छा गई थीं।
- भाषा सरल, सरस तथा प्रवाहपूर्ण है।
- मानवीकरण, रूपक, अनुप्रास अलंकार के प्रयोग हुए हैं।
- अतुकान्त युक्त छंद है।
5. मैं अवाक् रह गया-वंश कैसे बढ़ता है।
छोटे, तारों-से छितरे, फूलों के छींटे।
झागों-से लिपटे लहरी श्यामल लतरों पर
सुन्दर लगते थे, मावस के हँसमुख नभ-से
चोटी के मोती-से, आँचल के बूटों-से,
ओह, समय पर उनमें कितनी फलियाँ टूटीं।
कितनी सारी फलियाँ, कितनी प्यारी फलियाँ
पतली चौड़ी कलियाँ, उफ उनकी क्या गिनती
लम्बी-लम्बी अंगुलियों सी, नन्ही नन्हीं।
तलवारों-सी, पन्ने के प्यारे हारों-सी,
झूठ न समझें, चन्द्रकलाओं-सी नित बढ़तीं,
सच्चे मोती की लड़ियों सी, ढेर-ढेर खिल
झुण्ड-झुण्ड, झिलमिलकर कचपचिया तारों-सी,
शब्दार्थ – अवाक् = मौन, चुप । वंश = परिवार । छितरे-बिसरे = बिखरे हुए। श्यामल = हरी-हरी। लता = बेल। मावस = अमावस्या। बूटे = फूल। पन्ना = हरे रंग का एक रत्न। चन्द्रकला = चन्द्रमा की किरण। लड़ी = माला । कचपचिया = पूर्व दिशा में उगे तारों का एक समूह।
सन्दर्भ तथा प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक में संकलित ‘धरती कितना देती है’ शीर्षक कविता से उद्धृत है। इसके रचयिता सुमित्रानन्दन पंत हैं। कवि ने अपने घर के आँगन में सेम के बीज रोपे थे। वे बार-बार पौधों के रूप में उगे और देखते-देखते बेलों के रूप में चारों ओर फैल गए। उन पर कई हरे-हरे चॅदोवे टॅग गए।
व्याख्या – कवि कहता है कि बेलें तेजी के साथ विकसित हुईं तो कवि ने देखा कि परिवार किस तरह तेजी से बढ़ता है। यह देखकर वह इतना विस्मित हुआ कि कुछ भी बोल नहीं सका। उन हरी-हरी लहराती बेलों पर तारों के समान बिखरे हुए, पौधों से लिपटे हुए। छोटे-छोटे फूल अत्यन्त सुन्दर लग रहे थे। अमावस्या के हँसमुख आकाश की तरह लग रहे थे अथवा किसी स्त्री की चोटी में गूंथे मोतियों से प्रतीत हो रहे थे अथवा वे किसी सुन्दरी की साड़ी के पल्ले में काढ़े गए फूलों के समान लग रहे थे। कुछ समय पश्चात् इन फूलों से फलियाँ पैदा हुईं। वे असंख्य थीं। वे अत्यन्त प्यारी लग रही थीं।
बेलों में अनगिनत पतली-चौड़ी फलियाँ लद गई थीं। वे फलियाँ उँगलियों के समान लम्बी र्थी । वे लम्बी-लम्बी तलवारों के समान थीं। वे पन्ने से बने गलहारों की तरह थीं। कवि कहता है। कि उसके इस कथन को झूठ न समझा जाये। ये फलियाँ चन्द्रमा की किरणों के समान नित्य बढ़ती जाती थीं। वे सच्चे मोतियों की लड़ियों जैसी प्रतीत हो रही थीं। वे इन फलियों के झुण्ड के झुण्ड बेलों पर लटके थे। वे आकाश में पूर्व दिशा में उगने वाले झिलमिलाते कचपचिया तारों के समान लग रही थीं।
विशेष –
- कवि ने आँगन में सेम के बीज रोपे थे। उनसे उत्पन्न बेलें असंख्य फलियों से लद गए।
- फलियों का मार्मिक चित्रण किया गया है।
- अनुप्रास, उपमा तथा संदेह अलंकार है। पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार भी है। अतुकान्त युक्त छंद को प्रयोग किया गया है।
- भाषा बोधगम्य, साहित्यिक तथा प्रवाहपूर्ण खड़ी बोली है।
6. आ, इतनी फलियाँ टूटीं, जाड़ों भर खाईं।
सुबो शाम वे घर-घर पकीं, पड़ोस पास के
जाने-अनजाने सब लोगों में बँटवाई,
बंधु-बांधवों, मित्रों, अभ्यागत मँगतों ने,
जी भर-भर दिन-रात मुहल्ले भर ने खाईं।
कितनी सारी फलियाँ कितनी सारी फलियाँ
शब्दार्थ – जाड़ों भर = सर्दी का पूरा मौसम। अभ्यागत = अतिथि। मँगतों = भिखारियों।
सन्दर्भ तथा प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक में संकलित ‘ धरती कितना देती है’ शीर्षक कविता से उद्धृत है। इसके रचयिता सुमित्रानन्दन पंत हैं। कवि ने अपने घर के आँगन में सेम के बीज बोये थे। उनसे जो बेलें पैदा हुईं, वे खूब फल-फूल। उन पर लगने वाली सेम की अगणित फलियों में कवि ने सभी के साथ मिलकर उपभोग किया।
व्याख्या – कवि कहता है कि सेम की बेलों पर पैदा होने वाली फलियाँ असंख्य थीं। उन पर इतनी अधिक फलियाँ लगीं कि पूरे सर्दी के मौसम में खाने पर भी वे समाप्त न हुईं। घर-घर सुबह-शाम इन फलियों की सब्जी बनाई गई । कवि ने उनको अपने पास रहने वाले पड़ोसियों, जान-पहचान वालों तथा अनजान लोगों को बाँटा। फलियाँ इतनी अधिक थीं कि मित्रों, भाइयों, परिवारवालों, अतिथियों तथा भिखारियों ने दिन-रात मन भरकर उनको खाया। मुहल्ले के रहने वाले सभी लोगों ने उन फलियों को खाया।
विशेष –
- सेम की बेलों पर लगने वाली फलियाँ असंख्य थीं। कवि ने अपने परिचितों तथा अन्य लोगों को मुक्तहस्ते फलियाँ बाँटीं।
- इन पंक्तियों में कवि बताना चाहता है कि पृथ्वी माता अपनी संतान के लिए मुक्त मन से आवश्यकता की चीजें प्रदान करती
- भाषा सरल तथा प्रवाहपूर्ण है।
- अतुकान्त मुक्तक छंद है। पुनरुक्ति प्रकाश तथा अनुप्रास अलंकार है।
7. यह धरती कितना देती है, धरती माता
कितना देती है अपने प्यारे पुत्रों को।
नहीं समझ पाया था मैं उसके महत्व को,
बचपन में निज स्वार्थ लोभवश पैसे बोकर।
रत्न-प्रसविनी है वसुधा अब समझ सका हूँ।
इसमें सच्ची ममता के दाने बोने हैं।
इसमें मानवता समता के दाने बोने हैं,
जिससे उगल सके फिर धूलि सुनहरी फसलें।
मानवता के जीवन श्रम से हँसें दिशाएँ।
हम जैसा बोयेंगे वैसा ही पायेंगे।
शब्दार्थ – प्रसविनी = उत्पन्न करने वाली। वसुधा = पृथ्वी । दाने = ‘बीज। समता = काम करने की सामर्थ्य । उगल सके = पैदा कर सके। धूलि = मिट्टी। सुनहरी = बहुमूल्ये।
सन्दर्भ तथा प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक में संकलित ‘धरती कितना देती है’ शीर्षक कविता से उद्धृत है। इसके रचयिता सुमित्रानन्दन पंत हैं। कविवर पंत ने बताया है कि यह तो अत्यन्त उदार है। वह हमारी माता है तथा अपनी संतान के भरण-पोषण के लिए अनेक चीजें पैदा करती है। मनुष्य को उसमें सही बीज बोने चाहिए।
व्याख्या – कवि कहता है कि यह पृथ्वी हमारी माता है। यह अपनी प्यारी संतान की जरूरतें पूरा करने के लिए के लिए जी भरकर चीजें प्रदान करती है। यह धरती हमको बहुत कुछ देती है। कवि धरती माता की इस महिमा को बचपन में समझ नहीं सका था और उसने लोभ में पड़कर स्वार्थ पूरा करने के लिए पैसे बो दिए थे। कवि यह समझ गया है कि यह धरती अनेक रत्नों को पैदा करने वाली है, किन्तु सही बीज बोकर ही इससे अच्छी फसलें पैदा की जा सकती हैं। कवि कहता है कि मनुष्य इस धरती में सच्ची ममत्व भाव के बीज बोये। वह इसमें लोगों की काम करने की सामर्थ्य के बीज बोये। मनुष्य इसमें मानवता की ममता के बीज बोये। यदि वह ऐसा करेगा तो मिट्टी से मूल्यवान फसलें उत्पन्न होंगी। मनुष्य के परिश्रमपूर्ण जीवन से सभी दिशाएँ हँस उठेगी।
कवि कहना चाहता है कि लोगों को धरती पर एक-दूसरे के प्रति ममता की भावना का विकास करना चाहिए तथा अपनी कार्यक्षमता में वृद्धि करनी चाहिए। मनुष्यों के बीच समानता का भाव उत्पन्न करना चाहिए। जब लोगों में परस्पर प्रेम होता है, तब वे कार्य करने में उत्कृष्ट तथा उन्नत होते हैं। हम जैसी बीज बोयेंगे, वैसे ही फल उसे प्राप्त होंगे। मनुष्य जैसा कार्य करता है, उसका वैसा ही परिणाम उसको मिलता है।
विशेष –
- इन पंक्तियों में कवि ने सत्कर्म करने की प्रेरणा तथा संदेश दिया है।
- कवि कर्मवाद के सिद्धान्त से प्रभावित दिखाई दे रहा है।
- भाषा बोधगम्य सरस तथा साहित्यिक है।
- अनुप्रास तथा रूपक अलंकार हैं। अतुकान्त मुक्त छंद है
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