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Rajasthan Board RBSE Class 12 Hindi सृजन Chapter 1 संतवाणी
RBSE Class 12 Hindi सृजन Chapter 1 संतवाणी पाठ्यपुस्तक के प्रश्नोत्तर
RBSE Class 12 Hindi सृजन Chapter 1 संतवाणी वस्तुनिष्ठ प्रश्न
प्रश्न 1.
असा साँपनी’ की औषधि है-
(अ) माया
(ब) सुख
(स) सम्पदा
(द) सन्तोष।
उत्तर:
(द)
प्रश्न 2.
कवि ने ‘कस्तूरी’ व ‘चीनी’ के माध्यम से मनुष्य के किन गुणों की ओर संकेत किया है?
(अ) आन्तरिक
(ब) बाह्य
(स) आन्तरिक व बाह्य
(द) इनमें से कोई नहीं।
उत्तर:
(अ)
RBSE Class 12 Hindi सृजन Chapter 1 संतवाणी अति लघूत्तरात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
हंस के उदाहरण से कवि क्या शिक्षा देना चाहता है?
उत्तर:
हंस के उदाहरण से कवि शिक्षा देना चाहता है कि बुद्धिमान व्यक्ति को गुण-अवगुण के मिश्रण में से गुण ग्रहण कर लेने चाहिए।
प्रश्न 2.
“मोल करो तलवार का पड़ा रहन दो म्यानसे क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
इस कथन का तात्पर्य यह है कि साधु की श्रेष्ठता उसकी जाति से नहीं अपितु उसके ज्ञान आदि से आँकी जानी चाहिए।
प्रश्न 3.
कबीरदास ने संगति का क्या प्रभाव बताया है?
उत्तर:
कबीर के अनुसार सत्संगति से मनुष्य का कायाकल्प हो सकता है। लोहा पारस की संगति से सोना बन जाता है।
प्रश्न 4.
ईश्वर प्राप्ति में बाधक अवगुण कौन-कौनसे बताए गए हैं?
उत्तर:
तुलसीदास जी के अनुसार काम, क्रोध, मद, लोभ और घर-परिवार से मोह आदि अवगुण ईश्वर प्राप्ति में बाधक होते हैं।
प्रश्न 5.
तुलसीदास के अनुसार इन्द्रियों की सार्थकता किससे सम्भव है?
उत्तर:
तुलसीदास जी के अनुसार इन्द्रियों की सार्थकता, उनके परमार्थ या ईश्वर प्राप्ति में प्रयोग किए जाने पर ही सम्भव है।
प्रश्न 6.
कवि के अनुसार मनुष्य के जीवन में संगति का क्या प्रभाव पड़ता है?
उत्तर:
कवि के अनुसार मनुष्य जैसी संगति करता है, वैसा ही बन जाता है, व्यक्ति सत्संगति से भला और कुसंगति से दुर्बल और निन्दनीय हो जाता है।
RBSE Class 12 Hindi सृजन Chapter 1 संतवाणी लघूत्तरात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
जगत् को वश में करने का क्या उपाय बताया गया है?
उत्तर:
जगत् को वश में करने के लिए कबीरदास जी ने मधुरवाणी को सबसे सहज उपाय बताया है। वह कोयल और कौआ का उदाहरण देते हुए कहते हैं कि कौआ और कोयल दोनों काले होते हैं। दोनों ही पक्षी हैं किन्तु दोनों की वाणी में बहुत अन्तर है। कौआ किसी का धन नहीं छीन लेता है और कोयल किसी को धन नहीं दे देती। परन्तु अपनी कर्कश बोली के कारण कौआ किसी को प्रिय नहीं लगता और कोयल अपनी मीठी बोली से सारे जग को वश में कर लेती है।
प्रश्न 2.
कबीरदास की वाणी साखी क्यों कहलाती है? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
‘साखी’ शब्द संस्कृत के ‘साक्षी’ का ही विकसित या तद्भव रूप है।’साक्षी’ वह होता है जिसने किसी घटना या वस्तु को स्वयं अपनी आँखों से देखा हो। ‘साखी’ नाम से रचित दोहों में कबीरदास जी द्वारा अपने स्वयं के अनुभव से प्राप्त विचारों, शिक्षाओं और सन्देशों को व्यक्त किया गया है। अत: कबीरदास के आध्यात्मिक अनुभवों पर आधारित होने के कारण, इन दोहों को ‘साखी’ नाम दिया गया प्रतीत होता है।
प्रश्न 3.
“जाति न पूछो साधु की, पूछि लीजिए ज्ञान।
मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान॥” पंक्तियों को भाव स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
इस दोहे में कबीरदास साधु की परीक्षा उसकी जाति से नहीं बल्कि उसके ज्ञान के आधार पर करने का सन्देश दे रहे हैं। साधु यदि ज्ञानी और सदाचारी है तो उसकी कोई भी जाति हो, वह सम्मान का पात्र है, तलवार को खरीदने वाला पारखी व्यक्ति तलवार के लोहे और उसकी धार के आधार पर उसका मूल्य निश्चित किया करता है। उसकी सुन्दर म्यान के आधार पर नहीं । कबीर का आशय यह है कि जाति के आधार पर मनुष्य का मूल्यांकन करना अज्ञान और अन्याय की निशानी है।
प्रश्न 4.
“नदी नाव संयोग द्वारा तुलसी ने संसार में जीने का क्या तरीका बताया है?
उत्तर:
नदी को पार करने के लिए लोग नाव की सहायता लेते हैं। नाव पर सवार लोगों को नदी के पार जाने तक थोड़े से समय के लिए एक-दूसरे का साथ मिलता है। नौका यात्रा के बीच सभी यात्री एक-दूसरे से हिलमिल जाते हैं किन्तु नदी पार होते ही अपने-अपने गंतव्य की ओर चल देते हैं। मानव जीवन भी एक छोटी-सी नौका यात्रा के ही समान होता है। तुलसीदास लोगों को परामर्श देते हैं कि संसार में भाँति-भाँति के विचारों और रहन-सहन वाले लोगों का साथ होता है। अतः सभी के साथ प्रेम से हिल-मिलकर जीवन बिताना चाहिए। जाने कौन कहाँ बिछुड़ जाये।
प्रश्न 5.
“राम कृपा तुलसी सुलभ, गंग सुसंग समान।” पंक्ति का भाव स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
इस पंक्ति में तुलसीदास जी ने भगवान राम की कृपा से गंगा और सत्संगति प्राप्त होना सुलभ बताया है। गंगा और सत्संगति दोनों का स्वभाव एक जैसा होता है। दोनों ही सम्पर्क में आने वाले को अपने जैसा पवित्र और सज्जन बना देते हैं। जो गंगा के जल में मिलता या प्रवेश करता है। उसे गंगा अपने समान ही पवित्र बना देती है। इसी प्रकार सत्संगति भी साथ में रहने वाले व्यक्ति को सद्गुणों से युक्त सज्जन पुरुष बना दिया करती है।
प्रश्न 6.
“अब तौ दादुर बौलिहे, हमें पूछिहैं कौन’ में तुलसी का क्या भाव है?
उत्तर:
कोयल वसन्त ऋतु में अपनी मधुर बोली से सभी के मन को प्रसन्न किया करती है। वर्षा ऋतु आने पर कोयलों की कूक सुनाई नहीं देती। तुलसी इस तथ्य के द्वारा सन्देश देना चाहते हैं कि बुद्धिमान और गुणी व्यक्ति को उचित स्थान और समय पर ही अपने गुण का प्रदर्शन करना चाहिए। जहाँ अपनी ही अपनी हाँकने वाले बकवादी और अज्ञानी लोगों का बहुमत हो वहाँ शान्त रहना ही अच्छा होता है। वर्षा ऋतु में जब हजारों मेंढ़क एक साथ टर्राएँगे तो बेचारी कोयल की मधुर ध्वनि कौन सुन पाएगा।
प्रश्न 7.
“पर जळती निज पाय, रती न सूझै राजिया” पंक्ति का भाव स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
इस पंक्ति से सम्बद्ध सोरठे में कवि कृपाराम खिड़िया ने संकेत किया है कि समाज में लोग दूसरों के घरों में लगी आग अर्थात् कलह और विवाद आदि को दूर से देखकर आनन्दित हुआ करते हैं, परन्तु उन्हें अपने घर की कलह और अशान्ति दिखाई नहीं देती। पहाड़ पर लगी आग तो सभी को दिखाई दे जाती है परन्तु अपने पैरों के निकट जलती आग लोगों को दिखाई नहीं देती। दूसरों के दोषों को देखने से पहले व्यक्ति को अपनी कमियों पर ध्यान देना चाहिए।
प्रश्न 8.
“मुख ऊपर मिठियास, घर माहि खोटा घड़े” पंक्तिको भावार्थ लिखिए।
उत्तर:
इस पंक्ति में कवि कृपाराम ने बताया है कि जो व्यक्ति बड़ा मीठा बोलता हो किन्तु उसके मन में बहुत खोटापन भरा हो, ऐसे व्यक्ति से मेलजोल या मित्रता नहीं रखनी चाहिए। ऐसा व्यक्ति उस घड़े के समान है जिसके मुँह पर तो दूध भरा है लेकिन भीतर विष भरा हुआ है। ऐसा मित्र तो कभी भी धोखा दे सकता है। कोई भी अनिष्ट कर सकता है।
RBSE Class 12 Hindi सृजन Chapter 1 संतवाणी निबन्धात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
“हिम्मत किम्मत होय……रद कागद ज्यूं राजिया” दोहे का भावार्थ लिखिए। दोहे के माध्यम से मनुष्य के किस गुण की ओर संकेत किया गया है?
उत्तर:
मानव जीवन में आगे बढ़ने के अथवा सम्मान पाने के अवसर बार-बार नहीं आते। जो व्यक्ति ऐसे अवसरों पर साहस के साथ आगे बढ़कर अपना कौशल नहीं दिखाता, उसे कोई नहीं पूछता। संसार में हिम्मत दिखाने वाले व्यक्ति को ही सम्मान मिलता है। जिनमें हिम्मत नहीं होती उनका संसार में रद्दी कागज के समान उपेक्षा और अनादर हुआ करता है।
सेना में, व्यापार में, प्रतियोगिताओं में यशस्वी बनने में साहस की सबसे बड़ी भूमिका हुआ करती है चुनौती को देखकर घबरा जाने वाले लोग कभी जीवन में सफलता और सम्मान नहीं पा सकते। इन पंक्तियों में मनुष्य के साहसी होने के गुण की ओर कवि ने संकेत किया है।
RBSE Class 12 Hindi सृजन Chapter 1 संतवाणी व्याख्यात्म क प्रश्न
1. कागा काको धन हरै……जग अपनो करि लेत।
2. काम क्रोध मद……परे भव कूप।
3. तुलसी या संसार……नदी नाव संयोग।
उत्तर संकेत-छात्र उपर्युक्त की व्याख्या के लिए पूर्व में दी गई सभी कवियों से सम्बन्धित ‘सप्रसंग व्याख्याओं’ में कबीर-7, तुलसीदास 1 व 5 पद्यांश को देखें।
RBSE Class 12 Hindi सृजन Chapter 1 संतवाणी अन्य महत्त्वपूर्ण प्रश्नोत्तर
RBSE Class 12 Hindi सृजन Chapter 1 संतवाणी वस्तुनिष्ठ प्रश्न
1. हंस पानी मिले दूध में से ग्रहण कर लेता है
(क) जल को
(ख) कमल को
(ग) मोतियों को
(घ) दूध को।
2. कोयल ने पावस में मौन धारण किया है.
(क) बादल के गर्जन के कारण
(ख) वर्षा होने के कारण
(ग) मेंढकों के बोलने के कारण।
(घ) पक्षियों के शोर के कारण।
3. गंगा और सत्संग सुलभ होते हैं –
(क) रामकृपा से
(ख) जप-तप से
(ग) धन से
(घ) पूर्वजन्म के पुण्य से
4. कस्तूरी और शक्कर की तुलना में निहित सन्देश है –
(क) कस्तूरी कुरूप और दुर्लभ है।
(ख) चीनी सुरूप और सुलभ है।
(ग) सुन्दरता से गुण श्रेष्ठ हैं ।
(घ) कस्तूरी के बजाय शक्कर का उपयोग करना चाहिए।
5. कृपाराम के अनुसार रद्दी के समान निरादर होता है –
(क) निर्धन व्यक्ति का
(ख) गुणहीन व्यक्ति का
(ग) हिम्मत से रहित व्यक्ति का
(घ) कटुभाषी व्यक्ति का।
उत्तर:
- (घ)
- (ग)
- (क)
- (ग)
- (ग)
RBSE Class 12 Hindi सृजन Chapter 1 संतवाणी अति लघूत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1.
त्यागी व्यक्ति को मन में क्या विचार दृढ़ कर लेना चाहिए?
उत्तर:
त्यागी व्यक्ति को ‘सब कुछ प्रभु का है मेरा नहीं’ यह विचार दृढ़ता से मन में रखना चाहिए।
प्रश्न 2.
कबीर के अनुसार साधु की श्रेष्ठता का निर्णय किस आधार पर करना चाहिए?
उत्तर:
साधु की श्रेष्ठता उसके ज्ञान से आँकी जानी चाहिए, न कि उसकी जाति के आधार पर।
प्रश्न 3.
‘साधु की संगति कभी निष्फल नहीं होती’, इस तथ्य को कबीर ने किस उदाहरण से सिद्ध किया है?
उत्तर:
कबीर ने यह तथ्य लोहे और पारस के आधार पर सिद्ध किया है। पारस का स्पर्श या संग होने से लोहा सोना बन जाता है।
प्रश्न 4.
कोयल अपने किस गुण द्वारा संसार को अपना प्रशंसक बना लेती है?
उत्तर:
कोयल अपनी मधुर बोली से सारे जगत् को अपना प्रशंसक बना लेती हैं।
प्रश्न 5.
‘गंग’ और ‘सुसंग’ को तुलसीदास ने समान कैसे बताया है?
उत्तर:
गंगा के जल से जो वस्तु मिलती है या जो व्यक्ति स्नान करता है, वह गंगा के समान ही पवित्र हो जाता है। इसी प्रकार सत्संग करने वाला व्यक्ति सदाचारी हो जाता है।
प्रश्न 6.
तुलसीदास जी ने बुरे समय के सखा किनको बताया है?
उत्तर:
तुलसीदास जी ने धैर्य, धर्माचरण, विवेक, सत्साहित्य, साहस और सत्य पर दृढ़ रहना-इन गुणों को बुरे समय का सखा बताया है।
प्रश्न 7.
कृपाराम ने रसना (वाणी) का गुण कैसे दर्शाया है?
उत्तर:
कवि कृपाराम ने कहा है कि मीठी और कड़वी वाणी के कारण ही कोयल सबके मन को प्रसन्न करती है और कौआ सभी को कड़वा या बुरा लगता है।
प्रश्न 8.
सुन्दरता से गुण श्रेष्ठ होते हैं, यह बात कवि कृपाराम ने कैसे समझाई है?
उत्तर:
कवि ने यह बात कस्तूरी और चीनी के उदाहरण द्वारा समझाई है। कस्तूरी काली और कुरूप होते हुए भी सुन्दर रंग वाली चीनी से कहीं अधिक मूल्यवान मानी जाती है।
प्रश्न 9.
कवि कृपाराम कैसे लोगों से मित्रता न करने की सीख देते हैं?
उत्तर:
कृपाराम उन लोगों से मित्रता न करने की सीख देते हैं जो मुख से तो मीठा बोलते हैं परन्तु हृदय में कपट रखते हैं।
प्रश्न 10.
श्रीकृष्ण ने अर्जुन का रथ हाँकना क्यों स्वीकार किया था?
उत्तर:
श्रीकृष्ण ने अर्जुन के सच्चे मित्र होने के कारण उसका रथ हाँकना स्वीकार किया था।
प्रश्न 11.
कबीर की भाषा को क्या नाम दिया गया है?
उत्तर:
कबीर की भाषा को सधुक्कड़ी या खिचड़ी भाषा कहा जाता है क्योंकि इसमें अनेक भाषाओं के शब्दों का प्रयोग हुआ है।
प्रश्न 12.
कबीर के दोहों के विषय क्या हैं?
उत्तर:
कबीरदास ने जीवन में उपयोगी विषयों पर दोहे रचे हैं। ये विषय त्याग, विवेक, विनम्रता, ज्ञान का आदर, सत्संग, सन्तोष तथा मधुर वाणी बोलना आदि हैं।
प्रश्न 13.
तुलसी ने संकलित दोहों में क्या सीख दी है?
उत्तर:
तुलसीदास ने अपने दोहों में काम, क्रोध आदि दुर्गुणों से बचने, परमार्थ पर ध्यान देने, सत्संगति करने, हिल-मिलकर जीवन बिताने तथा धैर्य, धर्म, विवेक आदि गुण अपनाने की सीख दी है।
प्रश्न 14.
तुलसीदास जी की पाँच प्रमुख रचनाओं के नाम लिखिए।
उत्तर:
तुलसीदास जी की पाँच प्रमुख रचनाएँ हैं-रामचरितमानस, गीतावली, दोहावली, विनय पत्रिका तथा कवितावली।
प्रश्न 15.
कवि कृपाराम के सोरठे में राजिया शब्द किसके लिए प्रयुक्त हुआ है?
उत्तर:
राजिया कृपाराम का अत्यन्त प्रिय सेवक था। वह नि:सन्तान था। उसका दु:ख दूर करने के लिए कृपाराम ने उसे सम्बोधित करते हुए अपने सोरठों की रचना की थी।
RBSE Class 12 Hindi सृजन Chapter 1 संतवाणी लघूत्तरात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
कबीरदास ने त्याग को आदर्श स्वरूप कैसा बताया है?
उत्तर:
त्याग करने के लिए मनुष्य का मोह से मुक्त होना आवश्यक होता है। थोड़ा-थोड़ा करके सांसारिक वस्तुओं का त्याग करने की अपेक्षा एक ही बार में दृढ़ निश्चय के साथ सारी सांसारिक वस्तुओं का त्याग कर देना उत्तम होता है। मनुष्य ऐसा तभी कर सकता है जब वह मान लेता है कि सब कुछ भगवान का है, उसका कुछ भी नहीं है। यही त्याग का आदर्श स्वरूप होता है।
प्रश्न 2.
हंस में कौन-सा विशेष गुण माना गया है? हंस का यह गुण आपको क्या संदेश देता है?
उत्तर:
ऐसा विश्वास चला आ रहा है कि हंस पानी और दूध के मिश्रण में से दूध को ग्रहण करके पानी को त्याग देता है। हंस का अर्थ ज्ञानी या विवेकी पुरुष से भी लगाया जाता है। हंस का यह गुण हमें संदेश देता है कि गुणों और अवगुणों से युक्त संसार में हमें गुणों को ग्रहण करते हुए अवगुणों का त्याग करते रहना चाहिए। ऐसा करने से हमारा जीवन सुखी हो सकता है।
प्रश्न 3.
“मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान” कबीर ने इस कथन द्वारा क्या सन्देश देना चाहा है?
उत्तर:
कबीर ने इस पंक्ति द्वारा यह सन्देश देना चाहा है कि व्यक्ति की महानता और सम्मान का मूल्यांकन उसकी जाति के आधार पर करना उसके साथ अन्याय है। उसके ज्ञान और मानवीय गुणों के आधार पर ही उसकी महानता का मूल्यांकन किया जाना चाहिए। तलवार खरीदने वाला अनुभवी व्यक्ति, उसका मूल्य, उसके म्यान की सुन्दरता देखकर निश्चित नहीं करता। वह तलवार के लोहे की गुणवत्ता और उसकी धार के टिकाऊपन के आधार पर उसका मूल्य तय करता है। जाति तो साधु का म्यान है, उसमें रखी तलवार उसका ज्ञान है। उसे ही परखना चाहिए।
प्रश्न 4.
आशा को कबीर ने क्या बताया है और इससे मुक्त होने का गुरु मंत्र किसे बताया है?
उत्तर:
आशा को कबीर ने साँपन बताया है जिसने सारे संसार को डस रखा है। इस दोहे में कबीर का आशा को सर्पिणी बताने का भाव यह है कि जो व्यक्ति केवल आशाओं के सहारे रहता है, वह जीवन में कभी सुखी नहीं हो सकता। आशा के साथ उद्यम भी होना चाहिए। आशा की दासता से छुटकारा पाने का एकमात्र उपाय सन्तोष की भावना है। वही आशारूपी सर्पिणी के विष से व्यक्ति की रक्षा कर सकती है। सन्तोषरूपी गुरु मन्त्र के द्वारा ही आशारूपी सर्पिणी का विष उतारा जा सकता है।
प्रश्न 5.
कौए और कोयल के प्रति लोगों की क्या भावनाएँ हैं? कोयल हमें क्या शिक्षा देती है?
उत्तर:
कवि कबीर का कहना है कि कौआ किसी का धन नहीं छीनता और कोयल किसी को धन नहीं दे देती, फिर भी लोग कौए को नहीं चाहते। कोयल ही सबको प्रिय लगती है। इसका एकमात्र कारण दोनों की बोली है। कौए की कर्कश काँव-काँव किसी को नहीं सुहाती है। कोयल से हमें यही सीख मिलती है कि हमें सबके साथ मधुर वाणी का प्रयोग करना चाहिए। ऐसा करने पर सभी लोग हम से प्यार करेंगे।
प्रश्न 6.
कबीर के दोहे हमें श्रेष्ठ जीवन मूल्यों को अपनाने की प्रेरणा देते हैं। इस कथन पर अपना मत लिखिए।
उत्तर:
सन्त कबीर ने अपने दोहों में श्रेष्ठ मानवीय गुणों को अपनाने की प्रेरणा दी है, यह कथन सर्वथा सही है। वे कहते हैं कि, “सब कुछ प्रभु का है मेरा कुछ भी नहीं” यह त्याग की भावना का आदर्श रूप है। विवेकपूर्वक अवगुणों से बचकर गुणों को धारण करना, हर प्रकार के अहंकार का त्याग, जात और धर्म की अपेक्षा ज्ञान से साधुता का मूल्यांकन करना, सज्जनों की संगति करना, सन्तोषपूर्वक जीवन बिताना तथा मधुर वाणी का प्रयोग करना ये सभी श्रेष्ठ जीवन मूल्य हैं, जिनको धारण करने की प्रेरणा कबीर ने दी है।
प्रश्न 7.
तुलसी के अनुसार कैसे लोग भगवान राम की महत्ता को नहीं समझ सकते और क्यों?
उत्तर:
तुलसी के अनुसार जो लोग भोगों में डूबे हैं, क्रोधी हैं, अहंकारी हैं तथा घरबार के मोह में फँसे हुए हैं, वे कभी भगवान राम की महिमा नहीं जान सकते। तुलसी के अनुसार इसका कारण है कि ऐसे लोग संसाररूपी कुएँ में पड़े हैं। जैसे कुएँ का मेंढक कुएँ से बाहर के अनन्त संसार को परिचय नहीं पा सकता। उसी प्रकार सांसारिक विकारों से ग्रस्त और भोगों में लिप्त मनुष्य भी भगवान राम की महिमा और कृपा से अपरिचित रह जाता है। तुच्छ विषयों के भोग में ही सारा मानव जीवन नष्ट कर देता है।
प्रश्न 8.
चतुर व्यक्ति अपनी इन्द्रियों का प्रयोग किसलिए किया करते हैं और क्यों?
उत्तर:
तुलसीदास जी कहते हैं कि विधाता ने मनुष्य को बोलने के लिए जीभ दी है सुनने के लिए कान दिए हैं और हितकारी बातों को धारण करने के लिए चित्त दिया है। अज्ञानी लोग इन इन्द्रियों का प्रयोग सांसारिक सुखों को भोगने के लिए किया करते हैं, परन्तु सुजान लोग इनका प्रयोग केवल परमार्थ अर्थात् जीवन के महानतम लक्ष्य (ईश्वर की प्राप्ति या मोक्ष) को प्राप्त करने के लिए ही किया करते हैं।
प्रश्न 9.
सत्संग और कुसंग का मनुष्य के जीवन पर क्या प्रभाव पड़ा करता है? तुलसीदास ने किस उदाहरण द्वारा इसे सिद्ध किया है?
उत्तर:
सत्संग मनुष्य को भला बनाता है। सद्गुणों से पूर्ण करता है। इसके विपरीत कुसंग में पड़ने पर वही व्यक्ति बुरा और निन्दा का पात्र हो जाता है। तुलसीदास जी ने इस बात को नाव, किन्नरी, तीर और तलवार में प्रयुक्त होने वाले लोहे के उदाहरण द्वारा स्पष्ट किया है। नाव में कीलों के रूप में, किन्नरी नाम की वीणा में तारों के रूप में काम आने वाले लोहे की उपयोगिता सभी स्वीकार करते हैं। वही लोहा जब प्राणघातक अस्त्र-शस्त्रों, तीर और तलवार के बनाने में काम आता है तो वह निन्दनीय हो जाता है।
प्रश्न 10.
तुलसीदास ने गंग और सुसंग में क्या समानता बताई है? ये दोनों मनुष्य को कैसे प्राप्त हो सकते हैं?
उत्तर:
तुलसीदास गंगा और सत्संग दोनों का स्वभाव और प्रभाव समान बताते हैं। जैसे गंगा में मिलने वाली वस्तु और स्नान करने वाले मनुष्य को गंगा अपने समान पवित्र बना देती है, उसी प्रकार सत्संग भी अपने प्रभाव से मनुष्य को सद्गुणों से सम्पन्न कर देता है। इन दोनों का लाभ उठाने का अवसर तुलसीदास के अनुसार उसी व्यक्ति को मिल पाता है जिस पर भगवान राम की कृपा होती है।
प्रश्न 11.
‘सब सौं हिल-मिल चालिए’ तुलसीदास जी ने इस कथन द्वारा क्या सन्देश देना चाहा है? संकलित दोहे के आधार पर लिखिए।
उत्तर:
तुलसीदास कहते हैं कि इस संसार में विभिन्न प्रकार के स्वभाव, आचरण और रुचियों वाले लोग होते हैं। हमें जहाँ तक हो सबसे हिल-मिल कर समय बिताना चाहिए। मानव जीवन’नदी-नाव संयोग’ के समान है। जैसे नाव द्वारा नदी पार करते समय नौका में बैठे लोगों को थोड़े समय साथ रहने का अवसर मिलता है, उसी प्रकार मानव जीवन में भी थोड़े समय के लिए विभिन्न प्रकृति के लोग हमारे सम्पर्क में आते हैं। इस अवसर का लाभ लेते हुए सभी के साथ प्रेमपूर्वक समय बिताना ही बुद्धिमानी है। यही कवि का सन्देश है।
प्रश्न 12.
तुलसीदास जी ने ‘असमय के सखा’ किनको बताया है और क्यों? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
मानव जीवन में कभी-कभी असमय अर्थात् बुरा समय भी आ जाया करता है। उस समय उसकी सहायता करने वाले मित्रों के समान अच्छे गुण ही काम आते हैं। तुलसी के अनुसार ये गुण हैं-धैर्य, धर्मपालन, विवेक, सत्साहित्य, साहस, सत्य पर दृढ़ रहना और भगवान पर पूरा भरोसा रखना। इन गुणों से मनुष्य को आत्मविश्वास, मार्गदर्शन और संकट का सामना करने की शक्ति प्राप्त होती है।
प्रश्न 13.
संकलित दोहों के आधार पर तुलसीदास की रचनाओं की काव्यगत विशेषताएँ संक्षेप में लिखिए।
उत्तर:
संकलित दोहों के आधार पर तुलसीदास की निम्नलिखित काव्यगत विशेषताएँ सामने आती हैंभाषा-कवि ने साहित्यिक ब्रजभाषा का प्रयोग किया है। लक्षणा शब्द शक्ति के प्रयोग से भाषा को प्रभावशाली बनाया है। शैली-तुलसी की कथन शैली उपदेशात्मक तथा प्रेरणादायिनी है। कहीं-कहीं मधुर व्यंग्य का भी प्रयोग किया गया है। रस-कवि शान्त रस की सृष्टि करने में पूर्ण दक्ष है। अलंकार-कवि ने अनुप्रास, उपमा, रूपक तथा दृष्टांत आदि अलंकारों का स्वाभाविक रूप से प्रयोग किया है। विषय-संकलित दोहों में कवि ने मानव जीवन को सुखी एवं सार्थक बनाने के लिए प्रेरणादायक विषयों का चुनाव किया है।
प्रश्न 14.
रसना रा गुण राजिया’ से कवि का क्या आशय है? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
कहा गया है-वाणी एक अमोल है, जो कोई जानै बोल। वाणी या बोली भगवान द्वारा दी गई एक अमूल्य वस्तु है। बस मनुष्य को इसका सही प्रयोग करना आना चाहिए। कवि कृपाराम भी ‘रसना का गुण’ अर्थात् वाणी के इसी महत्त्व को बता रहे हैं। कवि कोयल और कौए का उदाहरण देकर अपनी बात को प्रमाणित कर रहा है। कोयल अपनी मधुर बोली से हृदय में प्यार जगाती है और सबके मन को प्रसन्न किया करती है। इसके विपरीत कौआ अपनी कर्कश काँव-काँव द्वारा मन में खीझ उत्पन्न करता है। वाणी में अन्तर से ही कोयल सबकी प्रिय है और कौआ अप्रिय है।
प्रश्न 15.
कवि कृपाराम कस्तूरी और शक्कर की तुलना द्वारा हमें क्या सन्देश देना चाहते हैं? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
यदि रूप और सुन्दरता की दृष्टि से विचार किया जाय तो काली कुरूप कस्तूरी से सफेद और मीठी शक्कर अधिक प्रिय लगती है। परन्तु सारा जगत कस्तूरी की अतुलनीय और मादक सुगन्ध पर मुग्ध है। तभी तो कस्तूरी सोना, चाँदी और हीरे जैसे बहुमूल्य पदार्थों की भाँति प्रमाणित काँटे पर तोल कर बिकती है। जबकि सुन्दर चीनी ईंट और पत्थर के रोड़ों से तुलकर बिकती है। इस सोरठा द्वारा कवि सन्देश देना चाहता है कि सुन्दरता से गुण अधिक श्रेष्ठ आदरणीय होते हैं।
प्रश्न 16.
“लोग मतलब या स्वार्थ होने पर ही किसी की खुशामद करते हैं।” इस भाव को प्रकट करने वाले कृपाराम के सोरठे का सार लिखिए।
उत्तर:
तुलसीदास जी ने कहा है “सुर नर मुनि सबकी यह रीती। स्वारथ लागि करहिं सब प्रीती ॥” मनुष्य तो क्या देवता और मुनि भी स्वार्थवश ही प्रेम किया करते हैं। कवि कृपाराम ने भी संकलित सोरठे में यही बात सिद्ध की है। कवि कहता है कि मतलब होने पर लोग चुपचाप स्वादिष्ट चूरमा खिलाया करते हैं। पर जब मतलब नहीं रहती तो कोई उस व्यक्ति को ‘राब’ (गन्ने का गाढ़ा किया रस) भी नहीं प्रदान करता है। ऐसे स्वार्थी लोगों से दूर रहना ही श्रेयस्कर है।
प्रश्न 17.
कवि कृपाराम कैसे लोगों से मित्रता न करने को परामर्श देते हैं, संकलित सोरठे के आधार पर लिखिए।
उत्तर:
एक लोकोक्ति है-‘मुँह में राम बगल में छुरी’ अर्थात् मुँह का मीठा और दिल का खोटा व्यक्ति। ऐसे कपटी और क्रूर लोगों को मित्र बनाना संकट मोल लेने के समान है। कृपाराम भी सोरठे में यही कह रहे हैं। जिसकी बोली में मिठास हो लेकिन मन में खोट हो ऐसे व्यक्ति से सम्बन्ध नहीं रखना चाहिए। ऐसा धूर्त व्यक्ति कभी भी अपने स्वार्थ के लिए हानि पहुँचा सकता है।
प्रश्न 18.
कवि कृपाराम ने सच्चे मित्र के क्या लक्षण बताए हैं? सच्ची मित्रता के उदाहरण के रूप में कवि ने किस घटना का उल्लेख किया है? लिखिए।
उत्तर:
कवि कृपाराम कहते हैं कि सच्चा मित्र अपने मित्र के हित के लिए सदा तत्पर रहता है। मित्र के कहने पर वह उसका हर कार्य लगन से किया करता है। इस कथन के समर्थन में कवि ने महाभारत के युद्ध में कृष्ण द्वारा अर्जुन का रथ हाँकने की घटना का उल्लेख किया है। कृष्ण ने अपने मित्र की सहायता के लिए, स्वयं राजाधिराज होते हुए भी, उसका रथ हाँकने का कार्य किया।
प्रश्न 19.
‘हिम्मत किम्मत होय’ क्या आप कवि कृपाराम खिड़िया के इस मत से सहमत हैं? यदि हाँ तो क्यों ? लिखिए।
उत्तर:
कवि कृपाराम के इस कथन से आशय है कि समाज में साहसी व्यक्ति का ही आदर हुआ करता है। साहसविहीन भीरू व्यक्ति को कोई पूछता भी नहीं है। यह बात हमारे जीवन में प्रत्यक्ष दिखाई देती है। साहसी सैनिक पदकों से सम्मानित होते हैं। कायरों को सारा समाज धिक्कारता है। जोखिम उठाने वाला व्यापारी ही सफल और समृद्ध होता है। साहसहीन व्यक्ति को लोग रद्दी कागज की तरह मन से निकाल फेंकते हैं।
प्रश्न 20.
कृपाराम की लोकप्रियता का कारण क्या है? संकलित सोरठों के आधार पर लिखिए।
उत्तर:
कवि कृपाराम अपने नीति सम्बन्धी सोरठों के लिए प्रसिद्ध हैं। इन सोरठों में कवि ने जीवन को सुखमय बनाने की तथा सामाजिक मर्यादाओं के पालन की सीख दी है। वह व्यक्ति को मधुरवाणी अपनाने की प्रेरणा देते हैं। सुन्दरता की अपेक्षा आन्तरिक गुणों की श्रेष्ठता पर बल देते हैं। दूसरों पर हँसने के बजाय अपने अवगुणों पर ध्यान देना, स्वार्थियों से बचना, कपटी मित्रों से सावधान रहना, सच्चे मित्र की पहचान तथा साहसी बनना आदि, ऐसी ही शिक्षाएँ हैं।
RBSE Class 12 Hindi सृजन Chapter 1 संतवाणी निबन्धात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
“कबीर के दोहे मनुष्य को सदाचरण और श्रेष्ठ जीवन मूल्य को अपनाने की प्रेरणा देते हैं। अपनी पाठ्यपुस्तक में संकलित कबीर के दोहों के आधार पर इस कथन की पुष्टि कीजिए।
उत्तर:
पाठ्यपुस्तक में संकलित कबीरदास के दोहे प्रशंसनीय आचरण और श्रेष्ठ मानवीय गुणों को अपनाने की प्रेरणा देते हैं। कबीर जीवन में त्याग के महत्त्व को स्वीकारते हुए कहते हैं कि त्याग करना है तो मन में दृढ़ निश्चय करके सारे सांसारिक माया-मोह को त्याग दो। ‘सब प्रभु का है मेरा नहीं’ यह विचार मनुष्य को विनम्रता धारण करने की प्रेरणा देता है। हंस के नीर-क्षीर विवेक प्रसंग द्वारा वह विवेकी बनने की प्रेरणा दे रहे हैं। प्रभु प्राप्ति में और सम्मान में अहंकार ही बाधक है। अहंकार को त्याग मनुष्य के आचरण को प्रशंसनीय बनाता है। “पूछि लीजिए ज्ञान” इस कथन द्वारा ज्ञान और ज्ञानी का सम्मान करने की प्रेरणा दी गई है। सत्संगति भी आचरण को सुधारने में महत्त्वपूर्ण योगदान करती है। इसीलिए कबीर सत्संग की महिमा का बखान कर रहे हैं। सन्तोष एक श्रेष्ठ जीवन मूल्य है। आशा और तृष्णा से छुटकारा सन्तोषी बनने से ही मिल पाता है। मधुर वाणी का प्रयोग करना भी सदाचार का ही अंग है। कौए और कोयल के उदाहरण से मधुर वाणी का प्रयोग करने की प्रेरणा दी गई है।
प्रश्न 2.
आप की पाठ्यपुस्तक में संकलित तुलसीदास जी के दोहों में कौन-कौन-सी जीवनोपयोगी सीखें दी गई हैं? लिखिए।
उत्तर:
तुलसी ने उन लोगों को मूर्ख बताया है जो जीवनभर काम, क्रोध, अहंकार जैसे विकारों से ग्रस्त रहते हैं। घर के झंझटों में उलझे रहने वाले लोग कभी भगवान के जनहितकारी और त्यागमय जीवन के सन्देश को नहीं समझ पाते हैं। तुलसी सीख देते हैं कि मनुष्य को अपनी शारीरिक और मानसिक क्षमताओं का उपयोग जीवन के श्रेष्ठतम लक्ष्यों को प्राप्त करने में करना चाहिए। कवि ने सत्संगति के लाभ बताते हुए सत्संगति प्राप्त करने की प्रेरणा दी है। तुलसी उपयोगी और सहज जीवन शैली अपनाने का सन्देश देते हुए कहते हैं। कि हमें अलग-अलग सोच और व्यवहार वाले लोगों से सामंजस्य बनाते हुए जीवन बिताना चाहिए। तुलसी व्यावहारिक सीख देते हैं कि जहाँ अविचारी लोग अपनी-अपनी हाँकते हुए दूसरों को नहीं सुनना चाहते, वहाँ बुद्धिमान को मौन धारण कर लेना चाहिए। तुलसी ने धैर्य, धर्मपालन, विवेक सत्साहित्य, साहस और सत्य पर दृढ़ रहना, जैसे गुणों को मनुष्य का सच्चा मित्र बताया है। जो संकट के समय मनुष्य का साथ दिया करते हैं।
प्रश्न 3.
कवि कृपाराम खिड़िया ने अपने सोरठों में कोयल और कौआ तथा कस्तूरी और शक्कर की तुलना द्वारा क्या सन्देश देना चाहा है? अपने शब्दों में लिखिए।
उत्तर:
कृपाराम ने इन दोनों सोरठों द्वारा पाठकों को मधुरवाणी और जीवन में गुणों के महत्त्व का सन्देश दिया है। सभी जानते हैं। कि लोग कोयल को प्यार करते हैं और कौए को भगा देते हैं। इसका एकमात्र कारण वाणी का स्वरूप है। कोयल अपनी मीठी बोली से सभी के मन में प्रेम भाव जगाती है और सुनने वालों के मन को प्रसन्न कर देती है। जबकि कौए की कर्कश बोली कानों को तनिक भी नहीं सुहाती । कवि का यही सन्देश है कि सबका प्रिय बनना है तो सदा मधुर वाणी का प्रयोग करना चाहिए।
कस्तूरी और शक्कर का उदाहरण सामने रखकर कवि ने सन्देश दिया है कि केवल वस्तु या व्यक्ति की सुन्दरता उसे समाज में सम्मान नहीं दिला सकती। सम्मान और मूल्य मनुष्य को उसके श्रेष्ठ गुणों से प्राप्त होते हैं। कस्तूरी भले ही देखने में काली-कुरूप हो किन्तु उसकी अद्वितीय मादक सुगन्ध ने उसे अति मूल्यवान बना दिया है। शक्कर भले देखने में सुन्दर लगे पर वह कस्तूरी के सामने मूल्य और महत्त्व में कहीं नहीं ठहरती।
प्रश्न 4.
कवि कृपाराम ने अपने सोरठों में एक सच्चे मित्र के कौन-से लक्षण बताए हैं तथा कैसे व्यक्ति को मित्र न बनाने की सीख दी है? संकलित सोरठों के आधार पर उत्तर दीजिए।
उत्तर:
कृपाराम ने कपटी व्यक्ति से सावधान करते हुए उससे मित्रता न करने की सीख दी है। जो व्यक्ति मुँह से तो बड़ा मीठा बोलता है किन्तु मन में कपट रखता है, उससे मित्रता या मेल-जोल बढ़ाना घातक सिद्ध हो सकता है। वह विश्वासघात करके अपनी स्वार्थसिद्धि के लिए हमें गम्भीर हानि पहुँचा सकता है।
इसी के साथ कृपाराम एक आदर्श मित्र का उदाहरण भी हमारे सामने प्रस्तुत करते हैं। वह महाभारत संग्राम के एक प्रसंग को सामने लाकर कृष्ण और अर्जुन की मित्रता को अनुकरणीय बताते हैं। एक सच्चा मित्र अपने मित्र के हित के लिए सदा तत्पर रहता है। वह उसके लिए कैसा भी कार्य करने में नहीं हिचकता। अपने मान-सम्मान की चिन्ता किए बिना वह मित्र की सहायता किया करता है। महाभारत के युद्ध में कृष्ण ने अर्जुन का सारथी बनकर बिना किसी संकोच के, उसका रथ हाँका था। कवि ने इस प्रसंग द्वारा एक सच्चे मित्र के आचरण को साकार किया है। कवि की यह सीख मित्रता करने वालों के लिए एक मार्गदर्शक का काम करती है।
प्रश्न 5.
भाषा, शैली और विचारों के आधार पर कबीर, तुलसी तथा कृपाराम की कविता में क्या-क्या समानताएँ और अन्तर हैं? संकलित रचनाओं के आधार पर लिखिए।
उत्तर:
प्रथम अध्याय में सम्मिलित किए गए कवि कबीर, तुलसी और कृपाराम की मान्यताओं, विचारों और भाषा-शैली में कुछ बातें समान हैं और कुछ एक-दूसरे भिन्न हैं। तीनों ही कवियों ने अपने दोहों और सोरठों से जनसाधारण का मार्गदर्शन किया है।
कबीर ज्ञानमार्गी सन्त हैं। निर्गुण ईश्वर के उपासक हैं। तुलसी साकार ईश्वर ‘राम’ के परमभक्त हैं। कृपाराम एक दरबारी कवि हैं। तीनों कवियों का लक्ष्य नीति और अध्यात्म के उपदेशों द्वारा समाज को सुधारना है।
कबीर की भाषा सधुक्कड़ी अर्थात् हिन्दी की कई बोलियों का मिश्रण है। तुलसी की भाषा ब्रज है। कृपाराम की भाषा राजस्थानी है। तीनों कवियों की कथन शैली उपदेशात्मक है। संकलित रचनाओं के सन्देश और विचार लगभगग एक जैसे हैं। कबीर त्याग, विवेक, गुणग्राह्यता, ज्ञान का महत्त्व, सत्संगति, सन्तोष तथा मधुर भाषण जैसे जीवन-मूल्यों को ग्रहण करने की प्रेरणा देते हैं। तुलसी भी काम, क्रोध, अहंकार, परिवार में आसक्ति आदि के त्याग का सन्देश दे रहे हैं। परमार्थ को महत्त्व दे रहे हैं। सत्संग और कुसंग के परिणाम दिखाकर सत्संगति करने की प्रेरणा दे रहे हैं। हिल-मिल कर जीवन बिताने, विपरीत परिस्थिति में मौन रहने तथा जीवनोपयोगी गुणों, जैसे- धैर्य, धर्मपालन, विवेक, सत्साहित्य का अध्ययन, साहस और सत्य का आश्रय लेना आदि को अपनाने की प्रेरणा दे रहे हैं।
इसी प्रकार कवि कृपाराम जी मधुरवाणी, सद्गुण, आत्मनिरीक्षण का उपदेश देने के साथ ही कुछ बड़े व्यावहारिक और लाभकारी सुझाव दे रहे हैं। सच्चे मित्र की पहचान और हिम्मत के साथ जीने की प्रेरणा ऐसी ही हितकारी सीखें हैं।
प्रश्न 6.
‘जाति न पूछो साधु की, पूछि लीजिए ज्ञान’ कबीर के इस कथन में निहित सन्देश को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
हमारे समाज में साधु-सन्तों का सम्मान करने की परम्परा चली आ रही है। सन्त और साधु के लक्षण भी बताए गए हैं। जिस व्यक्ति में ये लक्षण विद्यमान हों वही सन्त है और आदरणीय है। कबीर भी इसी मत को स्वीकार करते हैं। किन्तु कुछ अहंकारी और जाति को महत्त्व देने वाले लोगों ने जाति विशेष के व्यक्ति को ही सन्त मानना आरम्भ कर दिया। सन्त की परीक्षा उसकी जाति से नहीं उसके ज्ञान और सदाचरण से ही हो सकती है। जाति पर बल देने वाले लोगों को कबीर ने अज्ञानी बताया है। अत: कबीर ने ऐसे लोगों पर व्यंग्य करते हुए सन्देश दिया है कि जाति तो तलवार की म्यान के समान है। जैसे तलवार मोल लेते समय उसकी म्यान की सुन्दरता पर नहीं, अपितु तलवार की श्रेष्ठता पर ध्यान दिया जाता है, उसी प्रकार साधु का सम्मान भी उसके ज्ञान के आधार पर होना चाहिए। ऊँची जाति के अज्ञानी को साधु मानना अंधविश्वास और दुराग्रह ही कहा जाएगा।
कबीरदास कवि परिचय-
संत कबीरदास का जन्म सन् 1398 ई. में काशी में हुआ था। उनका लालन-पालन एक जुलाहा दम्पति द्वारा कबीर हिन्दी की ज्ञानाश्रयी शाखा के प्रतिनिधि कवि थे। वह निर्गुण-निराकार ईश्वर के उपासक थे। कबीर ने अपनी रचनाओं सामाजिक बुराइयों; जैसे-छुआछूत, धार्मिक पाखण्ड, अंधविश्वासों और धार्मिक कट्टरता का विरोध किया। उनकी मृत्यु सन् ई. में हुई।
उन्होंने अपनी रचनाओं द्वारा हर प्रकार के अंधविश्वासों और कुरीतियों का विरोध और खण्डन किया। कबीर की भाषा में अनेक ओं के शब्दों का मिश्रण है। उन्होंने उपदेशात्मक खण्डन-मण्डन युक्त भावात्मक शैलियों में अपनी बात कही है।
रचनाएँ-कबीर की रचनाओं के संग्रह को बीजक कहा जाता है। बीजक के साखी, सबद और रमैनी ये तीन भाग हैं।
कबीरदास पाठ परिचय
हमारी पाठ्यपुस्तक में कबीर के सात दोहे संकलित हैं। इन दोहों में श्रेष्ठ गुणों को अपनाने का संदेश दिया गया है। कबीर कहते सब कुछ ईश्वर का है। यह विचार इस ओर संकेत करता है कि सांसारिक वस्तुओं से मोह नहीं करना चाहिए। हंस द्वारा जल और दूध अलग करके, दूध को ग्रहण किया जाता है। ऐसे ही मनुष्य को भी गुणों को ग्रहण करना चाहिए। अहंकार का त्याग करने से जीव ईश्वर का प्रिय और सुखी हो सकता है। साधु का आदर उसके ज्ञान के आधार पर करना चाहिए, जाति के आधार पर नहीं। सत्संग करना कभी व्यर्थ नहीं जाता। उसका सुफल अवश्य मिलता है। सन्तोषी व्यक्ति ही जीवन में सुखी होता है। कौआ और कोयल के उदाहरण से कबीर ने मधुर भाषण का महत्व समझाया है।
संकलित दोहों की सप्रसंग व्याख्याएँ।
1.
त्याग तो ऐसा कीजिए, सब कुछ एकहि बार।
सब प्रभु का मेरा नहीं, निचे किया विचार॥
कठिन शब्दार्थ-निहचे = निश्चय॥
सन्दर्भ तथा प्रसंग-प्रस्तुत दोहा हमारी पाठ्यपुस्तक में संग्रहीत कबीरदास के दोहों से लिया गया है। इस दोहे में कवि आदर्श त्याग के महत्व और स्वरूप का परिचय करा रहा है।
व्याख्या-कबीर कहते हैं कि मनुष्य को एक बार दृढ़ निश्चय करके अपना सब कुछ त्याग देना चाहिए। उसकी यह भावना होनी चाहिए कि उसे प्राप्त सारी वस्तुएँ और उसका शरीर भी उसका अपना नहीं है। यह सब कुछ ईश्वर का है। ईश्वर को सर्वस्व समर्पण करके मोह और अहंकार से मुक्त हो जाना ही आदर्श त्याग है।
विशेष-
(i) ‘मैं और मेरा’ की भावना का त्याग ही मनुष्य को महान् बनाता है, यह संकेत है।
(ii) ‘सब कुछ ईश्वर का है’ यह विचार रखने वाला ही सच्चा त्यागी बन सकता है। यह सन्देश व्यक्त हुआ है।
(iii) दृढ़ निश्चयी व्यक्ति ही एक बार में सर्वस्व त्याग कर सकता है, सोच-विचार में पड़ा व्यक्ति नहीं।
(iv) भाषा सरल और शैली उपदेशात्मक है।
2.
सुनिए गुण की बारती, औगुन लीजै नाहिं।
हंस छीर को गहत है, नीर सो त्यागे जाहिं॥
कठिन शब्दार्थ-बारता = बात, महत्त्व। औगुन = अवगुण, बुराइयाँ। लीजै = लीजिए। छोर = दूध (गुण)। नीर = जल अवगुण)॥
सन्दर्भ तथा प्रसंग-प्रस्तुत दोहा हमारी पाठ्यपुस्तक में संकलित कबीरदास के दोहों से लिया गया है। इस दोहे में कबीर लोगों के गुणों को ग्रहण करने और अवगुणों का परित्याग करने का सन्देश दे रहे हैं।
व्याख्या-कबीर कहते हैं कि बुद्धिमान पुरुष को गुणों अर्थात् अच्छे विचार, अच्छा आचरण और अच्छे व्यक्तियों की संगति का महत्व समझते हुए उनको ग्रहण करना चाहिए। जो निन्दनीय और अकल्याणकारी विचार (अवगुण) हैं उनसे दूर रहना चाहिए। जैसे हंस दूध और जल के मिश्रण में से दूध को ग्रहण करके जल को त्याग देता है, उसी प्रकार मनुष्य को गुणों को ग्रहण करते हुए अवगुणों को त्याग देना चाहिए।
विशेष-
(i) काम, क्रोध, लोभ, मोह, परपीड़न, असत्य भाषण आदि अवगुणों का त्याग ही व्यक्ति के जीवन को सुखी बनाता है। गुण ही सन्तों के भूषण हैं। यह सन्देश दिया गया है।
(ii) भाषा सरल है। शैली उपदेशात्मक है।
(iii) दृष्टान्त अलंकार का प्रयोग हुआ है।
3.
छोड़े जब अभिमान को, सुखी भयो सब जीव।
भावै कोई कछु कहै, मेरे हिय निज पीव॥
कठिन शब्दार्थ-अभिमान = अहंकार। भया = हुआ। जीव = प्राण, आत्मा। भावै = अच्छा लगे। हिय = हृदय में। निज = अपने। पीव = प्रिय, ईश्वर।
सन्दर्भ तथा प्रसंग-प्रस्तुत दोहा हमारी पाठ्यपुस्तक में संकलित कबीरदास के दोहों से लिया गया है। इस दोहे में कबीरदास सच्चा सुख और प्रिय परमात्मा की प्राप्ति के लिए अहंकार का त्याग करना आवश्यक बता रहे हैं।
व्याख्या-जीव अर्थात् आत्मा को परमात्मा से दूर और विमुख करने वाला अहंकार अर्थात् ‘मैं’ का भाव है। कबीर कहते हैं कि जब उन्होंने अहंकार को त्याग दिया तो उनकी आत्मा को परम सुख प्राप्त हुआ क्योंकि अहंकार दूर होते ही उनका अपने प्रिय परमात्मा से मिलन हो गया। कबीर कहते हैं कि कोई चाहे कुछ भी कहे परन्तु अब उनके हृदय में उनके प्रियतम परमात्मा निवास कर रहे हैं और वह सब प्रकार से सन्तुष्ट हैं।
विशेष-
(i) आत्मा और परमात्मा एक हैं। अहंकार के रहते जीव स्वयं को परमात्मा से भिन्न समझता है और दु:खी रहता है। अहंकार का त्याग करने पर ही ईश्वर की प्राप्ति सम्भव है। यह मत व्यक्त किया गया है।
(ii) ‘मेरे हिय निज पीव’ कथन से आत्मा-परमात्मा की नित्य एकता का और इस भाव के अनुभव से प्राप्त होने वाले परम सुख की ओर संकेत किया गया है।
(iii) भाषा सरल है, शैली भावात्मक है॥
(iv) ‘कोई कछु कहै’ में अनुप्रास अलंकार है।
4.
जाति न पूछो साधु की, पूछि लीजिए ज्ञान।
मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान॥
कठिन शब्दार्थ-मोल करो = मूल्य लगाओ, मूल्यांकन करो। म्यान = तलवार को रखने का खोल, कोष।
सन्दर्भ तथा प्रसंग-प्रस्तुत दोहा हमारी पाठ्यपुस्तक में संकलित कबीर के दोहों से लिया गया है। इस दोहे में कबीर के साधु की श्रेष्ठता का मापदण्ड उसके ज्ञान को माना है, न कि उसकी जाति को।
व्याख्या-कबीर कहते हैं कि किसी साधु से उसकी जाति पूछकर उसका मूल्यांकन करना साधुता का अपमान है। साधु की श्रेष्ठता और उसका सम्मान उसके ज्ञान के आधार पर किया जाना चाहिए। ज्ञान की अपेक्षा जाति को महत्त्व देना ठीक वैसा ही है जैसे तलवार खरीदने वाला म्यान के रूप-रंग के आधार पर तलवार का मूल्य लगाए। ऐसा व्यक्ति मूर्ख ही माना जाएगा। काम तो तलवार की उत्तमता से चलता है। म्यान की सुन्दरता से नहीं।
विशेष-
(i) कवि ने साधुता का मूल्यांकन ज्ञान अर्थात् विचार, आचरण और आध्यात्मिक योग्यता के आधार पर किए जाने का सन्देश देकर जातिवाद और अंधविश्वास पर तीखा व्यंग्य किया है।
(ii) कबीर को जाति-पाँति, ऊँच-नीच, धर्म-सम्प्रदाय के आधार पर मनुष्यों में भेदभाव स्वीकार नहीं था। यह इस दोहे से प्रमाणित हो रहा है।
(iii) भाषा सरल तथा मिश्रित शब्दावली युक्त है।
5.
संगत कीजै साधु की, कभी न निष्फल होय।
लोहा पारस परस ते, सो भी कंचन होय॥
कठिन शब्दार्थ-साधु = सज्जन, सन्त। निष्फल = व्यर्थ, बेकार। पारस = एक कल्पित पत्थर या मणि जिसके छू जाने से लोहा सोना हो जाता है। परस = स्पर्श, छूना। सो = वह। कंचन = सोना।
सन्दर्भ व प्रसंग-प्रस्तुत दोहा हमारी पाठ्यपुस्तक में संकलित कबीरदास के दोहों से उद्धृत है। इसमें कबीर सत्संगति की महिमा का वर्णन कर रहे हैं।
व्याख्या-कबीर कहते हैं कि मनुष्य को सदा अच्छे व्यक्तियों या महापुरुषों की संगति करनी चाहिए। साधु से संगति कभी व्यर्थ नहीं जाती। उसका सुपरिणाम व्यक्ति को अवश्य प्राप्त होता है। लोहा काला-कुरूप होता है, किन्तु पारस का स्पर्श होने पर वह भी अति सुन्दर सोना बन जाता है। यह सत्संग का ही प्रभाव है।
विशेष-
(i) पारस और लोहे के उदाहरण द्वारा कवि ने सत्संग या साधु-संगति के चमत्कारी परिणाम की ओर ध्यान आकर्षित किया है।
(ii) भाषा सरल और शैली उपदेशात्मक है।
(iii) दोहे में उदाहरण अलंकार है।
6.
मारिये आसा सांपनी, जिन डसिया संसार॥
ताकी औषध तोष है, ये गुरु मंत्र विचार॥
कठिन शब्दार्थ-मारिये = मार डालिए, त्याग कर दीजिए। सांपनी = सर्पिणी। डसिया = डसा है, वश में कर रखा है। ताकी = उसकी। औषध = देवा, उपचार। तोष = सन्तोष। गुरु मंत्र = गुरु की शिक्षा, अचूक उपाय॥
सन्दर्भ तथा प्रसंग-प्रस्तुत दोहा हमारी पाठ्यपुस्तक में संकलित कबीरदास के दोहों से उद्धृत है। इस दोहे में कवि ने ‘आशा’ (किसी से कुछ अपेक्षा रखना) को सर्पिणी के समान बताते हुए उससे बचने का उपाय गुरु उपदेश को बताया है।
व्याख्या-कबीर कहते हैं कि आशा या इच्छा रखना दुर्बल मानसिकता का लक्षण है। आशा एक सर्पिणी है जिसने सारे संसार को अपने मधुर विष से प्रभावित कर रखा है। यदि सांसारिक मोह से मुक्त होना है और ईश्वर की कृपा पानी है तो इस सांपिन को मार डालो अर्थात् किसी से कुछ भी आशा मत रखो। इस आशा सर्पिणी के विष (प्रभाव) से रक्षा करने का एक ही गुरु मंत्र है वह है, सन्तोषी स्वभाव का बनना। सन्तोषी व्यक्ति कभी आशाओं का दास नहीं रहता। क्योंकि वह हर स्थिति में सन्तुष्ट रहा करता है।
विशेष-
(i) ‘सन्तोषी सदा सुखी’ इस लोकोक्ति का इस दोहे में समर्थन किया गया है।
(ii) भाषा सरल है, शैली आलंकारिक है। ‘गुरुमंत्र’ मुहावरे का प्रयोग हुआ है।
(iii) आसा सांपनी’ में रूपक अलंकार है।
7.
कागा काको धन हरै, कोयल काको देत।
मीठा शब्द सुनाय के, जग अपनो करि लेत॥
कठिन शब्दार्थ-कागो = कौआ। काको = किसका। हरै = हरण कर लेता है, छीन लेता है। काको = किसे। शब्द = बोली। सुनाय के = सुनाकर।
सन्दर्भ तथा प्रसंग-प्रस्तुत दोहा हमारी पाठ्यपुस्तक में संकलित कबीरदास के दोहों से लिया गया है। इस दोहे में कबीर मधुरवाणी का महत्त्व और प्रभाव बता रहे हैं।
व्याख्या-कबीर कहते हैं कि लोग कोयल को बहुत प्यार करते हैं और कौए से दूर रहना चाहते हैं, इसका कारण क्या है? क्या कौआ किसी का धन छीन लेता है और कोयल किसी को धन दे दिया करती है? ऐसा कुछ भी नहीं है। यह केवल वाणी का अन्तर है। कौए की कर्कश काँव-काँव किसी को अच्छी नहीं लगती परन्तु कोयल अपनी मधुर वाणी से सारे जगत् की प्यारी बनी हुई है।
विशेष-
(i) सबका प्रिय बनना है तो कटु और अप्रिय मत बोलो। सदा मधुर वाणी का प्रयोग करो। यही सन्देश इस दोहे के माध्यम से दिया गया है।
(ii) भाषा सरल है, शैली अन्योक्तिपरक है।
(iii) दोहे में अनुप्रास तथा अन्योक्ति अलंकार है।
तुलसीदास कवि-परिचय-
महाकवि तुलसीदास का जन्म 1532 ई. में उत्तर प्रदेश के बाँदा जिले के राजापुर गाँव में हुआ था। तुलसी को बचपन में ही माता-पिता के प्यार से वंचित होना पड़ा। नरहर्यानन्द तथा शेष सनातन से शिक्षा प्राप्त हुई। आपने गृहस्थ जीवन त्याग करके भगवान राम की शरण ग्रहण की। आप 1623 ई. में परलोकवासी हो गए।
रचनाएँ-तुलसीदास जी की प्रसिद्ध रचनाएँ हैं-रामचरितमानस, विनयपत्रिका, कवितावली, गीतावली, दोहावली, श्री कृष्णगीतावली, जानकी मंगल, पार्वती मंगल, वैराग्य संदीपनी, बरवै रामायण,
हनुमान बाहुक, रामलला नहछू आदि हैं। तुलसीदास जी के काव्य की प्रमुख विशेषता उनका समन्वयवादी दृष्टिकोण है। उन्होंने समाज के प्रत्येक वर्ग के बीच समानता का प्रयास किया है। काव्य कला की दृष्टि से भी उनका साहित्य अत्यन्त उत्कृष्ट है। रस, अलंकार, छन्द, भाषा, शैली इन सभी दृष्टियों से वे एक महान् कवि सिद्ध होते हैं।
तुलसीदास पाठ परिचय
संकलित दोहों में तुलसीदास ने अनेक जीवनोपयोगी और कल्याणकारी सीख दी है; जैसे- भगवान की कृपा पाने के लिए काम, क्रोध, मद, लोभ आदि विकारों का त्याग करना आवश्यक है। मनुष्य को परमार्थ की प्राप्ति के लिए तन-मन की शक्ति लगा देनी चाहिए। सत्संग से ही मनुष्य भला बन सकता है। भगवान की कृपा से ही मनुष्य को गंगा और सत्संग का लाभ मिल पाता है। जीवन में सभी प्रकार के लोगों से हिल-मिलकर रहना चाहिए। जहाँ स्थिति अपने विपरीत हो, वहाँ मौन रहना ही उचित है। बुरे समय में धैर्य, धर्मपालन, विवेक, सद्गुण, साहस, सत्य पर दृढ़ रहना और भगवान पर भरोसा ही मनुष्य के सहायक हुआ करते हैं।
संकलित दोहों की सप्रसंग व्याख्याएँ
1.
काम क्रोध मद लोभ रत, गृहासक्त दुःख रूप।
ते किमि जानहिं रघुपतिहिं, मूढ़ परे भव कूप॥
कठिन शब्दार्थ-काम = कामनाएँ, भोग की इच्छा। मद = अहंकार, घमण्ड। रत = लगे हुए। गृहासक्त = परिवार के मोह में फंसे हुए। ते = वे। किमि = कैसे। रघुपतिहिं = भगवान राम को। मूढ़ = मूर्ख। भव कूप = संसाररूपी कुआँ, सांसारिक विषय।
सन्दर्भ तथा प्रसंग-प्रस्तुत दोहा हमारी पाठ्यपुस्तक में संकलित तुलसीदास रचित दोहों से लिया गया है। इस दोहे में रामभक्त तुलसी बता रहे हैं कि काम, क्रोध, लोभ आदि विकारों में और पारिवारिक मोह में फँसे मूर्ख लोग कभी भगवान राम की महत्ता नहीं जान सकते॥
व्याख्या-तुलसी कहते हैं जो लोग तुच्छ भोगों क्रोध, लोभ, अहंकार आदि दुर्गुणों से ग्रस्त हैं तथा घर-परिवार के मोह को नहीं त्याग सकते, वे संसार रूपी कुएँ में पड़े मूर्ख कभी भगवान राम की महिमा और कृपा का लाभ नहीं पा सकते॥
विशेष-
(i) तुलसीदास जी का स्पष्ट सन्देश है कि राम की कृपा पाने और सांसारिक बन्धनों से मुक्त होने के लिए व्यक्ति को काम, क्रोध, मद आदि दुर्गुणों का त्याग करना अनिवार्य है।
(ii) दुर्गुणों से ग्रस्त और घर-बार के जंजाल में फंसे लोगों को कवि ने मूर्ख माना है क्योंकि वे सांसारिक विषय-भोगों में लिप्त होकर अपने जीवन को व्यर्थ कर रहे हैं।
(iii) भाषा साहित्यिक ब्रज है। तत्सम तथा तद्भव शब्दों का सहज मेल है।
(iv) कथन शैली उपदेशात्मक तथा व्यंग्यात्मक है।
(v) ‘काम क्रोध’ में अनुप्रास तथा भव कूप’ में रूपक अलंकार है।
2.
कहिबे कहँ रसना रची, सुनिबे कहँ किए कान।
धरिबे कहँचित हित सहित, परमारथहिं सुजान॥
कठिन शब्दार्थ-कहिले कहँ = कहने या बोलने के लिए। रसना = जीभ या वाणी। धरिबे कहँ = धारण करने या रखने के लिए। चित = चित्त। हित = भलाई। परमारथहि = सर्वोत्तम वस्तु को, आत्मकल्याण को।
सन्दर्भ तथा प्रसंग–प्रस्तुत दोहा हमारी पाठ्यपुस्तक में संग्रहीत कविवर तुलसीदास रचित दोहों से लिया गया है। इस दोहे में तुलसीदास जी ‘परमार्थ’ अर्थात् सबसे उत्कृष्ट लक्ष्य, ईश्वरप्राप्ति में ही शरीर के अंगों को लगाने का उपदेश कर रहे हैं।
व्याख्या-कवि कहते हैं कि विधाता ने मनुष्य को बोलने के लिए जीभ या वाणी दी है। सुनने के लिए कोने दिए हैं और कल्याणकारी बातों या शिक्षाओं को धारण करने के लिए चित्त दिया है। इन सभी अंगों की सार्थकता इसी में है कि मनुष्य इनका उपयोग सबसे श्रेष्ठ लक्ष्य अर्थात् आत्मकल्याण में ही करे। सांसारिक विषयों के उपभोग में इनकी क्षमताओं को नष्ट न करे॥
विशेष-
(i) धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष, ये चार मानव जीवन के पुरुषार्थ माने गए हैं। इनको प्राप्त करना ही ‘पुरुष’ होने का अर्थ है। परन्तु इन सबसे बढ़कर ‘परमार्थ’ आत्मज्ञान या मोक्ष-प्राप्ति मानी गई है।
(ii) इन्द्रियों की सार्थकता कवि ने परमार्थ सिद्धि में ही मानी है।
(iii) सरल ब्रजभाषा का प्रयोग है।
(iv) अनुप्रास अलंकार का सहज प्रयोग है।
3.
तुलसी भलो सुसंग ते, पोच कुसंगति सोई॥
नाउ, किन्नरी तीर असि, लोह बिलोकहु लोइ॥
कठिन शब्दार्थ- भलो = अच्छा। पोच = बुरा, अशोभनीय। सुसंग = सत्संग। सोइ = वही। नाउ = नाव, नौका। किन्नरी = एक प्रकार की वीणा। तीर = बाण। असि = तलवार। लोह = लोहा। बिलोकहु = देखो। लोइ = नेत्र॥
सन्दर्भ तथा प्रसंग-प्रस्तुत दोहा हमारी पाठ्यपुस्तक में संकलित तुलसीदास के रचित दोहों से लिया गया है। कवि इसमें सत्संग और कुसंग के परिणामों का परिचय करा रहा है।
व्याख्या-कवि तुलसी कहते हैं कि जो व्यक्ति सत्संग करने पर भला और प्रशंसनीय हो जाता है, वही कुसंग में पड़ने पर बुरी और निंदनीय हो जाता है। नाव और किन्नरी वीणा के निर्माण में काम आने वाला जो लोहा सबको अच्छा लगता है वही बाण और तलवार बनाने में काम आने पर हानिकारक होने के कारण प्रशंसा का पात्र नहीं रहता। यह सत्संग और कुसंग का ही परिणाम है।
विशेष-
(i) लोहे का उदाहरण देकर कवि ने सत्संग तथा कुसंग के प्रभावों से परिचित कराते हुए सत्संगति करने की प्रेरणा दी
(ii) भाषा तद्भव और तत्सम शब्दावलीयुक्त ब्रज है।
(iii) दोहे में उदाहरण अलंकार का प्रयोग हुआ है।
4.
राम कृपा तुलसी सुलभ, गंग सुसंग समान।
जो जल परै जो जन मिले, कीजै आपु समान॥
कठिन शब्दार्थ-सुलभ = सहज ही प्राप्त। गंग = गंगा। आपु समान = अपने समान।
सन्दर्भ तथा प्रसंग-प्रस्तुत दोहा हमारी पाठ्यपुस्तक में संकलित कवि तुलसीदास द्वारा रचित दोहों से उद्धृत है। इस दोहे में तुलसीदास गंगा और सत्संग को समान स्वभाव वाला बता रहे हैं।
व्याख्या-कवि का कहना है कि भगवान राम की कृपा से सहज ही प्राप्त होने वाले गंगा और सत्संग दोनों का प्रभाव समान होता है। गंग के जल में जो भी मिलता है उसे गंगा अपने समाने पवित्र बना देती है। इसी प्रकार सत्संग में जो भाग लेता है वह सत्पुरुषों जैसा ही पवित्र आचरण वाला बन जाता है।
विशेष-
(i) कवि का संकेत है कि गंगा स्नान और सत्संगति राम की कृपा होने पर ही प्राप्त होती है।
(ii) ‘गंग सुसंग समान’ में अनुप्रास अलंकार है।
(iii) सरल ब्रजभाषा का प्रयोग है।
(iv) प्रवचनात्मक कथन शैली है।
5.
तुलसी या संसार में, भाँति-भाँति के लोग।
सबसौं हिल-मिल चालिए, नदी-नाव संयोग।
कठिन शब्दार्थ-भाँति-भाँति = भिन्न-भिन्न स्वभाव वाले। हिल-मिल = प्रेम से। चालिए = चलिए, व्यवहार कीजिए। नदी-नाव संयोग = थोड़े समय का मिलन।
सन्दर्भ तथा प्रसंग-प्रस्तुत दोहा हमारी पाठ्यपुस्तक में संकलित कवि तुलसीदास द्वारा रचित दोहों से उद्धृत है। इस दोहे में कवि भिन्न-भिन्न स्वभाव वाले लोगों से प्यार सहित मिलते-जुलते हुए जीवन बिताने का संदेश दे रहा है।
व्याख्या-कवि तुलसी कहते हैं कि इस संसार में नाना प्रकार के स्वभाव वाले लोगों से व्यक्ति का मिलन होता है। मनुष्य से जहाँ तक बने सभी से मिल-जुलकर जीवन बिताना चाहिए। हठ या अहंकारवश किसी से विरोधी व्यवहार नहीं करना चाहिए। क्योंकि मानव जीवन, नदी पार करते समय नाव में एक साथ बैठे व्यक्तियों के समान होता है। जैसे नाव में बैठे विभिन्न स्वभावों के लोग पार होने तक हिल-मिल जाते हैं और पार पहुँचते ही अपने-अपने मार्ग पर चले जाते हैं। इसी प्रकार मानव जीवन मिलना भी थोड़े समय का होता है। इसे प्रसन्नतापूर्वक बिताना चाहिए।
विशेष-
(i) ‘नदी नाव संयोग’ लोकोक्ति का प्रभावशाली प्रयोग हुआ है।
(ii) छोटे से मानव जीवन को विरोधों, दुराग्रहों और लड़ने-झगड़ने में नष्ट करने के बजाय उसे प्रेमपूर्वक हिल-मिल कर बिताना ही बुद्धिमानी है, यही दोहे का संदेश है।
(iii) ‘भाँति-भाँति’ में पुनरुक्ति प्रकाश, ‘हिल-मिल चालिए’ तथा ‘नदी-नाव’ में अनुप्रास अलंकार है।
(iv) सरल भाषा में कवि ने बड़ा उपयोगी परामर्श दिया है।
6.
तुलसी पावस के समय, धरी कोकिलन मौन।
अब तौ दादुर बोलिहे, हमें पूछिहै कौन॥
कठिन शब्दार्थ-पावस = वर्षा ऋतु। धरी = धारण कर लिया। कोकिलन = कोयलों ने। दादुर = मेंढक।
सन्दर्भ तथा प्रसंग-प्रस्तुत दोहा हमारी पाठ्यपुस्तक में संकलित तुलसीदास रचित दोहों से लिया गया है। इस दोहे में कवि कोयलों और मेंढकों के माध्यम से सन्देश दे रहे हैं कि जहाँ गुणों की पूछ न हो वहाँ मौन रहना ही बुद्धिमानी है।
व्याख्या-वर्षा ऋतु आने पर कोयलों ने मौन धारण कर लिया क्योंकि उस समय तो मेंढक ही चारों ओर बोलेंगे। उनकी टर-टर में उन्हें कौन सुनना चाहेगा।
विशेष-
(i) जहाँ गुणों के पारखी न हों और मूर्ख लोग अपनी ही हाँक रहे हों, वहाँ गुणवान का मौन रहना ही ठीक है क्योंकि वहाँ उसके गुणों का आदर नहीं हो सकता। यही परामर्श कवि ने दिया है।
(ii) साहित्यिक ब्रजभाषा का प्रयोग है। शैली अन्योक्तिपरक है।
(iii) अन्योक्ति अलंकार का कुशल प्रयोग हुआ है।
7.
तुलसी असमय के सखा, धीरज धरम बिबेक।
साहित साहस सत्यव्रत, राम भरोसो एक॥
कठिन शब्दार्थ-असमय = बुरा समय, संकट। सखा = मित्र, साथी। धीरज = धैर्य। साहित = साहित्य, श्रेष्ठ ग्रन्थ। सत्यव्रत = सत्य पर अडिग रहना॥
सन्दर्भ तथा प्रसंग-प्रस्तुत दोहा हमारी पाठ्यपुस्तक में संकलित कवि तुलसीदास द्वारा रचित दोहों से लिया गया है। कवि बता रहा है कि बुरा समय आने पर व्यक्ति के कौन से गुण उसका साथ दिया करते हैं।
व्याख्या-तुलसीदास कह रहे हैं कि धैर्य, धर्मपालन, विवेक, श्रेष्ठ ग्रन्थ, साहस, सत्य पर दृढ़ रहना और एकमात्र भगवान पर पूरा भरोसा रखना, ये ही वे गुण हैं जो संकट के समय मनुष्य का साथ दिया करते हैं। इनके बल पर व्यक्ति बड़े-से-बड़े संकट मे पार हो जाता है।
विशेष-
(i) सच्चा मित्र वही होता है जो बुरे समय में साथ देता है। उपर्युक्त गुणों के रहते हुए संकट में मनुष्य को किसी अन्य व्यक्ति की आवश्यकता नहीं होती। ये ही मनुष्य के वास्तविक मित्र होते हैं। यही दोहे का भाव है।
(ii) भाषा में सहज प्रवाह है। भावानुकूल शब्दावली का प्रयोग है।
(iii) कथन शैली प्रवचनात्मक है।
(iv) ‘ धीरज धरम’ तथा ‘साहित, साहस, सत्यव्रत’ में अनुप्रास अलंकार है।
राजिया रा सोरठा कवि-परिचय-
कृपाराम खिड़िया राजस्थानी भाषा के प्रसिद्ध कवि थे। इनका जन्म सन् 1743 ई. में तत्कालीन मारवाड़ राज्य में हुआ था। इनके पिता का नाम जगराम खिड़िया था। कृपाराम राजस्थानी डिंगल पिंगल के श्रेष्ठ कवि थे। वह संस्कृत के भी विद्वान थे। सीकर के राजा लक्ष्मण सिंह ने उन्हें जागीर प्रदान करके सम्मानित किया था। कृपाराम 1833 ई. में स्वर्गवासी हो गए।
कृपाराम का राजस्थानी डिंगल तथा पिंगल भाषाओं पर समान अधिकार था। कृपाराम की प्रसिद्धि उनके द्वारा रचित ‘राजिया रा सोरठा’ नामक नीति सम्बन्धी सोरठों की रचना से हुई। राजिया कृपाराम का अत्यन्त प्रिय और विश्वासपात्र सेवक था। उसके नि:सन्तान होने के दु:ख को दूर करने के लिए कवि ने राजिया (राजाराम) के नाम से यह काव्य ग्रन्थ रचा था।
राजिया रा सोरठा पाठ परिचय
हमारी पाठ्यपुस्तक में संकलित कवि कृपाराम रचित दोहों में कवि द्वारा नीति और लोक व्यवहार की सीख देने वाले सोरठे संग्रहीत हैं। प्रथम सोरठे में कवि ने कौए और कोयल के माध्यम से मीठी वाणी का महत्त्व बताया है। शक्कर तथा कस्तूरी की तुलना द्वारा सुन्दरता की अपेक्षा गुणों की श्रेष्ठता प्रमाणित की है। कवि ने पराई कलह और विवाद को देख आनन्दित होने वाले लोगों पर कटाक्ष किया है। लोग अपने मतलब को सिद्ध करने के लिए ही दूसरों की खुशामद किया करते हैं। बिना मतलब कोई किसी को नहीं पूछता यह बताया है। मूर्खा के समाज में गुणी व्यक्ति का मौन रहना ही कवि ने उचित माना है। मुख से मीठा बोलने वाले और मन में खोट रखने वाले कुटिल लोगों पर व्यंग्य किया है। श्रीकृष्ण और अर्जुन का उदाहरण देकर सच्चे मित्र के आचरण पर प्रकाश डाला है और बताया है कि संसार में साहसी व्यक्ति का ही सम्मान होता है। साहसहीन व्यक्ति की रद्दी कागज के समान उपेक्षा हुआ करती है।
संकलित सोरठों की सप्रसंग व्याख्याएँ
1.
उपजावै अनुराग, कोयल मन हरखित करै।
कड़वो लागै काग, रसनारा गुण राजिया॥
कठिन शब्दार्थ-उपजावै = उत्पन्न करती है। अनुराग = प्रेम। हरखित = प्रसन्न। कड़वो = कटु, अप्रिय। काग = कौआ। रसना = जीभ, वाणी। राजिया = कवि के सेवक का नाम।
सन्दर्भ तथा प्रसंग-प्रस्तुत सोरठा हमारी पाठ्यपुस्तक में संकलित कवि कृपाराम द्वारा रचित सोरठों से लिया गया है। इस सोरठे में कवि ने मधुर वाणी की प्रशंसा की है।
व्याख्या-कवि कृपाराम कहते हैं कि कोयल अपनी मधुर बोली से हृदयों में प्रेम उत्पन्न किया करती है और उसकी बोली सुनकर मन बड़ा प्रसन्न हो जाता है। इसके विपरीत कौआ अपनी कर्णकटु, कर्कश बोली से सभी को बुरा लगता है। यह वाणी का ही प्रभाव है।
विशेष-
(i) सरल भाषा में कवि ने मधुर वाणी का महत्त्व समझाया है।
(ii) कड़वा बोलने वाले से कोई प्रेम नहीं करता। अत: सदा मधुर वाणी को प्रयोग करना चाहिए, यह सन्देश दिया गया है।
(iii) भाषा सरल राजस्थानी है। शैली नीति-शिक्षणपरक है।
2.
काळी घणी कुरूप, कस्तूरी कांटा तुलै।
सक्कर बड़ी सरूप, रोड़ा तुलै राजिया।
कठिन शब्दार्थ-घणी = बहुत। कुरूप = भद्दी। कस्तूरी = एक अति सुगंधित पदार्थ। काँटा = तराजू, जिसमें सही तोल बताने वाला काँटा लगा होता है। सक्कर = शक्कर, चीनी। सरूप = सुन्दर
रूप। रोड़ा = पत्थर के टुकड़े। तुलै = तोली जाती है।
सन्दर्भ तथा प्रसंग-प्रस्तुत सोरठा हमारी पाठ्यपुस्तक में संकलित कवि कृपाराम द्वारा रचित सोरठों से लिया गया है। कवि बता रहा है कि वस्तु का महत्त्व और मूल्य सुन्दरता से नहीं बल्कि उसके गुणों के आधार पर निश्चित हुआ करता है।
व्याख्या-कवि कृपाराम कहते हैं कि कस्तूरी मृग से प्राप्त होने वाली कस्तूरी देखने में काली और कुरूप होती है। परन्तु वह काँटे पर तौलकर बेची जाती है। चीनी भले ही देखने में सफेद और सुन्दर होती है पर उसे पत्थर के टुकड़ों से तौलकर बेचा जाता है। कारण यही है कि कस्तूरी की सुगन्ध उसे मूल्यवान बनाती है। इसीलिए उसके रूप पर ध्यान नहीं दिया जाता है॥
विशेष-
(i) सोरठे में निहित सन्देश यह है कि बाहरी रूप-रंग लुभावना होने से ही कोई वस्तु मूल्यवान नहीं हो जाती है। उसके गुण ही उसका मूल्य निश्चित किया करते हैं। अत: मनुष्य को गुणवान बनना चाहिए।
(ii) कवि ने अन्योक्ति के माध्यम से बड़ी महत्त्वपूर्ण नीति की शिक्षा दी है।
(iii) ‘काली घणी कुरूप, कस्तूरी काँटा तुलै।’ में अनुप्रास अलंकार है।
3.
इँगर जळती लाय, जोवै सारो ही जगत।
पर जळती निज पाय, रती न सुझै राजिया॥
कठिन शब्दार्थ-डूंगर = पहाड़। लाय = आग। जोवै = देखता है। पाय = पैर। रती = तनिक भी। न सूझै = दिखाई नहीं देती।
सन्दर्भ तथा प्रसंग-प्रस्तुत सोरठा हमारी पाठ्यपुस्तक में संकलित कवि कृपाराम द्वारा रचित सोरठों से लिया गया है। इस सोरठे में कवि उन लोगों पर व्यंग्य कर रहा है जो दूसरों की कलह और विवाद को देखकर आनन्दित हुआ करते हैं। व्याख्या-कवि अपने सेवक राजिया को सम्बोधित करते हुए कहता है कि दूर पर्वत पर जलती आग को सारा संसार बड़े आनन्द के साथ देखा करता है किन्तु लोगों को अपने पैरों के पास लगी आग तनिक भी दिखाई नहीं देती। भाव यह है कि लोग दूसरों के बीच हो रही कलह और विवाद को देखकर मन ही मन प्रसन्न हुआ करते हैं पर उन्हें अपने ही घर की कलह और विवाद का ध्यान नहीं आता।
विशेष-
(i) कवि का आशय यह है कि दूसरों के दोषों पर दृष्टि डालने से पहले व्यक्ति को अपने भीतर भी झाँक कर देखना चाहिए कि स्वयं उनके भीतर कितने दोष भरे हुए हैं।
(ii) सन्त कबीर का भी यही मत है- जो दिल खोजा आपना, मुझ से बुरा न कोय।
(iii) सरल राजस्थानी भाषा का प्रयोग है।
(iv) शैली व्यंग्यात्मकं और उपदेशात्मक है।
4.
मतलब री मनवार, चुपकै लावै चूरमो।
बिन मतलब मनवार, राबेन पावै राजिया॥
कठिन शब्दार्थ-मतलब = स्वार्थ। री = की। मनवार = मनुहार, मनाना। चुपकै = चुपचाप। चूरमो = चूरमा, बाटी को मसल कर और घी-शक्कर मिलाकर बनाया गया स्वादिष्ट खाद्य पदार्थ। राब = गन्ने को औटाकर गाढ़ा किया गया रस।
सन्दर्भ तथा प्रसंग-प्रस्तुत सोरठा हमारी पाठ्यपुस्तक में संकलित कवि कृपाराम के सोरठों से लिया गया है। कवि अपने सेवक राजिया को बता रहा है कि संसार में सभी लोग अपने स्वार्थ पर आधारित व्यवहार किया करते हैं।
व्याख्या-कवि कृपाराम कहते हैं-राजिया! इस संसार में सभी अपनी स्वार्थ-सिद्धि को ध्यान में रखते हुए व्यवहार किया करते हैं। जब व्यक्ति को किसी से अपना मतलब निकालना होता है तो वह उसे चुपचाप स्वादिष्ट चूरमा लाकर खिलाता है और जब कोई स्वार्थ नहीं होता तो उस व्यक्ति को कोई राब भी नहीं देता।
विशेष-
(i) कवि अपने पाठकों को सावधान कर रहे हैं कि स्वार्थी लोगों द्वारा खुशामद किए जाने पर सतर्क हो जाना चाहिए और उनके उपहार को सोच-समझकर ही स्वीकार करना चाहिए।
(ii) बड़ी सरल भाषा में कवि ने लोक व्यवहार की सीख दी है।
(iii) शैली उपदेशात्मक तथा व्यंग्यात्मक है।
5.
मुख ऊपर मिठियास, घट माँहि खोटा घडै।
इसड़ां सू इखळास, राखीजै नहिं राजिया॥
कठिन शब्दार्थ–मिठियास = मीठी बातें। घट = मन, हृदय। माँहि = में। खोटा = कुटिल, चालाक। घड़े = बहुत। इसड़ां = ऐसे। सू = से। इखल्लास = मित्रता। राखीजै = रखिए।
सन्दर्भ तथा प्रसंग-प्रस्तुत सोरठा हमारी पाठ्यपुस्तक में संकलित कवि कृपाराम रचित सोरठों से लिया गया है। कवि अपने सेवक राजिया को उन लोगों से सावधान रहने की सीख दे रहा है जो मुख से तो मीठा बोलते हैं किन्तु हृदय में छल-कपट रखते हैं।
व्याख्या-कवि कृपाराम कहते हैं-राजिया! जो व्यक्ति मुख से तो बड़ी मीठी बातें करते हैं और मन में तुम्हारा अहित करने की भावना रखते हैं, उनसे कभी भी मित्रता करना उचित नहीं। ऐसे लोग कभी भी अपने स्वार्थवश धोखा दे सकते हैं।
विशेष-
(i) मुँह में राम बगल में छुरी’ यह लोकोक्ति इस सोरठे में प्रत्यक्ष हो रही है।
(ii) कवि ने राजिया के माध्यम से सभी को लोकव्यवहार की शिक्षा दी है।
(iii) भाषा मिश्रित शब्दावली युक्त है।
(iv) शैली उपदेशात्मक है।
6.
साँचो मित्र सचेत, कह्यो काम न करै किसो।
हरि अरजण रै हेत, रथ कर हाँक्यौ राजिया।
कठिन शब्दार्थ-साँचो = सच्चा, हितैषी। सचेत = तत्पर, तैयारे। कह्यो = कहा हुआ। किसो = कैसा भी। हरि = श्रीकृष्ण। अरजण = अर्जुन। रै = के! हेत = लिए, प्रेम से। कर = हाथ। हाँक्यौ = हाँको, चलाया।
सन्दर्भ तथा प्रसंग– प्रस्तुत सोरठा हमारी पाठ्यपुस्तक में संकलित कवि कृपाराम द्वारा रचित सोरठों से लिया गया है। कवि राजिया को सच्चे मित्र का स्वभाव बता रहा है।
व्याख्या-कृपाराम राजिया को समझा रहे हैं कि जो सच्चा मित्र होता है, वह सदा मित्र का हित करने को तैयार रहता है। वह मित्र द्वारा बताए गए हर काम को करने को तत्पर रहा करता है। देख लो, भगवान कृष्ण ने महाभारत के युद्ध में अर्जुन से सच्ची मित्रता के कारण ही अपने हाथों से उसका रथ हाँका था।
विशेष-
(i) कवि ने श्रीकृष्ण को मित्रता का आदर्श बताया है। मित्रता की खातिर ही द्वारकाधीश कृष्ण ने, अर्जुन का सारथी बन कर उसका रथ हाँको। उनके स्तर के अनुसार इस घटिया कार्य को करने में उन्हें कोई संकोच नहीं हुआ।
(ii) सरल राजस्थानी भाषा में कवि ने सच्चे मित्र के लक्षणों का परिचय कराया है।
(iii) सोरठे में अनुप्रास तथा दृष्टान्त अलंकार हैं।
7.
हिम्मत किम्मत होय, बिन हिम्मत किम्मत नहीं।
करै न आदर कोय, रद कागद ज्यूं राजिया।
कठिन शब्दार्थ-हिम्मत = साहस, कठिन काम करने की इच्छाशक्ति। किम्मत = कीमत, महत्त्व, सम्मान। रद = रद्दी, बेकार। कागद = कागज। ज्यूँ = जैसे।
सन्दर्भ तथा प्रसंग-प्रस्तुत सोरठा हमारी पाठ्यपुस्तक में संकलित कवि कृपाराम द्वारा रचित सोरठों से उधृत है। कवि इस सोरठे में राजिया को जीवन में साहस का महत्त्व समझा रहा है।
व्याख्या-कवि राजिया से कहता है कि समाज में सब साहसी व्यक्ति का ही सम्मान किया करते हैं। साहसहीन व्यक्ति की समाज में कोई कीमत नहीं होती। उसे कोई महत्त्व और सम्मान नहीं देता। उसकी स्थिति रद्दी कागज जैसी हुआ करती है जिसे लोग उपेक्षा से फेंक दिया करते हैं॥
विशेष-
(i) जीवन में जो लोग चुनौतियों और समस्याओं का सामना करने की हिम्मत नहीं जुटा पाते, उनकी कोई पूछ नहीं होती। अत: व्यक्ति को साहसी बनना चाहिए। सोरठे में कवि यही सन्देश दे रहा है।
(ii) भाषा में राजस्थानी के साथ उर्दू के हिम्मत, किम्मत तथा रद शब्दों का प्रयोग, कथन को प्रभावी बना रहा है।
(iii) सोरठे में अनुप्रास तथा उपमा अलंकार हैं।
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