Rajasthan Board RBSE Class 11 Biology Chapter 16 तने व जड़ में सामान्य द्वितीयक वृद्धि
RBSE Class 11 Biology Chapter 16 पाठ्यपुस्तक के प्रश्न
RBSE Class 11 Biology Chapter 16 वस्तुनिष्ठ प्रश्न
प्रश्न 1.
अन्तरापूलीय एधा का निर्माण होता है –
(अ) मज्जा से
(ब) मज्जा रश्मियों से
(स) जाइलम से
(द) फ्लोएम से
प्रश्न 2.
एधा वलय बनाता है –
(अ) बाहर जाइलम अन्दर फ्लोएम
(ब) बाहर फ्लोएम अन्दर जाइलम
(स) बाहर फ्लोएम अन्दर मृदूतक
(द) बाहर जाइलम अन्दर मृदूतक
प्रश्न 3.
द्विबीजपत्री मूल में एधा का निर्माण प्रारम्भ होता है –
(अ) फ्लोएम पूल के ऊपर
(ब) जाइलम पूल के नीचे
(स) फ्लोएम पूल के नीचे
(द) स्थिति अनिश्चित
उत्तरमाला:
1. (ब), 2. (ब), 3. (स)
RBSE Class 11 Biology Chapter 16 अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
अन्त: पूलीय एधा किस प्रकार के विभज्योतक का उदाहरण है ?
उत्तर:
पाश्र्व विभज्योतक का।
प्रश्न 2.
एधा में कितने प्रकार की कोशिकाएँ पायी जाती हैं ? नाम लिखिए।
उत्तर:
एधा में दो प्रकार की कोशिकाएँ होती हैं-किरण आद्यक (ray initials) तथा तरूप आद्यक (fusiform initials)।
प्रश्न 3.
कॉर्क किस प्रकार की कोशिकाओं से बनता है ?
उत्तर:
इसकी कोशिकाएँ मोटी भित्तियुक्त, मृत, आयताकार, अन्तराकोशिकीय अवकाश रहित, सुबेरिनयुक्त तथा अरीय पंक्तियों में व्यवस्थित होती हैं।
प्रश्न 4.
स्तम्भ में कॉर्क एधा का विभेदन कहाँ होता है ?
उत्तर:
प्रायः यह अधस्त्वचा की कोशिकाओं से बनता है।
प्रश्न 5.
पूरक ऊतक कहाँ पाया जाता है ?
उत्तर:
वातरन्ध्र में।
प्रश्न 6.
द्विबीजपत्री मूल में एधा का निर्माण किस ऊतक से होता है ?
उत्तर:
सर्वप्रथम रंभ क्षेत्र में संवहन एधा का निर्माण होता है। फ्लोएम के नीचे की ओर मृदूतक विभज्योतकी होकर एधा बनाती है तो प्रत्येक आदिदारु के विपरीत परिरंभ की कुछ कोशिकायें एधा बनाती हैं।
प्रश्न 7.
परित्वक के घटक स्तरों के नाम लिखिए।
उत्तर:
काग, काग एधा व काग अस्तर (phellem, phellogen and phelloderm) मिलकर परित्वक का निर्माण करते हैं।
प्रश्न 8.
वातरन्ध्रों के क्या कार्य हैं ?
उत्तर:
वातरन्ध्री वाष्पोत्सर्जन होता है।
प्रश्न 9.
पार्श्व मूलों की उत्पत्ति किस स्तर से होती है ?
उत्तर:
परिरंभ कोशिकाओं के विभज्योतकी होने से प्रारम्भ होती है।
RBSE Class 11 Biology Chapter 16 लघूत्तरात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
प्राथमिक एवं द्वितीयक वृद्धि में अन्तर बताइये।
उत्तर:
प्राथमिक वृद्धि पादप में शीर्षस्थ विभज्योतक द्वारा होती है। जिससे पौधा लम्बाई में बढ़ता है। पत्तियों के आधार पर पर्णो (internodes) व पर्णो (nodes) पर अन्तर्वेशी विभज्योतक से प्राथमिक वृद्धि होती है। पौधे की मोटाई में वृद्धि तथा छाल, कॉर्क इत्यादि का निर्माण द्वितीयक वृद्धि के फलस्वरूप होता है। इसके लिए पार्श्व विभज्योतक अर्थात् अन्त:पूलीय तथा अन्तरापूलीय व कॉर्क एधा द्वितीयक वृद्धि करती है। द्वितीयक वृद्धि के फलस्वरूप द्वितीयक जाइलम व फ्लोएम तथा वल्कुट बढ़ता है।
प्रश्न 2.
रंभीय व बाह्यरंभीय द्वितीयक वृद्धि में विभेद कीजिए।
उत्तर:
रंभीय द्वितीयक वृद्धि (Steler Secondary Growth) | बाह्यरंभीय द्वितीयक वृद्धि (Extrasteler Secondary Growth) |
1. यह रंभ में होती है। | 1. रंभ से बाहर होती है। |
2. यह द्वितीयक वृद्धि अन्तः एवं अन्तरापूलीय एधा के कारण होती है। | 2. कॉर्क एधा के कारण होती है। |
3. इससे द्वितीयक जाइलम व फ्लोएम बनती है। | 3. द्वितीयक वल्कुट तथा परित्वक बनता है। |
4. वातरंध्र अनुपस्थित परन्तु द्वितीयक जाइलम में टाइलोसिस उपस्थित होते हैं। | 4. वातरंध्र उपस्थित परन्तु टाइलोसिस अनुपस्थित होते हैं। |
5. वार्षिक वलय, शरद एवं बसंत काष्ठ, अन्त:काष्ठ एवं रसकाष्ठ बनती है। | 5. नहीं बनती। |
प्रश्न 3.
एधा की क्रियाशीलता पर वातावरण का क्या प्रभाव पड़ता हैं ?
उत्तर:
एधा की क्रियाशीलता पर पर्यावरणीय कारकों का सीधा प्रभाव पड़ता है। जिन स्थानों की जलवायु में अधिक अन्तर पाया जाता है उन स्थानों पर एधा की सक्रियता वर्ष भर एक जैसी नहीं होती है, विशेषकर शीतऋतु व बसंत ऋतु में बने हुए काष्ठ में बहुत अन्तर होता है। बसंत ऋतु में पौधे के सभी भागों की क्रियाशीलता बढ़ जाती है और अधिक मात्रा में जल इत्यादि ऊपर चढ़ाए जाते हैं। इस समय कोशिकाएँ तीव्रता से विभाजन करती हैं व जाइलम ऊतक का उत्पादन करती हैं जिससे बसंत काष्ठ या अग्रदारु (spring wood or early wood) बनती है।
इसमें वाहिकाओं की गुहा बड़ी होती है। शीत या शरद ऋतु में एधा की क्रियाशीलता कम हो जाती है, इससे जाइलम कम मात्रा में बनता है। वाहिकाओं की गुहा छोटी होती है तथा इस काष्ठ में वाहिनिकाओं और काष्ठ रेशों की अधिकता होती है। इस काष्ठ को शरद काष्ठ (autumn wood or late wood) कहते हैं। ये दोनों काष्ठ संकेन्द्री वलयों में रहकर वार्षिक वलय बनाती हैं।
प्रश्न 4.
शरद काष्ठ एवं बसन्त काष्ठ में क्या अन्तर है ?
उत्तर:
बसन्त काष्ठ (Spring Wood) | शरद काष्ठ (Autumn Wood) |
1. यह अनुकूल परिस्थितियों में बनती है। | 1. यह प्रतिकूल परिस्थितियों में बनती है। |
2. यह काष्ठ वार्षिक वलय का मुख्य भाग है। | 2. वार्षिक वलय में शरद काष्ठ बहुत संकरी होती है। |
3. काष्ठ का रंग हल्का होता है। | 3. काष्ठ का रंग गहरा होता है। |
4. तन्तु बहुत कम पाए जाते हैं। | 4. तन्तु बहुत अधिक होते हैं। |
5. वाहिकाएँ बड़ी तथा चौड़ी होती हैं। | 5. वाहिकाएं छोटी तथा अपेक्षाकृत संकरी होती हैं। |
प्रश्न 5.
छाल का निर्माण कैसे होता है ?
उत्तर:
प्रायः वृक्ष के तने से सूखकर टूटने वाले बाह्य स्तरों को छाल कहते हैं। वास्तविक रूप में एधा से बाहर के सभी ऊतक जैसे द्वितीयक फ्लोएम प्राथमिक फ्लोएम, प्राथमिक वल्कुट, द्वितीयक वल्कुट इत्यादि सभी मिलकर छाल बनाते हैं। कॉर्क एधा जब वलय के रूप में बनती है तो कॉर्क भी एक वलय के रूप में बनती है। इस प्रकार से बनी छालवल्क को वलय छालवल्क (ring bark) कहते हैं, उदाहरणभोजपत्र (Betula)। कुछ पौधों में कॉर्क एधा की अलग-अलग पट्टियाँ बनती हैं। इन पौधों में छालवल्क छोटे-छोटे टुकड़ों के रूप में उतरती है। इस प्रकार की छालवल्क को शल्कीय छालवल्क (Scale bark) कहते हैं, उदाहरण-अमरूद।
प्रश्न 6.
मूल में एधा का निर्माण किस प्रकार होता है ?
उत्तर:
जड़ों में अरीय पूल होते हैं तथा एधा का निर्माण द्विबीजपत्री मूल में होता है। सर्वप्रथम फ्लोएम पूल के नीचे स्थित मृदूतक कोशिकाएँ विभज्योतकी (meristematic) हो जाती हैं। इस प्रकार से जितने फ्लोएम पूल होते हैं उतनी ही एधा पट्टियाँ बन जाती हैं। ये पट्टियाँ चाप के रूप में होती हैं। शीघ्र ही परिरम्भ की वे कोशिकायें जो प्रोटोजाइलम के ठीक सामने होती हैं, विभज्योतक हो जाती हैं तथा विभाजित होकर कोशिकाओं की कुछ परतें बनाती हैं।
ये पर्ने कुछ समय पूर्व बनी एधा पट्टियों से मिल जाती हैं। इस प्रकार सम्पूर्ण संवहन एधा अब चापों में न रहकर लहरदार वलय के रूप में दिखाई देती है। यही वलय द्वितीयक जाइलम व द्वितीयक फ्लोएम का निर्माण करता है। इसमें भी जाइलम अधिक बनता है व फ्लोएम कम। अतः कुछ समय पश्चात् संवहन एधा लहरदार न रहकर गोल हो जाती है। इस प्रकार द्वितीयक वृद्धि होती है।
प्रश्न 7,
अन्तःकाष्ठ व रसकाष्ठ में क्या अन्तर है ?
उत्तर:
अन्तः काष्ठ व रसकोष्ठ में अन्तर (Difference in Heart Wood and Sap Wood):
अन्त:काष्ठ (Heart Wood) | रसकाष्ठ (Sap Wood) |
1. वृक्ष के स्तम्भ के केन्द्र भाग में गहरे रंग का होता है। | 1. स्तम्भ के बाहरी क्षेत्र में हलके रंग का होता है। |
2. काष्ठ अधिक चलाऊ, मजबूत व कठोर होती है। | 2. अधिक कठोर या चलाऊ नहीं होती। |
3. जल का संवहन नहीं होता है। | 3. संवहन होता है। |
4. काष्ठ में मृत व नष्ट हुई कोशिकायें होती हैं जिनमें टेनिन, तेल, गोद, होती हैं। | 4. इन पदार्थों का जमाव नहीं होता है और न नष्ट हुई कोशिकायें रेजिन व अकार्बनिक पदार्थ जमा होते हैं। |
5. टाइलोसिस उपस्थित होते हैं। | 5. अनुपस्थित होते हैं। |
6. द्वितीयक वृद्धि से बना पहिले का द्वितीयक जाइलम होता है। | 6. द्वितीयक वृद्धि से बना अभी जाइलम होता है। |
7. पौधे को यांत्रिक सहायता देती है। | 7. पौधे में जल का संवहन करती है। |
8. आर्थिक दृष्टि से काष्ठ उपयोगी होती है। | 8. अनुपयोगी होती है। |
प्रश्न 8.
घरों में फर्नीचर बनाने के लिए अन्तःकाष्ठ का इस्तेमाल क्यों किया जाता है ? कारण स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
द्वितीयक वृद्धि के कारण नया जाइलम बनता रहता है। स्तम्भ के पुराने या केन्द्रीय भाग की कोशिकाओं में तेले, रेजिन, गोंद, टेनिन आदि पदार्थ जमा होते रहते हैं तथा ये कोशिकायें मृत व दृढ़ हो जाती हैं। स्तम्भ का यह भाग कठोर व गहरे भूरे या कत्थई रंग का हो जाता है। इस भाग को ही अन्त:काष्ठ या कठोर काष्ठ (Heart wood or duramen) कहते हैं। यही काष्ठ सबसे अधिक टिकाऊ होती है। क्योंकि तेल, रेजिन, गोंद आदि के जमाव से इन पर जीवाणु या कवक प्रभाव उत्पन्न नहीं कर सकते तथा यह नष्ट भी नहीं होती। इसी कारण घरों में फर्नीचर बनाने के लिए अन्त:काष्ठ का ही उपयोग किया जाता है।
RBSE Class 11 Biology Chapter 16 निबन्धात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
संवहन एधा का निर्माण कैसे होता है ? द्विबीजपत्री पादपों में रंभीय द्वितीयक वृद्धि का सचित्र वर्णन कीजिए।
उत्तर:
संवहन एधा (Fasicular cambium) तथा कार्क एधा (cork cambium)। सामान्य रूप से यह द्वितीयक वृद्धि केवल अनावृत्तबीजी (Gymnosperm) व द्विबीजपत्री पादपों के मूल तथा स्तम्भ में ही होती है। द्वितीयक वृद्धि पौधे के अन्दर दो स्थलों पर होती है। प्रथम रम्भ (Stele) के अन्दर संवहन एधा द्वारा जिसे रम्भीय द्वितीयक वृद्धि तथा दूसरी रम्भ के बाहर कॉर्क एधा द्वारा होती है जिसे बाह्यरम्भीय द्वितीयक वृद्धि कहा जाता है।
इन एधाओं क़ी क्रियाशीलता फलस्वरूप द्वितीयक ऊतकों के निर्माण के कारण स्तम्भ व मूल की मोटाई बढ़ जाती है। द्वितीयक वृद्धि के कारण ही अनावृतबीजी व द्विबीजपत्री पादपों के मूल तथा स्तम्भ मोटे होते हैं तथा अन्य पादप एवं एकबीजपत्री के स्तम्भ व मूल प्रायः पतले होते हैं, क्योंकि इनमें द्वितीयक वृद्धि का अभाव होता है। इनमें होने वाली द्वितीयक वृद्धि को दो भागों में विभक्त कर सकते हैं –
रम्भीय द्वितीय वृद्धि (Steler secondary growth):
स्तम्भ में पाये जाने वाले संवहन पूलों में फ्लोयम व जाइलम के बीच एधा पाया जाता है इसे संवहन एधा = पूलीय एधा या अन्त:पूलीय एधा (Vascular cambium = Fasicular cambium or intrafascicular cambium) कहते हैं। इसका निर्माण शीर्षस्थ विभज्योतक से उत्पन्न प्राएधा (Procambium) से होता है तथा यह एधा विभज्योतक होती है। द्वितीयक वृद्धि के समय सर्वप्रथम पूलीय एधा सक्रिय होकर बाहरी ओर फ्लोयम तथा अन्दर की ओर जाइलम का निर्माण करने लगता है।
ठीक इसी समय संवहन पूलों के बीच स्थित मज्जा रश्मि (medullary rays) की वे कोशिकायें जो पूलीय एधा की परिधीय सीधाई में होती है, विभज्योतकी (merstematic) हो जाती हैं। इससे संवहन पूलों के बीच बीच में एक नयी एधा बन जाती है, इसे अन्तरपूलीय एधा (Interfascicular cambium) कहते हैं। अब पूलीय एधा तथा अन्तरपूलीय एधा मिलकर एक पूर्ण वलय (ring) का निर्माण कर देती हैं। यह वलय कोशिकाओं की एक परत का बना हुआ होता है। पूलीय एधा वलय (Fasicular cambium ring) की कोशिकायें बाह्यत्वचा के समानान्तर तल में विभाजित होती है।
हर समय जब भी एधा की कोशिका विभाजित होती है तब इससे बनने वाली दो कोशिकाओं में से एक कोशिका परिवर्तित होकर जाइलम या फ्लोयम बनाती है तथा दूसरी कोशिका विभज्योतकी बनी रहती है। इस प्रकार एधा से दोनों तरफ नई कोशिकाओं का निर्माण होता है। जो नवीन कोशिकायें केन्द्र की ओर बनती हैं, वे जाइलम के तत्वों में तथा बाहर की ओर बनने वाली फ्लोयम तत्वों में परिवर्तित हो जाती है। इस प्रकार बने हुए नये जाइलम व फ्लोयम को द्वितीयक जाइलम व द्वितीयक फ्लोयम कहते हैं।
एधा के द्वारा इन द्वितीयक ऊतकों का निर्माण एकान्तर क्रम में चलता रहता है। किन्तु इन दोनों में से अन्दर की ओर बनने वाले जाइलम की मात्रा फ्लोयम की तुलना में अधिक होती है। इस प्रकार स्तम्भ की मोटाई बढ़ती जाती है। यह क्रम प्रत्येक वर्धन ऋतुओं में होता है। इसी एधा से मज्जा किरणों के क्षेत्र में बनने वाली कोशिकाओं से, मज्जा या संवहन किरणों (Pith or vascular rays) का निर्माण होता है। द्वितीयक जाइलम में वाहिकायें (vessels), वाहिनिकायें (trachieds), काष्ठ रेशे (wood fibres) तथा काष्ठ मृदूतक (wood parenchyma) बनते हैं तथा द्वितीयक फ्लोयम में चलनी नलिकायें (sieve tubes), सह-कोशिकायें (companion cells), फ्लोयम या वास्ट रेशे (phloem or bast fibres) व फ्लोयम मृदूतक (phloem parenchymna) का निर्माण होता है।
एधा की कोशिकायें दो प्रकार की होती हैं रश्मि प्रारम्भिक कोशिकायें (Ray initials) तथा प्यूजीफॉर्म प्रारम्भिक कोशिकायें (Fusiform initials)। रश्मि प्रारम्भिक कोशिकायें समभुजी मृदूतकीय कोशिकायें होती हैं जो संवहन रश्मियों या द्वितीयक मज्जा रश्मियों (Vascular rays or secondary medullary rays) का निर्माण करती हैं। प्राथमिक व द्वितीयक मज्जा रश्मियाँ भोज्य पदार्थ तथा जल को परिधि की ऊतकों तक पहुँचाती हैं। फ्यूजीफॉर्म प्रारम्भिक कोशिकायें लम्बी व नुकीली सिरे वाली होती हैं जो द्वितीयक जाइलम व द्वितीयक फ्लोयम का निर्माण करती हैं।
प्रश्न 2.
निम्नलिखित पर टिप्पणियाँ लिखिये –
(अ) वार्षिक वलय
(ब) वातरंध्र
(स) अन्तकाष्ठ व रसकाष्ठ
(द) पावं मूलों की उत्पत्ति
उत्तर:
(अ) वार्षिक वलय या वृद्धि वलय (Annual rings or Growth rings):
वर्ष भर मौसम में परिवर्तन होने से संवहन एधा की सक्रियता में भी अन्तर आता है। बसन्त ऋतु व अधिक ठण्ड के मौसम में बने हुये काष्ठ (द्वितीयक जाइलम) में अधिक अन्तर होता है। बसन्त (spring) ऋतु में रस के संवहन की अधिक आवश्यकता होती है और इस समय एधा अधिक सक्रिय होती है, अतः बसन्त ऋतु में बनने वाले काष्ठ में वाहिकायें चौड़ी गुहा (lumen) की तथा अधिक स्पष्ट होती है। वास्तविक रूप में इस ऋतु में पौधे के समस्त भागों में क्रियाशीलता अधिक बढ़ जाने से अधिक मात्रा में जल ऊपर चढ़ता है, अतः अधिक जल के संवहन हेतु अधिक चौड़ी गुहा की वाहिकायें निर्मित होती है। इस काष्ठ को बसन्त काष्ठ या अग्रदारु (spring wood or earlywood) कहते हैं।
शरद ऋतु में पौधों के समस्त भागों में क्रियाशीलता बहुत ही कम होती है, इससे एधा की क्रियाशीलता भी कम होती है, अतः इस ऋतु में छोटी गुहा की वाहिकायें बनती हैं तथा काष्ठ में वाहिकायें कम परन्तु वाहनिकायें (trachieds) व काष्ठ रेशों (wood fibres) की अधिकता होती हैं। इस काष्ठ को पतझड़ या शरद काष्ठ या पश्च दारु (autumn wood or late wood) कहते हैं। इस प्रकार एक वर्ष की वृद्धि के दौरान बसन्ते व शरद काष्ठ का निर्माण होता है और यह काष्ठ वलय (ring) में स्थित होती है, यह एक वर्ष की वृद्धि है, इसे वार्षिक वलय (annual ring) कहते हैं। एक वार्षिक वलय में बसन्त काष्ठ (काष्ठ = दारु) के चौड़ी गुहा के तत्व शरद काष्ठ के संकीर्ण गुहा के तत्वों से स्पष्ट रूप से विभेदित देखे जा सकते हैं।
जब पौधे में प्रतिवर्ष इस प्रकार की वृद्धि होती है तो प्रतिवर्ष की बनने वाली वार्षिक वलय, संकेन्द्री वलयों (concentric rings) में व्यवस्थित रहती है। इस प्रकार पादप के मुख्य स्तम्भ (main trunk) में उपस्थित वार्षिक वलयों को गिनकर पौधे की आयु (age) का पता लगाया जा सकता है। इस अध्ययन को वृक्षकालानुक्रमण (Dendrochronology) कहते हैं। सिकुआ डेन्ड्रान (Sequaia dendron) नामक वृक्ष की आयु अमेरिका में जब आंकी गई तो वह 3,500 वर्ष निकली। इसका तना 6 मीटर चौड़ा था। पादप के स्तम्भ का विभिन्न भागों से अनुप्रस्थ काट अध्ययानुसार देखा गया है कि वार्षिक वलयों की संख्या में आधार से ऊपर तक अन्तर आता है अर्थात् कम होती जाती है। अतः स्तम्भ के आधार भाग में वार्षिक वलयों की संख्या गिनकर वृक्ष की आयु का अनुमान लगाया जाता है।
वार्षिक वलय की चौड़ाई पर मौसम का प्रभाव होता है। अनुकूल वातावरण में वार्षिक वलय चौड़ी तथा प्रतिकूल वातावरण में संकीर्ण होती है। अतः इस अध्ययन से मात्र आयु का ज्ञान ही नहीं वरन् पूर्व के मौसम सम्बन्धी व उसकी अवधि का ज्ञान भी किया जाता है। शीतोष्ण क्षेत्रों में वार्षिक वलय अधिक स्पष्ट होते हैं। कई बार वातावरणीय कारणों से द्वितीयक वृद्धि के दौरान अचानक शुष्क ऋतु आ जाने से एक ही वर्ष में एक से अधिक वार्षिक वलय भी बन सकते हैं।
इन्हें आभासी वार्षिक वलय कहते हैं। इसी प्रकार कई ऐसे क्षेत्र भी हैं जहाँ वर्ष पर्यन्त एक-सा मौसम बना रहता है। इन स्थानों पर पाये जाने वाले वृक्षों में वार्षिक वलय नहीं पाये जाते हैं क्योंकि द्वितीयक वृद्धि की दर वर्ष पर्यन्त लगभग एक जैसी रहती है। ऐसा उष्णकटिबन्धीय जलवायु में उगने वाले वृक्षों में देखा जा सकता है। उष्ण जलवायु के वे क्षेत्र जहाँ दो ऋतुओं में वर्षा होती है। वहाँ एक ही वर्ष में दो वलयों का निर्माण होता है।
(ब) वातरन्ध्र (Lentical):
सामान्य रूप से तने का बाहरी स्तर बाह्यत्वचा होता है जिस पर उपस्थित रंध्रों द्वारा गैसों का विनमय होता है। परन्तु द्वितीयक वृद्धि के फलस्वरूप जब कॉर्क व छाल इत्यादि बन जाती है तो कॉर्क के कारण यह विनमय नहीं हो पाता। फिर भी यह विनमय वातरंध्रों के द्वारा होता है। निरन्तर रम्भ के अन्दर तथा रम्भ के बाहर द्वितीयक वृद्धि होने से नवीन द्वितीयक ऊतकों का निर्माण होता रहता है, जिससे कॉर्क स्तर पर दबाव उत्पन्न होने से छाल फट जाती है। यही फटे स्थल वातरंध्र कहलाते हैं। वातरंध्र प्रायः रन्ध्रों वाले स्थलों पर ही बनते हैं। इस स्थल की काट को देखने पर यह दिखाई देता है कि इन स्थलों पर कॉर्क एधा बाहर की ओर क़ॉर्क कोशिकायें न बनाकर अन्तराकोशिकायुक्त मृदूतक कोशिकाओं का निर्माण करता है। इन कोशिकाओं को पूरक कोशिकायें (complementary cells) कहते हैं। वातरन्ध्रों के द्वारा गैस का विनमय तथा वाष्पोत्सर्जन होता है।
(स) अन्तः काष्ठ व रस काष्ठ (Heart wood and Sap wood):
जैसे-जैसे पौधे में द्वितीयक वृद्धि होती जाती है त्यों त्यों नया बनने वाला काष्ठ केन्द्र में स्थित मज्जा की मृदूतक कोशिकाओं तथा प्राथमिक जाइलम पर दाब डालता रहता है, फलस्वरूप दबाव के कारण ये कोशिकायें नष्ट हो जाती हैं तथा ये कोशिकायें मृत होने से पूर्व कुछ प्रतिरोधी (antiseptic) पदार्थों जैसे टेनिन, गोंद वे अकार्बनिक पदार्थों का स्रवण करते हैं। दबाव के कारण कुछ जाइलम तत्व भी नष्ट हो जाते हैं। परन्तु कोशिकाओं में व्यर्थ पदार्थ (waste products) जमा हो जाते हैं।
दबाव के ही कारण कुछ जाइलम मृदूतक द्वितीयक जाइलम की वाहिकाओं की भित्ति के गर्ते से वाहिका गुहा (vessel lumen) में प्रविष्ट होकर गुब्बारे के समान फूल कर वाहिका गुहिका को अवरुद्ध कर देती है इन गुब्बारों के सदृश्य अतिवृद्धियों को टाइलोसिस (Tyloses) कहते हैं। कभी-कभी एक वाहिका में एक से अधिक भी टाइलोसिस बनते हैं। टाइलोसिस सदैव अन्त:काष्ठ में मिलते हैं और ये इसकी आयु बढ़ाते हैं। टाइलोसिसयुक्त वाहिकाओं के द्वारा जल का संवहन नहीं होता है। यदि किसी पुराने वृक्ष के स्तम्भ को अनुप्रस्थ काट में देखें तो इसका केन्द्र का भाग अधिक गहरे रंग का होता है, इसे अन्तः काष्ठ (heart wood) कहते हैं तथा बाहरी क्षेत्र कम गहरे रंग का, इसे रस काष्ठ (sap wood) कहते हैं।
अन्त: काष्ठ क्षेत्र में ही दबाव से नष्ट हुई मृत कोशिकायें, टाइलोसिस इत्यादि होते हैं। अन्त: काष्ठ के तत्वों में एकत्रित हुए टेनिन, गोंद, तेल व रेजिन के कारण ही इस काष्ठ का रंग गहरा काला होता है, इस काष्ठ में जल संवहन नहीं होता, इसका कार्य वृक्ष को यांत्रिक सहायता (mechanical support) प्रदान करना होता है। इस काष्ठ पर जीवाणु व कवक का प्रभाव भी नहीं हो पाता, अतः ऐसी काष्ठ कठोर काष्ठ (duramen) होती है। इस प्रकार की काष्ठ अधिक टिकाऊ व मजबूत होने के कारण इसका उपयोग विभिन्न प्रकार के फर्नीचर के निर्माण में होता है।
स्तम्भ के केन्द्र वाले अधिक गहरे भाग के बाहर कम गहरे रंग का काष्ठ क्षेत्र होता है, इसे रस काष्ठ (sap wood) कहते हैं, इस भाग में विद्यमान द्वितीयक जाइलम पुरानी नहीं होता, इस क्षेत्र की कोशिकाओं के द्वारा जल व घुलित लवणों का सक्रिय संवहन होता है। इस काष्ठ को एलबर्नम (alburnum) भी कहते हैं। कुछ पुराने वृक्षों में कभी-कभी अन्तः काष्ठ नष्ट हो जाने से वृक्ष अन्दर से खोखला हो जाने पर भी जिन्दा रहता है, क्योंकि यहाँ जल संवहन का कार्य रस काष्ठ से होता है। अतः अधिक द्वितीयक वृद्धि के उपरान्त तथा पुराने वृक्ष में दो प्रकार की काष्ठ का समावेश होता है –
- अन्तः काष्ठ या कठोर काष्ठ तथा
- रस काष्ठ या एलर्बनम (sap wood or alburnum)।
अन्तः काष्ठ का उपयोग इमारती लकड़ी के रूप में अधिक किया जाता है। इस काष्ठ पर कवक व जीवाणुओं को आक्रमण नहीं हो पाता है। क्योंकि इसमें जीवद्रव्य तथा स्टार्च अनुपस्थित होता है जो इन परजीवियों का भोजन बनते हैं। काष्ठ में रेजिन, टेनिन, गोंद, तेल के होने से लकड़ी के रंग व सुगन्ध के कारण इस काष्ठ का मूल्य बढ़ जाता है। रसकाष्ठ का उपयोग कागज की लुब्धी (Pulp wood) बनाने या औजारों के हत्थे (tool handles) तथा तानियाँ (spockes) बनाने के काम में लिया जाता है।
(द) पार्श्व मूलों की उत्पत्ति:
पार्श्व मूलों की उत्पत्ति सदैव स्थायी ऊतकों से होती है। आवृतबीजी पादपों में आदिदारु के सम्मुख स्थिति परिरम्भ की कोशिकाएँ विभज्योतकी हो जाती हैं तथा इनमें परिनत विभाजन होने के कारण इस क्षेत्र में कोशिकाओं के कुछ अतिरिक्त स्तर बन जाते हैं। अब इनमें अपनत विभाजन होते हैं। परिनत व अपनत विभाजनों से एक उभार-सा बन जाता है जो पाश्र्व मूल आद्यक कहलाते हैं। यह अतिवृद्धि अरीय दिशा में अंतश्चर्म तथा वल्कुट में से होकर अधिचर्म को बेधती हुई बाहर निकल आती है।
पाश्र्व मूल आद्यक की वृद्धि से इसके अरीय मार्ग में पड़ने वाली अंतश्चर्म तथा वल्कुट कोशिकाएँ दाब पड़ने से कुचल जाती हैं जो कि एन्जाइमी अभिक्रियाओं द्वारा घुल जाते हैं। इस प्रकार पाश्र्व मूल बाहर की ओर निकलने लगती हैं। परिवर्धन के दौरान आद्यक मूल शीर्ष में। त्वचाजन, वल्कुटजन तथा रम्भजन इत्यादि ऊतकजन विभेदित हो जाते हैं। वृद्धि के दौरान अंतश्चर्म एवं वल्कुट की कुछ कोशिकाएँ विभाजित होकर पाश्र्व मूल आद्यक का मूल गोप बनाती हैं जो कि मूल शीर्ष के बाहर निकलने पर त्वचाजन द्वारा परिवर्धित सामान्य मूल गोप से प्रतिस्थापित हो जाता है। पार्श्वमूल की उत्पत्ति रम्भ क्षेत्र के ऊतक अर्थात् परिरम्भ से होती है। इसकी उत्पत्ति को अन्तर्जात कहा जाता है।
प्रश्न 3.
स्तम्भ व मूल में बाह्यरम्भीय द्वितीयक वृद्धि का सचित्र वर्णन कीजिए।
उत्तर:
बाह्यरंभीय द्वारा द्वितीयक वृद्धि (Extrasteler secondary growth):
इस प्रकार की द्वितीयक वृद्धि रम्भ से बाहर होती है अतः इसे बहि:रम्भ द्वितीयक वृद्धि (extrasteler secondary growth) भी कहते हैं। द्वितीयक संवहन ऊतकों के निरन्तर बनते रहने से वल्कुट व बाह्यत्वचा को भी दबाव व खिंचाव सहन करना पड़ता है और इस कारण बाह्यत्वचा फट जाती है।
इस संरक्षणी परत के फटने से वल्कुट की बाहरी परतें जो ठीक बाह्यत्वचा के नीचे होती हैं, विभज्योतकी बनकर विशेष एधा का निर्माण करती है जिसे कार्क एधा (Cork cambium) या कागजन (phellogen) कहते हैं। कॉर्क एधा विभाजित होकर बाहर की ओर कॉर्क या काग (Cork or phellem) तथा अन्दर की ओर द्वितीयक वल्कुट या काग अस्तर (secondary cortex or phelloderm) का निर्माण करती है। परन्तु इन दोनों में से भी कॉर्क की। (बाहर की ओर) कोशिकायें अधिक बनती हैं।
कॉर्क कोशिकायें सघन, एक-दूसरे से सटी हुई मृत होती है जो अरीय पंक्तियों में विन्यासित रहती हैं परन्तु अनुप्रस्थ काट में आयताकार होती हैं। इनकी प्राथमिक भित्ति पर सुबेरिन के जमा होने से कोशिकायें गैस व जल हेतु अपरागम्य (impervious) हो जाती हैं। कोशिकाओं में वायु भरी होने से कॉर्क जल की सतह पर तैरता है। कॉर्क में सुबेरिन, अम्लों के लिये भी रोधक होता है। कॉर्क पौधे हेतु संरक्षण का कार्य व यांत्रिक शक्ति प्रदान करता है, यही नहीं यह स्तर लचीला भी होता है। कोशिकाओं में वायु भर जाने से यह वृक्षों की सतह पर एक कुसंवाहक (bad conductor) का भी कार्य करता है। कॉर्क का जलरोधी (water proof) लक्षण होने के कारण, इसका अत्यधिक आर्थिक महत्त्व है।
वाणिज्यक काग (commercial cork) क्वेकर्स सुबर (Quercus suber = Cork Oak) नामक भूमध्यसागरीय वृक्ष से प्राप्त होता है। इस काग को अक्षय काग (Virgin cork) भी कहते हैं। वृक्ष की 20 वर्ष की आयु होने पर कॉर्क उतारा जाता है। इसके नीचे काग अस्तर की सजीव कोशिकायें मर जाती है तथा अब वल्कुट की गहरी परतों में एक नयी कागजन उत्पन्न होती है जो पहिले की तुलना में तेजी से कॉर्क का निर्माण करती है। 9 – 10 वर्षों में नयी कॉर्क की परत काफी मोटी हो जाती है तथा व्यापारिक दृष्टि से इसे उतार उपयोग में ले लिया जाता है। यह कॉर्क अधिक उत्तम होता है। इसके बाद उतारा गया कॉर्क उत्तरोतर रूप से श्रेष्ठ होता चला जाता है जब तक कि वृक्ष 150 वर्षों का नहीं हो जाता।
कॉर्क एधा से अन्दर की ओर बनने वाली कोशिकायें काग अस्तर या द्वितीयक वल्कुट (Phellodrm or secondary cortex) में परिवर्तित होती हैं। यह कोशिकायें जीवित व मृदूतकीय (सामान्य वल्कुट की कोशिकाओं जैसी) होती हैं। ये कोशिकायें अरीय क्रम में व्यवस्थित रहती है। इनमें क्लोरोप्लास्ट उत्पन्न हो जाता है। कॉर्क, कार्क एधा व काग अस्तर को मिलाकर परित्वक (periderm) कहते हैं। परित्वक से सम्बन्धित कुछ संरचनायें निम्न प्रकार से होती हैं।
(i) छाल (Bark):
संवहन एधा (vascular cambium) के बाहर स्थित सभी ऊतकों को सामूहिक रूप से छाल कहते हैं। छाल में फ्लोयम, वल्कुट व परित्वक होते हैं। परित्वक (Periderm) की समस्त मृत कोशिकाओं (मृत बाह्यत्वचा, कॉर्क कोशिकायें) को बाह्य छाल (outer bark) कहते हैं। बाह्य छाल पर कभी-कभी अनेक अवर्षी परित्वकों की मृत कोशिकाओं का स्तर होता है तब इसे राइटीडोम (rhytidome) कहा जाता है।
यदि कॉर्क एधा एक पूर्ण वलय में सक्रिय रहता है तो छाल एकपतली परत वाले घेरे के रूप में बनती है तथा इसे रिंग बार्क (ring bark), कहते हैं जैसे-भोजपत्र (Betula utilis)। यदि कॉर्क एधा की अलग-अलग पट्टियाँ बनती हैं तो इस कारण से छाल। छोटे-छोटे टुकड़ों में उतरकर गिर जाती है। ऐसी छाल को शल्कीय छाल (Scaly bark) कहते हैं। जैसे-अमरुद, पीपल। कार्य की दृष्टि से छाल पौधे के अन्दर वाली ऊतकों की रक्षा करती है।
(ii) वातरन्ध्र (Lentical):
सामान्य रूप से तने का बाहरी स्तर बाह्यत्वचा होता है जिस पर उपस्थित रंध्रों द्वारा गैसों का विनमय होता है। परन्तु द्वितीयक वृद्धि के फलस्वरूप जब कॉर्क व छाल इत्यादि बन जाती है तो कॉर्क के कारण यह विनमय नहीं हो पाता। फिर भी यह विनमय वातरंध्रों के द्वारा होता है। निरन्तर रम्भ के अन्दर तथा रम्भ के बाहर द्वितीयक वृद्धि होने से नवीन द्वितीयक ऊतकों का निर्माण होता रहता है, जिससे कॉर्क स्तर पर दबाव उत्पन्न होने से छाल फट जाती है।
यही फटे स्थल वातरंध्र कहलाते हैं। वातरंध्र प्रायः रन्ध्रों वाले स्थलों पर ही बनते हैं। इस स्थल की काट को देखने पर यह दिखाई देता है कि इन स्थलों पर कॉर्क एधा बाहर की ओर क़ॉर्क कोशिकायें न बनाकर अन्तराकोशिकायुक्त मृदूतक कोशिकाओं का निर्माण करता है। इन कोशिकाओं को पूरक कोशिकायें (complementary cells) कहते हैं। वातरन्ध्रों के द्वारा गैस का विनमय तथा वाष्पोत्सर्जन होता है।
एधा सक्रिय होकर अन्दर की ओर द्वितीयक जाइलम का अधिक निर्माण करती है तथा बाहर की ओर अपेक्षाकृत कम मात्रा में द्वितीयक फ्लोयम का निर्माण होता है। द्वितीयक जाइलम में वाहिकायें अधिक पतली भित्ति तथा चौड़ी गुहिका की होती है और इसी प्रकार जाइलम मृदूतक की मात्रा अधिक होती है। इसी द्वितीयक संवहन ऊतक के अन्दर प्राथमिक जाइलम धंसा रहता है तथा प्राथमिक फ्लोयम कुचली हुई अवस्था में दिखाई देता है। परिरम्भ से निर्मित एधा की वे कोशिकायें जो प्रोटोजाइलम समूहों के ऊपर होती है, मज्जा किरणें (medullary rays) बनाती हैं। ये किरणें मृदूतक कोशिकाओं से बनी होती हैं तथा पट्टियों के रूप में प्रोटोजाइलम से लेकर द्वितीयक फ्लोयम तक फैली रहती हैं।
प्रश्न 4.
द्विबीजपत्री पादपों की मूलों में द्वितीयक वृद्धि को सचित्र समझाइये।
उत्तर:
द्विबीजपत्री मूलों में द्वितीयक वृद्धि:
मूल में द्वितीयक वृद्धि मात्र द्विबीजपत्री मूलों में ही होती है। द्विबीजपत्री मूल में अरीय (radial) संवहन पूल सीमित संख्या में होते हैं। तथा जाइलम बाह्यआदिदारुक (exarch) होता है। सर्वप्रथम प्रत्येक फ्लोयम पूल के नीचे वाली मज्जा की ओर मृदूतक कोशिकायें विभज्योतकी हो जाती है। इस प्रकार की एधा वक्राकार (curved) पट्टियाँ उतनी ही बनती हैं जितने फ्लोयम पूल होते हैं। शीघ्र ही परिरम्भ की प्रोटोजाइलम के सामने वाली कोशिकायें भी विभज्योतक हो जाती है और यह धीरे-धीरे फ्लोयम के पास वाले बने वक्राकार एधा पट्टिकाओं से मिल जाती है।
इस प्रकार से मूल में एक लहरदार एधा की पूर्ण वलय (ring) बन जाती है। अतः इसमें एधा एक द्वितीयक विभज्योतकी (secondary meristem) है। इसमें भी एधा के विभाजन से अन्दर की ओर द्वितीयक जाइलम व बाहर की ओर द्वितीयक फ्लोयम का निर्माण होता है। प्रारम्भ में एधा वलय लहरदार होती है, सर्वप्रथम फ्लोयम के नीचे स्थित एधा सक्रिय होती है तथा अन्दर की ओर द्वितीयक जाइलम बनाती है और धीरे-धीरे लहरदार एधा गोलाकार हो जाती है।
एधा सक्रिय होकर अन्दर की ओर द्वितीयक जाइलम का अधिक निर्माण करती है तथा बाहर की ओर अपेक्षाकृत कम मात्रा में द्वितीयक फ्लोयम का निर्माण होता है। द्वितीयक जाइलम में वाहिकायें अधिक पतली भित्ति तथा चौड़ी गुहिका की होती है और इसी प्रकार जाइलम मृदूतक की मात्रा अधिक होती है। इसी द्वितीयक संवहन ऊतक के अन्दर प्राथमिक जाइलम धंसा रहता है तथा प्राथमिक फ्लोयम कुचली हुई अवस्था में दिखाई देता है। परिरम्भ से निर्मित एधा की वे कोशिकायें जो प्रोटोजाइलम समूहों के ऊपर होती है, मज्जा किरणें (medullary rays) बनाती हैं। ये किरणें मृदूतक कोशिकाओं से बनी होती हैं तथा पट्टियों के रूप में प्रोटोजाइलम से लेकर द्वितीयक फ्लोयम तक फैली रहती हैं।
कॉर्क एधा की सक्रियता (Activity of cork cambium):
परिरम्भ की फ्रत विभज्योतकी होकर कॉर्क एधा या फेलोजन (cork cambium or phellogen) बनाती है। कॉर्क एधा बाहर की ओर कॉर्क कोशिकायें (cork cells = Phellem) बनाती हैं, इनका रंग कत्थई होता है तथा अन्दर की ओर द्वितीयक वल्कुट में मृदूतकीय कोशिकायें होती हैं। इनमें भी परित्वक (periderm) बनता है तथा बाहर की ओर वाली सभी ऊतकें जैसे अन्त: स्त्वचा (endodermis), वल्कुट व मुलीयत्वचा (epiblema) शीघ्र ही उतर कर गिर जाती है। इनमें भी वातरन्ध्र ठीक तने की भाँति बनते हैं। मूलों में वार्षिक वलयों का निर्माण नहीं होता है। स्तम्भ की तुलना में मूल में छाल कम मोटी होती है। मूल में परिरम्भ भी छाल के निर्माण में भाग लेती है।
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