Rajasthan Board RBSE Class 11 Biology Chapter 35 केंचुआ
RBSE Class 11 Biology Chapter 35 पाठ्यपुस्तक के प्रश्न
RBSE Class 11 Biology Chapter 35 वस्तुनिष्ठ प्रश्न
प्रश्न 1.
केंचुए के प्रथम खंड को कहते हैं
(अ) पुरोमुख
(ब) परिमुख
(स) पाइजिडियम
(द) पर्याणिका
प्रश्न 2.
मादा जननांग छांटिये
(अ) शुक्राशय
(ब) शुक्रग्राहिको
(स) सहायक ग्रन्थियाँ
(द) प्रोस्टेट ग्रन्थियाँ
प्रश्न 3.
वयस्क केंचुए में निम्न में से कौन-सी संरचना ऐसी है जो 18वें खंड में तो पायी जाती है परन्तु 15वें खण्ड में नहीं
(अ) वृक्कक
(ब) शूक
(स) म्यूकस ग्रन्थियाँ
(द) जनन अंग
प्रश्न 4.
केंचुए में श्वसन वर्णक का निर्माण कहाँ होता है।
(अ) बाह्य त्वचा में
(ब) हृदय में
(स) रुधिर ग्रन्थियों में
(द) लसिका ग्रन्थियों में
प्रश्न 5.
केंचुए में निषेचन होता है
(अ) कोकून में
(ब) शुक्राशय में
(स) अण्डवाहिनी में
(द) नम मिट्टी में
उत्तरमाला
1. (ब)
2. (ब)
3. (द)
4. (स)
5. (अ)
RBSE Class 11 Biology Chapter 35 अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
केंचुए का वैज्ञानिक नाम क्या है ?
उत्तर-
केंचुए का वैज्ञानिक नाम फेरेटिमा पोस्थुमा है।
प्रश्न 2.
केंचुए में निषेचन कहाँ होता है ?
उत्तर-
केंचुए में निषेचन कोकून में होता है।
प्रश्न 3.
केंचुए के क़िन खण्डों में वृषण पाये जाते हैं ?
उत्तर-
केंचुए के 10वें व 11वें खण्डों में वृषण पाये जाते हैं।
प्रश्न 4.
केंचुए में पेषणी का मुख्य कार्य क्या है ?
उत्तर-
केंचुए में पेषणी का मुख्य कार्य भोजन को महीन पीसना
प्रश्न 5.
परिपक्व केंचुए की लम्बाई कितनी होती है ?
उत्तर-
परिपक्व केंचुए की लम्बाई 15 से 20 सेमी. होती है।
प्रश्न 6.
केंचुए की कौनसी रक्त वाहिनी वास्तव में हृदय का कार्य करती है ?
उत्तर-
केंचुए की पृष्ठ रुधिर वाहिनी (Dorsal vessel) वास्तव में हृदय का कार्य करती है।
प्रश्न 7.
केंचुए की आंत्र में अवशोषण हेतु एकल विशिष्ट संरचना का नाम बताइये।
उत्तर-
केंचुए की आंत्र में अवशोषण हेतु एकल विशिष्ट संरचना का नाम आंत्रवलन (टिफ्लोसोल) है।।
प्रश्न 8.
केंचुए में कैल्सियमधर ग्रन्थियाँ कहाँ पाई जाती हैं ?
उत्तर-
आमाशय में कैल्सियमधर ग्रन्थियाँ पाई जाती हैं।
प्रश्न 9.
केंचुएं में प्रथम अन्तराखण्डीय पट किन खण्डों के बीच स्थित होता है ?
उत्तर-
केंचुए में प्रथम अन्तराखण्डीय पट चौथे व पाँचवें खण्डों के बीच स्थित होता है।
प्रश्न 10.
केंचुए में पायी जाने वाली कशेरुक यकृत समान कोशिका का नाम लिखिये।
उत्तर-
केंचुए में पायी जाने वाली कशेरुक यकृत समान कोशिका का नाम रेणुपीत कोशिकाएँ (chloragogen cells) हैं।
प्रश्न 11.
केंचुए की उत्सर्जन इकाई का नाम क्या है ?
उत्तर-
केंचुए की उत्सर्जन इकाई का नाम वृक्कक (Nephridia)
प्रश्न 12.
केंचुए की त्वचा का चमकदार भूरा रंग किस वर्णक के कारण होता है?
उत्तर-
केंचुए की त्वचा का चमकदार भूरा रंग पोरफाइरीन वर्णक के कारण होता है।
प्रश्न 13.
केंचुए की पेषणी में सर्वाधिक विकसितं पेशी स्तर का नाम बताइए।
उत्तर-
केंचुए की पेषणी में सर्वाधिक विकसित पेशी स्तर वर्तुल पेशी स्तर है।
प्रश्न 14.
केंचुए में श्वसन संरचना का नाम क्या है ?
उत्तर-
केंचुए में श्वसन संरचना का नाम त्वचा है।
प्रश्न 15.
केंचुए के बहिर्मुखी वृक्कक का नाम बताइए।
उत्तर-
केंचुए के बहिर्मुखी वृक्कक का नाम त्वचीय वृक्कक (Integumentary nephridia) है।
RBSE Class 11 Biology Chapter 35 लघूत्तरात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
मेटामेरिक विखण्डन से क्या आशय है ?
उत्तर-
केंचुए का शरीर, अनुप्रस्थ वलय जैसे अन्तराखण्ड खांचों द्वारा लगभग 100 से 120 छोटे-छोटे समान खण्डों में बंटा होता है। इन खण्डों को विखण्ड (मेटामियरस metameres) कहते हैं। प्रत्येक खांच की सीध में अन्तराखण्डीय पट्ट (Inter segmental septa) होते हैं जो शरीर को अन्दर से छोटे-छोटे कोष्ठों में विभाजित कर देते हैं और इस प्रकार बाह्य खण्डीभवन या मेटामेरिक विखण्डन (metameric segmentation) प्रदर्शित करता है।
प्रश्न 2.
क्या होगा यदि केंचुआ 14वें खण्ड के जनन छिद्रों को मोम द्वारा बन्द कर दें ?
उत्तर-
केंचुए के 14वें खण्ड के जनन छिद्रों को मोम द्वारा बन्द करने पर मादा जनन छिद्र से अण्डाणुओं का निष्कासन नहीं होगा। जिसके फलस्वरूप न ही निषेचन होगा और न ही नवजात केंचुए का निर्माण होगा।
प्रश्न 3.
केंचुए की देह भित्ति में कौन-कौन सी कोशिकाएँ पाई जाती हैं ?
उत्तर-
केंचुए की देहभित्ति में निम्न कोशिकाएँ पाई जाती हैं
- ग्रन्थिल कोशिकाएँ (Gland cells)
ग्रन्थिल कोशिकाएँ दो प्रकार की होती हैं-
- श्लेष्मा कोशिकाएँ (Mucous cells)
- एल्ब्यूमिन कोशिकाएँ (Albumen cells)
- अवलम्बन कोशिकाएँ (Supporting cells)
- आधारीय कोशिकाएँ (Basal cells)
- संवेदी कोशिकाएँ (Sensory cells)
प्रश्न 4.
केंचुए को किसान का मित्र क्यों कहा जाता है ?
उत्तर-
केंचुए जमीन को पोली एवं छिद्रयुक्त करते हैं जिससे पेड़पौधों की जड़ों में वायु पहुँच जाती है। जिसके फलस्वरूप जमीन की उर्वरता बढ़ जाती है। इसलिए केंचुए को किसान का मित्र भी कहते हैं।
प्रश्न 5.
केंचुए में भोजन के अन्तर्ग्रहण की प्रक्रिया समझाइये।
उत्तर-
पोषण की दृष्टि से केंचुआ सर्वाहारी (Ominivarous) है। यह सड़ी-गली पत्तियों तथा कीड़े-मकोड़ों को खाता है। भोजन का अन्तर्ग्रहण मुख प्रकोष्ठ तथा ग्रसनी की सहायता से करता है। अन्तर्ग्रहण करते समय मुखगुहा उलटकर बाहर निकलती है तथा ह्यूमस युक्त मिट्टी के साथ भीतर जाती है । इस क्रिया में ग्रसनी चूषक पम्प की तरह कार्य करके मिट्टी को अन्दर खींचती है।
प्रश्न 6.
आमाशय की चूना स्रावी ग्रन्थियां कार्य करना बन्द कर दें तो पाचन क्रिया पर क्या प्रभाव पड़ेगा ?
उत्तर-
आमाशय की चूना स्रावी ग्रन्थियाँ कार्य करना बंद कर दें तो पाचन क्रिया नहीं होगी क्योंकि इन ग्रन्थियों द्वारा स्रावित पदार्थ ह्युमिक अम्ल को उदासीन करके माध्य को क्षारीय बनाते हैं। चूँकि यहाँ पर पाचन अम्लीय माध्यम में नहीं होगा।
प्रश्न 7.
पट्टीय वे अध्यावरणी वृक्कक में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-
पट्टीय व अध्यावरणी वृक्कक में अन्तर
(Difference between Septal and Integumentary Nephridia)
पट्टीय वृक्कक (Septal Nephridia) | अध्यावरणी वृक्कक (Integuinentary Nephridia) |
1. ये वृक्कक केंचुए के 15वें खण्ड के बाद स्थित होते हैं। | जबकि ये वृक्कक केंचुए के पहले 6 खण्डों को छोड़कर, शेष सभी खण्डों में स्थित होते हैं। |
2. प्रत्येक खण्ड में इनकी संख्या 80 से 20 होती है। | जबकि इनकी संख्या प्रत्येक खण्ड में 200 से 250 होती है। |
3. इनकी संख्या क्लाइटेलम ज्यादा नहीं होती है एवं इस क्षेत्र को वृक्कक वने नहीं कहते हैं। | जबकि इनकी संख्या क्लाईटेलम में 200-2500 तक होती है, यह क्षेत्र वृक्कक वन कहलाता है। |
4. ये सबसे बड़े वृक्कक होते हैं। | ये सबसे छोटे वृक्कक होते हैं। |
5. ये आंत्रमुखी वृक्कक (Entonephric) होते हैं। | जबकि ये बहिर्वक्कीय (Exonephric) होते हैं। |
6. इनमें नेफ्रोस्टोम व ग्रीवा उपस्थित होती है। | जबकि इनमें नेफ्रोस्टोम व ग्रीवा अनुपस्थित होती है। |
प्रश्न 8.
शुक्रग्राहिका का नामांकित चित्र बनाकर उसके कार्य लिखिए।
उत्तर-
शुक्रग्राहिका के कार्य-केंचुए में मैथुन क्रिया के दौरान शुक्राणुओं को ग्रहण करने तथा संचित करने का कार्य अधनाल (Diverti cula) द्वारा किया जाता है। जबकि तुम्बिका शुक्राणुओं हेतु पोषक पदार्थों का स्रावण करती है।
प्रश्न 9.
केंचुए में कोकून निर्माण की प्रक्रिया को समझाइए।
उत्तर-
कोकून का निर्माण (Cocoon formation)-केंचुए में मैथुन क्रिया के पश्चात् पर्याणिका या क्लाइटेलम में पाई जाने वाली ग्रन्थियों से स्रावित द्रव के सूखने से क्लाइटेलम के चारों ओर एक पेटी (Girdle of band) के समान रचना बन जाती है। इस पेटी के भीतर एल्बुमन के एकत्रित होने से एक नलिका बन जाती है। यह एल्बुमन अधिचर्म की म्यूकस ग्रन्थियों द्वारा स्रावित किया जाता है। मादा जनन छिद्र में से निकलकर अण्डे इस नयी संरचना में एकत्रित हो जाते हैं। इसके पश्चात् केंचुआ इस पट्टी से बाहर निकलने के लिए पीछे की ओर खिसकता है जिससे कोकून आगे की ओर बढ़ता है। जब यह शुक्रधानियों के स्थान पर पहुँचती है तो शुक्रधानी छिद्रों में से शुक्राणु निकलकर भी कोकून में आ जाते हैं। केंचुए के और पीछे खिसकने पर कोकून इसके शरीर से अलग हो जाता है। इसके पश्चात् इसके दोनों सिरे सिकुड़कर बन्द हो जाते हैं। इस प्रकार लगभग गोलाकार पीले से रंग का कोकून बनता है।
एक कोकून के निर्माण में लगभग 6 घंटे का समय लगता है व एक के बाद एक नई कोकून का निर्माण तक तक होता रहता है जब तक कि शुक्रग्राहिका में शुक्राणु समाप्त नहीं हो जाते हैं। अगस्त से अक्टूबर के महीनों में कोकून नम मिट्टी में जमा कर दिये जाते हैं। अण्डों का निषेचन कोकून के भीतर ही होता है। एक कोकून से एक ही केंचुए का विकास होता है।
प्रश्न 10.
शुक्रग्राहिकाओं का जनन से क्या सम्बन्ध है ?
उत्तर-
शुक्रग्राहिका (Spermathecae) मादा केंचुए के जनन तंत्र का अंग है। यह मैथुन क्रिया के दौरान शुक्राणुओं को ग्रहण कर एकत्रित करते हैं। कोकून के निर्माण के दौरान शुक्रग्राहिका द्वारा शुक्राणुओं को कोकून त्यागा (discharge) किया जाता है। जिसमें पहले से अण्डे मौजूद होते हैं। निषेचने की क्रिया कोकून में ही होती है। जिसके फलस्वरूप युग्मनज व इससे नवजात केंचुआ निर्मित होता है।
अतः हम कह सकते हैं कि शुक्रग्राहिका जनन में एक महत्त्वपूर्ण रोल अदा करती है।
प्रश्न 11.
केंचुआ उभयलिंगी होता है, किन्तु इसमें स्वनिषेचन नहीं होता है, क्यों ?
उत्तर-
केंचुए में नर तथा मादा जननांग दोनों ही पाये जाते हैं फिर भी स्वनिषेचन नहीं होता है क्योंकि इसमें पूंपूर्वता पाई जाती है अर्थात् इनके वृषण अण्डाशय से पूर्व परिपक्व हो जाते हैं। अतः पंपूर्वता के कारण स्वयं निषेचने न होकर परनिषेचन (cross fertilization) होता है।
प्रश्न 12.
केंचुए की प्रगुही दव में उपस्थित कोशिकाओं को विवरण कार्य सहित कीजिए।
उत्तर-
प्रगुहीय द्रव में चार प्रकार की कोशिकाओं का विवरणमय कार्य निम्न है
- भक्षाणु (Phagocytes) या अमीबोसाइट्स (Amoebocytes) ये कणिकायें संख्या में सबसे अधिक, आकारहीन व अमीबा के समान होती हैं। इनमें कूटपाद (pseudopodia) बनाने की क्षमता होती है। इन कणिकाओं की सतह पर कई वलन व एक ओर एक गहरी गुहिका (cavity) या अवतलता (concavity) पायी जाती है। ये कणिकाएँ देहगुहा में प्रविष्ट हानिकारक बैक्टीरिया आदि का (अमीबा के समान) भक्षण करके जन्तु की रक्षा करती हैं।
- म्यूकोसाइट्स (Mucocytes)-इन कणिकाओं का एक सिरा पंखे के समान चौड़ा व दूसरा संकरा होता है। केन्द्रक संकरे भाग में स्थित होता है। इन कणिकाओं का कार्य ज्ञात नहीं है।
- वृत्ताकार कणिकाएँ (Circular cells)-ये कणिकाएँ नाम के अनुरूप आकार में गोल व संख्या में बहुत कम होती हैं। इनका केन्द्रक चारों ओर से स्वच्छ जीवद्रव्य द्वारा घिरा होता है। इन कणिकाओं का कार्य भी अज्ञात है।
- रेणुपीत कणिकाएँ अथवा क्लोरोगोगन कोशिकाएँ (Chlorogogan cells)-ये कणिकाएँ छोटी व तारे के आकार की होती हैं। इन पीली कणिकाओं (yellow cells) की संख्या लगभग भक्षकाणुओं के बराबर होती है। इन कोशिकाओं को आयोडीन से अभिरंजित करने पर यह गहरे पीले रंग की हो जाती हैं।
यह कोशिकाएँ उत्सर्जन में सहायता करती हैं। यह देहगुहीय द्रव से उत्सर्जी पदार्थों को पृथक कर देती है।
कुछ वैज्ञानिकों के अनुसार यह कोशिकाएँ प्रोटीन व ग्लाइकोजन उपापचय व यूरिया संश्लेषण से सम्बन्धित हैं। इनकी तुलना कशेरुकों के यकृत (liver) से की जा सकती हैं।
प्रश्न 13.
केंचुए में गमन की प्रक्रिया को समझाइये।
उत्तर-
केंचुए में गमन-केंचुए में गमन को अध्ययन ग्रे व लिसमेन (Gray and Lissman) द्वारा किया गया। केंचुए के गमन में सीटी (setae) पेशियां व देहगुहीय द्रव का जल स्थैतिक दाब सहायक है।
देहभित्ति की वर्तुल पेशियों के सिकुड़ने से शरीर लम्बा एवं पतला हो जाता है तथा आयाम पेशियों के समन्वित संकुचन (Co-ordinates Contraction) से छोटा एवं मोटा होता है। वर्तुल एवं आयाम पेशियों की संकुचन एवं फैलने की क्रिया शरीर के अगले सिरे से पिछले सिरे तक तरंगों में होती है।
सबसे पहले अग्र भाग के पहले नौ समखण्डों की वर्तुल पेशियों में संकुचन होता है जिसके फलस्वरूप यह अग्र भाग पतला होकर तथा गुहीय द्रव के दबाव के कारण आगे की ओर बढ़ जाता है। शरीर के पश्च भाग की सीटी बाहर निकलकर शेष शरीर को भूमि से मजबूती से अटकाये रखती है तथा साथ ही साथ आगे बढ़ा हुआ अग्रे भाग मुख को चूषक की तरह भूमि से चिपका लेता है। अब वर्तुल पेशियों की संकुचन की तरंग अग्रभाग के बाद के कुछ भाग में होती है। अग्र भाग की वर्तुल पेशियों में शिथिलता (relaxation) आने लगती है तथा इस भाग की आयाम पेशियों में अब संकुचन होता है जिसके फलस्वरूप अग्रभाग छोटा एवं मोटा हो जाता है तथा इसकी सीटी बाहर निकलकर भूमि पर लग जाती है। जिस भाग की वर्तुल पेशियों में संकुचन होता है उस भाग की सीटी भूमि को छोड़ जाती है तथा यह भाग लम्बा हो जाता है। इस प्रकार के पेशियों की संकुचन एवं शिथिलन की क्रिया से केंचुआ आगे बढ़ता है। संकुचन की तरंग अग्र सिरे से अन्तिम सिरे पर लगभग 2 से 3 सेमी. प्रति सेकण्ड की गति से बढ़ती है।
केंचुए की औसत गति 25 सेमी./मिनट होती है।
भूमि में बिल बनाते समय भी पेशियों में तरंगित-संकुचन (Wavelike Contraction) होता है परन्तु यह तरंग उल्टी अर्थात् विपरीत दिशा में होती है। इस समय संकुचन तरंगें पिछले सिरे से अगले सिरे की तरफ चलती हैं तथा यह भूमि में उल्टे गमन द्वारा धंसता जाता है। बिल बनाते समय यह बिल की मिट्टी को खोदकर खा जाता है।
प्रश्न 14.
केंचुए में त्वचीय श्वसन क्यों पाया जाता है ?
उत्तर-
केंचुए में श्वसन के लिए कोई विशेष तंत्र नहीं पाया जाता है। केंचुए में गैस विनिमय नम त्वचा द्वारा होता है। ऑक्सीजन त्वचा के देहगुहीय द्रव में घुलकर, देहभित्ति की रक्त कोशिकाओं द्वारा ग्रहण कर ली जाती है।
केंचुए में मुख्यतः वायवीय श्वसन होता है।
प्रश्न 15.
केंचुए की देह भित्ति के प्रमुख कार्य लिखिए।
उत्तर-
देहभित्ति के कार्य (Functions of body wall)
- यह जंतु के चारों तरफ सुरक्षात्मक आवरण बनाती है।
- इसमें उपस्थित श्लेष्म ग्रन्थियों के स्रावण (श्लेष्म) से देहभित्ति नम व लसलसी बनी रहती है। यह श्लेष्म बिल की भित्ति को प्लास्टर करने और उसे चिकनी बनाने का कार्य भी करता है।
- देह भित्ति में रक्त-केशिकाओं की उपस्थिति व नम रहने के कारण यह श्वसन अंग का भी कार्य करती है।
- देहभित्ति में उपस्थित संवेदी कोशिकाओं के कारण यह एक संवेदी अंग का भी कार्य करती है।
- देहभित्ति की पेशियाँ व शूक गमन में सहायक होते हैं।
RBSE Class 11 Biology Chapter 35 निबन्धात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
केंचुए में पाचन तंत्र का सचित्र वर्णन कीजिये।
उत्तर-
आहारनाल (Alimentary Canal)-
केंचुए की आहारनाल पूर्ण सीधी शरीर के एक सिरे से दूसरे सिरे तक फैली रहती है। इसमें निम्न भाग होते हैं
- मुख या मुखद्वार (Mouth) – प्रथम विखण्ड के नीचे स्थित होता है और पीछे की ओर मुखगुहा में खुलता है। इस पर ओष्ठ, दांत या जबड़े आदि नहीं पाये जाते हैं।
- मुख-गुहिका (Buccal Cavity) – आहारनाल का एक छोटा व संकरा भाग है। यह पहले से तीसरे खण्ड के मध्य तक सीमित होता है। इसमें बहिवर्तन अर्थात् पलट कर बाहर आने की क्षमता होती है। भोजन ग्रहण करते समय इस पर लगी अपाकुंचक (protractor) पेशियाँ सिकुड़कर इसको बाहर की ओर पलट देती हैं जिससे मुखगुहा अब भोजन पर चूषक की भाँति चिपक जाती है। जब अपाकुंचक (retractor) पेशियाँ सिकुड़ती हैं तो मुखगुहा भोजन सहित अपने स्थान पर वापस चली जाती हैं और भोजन आहारनाल में आ जाता है। मुखगुहा पीछे की ओर ग्रसनी में खुलती है।
- ग्रसनी (Pharynx) – मुखगुहा का अन्तिम भाग एक नखाकार (pear-shaped) मांसल ग्रसनी बनाता है। यह चौथे खण्ड में पाई जाती है और पीछे की ओर ग्रसिका में खुलती है । इसके आगे का भाग एकदम संकरा होकर फिर चौड़ा हो जाता है।
मुखगुहा व ग्रसनी के जोड़ पर बनी खाँच में तंत्रिका वलय (nerve ring) होती है।
ग्रसनी की अवकाशिका (lumen) की भीतरी छत से एक बड़ी गांठनुमा संरचना पाई जाती है जिसे ग्रसनी पुंज (pharyngeal mass) कहते हैं। इसमें ग्रसनी ग्रन्थियाँ पाई जाती हैं जो छोटी-छोटी क्रोमोफिल कोशिकाओं से बनती हैं। यह ग्रन्थियाँ श्लेष्मा (mucin) तथा प्रोटीन अपघटक (proteolytic) एन्जाइम युक्त रस स्रावित करती हैं।
ग्रसनी की पाश्र्व भित्तियाँ भी अन्दर की ओर धंस कर दो क्षैतिज शैल्फे (horizontal shelves) बनाती हैं। जिन्हें पृष्ठ (dorsal) व अधर वेश्म (ventral) कहते हैं। पृष्ठ वेश्म को लार कक्ष (salivary chabmer) कहते हैं क्योंकि इसे भाग में पाचक रस या लार भोजन में मिलती है। अधर वेश्म को संवहन वेश्म (conducting chamber) कहते हैं क्योंकि इसे भाग से होकर भोजन ग्रसनी से ग्रसिका में जाता है। - ग्रसिका (Oesophagus) – यह छोटी व संकरी नलिका के | समान होती है जो पाँचवें खण्ड से सातवें खण्ड तक फैली होती है। इसमें से होकर भोजन पीछे स्थित पेषणी (Gizzard) में जाता है।
- पेषणी (Gizzard) – यह छोटी – मोटी पेशीयुक्त रचना होती है, जो आठवें खण्ड में स्थित होती है। भोजन या मिट्टी को पीसने के लिए इस भाग की वर्तुल पेशियाँ बहुत मोटी व कठोर हो जाती हैं। क्यूटिकल का अस्तर भी अन्य भागों की अपेक्षा इसमें अधिक मोटा हो जाता है। पेषणी पीछे की ओर आमाशय में खुलती है।
- आमाशय (Stomach) – आहारनाल का यह भाग लम्बा व पतला (ग्रसिका से चौड़ा) होता है। यह नवें से चौदहवें खण्ड तक फैला रहता है। इसकी भित्ति संवहनीय व ग्रन्थिले होती है। आमाशय की भित्ति में अनेक छोटी-छोटी कैल्सीयमधर ग्रन्थियाँ (calciferous glands) उपस्थित होती हैं जो चूनेदार (calcareous) द्रव स्रावित करती हैं। कुछ अन्य ग्रन्थियाँ प्रोटीन अपघटक एन्जाइम भी स्रावित करती हैं।
आहारनाल के इस भाग के दोनों सिरों पर अवरोधनी (sphincters) पायी जाती हैं। अतः इस भाग को ‘आमाशय’ कहते हैं। आमाशय पीछे की ओर आन्त्र में खुलता है। - आत्र (Intestine) – आहारनाल का आमाशय से पीछे वाला भाग आन्त्र कहलाता है । यह 15वें खण्ड से आखिरी खण्ड तक फैली होती है । पटों के जुड़ने के स्थान पर आन्त्र कुछ पिचकी तथा शेष भाग में फूली होने से स्पष्ट रूप से विखण्डित दिखाई देती है। इसकी भित्ति भी संवहनित व ग्रन्थिल होती है। भीतरी स्तर पक्ष्माभिकामय होता है। और वलित होकर छोटे-छोटे रसांकुरों (villi) में उभरा रहता है। 26वें खण्ड से अन्तिम तेईस से पच्चीस खण्ड छोड़कर आन्त्र अवकाशिका की पूरी लम्बाई में मध्य पृष्ठ सतह से एक स्पट एवं अन्य वलनों से बड़ा अनुदैर्ध्य वलन निकलता है। इस वलन को आंत्रवलन (typhlosole) कहते हैं । इसका कार्य आन्त्र की अवशोषी सतह का विस्तार बढ़ाना
- इसी आन्त्रवलन की उपस्थिति के कारण आन्त्र तीन क्षेत्रों में बंटी होती है। पन्द्रहवें से छब्बीसवें खण्ड तक भाग आन्त्र वलन पूर्व क्षेत्र (pretyphlosolar region) कहलाता है। 26वें विखण्ड में आन्त्र के पाश्र्व क्षेत्र से एक जोड़ी छोटी व पतली अंधनाल निकलकर आगे की ओर 22वें या 23वें खण्ड तक जाती है। इन संरचनाओं को आन्त्र अंधनाल (Intestinal cacea) कहते हैं। यह एमाइलेज एन्जाइम का स्रावण करती है। आन्त्रवलन की उपस्थित के 27वें खण्ड से, अन्तिम 25 खण्डों को छोड़कर, शेष क्षेत्र को आन्त्र वलन क्षेत्र (typhlosolar region) कहते हैं।
- मलाशय (Rectum)-आहारनाल के अन्तिम 25 खण्डों के क्षेत्र को जिसमें आन्त्रवलन नहीं पाया जाता, आन्त्रवलन पश्च क्षेत्र (Post-typhlosolar region) या मलाशय/पश्चांत्र कहते हैं। इसकी अवकाशिका क्यूटिकल द्वारा आस्तरित होती है।
- गुदा (Anus)-मलाशय अन्तिम खण्ड में उपस्थित एक छिद्र द्वारा बाहर खुलता है जिसे गुदा (Anus) कहते हैं। यह दरारनुमा छिद्र होता है ।।
भोजन एवं अन्तर्ग्रहण (Food and Ingestion)-
यह एक रात्रिचर (Nocturnal) प्राणी है, पोषण की दृष्टि से सर्वाहारी (Ominivarous) प्राणी भी कहते हैं। यह सड़ी-गली पत्तियों तथा कीड़े-मकोड़ों को खाता है। मुख (mouth) एवं पुरोमुख (prostomium) द्वारा एकत्रित भोजन अन्तर्ग्रहण ग्रसनी की पम्पिंग (pumping) क्रिया द्वारा होता है।
भोजन का पाचन (Digestion of Food)-
केंचुआ अपने भोजन तथा मिट्टी को मुखगुहा को चूषक की भाँति प्रयोग में लाकर अन्तर्ग्रहित करता है। मुखगुहा में भोजन का पाचन नहीं । होता है। ग्रसनी में ग्रासन ग्रन्थियों द्वारा स्रावित श्लेष्मा भोजन को चिकना। बना देता है। ये ग्रन्थियाँ प्रोटीन अपघटक एन्जाइम भी स्रावित करती हैं। जो प्रोटीन को पचाने में सहायता करते हैं। अधर वेश्म से होता हुआ भोजन ग्रसिका में आता है। यहाँ पर भी भोजन का पाचन नहीं होता है। भोषण के पेषणी में पहुँचते ही पेषणी की वर्तुल पेशियाँ भोजन को चक्की की भाँति पीसना प्रारम्भ कर देती हैं। मिट्टी के पिसने से उसमें छिपे भोज्य पदार्थ पाचक रसों के लिए उपलब्ध हो जाते हैं। आमाशयों की दीवारों में स्थित कैल्सियमधर ग्रन्थियों का रस मिट्टी में उपस्थित ह्युमिक अम्ल को उदासीन बना देता है ताकि आन्त्र में पाये जाने वाले पाचक रस भोजन को पचा सकें। भोजन का पाचन मुख्यतया आत्र में होता है। आन्त्र में आन्त्रीय उपकला.व आनत्रीयसीका के एन्जाइम्स पाचन का कार्य करते हैं। आन्त्र में निम्न एन्जाइम्स द्वारा पाचन होता है
अवशोषण (Absorption)-
पचे हुए भोजन का अवशोषण मुख्यतया आन्त्र के वलन तथा टिफ्लोसोल के द्वारा किया जाता है। पोषक तत्त्व को रक्त विभिन्न भागों तक पहुंचाता है।
बहिक्षेपण (Egestion)-
अपचित भोजन मलाशय में गोलियों (pallets) के रूप में परिवर्तित हो जाता है, जिसे बिल के बाहर मल के रूप में त्याग दिया जाता है। जिन्हें कृमि क्षिप्तिया (worm casting) कहते हैं। अपचित भोजन को त्यागना बहिक्षेपण कहलाता है।
प्रश्न 2.
केंचुए में परिसंचरण तंत्र का सचित्र वर्णन कीजिये।
उत्तर-
केंचुए का परिवहन तंत्र सुविकसित एवं बंद प्रकार का होता है। इसमें रुधिर-वाहिनियां एवं हृदय सम्मिलित हैं
- रुधिर (Blood)-
रुधिर का तरल पदार्थ प्लाज्मा (plasma) का बना होता है। इसमें अमीबाभ, रंगहीन व केन्द्रकीय कणिकाएँ निलम्बित रहती हैं। यह उच्च कशेरुकियों के ल्यूकोसाइट्स के समान होती हैं। रुधिर में श्वसन रंजक हीमोग्लोबिन या एरिथोक्लओरिन की उपस्थिति के कारण यह चमकीले लाल रंग का होता है ।
रुधिर भोजन O2, Co2 तथा यूरिया को शरीर के विभिन्न भागों को पहुँचाता है। - रुधिर ग्रन्थियाँ (Blood Glands)-
रुधिर ग्रन्थियाँ रक्त का निर्माण करती हैं जो कि 4, 5, 6वें खण्डों में पायी जाती हैं। ये हल्के गुलाबी रंग की होती हैं। कुछ वैज्ञानिक इन्हें उत्सर्जी कार्य से सम्बन्धित मानते हैं। - लसिका ग्रन्थियाँ (Lymph Glands)-
फेरिटिमा पोस्थ्युमा के शरीर 26वें खण्ड से अन्तिम सिरे तक प्रत्येक खण्ड में पृष्ठ वाहिनी के दोनों ओर एक-एक जोड़ी लसिका ग्रन्थियाँ होती हैं। ये संभवतः भक्षाणुओं का निर्माण करती हैं। ये हानिकारक बैक्टीरिया का सफाया करती हैं। - रुधिर वाहिनियाँ (Blood Vessels)-
केंचुए में रक्त परिसंचरण तंत्र बन्द प्रकार का होता है। जिसके लिए सुविकसित वाहिनियों की आवश्यकता होती है। इन्हें तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है
(i) अनुदैर्घ्य रुधिर वाहिनियाँ (Longitudinal Blood Vessel)
(ii) अनुप्रस्थ रुधिर वाहिनियाँ (Transverse Blood Vessel)
(iii) आंत्र जालक (Intestinal Plexuses)
(i) अनुदैर्घ्य रुधिर वाहिनियों (Longitudinal Blood Vessel)-
इस प्रकार की रुधिर वाहिनियाँ केंचुए के शरीर की पूर्ण लम्बाई में फैली रहती हैं। इसमें पाँच मुख्य वाहिनियाँ पायी जाती हैं
(क) पृष्ठ रक्त वाहिनी (Dorsal Blood Vessel)-
यह मध्य पृष्ठ अवस्था में आहारनाल के ऊपर शरीर की सम्पूर्ण लम्बाई में पायी जाती है। इसकी भित्ति मोटी तथा संकुचनशील होती है। अतः यह हृदय की तरह कार्य करती है। इसमें रुधिर पीछे से आगे की ओर प्रवाहित होता है तथा रुधिर को पीछे की ओर बहने से रोकने के लिए प्रत्येक खण्ड में एक जोड़ी कपाट पाये जाते हैं। केंचुए के अंतिम खण्ड से 14वें खण्ड तक यह रक्त के संग्रह का कार्य करती है। 13वें खण्ड से प्रथम खण्ड तक यह रक्त वितरण का कार्य करती है। प्रथम 13 खण्डों में यह इन खण्डों में स्थित आहारनाले तथा जननांगों को रक्त प्रदान करती है। पृष्ठ रक्त वाहिनी 14वें से अंतिम खण्डों में यह देहभित्ति, आंत्र, जननांगों तथा अधोतंत्रिकीय वाहिनी से रक्त इकट्ठा करती है।
(ख) अधर रक्त वाहिनी (Ventral Blood Vessel)-
केंचुए। की अधर रक्त वाहिनी आहारनाल के नीचे द्वितीय से अंतिम खण्ड तक पायी जाती है। इसकी दीवारें पतली तथा अकुंचनशील होती हैं इसमें कपाटों का अभाव पाया जाता है। इस वाहिनी में रक्त आगे से पीछे की ओर बहता है। यह केंचुए की सम्पूर्ण लम्बाई में रक्त का वितरण कार्य करती हैं।
(ग) पार्श्व ग्रसिका वाहिकाएँ (Lateral-oesophageal Blood Vessel)-
यह प्रथम 13 खण्डों में आहारनाल के दोनों तरफ स्थित रहती है। यह प्रथम 13 खण्डों में शरीर के विभिन्न भागों से रक्त संग्रह करती हैं इनमें भी रक्त आगे से पीछे की तरफ बहता है।
(घ) अधो-तंत्रकीय रक्त वाहिनी (Sub Neural Blood Vessel)-
यह वाहिनी तंत्रिका रज्जु के नीचे मध्य अधर तल पर शरीर के पश्च छोर की ओर 14वें खण्ड तक फैली होती है। इसमें रक्त आगे से पीछे की तरफ बहता है। यह रक्त के संग्रह का कार्य करती है। यह पेशीविहीन तथा कपाट विहीन नलिका है।
(ङ) अधिग्रसिका रुधिर वाहिनी (Supra-oesophageal Blood Vessel)-
यह वाहिनी 9वें से 13वें खण्ड तक आमाशय की पृष्ठ दीवार से चिपकी रहती है। यह 10वें एवं 11वें खण्ड में स्थित अग्रपाशों द्वारा पाश्र्व ग्रसिका वाहिनियों से रक्त लेती है। इसके अतिरिक्त यह आमाशय तथा पेषणी की दीवार से भी रुधिर एकत्रित करती है।
(ii) अनुप्रस्थ या पाश्र्व रुधिर वाहिनियाँ (Transverse or Lateral Blood Vessel)-
केंचुए की सभी प्रकार की अनुदैर्घ्य रुधिर वाहिनियाँ, अनुप्रस्थ या पार्श्व रुधिर वाहिनियाँ किसी न किसी रूप में आपस में जुड़ी रहती हैं।
(क) हृदंय (Heart)-
फेरिटिमा पोस्थ्युमा में चार जोड़ी हृदय पाये जाते हैं। जो कि 7, 9, 12 एवं 13 खण्डों में स्थित होते हैं। ये हृदय नलिकाकार तथा अकुंचनशील होते हैं। 7वें तथा 9वें खण्डों के हृदय को पाश्र्व हृदय (lateral heart) कहते हैं। ये हृदय पृष्ठ रक्त नलिका से रक्त अधर रक्त नलिका में लाते हैं। प्रत्येक पावं हृदय में 4 जोड़ी कपाट पाये जाते हैं। 12वें तथा 13वें खण्डों के हृदयों को पाश्र्व ग्रसिका हृदय (lateral oesophageal heart) कहते हैं। इस प्रकार के हृदय पृष्ठ तथा अधि-ग्रसिका वाहिनियाँ से रक्त को अधर वाहिनी में लाते हैं। इस प्रकार के हृदय में 3 जोड़ी कपाट पाये जाते हैं।
(ख) अग्रपाश (Anterior Loops)-
केंचुए में दो जोड़ी अग्रपाश पाये जाते हैं। ये 10वें तथा 11वें खण्डों में पाये जाते हैं। ये अग्रपाश दोनों पार्श्व ग्रसिनिका वाहिनियों को अधिग्रसिका वाहिनी से जोड़ते हैं। इनमें कपाटों का अभाव होता है तथा इसमें संकुचन का अभाव होता है।
(ग) पृष्ठ आंत्र वाहिकाएँ (Dorso-intestinal Vessel)-
आंत्र रक्त का संग्रह पृष्ठ आंत्र वाहिनियाँ के द्वारा होता है जो पृष्ठ वाहिनी में खुलती है।
(घ) अधर आंत्र वाहिकाएँ (Ventro-intestinal Vessel)-
13वें खण्ड के बाद प्रत्येक खण्ड में मध्यवर्ती अधर-आंत्र वाहिकाएँ और वाहिनी से रक्त आंत्र भित्ति ले जाती है।
(ङ) संधायी वाहिकाएँ (Commissural Vessel)-
केंचुए के 13वें खण्ड के बाद प्रत्येक खण्ड में संधायी वाहिनियाँ, अध:तंत्रिका वाहिनी से रुधिर को पृष्ठ वाहिका में ले जाती है।
(iii) आंत्र जालिकाएँ (Intestinal Plexuses)-
केंचुए की आंत्र भित्ति में बहुत सी रुधिर कोशिकाएँ होती हैं, जो कि जालिका में व्यवस्थित रहती हैं। इनसे एक बाह्य जालिका होती है, जो आहार नाल की सतह पर पायी जाती है। इधर से रुधिर आंतर-जालिका में भेज दिया जाता है।
प्रश्न 3.
उत्सर्जन के आधार पर केंचुआ किस प्रकार का जन्तु है ? पटीय वृक्कक की संरचना को आरेख चित्र द्वारा समझाइये।।
उत्तर-
केंचुए में उत्सर्जन अंग शरीर के प्रत्येक खण्ड में पायी जाने वाली, अति सूक्ष्म कुण्डलित (coiled) तथा जटिल रचना वाली नलिकायें हैं जो मीसोडर्म से बनती हैं। ये नलिकाएँ वृक्कक या नेफ्रीडिया कहलाती हैं। ये शरीर के अगले तीन खण्डों को छोड़कर अन्य सभी खण्डों में पायी जाती हैं। उत्सर्जन के आधार पर यह यूरियोटेलिक प्राणी है। नेफ्रीडिया तीन प्रकार के होते हैं
- पटीय नेफ्रीडिया (Septal Nephridia)
- अध्यावरणी नेफ्रीडिया (Integumentary nephridia)
- ग्रसनीय नेफ्रीडिया (Pharyngeal nephridia)
इन तीनों में पटीय नेफ्रीडिया पूर्ण (complete) होते हैं जिससे इन्हें प्रारूपिक नेफ्रीडिया (Typical nephridia) कहते हैं।
1. पट्टीय वृक्कक (Septal Nephridia)-
पट्टीय वृक्कक होलोनेफ्रिक वृक्कक होते हैं जो कि 15/16 पट्ट से अन्तिम पट्ट के दोनों तरफ लगे रहते हैं। ये प्रत्येक खण्ड के एक तरफ 40-50 हो सकते हैं जो कि 20-25 के दो समूहों में पाये जाते हैं। इस प्रकार से प्रत्येक पट्ट में कुल दोनों तरफ 80-100 पट्टीय वृक्कक पाये जाते हैं। परन्तु 15वें तथा अन्तिम खण्ड में इनकी संख्या 40 से 50 ही होती है। ये आंत्र में खुलते हैं। इसलिए इन्हें आंत्रमुखी नेफ्रीडिया (Entero nephric nephridia) कहते हैं।
2. अध्यावरणी नेफ्रीडिया (Integumentary Nephridia)-
अध्यावरणी नेफ्रीडिया प्रथम दो खण्डों को छोड़कर शेष सभी खण्डों में देहभित्ति की भीतरी सतह पर लगे होते हैं। प्रत्येक खण्ड में ये 200 से 250 परन्तु क्लाटेलम वाले भाग वे इनकी संख्या दस गुनी, 2000 से 2500 तक हो जाती है। इन्हें यहाँ पर वृक्कों के वन (Forest of Nephridia) भी कहा जाता है। प्रत्येक अध्यावरणी नेफ्रीडिया V आकार का होता है एवं इसमें नेफ्रीडिया मुख (Nephrostome) का अभाव होता है। प्रत्येक नेफ्रीडिया की अन्तिम नलिका त्वचा द्वारा बाहर खुलती है। इसी कारण इनको बहिर्मुखी नेफ्रीडिया (Exo Nephric nephridia) कहते हैं।
3. ग्रसनीय नेफ्रीडिया (Pharyngeal Nephridia)-
ये केंचुए के ग्रसनीय प्रदेश अर्थात् 4, 5 व 6 खण्ड में ग्रसनी व ग्रसिका के दोनों ओर युग्मित गुच्छों के रूप में स्थित होते हैं अतः इन्हें ग्रसनी वृक्कक अथवा ग्रसनी नेफ्रीडिया कहते हैं।
प्रत्येक गुच्छे में लगभग 100 वृक्कक उपस्थित होते हैं। इन समूहों के साथ रुधिर ग्रन्थियाँ भी उपस्थित होती हैं। इन वृक्कों में वृक्कक मुख (nephrostome) का अभाव होता है। प्रत्येक गुच्छे के समस्त वृक्ककों की अन्तस्थ नलिकाएँ एक सहनलिका (common duct) में खुलती हैं।
तीनों खण्डों की सहनलिकाओं का जोड़ा आगे की ओर बढ़कर मुखगुहा व ग्रसनी में खुलता है। छठे खण्ड की सहनलिकाएँ आगे चलकर दूसरे खण्ड में मुखगुहा में खुलती हैं। जबकि चौथे व पांचवें खण्ड की सहनलिकाएँ ग्रसनी में खुलती हैं। चूंकि ये वृक्कक आहारनाल में खुलते हैं अतः इन्हें आन्त्रमुखी वृक्कक (enteronephric nephridia) भी कहते हैं।
कुछ वैज्ञानिकों के मतानुसार यह उत्सर्जन का कार्य नहीं करते हैं। बल्कि पाचन एन्जाइम का स्रावण करते हैं अतः इन्हें पेप्टोनेफ्रिडिया (Peptonephridia) कहते हैं।
उत्सर्जन की कार्यिकी (Physology of Ecretion)-
केंचुए की क्लोरोमेगन कोशिकाएँ विअमीनीकरण (deamination) द्वारा अमीनो अम्लों से अमोनिया मुक्त करती हैं व यूरिया का भी निर्माण करती हैं। लसिका ग्रन्थियों व देहगुहीय द्रव में उपस्थित अमीबीय कोशिकाएँ इन कोशिकाओं का भक्षण कर उत्सर्जी पदार्थों को देहगुहीय द्रव में मुक्त कर देती हैं। नेफ्रीडिया की भित्ति में रुधिर वाहिकाएँ भी बहुत अधिक संख्या में होती हैं। नेफ्रीडिया भित्ति की ग्रन्थिल कोशिकाएँ रुधिर में उपस्थित नाइट्रोजनी अपशिष्ट पदार्थों व अधिक मात्रा में उपस्थित जल को पृथक् करती है। इसके साथ-साथ नेफ्रीडिया देहगुहीय द्रव से भी अपशिष्ट पदार्थों को पृथक् कर उत्सर्जी वाहिका में मुक्त कर देते हैं। अध्यावरणीय नेफ्रीडिया तो सीधे ही बाहर खुलते हैं तथा उत्सर्जी पदार्थों को बाहर छोड़ देते हैं। पटीय नेफ्रीडिया उत्सर्जी पदार्थों को अधिआंत्र उत्सर्जी वाहिका में छोड़ते हैं जो उत्सर्जी पदार्थों को आन्त्र में मुक्त कर देते हैं। सामान्य परिस्थितियों में अर्थात् जब जल व भोजन अधिक मात्रा में उपलब्ध होता है तब केंचुआ उत्सर्जी पदार्थों को अमोनिया के रूप में उत्सर्जित करता है तथा जब भोजन व जल कम मात्रा में उपलब्ध हो तो यह उत्सर्जी पदार्थों को यूरिया के रूप में उत्सर्जित करता है। केंचुए के उत्सर्जी पदार्थों में लगभग 55% यूरिया व 40% अमोनिया पायी जाती है।
प्रश्न 4.
केंचुए के प्रजनन तंत्र का सचित्र वर्णन कीजिए।
उत्तर-
केंचुए में सिर्फ लैंगिक प्रजनन होता है। ये द्विलिंगी या उभयलिंगी होते हैं अर्थात् इसमें नर एवं मादा जननांग एक ही जन्तु में स्थित होते हैं। इनमें स्वनिषेचन नहीं होता है। क्योंकि ये पुंपूर्वी (protandrous) होते हैं अर्थात् इनके वृषण अण्डाशय से पूर्व परिपक्व हो जाते हैं। अतः इनमें परनिषेचन (cross fertilization) होता है।
1. नर प्रजनन तंत्र (Male Reproductive System)-
केंचुए का नर जनन तंत्र निम्नलिखित रचनाओं से मिलकर बना। होता है
(i) वृषण (Testes)
(ii) वृषणकोष (Testes Sac)
(iii) शुक्राशय (Seminal Vesicle)
(iv) शुक्रवाहिनी कीप (Spermaduct funnel)
(v) शुक्रवाहिका (Vas deferens)
(vi) प्रोस्टेट ग्रन्थियाँ (Prostate glands)
(vii) सहायक ग्रन्थियाँ (Accessory glands)
(i) वृषण (Testes)-
केंचुए में दो जोड़ी वृषण पाये जाते हैं। इनमें से एक जोड़ी 10वें तथा एक जोड़ी 11वें खण्ड में आहारनाल के नीचे अधर तल में अधर तंत्रिका रज्जु के दोनों ओर पार्श्व में स्थित होते है।
प्रत्येक वृषण सफेद रंग की एक पालिमय रचना होती है। इसमें 4 से 8 अंगुलियों के समाप प्रवर्ध निकले रहते हैं। प्रत्येक प्रवर्ध जनन उपकला (Germinal Epithelium) से आस्तरित होता है। इसके विभाजन से गोल आकृति की शुक्राणु जनन कोशिकाओं (Spermatogonia) का निर्माण होता है। यहाँ से ये शुक्राशय में चले जाते हैं।
(ii) वृषणकोष (Testes Sac)-
केंचुए में दो जोड़ी वृषण कोष पाये जाते हैं। वृषण कोष पतली भित्ति के बने चौड़े थैलीनुमा (Saclike) होते हैं। वृषण कोष का उद्भव सीलोम द्वारा होता है। ये 10वें तथा 11वें खण्ड में पाये जाते हैं। प्रत्येक वृषण कोष में एक जोड़ी वृषण तथा एक जोड़ी शुक्रवाहिनी कीप बन्द रहते हैं। प्रत्येक वृषण कोष अपने से अगले खण्ड में स्थित शुक्राशयों से जुड़े रहते हैं। ग्यारहवें खण्ड का वृषण कोष बड़ा होता है क्योंकि उसमें वृषण शुक्रवाहिनी कीप के अलावा एक जोड़ी शुक्राशय भी बन्द होते हैं।
(iii) शुक्राशय (Seminal Vesicle)-
केंचुए में दो जोड़ी शुक्राशय पाये जाते हैं। इनमें से एक जोड़ी ग्यारहवें खण्ड में, दूसरी जोड़ी बारहवें
खण्ड में पाये जाते हैं। इसमें खण्ड का वृषण कोष ग्यारहवें खण्ड के शुक्राशय में तथा ग्याहरवे खण्ड का वृषण कोष बारहवें खण्ड के शुक्राशय में खुलता है। ग्यारहवें खण्ड के शुक्राशय ग्यारहवें खण्ड के वृषण कोष में बन्द होते हैं जबकि बारहवें खण्ड के शुक्राशय नग्न होते हैं वे देहगुहा में स्थित होते है। इनमें अपरिपक्व शुक्राणुओं का परिपक्वन तथा संचय किया जाता है।
(iv) शुक्रवाहिनी कीप (Spermaduct funnel)-
केंचुए में दो जोड़ी शुक्रवाहिनी कीप पायी जाती है जो क्रमश: दसवें वे ग्यारहवें खण्ड में वृषण के ठीक नीचे पायी जाती है। प्रत्येक शुक्रवाहिनी कीप के किनारों पर अनेक उभार पाये जाते हैं व किनारे पक्ष्माभिकाय (ciliated) होते हैं। यह परिपक्व शुक्राणुओं को ग्रहण करने का कार्य करती है।
(v) शुक्रवाहिका (Vas deferens)-
प्रत्येक शुक्रवाहिनी कीप पीछे की तरफ पतली संकरी वाहिका में खुलती है जिसे शुक्रवाहिको (vas deferens) कहते हैं। यह अन्तःपक्ष्माभी (ciliated) होती है। ये दो जोड़ी के रूप में पायी जाती हैं। यह दसवें खण्ड से अठारहवें खण्ड व 11वें खण्ड से 18वें खण्ड तक स्थित होती है। प्रत्येक ओर की दोनों शुक्रवाहिनियाँ एक-दूसरे से जुड़ी रहती हैं व देहाभित्ति के अधर तल पर पायी जाती हैं। एक ओर की दोनों शुक्रवाहिनियाँ 18वें खण्ड में उसी ओर की प्रोस्टेट वाहिनी से मिलकर नर जनन छिद्र द्वारा 18वें खण्ड में बाहर खुलती हैं।
(vi) प्रोस्टेट ग्रन्थियाँ (Prostate Glands)-
केंचुए में एक जोड़ी प्रोस्टेट ग्रन्थियाँ पायी जाती हैं। ये गन्दे सफेद रंग की होती हैं। प्रत्येक ग्रन्थि अनियमित आकार की पालिदार ठोस संरचना होती है। ये आहार नाल के दाहिनी व बायीं तरफ स्थित होती है। ये 16वें या 17वें खण्ड से 20वें या 21वें खण्ड तक फैली रहती हैं। प्रत्येक ग्रन्थि दो भागों में बँटी होती है-
- ग्रन्थिल भाग व
- अग्रन्थिल भाग। ग्रन्थिले भाग में अनेक पालियाँ पायी जाती हैं तथा ये प्रोस्टेटिक द्रव का स्रावण करती हैं। इससे स्रावित द्रव में शुक्राणु सक्रिय रहते हैं।
अग्रन्थिल भाग में कई सूक्ष्म नलिकाएँ पायी जाती हैं जो मिलकर प्रोस्टेट वाहिनी बनाती हैं।
प्रोस्टेट ग्रन्थि से बाहर निकलते ही प्रोस्टेट वाहिनी अपनी-अपनी तरफ की शुक्रवाहिकाओं के साथ एक सहआवरण में लिपट कर एक सह व प्रोस्टेट वाहिनी का निर्माण करती है। इस सहआवरण में तीनों वाहिनियाँ (दो शुक्र व एक प्रोस्टेट) पृथक्-पृथक् रहती हैं। सह शुक्र एवं प्रोस्टेट वाहिनी. 18वें खण्ड की अधर सतह पर नर जनन छिद्र द्वारा बाहर खुलती है।
(vii) सहायक ग्रन्थियाँ (Accessory glands)-
ये दो जोड़ी ग्रन्थियाँ होती हैं जो 17वें वे 19वें खण्ड में जनन पैपीला के ठीक नीचे पायी जाती हैं। इनकी आकृति गोलाकार होती है। ये ग्रन्थियाँ जनन पैपीला के शीर्ष पर खुलती हैं। इन ग्रन्थियों का स्रावण मैथुन क्रिया में सहायक होता है।
2. मादा जनन तंत्र (Female Reproductive System)-
केंचुए का मादा जनन तंत्र निम्नलिखित संरचनाओं से मिलकर बना होता है
(i) अण्डाशय (Ovary)
(ii) अण्डवाहिनी कीप (Oviductal funnel)
(iii) अण्डवाहिनी (Oviduct)
(iv) शुक्रग्राहिका (Spermatheca)
(i) अण्डाशय (Ovary)-
केंचुए में एक जोड़ी अण्डाशय पाये जाते हैं जो खण्ड 12 व 13 के बीच की अन्तराखण्डीय पट से तन्त्रिका रज्जु के इधर-उधर, 13वें खण्ड की गुहा में लटके रहते हैं।
प्रत्येक अण्डाशय सफेद रंग का होता है व इसमें अंगुलियों के समान प्रवर्ध पाये जाते हैं। प्रवर्थों की संख्या 8 से 12 तक होती है। प्रत्येक प्रवर्ध में रेखिके क्रम अण्डाणु पाये जाते हैं। सबसे अधिक परिपक्व अण्डाणु प्रवर्ध के दूरस्थ व बंद सिरे की ओर होता है व सबसे कम परिपक्व अण्डाणु प्रवर्ध के निकटस्थ सिरे की ओर होता है।
(ii) अण्डवाहिनी कीप (Oviductal funnel)-
यह भी एक जोड़ी के रूप में होती है। ये 13वें खण्ड में प्रत्येक अण्डाशय के ठीक नीचे स्थित होते हैं। इनके द्वारा परिपक्व अण्डाणुओं को ग्रहण करके उन्हें अण्डवाहिनी में डाल दिया जाता है। प्रत्येक कीप पीछे की तरफ अण्डवाहिनी में खुलती है।
(iii) अण्डवाहिनी (Oviduct)-
ये एक जोड़ी होती हैं जो 13वें से 14वें खण्ड तक पायी जाती हैं। प्रत्येक अण्डवाहिनी कीप अण्डवाहिनी में खुलती है। दोनों ओर की अण्डवाहिनियाँ 13/14 पट को भेद कर 14वें खण्ड में परस्पर मिलकर एक ही मध्य अधर मादा जनन छिद्र से बाहर खुलती हैं।
(iv) शुक्रग्राहिका (Spermatheca)-
केंचुए में चार जोड़ी शुक्रग्राहिकाएँ पायी जाती हैं। जो ग्रास नली के अधर पाश्र्वो (venterolateral) में एक-एक स्थित होती हैं। प्रत्येक शुक्रग्राहिका में एक ग्रन्थिल भित्ति वाली नाशपती के आकार की रचना पायी जाती है। जिसे तुम्बिका (Ampulla) कहते हैं। इसका अग्र सिरा ग्रीवा (neck) के रूप में पाया जाता है जिसे शुक्रग्राहिका वाहिनी कहते हैं। ग्रीवा के नीचे एक छोटा-सा अंधनाले या डाइवर्टिकुलम (diverticulum) पाया जाता है।
शुक्रग्राहिकाएँ बाहर की ओर चार जोड़ी छिद्रों द्वारा खुलती हैं। जिन्हें शुक्रग्राहिका छिद्र कहते हैं। यह 5/6, 6/7, 7/8, व 8/9 खण्डों के अधर पार्श्व में पाये जाते हैं।
कार्य-केंचुए में मैथुन क्रिया के दौरान शुक्राणुओं को ग्रहण करने तथा संचित करने का कार्य अंधनाल द्वारा किया जाता है जबकि तुम्बिका शुक्राणुओं हेतु पोषक पदार्थों का स्रावण करती है।
प्रश्न 5.
केंचुए की देहभित्ति की संरचना को आरेख चित्र द्वारा समझाइये।
उत्तर-
केंचुए की देहभित्ति पतली व लसलसी होती है। इसमें निम्न चार स्तर पाये जाते हैं
(1) क्यूटिकल (Cuticle)-
यह शरीर पर एक महीन एवं लचीला, कोशिकाविहीन, रक्षात्मक आवरण बनाती है। इस परत का स्रावण अधिचर्म द्वारा किया जाता है। क्यूटिकल धारीदार होती है। इसमें फैले समानान्तर कोलेजन तन्तुओं के दो स्तर होते हैं। इसलिए यह चमकीली एवं हल्की पीली सी दिखाई देती है। क्यूटिकल में स्थान-स्थान पर ग्रन्थिल कोशिकाओं के छिंद्र पाये जाते हैं।
(2) अधिचर्म (Epidermis)-
यह क्यूटिकल के ठीक नीचे स्तम्भी कोशिकाओं के इकहरे स्तर के रूप में होती है। इसकी कोशिकाएँ निम्न चार प्रकार की होती हैं
(अ) अवलम्बन कोशिकाएँ (Supporting cells)-ये कोशिकाएँ स्तम्भकार कोशिकाएँ हैं जिनके मध्य में अण्डाकार केन्द्रक होता है। ये संख्या में बहुत अधिक होती हैं तथा अधिचर्म का
अधिकांश भाग बनाती
(ब) ग्रन्थिल कोशिकाएँ (Glandular cells)-अवलम्बन कोशिकाओं के बीच-बीच में स्थित होती हैं। ये विभिन्न प्रकार के द्रव स्रावित करती हैं और उन्हीं के आधार पर दो प्रकार की होती हैं
- श्लेष्मा कोशिकाएँ (Mucous cells)-
ये मुग्दाकार कोशिकाएँ हैं जो स्थान-स्थान पर क्यूटिकल पर छिद्र द्वारा बाहर खुलती हैं। ये अपेक्षाकृत संख्या में अधिक होती हैं। इनके द्वारा स्रावित श्लेष्मा शरीर की सतह को नम व चिकना बनाये रखने का कार्य करती है तथा बिल को प्लास्टर करने का कार्य भी करती है। - एल्ब्यूमिन कोशिकाएँ (Albumen cells)-
ये आकार में बेलनाकार व संख्या में कम होती हैं। इन कोशिकाओं के द्वारा एल्बुमिन का स्रावण किया जाता है। जो भ्रूण को पोषण करता है।
(स) आधारीय कोशिकाएँ (Basal cells)-ये कोशिकाएँ आकार में छोटी, गोल अथवा शंक्वाकार (conical) होती हैं। ये अवलम्बन कोशिकाओं व ग्रन्थिल कोशिकाओं के भीतरी सिरों के अन्तरकोशिकीय स्थान में पायी जाती हैं। प्रत्येक कोशिका में स्पष्ट केन्द्रक पाया जाता है। इन्हें प्रतिस्थापन कोशिकाएँ भी कहते हैं।
(द) संवेदी कोशिकाएँ (Sensory cells)-ये पतली व लम्बी होती हैं। इनके स्वतंत्र सिरे पर संवेदी रोम पाये जाते हैं। ये समूह में विन्यासित होती हैं। ये बाह्य वातावरण से संवेदनाओं को ग्रहण करने का – कार्य करती हैं।
3. पेशी स्तर (Muscle Layer)-
पेशी स्तर में तीन उपस्तर पाये जाते हैं
- बाह्य वर्तुलापेशी स्तर (outer circular muscle layer)-
इस स्तर में पोरफाइरिन वर्णक कणिकाएँ पाई जाती हैं। इस स्तर के सिकुड़ने से केंचुआ का शरीर लम्बा व पतला हो जाता है। - मध्य अनुदैर्घ्य पेशी स्तर (Middle longitudinal muscle layer)-
यह स्तर वर्तुल पेशी स्तर से दुगुना मोटा होता है। इस स्तर की पेशियाँ समूह अथवा बंडल के रूप में पायी जाती हैं। इनके संकुचन से शरीर सिकुड़कर मोटा व छोटा हो जाता है। - आन्तरिक वर्तुल पेशी स्तर (Inner circular muscle layer)-
यह वर्तुल पेशियों का बना अपेक्षाकृत पतला स्तर है।
4. देहगुहीय उपकला या पेरीटोनियम (Coelomic epithelium or peritonium)-
अनुलम्ब पेशी स्तर के ठीक नीचे देहगुहा के चारों ओर की देहगुहीय उपकला का बाहर की ओर वाला पैराइटल स्तर अथवा पेरीटोनियम होता है। यह चपटी मीसोडर्मी कोशिकाओं का इकहरा झिल्लीनुमा स्तर होता है।
देहभित्ति के कार्य (Function of Body wall)
- यह शरीर के चारों तरफ रक्षात्मक आवरण बनाती है।
- शरीर को निश्चित आकृति प्रदान करती है।
- नम रहने के कारण श्वसन में सहायता करती है।
- त्वचा पर निकले देहगुहीय द्रव जीवाणु आदि से बचाता है।
- देहभित्ति में पायी जाने वाली संवेदी कोशिकाएँ संवेदनाओं को ग्रहण करने का कार्य करती हैं।
- देहभित्ति की पेशियाँ व शूक (setae) गमन में सहायक हैं।
- इसमें उपस्थित श्लेष्म ग्रन्थियों के स्रावण (श्लेष्म) से देहभित्ति नम व लसलसी बनी रहती है। यह श्लेष्म बिल की भित्ति को प्लास्टर करने का और उसे चिकनी बनाने का कार्य भी करती है।
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