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RBSE Solutions for Class 11 Hindi प्रज्ञा प्रवाह पद्य Chapter 1 कबीर

June 21, 2019 by Safia 2 Comments

Rajasthan Board RBSE Class 11 Hindi प्रज्ञा प्रवाह पद्य Chapter 1 कबीर

RBSE Class 11 Hindi प्रज्ञा प्रवाह पद्य Chapter 1 पाठ्यपुस्तक के प्रश्न

RBSE Class 11 Hindi प्रज्ञा प्रवाह पद्य Chapter 1 वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न 1.
हिन्दी साहित्य के इतिहास के कबीर कौनसे काल के संत कवि थे?
(क) आदिकाल
(ख) भक्ति काल
(ग) रीति काल
(घ) आधुनिक काल
उत्तर:
(ख) भक्ति काल

प्रश्न 2.
कबीर कौनसी काव्यधारा के कवि थे
(क) सगुण मार्गीय
(ख) रीतिबद्ध
(ग) रीतिमुक्त
(घ) निर्गुण भक्ति की ज्ञानाश्रयी शाखा के
उत्तर:
(घ) निर्गुण भक्ति की ज्ञानाश्रयी शाखा के

प्रश्न 3.
कबीर की प्रतिनिधि रचना का नाम है
(क) आखिरी कलाम
(ख) बीजक
(ग) पद्मावत
(घ) मधु मालती।
उत्तर:
(ख) बीजक

प्रश्न 4.
कबीर के काव्य की भाषा है
(क) अवहट्ट
(ख) प्राकृत
(ग) शोरसैनी
(घ) सधुक्कड़ी
उत्तर:
(घ) सधुक्कड़ी।

RBSE Class 11 Hindi प्रज्ञा प्रवाह पद्य Chapter 1 अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
कबीर ने सतगुरु को महत्त्व क्यों दिया है?
उत्तर:
सतगुरु ने ही अज्ञान को दूर कर परमात्मा का साक्षात्कार कराया है तथा अनन्त उपकार किये हैं। इसी से कबीर ने सतगुरु को महत्त्व दिया है।

प्रश्न 2.
‘माया दीपक नर पतंग’ में कौन-सा अलंकार है? लिखिए।
उत्तर:
इसमें रूपक अलंकार है, क्योंकि माया पर दीपक का और नर पर पतंगा का आरोप किया गया है।

प्रश्न 3.
“यह तन विष की बेलरी” कवि ने ऐसा क्यों कहा है?
उत्तर:
शरीर विषय-वासनाओं के प्रति लगातार आसक्ति रखता है, इसमें सदा सुख-भोगों को मोह बना रहता है। इसलिए विष की बेल की तरह यह सदा ही माया से ग्रस्त रहता है।

प्रश्न 4.
कवि ने गुरु को दाता क्यों कहा है?
उत्तर:
गुरु अपने शिष्य को सभी लोकों की सम्पदा के समान आत्मज्ञान देता है, वह दान सदा अक्षय रहता है। इसीलिए कबीर ने गुरु को दाता कहा है।

RBSE Class 11 Hindi प्रज्ञा प्रवाह पद्य Chapter 1 लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
कबीर ने कौन-से गुरु की नित्य वन्दना करने को कहा है?
उत्तर:
कबीर ने स्पष्ट कहा है कि सामान्य ज्ञान-दाता भी गुरु होता है और अपने से बड़ा व्यक्ति भी गुरु जैसा होता है। परन्तु गुरु एवं ज्ञानी में अन्तर है। इसलिए जो गुरु सांसारिक जीवन को सफल बनाने के लिए परमात्मा का ज्ञान दे, जीवन रूपी खेल में सफल रहने का दाँव बतावे, परमात्मा-प्राप्ति के खेल का रहस्य बतावे, ऐसे ही गुरु की वन्दना करनी चाहिए। अर्थात् परमात्मा की प्राप्ति के लिए आध्यात्मिक ज्ञान देने वाले गुरु की ही वन्दना करने को कहा है।

प्रश्न 2.
सतगुरु को सच्चा सूरिवाँ क्यों कहा गया है?
उत्तर:
कबीर ने सतगुरु को ऐसा शूरवीर बताया है, जो एक ही ज्ञान रूपी बाण के प्रहार से शिष्य के हृदय को भेद देता है। हृदय में छेद होने से उसमें स्थित अहंकार बाहर बह जाता है या अहंकार विनष्ट हो जाता है और उसमें से माया एवं विषय-वासना भी समाप्त हो जाती है तथा ज्ञान का आलोक फैलता है। इस तरह एक ही शब्द-ज्ञान रूपी बाण से गुरु अपना व्यापक प्रभाव छोड़ता है। वह शरीर (माया), चर्म (देह या सुख भोग) तथा मर्म (हृदय का अज्ञान) को एक साथ भेदता है। इसी विशेषता से सतगुरु को सच्चा सूरिवाँ कहा गया है।

प्रश्न 3.
‘पासा पकड़ा प्रेम का’ में प्रयुक्त अलंकार तथा उसकी परिभाषा लिखिए।
उत्तर:
चौपड़ के खेल में पासा और गोटी का प्रयोग होता है। ईश्वर-भक्ति के लिए कबीर ने शरीर को गोटी और प्रेम को पासा बताया है। इसमें रूपक अलंकार है, क्योंकि प्रभु-प्रेम पर पासे का आरोप किया गया है। जब एक वस्तु पर दूसरी वस्तु का आरोप किया जावे, अर्थात् उपमेय में उपमान का आरोप अभेदात्मक रूप में किया जावे, तब रूपक अलंकार होता है। उक्त उदाहरण में पासा पर प्रेम का आरोप किया गया है। एक प्रकार से उपमेय को उपमान बनाया गया है। यह दोहा रूपक का सांग-रूपक नामक भेद है।

प्रश्न 4.
सतगुरु मिलन के क्या सुपरिणाम प्राप्त हुए?
उत्तर:
सतगुरु मिलन के ये सुपरिणाम रहे कि माया, अज्ञान एवं अविवेक समाप्त हुए। परमात्मा का ज्ञान मिलने से सांसारिक ताप अर्थात् आधिदैविक, आधिदैहिक एवं आध्यात्मिक तापों से मुक्ति मिली एवं हृदय पूरी तरह परमात्माप्रेम से शीतल हो गया। गुरु एवं परमेश्वर से अपनत्व भाव का जागरण हुआ, विषयवासना से मुक्ति मिली और नश्वर संसार के कष्टों से छुटकारा भी मिला। इस तरह गुरु-मिलने से शिष्य का जीवन सब तरह से शीतल एवं आध्यात्मिक आनन्द से व्याप्त हो गया ।

RBSE Class 11 Hindi प्रज्ञा प्रवाह पद्य Chapter 1 निबन्धात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
पठित दोहों के आधार पर गुरु-महिमा का अपने शब्दों में वर्णन कीजिए।
उत्तर:
सन्तकवि कबीर ने गुरु-महिमा का उल्लेख अनेक साखियों में किया है, जो कि ‘गुरुदेव को अंग’ शीर्षक से संकलित हैं। इस प्रसंग में बताया कि गुरु ही साधक या अपने शिष्य को माया-मोह एवं अज्ञान से छुटकारा दिलाकर ज्ञान का प्रकाश देता है। निराकार परमात्मा का साक्षात्कार गुरु की कृपा से ही हो सकता है, वही अज्ञान से आवृत नेत्रों को खोलकर इन्हें अनन्त परमात्मा को देखने की शक्ति प्रदान करता है। संसार की समस्त विद्याएँ प्राप्त करने के लिए गुरु-कृपा आवश्यक है।

कबीर ने गुरु को गोविन्द के समान बताकर सबसे बड़ा शुभचिन्तक माना है। सांसारिक आसक्ति से विषय-वासना बढ़ती है, तीनों प्रकार के सन्ताप से जीव जलता रहता है और अनेक कर्म करने पर भी विषयास्वाद नहीं मिटता है। लेकिन सद्गुरु ऐसा ज्ञानालोक देता है कि सारा माया-मोह मिटकर जगत् स्पष्ट भासित हो जाता है। इसीलिए कबीर ने स्पष्ट कहा है कि –

गुरु बिन माला फेरते, गुरु बिन देते दान।।
गुरु बिन सब निष्फल गया, जो पूछो वेद-पुरान।।

इस प्रकार कबीर ने अपनी साखियों में गुरु-महिमा का उल्लेख अनेक प्रकार से किया है।

प्रश्न 2.
“जब मैं था तब …………. दीपक देख्या माहिं।” का मूल भाव क्या है? लिखिए।
उत्तर:
व्यक्ति के हृदय में जब ‘मैं’ अर्थात् अहंकार रहता है, तो वह अपने आप को ही सब कुछ मानने लगता है। हृदय में अहंकार रहने से उसमें ईश्वर का निवास नहीं हो सकता और जब ईश्वर की प्राप्ति होती है, तो सारा अहंकार मिट जाता है। यह संसार अज्ञान रूपी अन्धकार का घर है, जब शरीर के भीतर ज्ञान का प्रकाश फैलता है, अर्थात् अध्यात्म-ज्ञान रूपी दीपक आलोकित होता है, तब उसके दिव्य प्रकाश से परमात्मा का साक्षात्कार आसानी से हो जाता है। परन्तु हृदय या घर के भीतर अहंकार के रहते यह सम्भव नहीं है। इसलिए अहंकार को त्यागने से ही आत्म-ज्ञान का आलोक फैलता है। यह अहंकार स्वयं को कर्ता और भोक्ता भी मानता है, ऐसा व्यक्ति नास्तिक भी माना जाता है। फिर उसे ईश्वर का साक्षात्कार कैसे हो सकता है? इसलिए अहंकाररहित दशा में ज्ञानालोक होते ही परमात्मा का साक्षात्कार सम्भव है।

प्रश्न 3.
“पाणी ही हैं हिम …………….. कह्या न जाइ।” दोहे का गूढार्थ स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
इसका गूढार्थ यह है कि परमात्मा से ही जीवात्मा की उत्पत्ति होती है। इस उत्पत्ति एवं विकृति में माया का प्रभाव रहता है। विशुद्ध चैतन्य जीव माया के कारण बर्फ के समान बद्ध जीव हो जाता है, परन्तु माया से मुक्त होने पर वह फिर अपने मूल रूप को अपना लेता है। अर्थात् पानी ही जमकर बर्फ बनता है और वही बर्फ पिघलकर फिर पानी बनता है। इसी प्रकार माया से मुक्त जीवात्मा अपनी पूर्व की स्थिति को प्राप्त हो जाता है। जीवात्मा पुनः परमात्मा में विलीन हो जाता है। इसी प्रकार परमात्मा तथा जीवात्मा में अद्वैतता है। मूल तत्त्व एक ही है, सृष्टि में मूल । रूप से परमात्म-तत्त्व ही है, अन्य तत्व तो माया के कारण उसके विकार रूप में पृथक् प्रतीत होते हैं। उस परम तत्व की सत्ता को लेकर अन्य बातें कहना निरर्थक है। इससे कबीर के अद्वैतवाद सिद्धान्त का निरूपण हुआ है।

प्रश्न 4.
“आषड़ियाँ झांई पड़ी, पंथ निहारि-निहारि।
जीभड़ियाँ छाला पड्या, राम पुकारि-पुकारि।”
दोहे में निहित काव्य-सौन्दर्य का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
यह दोहा या साखी कबीर द्वारा रचित ‘बिरह कौ अंग’ से संकलित है। कबीर ने रहस्यवादी भक्ति-भावना के स्थलों को परमात्मा को अपना प्रवासी प्रियतम मानकर विरह-वेदना की अभिव्यक्ति की है। प्रियतम राम अर्थात् परमात्मा के आगमन पंथ को लगातार देखते रहने एवं प्रतीक्षा करते रहने से नेत्रों में धुंधलापन आ गया है और राम का नाम पुकारते-पुकारते जीभ में छाले पड़ गये हैं।

इसमें ‘पुकारि-पुकारि’, ‘निहारि-निहारि’ में पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार है। साथ ही अन्य वर्गों की आवृत्ति होने से अनुप्रास अलंकार भी है। विरह की स्मरणदशा का वर्णन है, जिसमें कुछ ऊहा भी है और कुछ एकनिष्ठा भी है। इससे साधक की विरह-विकलता का मार्मिक अनुभूतिमय चित्रण हुआ है। आत्मा को कवि ने परमात्मा की विरहिणी बताया है जो कि रागात्मिका भक्ति का एक स्वरूप है।

व्याख्यात्मक प्रश्न –

1. मन मथुरा ……….. तामैं ज्योति पिछाणी।।
2. थापणि पाई ……….. मानसरोवर तीर।।
3. सतनाम के पटतरे ………. हौंस रही मन माहिं।।
4. सातों सबद जु बाजते ……….. बेसण लागे काग।।
उत्तर:
सप्रसंग व्याख्या पहले दी गई है, वहाँ देखिए।

RBSE Class 11 Hindi प्रज्ञा प्रवाह पद्य Chapter 1 अन्य महत्त्वपूर्ण प्रश्न

RBSE Class 11 Hindi प्रज्ञा प्रवाह पद्य Chapter 1 वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न 1.
कबीर का जन्म-स्थान माना जाता है
(क) मगहर
(ख) अयोध्या
(ग) काशी
(घ) मथुरा
उत्तर:
(ग) काशी

प्रश्न 2.
कबीर के गुरु कौन थे?
(क) रामानन्द
(ख) नरहरिदास
(ग) शेष सनातन
(घ) हरिहरानन्द
उत्तर:
(क) रामानन्द

प्रश्न 3.
कबीर ने जीवन के अन्तिम समय में कहाँ पर जाकर प्राण त्यागे?
(क) काशी
(ख) अवध
(ग) मगध
(घ) मगहर
उत्तर:
(घ) मगहर

प्रश्न 4.
‘बीजक’ किस प्रकार का काव्य है?
(क) प्रबन्ध काव्य
(ख) खण्ड काव्य
(ग) मुक्तक काव्य
(घ) महाकाव्य।
उत्तर:
(ग) मुक्तक काव्य

प्रश्न 5.
‘पाणी ही हैं हिम भया ……… न जाइ।’ इससे कबीर ने बताया है –
(क) जीव-माया की लीला
(ख) जीवात्मा-परमात्मा की अद्वैतता
(ग) परमात्मा की सर्वव्यापकता
(घ) सगुण-निर्गुण की एकता
उत्तर:
(ख) जीवात्मा-परमात्मा की अद्वैतता

RBSE Class 11 Hindi प्रज्ञा प्रवाह पद्य Chapter 1 अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
कबीर के प्रमुख ग्रन्थ का क्या नाम है?
उत्तर:
कबीर के प्रमुख एवं प्रामाणिक ग्रन्थ का नाम ‘बीजक’ है, इसमें उनकी ‘साखी’, ‘सबद’ और ‘रमैनी’ का संकलन है।

प्रश्न 2.
“माया दीपक नर पतंग” इसमें माया को दीपक और नर को पतंग क्यों कहा है?
उत्तर:
माया दीपक की तरह आकर्षक होती है, मनुष्य आकर्षण की ओर स्वयं आकृष्ट हो जाता है। इसी भाव से कबीर ने नर को ‘पतंगा’ कहा है।

प्रश्न 3.
‘मन मथुरा दिल द्वारिका, काया काशी जाणि।’ इस दोहे में कबीर ने किस भावना की अभिव्यक्ति की है?
उत्तर:
इस दोहे में कबीर ने मन की शुद्धता एवं पवित्रता पर जोर देते हुए शरीर के भीतर ही परमात्मा का साक्षात्कार करने की भावना व्यक्त की है।

प्रश्न 4.
‘जब मैं था तब हरि नहिं, अब हरि है मैं नांहि।’ इस कथन से कबीर ने क्या भाव व्यक्त किया है?
उत्तर:
इससे कबीर ने यह भाव व्यक्त किया है कि आत्मा से अहंकार का परदा हट जाने पर परमात्मा की ज्योति का साक्षात्कार हो जाता है।

प्रश्न 5.
यह तन विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान कबीर ने शरीर को ‘विष की बेल’ क्यों कहा है?
उत्तर:
शरीर विषय-वासना और सुख-भोगों से आसक्त रहता है, उसमें माया के कारण सुख-भोगों का बुरा प्रभाव लगातार बढ़ता रहता है। कबीर ने इसी आशय से शरीर को विष की बेल कहा है।

प्रश्न 6.
‘सतगुरु सबद न मानई, जनम गंवायो बादि।’ इस कथन से क्या सन्देश व्यक्त हुआ है?
उत्तर:
इस कथन से यह सन्देश व्यक्त हुआ है कि सतगुरु के उपदेशों के अनुसार चलने से जीवन सफल हो जाता है तथा सारे कर्मफल अनुकूल हो जाते

प्रश्न 7.
‘ते मन्दिर खाली पड़े, बेसण लागे काग।’ इससे कबीर ने क्या भाव व्यक्त किया है?
उत्तर:
कबीर ने यह भाव व्यक्त किया है कि संसार क्षणभंगुर और नश्वर है, यहाँ पर विषय-भोग स्थायी नहीं है। केवल परमात्मा शाश्वत सत्य है, उसी की वन्दना-सेवा करनी चाहिए।

प्रश्न 8.
‘ऐसे तो सतगुरु मिले, जिनसे रहिये लाग।’ कबीर ने कैसे गुरु से अपनत्व रखने को कहा है?
उत्तर:
जो गुरु शिष्य के दैविक, दैहिक और भौतिक तापों को दूर करता है। तथा उसे सांसारिक कष्टों से छुटकारा पाने का मार्ग बताता है, कबीर ने ऐसे गुरु से अपनत्व रखने को कहा है।

RBSE Class 11 Hindi प्रज्ञा प्रवाह पद्य Chapter 1 लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
“सतगुरु साँचा सूरिवाँ’-कबीर ने किस कारण सतगुरु को ‘सूरिवाँ’ कहा है?
उत्तर:
जो लक्ष्य साधकर बाण को सही ढंग से चलाता है, वह सच्चा शूरवीर कहलाता है। यही कार्य गुरु भी करता है। जो श्रेष्ठ गुरु होता है, वह शिष्य को ज्ञान देते समय अपने उपदेशों के जो बाण चलाता है, वे सीधे शिष्य के हृदय में सही लक्ष्य पर जा पड़ते हैं और अपना पूरा असर दिखाते हैं। एक प्रकार से शूरवीर और सतगुरु दोनों का कार्य एक जैसा होता है। दोनों ही लक्ष्य-सिद्धि के लिए प्रयास करते हैं और उसी में तन्मय रहते हैं। इसी लक्ष्य-सिद्धि की समानता के कारण कबीर ने सतगुरु को सच्चा शूरवीर कहा है।

प्रश्न 2.
‘माया दीपक’ में कबीर ने माया को दीपक क्यों कहा है? तर्क सहित लिखिए।
उत्तर:
माया प्राणियों को सुख – भोग की ओर आकृष्ट करती है, वह उनकी ज्ञान-चेतना को कुंठित करके ईश्वरीय साक्षात्कार में संदा बाधा डालती है। माया के कारण ही मनुष्य क्षणिक सुख-भोगों में आनन्दित रहता है। जैसे दीपक अपनी लौं पर पतंगों को आकृष्ट करता है और पतंगे उस पर पड़कर अपना जीवन समाप्त कर देते हैं, उसी प्रकार मनुष्य भी माया के आकर्षण में आकर सांसारिकता के जाल में फँस जाता है तथा उससे अपने आपको नष्ट कर देता है। उस दशा में वह अनेक योनियों में भटकता रहता है और उसे मुक्ति नहीं मिलती है व परमात्मा का साक्षात्कार भी नहीं होता है।

प्रश्न 3.
“सातों सबद जु बाजते, घरि घरि होते राग।
ते मन्दिर खाली पड़े, बेसण लागे काग।।”
उक्त दोहे में कबीर ने अप्रत्यक्ष रूप से किसकी ओर संकेत किया है?
उत्तर:
इस साखी में कबीर ने अन्योक्ति का सहारा लेकर सांसारिक विषयवासनाओं में लीन रहने वाले और वैभव-सम्पन्न लोगों की ओर संकेत किया है। कवि बताना चाहते हैं कि मनुष्य अपने जीवन में कितना ही वैभव और धन-दौलत क्यों न प्राप्त कर ले, परन्तु उसके साथ कुछ भी नहीं जा पाता है। समस्त धनदौलत यहीं पर ज्यों की त्यों रह जाती है। वैभव और विलास के सूचक बड़ेबड़े प्रासाद या भवन खाली पड़े रह जाते हैं, क्योंकि ये सभी वस्तुएँ नाशवान् हैं, यह संसार भी क्षणभंगुर है। यहाँ केवल परमात्मा की सत्ता शाश्वत सत्य एवं स्थायी है।

प्रश्न 4.
‘सतनाम के पटतरे, देवे को कछु नाहिं।’-इससे कबीर का क्या आशय है? लिखिए।
उत्तर:
इससे क़बीर का आशय है कि गुरु अपने शिष्य को परम-तत्त्व का जो ज्ञान देता है, वह इतना बहुमूल्य है कि उसके बदले में यदि शिष्य गुरु को कुछ देना चाहे, तो भी नहीं दे पाता है। इससे उसे संकोच होता है, कुछ देने की इच्छा पूरी नहीं होती है। तब वह गुरु के प्रति केवल कृतज्ञता ही व्यक्त कर पाता है।

RBSE Class 11 Hindi प्रज्ञा प्रवाह पद्य Chapter 1 निबन्धात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
“कबीर अनपढ़ थे, किन्तु वे बहुश्रुत और ज्ञान-सम्पन्न थे”। इस कथन पर अपना मत स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
कबीर ज्ञानमार्गी सन्त थे तथा आडम्बररहित जीवन में विश्वास रखने वाले भक्त थे। कबीर के सम्बन्ध में कहे गये उक्त कथन को इस प्रकार समझा जा सकता है –
अनपढ़ किन्तु बहुश्रुत – कबीर ने स्पष्ट स्वीकार किया कि उन्होंने कागजकलम को कभी हाथ नहीं लगाया था। वे एक प्रकार से अनपढ़ थे। ‘पोथी पढ़िपढ़ि जग मुआ’ कहकर कबीर ने प्रेम के ढाई अक्षर को पढ़ने वाले को ही पण्डित बताया। कबीर भले ही अनपढ़ थे, परन्तु बहुश्रुत थे। उनकी साखियों एवं पदों में लोक – जीवन का सारा ज्ञान भरा हुआ है। उन्होंने जो कुछ भी कहा, वह ज्ञान की कसौटी पर खरा उतरता है, उसमें समाज-सुधार एवं धार्मिक समन्वय का प्रखर स्वर व्यक्त हुआ है।

ज्ञान एवं अनुभव सम्पन्न – कबीर ज्ञान सम्पन्न थे। उन्होंने स्वानुभव के आधार पर आत्मा-परमात्मा की अद्वैतता, गुरु की महिमा, आचरण की पवित्रता तथा सांसारिक स्थितियों की असारता का सुन्दर-सुस्पष्ट प्रतिपादन किया है। इस प्रकार कबीर अनपढ़ होते हुए भी बहुश्रुत और ज्ञान-सम्पन्न थे।

प्रश्न 2.
कबीर के काव्यगत शिल्प-सौन्दर्य पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
कबीर के काव्यगत शिल्प-सौन्दर्य के अन्तर्गत उनकी भाषा, अलंकार और शैली-प्रयोग को लिया जा सकता है –
भाषा-प्रयोग – कबीर की भाषा में पंजाबी, भोजपुरी, अवधी, खड़ी बोली आदि सभी का प्रयोग हुआ है। इस कारण समीक्षकों ने कबीर की भाषा को सधुक्कड़ी कहा है। कबीर की भाषा की यह विशेषता है कि उसमें भाव, प्रसंग एवं विचारों के अनुरूप भाषा प्रयुक्त हुई है। इसी कारण सीधी-सरल भाषा के साथ ही उन्होंने सांकेतिक, प्रतीकात्मक, लाक्षणिक एवं पारिभाषिक शब्दों का यथावसर प्रयोग किया है।

अलंकार-प्रयोग – कबीर ने अनुप्रास, उपमा, रूपक, अन्योक्ति, समासोक्ति तथा दृष्टान्त आदि अलंकारों का प्रयोग अधिक किया है। उनके रूपक एवं अन्योक्ति अलंकार काफी प्रभावपूर्ण हैं।

शैली-विधान – कबीर के काव्य में उलटबाँसी शैली, प्रतीक शैली, तर्क एवं प्रबोधन शैली, प्रश्न शैली और अन्योक्ति शैली का प्रचुर प्रयोग हुआ है। पदों एवं साखियों में उनकी उलटबाँसी शैली भावाभिव्यक्ति की दृष्टि से अतीव प्रभावपूर्ण व सशक्त है।

प्रश्न 3.
“चौसठ दीवा जोइ करि, चौदह चंदा माँहि।
तिहिं घर किसको चानिण, जिहि घरि गोविन्द नाँहि।।”
इस साखी में कबीर ने क्या सन्देश दिया है?
उत्तर:
भारतीय परम्परा में चौदह विद्याएँ तथा चौंसठ कलाएँ मानी जाती हैं। कबीर के अनुसार इन सभी विधाओं एवं कलाओं से अन्त:करण में ज्ञान का प्रकाश होता है। परन्तु ज्ञान का ऐसा प्रकाश होने पर भी यदि हृदय में ज्ञान-चेतना का असर नहीं दिखाई देता है, भगवान् के साक्षात्कार की कोई सम्भावना नहीं देखी जाती है। अथवा ईश्वर का स्मरण-ध्यान एवं गोविन्द का निवास नहीं रहता है, तो ऐसे हृदय में सभी कलाओं और सभी विधाओं का प्रकाश होना व्यर्थ ही है।

भारतीय दर्शन के अनुसार अव्यक्त परमात्मा के प्रकाश से यह समस्त चराचर जगत्, सम्पूर्ण कलाएँ एवं विधाएँ आलोकित हैं। यह जानकर भी यदि व्यक्ति अपने हृदय में उस परमात्मा के प्रकाश को नहीं देख पाता है, अर्थात् भक्ति-भाव से शून्य रहता है, तो उसका व हमारा ज्ञान-प्रकाश किस काम का है। अतः कबीर ने सन्देश दिया है कि ज्ञान के साथ भक्ति का समन्वय जरूरी है, निर्मल हृदय में भगवान् का स्मरण तथा ध्यान रखना परमावश्यक है।

रचनाकार का परिचय सम्बन्धी प्रश्न –

प्रश्न 1.
कबीर का साहित्यिक परिचय दीजिए।
अथवा
सन्तकवि कबीर के साहित्यिक योगदान को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
हिन्दी साहित्य के भक्तिकाल में कबीरदास निर्गुण ज्ञानमार्गी शाखा के सन्त कवि थे। ये रामानन्द के शिष्य एवं मन की उपासना पर विश्वास करते थे। ये मन्दिरों और मस्जिदों को आडम्बर एवं ढोंग के स्थान मानते थे। कबीर यद्यपि अनपढ़ थे, परन्तु सन्तों और फकीरों की संगति में रहने से इन्होंने उच्चकोटि को ज्ञान प्राप्त किया था। कबीर निर्गुण साधक एवं ज्ञानमार्गी भक्त थे। इन्होंने अपनी रचनाओं में धर्म के बाह्याडम्बरों का विरोध कर राम-रहीम में अभेद माना तथा जातिगत व धर्म-सम्प्रदायगत आचरण का खण्डन किया। ये एकेश्वरवादी या अद्वैतवादी और मानव-समानता के समर्थक थे। पवित्राचरण व समाज-सुधार के पक्षधर तथा, रूढ़िवाद का विरोध करने से ये मध्यकाल के क्रान्तिपुरुष थे।

कबीर जनभाषा के प्रयोक्ता तथा अटपटी वाणी में ज्ञानपूर्ण बातें कहने वाले भक्त थे। इनकी रचनाएँ साखी, संबद और रमैनी रूप में हैं। इनकी रचनाओं का संग्रह ‘बीजक’ नाम से प्रसिद्ध है जो कि इनके शिष्यों के द्वारा संकलित है। वर्तमान में इनका समस्त साहित्य ‘कबीर ग्रन्थावली’ नाम से प्रकाशित है। कबीर के काव्य में ईश्वर-प्रेम, गुरु महिमा, माया निरूपण, ज्ञान-वैराग्य-सत्संगति-साधु-महिमा एवं नाम-सुमिरण आदि की | अभिव्यक्ति हुई है। आध्यात्मिक चिन्तन तथा लोकाचार पर इनका दृष्टिकोण उत्कृष्ट रहा है। ये अपने युग के प्रतिनिधि कवि तथा समाजसुधारक सन्त माने जाते हैं।

कबीर कवि – परिचय-

सन्त कबीर को जन्म वि. संवत् 1455 में काशी में हुआ था। एक किंवदन्ती के अनुसार किसी विधवा ब्राह्मणी की कोख से इनका जन्म हुआ था, जिसने लोकलाज के भय से नवजात बालक को त्याग दिया था। इनका लालन-पालन एक नि:सन्तान जुलाहा दम्पती नीरू और नीमा ने किया था। इनके गुरु प्रसिद्ध सन्त स्वामी रामानन्द थे। कबीर को अनपढ़ कहा जाता है। साधुसंगति, आध्यात्मिक चिन्तन-मनन से इनके आत्मज्ञान का विकास हुआ था। ऐसा कहा जाता है कि कबीर विवाहित थे, उनकी पत्नी का नाम लोई और पुत्र का नाम कमाल था। ये अपने समय के महान् सन्त तथा क्रान्तिकारी पुरुष थे। इनका निधन वि. संवत् 1575 में मगहर में हुआ माना जाता है। ये निर्गुण ज्ञानमार्गी शाखा के प्रवर्तक सन्त थे।

कबीर की वाणी को ‘बीजक’ नामक ग्रन्थ में संकलित किया गया है। इसके तीन भाग हैं-‘रमैनी’, ‘सबद’ और ‘साखी’। इनकी वाणी का संग्रह इनके शिष्यों के द्वारा किया गया माना जाता है।

पाठ-परिचय-प्रस्तुत पाठ में कबीर की ‘गुरु-महिमा’ से सम्बन्धित साखियाँ संकलित हैं। ये ‘गुरुदेव कौ अंग’ से ली गई हैं। इनमें कबीर ने अपने सद्गुरु की महिमा का उल्लेख अनेक प्रकार से किया है।

दोहे-शीर्षक से कुछ साखियाँ विविध भावों पर आधारित हैं, जिसमें पवित्र प्रेमाभक्ति, ज्ञान-साधना एवं परमात्मा से आत्मा की अभेदत्रा आदि का वर्णन किया गया है। इन सभी साखियों से कबीर की ज्ञान-साधना और प्रेम-तत्त्व का चिन्तन व्यक्त हुआ है।

सप्रसंग व्याख्याएँ गुरु-महिमा

(1) सतगुरु की महिमा अनँत, अनँत किया उपगार।
लोचन अनंत उगाड़िया, अनँत दिखावणहार।

कठिन शब्दार्थ-अनंत = असीम्। उपगार = उपकार। लोचन = नेत्र। उगाड़िया = खोल दिये। दिखावणहार = दिखाने या साक्षात्कार कराने वाला।

प्रसंग-यह साखी सन्त कवि कबीर द्वारा रचित ‘गुरु-महिमा’ शीर्षक से ली गई है। इसमें कबीर ने गुरु की महिमा का बखान किया है।

व्याख्या-कबीरदास कहते हैं कि सच्चे गुरु की महिमा का क्या उल्लेख किया जाए। उनकी महिमा अपार है। वे अपने शिष्यों पर अगणित उपकार करते हैं और रात-दिन शिष्यों पर असीम कृपा करते रहते हैं। गुरु की महान् कृपा तो इस बात में है कि वे ज्ञान-नेत्रों को अनन्त दिशाओं में खोल देते हैं जिससे शिष्य को अनन्त ज्ञान प्रकाश दिखाई देने लगता है। तत्त्वज्ञ शिष्य को फिर रोम-रोम से (अनन्त नेत्रों से) परम तत्त्व (ब्रह्म) का साक्षात्कार होने लगता है। गुरु द्वारा प्रदत्त ज्ञान ही वास्तव में आँखें खोल देने वाला होता है।

विशेष-
(1) उपनिषदों में ज्ञान का कारण, ज्ञेय तथा ज्ञान की अवधि की अनन्तता का उल्लेख मिलता है। कबीर ने उसी तत्त्व-ज्ञान का वर्णन किया है। (2) गुरु को ज्ञान-चक्षु खोलने वाला बताया गया है।

(2) सतगुर साँचा सूरिवाँ, सबद जु बाह्या एक।
लागत ही मैं मिलि गया, पड्या कलेजै छेक।

कठिन शब्दार्थ-साँचा = सच्चा, वास्तविक। सूरिवाँ = शूरवीर। बाह्या = बेधन किया। पड्या = पड़ गया। छेक = दूरी, छेद। मैं = भूमि।

प्रसंग-यह साखी कबीरदास द्वारा रचित ‘गुरु की महिमा’ से उद्धृत है। इसमें सद्गुरु के ज्ञानोपदेश का प्रभाव बतलाया गया है।

व्याख्या-कबीरदास कहते हैं कि सद्गुरु सच्चा शूरवीर है। जिस प्रकार सच्चा शूरवीर एक ही बाण में काम-तमाम कर देता है, उसी प्रकारे गुरु के एक शब्दज्ञान रूपी तीर से शिष्य भूमि में मिल गया, अर्थात् उसके भीतर का अहम् समाप्त हो गया। गुरु के एक शब्द का इतना व्यापक प्रभाव है कि साधक के हृदय में इस शब्द रूपी बाण के लगते ही अहंकार तो विलीन हो जाता है और चित्त पर वह शब्द रूपी बाण अपना अचूक प्रभाव छोड़ता है जिससे वह विषय-वासना से दूर हो जाता है।

विशेष-
(1) गुरु के बाण के प्रहार से हृदय में ज्ञान-विरह का भाव जाग जाता है।
(2) ‘मैं मिलि गया’ अर्थात् अहंभाव विलीन हो गया, ईश्वर से एकाकार हो गया।

(3) चौसठ दीवा जोइ करि, चौदह चंदा मांहि।
तिहिं घरि किसको चानि, जिहि घरि गोविन्द नांहि।

कठिन शब्दार्थ-दीवा = दीपक, ज्ञानालोक। जोइ करि = प्रकाशित कर। चानिण = उजाला। तिहिं = उस, वहाँ।

प्रसंग-यह साखी कबीर द्वारा रचित ‘गुरु महिमा’ शीर्षक से उद्धत है। इसमें गुरु द्वारा दिये गये ज्ञान का महत्त्व बताया गया है।

व्याख्या-कबीरदास कहते हैं कि चौंसठ कलाओं रूपी दीपक जलाने एवं चौदह विद्याओं रूपी चन्द्रमा के प्रकाशित होने से भी उसके हृदय रूपी घर में किसका प्रकाश है, जिसमें गोविन्द का निवास नहीं है। अर्थात् जिसके हृदय में ज्ञान का प्रकाश एवं भक्ति नहीं है, उसमें ईश्वर भी नहीं है।

विशेष-
(1) विद्याएँ चौदह तथा कलाएँ चौंसठ मानी गई हैं। इन सभी विद्याओं और कलाओं में भगवान् का प्रकाश विद्यमान है।
(2) गुरु की कृपा से सच्चा ज्ञान मिलता है, जिससे ईश्वरीय अनुभूति होती

(4) थापणि पाई थिति भई, सतगुरु दीन्हीं धीर।
कबीर हीरा बणजिया, मानसरोवर तीर।

कठिन शब्दार्थ-थापणि = स्थापना, प्रतिष्ठा। थिति = स्थायित्व, स्थिति। धीर = सुदृढ़। बणजिया = व्यापार करने लगा।

प्रसंग-यह साखी कबीर द्वारा रचित ‘गुरु महिमा’ शीर्षक से उद्धत है। इसमें गुरु की महिमा बताते हुए कबीर कहते हैं कि गुरु ने माया और संशय के प्रभाव को विफल कर दिया है।

व्याख्या-कबीर कहते हैं कि गुरु से स्वरूप-प्रतिष्ठा का उपदेश सुनने से साधक (मैं) अपने स्वरूप में स्थित हो गया। सद्गुरु ने धैर्य बँधाया तो निष्ठा और अधिक परिपक्व हो गई। अब कबीरदास मानसरोवर के तट पर हीरे का व्यापार करने लगा है। आशय यह है कि हीरा परमानन्द का या परम ब्रह्म का ही प्रतीक है। मानसरोवर ब्रह्माण्ड का प्रतीक है। हृदयं में ज्ञान की स्थापना होने से कबीर ब्रह्मानन्द में लीन होकर प्रसन्नता की मुद्रा में अपने अन्त:करण में आनन्द ले रहा है।

विशेष-
(1) मानसरोवर शुद्ध चैतन्य स्वरूप अन्त:करण की वृत्ति है। उसके तट पर जीव आनन्द में हिलोरे ले रहा है। यह हीरे का व्यापार है।
(2) यहाँ ‘हीरा’ परमानन्द के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है।
(3) हीरा का व्यापार करना तथा हीरा खरीदनी सिद्ध समाज में परम-तत्त्व की उपलब्धि का प्रतीक है। (4) प्रतीकात्मक एवं पारिभाषिक शब्दावली प्रयुक्त है।

(5) पासा पकड़ा प्रेम का, सारी किया सरीर।
सतगुरु दाव बताइयो, खेले दास कबीर।

कठिन शब्दार्थ-पासा = खेल के पाँसे। सारी = गोटी।

प्रसंग-यह साखी कबीर द्वारा रचित ‘गुरु-महिमा’ शीर्षक साखियों से लिया गया है। इसमें सद्गुरु के निर्देशानुसार भक्ति करने का वर्णन किया गया है।

व्याख्या-कबीरदास कहते हैं कि मैंने प्रेम के पाँसे बना लिये हैं और इस शरीर की गोटी बना ली है। मुझे मेरे सद्गुरु इस खेल की चाल (दाँव) बता रहे। हैं और मैं परमात्मा की भक्ति का खेल खेल रहा हूँ, अर्थात् परमात्मा की भक्ति में जीवन रूपी खेल खेल रहा हूँ।

विशेष-
(1) चौपड़ के खेल में पाँसे फेंककर दाँव दिया जाता है और उसी के अनुसार गोटियों की चाल बढ़ती है। यहाँ कबीर ने जीवन को चौपड़ का खेल बताया है।
(2) सद्गुरु के निर्देशानुसार भक्ति करने का वर्णन हुआ है।

(6) माया दीपक नर पतंग, भ्रमि भ्रमि इवै पडंत।
कहै कबीर गुर ग्यान थै, एक आध उबरंत।

कठिन शब्दार्थ-नर = मनुष्य, जीव। पतंग = पतंगा। भ्रमि भ्रमि = चक्कर काटकर, भ्रम में पड़कर। उबरंत = उबर जाते हैं। माया = संसार।

प्रसंग-यह अवतरण कबीरदास द्वारा रचित ‘गुरु-महिमा’ से सम्बन्धित साखियों से लिया गया है। इसमें गुरु को सांसारिक माया-मोह से मुक्ति दिलाने वाला बताया गया है।

व्याख्या-कबीरदास कहते हैं कि माया रूपी दीपक के लिए नर (जीव) पतंगा रूप है। मानव (जीव) घूम-घूम कर अनेक योनियों में भटकता हुआ अर्थात् अज्ञान से भ्रमित हुआ इसी आग में ऐसे ही जलता है। केवल गुरु के द्वारा प्रदत्त ज्ञान से कोई एक-आध ही इस आग से बच पाता है।

विशेष-(1) गुरु के ज्ञान से भ्रम (अज्ञान) दूर हो जाता है, फिर जीव का भटकना बन्द हो जाता है और माया से मुक्ति मिल जाती है।
(2) ‘माया, नर, पतंगा’ इन सभी का प्रयोग प्रतीकात्मक हुआ है।

(7) कोटि कर्म पल मैं करे, यहु मन विर्षिया स्वादि।
सतगुरु सबद न मानई, जनम गवायो बादि।

कठिन शब्दार्थ-कोटि = करोड़। विषिया = विषय-भोग। सबद = शब्द, बताया गया ज्ञान। बादि = व्यर्थ।

प्रसंग-यह साखी कबीर द्वारा रचित ‘गुरु-महिमा’ शीर्षक से उद्धृत है। इसमें गुरु से ज्ञान न मिलने से जीवन-जन्म को व्यर्थ गंवाने का वर्णन किया गया है।

व्याख्यो-कबीरदास कहते हैं कि यह मन विषय-वासना का स्वाद चख लेने से भ्रमित हो जाता है और पल भर में अनेक अनुचित काम कर लेता है। उस दशा में यह गुरु के शब्दों को नहीं मानता है अर्थात् उनके ज्ञानोपदेश नहीं सुनता है और अपना जन्म या जीवन व्यर्थ ही गंवा देता है।

विशेष-
(1) मनुष्य योनि में ही ईश्वर की सच्ची भक्ति और परमात्मा का ज्ञान हो सकता है। जीवन को सफल बनाने के लिए ज्ञान-चेतना जरूरी है।
(2) गुरु-उपदेश का महत्त्व बताया गया है।

(8) गुरु गुरु में भेद है, गुरु गुरु में भाव।
सोई गुरु नित बन्दिये, जो शब्द बतावे दाव।

कठिन शब्दार्थ-गुरु = गुरु, ज्ञानी, भारी। नित = हमेशा। बन्दिये = वन्दना करें।

प्रसंग-यह साखी कबीर द्वारा रचित ‘गुरु-महिमा’ शीर्षक से ली गई है। इसमें गुरु का महत्त्व नये ढंग से बताकर उसकी वन्दना करने के लिए कहा गया

व्याख्या-कबीरदास कहते हैं कि सामान्य गुरु एवं ज्ञानी गुरु में अन्तर है। ज्ञानी गुरु में ज्ञान-साधना एवं परम-तत्त्व की साधना का भाव अधिक रहता है। इसलिए जो गुरु सांसारिक जीवन में परमात्मा-प्राप्ति का दाँव बतावे, जीवन रूपी खेल में माया से मुक्ति का ज्ञान दे, उसी गुरु की वन्दना करनी चाहिए।

विशेष-
(1) जीवन को चौसर का खेल बताकर सद्गुरु का दाँव बताने वाला अर्थात् सच्चा ज्ञानदाता बताया गया है।
(2) ‘गुरु गुरु’ में शब्दगत व अर्थगत भेद द्रष्टव्य है।

(9) गुरु बिन माला फेरते, गुरु बिन देते दान।
गुरु बिन सब निष्फल गया, जो पूछो वेद पुरान।

कठिन शब्दार्थ-निष्फल = व्यर्थ। पुरान = पुराण।

प्रसंग-यह साखी कबीरदास द्वारा रचित ‘गुरु-महिमा’ शीर्षक से उद्धत है। इसमें गुरु-कृपा के बिना जीवन को निष्फल बताया गया है।

व्याख्या-कबीरदास कहते हैं कि जो लोग गुरु से ज्ञान प्राप्त किये बिना माला जपते हैं और गुरु के निर्देश के बिना दान देते हैं अर्थात् परमात्मा की भक्ति करते हैं, उनका सब कुछ निष्फल चले जाता है। यह बात वेद-पुराणों में भी कही गयी है।

विशेष-
(1) गुरु की महिमा के लिए वेदों एवं पुराणों का उल्लेख परम्परानुसार किया गया है।
(2) माला फेरना एवं दाने देना वैसे अन्धविश्वास है, जिसका कबीर ने खण्डन भी किया है।

(10) कोटिन चन्दा ऊगवें, सूरज कोटि हजार।
सतगुरु मिलिया बाहरा, दीसे घोर अँधार।

कठिन शब्दार्थ-कोटिन = करोड़ों। ऊगवे = उदित होवें। बाहरा = अभाव। दीसे = दिखाई दे। अँधार = अँधेरा।

प्रसंग-यह साखी कबीर द्वारा रचित ‘गुरु-महिमा’ शीर्षक से ली गई है। इसमें गुरु से ज्ञान नहीं मिलने से संसार अन्धकारमय लगने का वर्णन है।

व्याख्या-कबीर कहते हैं कि चाहे करोड़ों चन्द्रमा उदित हो जावें और करोड़ों सूर्य प्रकाशित होवें, परन्तु जब तक सद्गुरु नहीं मिल पाता है, तब तक सब ओर घोर अंधकार दिखाई देता है। अर्थात् सद्गुरु द्वारा ज्ञान-चक्षु खोले जाते हैं, ज्ञानचक्षु के बिना सर्वत्र अँधेरा दिखाई देता है। विशेष-(1) गुरु द्वारा दिये गये ज्ञान को करोड़ों सूर्यों से भी प्रखर बताया गया है। (2) गुरु की महिमा का उल्लेख आस्थापूर्वक हुआ है।

(11) ऐसे तो सतगुरु मिले, जिनसे रहिये लागे।
सबही जग शीतल भयो, जब मिटी आपनी आग।

कठिन शब्दार्थ-लाग = अपनत्व। आग = सन्ताप, सांसारिक कष्ट।

प्रसंग-यह अवतरण कबीर द्वारा रचित ‘गुरु-महिमा’ से उद्धृत है। इसमें गुरु को सांसारिक तापों को मिटाने वाला बताया गया है।

व्याख्या-कबीरदास कहते हैं कि उन्हें ऐसे सद्गुरु मिले, जिनसे उनका अपनत्व या पूरी तरह लगाव बना रहा। इससे सांसारिक ताप अर्थात् दैहिक, दैविक व भौतिक सन्ताप मिलने पर भी अपने लिए सारा संसार शीतल अर्थात् सुखद बन गया।

विशेष-
(1) गुरु-कृपा से सांसारिक दाहों से मुक्त होने का वर्णन आस्थापूर्वक किया गया है।
(2) ‘आग’ का प्रयोग प्रतीकात्मक हुआ है।

(12) यह तन विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान।
सीस दिये जो गुरु मिलें, तो भी सस्ता जान।

कठिन शब्दार्थ-बेलरी = बेल। तन = शरीर। सीस = सिर।

प्रसंग-यह साखी कबीर द्वारा रचित ‘गुरु-महिमा’ शीर्षक से उद्धृत है। इसमें गुरु को अमृत की खान बताकर ज्ञान-प्राप्ति का सन्देश दिया गया है।

व्याख्या-कबीरदास कहते हैं कि यह शरीर माया-मोह से ग्रस्त रहने से विष। की बेल जैसा है और गुरु अमृत की खान के समान कल्याणकारी है। इसलिए अपना सिर अर्थात् सर्वस्व अर्पण करके भी यदि ऐसे सद्गुरु मिल जावें, तो भी इसे सस्ता सौदा समझना चाहिए।

विशेष-
(1) ‘सीस दिये’ का आशय सर्वस्व अर्पण करना है, यह एक मुहावरा जैसा है।
(2) विषय-भोगों से मुक्ति एवं ज्ञान-प्राप्ति के लिए गुरु की कृपा परमावश्यक बताई गई है।

(13) गुरु से ज्ञान जो लीजिए, सीस दीजिए दान।
बहुतक भोंदू बह गये, राख जीव अभिमान।

कठिन शब्दार्थ-बहुतक = बहुत सारे। भोंदू = मूर्ख। अभिमान = घमण्ड।

प्रसंग-यह साखी कबीर द्वारा रचित ‘गुरु-महिमा’ शीर्षक से उद्धत है। इसमें हर दशा में गुरु से ज्ञान प्राप्त करने के लिए कहा गया है।

व्याख्या-कबीरदास कहते हैं कि अपना सिर देकर भी, अर्थात् सर्वस्व समर्पण करके भी गुरु से ज्ञान प्राप्त कर लो। गुरु से ज्ञान प्राप्त करने से बहुत सारे मूर्ख तर गये और जीव की चैतन्यता की रक्षा कर सके।

विशेष-
(1) चैतन्य दशा में ही ज्ञान से ज्ञेय की साधना हो सकती है। कबीर का इसमें यही भाव है।
(2) ‘सीस दान देना’ एक लक्ष्यार्थ प्रयोग है।

(14) गुरु समान दाता नहीं, जाचक शिष्य समान।
चार लोक की संपदा, सो गुरु दीन्हीं दान।

कठिन शब्दार्थ-दाता = देने वाला। जाचक = याचक, परखने वाला। संपदा = धन-वैभव।

प्रसंग-प्रस्तुत अवतरण कबीर द्वारा रचित ‘गुरु-महिमा’ से सम्बन्धित है। इसमें गुरु की उदारता एवं कृपा का वर्णन किया गया है।

व्याख्या-कबीर कहते हैं कि गुरु के समान कोई दाता नहीं है तथा शिष्य के समान कोई याचक नहीं है। शिष्य को योग्य समझकर गुरु ने उसे चारों लोकों की सम्पदा उदारता से दे दी है। अर्थात् योग्य शिष्य को गुरु सब कुछ दे देता है।

विशेष-
(1) शिष्य योग्य हो, तो गुरु उसे सभी लोकों का सुख-वैभव दे सकता है, उसे परम-पद की प्राप्ति का मार्ग बता सकता है।
(2) कबीर ने तीन की जगह चार लोक बताये हैं।

(15) सतनाम के पटतरे, देवे को कछु नाहिं।
क्या ले गुरु संतोषिये, हौंस रही मन माहिं।

कठिन शब्दार्थ-पटतरे = समतुल्य, बदले में। देवे को = देने के लिए। हाँस = उल्लास, इच्छा।

प्रसंग-यह साखी कबीर द्वारा रचित ‘गुरु-महिमा’ शीर्षक से ली गई है। इसमें गुरु की महिमा का बखान करते हुए कबीर कहते हैं कि

व्याख्या-शिष्य को गुरु के द्वारा सत्य नाम या परम तत्त्व रूपी बहुमूल्य वस्तु दी गई है। इससे शिष्य गुरु के प्रति बहुत ही कृतज्ञता अनुभव करता है। वह इसके बदले कोई समतुल्य वस्तु गुरु को भेंट देना चाहता है, परन्तु उसके मन में यह संकोच रहता है कि गुरु ने तो सत्य-नाम या राम-नाम का ऐसा मंत्र दिया है कि जिससे मोक्ष तक प्राप्त हो सकता है, किन्तु मैं जो भी वस्तु गुरु-दक्षिणा के रूप में दूंगा, वह उसकी तुलना में नगण्य ही रहेगा। वैसे भी गुरु तो सन्तोषी-स्वभाव के हैं, फिर इस मंत्र के बदले क्या दिया जाए? शिष्य के मन में यह प्रबल इच्छा बनी रहती है और इससे वह व्यथित हो जाता है।

विशेष-
(1) गुरु द्वारा दिया गया सत्य-नाम (ईश्वरीय ज्ञान) का मंत्र इतना महान् है कि उसके समतुल्य संसार की कोई भी वस्तु नहीं है। अतएव बदले में क्या दिया जावे, यह चिन्तनीय है। (2) गुरु की उदारता एवं महिमा का उल्लेख कर शिष्य द्वारा कृतज्ञता व्यक्त की गई है।

दोहे

(1) मन मथुरा दिल द्वारिका काया कासी जाणि।
दसवाँ द्वारा देहुरा तामैं जोति पिछांणि।

कठिन शब्दार्थ-काया = शरीर। देहुरा = देवालय, देवताओं का घर। दसवाँ द्वारा = दसों द्वार वाला। पिछांणि = पहचानी।

प्रसंग-प्रस्तुत दोहा (साखी) कबीर द्वारा रचित है। इसमें देवी-देवताओं के दर्शनों के लिए मन्दिर में जाना व्यर्थ बताया गया है।

व्याख्या-कबीर कहते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति का मन मथुरा, हृदय द्वारिका और शरीर काशी है। दस द्वारों वाला देवालय रूपी शरीर मनुष्य के पास रहता है। इसके अन्दर जो परमात्मा की ज्योति (आत्म-तत्त्व) है, उसे पहचानना चाहिए और उसी परमात्मा स्वरूप ज्योति की उपासना करनी चाहिए। अतः भगवान् के दर्शनों के लिए तीर्थों एवं देवालयों में भटकना व्यर्थ है।

विशेष-
(1) शरीर को ही मथुरा, द्वारिका तथा काशी के रूप में श्रेष्ठ देवालय एवं पवित्र तीर्थ बताया गया है।
(2) ‘जोति पिछांणि’ का आशय है कि आत्म-ज्योति को पहचानो, इसी में परमात्मा भी निवास करता है।
(3) ‘दसवाँ द्वारा’ का आशय शरीर में दस द्वार हैं-दो कर्ण छिद्र, दो नासा छिद्र, दो नेत्र, एक मुख, एक मलद्वार, एक मूत्रद्वार तथा दसवाँ ब्रह्म-रन्ध्र (कपाल में एक विवर जिससे प्राणान्त में जीव शरीर को छोड़कर निकल जाता है)। यह शरीर दस द्वारों वाला देवालय है।

(2) जब मैं था तब हरि नहिं अब हरि है मैं नाँहि।
सब अँधियारा मिटि गया जब दीपक देख्या माँहि।

कठिन शब्दार्थ-मैं = अहंकार। हरि = ईश्वर। अँधियारा = अंधकार, अज्ञान। माँहि = भीतर में।

प्रसंग-यह दोहा कबीर द्वारा रचित ‘साखियों’ से उद्धत है। इसमें बताया गया है कि अहंकार के कारण ईश्वर की प्राप्ति सम्भव नहीं है।

व्याख्या-कबीर स्पष्ट कहते हैं कि जब तक व्यक्ति के मन में अहंकार रहता है और अहंकारवश अपने आप को ही सब कुछ मानता हुआ आचरण करता है, तब ईश्वर की प्राप्ति सम्भव नहीं है। इसके विपरीत जब ईश्वर की प्राप्ति हो जाती है, तब जीव का अहंकार स्वयं ही मिट जाता है। यह स्थिति ठीक उसी प्रकार है, जिस प्रकार दीपक के प्रकाशित होते ही घर के भीतर का सब अन्धकार मिट जाता है।

आशय यह है कि संसार अज्ञान-अंधकार का घर है। जब शरीर के भीतर अन्तःकरण में ज्ञान का प्रकाश अर्थात् परमात्मा रूपी दीपक का प्रकाश जाग्रत हो जाता है, तब उस दिव्य प्रकाश से आत्मा प्रकाशित या ज्ञानालोक से भासित हो जाती है। अन्त:करण का अंधकार-अज्ञान मिट जाता है और आत्मा में परमात्मा का साक्षात्कार हो जाता हैं।

विशेष-
(1) अहंकार को त्यागने से आत्म-ज्ञान का आलोक होता है। संसार में अज्ञान रूपी अंधकार व्याप्त है। जीव भी अहंकार-अज्ञान से ग्रस्त रहता है। तब वह स्वयं को कर्त्ता, भोक्ता आदि सबै कुछ मानता है। परमात्मा के प्रकाश से अज्ञान। दूर होता है।
(2) ‘दीपक’ आन्तरिक दिव्य प्रकाश के लिए प्रयुक्त हुआ है।

(3) सातों सबद जु बाजते, घरि घरि होते राग।
ते मन्दिर खाली पड़े, बेसण लागे काग।

कठिन शब्दार्थ-सातों सबद = सप्त स्वर। राग = प्रेमपूर्ण गायन आदि। मन्दिर = घर या मकान। बेसण = बैठने।

प्रसंग-यह दोहा कबीर द्वारा रचित ‘साखियों से उद्धृत है। इसमें सांसारिक सुख-वैभव को नश्वर बताया गया है।

व्याख्या-कबीरदास कहते हैं कि जिन भवनों एवं महलों में निरन्तर सप्त स्वर में बाजे बजते रहते थे और तरह-तरह के राग हर समय गाये जाते थे, वे भवन एवं महल अब खाली पड़े हैं और अब वहाँ पर कौए बैठे हुए दिखाई देते हैं। आशय यह है कि समय सदा एक-सा नहीं रहता है। इसलिए प्रभु भक्ति में निमग्न रहकर जीवन सँवारना चाहिए, नश्वर संसार से मुक्ति का प्रयास करना चाहिए।

विशेष-
(1) संसार के भोग-विलास आदि सब कुछ नश्वर या क्षणभंगुर हैं, केवल परमात्मा ही शाश्वत सत्य है। अतः उसी में आसक्ति रखनी चाहिए। (2) ईश्वरीय भक्ति एवं परमात्मा-प्रेम का सन्देश व्यंजित हुआ है।

(4) आषड़ियां झांई पड़ी पंथ निहारि निहारि।
जीभड़ियां छाला पड्या राम पुकारि पुकारि।

कठिन शब्दार्थ-आषड़ियां = आँखों में। झांई = धुंधलापन, अँधेरापन। निहारि = देखकर। जीभड़ियाँ = जीभ पर।

प्रसंग-प्रस्तुत साखी कबीर द्वारा रचित भक्ति-भाव से सम्बन्धित है। इसमें प्रियतम परमात्मा की विरह-दशा का चित्रण किया गया है।

व्याख्या-कबीरदास कहते हैं कि अपने प्रियतम परमात्मा की प्रतीक्षा करतेकरते. उनके आने का मार्ग देखते-देखते आँखों में धुंधलापन छाने लगा है, अर्थात् दृष्टि एकदम मन्द पड़ गई है। मेरी जिह्वा पर भी राम को पुकारते-पुकारते छाले पड़ गये हैं। अर्थात् विरह-दशा दयनीय हो गई है, किन्तु अभी तक प्रियतम परमात्मा से मिलन नहीं हो पाया है।

विशेष-
(1) नेत्रों में झांई पड़ना तथा जीभ पर छाले पड़ना-ये दोनों ही स्थितियाँ विरहानुभूति की तीव्रता की व्यंजक हैं।
(2) प्रेमाभक्ति का स्वर मार्मिक है।

(5) पाँणी ही हैं हिम भया, हिम है गया बिलाइ।
जो कुछ था सोइ भया, अब कछू कह्या न जाइ।

कठिन शब्दार्थ-हिम = बर्फ। बिलाइ = विलीन। सोइ = वही, मूल रूप।

प्रसंग-यह दोहा सन्त कवि कबीर द्वारा रचित ‘साखियों’ से उद्धृत है। इसमें आत्मा-परमात्मा की अद्वैतता का सुन्दर प्रतिपादन किया गया है।

व्याख्या-कबीरदास कहते हैं कि पानी से ही बर्फ बनता है और बर्फ पिघलकर फिर पानी के रूप में विलीन हो जाती है। इस प्रकार जो तत्त्व अर्थात् पानी पहले था, वही बर्फ बनने के बाद फिर उसी मूल रूप में विलीन हो गया। है। इस सृष्टि में अलग तत्त्व कुछ नहीं कहा जा सकता है।

आशय यह है कि परमात्मा से ही जीवात्मा की उत्पत्ति होती है। इस उत्पत्ति में माया का सहयोग बना रहता है। अत: विशुद्ध चैतन्य जीव माया के कारण बद्ध जीव हो जाता है। जीव जब माया से मुक्ति का प्रयास करता है, तो आत्मबोध के कारण वह परमात्मा को अर्थात् अपनी विशुद्ध पूर्व स्थिति को प्राप्त हो जाता है। इस तरह परमात्मा- जीवात्मा में अद्वैतता के अलावा और कुछ नहीं है।

विशेष-
(1) जीवात्मा एवं परमात्मा की अद्वैतता का सुन्दर निरूपण हुआ है। अद्वैतवाद कबीर का प्रमुख सिद्धान्त माना जाता है। एक अन्य साखी में भी कबीर ने इसी तत्त्व का प्रतिपादन इस प्रकार किया है–

“जल मैं कुंभ, कुंभ मैं जल है, बाहर भीतर पानी।
फूटा कुंभ, जल जलहिं समाना, यह तथ कह्यौ ग्यानी।”

(2) अन्योक्ति के द्वारा विषय-प्रतिपादन प्रशस्य है।

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